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शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-78

अंत: प्रज्ञा से जीना-

प्रवचन-अट्ठहत्रवां 

प्रश्नसार:

1-कुछ विधिया बहुत विकसित लोगों के लिए लगती है।
2-अंतविंवेक को कैसे पहचानें?
3-क्या अंत:प्रज्ञा से जीने वाला व्यक्ति बौद्धिक रूप से कमजोर होगा?

पहला प्रश्न :
इन एक सौ बारह विधियों में से कुछ विधियां ऐसे लगती हैं जैसे विधियां परिणाम हो, जैसे कि जागतिक चेतना बन जाओ' या 'यही एक हो रहो' आदि। ऐसा लगता है जैसे इन विधियों को उपलब्ध होने के लिए भी हमें विधियों की जरूरत है। क्या ये विधियां बहुत विकसित लोगों के लिए थीं जो कि इंगित मात्र से ही ब्रह्मांडींय बन सकते थे?

विधियां बहुत विकसित लोगों के लिए नहीं थीं, बड़े निर्दोष लोगों के लिए थीं-भोले-भाले, सीधे-सादे श्रद्धा से भरे लोगों के लिए थी। फिर एक इशारा काफी है एक इंगित पर्याप्त है। तुम्हें कुछ करना पड़ता है क्योंकि तुम श्रद्धा नहीं कर सकते। तुम्हें भरोसा नहीं है। जब तक तुम कुछ करो न, तुम्हारे साथ कुछ हो नहीं सकता क्योंकि तुम कृत्य में विश्वास करते हो। यदि अचानक तुम्हारे बिना किए कुछ हो जाए तो तुम बहुत भयभीत हो जाओगे और उस पर विश्वास नहीं करोगे। तुम उसे नजर-अंदाज भी कर सकते हो; हो सकता है तुम अपने मन में इसकी छाप भी न बनने दो कि कभी ऐसा भी हुआ।



जब तक तुम कुछ करो न, तुम महसूस ही नहीं कर सकते कि तुम्हें कुछ हो रहा है। यह अहंकार का ढंग है। लेकिन एक सीधे-सादे आदमी के लिए एक निर्दोष, खुले मन के लिए बस एक सुझाव पर्याप्त है। क्यों? क्योंकि वास्तव में अंतरतम अस्तित्व कोई भविष्य में पाई जाने वाली वस्तु नहीं है, वह अभी और यहां है, वह तो मौजूद ही है।
जो भी पाना है वह पाया ही हुआ है ठीक अभी इसी क्षण में तुममें मौजूद है। यदि तुम बिना किसी प्रयास के श्रद्धा कर सकी तो वह प्रकट हो सकता है। इसके लिए समय का, तुम्हारे प्रयास का सवाल ही नहीं है। वह कोई बहुत दूर नहीं है जहां तुम्हें यात्रा करके जाना पड़े तुम ही हो वह। तुम इसे परमात्मा कह सकते हो निर्वाण कह सकते हो, या जो तुम कहना चाहो, यह तुम ही हो।
तो एक सुझाव पर भी अगर पूरी तरह से भरोसा कर लिया जाए तो यह प्रकट हो
सकता है। इसीलिए श्रद्धा को इतना महत्व दिया गया है। यदि कोई व्यक्ति गुरु में श्रद्धा कर सके तो बस एक संकेत, एक सुझाव, एक इंगित-और सब कुछ प्रकट हो जाएगा।
मूल बात जो समझने की है वह यह है : कुछ चीजें ऐसी हैं जिन्हें तुम ठीक अभी प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें पैदा करने में समय लगेगा। वे तुम्हारे साथ ही नहीं है। यदि मैं तुम्हें एक बीज दूं तो वह तत्क्षण एक वृक्ष नहीं बन सकता। समय की जरूरत होगी और तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, श्रम करना पड़ेगा। बीज एकदम से वृक्ष नहीं बन सकता। लेकिन तुम तो पहले से ही वृक्ष हो।
यह कोई बीज नहीं है जिस पर श्रम करना पड़े। यह एक वृक्ष है जो अंधेरे में छिपा है, जो ढंका है, जिसकी ओर तुम्हारा ध्यान नहीं है-बस इतना ही। तुम्हारा ध्यान न देना ही आवरण है। तुम बस उसकी ओर देख नहीं रहे। तुम कहीं और देख रहे हो इसलिए चूक रहे हो। श्रद्धा के किसी क्षण में गुरु तुम्हें बस एक इशारे से ही बता सकता है, कि यह देखो। और यदि तुम भरोसा कर सको, यदि तुम श्रद्धा से उस आयाम में देख सको तो वह तुम पर प्रकट हो जाएगा।
ये विधियां कोई विकसित लोगों के लिए नहीं हैं; ये भोले- भाले और सीधे-सादे लोगों के लिए हैं। विकसित लोग एक प्रकार से जटिल होते हैं। वे निर्दोष नहीं होते, उन्होंने श्रम किया है, कुछ पाया है और उसके पीछे उनका एक सूक्ष्म अहंकार होता है। वे बहुत कुछ जानते हैं इसलिए सरल नहीं हैं, वे श्रद्धा नहीं कर सकते। तुम्हें विवाद करना पड़ेगा और उन्हें राजी करना पड़ेगा, और फिर भी उन्हें कुछ प्रयास करना पड़ेगा।
एक निर्दोष मन से मेरा अर्थ है ऐसा मन जो विवाद नहीं करता, बिलकुल छोटे बच्चे जैसा है। बच्चा अपने पिता का हाथ पकड़ कर चलता है और उसे कोई भय नहीं होता। पिता जहां भी ले जा रहा है ठीक ही ले जा रहा होगा। पिता जानता है तो बच्चे को इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। वह भविष्य की नहीं सोचता, क्या होने वाला है इसकी उसे चिंता ही नहीं है। वह यात्रा का ही आनंद ले रहा है; परिणाम कोई समस्या नहीं है। पिता के लिए समस्या हो सकती है। वह हो सकता है भयभीत हो। हो सकता है वह सोच रहा हो कि कहीं वे रास्ता तो नहीं भूल गए हैं, कि वे ठीक रास्ते पर चल रहे हैं कि नहीं। लेकिन बच्चे के लिए यह कोई समस्या नहीं है। उसे पता है कि पिता जानता है। इतना पर्याप्त है। और जहां भी पिता जाएगा, वह उसके पीछे जाएगा, और वह इसी क्षण में आनंदित है।
एक श्रद्धायुक्त शिष्य, एक सरल मन, बच्चे की तरह है-और गुरु पिता से अधिक है। एक बार शिष्य समर्पण कर देता है तो फिर श्रद्धा करता है। फिर किसी भी क्षण जब गुरु को लगता है कि शिष्य तैयार है, कि शिष्य लयबद्ध हो गया है, तो वह बस एक संकेत दे देगा। मैंने एक झेन गुरु बोकोजू के बारे में सुना है। उसने बुद्धत्व पाने के लिए बड़ा श्रम किया, पर कुछ भी न हो पाया। वास्तव में कभी-कभी श्रम से कुछ भी नहीं हो पाता क्योंकि श्रम अहंकार के द्वारा होता है। और कठोर संघर्ष से अहंकार और भी मजबूत हो जाता है। जो भी किया जा सकता था उसने किया, लेकिन लक्ष्य जरा भी पास न आया। बल्कि और दूर ही होता गया, जहां से उसने शुरू किया था उससे भी दूर होता गया। वह परेशान था, हैरान था। तो वह अपने गुरु के पास आया।
गुरु ने कहा, 'कुछ वर्षों के लिए सब प्रयास, सब लक्ष्य, सब गंतव्य छोड़ दो। सब कुछ भूल जाओ और मेरे पास ही क्षण-क्षण जीओ। कुछ भी मत करो। बस खाओ, सोओ, चलो, और बस मेरे पास रहो। और कोई प्रश्न मत उठाओ-बस मुझे देखो, मेरी उपस्थिति को अनुभव करो।’ कोई प्रयास मत करो क्योंकि कुछ भी पाना नहीं है। इस पाने वाले मन को भूल जाओ क्योंकि कुछ पाने वाला मन सदा भविष्य में होता है, इसीलिए वह वर्तमान को चूकता चला जाता है। बिलकुल भूल ही जाओ कि तुम्हें कुछ पाना है।’
बोकोजू ने अपने गुरु में भरोसा किया। उसने गुरु के साथ ही रहना शुरू कर दिया। कुछ दिन, कुछ महीने विचार आए। विचार आते, धारणाएं आतीं, वह परेशान हो जाता और सोचता, 'मैं समय व्यर्थ गंवा रहा हूं। मैं कुछ भी नहीं कर रहा। बिना कुछ किए भला क्या हो सकता है? यदि इतने कठोर श्रम से न हो सका तो बिना कुछ किए इतनी आसानी से और क्या हो सकता है?' लेकिन फिर भी उसने गुरु में श्रद्धा रखी। धीरे-धीरे मन शिथिल हो गया और गुरु की उपस्थिति में उसे एक सूक्ष्म शांति का अनुभव होने लगा, गुरु की ओर से एक मौन उस पर बरसने लगा। उसे लगने लगा कि वह विलीन हो रहा है। कई वर्ष बीत गए। वह भूल ही गया कि वह था भी। गुरु केंद्र बन गया और वह छाया की भांति जीने लगा।
फिर चमत्कार संभव होता है, यह घटना अपने आप में ही एक चमत्कार है। एक दिन अचानक गुरु ने उसका नाम पुकारा, बोकोलू तुम यहां हो?' बस इतना ही कहा, बोकोनू तुम यहां हो?' और उसने कहा, 'हा, गुरुदेव।’ और कहा जाता है कि वह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया। इसमें तो कोई विधि भी नहीं थी, कोई संकेत तक नहीं था; बस, बोकोजू तुम यहां हो?' उसके पूरे अस्तित्व को पुकारा गया था, 'क्या तुम यहीं हो, कहीं और नहीं घूम रहे? कहीं और नहीं गए हुए? क्या तुम पूरी समग्रता से यहां उपस्थित हो?' और बोकोजू ने कहा, 'हा, गुरुदेव।’ उस 'ही' में वह पूरी तरह वहां उपस्थित हो गया।
कहते हैं कि गुरु हंसने लगा और बोकोजू भी हंसने लगा और गुरु ने कहा, 'अब तुम जा सकते हो। अब तुम बाहर जाकर अपनी उपस्थिति से लोगों की मदद कर सकते हो।’
बोकोजू ने कभी कोई विधि नहीं सिखाई। वह बस इतना ही कहता, 'बस मेरे पास रहो, उपस्थित रहो।’ और जब भी कोई शिष्य समस्वरता में होता वह शिष्य का नाम लेकर कहता,
'क्या तुम यहां हो?' यही एकमात्र विधि थी।
लेकिन इस विधि के लिए तुम्हारे मन के ठहराव की, एक सरलता की जरूरत होगी। कई विधियां हैं जो सरल हैं सरलतम हैं। जैसे, 'यही एक हो रहो।’ बस एक संकेत। लेकिन यह गुरु द्वारा किसी विशेष क्षण में कहा गया होगा।’यही एक हो रहो' सदा नहीं कहा जा सकता। यह एक विशेष लयबद्धता में कहा गया होगा जब शिष्य पूरी तरह से गुरु के साथ होगा, या पूरी तरह से अस्तित्व में लीन होगा। फिर गुरु कहता है, 'यही एक हो रहो' और अचानक पूरा अवधान बदल जाता है और अहंकार की अंतिम कड़ी भी समाप्त हो जाती है। ये विधियां अतीत में काम करती थीं, पर अब कठिन हो गई हैं बहुत कठिन हो गई हैं क्योंकि तुम बहुत हिसाबी-किताबी, बहुत चालाक हो गए हो। और चालाक होना निर्दोष होने के बिलकुल विपरीत है। तुम बहुत हिसाबी हो, तुम बहुत गणित जानते हो। यह हिसाब मन में चलता रहता है : तुम जो भी करो, सदा नपा-तुला होता है, योजनाबद्ध होता है। तुम कभी निर्दोष, खुले, ग्रहणशील नहीं होते; तुम अपने में जरूरत से ज्यादा विश्वास करते हो। इसीलिए तुम चूकते चले जाते हो। ये विधियां तुम्हारे लिए तब तक सहयोगी न होंगी जब तक तुम तैयार न हो जाओ। वह तैयारी बहुत लंबी भी हो सकती है और तुममें धैर्य बिलकुल नहीं है।
यह युग मूलत: पृथ्वी पर सबसे अधैर्यवान युग है। सब जल्दबाजी में हैं, समय के प्रति जागरूक हैं, सब चाहते हैं कि सब कुछ एकदम से हो जाए। ऐसा नहीं कि किया नहीं जा सकता, तत्क्षण भी सब कुछ किया जा सकता है। लेकिन इतने अधैर्य से यह असंभव है। मेरे पास लोग आते है ओर कहते है कि वे बस एक ही दिन में आए है। अगले दिन वे  साईंबाबा के पास जा रहे हैं, उसके बाद वे ऋषिकेश जाएंगे और फिर कहीं और जाएंगे। फिर वे बड़े निराश होकर लौटते हैं कि भारत के पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है।
इस बात का सवाल नहीं है कि भारत कुछ दे सकता है या नहीं, सवाल सदा इस बात का है कि तुम ले सकते हो या नहीं। तुम इतनी जल्दी में हो और सब कुछ एकदम से चाहते हो। बिलकुल इंस्टैंट काफी की तरह तुम इंस्टैंट ध्यान और इंस्टैंट निर्वाण की बात सोचते हो। यह संभव नहीं है। निर्वाण को किसी पैकेट में नहीं दिया जा सकता, इंस्टैंट नहीं दिया जा सकता। ऐसा नहीं है कि तत्क्षण इसे प्राप्त करना असंभव है, यह तत्क्षण मिल सकता है, लेकिन तत्क्षण केवल तभी मिल सकता है जब मन में जरा भी जल्दबाजी न हो। यही समस्या है। यह तत्क्षण, इसी क्षण घट सकता है। एक क्षण की भी जरूरत नहीं है। लेकिन बस उसे, जो समय के प्रति एकदम निश्चित है, जो अनंत तक प्रतीक्षा कर सकता है, उसके लिए यह तत्क्षण हो सकता है।
यह विरोधाभासी लगता है, पर ऐसा ही है। यदि तुम अनंत तक प्रतीक्षा कर सको तो प्रतीक्षा करने की जरूरत ही न रहेगी। लेकिन यदि तुम एक क्षण भी प्रतीक्षा न कर सको तो तुम्हें अनंत तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, क्योंकि जो मन कहता है, 'अभी तत्क्षण होना चाहिए वह मन इस क्षण से तो हट ही गया। वह दौड़ रहा है, वह कहीं भी रुकता नहीं है, बस हमेशा चल रहा है। जो मन हमेशा ही भाग रहा है वह निर्दोष नहीं हो सकता।
हो सकता है तुम्हें इसका पता न हो, लेकिन भोले-भाले लोग सदा समय से निश्चित होते हैं। समय उनके लिए धीरे चलता है। कहीं जाने की जल्दी नहीं है, वे दौड़ नहीं रहे। वे हर क्षण का आनंद ले रहे हैं। हर क्षण का सार निचोड़ रहे हैं। और हर क्षण के पास देने के लिए अपना आनंद है। लेकिन तुम इतनी जल्दी में हो कि तुम्हें दिया नहीं जा सकता। जबकि तुम यहां हो, तुम्हारे हाथ भविष्य में हैं, तुम्हारा मन भविष्य में है-तुम इस क्षण को चूक जाओगे। और सदा ऐसा ही होता रहेगा : तुम 'अभी' को हमेशा ही चूक जाओगे। और 'अभी' ही एकमात्र समय है। भविष्य झूठ है, अतीत बस एक स्मृति है। अतीत अब नहीं रहा, भविष्य अभी होना है; और हमेशा जो होता है वह अभी होता है। अभी एकमात्र समय है।
तो अगर तुम थोड़े शिथिल होने को, गैर-हिसाबी होने को, बच्चों की तरह खेलने को, अभी और यहीं होने को तैयार हो जाओ तो ये सरल विधियां चमत्कार कर सकती हैं। लेकिन यह सदी बहुत समय-बोध से भरी हुई है, बहुत टाइम कांशस है। इसीलिए तुम पूछते हो, 'ऐसा लगता है इन विधियों को उपलब्ध करने के लिए भी हमें और विधियों की जरूरत है।’
नहीं, ये विधियां ही हैं, परिणाम नहीं। ये परिणाम जैसी लगती हैं क्योंकि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि वे काम कर सकती हैं। वे केवल एक विशेष मन में काम कर सकती हैं। वे दूसरे तरह के मन में काम नहीं कर सकतीं। और वास्तव में, जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है कि ये विधियां अंतत: तुम्हें ऐसी निर्दोषता में ले जाएंगी जहां घटना घट सकती है। जब घटना घटती है तो इन विधियों के कारण घटती है क्योंकि ये विधियां तुम्हें उस निर्दोषता में ले जाएंगी-यदि निर्दोषता है तो।
लेकिन अब यह कठिन है क्योंकि कहीं भी निर्दोषता सिखाई ही नहीं जाती; सब जगह हम चालाकी सिखा रहे हैं। विश्वविद्यालय तुम्हें निर्दोष बनाने के लिए नहीं हैं, वे तुम्हें चालाक, धूर्त, हिसाबी-किताबी बनाने के लिए हैं। तुम जितने चालाक हो, जीवन के संघर्ष में उतने ही सफल होओगे। यदि तुम निर्दोष हो तो बेवकूफ सिद्ध होओगे। यदि तुम निर्दोष हो तो इस प्रतियोगी संसार में कहीं खड़े न रह पाओगे।
यही समस्या है, इस प्रतियोगी संसार में हो सकता है तुम कहीं न टिक पाओ, लेकिन निर्वाण के उस अप्रतियोगी जगत में अगर तुम निर्दोष हो तो ही तुम टिक पाओगे। यदि तुम हिसाबी-किताबी हो तो निर्वाण के जगत में प्रवेश नहीं पा सकोगे, लेकिन इस संसार में सफल होओगे। और इस संसार को ही हमने अपना लक्ष्य चुना है।
पुराने विश्वविद्यालय बिलकुल भिन्न थे, उनके दृष्टिकोण बिलकुल भिन्न थे। नालंदा, तक्षशिला, वे हिसाब नहीं सिखाते थे, वे चालाकी नहीं सिखाते थे। वे निर्दोषता सिखा रहे थे। उनके ढंग आक्सफर्ड या काशी या केम्बिज से भिन्न थे। वे बिलकुल भिन्न थे, वे एक अलग तरह के मन का निर्माण कर रहे थे।
तो अक्सर ऐसा होता था कि जो व्यक्ति तक्षशिला या नालंदा में पड़ता था वह भिक्षु या संन्यासी हो जाता था। जब तक वह विश्वविद्यालय से स्नातक होता था, संसार का त्याग कर देता था। वे विश्वविद्यालय संसार से विपरीत थे; वे तुम्हें किसी और आयाम के लिए तैयार कर रहे थे, वे तुम्हें किसी और चीज के लिए तैयार कर रहे थे। जिसे तुम इस संसार की भाषा में नहीं तौल सकते। ये विधियां उस तरह के लोगों के लिए थीं। या तो वे स्वभाव से निर्दोष थे या वे निर्दोष होने के लिए स्वयं को तैयार कर रहे थे।
जब जीसस ने अपने शिष्यों से कहा, 'यदि कोई तुम्हें एक गाल पर मारे तो दूसरा गाल
उसके सामने कर दो, ' तो वह क्या कहना चाह रहे हैं? वह तुम्हें निर्दोष बनाना चाह रहे हैं। कोई मूर्ख ही ऐसा करेगा। जब कोई तुम्हें एक गाल पर मारता है तो हिसाबी-किताबी मन कहेगा, तत्क्षण उसे और जोर से मारो।’ और असली हिसाबी-किताबी मन कहेगा, 'इससे पहले कि कोई तुम्हें मारे, तुम उसे मार दो।’ क्योंकि आक्रमण सर्वोत्तम सुरक्षा है। मैक्यावेली से पूछो-वह सबसे चालाक मस्तिष्क है-वह कहता है, 'इससे पहले कि कोई तुम पर आक्रमण करे, तुम उस पर आक्रमण कर दो क्योंकि आक्रमण सर्वोत्तम बचाव है। एक बार किसी ने तुम पर आक्रमण कर दिया तो तुम कमजोर पड़ गए; वह तुम पर पहले ही हावी हो गया। अब मुकाबला बराबरी का न रहा। वह तुमसे आगे है। तो शत्रु को आगे मत बढ़ने दो। इससे पहले कि कोई तुम पर आक्रमण करे, तुम आक्रमण कर दो।’
यह एक हिसाबी-किताबी मन है, एक चालाक मस्तिष्क है। मध्य यूरोप में हर राजा और हर राजकुमार ने मैक्यावेली को पढ़ा था; लेकिन वह इतना चालाक आदमी था कि कोई राजा उसे काम नहीं देता था। वह पढ़ा जाता था, उसकी किताब सत्ता की राजनीति की बाइबिल थी। सब राजकुमार उसकी पुस्तक 'दि प्रिंस' पढ़ते थे और उसका अनुसरण करते थे, लेकिन कोई राजा उसे काम पर रखने को तैयार नहीं था। क्योंकि वह बड़ा चालाक आदमी था, उसे दूर ही रखना अच्छा था। वह खतरनाक था; वह बहुत ज्यादा जानता था।
वह कहता था, 'पुण्य करना अच्छा नहीं है, पर पुण्यात्मा दिखाई देना अच्छा है। पुण्यात्मा बनो मत, पर हमेशा ऐसा दिखाओ कि तुम पुण्यात्मा है। फिर बड़ा लाभ होता है क्योंकि तब तुम दोनों ही ओर से लाभान्वित होते हो: पाप ओर पुण्य दोनों का लाभ उठाते हो।’ यह है हिसाबी-किताबी मन। ऐसा दिखावा करते रहो कि तुम पुण्यात्मा हो और सदा पुण्य की प्रशंसा करो, लेकिन वास्तव में कभी पुण्यात्मा मत बनो। सदा पुण्य की प्रशंसा करो, ताकि दूसरे सोचें कि तुम बड़े पुण्यात्मा हो। हमेशा पाप की निंदा करो, लेकिन पाप करने से डरो मत।
जीसस कहते हैं, 'जब कोई तुम्हें एक गाल पर मारे तो उसके सामने दूसरा गाल कर दो। और अगर कोई तुम्हारा कोट छीन ले तो उसे अपनी कमीज भी दे दो। और अगर कोई एक मील तक तुम्हें अपना बोझ ढोने को कहे तो तुम दो मील तक बोझ ढो देना।’
यह एकदम मूर्खता है, लेकिन बड़ी अर्थपूर्ण। यदि तुम इसे कर सको तो यह विधि तुम्हारे लिए है। जीसस अपने शिष्यों को तत्काल-समाधि के लिए तैयार कर रहे हैं। जरा सोचो इस बारे में। यदि तुम इतने निर्दोष हो सको, इतने श्रद्धा से भर सको कि दूसरा अगर तुम्हें मार रहा है तो तुम्हारे भले के लिए ही मार रहा होगा, तो दूसरा गाल भी उसके आगे कर दो और उसे मारने दो। दूसरे की सज्जनता में तुमने विश्वास किया, श्रद्धा की। कोई भी तुम्हारा शत्रु नहीं है। जब जीसस कहते हैं, 'अपने शत्रुओं को प्रेम करो, 'उनका यही अर्थ है। कोई भी तुम्हारा शत्रु नहीं है; कहीं भी शत्रु मत देखो।
इसका यह अर्थ नहीं है कि शत्रु नहीं होंगे, या ऐसे लोग नहीं होंगे जो तुम्हारा शोषण नहीं करेंगे। ऐसे लोग होंगे। वे तुम्हारा शोषण करेंगे। लेकिन शोषित हो जाओ, पर चालाक मत होओ। जरा इस आयाम से देखो : शोषित हो जाओ, चालाक मत होओ। शोषित हो जाओ, पर संदेह मत करो, अश्रद्धा मत करो, अपना भरोसा मत खोओ। यह उस बात से ज्यादा मूल्यवान है जिसके लिए दूसरे तुम्हें धोखा दे सकते हैं। कुछ भी इतना मूल्यवान नहीं है।
लेकिन हमारा मन कैसे काम करता है? अगर एक आदमी तुम्हें धोखा दे देता है तो पूरी मनुष्यता बेईमान हो जाती है। अगर एक आदमी बेईमान हैं-यथा तुम सोचते हो कि वह बेईमान है-तो तुम किसी आदमी में भरोसा नहीं कर सकते। फिर पूरी मनुष्यता बेईमान हो जाती है। अगर एक यहूदी कंजूस है तो पूरी यहूदी जाति कंजूस हो गई। अगर एक मुसलमान धर्मांध है तो सभी मुसलमान धर्मांध हैं। केवल एक आदमी काफी है सबसे हमारा भरोसा उठा लेने के लिए।
जीसस कहते हैं, 'अगर सब भी बेईमान हों, तब भी तुम्हें भरोसा नहीं खोना चाहिए क्योंकि भरोसा उस सबसे मूल्यवान है जो बेईमान लोग अपनी बेईमानी द्वारा तुमसे छीन सकते हैं।’ तो अगर तुम भरोसा खो देते हो तो वास्तव में तुम सब कुछ खो देते हो; वरना कुछ भी नहीं खोता।
ऐसे निर्दोष लोगों के लिए ये विधियों पर्याप्त हैं, वे कुछ और नहीं मांगेंगे। तुम कहो, और उनके साथ ऐसा हो जाता है। कई लोग बस गुरु को सुनकर ही समाधि को उपलब्ध हो गए हैं। लेकिन अतीत में, आज के युग में नहीं।
मैंने रिंझाई की एक कहानी सुनी है। वह एक गरीब भिक्षु, एक गरीब संन्यासी था। रात वह अपनी झोपड़ी में सो रहा था, तभी एक चोर घुस आया। वहां एक कंबल को छोड्‌कर और कुछ भी नहीं था, जो उसने ओढ़ा हुआ था। वह जमीन पर उस कंबल को ओढ़कर सो रहा था। वह बडी परेशानी में पड़ गया ओर सोचने लगा, बेचारा, इतनी दूर गांव से आया है। कि उसे कुछ मिल जाए और झापड़ में कुछ भी नहीं है। कितने दुख की बात है! अब न इसकी मदद कैसे की जाए? बस एक यह कंबल ही है।’ और वह कंबल में ही लेटा हुआ था, चोर में इतना साहस नहीं था कि कंबल उससे खींच ले। तो वह कंबल में से खिसक कर एक अंधेरे कोने में सरक गया। चोर कंबल लेकर चला गया। रात बड़ी सर्द थी, लेकिन रिंझाई खुश था कि चोर खाली हाथ नहीं गया।
फिर वह अपने झोपड़े की खिड़की में बैठ गया। रात सर्द थी और आकाश में पूरा चांद निकला हुआ था। उसने एक छोटी सी कविता लिखी। कविता में उसने कहा, 'अगर यह चांद भी मैं उस चोर को दे सकता तो दे देता।’
ऐसा हृदय! उसने खोया क्या? बस एक कंबल। और उसे मिला क्या? पूरा जगत, सब कुछ। उसे सरलता मिली, श्रद्धा मिली, प्रेम मिला। इस आदमी के लिए किसी विधि की जरूरत नहीं है। उसका गुरु कहेगा, 'बस देख, जाग, होश में आ।’ और वह ऐसा ही करेगा।

दूसरा प्रश्न :
अचेतन मन और अंतर्विवेक में कैसे अंतर करें? यह कैसे जाना जा सकता है कि अंतर्विवेक कार्य करने लगा है?

पहली बात, फ्रायड के कारण संसार में बड़ी गलतफहमियां पैदा हुई हैं, जैसे कि यह 'अचेतन'। फ्रायड ने इसे बिलकुल गलत समझा, इसकी बिलकुल गलत व्याख्या की। और वह आधुनिक मनोविज्ञान का आधार बन चुका है। फ्रायड के लिए अचेतन का अर्थ है चेतन का दमित हिस्सा। तो जो भी बुरा है, गंदा है, असभ्य है, वह दमित हो गया है। क्योंकि समाज उसकी आज्ञा नहीं देता, इसलिए उसे भीतर दबाना पड़ता है। फ्रायड कोई संत नहीं है; उसने अपने अचेतन में प्रवेश नहीं किया है। उसने बस मरीजों को देखा है। बीमार, असामान्य पागल, विक्षिप्त मन के इस अध्ययन से-वह भी बाहर-बाहर से-उसने निष्कर्ष निकाला कि चेतन मन के नीचे अचेतन मन है। उस अचेतन मन में वह सब कुछ दबा पड़ा है जो बचपन से दबाया गया है, जिसकी संसार ने निंदा की है। मन ने उसकी उपस्थिति को भूल जाने के लिए उसे दबा लिया है।
लेकिन वह है, और कार्य में रत है। और वह बहुत बलशाली है : तुम्हारे चेतन को बदलता रहता है, तुम्हारे चेतन के साथ चालें चलता रहता है। चेतन अचेतन के सामने बिलकुल नपुंसक है, क्योंकि जो भी दबाया गया है वह इतना शक्तिशाली है कि समाज उसे नहीं झेल सकता। समाज ने बस उसका दमन किया है, और समाज को पता भी नहीं है कि उसका क्या किया जाए।
उदाहरण के लिए काम वासना इतनी शक्तिशाली है कि अगर तुम उसे दबाओ नहीं तो तुम्हें पता ही नहीं चलेगा कि इसका करना क्या है। वह तुम्हें खतरनाक रास्तों पर ले जाएगी। और यह इतनी शक्तिशाली ऊर्जा है कि यदि इसे पूरी स्वतंत्रता दे दी जाए तो सारा समाज अराजक हो जाएगा। कोई विवाह नहीं ठहर सकेगा, कोई प्रेम नहीं ठहर सकेगा। अगर इसे मुक्त कर दिया जाए तो सब ओर अराजकता फैल जाएगी, क्योंकि तब मनुष्य पशुओं की तरह व्यवहार कने लगेगा। यदि कोई विवाह न हो, कोई परिवार न हो, तो पूरा समाज नष्ट हो जाएगा। समाज परिवार की इकाई पर निर्भर है; परिवार विवाह पर निर्भर है; विवाह काम के दमन पर निर्भर है।
तो जो भी स्वाभाविक है, शक्तिशाली है, उसे निंदित कर दिया गया है, ताकि तुम जबरदस्ती उसके लिए ग्लानि अनुभव करो और उससे लड़ते रहो। समाज ने केवल बाहर ही सिपाही नहीं बैठाए भीतर भी सिपाही बैठा दिए हैं-तुम्हारा अंतःकरण। एक दोहरा इंतजाम है ताकि तुम बच न सको, ताकि तुम स्वाभाविक न रह सको, तुम्हें अस्वाभाविक होना ही पड़े। अब आधुनिक मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि विक्षिप्तता सभ्यता का अंग है, कोई भी सभ्यता पागलपन के बिना नहीं हो सकती। लेकिन पागल लोग कष्ट भोग रहे हैं क्योंकि तुमने ऐसे नियम उन पर लाद दिए हैं कि उनकी नैसर्गिक प्रवृत्तियां कुचल दी गई हैं। वे अपंग हो गए हैं। ऐसा संभव है कि तुम्हारे पागल तुमसे अधिक शक्तिशाली हों, इसीलिए उनकी तरिक प्रवृत्तियों ने विद्रोह कर दिया है और उन्होंने अपनी बुद्धि, अपना मन, सब कुछ उतार फेंका है, इसीलिए वे पागल हो गए हैं।
समाज की एक बेहतर व्यवस्था, एक बेहतर संगठन, एक बेहतर प्रणाली, जो अधिक ज्ञान और समझ से भरी होगी, पागलों का उपयोग कर सकती है। वे जीनियस सिद्ध हो सकते हैं, वे बड़े प्रतिभाशाली लोग सिद्ध हो सकते हैं। वे प्रतिभाशाली हैं। लेकिन उनमें इतनी ऊर्जा है कि वे अपना दमन नहीं कर सकते। और समाज उन्हें स्वतंत्र रहने की आज्ञा नहीं देता क्योंकि वे खतरनाक हैं। फ्रायड इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि समाज के लिए अचेतन एक जरूरत है, एक दमित हिस्सा अनिवार्य है।
लेकिन तंत्र या योग के लिए यह अचेतन वास्तव में अचेतन नहीं है, बस चेतन और अचेतन के बीच एक छोटी सी पर्त है। यह अवचेतन है। चेतन ने उसे नीचे दबा लिया है, पर उसके बारे में तुम जानते हो। शायद तुम इसे पहचानना न चाहो, शायद तुम इसकी ओर ध्यान न देना चाहो, क्योंकि तुम्हें भय है कि तुमने अगर ध्यान दिया तो कहीं यह ऊपर न आ जाए। तो तुमने उसे अंधेरे में धकेल दिया है, पर उसके बारे में तुम जानते तो हो। फ्रायडियन अचेतन वास्तव में अचेतन नहीं है, बस अवचेतन है। यह अंधेरी रात नहीं है, प्रकाश में है, इसे तुम देख सकते हो।
तंत्र असली अचेतन की बात करता है, जिसे तुमने नहीं दबाया है बल्कि जो तुम्हारे अंतरतम में है। और तुम्हारा चेतन बस उसका एक हिस्सा है जो प्रकाश में आ गया है, उसका दसवां हिस्सा जो प्रकाश में आ गया है, चेतन बन गया है। नौ हिस्से नीचे छिपे हुए हैं। अचेतन वास्तव में तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का, तुम्हारे अस्तित्व का स्रोत है। तुम्हारा चेतन मन पूरे मन का दसवां हिस्सा है, और इस चेतन मन ने अपना एक केंद्र निर्मित कर लिया है : वह केंद्र है अहंकार। यह केंद्र झूठा है क्योंकि इसका पूरे मन से कोई संबंध नहीं है, यह पूरे मन का केंद्र नहीं है। यह बस चेतन हिस्से का, एक अंश का केंद्र है। अंश ने अपना केंद्र निर्मित कर लिया है और वह केंद्र माने चला जाता है कि वह पूरे अस्तित्व का केंद्र है।
नहीं, तुम्हारे पूरे मन का एक केंद्र है : वह केंद्र विवेक है। वह केंद्र अचेतन है और केवल तभी प्रकट होगा जब पाँच भाग, या आधा मन प्रकाश में आ जाए, फिर वह केंद्र, जो विवेक है, प्रकट होगा वह अचेत में छिपा है।
तो तुम्हें अचेतन से डरने की जरूरत नहीं है। फायडियन अचेतन से तुम डरे हुए हो। वह डरने की चीज है। लेकिन इस फायडियन अचेतन को रेचन के समय बाहर फेंका जा सकता है। इसीलिए रेचन पर मेरा इतना जोर है। इस फ्रायडियन अचेतन को रेचन में बाहर फेंका जा सकता है : जो भी तुम करना चाहते थे और कर नहीं पाए, उसे ध्यानपूर्वक करो। किसी और के साथ कुछ मत करो, क्योंकि इससे एक श्रृंखला बन जाएगी और तुम नियंत्रण में नहीं रहोगे। बस हवा में करो। यदि क्रोधित महसूस कर रहे हो तो हवा में क्रोध कर लो। अगर कामुक महसूस कर रहे हो तो उसे आकाश में फेंक दो। तुम्हें जो भी महसूस हो रहा हो, उसे भीतर से बाहर निकलने दो। उसे अभिव्यक्त करो। एक ध्यानपूर्ण रेचन तुम्हें फायडियन अचेतन से मुक्त कर देगा।
जो विधि मैं सिखा रहा हूं अगर उसका अनुसरण किया जाए, तो फायडियन अचेतन समाप्त हो जाएगा। और एक बार यह फायडियन अचेतन मिटे केवल तभी तुम वास्तविक अचेतन में प्रवेश कर सकते हो। अवचेतन केवल बीच में है : चेतन और अचेतन के बीच। जैसे तुम कमरे को बंद कर लो और अपना कहा उसमें फेंकते जाओ, ऐसे ही मन में तुम कूड़ा इकट्ठा करते जाते हो कचरेघर की तरह। फायडियन अचेतन बस एक कचराघर है।
कूड़े को भीतर मत फेंको, मैं कहता हूं बाहर फेंको। जब वह भीतर जाता है तो तुम विक्षिप्त हो सकते हो पागल हो सकते हो। जब कड़ा बाहर निकल जाएगा तो तुम ताजे हो जाओगे, युवा, निर्भार हो जाओगे।
इस युग के लिए रेचन अनिवार्य है। कोई भी बिना रेचन के अंतर्विवेक तक नहीं पहुंच सकता। और एक बार तुम गहन रेचन में पहुंच जाओ तो तुम्हें डरने की जरूरत नहीं है। फिर वास्तविक अचेतन स्वयं को प्रकट करना शुरू कर देगा; फिर वह तुम्हारे चेतन में प्रवेश कर जाएगा और तुम पहली बार अपने विशाल साम्राज्य को जानोगे। तुम इतने छोटे अंश नहीं हो तुम्हारा एक विशाल अस्तित्व है; और इस विशाल अस्तित्व का एक केंद्र है, वह केंद्र अंतर्विवेक है।
अचेतन और अंतर्विवेक में अंतर कैसे करें? फायडियन अचेतन और अंतर्विवेक में अंतर कैसे करें?
यदि तुम रेचन न करो तो कठिन होगा। लेकिन धीरे-धीरे तुम्हें अंतर स्पष्ट हो सकता है क्योंकि फायडियन अचेतन बस एक दमन है। यदि उद्दाम वेग से तुममें कुछ उठ रहा है तो जानना कि यह उद्दाम वेग इसीलिए है कि पहले तुमने उसे दबाया है। यदि कुछ अचानक तुममें उठे, बिना किसी वेग के, बस चुपचाप, शाति से, बिना किसी शोर के उठ आए तो जानना कि यह तुम्हारा वास्तविक अचेतन है। अंतर्विवेक से तुम्हारी ओर कुछ आ रहा है।
लेकिन तुम तभी कुशल होओगे जब रेचन से गुजरो। फिर तुम्हें स्पष्ट पता चलेगा कि क्या हो रहा है। जब भी फायडियन अचेतन से कुछ आएगा, तुम अशांत हो जाओगे, बेचैन हो जाओगे। और जब भी कुछ तुम्हारे अंतर्विवेक से आता है, उससे तुम्हें बड़ी शांति, बड़ी पवित्रता अनुभव होगी। इतना सुख, इतनी स्थिरता मिलेगी कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। तुम्हें स्पष्ट अनुभव होगा कि बस यही है। तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसके साथ लय में होगा, कोई प्रतिरोध नहीं होगा। तुम्हें पता होगा कि यह सही यह अच्छा यह सत्य अन्यथा तो तुम्हें कोई भी विश्वास नहीं दिला सकता। फायडियन अचेतन के साथ तुम कभी मौन नहीं हो सकते तुम कभी शांत और निश्चल नहीं हो सकते; अशांत ही रहोगे। यह एक तरह का रोग है जो उठ रहा है और उसके साथ एक संघर्ष चलेगा।
तो बेहतर होगा यदि तुम गहन रेचन करो, फिर फायडियन अचेतन धीरे-धीरे शांत हो जाएगा। और जैसे नदी में बुलबुले उठते हैं, पानी की सतह तक पहुंच जाते हैं, तुम्हें लगेगा तुम्हारे अस्तित्व के तल से बुलबुले उठ रहे हैं। वे तुम्हारे चेतन मन तक आ जाएंगे। लेकिन उनका आना ही तुम्हें एक स्पष्टता दे जाएगा, एक भाव, कि इससे सही और कुछ भी नहीं हो सकता। लेकिन इससे पहले कि यह हो सके तुम्हें फायडियन अचेतन से स्वयं को मुक्त करना होगा। और यह केवल तभी हो सकता है जब तुम जैसा हो रहा है वैसा होने देने की स्थिति में हो, क्योंकि यह अंतरतम इतना अहिंसक है कि स्वयं को जबरदस्ती आरोपित नहीं करेगा। तुम्हें उसे आमंत्रित करना होगा। इसे याद रखो वह स्वयं को आरोपित नहीं करेगा।
फायडियन अचेतन स्वयं को आरोपित करना चाहेगा। हर क्षण वह स्वयं को आरोपित करने का प्रयास कर रहा है और तुम उसे पीछे धकेल रहे हो। यही अंतर है। यह स्वयं को आरोपित करना चाहता है, सक्रिय होना चाहता है, तुम्हें कहीं ले जाना चाहता है, तुम्हारा शोषण करना चाहता है। और तुम उससे बचने की कोशिश कर रहे हो, उससे लड़ रहे हो।
वास्तविक अचेतन, अंतर्विवेक, आक्रामक नहीं है। यदि तुम उसे स्वतंत्रता दो, प्रार्थनापूर्वक उसे आमंत्रित करो तो एक निमंत्रित अतिथि की तरह तुम पर प्रकट होगा। तुम्हें होने देने की स्थिति में आना होगा। केवल तभी वह आएगा। जब उसे लगेगा कि तुम तैयार हो जब उसे लगेगा कि वह अस्वीकृत नहीं होगा, जब उसे लगेगा कि उसका स्वागत होगा, तब वह तुम्हारे पास आएगा।
तो तुम्हें दो चीजें करनी हैं : फायडियन अचेतन का रेचन और अंतर्विवेक के प्रति समर्पण का प्रशिक्षण। ये दो चीजें करने से तुम्हें अंतर पता चल जाएगा। अंतर तुम्हें सिखाया नहीं जा सकता, तुम्हें पता चल जाएगा। जब तुम्हें कुछ होगा, तुम्हें पता चल जाएगा।
तुम्हें कैसे पता चलता है कि खब तुम्हारे शरीर में दर्द है और कब तुम्हारा शरीर ठीक है? जब तुम्हारा पूरा शरीर स्वस्थ है और सिर में दर्द हो रहा है तो तुम्हें कैसे पता चलता है? तो तुम्हें कैसे अंतर पता चलता है? तुम्हें बस पता चलता है। तुम बता नहीं सकते, तुम बस जानते हो : तुम्हें पता है सिर-दर्द क्या है और स्वास्थ्य क्या है।
अंतर्विवेक तुम्हें सदा स्वास्थ्य की अनुभूति देगा और फायडियन अचेतन सदा सिर-दर्द की। फ्रायडियन अचेतन एक अराजकता है, एक अंतर्संघर्ष है, एक विषाद है, एक दमित पीड़ा है। तो यह जब भी प्रकट होगा, सामने आएगा, तुम्हें सब ओर से पीड़ा की अनुभूति देगा।
इस फायडियन अचेतन के कारण कई चीजें पीड़ादायी हो गई हैं, जो कि स्वाभाविक रूप से पीड़ादायी नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर, काम। क्योंकि समाज ने काम को दबाया है, वह पीड़ादायी हो गया है। नैसर्गिक जीवन की सबसे आनंदपूर्ण अनुभूतियों में से काम भी एक है। यदि तुम काम में जाते हो तो बेचैनी अनुभव करोगे, ग्लानि अनुभव करोगे, अंत में कमजोरी अनुभव करोगे। और तुम दोबारा कभी इसमें न जाने की कसम खाओगे। यह स्वाभाविक काम के कारण नहीं है, यह अचेतन के कारण है। काम पीड़ादायी हो गया है। उसे इतना दबाया गया है कि वह गंदा और पीड़ादायी हो गया है। अन्यथा यह सबसे नैसर्गिक सुख है। यदि किसी बच्चे को कभी भी न सिखाया जाए कि काम बुरा है और पाप है तो वह उसका आनंद लेगा, और हर बार वह पूरे शरीर में एक स्वास्थ्य उतरता हुआ अनुभव करेगा।
पुरुषों को स्त्रियों की अपेक्षा अधिक स्वास्थ्य अनुभव होता है, क्योंकि स्त्रियां अधिक दमित हैं। कोई यह नहीं कहता कि लड़का कुंवारा होना चाहिए लेकिन सभी चाहते हैं, वह लड़का भी चाहता है, कि जिस लड़की से वह विवाह करने वाला है वह कुंवारी होनी चाहिए। प्लेबॉय भी सोचते हैं कि लड़की कुंवारी होनी चाहिए। स्त्रियों के अचेतन को पुरुषों के अचेतन की अपेक्षा अधिक दबाया गया है, यही कारण है कि बहुत कम स्त्रियां ही काम के शिखर पर पहुंचती हैं। और वह भी पश्चिम में, पूर्व में तो पांच प्रतिशत से अधिक स्त्रियां काम से कोई आनंद प्राप्त नहीं कर पातीं। पंचानबे प्रतिशत स्त्रियां तो इससे ऊब चुकी हैं।
इसीलिए तो जब साधु-संत कहते हैं कि काम पाप है तो स्त्रियां सहमत हो जाती हैं। वे संतों के पास झुंड बना लेती हैं क्योंकि बात उन्हें जमती है, कि ठीक है। क्योंकि वे इतनी दमित हैं कि उन्हें इससे कभी कोई आनंद नहीं मिला। भारत में, प्रेम करते समय, यह माना जाता है कि स्त्रियों को हिलना भी नहीं चाहिए, बस लाश की तरह पड़े रहना चाहिए। यदि वे हिलती-दुलती हैं तो उनके पतियों को संदेह हो जाएगा कि वे काम का आनंद ले रही हैं और यह भली स्त्रियों का लक्षण नहीं है। भली स्त्री तो वह है जो कोई रस नहीं लेती।
पूरब में कहते हैं कि अगर तुम विवाह करना चाहते हो तो किसी भली स्त्री से विवाह करो; और अगर आनंद लेना चाहते हो तो किसी बुरी स्त्री से मित्रता कर लो क्योंकि केवल कोई बुरी स्त्री ही आनंद ले सकती है। यह दुर्भाग्य है। स्त्री से हिलने-डुलने की, सक्रिय होने की अपेक्षा नहीं है, उसे बस मुर्दे की तरह पड़े रहना है। वह आर्गाज्य के शिखर पर कैसे पहुंच सकती है, जब ऊर्जा गति ही नहीं कर रही?
और यदि वह उसका आनंद न ले सके तो निश्चित ही पति के विरुद्ध हो जाएगी और सोचेगी कि पति बुरा है। रोज भारतीय स्त्रियां मेरे पास आती हैं और कहती हैं कि वे काम से ऊब चुकी हैं और उनके पति उनको बार-बार संभोग के लिए बाध्य करते हैं। उन्हें यह अच्छा नहीं लगता, बहुत बुरा लगता है। और पतियों को इतना बुरा क्यों नहीं लगता? स्त्रियों को ही क्यों बुरा लगता है? इसका कारण है कि उनका अचेतन पुरुषों से अधिक काम-दमित है।
तो काम पीड़ादायी हो जाएगा। यदि तुमने उसे दबाया है तो वह एक पीड़ा बन जाएगा। कुछ भी पीड़ा बन सकता है; बस उसे दबा लो, यही एक युक्ति है, वह पीड़ा बन जाएगा। और कुछ भी आनंदपूर्ण बन सकता है; उसे बस अभिव्यक्ति दे दो, उसे दबाओ मत।
अभी तो तुम्हें बस इस फ्रायडियन अचेतन का ही पता है। तुम्हें वास्तविक अचेतन का तंत्र जिसे अचेतन कहता है उसका कोई पता नहीं है, इसीलिए तुम भयभीत हो। और भयभीत होने के कारण तुम समर्पण नहीं कर सकते, तुम नियंत्रण नहीं छोड़ सकते। तुम्हें पता है कि अगर तुमने नियंत्रण छोड़ा तो एकदम तुम्हारी दमित प्रवृत्तियों उठ खड़ी होंगी। तत्क्षण, जो भी तुमने दबाया है, तुम्हारे मन में उठ खड़ा होगा और तुम्हें कृत्य में उतरने के लिए मजबूर करेगा। इसीलिए तुम इतने भयभीत हो।
तो पहले रेचन की जरूरत है ताकि भय जा सके। और फिर तुम समर्पण कर सकते हो। और यदि तुम समर्पण कर दो तो एक बहुत शांत शक्ति तुम्हारे चेतन की ओर बहनी शुरू हो जाएगी। और तुम्हें एक स्वास्थ्य का अनुभव होगा, तुम्हें लगेगा जैसे तुम घर पहुंच गए, तुम्हें लगेगा जैसे सब ओर सौंदर्य है तुम अहोभाव से भर जाओगे।
'यह कैसे जाना जा सकता है कि अंतर्विवेक कार्य करने लगा है?'
यह पहला संकेत होगा : तुम्हें अच्छा लगने लगेगा, तुम्हें स्वयं के प्रति अच्छा लगने लगेगा। याद रखो, तुम्हें हमेशा अपने बारे में बुरा ही लगता है। हर कोई अपनी निंदा कर रहा है, हर कोई सोचता है कि वह बुरा है। और जब तुम खुद सोचते हो कि तुम बुरे हो तो तुम यह कैसे सोच सकते हो कि कोई और तुम्हें प्रेम करेगा? और जब तुम्हें कोई प्रेम नहीं करता, तुम दुःखी हो जाते हो।
लेकिन तुम स्वयं ही अपने को प्रेम नहीं करते। तुमने कभी अपने हाथ को प्रेम से नहीं छुआ, तुमने कभी अपने शरीर को प्रेम से अनुभव नहीं किया। तुमने कभी परमात्मा को धन्यवाद नहीं दिया कि उसने तुम्हें इतना सुंदर शरीर दिया है, इतनी सुंदर संरचना दी है। नहीं, तुम्हें बस बुरा लगता है। और धर्मों ने तुम्हें निंदा ही सिखाई है, यह शरीर पाप की गठरी है। तुम एक गठरी ढो रहे हो।
जब अचेतन मुक्त होगा, अचानक तुम पाओगे कि तुम स्वीकृत हो, तुम बुरे नहीं हो। कुछ भी बुरा नहीं है, पूरा जीवन एक गहन आशीर्वाद बन जाता है। तुम अहोभाव अनुभव करते हो। और जिस क्षण तुम धन्यभागी अनुभव करते हो, तुम्हारे आस-पास भी सभी अहोभाव से भर जाते हैं। तुम उन्हें आशीर्वाद दे सकते हो तुम सुखी हो सकते हो। क्योंकि तुम स्वयं को निंदित समझते हो, इसीलिए तुम्हें अपने बारे में बुरा लगता है और वही तुम दूसरों के बारे में भी सोचते हो। तुम किसी दूसरे के शरीर को कैसे प्रेम कर सकते हो, जब तुम अपने ही शरीर को प्रेम नहीं करते? यदि तुम अपने ही शरीर के विरुद्ध हो तो दूसरे के शरीर को कैसे प्रेम कर सकते हो?
तुम निंदा ही करोगे, गहरे में तुम निंदा ही करोगे। असल में, धर्मों ने तुम्हें बस भूत-प्रेत बनने को तैयार कर दिया है। वे नहीं चाहते कि तुम शरीर से प्रेम करो, वे बस तुम्हें अशरीरी आत्माएं बनाए रखना चाहते हैं। हर चीज की निंदा करनी है-और तुमने समझ लिया है कि जीवन ऐसा ही है।
मैंने बहुत से शास्त्रों में देखा है उनमें लिखा है कि तुम्हारे शरीर में और कुछ नहीं है, बस रक्त-मांस-मज्जा ही है-बस इसकी निंदा करने के लिए। मुझे नहीं मालूम कि जिन लोगों ने ये शास्त्र लिखे, वे क्या चाहते थे। क्या वे चाहते थे कि इसमें सोना भरा हो? चांदी भरी हो? हीरे भरे हों? या कुछ और? रक्त की निंदा क्यों है? रक्त में क्या बुराई है? रक्त तो जीवन है! लेकिन उन्होंने निंदा की है और हमने निंदा स्वीकार कर ली है। वे निश्चित पागल रहे होंगे, विक्षिप्त रहे होंगे।
जैन हमेशा कहते हैं कि उनके तीर्थंकरों ने कभी मल-मूत्र का त्याग नहीं किया। ये बुरी चीजें है। लेकिन मूत्र बुरा क्यों है? मूत्र की जगह तुम ओर क्या करना चाहते हो? ओर इसमें  बुरा- क्या है? लेकिन यह बड़ी बुरी बात है। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं क्योंकि पुरुष में काम-केंद्र और मूत्रांग एक ही है, इसलिए काम निंदित है। और स्त्रियों में काम-केंद्र बीच में है, एक तरफ मल-त्याग का केंद्र है दूसरी तरफ मूत्र-त्याग का, इसीलिए काम अच्छा नहीं हो सकता यदि वह दो गंदे बिंदुओं के बीच में हो। काम की निंदा इसीलिए हुई है क्योंकि मल की निंदा है। लेकिन हम निंदा को स्वीकार कर लेते हैं, और जब स्वीकार कर लेते हैं तो समस्याएं खड़ी हो जाती हैं।
विक्षिप्त लोगों द्वारा तुम्हारे सारे शरीर की निंदा की गई है। हो सकता है उन्होंने शास्त्र लिखे हों, पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। हो सकता है, वे बड़े महान नेता रहे हों। विक्षिप्त लोग हमेशा ही नेता होते हैं, इतने धर्मांध होने के कारण ही वे महान नेता हैं, क्योंकि उन्हें तुरंत ही अनुयायी मिल जाते हैं।
और दुनिया में हमेशा ऐसे लोग होते हैं जो धर्मांधता की पूजा करते हैं। कोई भी अगर बड़े जोर से कुछ कहता है तो लोग उसके पांव में गिर जाते हैं और कहते हैं कि यही असली नेता है। और हो सकता है कि वह बस विक्षिप्त हो, पागल हो। इन विक्षिप्त लोगों ने तुम्हारी निंदा की है, और तुमने उन्हें स्वीकार कर लिया है, तुम उनके द्वारा संस्कारित हो गए हो।
जब अचेतन तुममें बहेगा तो एक सूक्ष्म स्वास्थ्य उतर जाएगा। तुम्हें अच्छा लगेगा : जैसे सब कुछ स्वच्छ हो गया हो और सब कुछ दिव्य हो गया हो। तुम्हारा शरीर दिव्य से आता है और तुम्हारा रक्त भी, तुम्हारा मूत्र भी। सब कुछ दिव्य है। जब अचेतन तुममें बहता है तो सब कुछ दिव्य हो जाता है, आध्यात्मिक हो जाता है। कुछ भी बुरा नहीं है, कुछ भी निंदनीय नहीं है। यह तुम्हारा भाव होगा और तब तुम उड़ने लगोगे। तुम इतने हलके हो जाओगे कि तुम्हारे पांव जमीन पर नहीं पड़ेंगे। फिर तुम्हारे सिर पर कोई बोझ नहीं होगा। फिर तुम छोटी-छोटी बातों में भी बड़ा आनंद ले सकते हो। फिर हर सामान्य वस्तु सुंदर हो जाती है। लेकिन वह सौंदर्य तुम्हारा ही दिया हुआ है। तुम जो भी छुओगे सोना हो जाएगा, क्योंकि गहरे में तुम आनंद से भरे हुए हो।
यह पहली घटना तुम्हारे साथ घटेगी : अपने बारे में तुम्हें अच्छा लगने लगेगा। और जब अचेतन तुम्हारे चेतन में बहने लगेगा तो दूसरी बात यह घटेगी कि तुम संसार-उन्मुख कम हो जाओगे, कम बौद्धिक हो जाओगे और अधिक समग्र हो जाओगे। फिर जब तुम सुखी होओगे तो तुम बस इतना ही नहीं कहोगे कि तुम सुखी हो, तुम नाचोगे। बस इतना कहना कि 'मैं सुखी हूं, बड़ा नपुंसक है, अर्थहीन है। मैं ऐसे लोगों को देखता हूं जो कहते हैं, 'मैं सुखी हूं।’ लेकिन जरा उनके चेहरे देखो! मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो कहते हैं, 'मैं आपसे प्रेम करता हूं, लेकिन उनका शरीर कुछ भी अभिव्यक्त नहीं कर रहा। शब्द मुर्दा हैं, लेकिन हमने उन्हें जीवन के विकल्प के रूप में मान लिया है।
जब अचेतन तुममें बहता है तो यह अंतर होगा : तुम अपने समग्र अस्तित्व से जीओगे। जब तुम सुखी होओगे, तुम नाचोगे। तब तुम बस इतना ही नहीं कहोगे कि मैं सुखी हूं तुम सुखी होओगे। यह अंतर है। तुम यह नहीं कहोगे कि मैं सुखी हूं लेकिन यह कहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि तुम सुखी होगे ही। फिर किसी को यह कहने की जरूरत नहीं रहेगी कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं, तुम प्रेम हो जाओगे। तुम्हारा पूरा अस्तित्व इस भाव को प्रकट करेगा, तुम प्रेम से थिरकोगे। जो भी पास से गुजरेगा वह अनुभव करेगा कि तुम प्रेम करते हो; किसी को तुम्हारा हाथ छू जाएगा तो उसे लगेगा कि कोई सूक्ष्म ऊर्जा उसमें प्रवेश कर गई। तुम्हारी उपस्थिति में एक ऊष्णता होगी, एक सुख होगा।
यह दूसरी बात होगी : तुम समग्र हो जाओगे। जब विवेक तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा,
तुम समग्र हो जाओगे।

तीसरा प्रश्न
जब अंत-प्रज्ञा काम करने लगती है तो क्या उस अंत-प्रजा, उस अंतर्विवेक के प्रति समर्पण ही एकमात्र उपाय है? क्या अंत:प्रज्ञा के द्वारा जीता हुआ व्यक्ति सदा सफल होता है? आप सफलता और असफलता का मूल्यांकन कैसे करते हैं? क्या यह सत्य नहीं है कि अंत-प्रज्ञा से जीनने वाला व्यक्ति बौद्धिक रूप से कमजोर हो जाएगा?
अंतस को सक्रिय करने का एकमात्र उपाय समर्पण ही है।
'क्या अंतःप्रज्ञा के द्वारा जीता हुआ व्यक्ति सदा सफल होता है?'
नहीं, लेकिन वह सदा सुखी होता है, चाहे वह सफल हो या न हो। और अंतःप्रज्ञा से न जीता हुआ व्यक्ति सदा दुखी होता है चाहे वह सफल हो या न हो। सफलता कसौटी नहीं है क्योंकि सफलता कई चीजों पर निर्भर करती है। सुख है कसौटी, क्योंकि सुख केवल तुम पर निर्भर करता है। हो सकता है तुम सफल न हो सको क्योंकि दूसरे प्रतिद्वंद्वी भी होंगे। तुम चाहे अंतःप्रज्ञा से कार्य कर रहे हो, दूसरे हो सकता है कि अधिक धूर्तता से, चालाकी से, हिसाब से, हिंसा से कार्य कर रहे हों। शायद तुम सफल न हो सको।
कौन कह सकता है कि जीसस सफल हुए? सूली कोई सफलता नहीं है, सबसे बड़ी असफलता है। एक व्यक्ति जो मात्र तैंतीस वर्ष का हो, उसे सूली लग जाए यह किस तरह की सफलता है? कोई उनके बारे में नहीं जानता था। बस थोड़े से अनपढ़ गंवार लोग उनके शिष्य थे। उनकी कोई पद-प्रतिष्ठा, कोई ताकत नहीं थी। यह किस तरह की सफलता है? सूली को सफलता नहीं कहा जा सकता।
लेकिन वे खुश थे। वे पूर्णत: आनंदित थे, जब उन्हें सूली पर चढ़ाया गया, तब भी। और उनको सूली देने वाले वर्षों जीवित रहे, पर वे दुखी रहे। तो वास्तव में सूली पर कौन था? सवाल यह है। जिन्होंने जीसस को सूली पर चढ़ाया, क्या वे सूली पर थे? या जीसस, जिन्हें चढ़ाया गया? वह तो खुश थे। तुम सुख को कैसे सूली पर चढ़ा सकते हो? वह आनंदित थे। तुम आनंद को कैसे सूली पर चढ़ा सकते हो? तुम शरीर को तो मार सकते हो पर आत्मा को नहीं मार सकते। जिन्होंने उन्हें सूली पर चढ़ाया वे जीवित रहे, लेकिन उनका जीवन और कुछ नहीं बस एक लंबी घिसटने वाली सूली थी-दुख, घुटन और पीड़ा।
तो पहली बात, मैं यह नहीं कहता कि तुम अंतर्विवेक का अनुसरण करोगे तो सदा सफल होओगे-उन अर्थों में जिनमें संसार सफलता को मानता है; लेकिन जिन अर्थों में बुद्ध या जीसस सफलता मानते है उन अर्थों में तुम सफल होओगे। लेकिन वह सफलता तुम्हारे सुख, तुम्हारे आनंद से नापी जाती। भी हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, तुम सुखी रखेगे। चाहे संसार कहे कि तुम असफल रहे, चाहे संसार तुम्हें सफल कहे, हीरो बना दे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। चाहे कुछ भी हो, तुम सुखी रहोगे; तुम आनंदित रहोगे। मेरे देखे, आनंद ही सफलता है, इसीलिए मैं कहता हूं कि तुम हमेशा सफल होओगे।
लेकिन तुम्हारे लिए आनंद सफलता नहीं है तुम्हारे लिए सफलता कुछ और है। चाहे वह दुख ही हो। चाहे तुम्हें पता हो कि सफलता दुख लाएगी, तुम सफलता ही चाहोगे। राजनेताओं से पूछो, वे दुख में हैं। मैंने एक भी राजनेता नहीं देखा जो सुखी हो, वे दुखी हैं; और फिर भी ऊंची कुर्सी पर पहुंचने का प्रयास कर रहे हैं, सीढ़ी पर ऊंचे से ऊंचे चढ़ने का प्रयास कर रहे हैं। और जो ऊपर हैं वे भी दुखी हैं, और यह वे जानते हैं। लेकिन सफलता मिले तो हम दुखी होने के लिए तैयार हैं।
तो हमारे लिए सफलता क्या है? हमारे लिए सफलता है अहंकार की तृप्ति, आनंद नहीं। बस इतना ही कि लोग तुम्हें कहेंगे तुम सफल हो गए। चाहे तुमने सब खो दिया हो, चाहे तुमने अपनी आत्मा खो दी हो; चाहे तुमने वह सारी निर्दोषता खो दी हो जो तुम्हें आनंद देती है; शायद तुमने सारी शांति, सारा मौन खो दिया हो जो तुम्हें परमात्मा तक ले जाता है; शायद तुमने सब खो दिया हो और बस पागल हो गए हो-लेकिन संसार यही कहेगा कि तुम सफल हो गए हो।
संसार के लिए अहंकार का तृप्त होना ही सफलता है; मेरे लिए ऐसा नहीं है। मेरे लिए आनंदित होना सफलता है-चाहे कोई तुम्हारे बारे में जानता हो या न जानता हो। इसका कोई सवाल ही नहीं है कि कोई तुम्हें जानता है या नहीं, चाहे तुम बिलकुल अज्ञात, अनसुने, अनदेखे जीते हो। लेकिन यदि तुम आनंदित हो तो तुम सफल हो।
तो इस अंतर को याद रखो क्योंकि कई लोग होंगे जो अंतःप्रज्ञा से जीना चाहेंगे अंतर्विवेक को खोजना चाहेंगे, ताकि संसार में सफल हो सकें। उनके लिए अंतर्विवेक एक विक्षिप्तता बन जाएगा। पहली बात तो वे उसे खोज ही न पाएंगे। दूसरे, अगर वे खोज भी लें तो वे दुखी रहेंगे। क्योंकि उनका लक्ष्य है संसार की ओर से एक प्रत्यभिज्ञा, अहंकार की तृप्ति-आनंद नहीं।
अपने मन में स्पष्ट कर लो, सफलता-उमुख नहीं बनना है। सफलता संसार में सबसे बड़ी असफलता है। तो सफल होने का प्रयास मत करो, वरना तुम असफल हो जाओगे। आनंदित होने की सोचो। हर क्षण और-और आनंदित होने की सोचो। फिर चाहे पूरा संसार कहे कि तुम असफल हो, लेकिन तुम असफल नहीं होओगे। तुम सब कुछ पा लोगे।
बुद्ध अपने मित्रों, परिजनों, पत्नी, पिता, शिक्षकों और समाज की नजरों में असफल थे, पूरी तरह असफल थे। बस एक भिखारी बन गए थे। यह किस तरह की सफलता है? वह महान सम्राट हो सकते थे : उनमें वे सब गुण थे, उनके पास व्यक्तित्व था, उनके पास प्रतिभा थी। वे महान सम्राट बन सकते थे, लेकिन बस एक भिखारी बन गए। वह असफल थे, निश्चित ही। लेकिन मैं तुम्हें कहता हूं कि वह असफल नहीं थे। यदि वे सम्राट बन जाते तो असफल होते क्योंकि वे वास्तविक जीवन से चूक जाते। बोधिवृक्ष के नीचे उन्होंने जो पाया वह वास्तविक था और जो खोया वह अवास्तविक था।
वास्तविक के साथ तुम अंतर्जीवन में सफल होते हो; अवास्तविक के साथ... मैं नहीं जानता। यदि तुम अवास्तविक में सफल होना चाहते हो तो उन लोगों के मार्ग का अनुसरण करो जो चालाकी, धुर्तता, प्रतियोगिता, ईर्ष्या, हिंसा से काम कर रहे हैं। फिर उनके मार्ग पर चलो, अंतर्विवेक तुम्हारे लिए नहीं है। यदि तुम संसार में कुछ पाना चाहते हो तो अंतर्विवेक की मत सुनो। लेकिन तत्क्षण तुम्हें लगेगा कि चाहे तुम पूरा संसार भी जीत गए, तुमने स्वयं को खो दिया।
जीसस कहते हैं, 'और अगर कोई मनुष्य अपनी आत्मा को खोकर सारा संसार भी पा लेता है तो उसे क्या मिला?'
तुम सफल किसे कहोगे : सिकंदर महान को या सूली पर चढ़े जीसस को?
तो यदि-और यह 'यदि' भलीभांति समझने जैसा है-यदि तुम संसार में उत्सुक हो तो अंतर्विवेक तुम्हारे लिए नहीं है। यदि तुम अस्तित्व के तरिक आयाम में उत्सुक हो तो अंतर्विवेक, और केवल अंतर्विवेक ही, तुम्हारी सहायता कर सकता है।

आज इतना ही।







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