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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-01)

प्रेम है द्वार पभु का-(विविध)-ओशो

पहला-प्रवचन-(ओशो)

भय या प्रेम

मेरे प्रिय आत्मन्!
मनुष्य-जाति भय से, चिंता से, दुख और पीड़ा से आक्रांत है, और पांच हजार वर्षों से..आज ही नहीं। जब आज ऐसी बात कही जाती है कि मनुष्यता आज भय से, चिंता से, तनाव से, अशांति से भर गई है तो ऐसा भ्रम पैदा होता है जैसे पहले लोग शांत थे, आनंदित थे।
यह बात शत-प्रतिशत असत्य है कि पहले लोग शांत थे और चिंता-रहित थे। आदमी जैसा आज है वैसा हमेशा था। ढाई हजार वर्ष पहले बुद्ध लोगों को समझा रहे थे, शांत होने के लिए। अगर लोग शांत थे, तो शांति की बात समझानी फिजूल थी? पांच हजार वर्ष पहले उपनिषदों के ऋषि भी लोगों को समझा रहे थे आनंदित होने के लिए; लोगों को समझा रहे थे दुख से मुक्त होने के लिए; लोगों को समझा रहे थे प्रेम करने के लिए। अगर लोग प्रेमपूर्ण थे और शांत थे तो उपनिषद के ऋषि पागल रहे होंगे। किसको समझा रहे थे?

दुनिया में अब तक एक भी ऐसी पुरानी से पुरानी किताब नहीं है जो यह न कहती हो कि आजकल के लोग अशांत हो गए हैं। मैं छह हजार वर्ष पुरानी चीन की एक किताब की भूमिका पढ़ रहा था, उस भूमिका में लिखा है कि आजकल के लोग अशांत है, नास्तिक हैं, बहुत बुरे हो गए हैं, पहले के लोग अच्छे थे। छह हजार साल पहले की किताब कहती है, पहले के लोग अच्छे थे। ये पहले के लोग कब थे? ये पहले के लोगों की बात एक मिथ, एक कल्पना और सपने से ज्यादा नहीं है। आदमी हमेशा से अशांत रहा है। और इसलिए अगर हम यह समझ लें कि आज अशांत है, आज भय से आक्रांत है, आज चिंतित और दुखी है, तो हम जो भी निदान खोजेंगे, जो भी मार्ग खोजेंगे, वह गलत होगा। क्योंकि मार्ग खोजना है..।
आज तक की पूरी मनुष्यता किन्हीं अर्थों में गलत रही है, भ्रांत रही है। आज का आदमी ही नहीं, आज तक की पूरी मनुष्यता ही कुछ गलत रही है। और उसने अपनी गलती को सुधारने के लिए जो कुछ भी किया है उससे गलती मिटी नहीं, उससे और बढ़ती चली गई।
मनुष्य हमेशा से भयभीत है। और भय, फियर के आधार पर ही उसका सारा जीवन खड़ा हुआ है। जब वह मंदिरों में प्रार्थना करता है तब भी भय के कारण। उसने जो भगवान गढ़ रखे हैं वे भी भय से ही उत्पन्न हुए हैं। जब वह राजधानियों में पदों की यात्रा करता है, बड़े पदों पर पहुंचना चाहता है, तब भी भय के ही कारण। क्योंकि जितने बड़े पद पर कोई होता है उतनी सत्ता और शक्ति उसके हाथ में होती है, उतना भय कम मालूम होगा। इस आशा में आदमी दौड़ता है, दौड़ता है। चंगीज और तैमूर और नेपोलियन और सिकंदर और हिटलर और स्टैलिन सभी भयभीत लोग हैं। सभी घबड़ाए हुए लोग हैं। सभी डरे हुए लोग हैं। उस भय से बचने के लिए बड़ी ताकत हाथ में हो, इसकी चेष्टा में लगे हुए हैं। धन की जो खोज कर रहा है वह भी भयभीत आदमी है। धन से एक सुरक्षा, एक सिक्युरिटी मिल सकेगी, इस आशा में वह धन को इकट्ठा करता चला जा रहा है।
मंदिरों में प्रार्थना करने वाला, राजधानियों की यात्रा करने वाला, धन की तिजोरियों को इक्ट्ठा कर लेना वाला, ये सभी के सभी भय के आधार पर ही जी रहे हैं। वे जिन्हें आप संन्यासी समझते हैं, जिन्हें आप समझते हैं कि ये परमात्मा के मार्ग पर चले गए लोग हैं, शायद आपको पता न हो कि वे भी किसी आंतरिक भय के कारण ही उस यात्रा में संलग्न हो गए हैं।
जीसस क्राइस्ट एक गांव से निकलते थे। उन्होंने गांव की एक सड़क पर कोई पंद्रह बीस लोगों को रोते हुए, छाती पीटते हुए, उदास बैठे हुए देखा। उन्होंने पूछा तुम्हें यह क्या हो गया है? किसने तुम्हारी यह हालत की है? उन पंद्रह बीस लोगों ने चेहरे ऊपर उठाए। उनके मुरझाए हुए चेहरे..जैसे मौत उनके सामने खड़ी हो। उन्होंने कहा: नरक की बात सुन कर हम इतने भयभीत हो गए हैं। नरक की बात सुन कर हम भयभीत हो गए हैं।
इस दुनिया में जितने धार्मिक लोग दिखाई पड़ते हैं इनमें कोई भी मुश्किल से धार्मिक होगा। इनमें से सौ में से निन्यानबे लोग नरक के भय के कारण परेशान हैं या स्वर्ग का प्रलोभन, दोनों एक ही बातें हैं। लोभ और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भयभीत आदमी लोभी होता है क्योंकि सोचता है इतना मिल जाए, इतना मिल जाए..धन मिल जाए, पद मिल जाए, भगवान मिल जाए, स्वर्ग मिल जाए, तो मैं दुख से बच जाऊं, चिंता से बच जाऊं, पीड़ा से बच जाऊं।
मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि हमने आज तक जो भी किया है उसके केंद्र में भय है। हमारे राष्ट्र, हमारी देश-भक्ति, हमारी राजनीति, हमारी फौजें, सब हमारे भय पर खड़ी हुई हैं। हमारे देश, हमारी कौमें सब भय पर खड़ी हुई हैं। आकाश में लहराते हुए हमारे झंडे, सब भय पर खड़े हुए हैं। हम सब एक-दूसरे से भयभीत हैं। जिस दिन दुनिया में भय नहीं होगा उस दिन दुनिया में कोई जातियां नहीं रह जाएंगी, कोई देश नहीं रह जाएगा। उस दिन दुनिया में राजनीति का उतना ही मूल्य होगा जितना और सारी संस्थाओं का होता है। राजनीति इतनी मूल्यवान नहीं रह जाएगी। राजनीतिज्ञ की इतनी प्रतिष्ठा नहीं रह जाएगी। राजनीतिज्ञ की प्रतिष्ठा फियर के कारण है, भय के कारण है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है, अगर किसी को किसी कौम की बागडोर अपने हाथ में लेनी हो तो पहला काम यह है कि उस कौम को भयभीत कर दो। उसे घबड़ा दो। चीन का खतरा है। पाकिस्तान का खतरा है। ऐसा कोई भय पैदा कर दो। वह भयभीत हो जाए तो फिर अपनी बागडोर आपके हाथ में दे देगी। सारी दुनिया की नेतागिरी, सारी लीडरशिप मनुष्य को भयभीत करने के ऊपर आधारित है। सारी गुरुडम..यह हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों के पोप, पादरी, शंकराचार्य..यह सारी गुरुडम भय पर आधारित है। आदमी को भयभीत कर दो फिर वह पैर पकड़ लेगा और चरण पकड़ लेगा और कहेगा, मुझे मार्ग बताओ, मुझे बचाओ।
आज तक मनुष्य के जीवन को भय के केंद्र पर ही खड़ा रखा गया है। और दुनिया का कोई शोषण चाहे वह शोषक राजनीति का हो, चाहे वह शोषण धर्मनीति का हो, चाहे वह शोषण धन का हो, चाहे वह शोषण शरीर का हो और चाहे मन का हो, दुनिया का कोई शोषक नहीं चाहता कि आदमी भय से मुक्त हो जाए। क्योंकि जिस दिन भय नहीं उस दिन शोषण की संभावना भी समाप्त हो जाती है। आज तक मनुष्य-जाति को अभय करने का कोई उपाय नहीं किया गया, उसे फियरलेसनेस में खड़े करने के लिए कोई चेष्टा नहीं की गई है। लेकिन हम कहेंगे कि नहीं, चेष्टाएं तो की गई हैं, निर्भय लोग पैदा किए गए हैं। हम फौज में सैनिकों को निर्भय बनाते हैं। हम उन्हें हिम्मतवर बनाते हैं, शहीद हुए हैं, सिपाही हुए हैं, सैनिक हुए हैं, बड़े-बड़े बहादुर लोग हुए हैं। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि निर्भयता में और अभय में बुनियादी फर्क है। फियरलेसनेस में और भय की स्थिति में भी जान को लगा देने में बुनियादी फर्क है।
एक सैनिक अभय को उपलब्ध नहीं होता है, सिर्फ उसकी बुद्धि को जड़ किया जाता है। उसे स्टुपिडिटी सिखाई जाती है। उसकी संवेदना कम की जाती है ताकि उसे भय का बोध न हो। इडियट्स भयभीत नहीं होते। जड़बुद्धि लोग भयभीत नहीं होते। भय का अनुभव न हो इसके लिए बुद्धि की क्षमता को कम किया जाता है। इसलिए सैनिक को हम वर्षों तक लेफ्ट-राइट; आगे घूमो, पीछे घूमो, बाएं घूमो, दाएं घूमो, इस तरह की व्यर्थ अर्थहीन क्रियाओं में संलग्न रखते हैं। इन क्रियाओं का एक ही मूल्य है कि निरंतर पुनरुक्ति से मनुष्य की बुद्धि क्षीण होती है। उसकी संवेदना क्षीण होती है। उसकी सेंसिटिविटी कम होती है। अगर एक आदमी को तीन वर्ष तक सुबह चार घंटे, सांझ चार घंटे बाएं घूमो, दाएं घूमो, बाएं घूमो, दाएं घूमो करवाया जाए, तो उसकी बुद्धि की चिंतन की अनुभव करने की क्षमता क्षीण होती है। वह स्टुपिड होता है। और तब उसे बदूंक के सामने भी खड़ा कर दिया जाए तो उसे ख्याल नहीं आता है कि कोई खतरा है।
वह अभय को उपलब्ध नहीं हो गया है सिर्फ भय को अनुभव करने की तीव्रता और क्षमता उसकी क्षीण हो गई है।
पुनरुक्ति के द्वारा, रिपिटिशन के द्वारा मनुष्य की चेतना को डल, शिथिल करने की कोशिश की जाती है। कोई भी चीज बार-बार पुनरुक्त की जाए तो मनुष्य की चेतना क्षीण होती है। एक मां को अपने बेटे को सुलाना होता है तो रात को कहती है कि राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा, वह समझती है गीत गा रही है, लोरी गा रही है। बेटा उसका सो जाता है तो शायद वह सोचती है कि बहुत मधुर आवाज के कारण सो गया है। बेटा सिर्फ बोर्डम की वजह से सो गया है। ऊब पैदा हो जाती है, अगर कोई पास बैठ कर कहे चला जाए..राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा। पुनरुक्ति की जा रही है, रिपीट की जा रही है एक ही बात, तो चित्त ऊबता है, बोर्डम पैदा होती है। ऊब से उदासी पैदा होती है। उदासी से नींद पैदा होती है। चेतना शिथिल हो जाती है और सो जाती है। लेफ्ट-राइट, लेफ्ट-राइट, लेफ्ट-राइट। राजा बेटा सो जा, राजा बेटा सो जा या राम-राम, हरे-हरे, इन सारी बातों की पुनरुक्ति से मनुष्य का भय कम नहीं होता, केवल बुद्धि कम होती है।
एक आदमी भयभीत होता है अंधेरी गली में, तो कहने लगता है, जय राम, जय राम, जय राम। एक आदमी ठंडे पानी में स्नान करता है, तो कहने लगता है, हर-हर महादेव, हर-हर महादेव। जहां भी भय मालूम होता है वहां आदमी शब्दों की पुनरुक्ति करने लगता है। शब्दों की पुनरुक्ति से अनुभव की क्षमता क्षीण होती है। सैनिक और संन्यासी, भक्त और लड़ाके अभय को उपलब्ध नहीं होते, केवल बुद्धिहीनता को उपलब्ध होते हैं।
मनुष्य-जाति अब तक दो तरह के काम करती रही है। एक तो भय को पैदा करती रही है, ताकि शोषण किया जा सके और फिर जब भय पैदा हो जाता है तो उस भय से बचाने के लिए जड़ता पैदा करती रही है ताकि आदमी भय में कहीं मर ही न जाए। यह पांच हजार वर्ष की मनुष्य की आंतरिक शिक्षा की कथा है। और आज हम जो इतने भयभीत मालूम हो रहे हैं, हर आदमी कंप रहा है अपने भीतर।
जितना सभ्य देश है उतना ही ज्यादा भयभीत मनुष्य है। प्राण कंप रहे हैं, सोते जागते कोई चैन नहीं है। एकदम भय पकड़े हुए है। यह पांच हजार वर्षों की शिक्षा की क्लाइमेक्स है। यह कोई इस युग की भूल नहीं है। यह जो चल रहा है हजारों वर्षों से उसका अंतिम परिणाम है। भयभीत, भयकातर, कंपे हुए।
पति पत्नी से भयभीत है। पत्नी पति से भयभीत है। बेटे बाप से भयभीत है। बाप बेटों से भयभीत है। पड़ोसी पड़ोसी से भयभीत है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से भयभीत है। हिंदू मुसलमान से भयभीत है। सब सबसे भयभीत हैं। ये इतने भय से कंपा हुआ जगत अगर रोज-रोज युद्धों में से गुजर जाता है तो कोई आश्चर्य नहीं है। जो भयभीत है वह अंततः युद्ध में जाएगा। भय युद्ध में ले जाने का मार्ग है। क्योंकि भय जब बढ़ता जाएगा तो हम क्या करेंगे? हम तैयारी करेंगे अपनी रक्षा की। पड़ोसी भी तैयारी करेगा अपनी रक्षा की। एक-दूसरे की तैयारी देख कर फिर एक विसियस-सर्कल पैदा होगा और हम तैयारी करते चले जाएंगे।
एक फकीर, एक मुल्ला नसरुद्दीन नाम का फकीर एक रात एक रास्ते से गुजरता था। अंधेरा रास्ता था, और उस तरफ से एक बारात आती थी। घोड़ों पर सवार लोग थे, बंदूकें दागते हुए लोग थे। फकीर नसरुद्दीन ने समझा कि कोई डाकू आ रहे हैं। अंधेरे में डाकू किसी को भी दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। उजाले में भी दिखाई पड़ते हैं, लेकिन आदमी जरा बल पकड़े रहता है। उजाले में यह है कि ठीक-ठीक दिखाई पड़ता है। और लोग भी देख रहे हैं। अंधेरे में डाकू आ रहे हैं। नसरुद्दीन ने कहा, कैसे बचूं, क्या करूं, अकेला हूं? बंदूकें लिए मालूम होते हैं, घोड़ों पर सवार हैं। पास में ही एक कब्रिस्तान था। दीवाल से छलांग लगा कर वह एक नई खोदी गई कब्र में लेट कर सो गया, ताकि वे निकल जाएं। लेकिन वही नहीं डरा था बारात के लोगों को देख कर, बारात के लोग भी रात अंधेरे रास्ते पर अकेले एक आदमी को दीवाल पर चढ़ते देख कर डर गए। पता नहीं कौन है? कोई हत्यारा है? बारात रुक गई दीवाल के पास। उन्होंने अपनी लालटेनें और बत्तियां ऊपर उठाईं। दीवाल पर सारी बारात चढ़ गई उस आदमी की खोज में। नसरुद्दीन के तो प्राण सूख गए। उसने देखा, निश्चित ही डाकू हैं, मेरे पीछे ही चले आ रहे हैं। दीवाल पर चढ़ गए हैं। उसने आंखें बंद कर लीं। और जब उन्होंने उस आदमी को कब्र मैं जिंदा आंख बंद किए लेटे देखा, तो वे और हैरान हो गए। उन्होंने अपनी बंदूकें भर लीं। वे नीचे आए और उससे कहा कि बोलो, तुम कौन हो? यहां किसलिए आए हो? क्या कर रहे हो? नसरुद्दीन ने कहा: मेरे दोस्तो, यही मैं तुमसे पूछना चाहता हूं कि आप यहां क्या कर रहे हैं और किसलिए आए हैं? उन लोगों ने कहा: हम किसलिए आए हैं? हम तुम्हारी वजह से यहां आए हैं। नसरुद्दीन उठ कर खड़ा हो गया और उसने कहा कि मैं क्या कहूं, यू आर हियर बिकॅाज अॅाफ मी एण्ड आई एम हियर बिकॅाज अॅाफ यू। आप मेरी वजह से यहां हैं और मैं आपकी वजह से यहां हूं।
सारी दुनिया भयभीत है। और अगर पूछने जाइए, किससे भयभीत हैं, तो आप पाएंगे कि मैं आपके कारण भयभीत हूं और आप मेरे कारण भयभीत हैं। रूस अमरीका के कारण भयभीत है, अमरीका रूस के कारण भयभीत है। पति पत्नी के कारण भयभीत है, पत्नी पति के कारण भयभीत है। और सच्चाई यह है कि हमारे चित्त का केंद्र भय बन गया है। हम शायद किसी के कारण भयभीत नहीं हैं, हम सिर्फ भयभीत हैं..अकारण। और अपने भय को हम रेशनेलाइज करते हैं कि हम इसके कारण भयभीत हैं। मैं उसके कारण भयभीत हूं, मैं इस बात से भयभीत हूं, मैं मौत के कारण भयभीत हूं, मैं बीमारियों के कारण भयभीत हूं, मैं इस बात से, उस बात से...।
हम सिर्फ भयभीत हैं। हमारी आत्मा ही भय से भर गई है। क्यों भर गई है? क्या रास्ता है? भजन-कीर्तन करें, मंदिरों में जाएं, पूजा-प्रार्थना करें? बहुत हो चुके भजन-कीर्तन। बहुत हो चुकी पूजा-प्रार्थनाएं। आज तक मनुष्यता भय से दूर नहीं हुई। जो चीज भय से ही पैदा होती है उससे भय दूर नहीं हो सकता। वह भजन-कीर्तन, वह पूजा-पाठ भय से ही पैदा हो रहा है। बंदूकें बनाए, एटम बम बनाए, हाड्रोजन बम बनाए, उससे भय दूर होगा? उससे भय दूर नहीं हुआ। भय बढ़ता चला गया। बम भय से ही पैदा हुए हैं। इसलिए बमों के कारण भय दूर नहीं हो सकता है। बंदूकों के कारण भय दूर नहीं हो सकता, क्योंकि बंदूक भय के कारण ही पैदा हुई है।
वह आपने घरों में तस्वीरें देखी होंगी, बहादुर लोगों की, तलवारें हाथों में लिए हुए। जो भी आदमी हाथ में तलवार लिए हुए है वह बहादुर नहीं है। वह भयभीत है। चाहे बंबई की सड़कों पर मूर्तियां बनी हों, चाहे घरों में फोटो लटकी हों। जिस आदमी के हाथ में तलवार है वह आदमी भयभीत है, वह बहादुर नहीं हो सकता। हाथ में तलवार सबूत भय का है, फियर का है। इतनी बात है कि भयभीत आदमी अपने से कमजोर आदमी को भयभीत करने की कोशिश करता है। इस भांति उसे यह विश्वास आ जाता है कि मैं भयभीत नहीं हूं, दूसरा भयभीत है।
इसलिए दुनिया में हर आदमी कोशिश करता है कि दूसरे को भयभीत कर दे। किसलिए? इसलिए ताकि वह यह विश्वास कर ले कि तुम कंप रहे हो, मैं नहीं कंप रहा हूं। तुम भयभीत हो, मैं भयभीत नहीं हूं। वह अपने भय को भुलाने के कंसोलेशंस खोजता है, ताकि दूसरा आदमी भयभीत हो। इसलिए पति मालिक बन कर पत्नी को भयभीत किए रहता है। पति खुद भयभीत है। वह पत्नी को जब डरा लेता है, रुला लेता है, पत्नी को जब पैरों में गिरा लेता है तब वह आश्वस्त होता है कि मैं भयभीत नहीं हूं, मैं बहादुर आदमी हूं। यह औरत भयभीत है। दफ्तर में वह जाता है, उसका बॅास उसको कंपा देता है और थर्रा देता है, उसी हालत में पहुंचा देता है जिस हालत में उसने अपनी पत्नी को पहुंचा दिया था। उसका मालिक सोचता है कि मैं भयभीत नहीं हूं, मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं। सौ आदमी मेरे नीचे काम करते हैं, ये भयभीत हैं।
और सीढ़ी दर सीढ़ी हर आदमी दूसरे को भयभीत करके कुछ और नहीं कर रहा है, इतना ही कर रहा है कि अपने लिए विश्वास पैदा कर रहा है, सेल्फ-कांफिडेंस जुटा रहा है, आत्म-विश्वास जुटा रहा है।
ये हिटलर और स्टैलिन बड़े भयभीत लोग हैं। ये सारी दुनिया को कंपा देते हैं। ये विश्वास लाना चाहते हैं कि तुम सब कांप रहे हो, मैं नहीं कांप रहा हूं। लेकिन हिटलर रात को अपना दरवाजा बंद करके सोता है। वह रात भर चैंकता रहता है कि कहीं कोई आ तो नहीं गया। स्टैलिन अपनी पत्नी के साथ भी उसी कमरे में रात नहीं सोता है। स्टैलिन बड़ी-बड़ी सभाओं में स्वयं नहीं जाता। अपनी शक्ल-सूरत का आदमी रख छोड़ा है, डबल रख छोड़ा है, वह जाता है सभाओं में। मिलिटरी की परेड की सलामी स्टैलिन खुद नहीं लेता है, दूसरा आदमी लेता है जो उसकी शक्ल-सूरत का है, क्योंकि खतरा है कोई गोली न मार दे।
नादिर जिस नगर में गया, दस हजार बच्चों के सिर कटवा लेता, भालों में छिदवा देता और फिर जुलूस निकलता उसका, उसकी शोभायात्रा निकलती, वह पीछे घोड़े पर सवार है। हजारों बच्चों के सिर छिदे हुए हैं भालों में। लोग उससे पूछते कि नादिर तुम यह क्या कर रहे हो? तो वह कहता, ताकि लोग याद रखें कि नादिर इस नगर में आया था। लेकिन सच्चाई यह थी कि नादिर रात भर नहीं सो सकता था। जरा सी खटखटाहट हो कि वह तलवार निकाल कर खड़ा हो जाता था, क्या है? कौन है? और नादिर की मौत इसी तरह हुई। एक घोड़ा छूट गया उसके कैंप का रात को भूल से और नादिर के तंबू के पास से निकल गया। घोड़े की आवाज सुन कर नादिर उठा। उसने समझा कि कोई दुश्मन आ गया घोड़े पर सवार होकर। अंधेरे में बाहर निकल कर भागने की कोशिश की, पैर में रस्सी फंस गई तंबू की और वह गिर पड़ा और मर गया। यह आदमी राजधानियां कत्ल करता रहा, मकानों में आग लगवाता रहा। किसलिए?
ये दुनिया भर के राजनीतिज्ञ क्या चाहते हैं? ये सब भयभीत लोग हैं। ये दूसरे को भयभीत करके यह विश्वास जुटा लेना चाहते हैं कि नहीं-नहीं कौन कहता हूं, मैं भयभीत नहीं हूं, भयभीत सारी दुनिया होगी। ये सिंहासनों की यात्रा करने वाले सारे फियर कांप्लेक्स से परेशान और पीड़ित लोग हैं। दुनिया के बड़े नेता, दुनिया के बड़े सेनापति, दुनिया के बड़े विजेता, ये सारे लोग भय से पीड़ित लोग हैं। और इन्हीं भयभीत लोगों के हाथ में दुनिया है, और वे सब एक-दूसरे से भयभीत हैं, इसलिए रोज युद्ध पैदा हो जाता है।
जब तक भय है तब तक दुनिया से युद्ध समाप्त नहीं हो सकता। यह तो हो सकता है कि युद्ध के कारण भय समाप्त हो जाएं, क्योंकि आदमी ही समाप्त हो जाए, लेकिन यह नहीं हो सकता कि भय जब तक है तब तक युद्ध समाप्त हो जाएं। अब तो हम उस जगह पहुंच गए हैं कि हमारे भय ने अंतिम उपाय ईजाद कर लिए हैं, जब कि हम पूरी मनुष्यता को समाप्त करने में समर्थ हो गए हैं। समर्थ पूरी तरह हो गए हैं, शायद जरूरत से ज्यादा हो गए हैं। मैं सुनता हूं कि वैज्ञानिकों ने इतना इंतजाम कर रखा है कि अगर एक-एक आदमी को सात-सात बार मारना पड़े, तो हमने व्यवस्था कर ली है, सरप्लस किंलिग की व्यवस्था कर ली है। हो सकता है भूल-चूक हो जाए। कोई आदमी एक दफा मारने में बच जाए तो दुबारा मार सकें। दुबारा भी बच जाए तो तीसरी बार मार सकें। सात-सात बार, हालांकि एक आदमी एक ही बार में मर जाता है, दुबारा मारने की कभी कोई जरूरत आज तक नहीं पड़ी। लेकिन भूल-चूक न हो जाए इसलिए इंतजाम पूरा कर लेना उचित है।
तीन साढ़े तीन अरब आदमी हैं। पच्चीस अरब आदमियों को मारने की सारी दुनिया में व्यवस्था है। अब की बार हम आदमी को बचने नहीं देंगे, क्योंकि अब की बार भय चरम स्थिति में हमारे प्राणों को आंदोलित कर रहा है। क्या करें इस भय के लिए? क्या उपाय खोजें?
एक बात आपसे कहना चाहता हूं, इसके पहले कि भय के संबंध में हम क्या करें, उस बात को समझ लेना जरूरी है। अगर इस भवन में अंधकार भरा हो और हम किसी से पूछने जाएं कि अंधकार को निकालने के लिए हम क्या करें? और वह हमसे कहे कि धक्के दे-दे कर हम अंधकार को बाहर निकाल दें और हम सब लौट आएं और अंधकार को धक्के देकर निकालने की कोशिश करें, तो क्या परिणाम होगा? अंधकार निकल सकेगा? या कि अंधकार को निकालने की कोशिश में हम खुद ही समाप्त होने के करीब पहुंच जाएंगे। भय के साथ भी यही हुआ है।
भय को निकालने की हम पांच हजार साल से कोशिश कर रहे हैं। भय को निकालने के लिए हम भगवान को जप रहे हैं। स्वर्ग, नरक, मोक्ष की कल्पना कर रहे हैं। भय को निकालने के लिए हम बंदूकें, बम, अणु-अस्त्र तैयार कर रहे हैं। भय से बचने के लिए हम किले की मजबूत दीवाल उठा रहे हैं। धन की दीवाल उठा रहे हैं। पद-प्रतिष्ठा के किले खड़े कर रहे हैं। लेकिन बिना यह पूछे कि क्या भय को निकाला जा सकता है सीधा? मेरी दृष्टि में भय अंधकार की तरह नकारात्मक है। अंधकार को सीधा नहीं निकाला जा सकता। हां, प्रकाश जला लिया जाए तो अंधकार जरूर निकल जाता है। लेकिन अंधकार को कभी कोई नहीं निकाल सकता। अंधकार वस्तुतः कुछ नहीं है केवल प्रकाश की अनुपस्थिति है, एब्सेंस है, प्रकाश का न होना है। प्रकाश के आते ही अंधकार नहीं पाया जाता है। कहना गलत है कि निकल जाता है, क्योंकि निकलने को कुछ भी नहीं है। कोई चीज निकल कर बाहर नहीं चली जाती है। जब आप दीया जलाते हैं, कुछ बाहर नहीं जाता, कुछ मिटता नहीं। अंधकार अनुपस्थिति थी, एब्सेंस थी प्रकाश की, प्रकाश आ गया, अनुपस्थिति समाप्त हो गई।
शायद आपने सुना हो, एक बहुत पुरानी घटना है, भगवान के पास अंधकार ने जाकर एक बार शिकायत कर दी थी और कहा था कि यह सूरज तुम्हारा मेरे पीछे बहुत बुरी तरह पड़ा हुआ है। मैं बहुत परेशान हो गया हूं। सुबह से मेरा पीछा करता है। सांझ तक मुझे थका डालता है। दौड़, दौड़ो, बचो, बचो। जहां जाता हूं वहीं हाजिर है। फिर जब मैं बहुत थक जाता हूं तब रात थोड़ी देर सो पाता हूं, सुबह से फिर मौजूद हो जाता है। रात भर विश्राम भी नहीं हो पाता है कि सूरज फिर तैयार है। यह करोडों वर्षों से चल रहा है। मेरा क्या कसूर है? मैंने सूरज का क्या बिगाड़ा है? भगवान ने कहा: यह तो बड़ा अन्याय चल रहा है। मैं सूरज को बुला कर पूछ लूं। उसने सूरज को बुलाया और कहा कि तुम अंधकार के पीछे क्यों पड़े हो? क्यों उसे परेशान किए जा रहे हो? उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सूरज ने कहा: अंधकार? यह नाम मैंने कभी सुना नहीं! यह व्यक्ति मैंने कभी देखा नहीं। अब तक मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई। मैं क्यों पीछे पडूंगा? जिससे मेरी पहचान भी नहीं, उससे मेरी शत्रुता कैसे होगी? आप अंधकार को मेरे सामने बुला दें तो मैं पहचान भी लूं और क्षमा भी मांग लूं।
इस बात को हुए करोड़ों वर्ष हो गए, वह मुकदमा फाइल में ही पड़ा हुआ है। अब तक भगवान सूरज के सामने अंधकार को नहीं ला सके। ला भी नहीं सकेंगे, क्योंकि सूरज का, सूरज का अस्तित्व है। प्रकाश पाजिटिव, विधायक है। अंधकार नकारात्मक, निगेटिव है। सूरज के सामने अंधकार नहीं लाया जा सकता, क्योंकि अंधकार सूरज की अनुपस्थिति है, गैर-मौजूदगी है। अब जहां सूरज मौजूद है वहां उसकी ही गैर-मौजूदगी कैसे लाई जा सकती है? मैं यहां मौजूद हूं, तो मेरी गैर-मौजूदगी मेरे साथ ही यहां कैसे मौजूद हो सकती है? या तो मैं हो सकता हूं या मेरा न होना हो सकता है। यहां दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती हैं।
लेकिन मनुष्य के भय के संबंध में यही भूल चलती रही है। हम भय को दूर करने की कोशिश करते हैं। भय निगेटिव क्वालिटी है, भय का कोई अस्तित्व नहीं है। भय किसी चीज की अनुपस्थित है, किसी चीज की एब्सेंस है, किसी पाजिटिव क्वालिटी का अभाव है, किसी विधायक गुण का अभाव है।
शायद आपको ख्याल में भी न हो कि भय प्रेम का अभाव है। जिस हृदय में प्रेम नहीं है वह हृदय भयभीत रहेगा ही। आमतौर से इसका ख्याल नहीं आता, क्योंकि हम भय के साथ घृणा को सोचते हैं। घृणा भय का विरोध है। घृणा प्रेम का विरोध है। भय प्रेम का अभाव है, दोनों को एकसाथ। जिस हृदय में प्रेम नहीं वह भयभीत होगा। और अगर अपने जीवन में कभी भी थोड़ा सा प्रेम अनुभव किया हो तो जो क्षण प्रेम का है वही क्षण अभय का भी है। जिसके प्रति आपको प्रेम है उसके प्रति आपका भय समाप्त हो जाता है।
एक नवयुवक का विवाह हुआ था। वह अपनी नई-नई विवाहिता पत्नी को लेकर जहाज की यात्रा पर निकला है। पुराना जहाज है, पुराने दिनों की बात है। तूफान आ गया है और जहाज कंपने लगा है, अब डूबा, तब डूबा होने लगा है। लेकिन वह युवक मौज से बैठा हुआ है। उसकी पत्नी घबड़ा गई है, कांप रही है और उससे कहने लगी है कि तुम इतने शांत बैठे हो और जहाज डूबने को है। मौत करीब मालूम होती है। तुम इतने निशिं्चत मालूम होते हो? वह युवक हंस रहा है। उसने अपनी म्यान से तलवार बाहर निकाल ली और उस युवती के कंधे पर रख दी है, गले पर, अपनी पत्नी के, पर वह पत्नी हंस रही है। वह युवक कहने लगा: मेरे हाथ में तलवार है, तुम्हारी गर्दन पर नंगी तलवार रखे हूं, फिर भी तुम हंस रही हो? उस पत्नी ने कहा: मुझे तुमसे प्रेम है तो तुम्हारी तलवार से भय नहीं मालूम होता है। उस युवक ने कहा: मुझे परमात्मा से प्रेम है इसलिए उसके तूफान से भय नहीं मालूम होता है।
जहां प्रेम है वहां भय की कोई संभावना नहीं। अगर हम भय को निकालने की कोशिश करेंगे, तो हम ज्यादा से ज्यादा जड़ता को उपलब्ध हो सकते हैं, अभय को नहीं। अगर हम प्रेम को जन्माने की कोशिश करें, तो भय प्रेम के जन्म के साथ ही वैसे ही नष्ट हो जाता है जैसे प्रकाश के जन्म के साथ अंधेरा नष्ट हो जाता है।
लेकिन मनुष्य-जाति को प्रेम की कोई शिक्षा नहीं दी गई है। शिक्षा भय की दी गई है। इसीलिए तो हर आदमी थोथा-थोथा मालूम होता है। क्योंकि व्यक्तित्व का केंद्र अगर निगेटिव है, तो आदमी का पूरा व्यक्तित्व इंपोटेंट होगा। व्यक्तित्व का केंद्र अगर नकारात्मक है, तो व्यक्तित्व में बल नहीं हो सकता, थोथा, पोचा, इंपोटेंट होगा। इसलिए सारी मनुष्य-जाति नपुंसक हो गई है। कोई बल नहीं है। कोई जीवंत प्रेरणा नहीं है। कोई भाव भरा हुआ, कोई आनंद से भरा हुआ हृदय नहीं है। कोई प्रेम से भरी हुई आंखें नहीं हैं। सब भयभीत, भयकातर, घबड़ाए हुए, ट्रेंबिं्लग, डरे हुए हैं। मनुष्य के व्यक्तित्व के केंद्र पर पांच हजार वर्षों से भय को रखा गया है। नकारात्मक है भय, इसलिए व्यक्तित्व नकारात्मक हो गया है। एक ही गुण है पाजिटिव, वह है प्रेम और एक ही गुण है नकारात्मक, और वह है फियर, भय। और दो ही महत्वपूर्ण बातें हैं जीवन में..या भय या प्रेम।
जहां भय है वहां अपने आप घृणा पैदा हो जाएगी। जिससे हम भयभीत होते हैं उससे हम कभी भी प्रेम नहीं कर सकते हैं। इसीलिए तो परमात्मा की इतनी शिक्षा दी गई दुनिया में, लेकिन परमात्मा का प्रेम नहीं पैदा हो सका, क्योंकि परमात्मा से भयभीत किए गए आदमी को समझाया गया गॅाड-फियरिंग होने के लिए, ईश्वर से भयभीत होने के लिए। दुनिया के धर्म यही समझाते रहे हैं कि ईश्वर से डरो। जिससे डरा जाता है उससे कभी प्रेम नहीं किया जा सकता है। यह मनुष्य-जाति जो नास्तिक हो गई है वह गॅाड-फियरिंग की शिक्षा से ही गई है, नास्तिकों के कारण नहीं हो गई है मनुष्य-जाति नास्तिक। अगर दुनिया में अब भी कोई आस्तिक पैदा हो जाते हैं तो नास्तिकों के बीच से, लेकिन आस्तिकों के बीच से कभी कोई आस्तिक पैदा नहीं होता। आस्तिकों के बीच से आस्तिक पैदा हो ही नहीं सकता। क्योंकि आस्तिक है ईश्वर से डरा हुआ, और जहां डर है वहां प्रेम असंभव है। जहां भय है वहां प्रेम असंभव है। जिससे हम भयभीत होते हैं उससे हम घृणा करते हैं। गहरे में घृणा करते हैं, ऊपर से हाथ जोड़ सकते हैं, लेकिन भीतर मन होता है गला घोट दें।
धर्म-गुरुओं ने ईश्वर का गला घुटवा दिया। उन्होंने सिखाया कि ईश्वर से डरो। आदमी इतना डर गया कि उसने कहा कि जिससे डरते हैं इसकी हत्या ही कर दो। ह्युमिनिटी किल्ड गॅाड। फिर आदमी ने कहा, अब इसका फैसला ही कर दो जिससे इतना भय खाना पड़ता है। इसलिए नीत्शे कह सका: गॅाड इ.ज डेड। इसलिए नीत्शे कह सका कि ईश्वर मर गया है। पूछा किसने किसी ने मार डाला है ईश्वर को? नीत्शे ने कहा: आदमी के हाथ देखो, ईश्वर के खून से रंगे हुए हैं। आदमी ने गर्दन दबा दी उसकी जिससे इतना भयभीत होना पड़ता था।
ईश्वर के प्रति भय पैदा करके धर्म नष्ट हो गया, क्योंकि भय कोई विधायक रचनात्मक क्रिएटिव फोर्स नहीं है। भय डिस्ट्रक्टिव फोर्स है, निगेटिव फोर्स है, विध्वंस की ताकत है वह। और हम सब तरह के भय पैदा करते रहे हैं। बाप बेटे में भय पैदा करता है अॅाथेरिटी का, मैं बाप हूं, और उसे पता नहीं कि वह बेटे को तैयार कर रहा है कि बाप की हत्या कर दे। और बेटे मिल कर बाप की हत्या कर रहे हैं सारी दुनिया में। यह हत्या जारी रहेगी जब तक बाप बेटे को भयभीत करता है। जब तक वह कहता है कि मैं जो कहता हूं वह ठीक है क्योंकि मेरे हाथ में ताकत है। मैं तुझे घर के बाहर कर दूं, मैं तेरी गर्दन दबा दूं। जब तक पत्नी कहेगी पति से कि मेरे हाथ में ताकत है, जब तक पति कहेगा पत्नी से कि मेरे हाथ में ताकत है जब तक हम परिवार में एक दूसरे को भयभीत करने की कोशिश करेंगे, तब तक अच्छे मनुष्य का जन्म नहीं हो सकता है।
और हम सब एक-दूसरे को डरा रहे हैं, हम सब एक-दूसरे को डरा रहे हैं। हमारी सारी रिलेशनशिप फियर की रिलेशनशिप है। हमारा सारा संबंध भय का संबंध है। विद्यार्थी गुरु के चरण छूता है भय के कारण और गुरु चरण छुवाता है ताकत के कारण..बाप, पति, पत्नी, सारे संबंध हमारे! हम भयभीत कर रहे हैं किसी को, हम डरा रहे हैं किसी को, हम घबड़ा रहे हैं किसी को, और वह घबड़ाहट में पैर छू रहा है और हम प्रसन्न हो रहे हैं। और हमें पता नहीं कि हम सिर्फ अपने प्रति घृणा पैदा कर रहे हैं। इस घृणा का बदला लिया जाएगा। बेटे बड़े हो जाते हैं, बाप बूढ़ा हो जाता है, ताकत की स्थिति बदल जाती है, बेटों के हाथ में ताकत आ जाती है, बाप कमजोर हो जाता है, पासा पलट जाता है, बदला शुरू हो जाता है, और बेटे बाप को सताना शुरू कर देते हैं। यह प्रतिक्रिया है, यह रिएक्शन है। बाप ने बेटे को बचपन में सताया है, अब पासा पलट गया है। तब बाप ताकतवर था, तब वह छोटे से बच्चे को डरा सकता था, वह डंडा उठा सकता था, द्वार बंद कर सकता था, घर के बाहर निकाल सकता था। वह जो भयभीत किया था बेटे को, वह भय के कीटाणु भीतर रह गए हैं, वे बदला मांगते हैं। क्योंकि भय विध्वंसात्मक है, वह बदला चाहता है। भय से घृणा पैदा होती है, विरोध पैदा होता है, विद्रोह पैदा होता है। बच्चा प्रतीक्षा करेगा ताकत आ जाए हाथ में, कल जवान हो जाएगा, ताकत हाथ में हो जाएगी, बाप बूढ़ा हो जाएगा, कमजोर हो जाएगा, फिर सताने की प्रक्रिया उलट जाएगी, बेटा बाप को सताएगा।
हम सब एक-दूसरे को भयभीत कर रहे हैं। हमारा सारा व्यक्तित्व भय पर खड़ा हो गया है। हम ईश्वर को भी समझाते हैं, हम धर्म को भी समझाते हैं। हम किसी को यह भी कहते हैं कि सत्य बोलो, तो साथ में यह भी कहते हैं कि सत्य नहीं बोलोगे तो नरक जाओगे। हत्या कर दी सत्य की। सत्य के साथ भय जोड़ा जा सकता है? सत्य के साथ भय का कोई संबंध हो सकता है? सत्य पाजिटिव क्वालिटी है, भय निगेटिव क्वालिटी है। सत्य का प्रेम से संबंध हो सकता है, भय से संबंध नहीं हो सकता। नीति का प्रेम से संबंध हो सकता है, भय से संबंध नहीं हो सकता।
लेकिन पांच हजार वर्षों से निगेटिव क्वालिटीज को पाजिटिव क्वालिटीज के साथ जोड़ा जा रहा है, इसलिए मनुष्यता नष्ट हो रही है। यह भोजन के साथ जहर डाला जा रहा है। एक बूंद जहर पूरे भोजन को नष्ट कर देती है। एक बूंद नकारात्मक गुण पूरे विधायक गुण को नष्ट कर देता है। बच्चे से हम कह रहे हैं कि सत्य बोलो, नहीं तो मारेंगे। हम सोच ही नहीं रहे हैं कि हम कौन सी दो चीजें जोड़ रहे हैं। हम कह रहे हैं कि नीति का आचरण करो नहीं तो नरक जाना पड़ेगा। वहां कड़ाहे हैं, आग जलती है, तेल उबलता है और उसमें डाले जाओगे। भगवान को भी बड़ा मजा आता होगा इन कामों में मालूम होता है। बेचारे गरीब आदमी को, कमजोर आदमी को कड़ाहों में डाल कर बहुत मजा आता होगा।
एक पादरी एक चर्च में समझा रहा था। भयभीत कर रहा था लोगों को। लोग कांप रहे थे, औरतें बेहोश होकर गिर पड़ी थीं। आपको पता होगा, क्रिश्चिएंस के दो संप्रदायों का नाम ही पड़ गया, क्वेकर्स। क्वेकर्स का मतलब है: कंपने वाले लोग। और एक संप्रदाय था, शेकर्स, वे भी कंपने वाले लोग। पादरियों ने इतना कंपा दिया कि लोग बिल्कुल कंपने लगे। एक संप्रदाय ही क्वेकर्स का खड़ा हो गया। वह पादरी कंपा रहा था, लोगों को डरा रहा था। और जितने लोग डरते जा रहे थे उतनी उसकी कविता नरक के चित्रण में गहरी होती चली जा रही थी। लोग कंप रहे थे तो बहुत मजा आ रहा था। किसी को कंपाने से ज्यादा मजा और किसी चीज में नहीं है।
खलील जिब्रान कहता था कि मैं एक खेत के पास से निकलता, एक झूठा आदमी खेत में खड़ा हुआ था, जैसा किसान बना कर खड़े कर देते हैं: एक हंडी बांध देते हैं, एक कुर्ता लटका देते हैं। एक झूठा आदमी खेत में खड़ा हुआ था। वर्षा आए, धूप आए, सर्दी आए, लेकिन झूठा आदमी खेत में शान से खड़ा रहता था। जिब्रान ने कहा, मैंने उस झूठे आदमी से पूछा: दोस्त बहुत थक जाते होंगे, बड़े ऊब जाते होंगे अकेले में खड़े-खड़े। बर्षा आती है, धूप आती है, तुम यहीं खड़े रहते हो, इसी तरह तने खड़े रहते हो। उसने कहा: बिल्कुल नहीं घबड़ाता हूं, बिल्कुल ऊब नहीं आती है, पशु-पक्षियों को डराने में इतना मजा आता है जिसका कोई हिसाब नहीं। जिब्रान ने कहा: यह तो तुम बात बड़ी ठीक कहते हो। आदमियों को डराने में तो मुझको भी मजा आता है। वह झूठा आदमी हंसने लगा और उसने कहा, तब तुम भी एक झूठे आदमी हो।
जिसको दूसरे को डराने में मजा आता है, वह झूठा आदमी है, वह सूडो ह्यूमन बीइंग है। क्योंकि उसके व्यक्तित्व का केंद्र नकारात्मक है, भय है। वास्तविक मनुष्य वास्तविक केंद्र पर पैदा होता है, वह केंद्र प्रेम है।
तो मैं जिस पादरी की बात कर रहा था, वह कंपा रहा है लोगों को। वे घबड़ा रहे हैं। और तभी उसने कहा, मालूम है तुम्हें, नरक में क्या होगा? इतनी सर्दी पड़ेगी कि दांत किटकिटाएंगे। एक आदमी खड़ा हो गया, उसने कहा, क्षमा करें, मेरे दांत टूट गए हैं, मेरा क्या होगा? पादरी को बहुत गुस्सा आया, जैसा धर्मगुरुओं को गुस्सा आता है गलत-सही प्रश्न पूछने पर। एक क्षण तो वह रुक गया, गुस्से में फिर उसने कहा कि ऐसे फिजूल के प्रश्न पूछते हो? फॅाल्स टीथ विल बी प्रोवाइडिड। झूठे दांत दे दिए जाएंगे उसके पहले, उनको लगा लेना और फिर कांपना। लेकिन कांपना जरूर पड़ेगा। इतनी सर्दी पड़ती है नरक में।
आदमी को, आदमी को हमने सब श्रेष्ठ चीजों के साथ भय को जोड़ दिया। यह पांच हजार वर्ष की सारी मनुष्य-जाति की शिक्षा व्यर्थ हो गई है, अनर्थ हो गई है। यह जो नकारात्मक भय है, इस केंद्र से मनुष्य को हटा लेने की जरूरत है। अगर एक ऐसी दुनिया चाहिए हो जहां लोगों के जीवन में सौंदर्य हो, संगीत हो, आनंद हो, व्यत्तित्व हो, गरिमा हो व्यक्तित्व की, एक बिखरती हुई किरणें हों जीवन की, एक स्वतंत्रता हो, एक-एक व्यक्ति का अपना अनूठापन हो, जहां संबंध हों प्रेम के, जहां युद्ध न हो, जहां शांति हो, तो मनुष्य के व्यक्तित्व के केंद्र को बदल देना जरूरी है। भय की जगह प्रेम। जीवन की समस्त शिक्षाओं से भय को अलग कर देना जरूरी है, एक-एक इंच से। लेकिन वह अलग नहीं होगा। जैसा मैंने कहा, अंधेरे को अलग नहीं किया जा सकता है। तब क्या किया जा सकता है? दीये को जलाया जा सकता है। प्रेम को जलाया जा सकता है। प्रेम को प्रकट किया जा सकता है।
और आदमी के भीतर प्रेम इतना छिपा है जिसका कोई हिसाब नहीं। यह दुनिया छोटी है। अगर एक आदमी के भीतर का प्रेम पूरा बहना शुरू हो जाए, तो यह जगत छोटा है। जैसे हमें कल तक पता नहीं था कि एक अणु में कितनी ऊर्जा हो सकती है। एक छोटे से अणु में कितनी शक्ति हो सकती है कि एक अणु का विस्फोट अनंत शक्ति को जन्म दे-दे। कल तक हमें पता नहीं था कि एक रेत के छोटे से कण से एक बड़ा महानगर नष्ट हो सकता है, कि हाइड्रोजन के एक छोटे से कण से बंबई की महानगरी इसी क्षण राख हो सकती है। कभी हमें पता नहीं था कि पानी की एक बूंद के एक छोटे से कण में इतनी ताकत हो सकती है।
आदमी के भीतर कितनी ताकत हो सकती है प्रेम के कण में, इसका भी हमें कोई पता नहीं। कभी-कभी थोड़ी झलक मिली है, कभी किसी बुद्ध में, कभी किसी क्राइस्ट में, कभी किसी सुकरात में छोटी सी झलक मिली है। लेकिन उस झलक को देखते ही हम एकदम टूट पड़ते हैं और उसे बुझा देते हैं। सुकरात दिखाई पड़ा कि हमने मारा। जीसस दिखाई पड़े कि सूली पर लटकाया। गांधी दिखाई पड़ा कि गोली मारो। हम इतने जोर से टूटते हैं इस झलक पर। क्यों? क्योंकि वह झलक हम सबका अपमान बन जाती है। बहुत इंस्लटिंग है वह झलक। क्योंकि वह झलक यह खबर देती है कि हम सबके घर अंधेरे में पड़े हैं और इस घर में दीया जल गया। बुझा दो इस दीये को! बजाय इसके कि अपना दीया जलाएं, इसको बुझा दो! हम निशिं्चत हो जाएं, एट इ.ज हो जाएं कि सब जगह अंधेरा है। ठीक है हम भी अंधेरे में हैं।
आज तक दुनिया में जब भी प्रेम की झलक किसी आदमी में आई है, तो हमने उसे बुझाने की कोशिश की है, ताकि हम निशिं्चत हो जाएं, ताकि हमारा सेल्फ-कंडेमनेशन न हो, आत्मग्लानि पैदा न हो, गिल्ट पैदा न हो कि मैं कैसा आदमी हूं। जब बुद्ध हो सकता है, जब महावीर हो सकता है, जब क्राइस्ट हो सकता है, जब मंसूर हो सकता है, तो मेरे भीतर क्यों नहीं हो सकती यह घटना? एक-एक आदमी के भीतर वही छिपा है जो सब आदमियों के भीतर छिपा है। आदमियत का बीज एक सा ही बीज है। आम के एक बीज से आम का वृक्ष पैदा होता है। आम के दूसरे बीज से भी आम का वृक्ष पैदा होता है। आम के तीसरे बीज से भी आम का वृक्ष पैदा होता है। आदमियत के पास भी एक ही बीज है। जिससे एक ही वृक्ष पैदा हो सकता है। लेकिन हम उसे पैदा नहीं होने देते। कोई वृक्ष हो जाता है तो काट डालते हैं, ताकि हमको यह ग्लानि न आए कि हम कुछ गलत हैं।
प्रेम की बड़ी संभावना मनुष्य के भीतर है, लेकिन न उसकी शिक्षा है, न उसे जगाने का उपाय है, न उसे प्रकट होने देने की सुविधा है, बल्कि हम सब शत्रु हैं प्रेम के। हमने सब जगह ऐसी व्यवस्था कर ली है कि प्रेम कहीं पैदा न हो सके। हमने ऐसी चालाकियां की हैं कि प्रेम के लिए, हमने कोई मार्ग नहीं छोड़ा है। कहीं कोई मार्ग नहीं छोड़ा है। मनुष्य में प्रेम भर पैदा न हो सके और सब पैदा हो जाए। और आश्चर्य और मजे की बात तो यह है कि प्रेम पैदा न हो तो जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह कुछ भी पैदा नहीं होता।
जैसा कि मैंने कहा, जहां भय है, वहां घृणा पैदा होगी। जहां भय है, वहां ईष्र्या पैदा होगी। जहां भय है, वहां हिंसा पैदा होगी। जहां भय है, वहां क्रोध पैदा होगा। जहां भय है, वहां पूरा नरक पैदा होगा। क्योंकि भय के ये सब अनुषांगिक अंग हैं। ये सब भय की संतति हैं। ये सब भय के पुत्र हैं। जहां प्रेम है वहां आनंद पैदा होगा, वहां शांति पैदा होगी, वहां करुणा पैदा होगी, वहां दया पैदा होगी, वहां सौंदर्य पैदा होगा, वहां स्वर्ग के द्वार खुलेंगे, क्योंकि प्रेम की संतति हैं ये सब। भय के केंद्र पर जो व्यक्ति है वहां वह सब पैदा होगा। भय के केंद्र का अंतिम परिणाम विक्षिप्तता है, मैडनेस है। और प्रेम के अंतिम केंद्र का परिणाम विमुक्ति है, विमुक्तता है, मोक्ष है।
प्रेम कैसे जन्में? प्रेम की बंद दीवालें कैसे टूटें? कोई राजनीतिज्ञ, दुनिया का कोई नेता विश्वशांति नहीं ला सकता है, क्योंकि राजनीति के सारे केंद्र भय के हैं। कोई धर्मगुरु दुनिया में शांति नहीं ला सकता है, क्योंकि तथाकथित धर्मगुरु का केंद्र ही भय है, जिसके आधार पर वह गुरु बना हुआ है और शोषण कर रहा है।
दुनिया में तो एक ही रास्ते से शांति आ सकती है, मनुष्य के व्यक्तित्व में और समस्त जीवन में, और वह रास्ता है: प्रेम का कैसे जन्म हो। कैसे प्रेम का जन्म हो? प्रेम क्या है? वह कैसे पैदा हो? वह सबके भीतर पड़ा हुआ बीज है, लेकिन बीज बीज ही रह जाता है, वह कभी अंकुरित नहीं हो पाता, उसे भूमि नहीं मिल पाती, उसे पानी नहीं मिल पाता, उसे सूरज की रोशनी नहीं मिल पाती। वह बीज बीज ही रह जाता है। और जो बीज बीज ही रह जाता है उसके भीतर एक कसक, एक दर्द, एक पीड़ा रह जाती है कि मैं जो हो सकता था वह नहीं हो पाया, नहीं हो पाया, नहीं हो पाया। एक फ्रस्ट्रेशन, एक विफलता उसके आस-पास छाई रह जाती है। मनुष्य में जो चिंता दिखाई पड़ती है वह प्रेम के बीज के प्रकट न होने की चिंता है, वह फ्रस्ट्रेशन है। मनुष्य में जो उदासी दिखाई पड़ती है वह उसके भीतर जो होने की संभावना थी, जो पोटेंशियली, वह होने को पैदा हुआ था, जो उसकी डेस्टिनी थी, जो उसकी नियति थी, जो उसे हो जाना चाहिए था। जब एक गुलाब के फूल पर, गुलाब के पौधे पर फूल खिलते हैं, जब एक चमेली खिल जाती है अपने फूलों में और अपनी सुगंध लुटा देती है, तो हवाओं में नाचते हुए उसके पत्तों को देखा है? हवाओं में नाचते हुए उस पौधे को देखा है जिसके फूल खिल गए हैं पूरे? उससे ज्यादा मौज में, उससे ज्यादा आनंद में कोई कभी दिखाई पड़ा है? लेकिन जिस पौधे पर फूल नहीं आ पाते हैं या जिसकी कलियां कलियां ही रह जाती हैं और कुम्हला जाती हैं, उसकी उदासी देखी है? उसकी चिंता देखी है? उसके लटके हुए, मुरझाए हुए पत्ते देखे हैं?
आदमी के भीतर भी जो फूल खिलने को हैं, अगर न खिल पाएं, तो वह भी उदास हो जाता है, चिंतित हो जाता है, लटक जाते हैं उसके पत्ते भी, उसका व्यक्तित्व भी मुरझा जाता है। ऐसे ही सारी मनुष्यता का व्यक्तित्व मुरझा गया है। क्या कभी आपने अपने से पूछा है कि मेरी सबसे गहरी प्यास क्या है..धन, पद, मोक्ष, परमात्मा? नहीं। अगर आप अपने से गहरे से गहरे में पूछेंगे, तो प्राण एक ही उत्तर देते हैं: प्रेम दे सकूं और पा सकूं। एक ही उत्तर है प्राणों के पास कि प्रेम मुझसे बह सके और मुझ तक आ सके। एक ऐसा जीवन जहां प्रेम की वीणा अपने पूरे संगीत को प्रकट कर सके, एक ऐसा जीवन जहां प्रेम का पूरा फूल खिल सके। एक-एक मनुष्य के केंद्र पर प्रेम के अतिरिक्त कोई पुकार नहीं है, कोई आह्वान नहीं है। और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जिस दिन यह प्रेम का फूल पूरा खिलता है उसी दिन परमात्मा भी उपलब्ध हो जाता है। प्रेम परमात्मा का द्वार है। लेकिन प्रेम का कोई ख्याल नहीं, कोई स्मरण नहीं। क्या करें? यह प्रेम कैसे फैले, कैसे विकसित हो, इसकी बंद दीवालें कहां से तोड़ी जाएं, यह झरना कहां से फोड़ा जाए कि यह खिल जाए? कुछ करना बहुत अपरिहार्य हो गया है, बहुत जरूरी हो गया है। अगर हम नहीं करते हैं, तो शायद प्रेम के अभाव में पूरी मनुष्यता नष्ट भी हो सकती है। कैसे? तो दो-तीन छोटे से सूत्र आपसे कहना चाहता हूं, जिससे यह प्रेम की सरिता बह उठे।
पहली बात, जिस व्यक्ति के जीवन में प्रेम के फूल को खिलाना हो उसे प्रेम मांगने का ख्याल छोड़ देना चाहिए। उसे प्रेम देने का ख्याल स्पष्ट कर लेना चाहिए। पहला सूत्र, जो लोग प्रेम मांगते हैं, उनके भीतर प्रेम का बीज कभी अंकुर नहीं हो पाएगा। जो लोग प्रेम देते हैं उनके भीतर प्रेम का बीज अंकुरित हो सकता है। क्योंकि अंकुरित होने के लिए दान चाहिए। एक बीज जब अंकुरित होता है तो क्या करता है? पत्ते निकलते हैं, शाखाएं निकलती हैं, फूल खिलता है, सुगंध बिखर जाती है, सब बंट जाता है। बंट जाना है तो भीतर का बीज खुलेगा। जो मांगता है वह सिकुड़ जाता है। भिखमंगे से ज्यादा सिकुड़ा हुआ हृदय किसी का भी नहीं होता है। जो मांगता है वह सिकुड़ता जाता है, क्लोजिंग होती जाती है। उसके भीतर कोई चीज बंद होती चली जाती है।
रवींद्रनाथ एक गीत लिखे हैं। एक गीत लिखे हैं, एक भिखारी सुबह ही सुबह घर के बाहर आया है। कोई पवित्र दिन है और आज बड़ा खुश है कि गांव में बहुत भीख मिल जाएगी। झोली टांग कर जल्दी ही गीत गुनगुनाता घर के बाहर हुआ है। झोली में उसने थोड़े से चावल के दाने डाल लिए हैं। सभी भिखारी इतना मनोविज्ञान तो समझते हैं, इतनी साइकोलॅाजी समझते हैं कि झोली खाली हो तो कोई देने को राजी नहीं होता। थोड़ा झोली में पहले से कुछ पड़ा रहना चाहिए, क्योंकि झोली में कुछ पड़ा हो तो देने वाले को अपमानजनक लगता है कि किसी और ने दे दिया है मैं कैसे नाहीं करूं। फिर देने वाले को यह भी लगता है कि भिखारी साधारण नहीं है, प्रतिष्ठित है, उसे मिलता है। कुछ डाल कर दाने चावल के निकल पड़ा है भिखारी घर के बाहर। आज कोई पवित्र दिन है और गांव में कुछ मिलने की आशा है। रास्ते पर आया है कि दंग रह गया, आशा से भी ज्यादा आशा प्रकट हो गई है। राजा का रथ आ रहा है। सूरज की किरणों से उसका स्वर्ण-रथ चमकता है। भिखारी तो आनंद से नाच उठा। आज तक राजा के दर्शन नहीं हो सके थे। द्वार तक जाता था द्वारपाल ही लौटा देते थे। आज राजा ही राह पर मिल गया। आज झोली फैला कर खड़ा हो जाऊंगा। आज तो धन्य हो गए भाग्य, अब तो पीढ़ियों तक मांगने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। वह ऐसे सपने देखने लगा और खड़ा है।
रथ आकर रुक गया, इतना हतप्रभ हो गया है, चैंक कर रह गया है। राजा नीचे उतर आया और राजा ने अपनी झोली भिखारी के सामने फैला दी। राजा ने कहा: क्षमा करना, किसी ज्योतिषी ने कहा है कि राज्य पर बड़े संकट हैं, और अगर मैं भीख मांग लूं आज तो राज्य के संकट टल सकते हैं, तो मैं भीख मांगने निकला हूं। और उसने कहा कि जो पहला आदमी मिल जाए उसके सामने झोली फैला कर दीन-हीन हो जाना तो राष्ट्र बच सकता है। तो मुझे कुछ भीख दे दो, राष्ट्र का सवाल है।
भिखारी के तो प्राण कितने सिकुड़ गए होंगे कुछ पता है। सोचा था उसने, राजा सामने आ गया, मांग लूंगा आज। जीवन-जीवन धन्य हो जाएंगे, हमेशा के लिए मुक्त हो जाऊंगा। वह तो गया ही, वे सपने तो गिर गए, वे जो महल बनाए सपने के, राख हो गए, और उलटा देना पड़ेगा। उसने कभी सोचा ही नहीं था कि देना कैसा होता है। हमेशा पाया था। हमेशा मांगा था। हमेशा लिया था। देना? आज उसे पहली दफा पता चला कि दूसरों पर क्या गुजरती होगी जब उनके सामने झोली फैलाता हूंगा?
हाथ डालता है झोली में और वापस निकाल लेता है। मुट्ठी बांधने का मन नहीं होता। एक मुट्ठी चावल कम हो जाएंगे अपने घर के। आज पछताया, आज झोली खाली ही लेकर आता तो अच्छा था। लेकिन भूल हो गई, लौटने का कोई उपाय नहीं, और राजा सामने खड़ा है। और राजा कहने लगा कि क्या इनकार करोगे? क्या मना कर दोगे? राष्ट्र संकट में है। एक दाना भी दे दो, एक मुट्ठी ना सही?
लेकिन एक दाना भी भिखारी देने में घबड़ाने लगा। लेकिन मजबूरी थी, एक दाना निकाल कर राजा की झोली में डाल दिया। राजा रथ पर बैठ गया, धूल उड़ती रह गई।
भिखारी चिंतित और दुखी दिन भर भीख मांगी। लेकिन मन बड़ा उदास हुआ, एक दाना जो देना पड़ा था, वह बार-बार याद आने लगा। बहुत दाने मिले दिन में, लेकिन भिखारियों की आदत यही होती है; जो मिलता है उसका ख्याल नहीं आता, जो छूट जाता है उसका ख्याल आता है।
हम सबकी भी यही आदत है। बड़े जगत में हम सब भिखारी हैं, जो नहीं मिल पाता उसकी पीड़ा बनी रह जाती है, जो मिलता है उसके लिए कोई धन्यवाद नहीं होता।
दिन भर रोता रहा मन ही मन में कि एक दाना कम है आज झोली में। तिजोरी में जो होता है वह नहीं दिखाई पड़ता। तिजोरी जहां खाली होती है वही जगह दिखाई पड़ती है। तो उस भिखारी पर नाराज मत हो जाना। साधारण आदमी था, जैसे आदमी होते हैं, जैसे हम सब हैं।
उदास लौटा है सांझ। पवित्र था दिन, दिन भर में इतना मिला है कि आज जैसा कभी नहीं मिला था। सारी झोली भर गई है, लेकिन उदास थका-मांदा घर आ गया है। पत्नी देख कर हैरान हो गई कि झोली पूरी भरी है और तुम इतने उदास? उसने कहा: झोली और भी भरी हो सकती थी। पागल, तूझे कुछ पता नहीं, आज बड़ी मुश्किल हो गई। आज मुझको भी भीख देनी पड़ी है। उदास, उसने झोली उलटाई और उदासी छाती पीटने में बदल गई। फिर वह छाती पीट कर रोने लगा। क्योंकि झोली जब नीचे गिरी तो उसने देखा कि एक दाना सोने का हो गया है। सब दाने तो साधारण दाने थे, मिट्टी के, लेकिन एक दाना सोने का हो गया है। तब वह छाती पीट कर रोने लगा कि मैंने सब दाने क्यों न दे दिए उस राजा को? लेकिन अब बहुत देर हो गई थी, अब देने का कोई उपाय न था।
आदमी भी जिंदगी के अंत में पाता है कि जो उसने दिया था सोने का हो गया और जो मांगा था वह मिट्टी का भार हो गया। जो देते हैं हम उससे भीतर कुछ स्वर्ण का होता चला जाता है। जो हम मांगते हैं सब मिट्टी होता चला जाता है।
भयभीत आदमी मांगता है। भयभीत भिखमंगा होता है। भय ही अकेला भिखारीपन है, क्योंकि भय कहता है कि जो है उसे मत छोड़ो। जो मिल जाए उसे ले लो। भय भिखारी बनाता है। प्रेम सम्राट बना देता है। लेकिन सम्राट बनने की दिशा देना है, मांगना नहीं। प्रेम का पहला सूत्र है कि वह प्रेम जन्म नहीं पा सकेगा जब तक हम मांगते हैं। हम सब एक-दूसरे से मांगते हैं, मांगते हैं, मांगते हैं। मां बेटे से कहती है कि तु मुझे प्रेम नहीं करता। बेटा सोचता है मां मुझे प्रेम नहीं करती। पत्नी कहती है पति मुझे प्रेम नहीं करता। चैबीस घंटे एक ही शिकायत है पत्नी की कि तुम मुझे प्रेम नहीं करते और पति की भी वही शिकायत है कि मैं थका-मांदा घर आता हूं मुझे कोई प्रेम नहीं मिलता। दोनों मांग रहे हैं, दोनों भिखारी, एक-दूसरे के सामने झोली फैलाए खड़े हैं। और यह सोचते नहीं कि दूसरी तरफ भी मांगने वाला खड़ा है और इस तरफ भी मांगने वाला खड़ा है। जीवन में कलह और द्वंद्व और युद्ध नहीं होगा तो क्या होगा? जहां सभी भिखारी हैं वहां जीवन बरबाद नहीं होगा तो और क्या होगा?
प्रेम के जन्म का पहला सूत्र है: प्रेम दान है, भिक्षा नहीं। इसलिए जीवन में देने की तरफ दृष्टि जगनी चाहिए। यह मत कहें कि पति मुझे प्रेम नहीं देता; अगर पति पे्रम नहीं देता, इसका एक ही मतलब है कि आप प्रेम नहीं दे रही हैं। यह मत कहें पति कि पत्नी मुझे प्रेम नहीं देती; इसका एक ही मतलब है कि पति प्रेम नहीं दे रहा है। क्योंकि जहां प्रेम दिया जाता है वहां तो अनंत गुना होकर वापस लौटता है। एक-एक दाना सोने का होकर वापस लौटता है। वह तो शाश्वत जीवन का नियम है कि जो दिया जाता है वह अनंत गुणा होकर वापस लौटता है। गाली दी जाती है, तो गालियां अनंत गुनी होकर वापस लौट आती हैं और प्रेम दिया जाता है तो प्रेम अनंत गुना होकर वापस लौट आता है। जीवन एक ईको-पॅाइंट से ज्यादा नहीं है। जहां हम जो ध्वनि करते हैं, वह वापस गंुज कर हम पर वापस आ जाती है। और हर व्यक्ति एक ईको-पॅाइंट है। उसके पास जो हम करते हैं, वही वापस लौट आता है। वही दुगुना, अनंत गुना होकर वापस लौट आता है। प्रेम मिलता है उन्हें, जो देते हैं। प्रेम उन्हें कभी भी नहीं मिलता है जो मांगते हैं। जब मांगने से प्रेम नहीं मिलता तो और मांग बढ़ती चली जाती है, और मांग बढ़ती चली जाती है, और मांग बढ़ती चली जाती है। और मांग में प्रेम कभी मिलता नहीं है। प्रेम उनको मिलता है जो देते हैं, जो बांटते हैं। लेकिन हमें हमेशा बचपन से यह सिखाया जा रहा है: मांगो, मांगो, मांगो! इस मांग ने हमारे भीतर प्रेम के बीज को सख्त कर दिया है।
इसलिए पहला सूत्र है: प्रेम दें। दूसरा सूत्रः देने में अगर अपेक्षा रखें, देने में अगर कोई एक्सपेक्टेशन है, देने में अगर कोई ख्याल है कि लौटना चाहिए, तो कभी नहीं लौटेगा। लौटेगा नहीं और भीतर जो पैदा हो सकता था वह पैदा नहीं होगा, क्योंकि दान कभी भी कंडीशनल नहीं हो सकता, सशर्त नहीं हो सकता। दान हमेशा बेशर्त है। दूसरा सूत्र है: प्रेम का जन्म होगा अगर बेशर्त दान हो। बेशर्त दान प्रेम की शिक्षा की दूसरी सीढ़ी है।
लेकिन हम हमेशा शर्तबंद हैं, हमारा देना। देने के पहले हमारी मांग खड़ी है। देने के वक्त हमारी अपेक्षा खड़ी है। दिया नहीं और हम तैयार हैं कि उत्तर वापस आना चाहिए। ऐसा जो मन है जो उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है, पता ही नहीं है उसे कि उस उतर की प्रतीक्षा में देने के कारण उसके भीतर जो पैदा होता है, वह उसे दिखाई ही नहीं पड़ेगा। वह वंचित हो गया। देकर बिना उत्तर की मांग किए बिना रिस्पांस की फिकर किए। दो ही बातें हैं, जब मैं किसी को प्रेम दूं तो अगर मेरी कोई अपेक्षा है तो नजर उस पर लगी रहती है कि वह क्या करता है और अगर मेरी कोई अपेक्षा नहीं है तो देने के बाद नजर खुद पर आ जाती है, कि देने से क्या हुआ है। देने से भीतर जो फूल खिल सकता है, उसके लिए ध्यान चाहिए, उसके लिए मेडिटेशन चाहिए। तो उसका ध्यान तो उस पर कभी जाता ही नहीं जो भीतर हो रहा है। ध्यान उस पर जाता है जिसके साथ हमने किया है। चूक गए एक मौका। मैंने कहा कि जैसे बीज के लिए सूरज की किरणें चाहिए ऐसे ही भीतर प्रेम के बीज के लिए ध्यान की किरणें चाहिए। मेडिटेटिव कांशसनेस चाहिए कि मेरा ध्यान भीतर जाए। ध्यान की किरणें भीतर जाएं। भूमि चाहिए दान की, किरणें चाहिए ध्यान की। तो भीतर किरणें चाहिए, लेकिन मेरा ध्यान लगा हुआ है उस पर।
मैंने किसी को हाथ का सहारा देकर जमीन से उठा दिया, तो मैं देख रहा हूं कि आस-पास फोटोग्राफर है या नहीं। कोई अखबार वाला है कि नहीं। यह आदमी उठ कर धन्यवाद देता है कि नहीं। चूक गया मैं मौका। एक क्षण आया था जब मैं भीतर जा सकता था। और जो दान घटित हुआ था उस दान के पीछे जो भीतर फूल खिल सकता था उसे देखता। मेरे देखने के साथ ही वहां भीतर कोई कली खिल जाती, लेकिन मैं चूक गया। देखने का मौका भूल गया। मैं बाहर देखने लगा। मैं फोटोग्राफर खोजने लगा। मैं अखबार वाले को देखने लगा। मैं उस आदमी को देखने लगा कि बेईमान कुछ कहता है कि चुपचाप चला जाता है उठ कर? धन्यवाद देता है कि नहीं? चूक गया। एक क्षण, एक मोमेंट आया था, जब भीतर नजर जाती तो कोई चीज खिल जाती। आपको शायद पता न हो, आंख जहां चली जाती है वहीं चीजें खिल जाती हैं।
मनुष्य के पास जो सबसे बड़ी ताकत है वह आंख की ताकत है, देखने की ताकत है, और कोई बड़ी ताकत नहीं है। सबसे बड़ी, सबसे सूक्ष्म, सबसे डेलिकेट, सबसे मूल्यवान जो ताकत है वह देखने की है। किसी को जरा प्रेम से देखें, जैसे वहां कोई चीज खिल जाती है, कोई उदासी मिट गई, कोई रोशनी हो गई। किसी को जरा प्रेम से देखें, और वहां जैसे कोई फूल खिल गया, कोई सुगंध आ गई। ऐसे ही जब कोई भीतर, अपने भीतर दान के क्षण में प्रेम से देखता है, निहारता है, तो वहां भी कोई चीज खिल जाती है, वहां भी हृदय में कोई फूल खिल जाता है।
दूसरा सूत्र है: दान के क्षण में बेशर्त, बिना किसी अपेक्षा के चुपचाप, मौन, बिना किसी उत्तर के।
तीसरा सूत्र है: जो आपके प्रेम को स्वीकार कर ले उसके प्रति अनुग्रह, गेटिट्यूड कि उसने स्वीकार किया। हम तो यह चाहते हैं कि वह हमारा धन्यवाद करे कि हमने उसे प्रेम दिया। लेकिन प्रेम का बीज यह चाहता है कि हम अनुग्रह स्वीकार करें, उसका ग्रेटिट्यूड कि तुमने स्वीकार किया। तुम इनकार भी कर सकते थे। एक गिरा हुआ आदमी यह भी कह सकता था कि नहीं, मत उठाओ। फिर मेरी क्या सामथ्र्य थी कि मैं उसे उठाने का मौका पाता। लेकिन नहीं, उसने मुझे उठाने दिया। उसने एक अवसर दिया कि मेरे भीतर जो प्रेम है वह बह सके। उसने एक अॅापरच्युनिटी दी, उसके लिए मुझे धन्यवाद देना चाहिए। उसे नहीं कि वह मेरा धन्यवाद करे। मैं उसे धन्यवाद दूं कि मैं कृतज्ञ हुआ, मैं अनुगृहीत हुआ। तुमने कृपा की कि मेरे प्रेम को स्वीकार कर लिया। यह तीसरा सूत्र है, जो प्रेम को स्वीकार करे उसके प्रति अनुग्रह का भाव। इस अनुग्रह के भाव में भीतर की कली और जोर से चटखेगी और खिलेगी। क्योंकि अनुग्रह के भाव में ही जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह खिलता है और विकसित होता है।
ग्रेटिट्यूड से बड़ा कोई भाव नहीं, कोई प्रार्थना नहीं, कोई प्रेयर नहीं। लेकिन हाथ जोड़े बैठे हैं, भगवान के सामने और कुछ शब्द दोहरा रहे हैं। यह सवाल नहीं है। जीवन के समक्ष अनुग्रह का भाव, तारों के समक्ष, सूरज के समक्ष, फूलों के समक्ष, लोगों के समक्ष, चारों तरफ यह जो विराट जीवन है, यह मेरे प्रेम को स्वीकार करता है। यह मेरे प्रेम को बहने का मौका देता है। यह मेरे फुलफिलमेंट में, यह मेरी आत्म-उपलब्धि में सहयोगी और मित्र बन गया है। इस सब का, अनुग्रह, इस सबका धन्यवाद जब मन में होगा तो भीतर के झरने फूट पड़ेंगे और बह जाएंगे, और जिस दिन प्रेम का झरना भीतर बहने लगता है उसी दिन पाया जाता है कि भय, फियर कहीं भी नहीं है। है ही नहीं। वह था ही नहीं, वह कभी था ही नहीं। वह प्रेम की अनुपस्थिति थी। वह गैर-मौजूदगी थी।
जब प्रेम से हृदय भर आता है तो इस जगत में कोई भय नहीं है। तब हाथ में तलवार उठाने की जरूरत नहीं। तब राम-राम जप कर मन को बोथला करने की कोई जरूरत नहीं है। तब तो सब तरफ राम ही दिखाई पड़ने लगता है। जपना किसको है, याद किसको करना है, वही है। तब तो सब तरफ उसी परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं। जब भीतर प्रेम होता है तो सारा जगत परमात्मा हो जाता है। और जब भीतर भय होता है तो सारा जगत शत्रु हो जाता है। भीतर जो है वही बाहर हो जाता है। भीतर भय है तो बाहर शत्रुता है। भीतर प्रेम है तो बाहर प्रभु है। वह प्रीतम, वह बिलॅविड है, और फिर सब तरफ वही है सब तरफ, हर इशारे में, हर घटना में, जीवन में, मौत में, कांटे में, फूल में, पत्थर में, सब में वही है।
एक छोटी सी घटना और फिर मैं अपनी बात पूरी करूं।
दो भिक्षु एक लंबी यात्रा से वापस लौटे हैं। वे आठ माह तक घूमते रहे गांव-गांव, गांव-गांव प्रेम की खबर पहंुचाते रहे, प्रभु का गीत गाते रहे। वे लौटे हैं। वर्षा आ गई है सिर पर और अपने गांव पहंुचे झोपड़े में। जब वे झोपड़े के पास पहंुचे हैं, तो बूढ़ा भिक्षु पीछे है, जवान भिक्षु आगे है। उस जवान ने देखा कि झोपड़ा तो टूटा हुआ पड़ा है। आधा छप्पर हवाओं में उड़ गया मालूम होता है। वर्षा आने को है, हवाएं तेज हैं। छप्पर टूटा पड़ा है, एक दीवाल टूटी पड़ी है। उसका मन क्रोध से भर आया। उसने लौट कर अपने बूढ़े साथी को कहा: देखते हो, ये तुम्हारे भगवान की कृपा है जिसके हम गीत गाते फिरते हैं, जिसके लिए हम गांव-गांव नाचते हैं, जिसकी प्रार्थना में हमने श्वास-श्वास गवां दी, उसकी यह कृपा है? वर्षा सिर पर है और झोपड़ा टूटा पड़ा है? आधा झोपड़ा उड़ गया, आधा छप्पर उड़ गया है? और पापियों के मकान नगर में अछूते खड़े हैं, उनमें कुछ ईंट नहीं गिरी। और हम, हम जो उसी का गीत गाते हैं और उसी के लिए जीते हैं, उसके साथ यह अन्याय! इसी बात से तो शक पैदा होता है, संदेह पैदा होता है कि भगवान-वगवान कुछ नहीं है, हम गलती में पड़े हुए हैं।
वह क्रोध से भरा है। लेकिन क्रोध से भरी आंखों में उसे दिखाई नहीं पड़ा कि बुढ़ा क्या कर रहा है। क्रोध उसका थोड़ा उतरा है। और बूढ़े से कोई उत्तर नहीं आया। क्रोध का जब भी उत्तर नहीं आता तो क्रोध जल्दी से उतर जाता है। उतर आता है तो बढ़ता है। जब कोई उत्तर नहीं आया, बूढ़ा मौन खड़ा है, तो उसने आंखें पोंछी और देखा कि बूढ़ा क्या कर रहा है। बुढ़े की आंखों से आंसू बहे जा रहे हैं, उसके हाथ जुड़े हैं आकाश की तरफ और वह कुछ बुदबुदा रहा है। वह कह रहा है, हे परमात्मा, आंधियों का क्या भरोसा, पूरा छप्पर भी उड़ा कर ले जा सकती थी। जरूर तुने बीच में बाधा दी होगी, इसलिए आधा बच गया है। धन्यवाद तेरा।
फिर वे दोनोें जाकर सो गए हैं। रात ऊपर घिरी है। अंधेरी रात, आकाश में बादल घिरे हैं। आज नहीं कल, कल नहीं परसों वर्षा होगी। आधा छप्पर टूटा पड़ा है। एक दीवाल गिर गई है। वे उसके भीतर सो रहे हैं। जो जवान भिक्षु क्रोध से भर गया था, वह रात भर सो नहीं सका। क्रोध के साथ नींद का क्या संबंध हो सकता है। नींद को केवल वही सोते हैं जो क्रोध में नहीं हैं। फिर वह भयभीत है। वर्षा सिर पर है, क्या होगा? भय का नींद से क्या संबंध हो सकता है? नींद तो परम शांति है। केवल वे ही सोते हैं जो शांत हैं। और स्मरण रहे, जो सोते हैं केवले वे ही जागते भी हैं। जो ठीक से नहीं सो पाता वह ठीक से जाग भी हीं पाता।
रात भर वह करवटें बदलता रहा। रात भर उसे क्रोध, गुस्सा आता रहा है कि अब छोड़ दूंगा यह गीत और यह प्रार्थना। लेकिन बूढ़ा सो गया ऐसे परम अनुग्रह के भाव में। उसके चेहरे पर बुढ़ापे की जैसे रेखाएं मिट गईं, वह छोटा बच्चा हो गया है, वह ऐसे सोया है जैसे अपनी मां की गोद में सिर रख कर सोया हो, क्योंकि जिसके हृदय में अनुग्रह है, यह सारा जगत उसे मां की गोद हो जाता है। रात उसकी नींद खुली है, बुढ़े की, तो आकाश में तारे देख कर उसने फिर धन्यवाद दिया कि हे परमात्मा, अगर हमें यह पता होता कि आज इस छप्पर में इतना आनंद है फिर रात सोओ भी और कभी आंख खोलो तो तारे भी देख लो। हमें अगर पता होता कि आज इस छप्पर में ऐसा मजा है तो हम तेरी हवाओं को तकलीफ न देते हम, खुद ही आकर छप्पर गिरा देते। माफ करना, तेरी हवाओं को तकलीफ करनी पड़ी, लेकिन तू हमारी इतनी फिकर करता है। यह अनुग्रह का भाव है। यह गे्रटिट्यूड है।
प्रेम का जन्म, तीसरा सूत्र है। अनुग्रह का भाव जो भी स्वीकार कर ले..चारों तरफ सबके प्रति अनुग्रह का भाव, तो भीतर प्रेम का झरना फूटेगा। निश्चित फूटेगा, फूटता है। और जिस दिन प्रेम का झरना फूटता है उसी दिन भय का अंधकार विलीन हो जाता है।
जिस दिन हृदय इतने प्रेम से भर जाता है कि चारों ओर परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं, उसी दिन भय का अंधकार विलीन हो जाता है। और जहां भय नहीं है वहां प्रभु का मंदिर है। और जहां भय नहीं है वहां जीवन का सत्य है। और जहां भय नहीं है वहां जीवन का आनंद है। जहां भय नहीं है वहां जीवन का सौंदर्य है। और जहां भय नहीं है वहां जीवन का संगीत है। और हम सब विसंगीत में हैं, दुख में हैं, चिंता में हैं, भय में हैं, क्योंकि प्रेम का मंदिर हम नहीं बना पाए। आज तक की पूरी मनुष्यता गलत रही है। ठीक मनुष्यता का जन्म हो सकता है। लेकिन मनुष्य के प्राणों के भय को हटा कर प्रेम को स्थापित करना है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।  

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