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रविवार, 16 सितंबर 2018

भारत के जलते प्रश्न-(प्रवचन-01) 

भारत के जलते प्रश्न-(राष्ट्रीय-सामाजिक) 

पहला-प्रवचन-(ओशो)

समस्याओं के ढेर

भारत समस्याओं से और प्रश्नों से भरा है। और सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि हमारे पास उत्तरों की और समाधानों की कोई कमी नहीं है। शायद जितने प्रश्न हैं हमारे पास, उससे ज्यादा उत्तर हैं और जितनी समस्याएं हैं, उससे ज्यादा समाधान हैं। लेकिन एक भी समस्या का कोई समाधान हमारे पास नहीं है। समाधान बहुत हैं, लेकिन सब समाधान मरे हुए हैं और समस्याएं जिंदा हैं। उनके बीच कोई तालमेल नहीं है। मरे हुए उत्तर हैं और जीवंत प्रश्न हैं। जिंदा प्रश्न हैं और मरे हुए उत्तर हैं।

मरे हुए उत्तर हैं और जीवित प्रश्न हैं। और जैसे मरे हुए आदमी और जिंदा आदमी के बीच कोई बातचीत नहीं हो सकती ऐसे ही हमारे समाधानों और हमारी समस्याओं के बीच कोई बातचीत नहीं हो सकती। एक तरफ समाधानों का ढेर है और एक तरफ समस्याओं का ढेर है। और दोनों के बीच कोई सेतु नहीं है, क्योंकि सेतु हो ही नहीं सकता। मरे हुए उत्तर जिस कौम के पास बहुत हो जाते हैं, उस कौम को नये उत्तर खोजने की कठिनाई हो जाती है।


अब प्रश्नों के साथ एक उलझन है कि प्रश्न सदा नये होते हैं। प्रश्न हमारी फिकर नहीं करते। समस्याएं हमसे पूछ कर नहीं आती हैं, आ जाती हैं। और वे रोज नई हो जाती हैं और हम अपने पुराने समाधानों को जड़ता से पकड़ कर बैठे रह जाते हैं। तब हमें ऐसा लगता है कि समाधान हमारे पास हैं और समस्याएं हल क्यों नहीं होती हैं? गुरु हमारे पास हैं और प्रश्न हल नहीं होते हैं। शास्त्र हमारे पास हैं और जीवन उलझता चला जाता है।
एक बुनियादी भूल, और वह यह है कि सब उत्तर हमारे पुराने हैं। हमने नया उत्तर खोजना बंद कर दिया है। और नये प्रश्न नये उत्तर चाहते हैं। नई समस्याएं नये समाधान मांगती हैं। नई परिस्थितियां नई चेतना को चुनौती देती हैं, लेकिन हम पुराने होने की जिद्द किए बैठे हैं। हम इतने पुराने हो गए हैं और हम पुराने होने के इतने आदी हो गए हैं कि अब हमें खयाल भी नहीं आता कि हम पुराने पड़ गए हैं।
हमारे देश के सामने इसलिए पहला जीता सवाल यह है कि हम मरे हुए उत्तरों को विदा कब करेंगे? उनसे हम छुटकारा कब पाएंगे? उनसे हम कब मुक्त होंगे? क्या कारण है कि हमने नये प्रश्नों के नये उत्तर नहीं खोजे? यही कारण है--अगर हमें खयाल हो कि हमारे पास उत्तर हैं ही रेडीमेड, तैयार, तो हम नये उत्तर क्यों खोजें? मन की तो सहज इच्छा होती है लीस्ट रेसिस्टेंस की; कम से कम तकलीफ उठानी पड़े। उत्तर तैयार हैं तो उसी से काम चला लें। एकबारगी हमारे देश को अपने पुराने उत्तरों से मुक्त और रिक्त हो जाना पड़ेगा तभी हम उस बेचैनी में पड़ेंगे कि हम नई समस्याओं के लिए नये उत्तर खोजें।
हमें अपने अतीत से मुक्त होना पड़ेगा तो ही अपने भविष्य के लिए निर्माण कर सकते हैं। हमें अपने शास्त्रों से मुक्त होना पड़ेगा तो ही हम चिंतन के जगत में प्रवेश कर सकते हैं, अन्यथा हर चीज का तैयार उत्तर हमें किताब में मिल जाता है। मुसीबत आती है, हम गीता खोल लेते हैं। मुसीबत आती है, हम कुरान खोल लेते हैं। मुसीबत आती है, हम मुर्दा गुरुओं के पास पहुंच जाते हैं पूछने कि उत्तर क्या है? हम हमेशा अतीत से पूछते हैं, बीते हुए दिनों से पूछते हैं। लेकिन दुनिया में एक बड़ी क्रांति हो गई है, वह समझ लेनी चाहिए। और अगर वह हम न समझ पाएंगे तो हमारे प्रश्न रोज बढ़ते जायेंगे और हम एक भी प्रश्न को हल न कर सकेंगे।
वह बड़ी क्रांति यह हो गई है--जीसस के मरने के बाद अठारह सौ पचास वर्ष में दुनिया में जितना ज्ञान बढ़ा, पिछले डेढ़ सौ वर्षों में उतना बढ़ा। और पिछले डेढ़ सौ वर्षों में जितना ज्ञान बढ़ा उतना पिछले पंद्रह वर्षों में बढ़ा। आज हम पंद्रह वर्षों में अठारह सौ वर्ष का फासला पूरा कर रहे हैं। इतनी तीव्रता से ज्ञान बढ़ रहा है। पुरानी दुनिया को एक सुविधा थी। उसमें ज्ञान कभी बदलता ही नहीं था। और बदलता था तो इतना लंबा फासला होता था कि जिसका कोई हिसाब नहीं। हजारों वर्षों तक एक ही उत्तर काम देता था। अब दुनिया बदल गई है। अब हर पद्रंह वर्ष में उत्तर बदल जाएंगे। हर नई पीढ़ी नये उत्तर खोजेगी। बीस साल में एक पीढ़ी बदल जाती है। आज बाप और बेटे के बीच उम्र का तो बीस साल का फासला है, लेकिन अगर हम ठीक से गिनती करें, तो बाप और बेटे की पीढ़ी के बीच अठारह सौ साल का फासला हो जाता है। क्योंकि पुरानी दुनिया में अठारह सौ साल में इतना ज्ञान बढ़ता था, जितना आज पंद्रह वर्ष में बढ़ जाता है। इसलिए पुरानी दुनिया में एक सुविधा थी, पुराने उत्तर काम देते थे। जो बाप की जिंदगी में काम दिया था वही बेटे की जिंदगी में काम देता था, वही उसके भी बेटे की जिंदगी में काम देता था। अब यह नहीं हो सकता। और हमारी आदत पुरानी है। बेटा अब भी बाप से पूछने जा रहा है। बहुत कठिन है। उत्तर बाप के पास नहीं है। बाप के पास उत्तर है, लेकिन वह समस्या नहीं रही जिसका उसके पास उत्तर है।
पुरानी दुनिया में ठीक थी यह बात, बेटा बाप से पूछता था और बाप के पास उत्तर होता भी था। सच तो यह है कि पुरानी दुनिया में बेटे के पास प्रश्न होता था, बाप के पास उत्तर होते थे। आज हालत बिलकुल उल्टी हो गई है। बेटे के पास प्रश्न हैं, बाप के पास उत्तर हैं, लेकिन उन प्रश्नों के उत्तर हैं, जो बेटे के प्रश्न नहीं हैं। और तब दोनों के बीच एक खाई खड़ी हो गई है। क्या आपको पता है कि इधर पिछले बीस वर्षों में सारी पृथ्वी पर पिता के आदर में कमी हुई है और गुरु के आदर में कमी हुई है? और सारी दुनिया में चिंता है। हमारे मुल्क में बहुत ज्यादा चिंता है। क्योंकि हम सबसे ज्यादा पिता को पूजने वाले और गुरु को पूजने वाली कौम हैं। हमारी पूरी संस्कृति ने पिता और गुरु और माता की पूजा सिखाई है। एकदम से कमी हुई है। हम सब चिंतित हैं कि यह क्या हो गया? लेकिन कारण का हमें खयाल नहीं है।
कुछ लोग सिखाते हैं कि लड़के बिगड़ गए हैं। लड़के सदा जैसे थे वैसे ही हैं। लेकिन एक क्रांति जीवन में आ गई है। वह क्रांति यह आ गई है कि पहले पिता ज्यादा जानता था, आज बेटे ज्यादा जानने की स्थिति में हैं। और इसलिए पिता जब ज्यादा जानता था और बेटा हमेशा कम जानता था। बेटा कभी ज्यादा नहीं जानता था। क्योंकि जानना आता था अनुभव से, और अनुभव करते-करते, बूढ़ा होते-होते पिता के पास ज्ञान हो पाता था। वही ज्ञान वह बेटे को देता था। आज हालतें बिलकुल बदल गई हैं। आज हालतें ये हैं कि बेटा बहुत कुछ जानता है जो पिता ने कभी नहीं जाना। और उसके बेटे और भी बहुत कुछ जानेंगे जिनका पिता अंदाज भी नहीं कर सकता है। तो पिता के सम्मान में अनिवार्य रूप से परिवर्तन आना था। लेकिन अगर हम समझ जाएं तो हम उस परिवर्तन को समझदारी पूर्वक व्यवस्था दे सकेंगे। न समझ पाएं तो हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। गुरु अब भी पुराना आदर मांगे, यह संभव नहीं है। पुराना आदर अब नहीं मिल सकता, क्योंकि गुरु को जो पुराना आदर मिलता था वह ज्ञान के कारण ही मिलता था। आज अक्सर यह होता है कि क्लास में पढ़ाने वाले प्रोफेसर में और विद्यार्थी में ज्यादा से ज्यादा घंटे भर का फासला होता है। वे घंटे भर पहले तैयार करके आए होते हैं, वे घंटे भर पीछे। अब घंटे भर के फासले पर बहुत आदर नहीं हो सकता। कैसे हो सकता है? और अगर कोई बुद्धिमान, प्रतिभाशाली लड़का हो तो गुरु से आगे आज हो सकता है। पहले कभी नहीं हो सकता था। क्योंकि अनुभव से ज्ञान आता था। और अनुभव में जीना पड़ता था। आज हालतें एकदम बदल गई हैं।
इन बदली हुई स्थितियों में जहां ज्ञान का तीव्रता से विस्फोट हो रहा है, एक्सप्लोजन हो रहा है, वहां हमें सारे के सारे उत्तर नये खोजने पड़ेंगे। पुराने उत्तर काम नहीं दे सकते। और भी एक मजे की बात है कि हमें यह पता ही नहीं चलता क्योंकि हम प्रश्नों के संबंध में कभी गहराई से सोचते ही नहीं कि प्रश्न क्या है? जिनके पास उत्तर तैयार हैं वे प्रश्न में खोज-बीन करने की दिक्कत में नहीं पड़ते। जैसे कोई बच्चा किताब उलटा कर गणित का उत्तर पीछे देख लेता है, फिर वह प्रोसेस, विधि करने की फिकर नहीं करता, फिर वह उत्तर लिख देता है। लेकिन उत्तर महत्वपूर्ण नहीं होते, महत्वपूर्ण हमेशा विधि होती है। विधि के बिना उत्तर का कोई अर्थ नहीं है। प्रश्न पर सोचना ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि उसी से उत्तर निकलता है। लेकिन जिसके पास उत्तर तैयार हैं वह विधि पर सोचता ही नहीं, वह प्रश्न की गहराई में नहीं जाता। हम किसी प्रश्न की गहराई में ही नहीं जाते। हमारे पास उत्तर तैयार हैं। हमने उलटा कर किताब के पीछे उत्तर देख लिए हैं। बीच की प्रोसेस और मेथड का हमें कोई सवाल ही नहीं है। अगर हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए तो हमारे पास उत्तर तैयार है, लेकिन हम समस्या की गहराई में जाने की इच्छा नहीं रखते।
और मजा यह है कि शायद यह भी डर है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम जो उत्तर देते रहे हैं, वही हमारे प्रश्न के आधार में बुनियादी जड़ हो? जिसे हम समाधान कहते हैं कहीं वही तो हमारी समस्या को पैदा करने वाला नहीं है? अगर हिंदू-मुसलमान लड़ते हैं तो हम हिंदू को समझाते हैं कि तुम अच्छे हिंदू बनो। मुसलमान को समझाते हैं कि तुम अच्छे मुसलमान बनो। मुसलमान धर्म भी बहुत अच्छा है, हिंदू धर्म भी बहुत अच्छा है। दोनों धर्म एक से हैं। तुम अच्छे मुसलमान बनो, तुम अच्छे हिंदू बनो। तुम मस्जिद ठीक से जाओ, तुम मंदिर ठीक से जाओ। मैं कभी सोचता हूं कि जब कच्चे मुसलमान और कच्चे हिंदू इतने खतरनाक होते हैं तो सच्चे हिंदू और मुसलमान कितने खतरनाक हो सकते हैं! लेकिन हमारा खयाल यह है कि अगर हिंदू अच्छे हिंदू हो जाएं और मुसलमान अच्छे मुसलमान हो जाएं तो झगड़ा खत्म हो जाएगा।
नहीं, भ्रांति है। हमारा पुराना रटा-रटाया उत्तर है, वह हम दिए चले जा रहे हैं। वह हम कहे ही चले जा रहे हैं। हम यही समझाए चले जा रहे हैं कि अच्छे हिंदू बनो, अच्छे मुसलमान बनो। धर्म तो किसी को लड़ना नहीं सिखाता, और सब धर्मों ने लड़ना सिखाया है। असल में जो भी आदमी-आदमी के बीच फासले पैदा करता है वह लड़ना सिखाएगा ही। जो भी आदमी-आदमी के बीच खंड करता है वह लड़ना सिखाएगा ही।
राजचंद्र को गांधी जी ने कुछ पत्र लिखे थे। और गांधीजी ने एक प्रश्न में उनसे पूछा है कि आप जैन धर्म को ही श्रेष्ठ मानते हैं? राजचंद्र जैसे बुद्धिमान, विचारशील साधु पुरुष ने भी यही उत्तर दिया है कि जैन धर्म ही श्रेष्ठ है। इसलिए मैं श्रेष्ठ मानता हूं। गांधी जी भी हिंदू धर्म को श्रेष्ठ धर्म मानते थे और गांधीजी भी अपने को जीवन भर हिंदू कहते रहे कि मैं हिंदू हूं। अभी मैंने सुना है कि जयप्रकाश ने यहां अहमदाबाद में कहा कि मैं हिंदू हूं और हिंदू होने का मुझे गौरव है। खतरनाक लोग हैं ये। क्योंकि जो यह कहता है कि हिंदू धर्म श्रेष्ठ है, जो यह कहता है कि जैन धर्म श्रेष्ठ है, जो यह कहता है कि मैं हिंदू होने की वजह से गौरवान्वित हूं, यह उपद्रव के बीज बो रहा है--चाहे इसे पता हो और चाहे पता न हो। क्योंकि जो यह कह रहा है कि हिंदू धर्म श्रेष्ठ है वह हिंदू के अहंकार को फुसला रहा है, वह हिंदू के अहंकार को रस दे रहा है और हिंदू के अहंकार को कह रहा है कि हां, हम श्रेष्ठ हैं। और जो यह कह रहा है कि इस्लाम श्रेष्ठ है वह इस्लाम के अहंकार को फुसला रहा है। और जो जैन धर्म को श्रेष्ठ कह रहा है वह भी फुसला रहा है। और जो कह रहा है कि मैं गौरवान्वित हूं हिंदू होकर, मुझे गौरव है कि मैं हिंदू हूं, वह दूसरे लोगों को भी हिंदू होने के अभिमान से भर रहा है। और जहां हिंदू का अहंकार है, जहां मुसलमान का अहंकार है, वहां शांति नहीं हो सकती। वहां कोई शांति संभव नहीं है।
इसलिए मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जब हिंदू-मुस्लिम दंगे होते हैं तो आमतौर से हम यह समझ कर कि गुंडे दंगे कर रहे हैं, गुंडों को गालियां दे लेते हैं और घरों में बैठ जाते हैं। मैं आपसे कहता हूं, बहुत समय हो गया है, गुंडों को अब ज्यादा गालियां मत दें। अब पकड़ना हो तो महात्माओं को पकड़ें, गुंडों को पकड़ने से कुछ भी नहीं हो सकता। गुंडे समस्या नहीं हैं, महात्मा समस्या हैं। लेकिन महात्मा अमन कमेटी बनाते हैं, शांति की व्यवस्था करते हैं, प्रवचन देते हैं, लोगों को समझाते हैं, लड़ो मत। तो महात्मा ऐसा समझ में आता है, वह तो बेचारा समझा रहा है, लड़ो मत। लड़ता तो गुंडा है। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, बहुत पुरानी हो गई है यह बात। यह बात सही नहीं मालूम पड़ती। क्योंकि महात्माओं की कोई कमी नहीं है, शायद गुंडों से ज्यादा ही होंगे। लेकिन कोई कमी नहीं होती युद्ध-संघर्ष में, वैमनस्य में, ईष्र्या में, घृणा में। नहीं, कहीं कुछ भूल हो रही है। गुंडे को हम व्यर्थ ही पकड़ रहे हैं। वह महात्मा की तरकीब है। वह हमें सब गुंडों की तरफ इशारा कर देता है कि गुंडों ने गड़बड़ की। लेकिन महात्मा पकड़ में नहीं आता। और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि महात्मा जड़ में है। क्योंकि महात्मा कह रहा है कि मैं हिंदू होकर गौरवान्वित हूं। वह हिंदू के अहंकार को मजबूत कर रहा है। वह महात्मा कह रहा है कि मैं हिंदू हूं, वह महात्मा कह रहा है कि मैं मुसलमान हूं। तब फिर उपद्रव जारी है।
खान अब्दुल गफ्फार खान यहां आए, सारे मुल्क में गए। लेकिन वे पक्के मुसलमान हैं। और मैं कहना चाहता हूं, पक्का मुसलमान होना खतरनाक है। खतरनाक इसलिए है कि आदमी को आदमी होने दो, मुसलमान और हिंदू मत बनाओ। कृपा करो, अब आदमी-आदमी ही हो जाए तो ही दंगे बंद हो सकते हैं, अन्यथा दंगे बंद नहीं हो सकते। आदमी पर लगाया गया कोई भी लेबल दंगे में सहयोगी बनता है। लेबल लड़वाते हैं। लेकिन एक पक्का मुसलमान है, एक पक्का हिंदू है और हम पक्के हिंदू और मुसलमान कभी मिल नहीं पाते। वह जो मुसलमान होना है वह हिंदू होने से कैसे मिल सकता है? वह जो जैन होना है वह मुसलमान होने से कैसे मेल खाएगा? हमारे बीच अदृश्य दीवालें खड़ी हो जाती हैं।
नहीं, मैं आपसे कहना चाहता हूं, हिंदू-मुस्लिम एक हैं, अब इस नासमझी में पड़ने की जरूरत नहीं है। पचास साल हमने काफी भुगतान किया उस नासमझी का। अब हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई हैं, इसको भी दोहराने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि भाई-भाइयों के कारण हमने बहुत नुकसान सह लिया। बल्कि सच तो यह है कि जितना हमने जोर दिया कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई हैं, उसी जोर ने हिंदुस्तान, पाकिस्तान को बंटवाने का आधार रखा। क्योंकि दो भाई जब पक्के भाई हों और लड़ें और लड़ने के बाद कोई उपाय न हो, तो बंटवारे के सिवाय कोई लॉजिकल कनक्लूजन नहीं रह जाता।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, जिन्होंने समझाया हिंदुस्तान को कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई हैं उन्होंने बंटवारे की नींव रख दी, क्योंकि अगर भाई आखिर में न मिल सकें तो फिर उपाय एक ही है कि बांट लो। कभी कोई देश बंटा नहीं था इस तरह, क्योंकि कभी किसी देश में भाई-भाई होने की पचास साल तक नासमझी नहीं दोहराई गई। हिंदू-मुसलमान का भाई-भाई होना हिंदुस्तान, पाकिस्तान का आधार बना, क्योंकि जब भाई आखिर में लड़ते हैं, और ध्यान रहे, भाइयों से ज्यादा खतरनाक ढंग से कोई भी नहीं लड़ सकता। जब दो भाई लड़ते हैं तो बहुत खतरनाक ढंग से लड़ते हैं। भाइयों से खतरनाक कोई भी नहीं लड़ सकता। इसलिए हिंदू-मुसलमान को भाई-भाई बनाने में खतरा है कि वे खतरनाक ढंग से लड़ भी सकते हैं। और जब दो भाई लड़ते हैं तो आखिर में बंटवारा हो जाता है, और क्या उपाय है? हिंदुस्तान बंटा। जिन्होंने भाई-भाई कह कर समझाया उन्होंने देश को बंटवाया। अब आगे यह कहने की जरूरत नहीं है। असल में यह जरूरत ही क्यों पड़ती है कि हिंदू मुसलमान भाई-भाई हैं! यह जरूरत इसलिए पड़ती है कि पहले हम स्वीकार कर लेते हैं कि एक हिंदू है और एक मुसलमान है।
नहीं, मैं आपसे कहना चाहता हूं, ये उपद्रव बंद न होंगे। यह सांप्रदायिक जहर समाप्त न होगा। इस देश के सामने बड़े से बड़ा जीता सवाल सांप्रदायिक जहर का है, सांप्रदायिकता का है, यह समाप्त न होगा। यह समाप्त एक ही तरह से होगा कि हम लेबल अलग कर दें। और जो लोग बुद्धिमान हैं, वे कह दें कि हम सिर्फ आदमी हैं; अब हमें हिंदू और मुसलमान होने से कोई वास्ता न रहा। अभी आपने यहां सब कुछ देखा, लेकिन कितनों के मन में यह खयाल आया कि अब हम हिंदू और मुसलमान होना बंद कर दें। नहीं, किसी को खयाल नहीं आया। वह खयाल नहीं आता हमें। हमें यही खयाल आता है कि गलत हिंदू यह काम कर रहे हैं। गलत मुसलमान यह काम कर रहे हैं। हमें यह खयाल ही नहीं आता कि मुसलमान होने, हिंदू होने के भीतर ये बीज छिपे हैं इसलिए यह होता रहेगा। अगर आपको पता न हो कि आप हिंदू हैं या मुसलमान हैं, तो आप किससे लड़ने जा सकते हैं?
मैं अभी एक ट्रेन में सवार हुआ। कुछ मित्र छोड़ने आए थे। उसी बगल के मेरे कंपार्टमेंट में एक सज्जन थे, उन्होंने सोचा, कोई महात्मा होंगे। जैसे ही मैं डिब्बे के भीतर गया, वे पैर पड़े और कहा, महात्मा जी, आपसे सत्संग करना चाहता हूं। मैंने कहाः पहली तो बात यह कि मैं कोई महात्मा नहीं हूं। महात्माओं ने इतना नुकसान पहुंचाया है कि अब कोई भला आदमी महात्मा नहीं हो सकता है। तो आपने गलती से पैर पड़ लिए। अगर किसी तरकीब से वापस ले सकते हों तो वापस ले लें। उन्होंने कहाः क्या आप महात्मा नहीं हैं? कम से कम आप हिंदू तो हैं? मैंने कहा कि हिंदू भी मैं नहीं हूं, मैं सिर्फ आदमी हूं। उन्होंने कहाः क्या मतलब आपका? आप हिंदू नहीं हैं? वे इतने बेचैन हो गए, क्योंकि पता नहीं, किसके पैर छू लिए! मुसलमान हो, ईसाई हो, पता नहीं कौन हो! अब लेकिन पैर छू लिए तो वापस लौटाने का उपाय नहीं है! अब क्या करेंगे? मैंने कहाः कोई तरह वापस ले सकते हों तो ले लें। हाथ धो सकते हों तो धो लें, साबुन मैं दिए देता हूं। उन्होंने कहाः नहीं-नहीं, यह बात नहीं, लेकिन आप कौन हैं? मुसलमान हैं, ईसाई हैं, कौन हैं? मैंने कहाः अगर मैं कोई न होऊं तो क्या मुझे होने का हक नहीं है? नहीं, उन्होंने कहाः हक की कोई बात नहीं है। मैंने कहाः बैठिए। आप कहते थे, सत्संग करेंगे, सत्संग हो। उन्होंने कहाः नहीं, मैं सुबह मिलूंगा। मैंने कहाः आप बैठें। पर वे इतने बेचैन हो गए कि उस आदमी के साथ कैसे बैठें जो न हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है! हम उस आदमी से संबंध कैसे जोड़ें, दोस्ती कैसे बनाएं, दुश्मनी कैसे बनाएं? अगर मैं हिंदू होता तो दोस्ती बन जाती। अगर मैं मुसलमान होता तो दुश्मनी बन जाती। लेकिन अगर मैं निपट आदमी हूं, तो संबंध कैसे बनाएं! दो आदमी के बीच संबंध नहीं हो सकता? नहीं; हिंदू हिंदू के बीच संबंध हो सकता है, मुसलमान मुसलमान के बीच हो सकता है। और यह भी वहीं, जहां कि हिंदू-मुसलमान हैं।
जब यहां अहमदाबाद में दंगा चलता था तो मैं कश्मीर में था, पहलगाम में था। पहलगाम तो मुसलमानों की बस्ती है। हिंदू तो एकाध-दो घर होंगे। जो आदमी मेरा खाना बनाता था उससे मैंने पूछा कि तू मुसलमान है न? उसने कहाः मैं मुसलमान! नहीं। वह जो आपके कपड़े धोता है, वह मुसलमान है। मैं तो सुन्नी हूं। मैंने कहाः यह बड़ा मुश्किल सवाल है। तू सुन्नी है, मुसलमान नहीं है? उसने कहा कि नहीं, शिया मुसलमान होते हैं, हम सुन्नी हैं। उस गांव में शिया और सुन्नियों में झगड़ा है, तो दोनों एक ही लेबल लगाने को तैयार नहीं हैं। झगड़ा है शिया-सुन्नी में, तो दोनों कैसे मुसलमान हो सकते हैं? सुन्नी सुन्नी है, शिया शिया है। दोनों के बीच झगड़ा है, तनाव है। शिया-सुन्नी के बीच झगड़ा है, श्वेतांबर-दिगंबर के बीच झगड़ा है, ब्राह्मण-शूद्र के बीच झगड़ा है। फिर ब्राह्मण और ब्राह्मण के बीच भी फिरके हैं और उनके बीच झगड़ा है।
क्या हम लेबलों से कभी मुक्त न हो सकेंगे? आदमी कभी आदमी न हो सकेगा? समस्या यह है कि आदमी आदमी होकर ही ठीक हो सकता है। और हम जो समाधान खोजते हैं वे कुछ ऐसे खोजते हैं कि उनसे आदमी कभी आदमी नहीं हो पाता है। वह हिंदू हो जाता है, मुसलमान हो जाता है, ईसाई हो जाता है। और झगड़े के बीज आरोपित कर दिए जाते हैं। इस देश को अगर भविष्य की तरफ उन्मुख होना हो तो अतीत से दी गई इन बीमारियों से छुटकारा पाना होगा। आदमी होगा भविष्य में, यह निर्णय लेना होगा।
और जो बाप अपने बेटे को हिंदू बना रहा है, वह दुश्मन है अपने बेटे का। क्योंकि वह अपने बेटे को किसी की छाती में छुरा भोंकने को तैयार करवा रहा है। और जो बाप अपने बेटे को मुसलमान बना रहा है, वह भी खतरनाक बाप है। वह या तो अपने बेटे की छाती में छुरा भोंकवाएगा या अपने बेटे से किसी की छाती में छुरा भोंकवाएगा। लेकिन अब अगर बाप थोड़े समझदार हों तो अपने बेटे को सिर्फ आदमी बनाना चाहिए। पचास साल बाद इस देश में आदमी हों। हिंदू-मुसलमान खोजे से न मिलें, यह निर्णय हमें लेना पड़ेगा। अन्यथा हम सांप्रदायिकता से मुक्त नहीं हो सकते। न खान अब्दुल गफ्फार खान मुक्त कर सकते हैं, न महात्मा गांधी मुक्त कर सकते हैं, क्योंकि बुनियादी जड़ की बीमारी को वे स्वीकार करते हैं। एक हिंदू है--एक पक्का हिंदू, एक पक्के मुसलमान हैं। वे बुनियादी जड़ को इनकार नहीं करते। वे यह नहीं कहते हैं कि मस्जिद और मंदिर, हिंदू और मुसलमान बेहूदगियां हैं, एब्सर्डिटीज हैं। भगवान का कोई मंदिर हो सकता है कि कोई मस्जिद हो सकती है?
भगवान अगर है तो इस पूरे जगत में है और हर जगह मंदिर है और हर जगह मस्जिद है। और जिसे प्रार्थना करना आता है वह किसी वृक्ष के नीचे या किसी नदी के तट पर, अपने घर की छत पर भी मंदिर बना ले सकता है। कहीं अलग मंदिरों की अब जरूरत नहीं है। अलग मंदिर बहुत महंगे पड़ गए हैं, बहुत महंगा सौदा सिद्ध हुआ है। अब नहीं मंदिर चाहिए, अब नहीं भगवान की मूर्तियां चाहिए, अब नहीं मस्जिद चाहिए, अब इनसे छुटकारा चाहिए। अब सिर्फ आदमी चाहिए। और ऐसा आदमी अगर हम पैदा नहीं कर सकते हैं तो हम अपनी समस्याओं का हल न खोज पाएंगे। हम रोते रहेंगे, समस्याएं हमारी जान खाती रहेंगी। आज यहां फूटेगा, कल जहर वहां फूटेगा, परसों वहां फूटेगा। बंबई, अहमदाबाद में जब जहर फूटेगा तो अहमदाबाद के लोगों को कहेगा, कैसे लोग हैं! और जब जबलपुर में जहर फूटेगा तो अहमदाबाद के लोग कहेंगे, कैसे लोग हैं! और जब दिल्ली में फूटेगा तो जबलपुर के लोग कहेंगे, कैसे लोग हैं! लेकिन कोई यह न सोचेगा कि हम सब ऐसे ही लोग हैं, हम सबमें कोई फर्क नहीं है। क्योंकि हम भी हिंदू हैं, हम भी मुसलमान हैं। देर-अबेर की बात है, जहर कहीं भी फूट सकता है, लेकिन हम सब बीमार हैं।
आदमी को स्वस्थ करना है तो आदमी, सिर्फ आदमी होना काफी है। असल में हिंदू-मुसलमान होना बड़ी पुरानी बातें हो गई हैं। एक दुनिया थी जब दुनिया खंड-खंडों में विभाजित थी। न हिंदुस्तान के आदमी को पता था बाहर का, न बाहर के आदमी को पता था हिंदुस्तान का। लोकल सब बंटवारा था। सारी दुनिया छोटे-छोटे खंडों में बंटी थी।
और कनफ्यूशियस की एक किताब में लिखा है कि मेरे पूर्वज कहते थे कि गांव के पास नदी बहती थी। नदी के उस पार रात को कुत्ते भौंकते थे तो हमें आवाज सुनाई पड़ती थी लेकिन हमें यह पता नहीं था कि नदी के पार कौन रहता है? क्योंकि नदी बड़ी थी और नाव ईजाद न हुई थी। नदी के पार कोई रहता है, कोई गांव है, कभी-कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज रात के सन्नाटे में सुनाई पड़ती है लेकिन नाव न थी। वह गांव अपनी उसकी दुनिया थी, इस गांव की अपनी दुनिया थी। एक-एक गांव की अपनी दुनिया थी, एक-एक देश की अपनी दुनिया थी। सारी मनुष्यता जुड़ी न थी। उस खंडित दुनिया में हमने जो विचार पैदा किए थे वे आज के काम के नहीं हैं।
आज सारी दुनिया एक गांव हो गई है, एक युनिवर्सल विलेज हो गई है। जितनी देर में हम एक गांव से दूसरे गांव पहुंचते थे, आज उतनी देर में हम अहमदाबाद से लंदन पहुंच सकते हैं। दुनिया एक छोटा गांव हो गई है। उस दुनिया की धारणाएं, जब दुनिया खंडित थी, हम अगर अभी भी पकड़ कर चलते हैं तो हम इस दुनिया में रहने के योग्य न रह जाएंगे। वे हमें छोड़ देनी पड़ेंगी। यह ऐसा ही है जैसा कि कार तो ईजाद हो गई है, हवाई जहाज ईजाद हो गया लेकिन एक आदमी अपनी बैलगाड़ी को लेकर हवाई जहाज में बैठ जाए। वह कहे कि हम अपनी बैलगाड़ी नहीं छोड़ सकते हैं। क्योंकि बैलगाड़ी में हमारे पूर्वज चलते थे। बैलगाड़ी ने बड़ी कृपा की है। हम बैलगाड़ी नहीं छोड़ सकते, हम तो हवाई जहाज में इसको लेकर ही चलेंगे।
उस आदमी को हम पागल कहेंगे, जो आदमी बैलगाड़ी को लेकर हवाई जहाज में सवार होने की कोशिश कर रहा है। लेकिन हम सब पिछली सदियों को लेकर बीसवीं सदी में जीने की कोशिश कर रहे हैं। उन दोनों बातों में बहुत भेद नहीं है। पिछली सदियों को विदा हो जाना चाहिए। चैदह सौ साल पहले इस्लाम पैदा हुआ था। वह चैदह सौ साल पहले अरब की हालतों में उसका कोई अर्थ कोई संदर्भ रहा होगा; कोई संगति, कोई रिलेवेंस रही होगी। आज उसकी कोई रिलेवेंस नहीं है।
हिंदू धर्म पांच हजार साल पहले पैदा हुआ था। पांच हजार साल की पुरानी दुनिया में उसका कोई अर्थ रहा होगा। जब बिजली चमकती होगी तो डर लगता होगा और इंद्र की पूजा की गई होगी। अर्थात मन को राहत मिली थी, रात हम निशिं्चत सो सके थे कि इंद्र को समझा दिया है, नारियल भी फोड़ दिया है। रात कम से कम हमारा घर सुरक्षित रहेगा। लेकिन आज कोई रिलेवेंस नहीं है। लेकिन आज भी बीसवीं सदी में यज्ञ किया जा रहा है, इंद्र की पूजा की जा रही है, पानी बरसे, इसके लिए इंद्र से प्रार्थना की जा रही है, यह बैलगाड़ी को लेकर हवाई जहाज में चढ़ने की कोशिश है।
नहीं, हर युग अपना विचार पैदा करता है। फिर युग चला जाता है और विचार अटक कर रह जाता है। और विचार को हम दूसरे युग में ले जाते हैं। तब वह विचार बोझिल हो जाता है, लेकिन पहले यह बोझिल न हुआ था क्योंकि नये विचार पैदा ही नहीं हो रहे थे। लेकिन इधर डेढ़ सौ वर्षों में मनुष्य की चेतना क्रांति से गुजर गई है। एक बहुत बड़ा तूफान आया, सब विचार बदल गए, नई दिशाएं टूटीं, नये खयाल पैदा हुए, नये आविष्कार हुए। उन्होंने सब पुरानी स्थिति डांवाडोल कर दी। पुराना सब जमा हुआ बिखर गया। सब उखड़ गया। एक दुनिया थी जब हम सोचते थे पृथ्वी केंद्र है और सूरज चक्कर लगाता है। वैसे दिखता है सूरज चक्कर लगाता हुआ। लेकिन सब दिखा हुआ सच नहीं होता। सूरज दिखता है हम सबको कि चक्कर लगाता है। एक दुनिया थी, जब स्वाभाविक किसी ने सोचा होगा कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है। उस दुनिया के लिए यह बात गलत न रही होगी। लेकिन आज, आज अगर कोई यह कहेगा तो मुश्किल हो जाएगी। आज हम जानते हैं कि पृथ्वी ही सूरज का चक्कर लगाती है। लेकिन जो हमने विचार पैदा किए थे पृथ्वी को केंद्र पर मान कर वे सारे के सारे विचार वही के वही हैं और अब सब स्थिति बदल गई है। अब पृथ्वी सूरज का चक्कर लगा रही है।
मनुष्य को एक भारी अहंकार था। पुराने सारे धर्म कहते हैं, आदमी को विनम्र होना चाहिए लेकिन किसी धर्म ने भी आदमी को विनम्रता नहीं सिखाई। आदमी को धर्म ने भारी अहंकार सिखाया है। कोई कहता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। कोई कहता है, हम ईश्वर के बेटे हैं। कोई कहता है, परमात्मा ने आदमी को सृजा अपनी ही शक्ल में। अब आदमी की शक्ल देख कर अगर परमात्मा का पता लगाना हो, तो ऐसा परमात्मा न ही मिले तो अच्छा। क्योंकि मिले तो जेब काट सकता है, छुरा मार सकता है आदमी की शक्ल में। पुराने आदमी ने ऐसा सोचा था कि भगवान ने कोई स्पेशल, कोई विशेष आदमी को पैदा किया है। पृथ्वी केंद्र थी, आदमी केंद्र था, चांद-तारे सब आदमी के आस-पास, इर्द-गिर्द घूम रहे थे।
चांद इसलिए था कि आदमी को रात में रोशनी हो और सूरज इसलिए था कि सुबह उठ कर आदमी को खेत पर काम में जाने में रोशनी करे। सब आदमी के चाकर थे। और भगवान आदमी को व्यवस्था देने के लिए था। इसलिए आदमी छोटी-छोटी बात के लिए उसके पास जा रहा था--पानी गिराओ, धूप कम करो, या बादल लाओ या न लाओ, या फसल ठीक हो, या दुश्मन की फसल न हो पाए।
धर्मग्रंथों में ये भी प्रार्थनाएं हैं कि दुश्मन की गाय दूध देना बंद कर दे। धर्मग्रंथ थे कि दुश्मन के खेत में फसल न हो, कि ओले गिरें तो दुश्मन के खेत में गिरें, मेरे खेत में न गिरें। हे भगवान, ऐसी व्यवस्था कर देना। भगवान से भी एक तरह के नौकर का ही काम लिया जा रहा था--आदमी के नौकर का। आदमी था सेंटर में, सब बदल गया लेकिन।
पीछे बर्नार्ड शॉ अमरीका में था। एक युनिवर्सिटी में बोलते हुए उसने मजाक में यह बात कही कि मैं यह सिद्धांत मानने को राजी नहीं हूं कि सूरज का चक्कर पृथ्वी लगाती है। मैं तो पुराना सिद्धांत ही मानता हूं कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है। एक आदमी ने पूछाः आप कह क्या रहे हैं? भूल तो नहीं गए हैं? सूरज, और पृथ्वी का चक्कर लगाता, आप कह रहे हैं? कारण बताएंगे? बर्नार्ड शॉ ने कहाः बिना कारण मैं कुछ भी नहीं कहता। बड़े से बड़ा कारण यह है कि बर्नार्ड शॉ जिस पृथ्वी पर रहता है वह पृथ्वी किसी का चक्कर नहीं लगा सकती। सूरज ही चक्कर लगाता होगा। मैं यहां रहता हूं।
आदमी पृथ्वी पर रहता था। उसने पृथ्वी को सेंटर बना लिया था। अब हम जानते हैं कि पृथ्वी बहुत छोटी से छोटी चीज है। सूरज सात हजार गुना बड़ा है इस पृथ्वी से, और सूरज बहुत छोटा सूरज है, उससे करोड़, अरब गुने सूरज हैं। सूरज बहुत छोटा सूरज है और पृथ्वी का तो कोई पता ही नहीं है। अगर इस पूरे विस्तार में हम खोज करने निकलें तो पृथ्वी का कोई हिसाब नहीं है। वह कहीं नहीं आती है। उस पृथ्वी पर आदमी है, लेकिन उसने अपने को सदा केंद्र माना था। केंद्र मान कर उसने एक दुनिया विकसित की थी--मंदिर और मस्जिद और भगवान और गीता और कुरान, और दर्शन और फिलासफी की। वह सब गड़बड़ा गई।
अब आदमी केंद्र पर नहीं है। फिर पहले तो पृथ्वी चक्कर लगाने लगी, आदमी का पहला केंद्र टूट गया। फिर डार्विन ने कहा कि यह आदमी की सारी आदतों को देख कर, खोज-बीन करके ऐसा लगता है कि यह थोड़ा सा पूंछ झड़ गया बंदर है। कहां भगवान की इमेज में हम थे और कहां बंदर से संबंध जुड़ा! बहुत मुश्किल हो गई, बहुत बेचैनी हुई, बहुत कठिनाई हुई, लेकिन डार्विन ने बड़े गहरे प्रमाण खोजे थे। और उसे गलत नहीं कहा जा सका। भगवान का बेटा अचानक बंदर का बेटा सिद्ध हुआ। तब बहुत कठिनाई हो गई। लाखों साल हो गए हैं बंदर को आदमी बनने की प्रक्रिया में। बहुत कुछ बदलाहट हुई है लेकिन बहुत गहरे में बंदर अब भी मौजूद है।
मैं एक अजायबघर में गया था। वहां काफी बंदर एक कठघरे में बंद हैं। मैं उस अजायबघर के एक क्यूरेटर को पूछने लगा कि जब तुम किसी नये बंदर को लाते हो...क्योंकि उस दिन एक नया बंदर लाया गया था, उस कठघरे में। उस नये बंदर को बाकी बंदर बहुत परेशान कर रहे थे। पुराने बंदर उसको डरवा रहे थे। तो उसने कहा कि यह हमेशा होता है। जब भी नये बंदर को लाते हैं तो रस्साकशी होती है। जो पुराना बंदरों का नेता होता है वह नये बंदर को डरवाता है। अगर नया बंदर डर जाए, दबा दिया जाए तो वह सब-आर्डिनेरी हैसियत का हो जाता है, नंबर दो। और अगर वह न डरे और पुराने वाले नेता को डरा दे तो वह नंबर एक हैसियत का हो जाता है। मैंने कहाः बहुत बढ़िया। उसने कहाः आप दिल्ली जाते होंगे, दिल्ली में भी यही होता है। एक बंदर दूसरे बंदर को डरा रहा है। सब आर्डिनेरी हैसियत करने की कोशिश चलती है।
वह डार्विन ठीक कहता था। और आज के हिंदुस्तान के नेताओं की तो शक्लें भी डार्विन को पता नहीं थीं। अगर पता होतीं तो बड़ी मुश्किल होती। वह इसको भी एक प्रमाण मानता कि आदमी जरूर बंदर से पैदा हुआ है। असल में जब जिंदगी कुरूप हो जाती है तो भीतर चेहरा भी कुरूप हो जाता है। हिंदुस्तान के नेतृत्व से सौंदर्य चला गया नेहरू के मरने के साथ। भीतर सब कुरूपता है, सब गंदगी है, चैबीस घंटे, तो चेहरे भी कुरूप हो जाते हैं। उनका भी सौंदर्य खो जाता है। आज हिंदुस्तान के नेताओं को लाइन लगा कर खड़ा किया जाए तो वे किसी भी कारागृह के अपराधी, कैदी मालूम हो सकते हैं। सौंदर्य खो गया, गरिमा खो गई। डार्विन को लेकिन इसका कुछ पता नहीं था। उसने तो इनके बिना जाने यह किया था। इनका कोई कसूर नहीं था, इनका कोई हाथ नहीं था। लेकिन डार्विन ने यह कहा कि आदमी बंदर से पैदा हुआ है। और बड़ी खोज की, और बात सच है।
वैसे, भगवान से पैदा होना और बंदर से पैदा होने में, बंदर से पैदा होना ही ज्यादा गौरवपूर्ण है। क्यों? क्योंकि भगवान से पैदा होने का मतलब होता है पतन, फाल। बंदर से विकसित होने का मतलब होता है विकास, उन्नति। भगवान से पैदा होने का मतलब होता है पतन। बंदर से पैदा होने का मतलब होता है विकास। पुरानी दुनिया पतन की छाया में जी रही थी। उसने जितने समाधान खोजे थे, वे सब पतन की छाया में खोजे थे। ओरिजिनल सिन था कि आदमी भगवान से बिछुड़ गया। ईदन के बगीचे से बाहर निकाल दिया गया। पतित था आदमी। डार्विन के बाद आदमी विकास की धारा पर खड़ा हुआ। इसलिए पुराना आदमी रोज पतित हो रहा था। हमने भी जो विचार किया था वह पतन का है। हमारे अच्छे युग पहले हो चुके, गोल्डन एज पहले हो चुकी। सतयुग, द्वापर, त्रेता, सब हो चुके। पीछे कलयुग। रोज हम पतित हो रहे हैं। श्रेष्ठतम युग पहले, फिर पतन...फिर पतन...फिर पतन, कलियुग आखिरी पतन की स्थिति। हमारी भी चिंतन की धारा यही थी कि श्रेष्ठ पहले हो गया, निकृष्ट पीछे आ रहा है। विकास की कोई धारणा न थी।
दुनिया में ही न थी। इवोल्यूशन की कोई धारणा न थी, पतन की ही धारणा थी।
पतन की धारणा के नीचे जो भी सिद्धांत हमने खोजे थे, वे आज की समस्याओं का समाधान नहीं है। क्योंकि आज हम विकास की धारणा के अंतर्गत जी रहे हैं। आज सब कुछ विकास के अंतर्गत है। आज आदमी विकासशील है। इसलिए पुराना समाज स्टेटिक था, ठहरा हुआ था। ज्यादा से ज्यादा पतन रुक जाए तो काफी था। आज का समाज डाइनेमिक होगा, गतिमान होगा। इतना काफी नहीं है कि पतन न हो, जरूरी है कि विकास हो। विकास हो मतलब, स्वर्णयुग आगे रखना होगा भविष्य में। अब तक के सब स्वर्ण-युग पीछे थे। राम-राज्य हो चुका वही। जो हो चुका था वही राम-राज्य है, लेकिन स्वर्ण-युग आगे है। यह हमें बदलना पड़ेगा। हमें पूरा पर्सपेक्टिव--चिंतन की पूरी धारा बदलनी पड़ेगी।
फिर आया फ्रायड। एक हमला कोपरनिकस ने किया, दूसरा हमला डार्विन ने किया, तीसरा हमला फ्रायड ने किया। उसने कहा कि जिन चीजों की तुम निन्दा कर रहे हो वह आदमी उनसे भरा हुआ है। और जिन चीजों की तुम प्रशंसा कर रहे हो वे सिवाय सपनों के, कहानियों के और कुछ भी नहीं हैं। और जब आदमी के भीतर खोज-बीन की गई तो फ्रायड को सही पाया गया। फ्रायड सही है।
आदमी उन सब चीजों से भरा है, जिन्हें हम इन्कार कर रहे हैं। हमारे इनकार करने से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। एक आदमी गीता पढ़ रहा है, एक आदमी कुरान पढ़ रहा है। हम सोच भी नहीं सकते कि भोला-भाला आदमी एक दीया जला कर, घी का दीया जला कर कुरान और गीता पढ़ रहा है, यह किसी की छाती में छुरा भोंक सकता है। इसके चेहरे को देख कर खयाल ही नहीं आता। लेकिन फ्रायड कहता है कि थोड़ा पीछे खोजो, हो सकता है, छुरा भोंकने से बचने के लिए ही कुरान और गीता पढ़ रहा हो कि किसी तरह मन को भुला लें। राम-राम, राम-राम जप रहा है एक आदमी। ऊपर से दिखाई पड़ता है कि राम का चिंतन कर रहा है। हो सकता है, भीतर किसी चिंतन को दबाने लिए राम-राम, राम-राम जप रहा हो कि भीतर कुछ दब जाए जो राम से बिलकुल उलटा है। नदी में लोग ठंड में स्नान करते हैं तो एकदम हरि-हरि, राम-राम, राम-राम करने लगते हैं। इस भूल में मत पड़ जाना कि राम से कुछ संबंध है। वह जो ठंड लग रही है, वह ठंड भूल जाए। माइंड आकुपाइड हो जाए राम-राम में तो नीचे जो ठंड लग रही है वह भूल जाए।
फ्रायड ने पहली दफा चेताया कि भीतर आदमी कुछ और है। उसे भूलने की कोशिश कर रहा है। भजन-कीर्तन कर रहा है और भीतर गालियां देना चाहता है। ऊपर से प्रेम की बातें कर रहा है, भीतर घृणा के सागर भरे हैं। ऊपर से अमृत की खोज कर रहा है, भीतर जहर खुद पैदा कर रहा है।
आदमी की सचाई पहली दफा खोल कर रखी गई। हम डरते थे आदमी को नंगा देखने में कि वह आदमी नंगा कैसा है। हमने उसे कपड़े पहना दिए थे अच्छे-अच्छे और कपड़ों में ही देखते रहे थे। इधर डेढ़ सौ वर्षों में सब बदल गया। आदमी बहुत और रूप का दिखाई पड़ा है, जैसा हमने उसे कभी न सोचा था--भीतर खोजने से। जितने हम उसके भीतर गहरे गए हैं उतना हमें पता चला है कि आदमी बहुत अदभुत जाल है। उसके भीतर बड़ी गहरी जड़ें हैं और बड़ी खतरनाक हैं। लेकिन उनको दबाने से कोई छुटकारा नहीं है। उनको समझने से छुटकारा हो भी सकता है। पुरानी सारी संस्कृति दबाने वाली संस्कृति थी। आज की अधिकतम समस्याएं, जिन्हें हम आज बर्निंग प्रॉब्लम्स कहते हैं, जिन्हें हम जिंदा जलते हुए प्रश्न कहते हैं, वे पुरानी सभ्यता के सप्रेशन और दमन से पैदा हुए हैं। आज जलते हुए हैं, लेकिन उनकी जलन और उनकी आग ऐसे मार्गों से भी निकल जाती है जिनसे उनका कोई संबंध नहीं है।
मैं दफ्तर में हूं और मेरे मालिक से झगड़ा हो गया, तो मालिक पर मैं क्रोध नहीं करता हूं, लेकिन जाकर अपनी पत्नी पर टूट पड़ता हूं। और पत्नी की समझ के बाहर होता है। उसने बेचारी ने कुछ बिगाड़ा भी नहीं। दिन भर मेरे घर में मेरे बच्चों की फिकर करे, मेरे बर्तन साफ करे, मेरे कपड़े धोए और सांझ को मैं पहुंचूं कि उसकी गर्दन पकड़ लूं और उसे कुछ समझ में न आए कि क्या मामला हो गया है। लेकिन वह भी मुझ पर नहीं टूट सकती है क्योंकि पति परमात्मा है। ऐसा पतियों ने ही उसे समझाया हुआ है! और पति कैसा भी हो, उसको तो सती-सावित्री होना ही है। वह भी समझाया हुआ है। तो वह मुझे सह जाती है। लेकिन बेटे की प्रतीक्षा करती है स्कूल से आते कि बेटा फंस जाए आकर तो उसकी गर्दन पकड़ ले। बेटा चला आ रहा है, उसे पता भी नहीं है। बस्ते को झुलाते हुए, गीत गाते हुए, उसे पता ही नहीं कि मां तैयार है, पिता ने मां को तैयार कर रखा है। वह तैयार है, वह उस पर टूटेगी। वह आते से टूट पड़ने वाली है। कपड़े खराब हो गए हैं, गंदे लड़कों के साथ खेला है, और हजार कसूर हैं।
जिंदगी में कसूर जब खोजने हों तो मिल ही जाते हैं, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। कल भी वह इन्हीं बच्चों के साथ खेला था, कल भी कपड़े इतने ही गंदे हो गए थे। वह बच्चा कैसा, जिसके कपड़े गंदे होकर घर न आएं! वह कोई बूढ़ा है? बूढ़े अपने कपड़े बचा कर आते हैं इसलिए और कुछ नहीं बचा पाते हैं, सिर्फ कपड़े ही बचा पाते हैं। वह बच्चा है, अभी कपड़े की फिकर कहां है। अभी कपड़े कहां बाधा डालते हैं जीने में उसके! अभी कपड़े अर्थहीन हैं। अभी कपड़ों का कोई मूल्य नहीं है। वह कल भी कपड़े बिगाड़ कर आया था, लेकिन कल नहीं पकड़ा गया था, क्योंकि कल पति ने पत्नी को तैयार नहीं किया था। आज पत्नी तैयार है। आज वह टूट पड़ती है। लेकिन लड़का क्या करे, वह चैकन्ना खड़ा हो जाता है। उसने कोई कसूर तो किया नहीं लेकिन वह क्या करे? वह एकांत में जाकर अपनी गुड़िया की टांगें तोड़ देता है, गर्दन मरोड़ देता है।
हमारे दबे हुए विकार नये-नये मार्गों से--बहुत इनोसेंट, बहुत निर्दोष मार्गों से निकलना शुरू हो जाते हैं। मेरी अपनी समझ है कि हिंदुस्तान में आजादी के बाद जो हत्याकांड हुआ, हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सीमाओं पर--हिंदुओं का, मुसलमानों का, बच्चों का, औरतों का, आदमियों का कहना चाहिए--जो हत्याकांड हुआ, वह अंग्रेजों के प्रति हमारे दबाए हुए क्रोध का अंतिम फल था जिसको हम नहीं निकल पाए। जिसको हम नहीं निकाल पाए और गांधीजी और उनके साथियों ने उसे नहीं निकलने दिया। उन्होंने अहिंसा, अहिंसा अहिंसा की सारी बातें कीं। वह क्रोध इकट्ठा होता चला गया। वह इकट्ठा होता चला गया फिर कोई उपाय न रहा। इसलिए आजादी के बाद खुल कर निकला। हमने इतनी हत्या, अगर इतना बलिदान, इतनी कुर्बानी आजादी के लिए की होती तो एक चमकदार आजादी हाथ में आती। एक आजादी भी मरी-मराई हाथ में आई और पीछे हमने लाखों लोगों की हत्या भी की। वह बेमानी थी, इररिलेवेंट हो गई। लेकिन वह वैसी थी जैसे बच्चा गुड्डे को मरोड़ डाले और गुड्डे का कोई कसूर न हो।
हिंदू-मुसलमान लड़े। अगर हिंदुस्तान अंग्रेजों से लड़ लेता दिल खोल कर तो हिंदू-मुसलमान कभी न लड़ते। वह क्रोध ही इकट्ठा न हो पाता। अगर हिंदुस्तान अंग्रेजों से लड़ लेता दिल खोल कर तो हिंदू और मुसलमान साथ खड़े हो जाते और एक हो जाते। वह लड़ाई उन्हें इकट्ठा कर गई होती, तोड़ नहीं गई होती। लेकिन वे अंग्रेजों से लड़ न पाए। अंग्रेजों का सारा अपमान पिया। अपनी छाती पर उनके जूते सहे। वह सारा का सारा इकठ्ठा हो गया, वह निकल न सका। उसको हम रोकते रहे, रोकते रहे, रोकते रहे। रुका-रुकाया, फिर कोई उपाय न रहा...।
आजादी की रात हत्याकांड बन गई। सारे मुल्क में आग फैल गई। वह बड़ी अनहोनी घटना है। लेकिन उसे समझना चाहिए कि वह कैसे घटी, वह कैसे घट गई? वह उस घटने में हिंदू-मुसलमान का उतना हाथ नहीं है। हिंदू-मुसलमान तो बहाना बना। उसके पीछे कारण है डेढ़ सौ वर्ष की गुलामी, और डेढ़ सौ वर्ष की गुलामी में इकट्ठा हुआ क्रोध। और उस क्रोध को निकलने का कोई उपाय नहीं। और उस क्रोध का जब सब मामला खत्म हो गया तब वह टूट पड़ा आपस में, और जिसने जिसको कमजोर पाया उसकी गर्दन पकड़ ली। जहां मुसलमान कमजोर था वहां मुसलमान मारा गया, जहां हिंदू कमजोर था वहां हिंदू मारा गया। बच्चे मारे गए, औरतें मारी गईं। लेकिन मेरी अपनी समझ यह है कि वह सवाल सप्रेशन का था। वह दबा हुआ क्रोध और हिंसा थी, जो निकली।
हर दस साल में एक युद्ध की जरूरत पड़ती है दुनिया में। क्योंकि हर दस साल में हम इतनी बेवकूफियां इकट्ठी कर लेते हैं कि जिन्हें प्रकट करने के लिए और कोई उपाय नहीं रह जाता। हर दस साल, पंद्रह साल में एक हिटलर, एक माओ पैदा करना ही पड़ता है, उसके बिना काम नहीं चलता। वह हमारी बहुत नेसेसिटी है, हमारी बहुत जरूरत है। वह हमें बड़ी राहत दे जाता है। दस-पंद्रह साल के लिए फिर हम निशिं्चत जी पाते हैं। फिर इतना ही इकट्ठा कर लेते हैं। क्या आपको पता है कि जब युद्ध होता है तो दुनिया में हत्याएं कम हो जाती हैं, आत्महत्याएं कम हो जाती हैं, चोरियां कम हो जाती हैं, डकैतियां कम हो जाती हैं, खून कम हो जाते हैं। जब युद्ध होता है तब ये क्यों कम हो जाते हैं?
मैं बहुत सोचता था। पहले महायुद्ध में यह हुआ था। तब कुछ समझ में नहीं पड़ा कि क्यों ऐसा हुआ? आखिर जर्मनी में युद्ध हो रहा हो, या यूरोप की जमीन पर युद्ध हो रहा हो, तो चीन में चोरी कम हो जाने का क्या कारण है? लेकिन चीन में चोरी कम हो जाती है, हिंदुस्तान में हत्याएं कम होती हैं। यहां तक मजा है कि लोग कम पागल होते हैं, युद्ध के समय में। पागलों की संख्या नीचे गिर जाती है। इसका फिर दूसरे महायुद्ध में तो बहुत जोर से यह हुआ। तब यह खयाल में आना शुरू हुआ कि जब सामूहिक पागलपन चल रहा हो तो प्राइवेट पागलपन की कोई जरूरत नहीं है। वे उसी में रस ले लेते हैं, उसी में निपटारा कर लेते हैं, उसी में निकास हो जाता है। तो एक-एक आदमी को अलग-अलग पागल होने की जरूरत नहीं। जब सामूहिक हत्या चल रही हो तो हत्या का मजा आ जाता है।
ध्यान रहे, जो हत्या करता है, वही हत्या नहीं करता। जो किनारे खड़े होकर देख कर मजा लेता है वह भी हत्या का भागीदार है। वह भी रस लेता है। उसका भी हाथ है। एक हवा बनाता है जिसमें हत्या हो सकती है। हम हत्या के लिए आतुर हैं। जब किसी की छाती में छुरा भुंकता है और खून के फव्वारे फूटते हैं तो हमारे भीतर कोई तृप्ति होती है। हमारे भीतर कुछ शांत होता है। रास्ते पर दो आदमी लड़ रहे हों तो हम हजार काम छोड़ कर साइकिल रोक कर वहीं खड़े हो जाते हैं। ऐसे ऊपर से कहते हैं कि क्यों लड़ते हो? भीतर से भगवान से कहते हैं कहीं छूट ही न जाएं, लड़ाई होनी ही चाहिए। और अगर वे दोनों मान जाएं भीड़ की कि अच्छा नहीं लड़ते, आप कहते हैं तो बात खत्म है, तो सारी भीड़ उदास लौटेगी, समय बेकार गया। कोई मतलब न निकला। लेकिन अगर वे जूझ ही जाएं और खून टपक जाए तो सारी भीड़ एक भीतरी रस और तृप्ति को लेकर लौटेगी।
हम अपने भीतर बहुत इकट्ठा कर रहे हैं। पुरानी सारी संस्कृति सप्रेसिव थी। वह दमन सिखाती थी। उसमें कोई, जिसको विसर्जन कहें वह नहीं सिखाया। इसलिए आदमी के सारे प्रश्न दमन से पैदा हुए प्रश्न हैं। दंगा हिंदू-मुसलमान का होता है लेकिन स्त्री क्यों पकड़ ली जाती है? बड़ी हैरानी की बात है। हिंदू-मुसलमान लड़े, लेकिन स्त्री फौरन फंस जाती है।
अभी मैं एक सभा में बोल रहा था और सभा में कुछ दंगा हो गया, तो दंगा हो गया तो मेरे पास गांव का कमिश्नर भागा हुआ आया और उसने कहा कि एक काम करिए, सबसे पहले स्त्रियों को निकालने का इंतजाम करवाइए। तो मैंने कहाः स्त्रियों से क्या मामला है? जो लोग लड़ रहे हैं उन्हें लड़ने दो। उसने कहाः आपको कुछ पता नहीं। लोग लड़ इसीलिए रहे हैं कि अगर उपद्रव पूरा हो जाए तो स्त्रियां अभी फंस जाएं। अब यह बड़ी हैरानी की बात है। जब झगड़ा होता है तो स्त्रियां एकदम से क्यों उलझ जाती हैं? वह चाहे कलकत्ते में हो, वह चाहे अहमदाबाद में हो, कहीं भी हो, स्त्री क्यों बीच में आ जाती है? असल में सेक्स का इतना सप्रेशन किया है, इतना दमन किया है कि हर आदमी उबल रहा है। मौके की तलाश है। अगर उपद्रव हो जाए तो मौका पूरा है, फिर आइडेेंटिटी नहीं रह जाती है कि कौन आदमी क्या कर रहा है? कोई झंझट नहीं है। फिर हम कर ही नहीं रहे, भीड़ कर रही है। इसलिए जो भी हो रहा है, हो सकता है। सब जगह हमारा दमन, हमारी समस्याएं बनता है। इस समय हिंदुस्तान के सामने जो खास समस्याएं हैं, उनको मैं दोहराऊं, और आपसे कहूं कि वे दमन से पैदा हुई हैं।
एक समस्या है हिंदुस्तान के सामने, वह है पद की, धन की पागल दौड़। सिद्धांत-विद्धांत सब बातें हैं। सारी दौड़ पद की और धन की है। सब बातें हैं सिद्धांत--धन की और पद की दौड़ है। लेकिन यह हिंदुस्तान इतना पागल क्यों हो गया है धन और पद के लिए? यह तीन हजार साल से हम धन और पद के खिलाफ हैं। हम कहते हैं कि धनी होना पापी होना है। हम कहते हैं, धन होना बड़ी बुराई है। गरीब होना बड़ी ऊंची बात है। तीन-चार-हजार साल से गरीब होना हम सिखा रहे हैं। गरीब होने के लिए कोई राजी नहीं है। गरीब होना स्वभाव के विपरीत है। गरीब होना प्रकृति के प्रतिकूल है। कोई आदमी राजी नहीं है। न किसी आदमी को राजी होना चाहिए। हां, सिर्फ इस तरह के लोग राजी हो सकते हैं जिनकी गरीबी पर अमीरी से भी ज्यादा खर्च करना पड़े, ऐसे लोग राजी हो सकते हैं।
चर्चिल ने कहीं कहा है कि गांधी दुनिया के उन गरीब आदमियों में से एक हैं जिनके ऊपर अमीरों से ज्यादा खर्च होता है। और यह ठीक है, यह बात सच है। यह बात बिलकुल ठीक है। लेकिन, गांधी की गरीबी बहुत महंगी है। अगर बहुत महंगी गरीबी मिले तो कोई भी गरीब हो सकता है। वह गरीबी बड़े मजे की है। या एक रास्ता और है कि अगर कोई आदमी अमीरी से ऊब जाए तो स्वाद बदलने को गरीब हो जाए। बुद्ध और महावीर ऐसे ही गरीब होते हैं। आज अमरीका में भी हिप्पी और बीटल और बीटनिक इसी तरह गरीब हो रहे हैं। अमीर घरों के लड़के हैं, स्वाद बदलने के लिए बनारस की सड़कों पर भीख मांग रहे हैं।
 अभी मैं बनारस था तो दो हिप्पी मुझे मिलने आए। मैंने उनसे कहाः पागल हो गए हो? मैंने सुना है, तुम अमीरों के लड़के हो। उन्होंने कहाः हम अमीरों के लड़के हैं, लेकिन अमीरी से ऊब गए हैं। सब बेस्वाद हो गया है। कोई मतलब नहीं है। सब है, तो मजा ही चला गया। इधर आकर बड़ा आनंद आ रहा है। दस पैसे के लिए आतुर खड़े होते हैं हाथ फैला कर, पता नहीं मिलेंगे, नहीं मिलेंगे। जिंदगी में बड़ी पुलक आ गई। पता नहीं, मिलेंगे, नहीं मिलेंगे! बड़ा दांव है। दस पैसे के लिए हाथ फैलाया, हो सकता है आदमी मना कर दे कि नहीं है। हाथ वापस लौटा लेना पड़ेगा। सुबह की चाय नहीं पी है, हाथ फैला कर पुलक से प्रतीक्षा कर रहे हैं। और जब दो घंटे के बाद एक कप चाय पी पाते हैं तो उस चाय का मजा ही दूसरा है।
ये अमीरी से ऊबे हुए लोग गरीब हो सकते हैं। यानी मेरा कहना यह है कि गरीबी अमीर आदमी की लास्ट लग्जरी है, आखिरी विलास है, जो अमीर आदमी ही अफर्ड कर सकता है, गरीब आदमी नहीं। इसलिए जब अमीरी बढ़ती है तो गरीबी के नये-नये फैड और क्रीड पैदा हो जाते हैं। आज अमरीका गरीब होने को बड़ा उत्सुक है। इसलिए कोई महर्षि को पकड़ लेता है, कभी किसी को पकड़ लेता है, कभी किसी के पीछे चला जाता है। वह गांधी के लिए भी बड़ा आतुर है। वह आतुरता अमीर अमरीका की है जो अमीरी से ऊबा हुआ है और गरीबी में रस लेना चाहता है।
अमरीका में आज उपवास की बड़ी चर्चा है। और जगह-जगह स्थान बने हुए हैं जहां लोग आकर उपवास कर रहे हैं। असल में जब ओवर फैड, ज्यादा खा जाते हैं लोग तो उपवास शुरू हो जाता है। लेकिन गरीब आदमी को उपवास का क्या मतलब है? मैं उरली कांचन में कभी-कभी ठहरता हूं। वहां उपवास करने लोग आते हैं। तीस-तीस दिन, चालीस-चालीस दिन के लोग उपवास करते हैं। लेकिन वे, वे ही लोग होते हैं जिनके पास इतनी चर्बी है कि चालीस दिन कुछ हर्जा नहीं होता, फायदा ही होता है। वह चर्बी चुक जाती है, वे आनंदित ही घर लौटते हैं। लेकिन गरीब आदमी को चालीस दिन का उपवास करवा दो तो जिंदा घर नहीं लौटेगा। उपवास करने के लिए ओवर फीडिंग चाहिए। ज्यादा खा लिया हो, उपवास बड़ी अच्छी बात है। इसलिए जो कौमें ज्यादा संपन्न हो जाती हैं उनमें उपवास चल जाता है--जैसे जैनियों में। उसका और कोई कारण नहीं है। जैनों में उपवास चलने का कुल कारण इतना है कि इस देश में सबसे ज्यादा सुलभ खाने की व्यवस्था, धन की व्यवस्था, तिजोरियां उनके पास हैं। तीन हजार साल से उनके पास हैं। उसकी वजह से वे उपवास में बड़े आनंदित होते हैं। वे कहते हैं, उपवास बड़ा धार्मिक कृत्य है। उपवास सिर्फ पश्चात्ताप है ज्यादा खाने का। जिसने ठीक-ठीक खाया है उसे उपवास की कोई जरूरत नहीं है। ज्यादा जो खाएगा उसे उपवास करना पड़ेगा, दंडित होना पड़ेगा। स्वाभाविक है।
गरीब, लेकिन कोई होने को राजी नहीं है, न होना चाहिए। हां, कुछ रुग्ण चित्त लोग अपने को सताने को राजी हो सकते हैं। मैंने कहा, तीन तरह की गरीबियां स्वीकृत हो सकती हैं--एक ऐसी गरीबी जो अमीरी से भी ज्यादा अमीर हो। एक ऐसी गरीबी जो अमीरी से स्वाद बदलने के लिए अंगीकार की गई हो। और एक ऐसी गरीबी जो मैसोचिस्ट होती है। कुछ लोग हैं जो अपने को सताने में रस लेते हैं--रुग्ण, बीमार; अपने को सताने में भी रस ले सकते हैं, लेकिन वे पैथॉलाजिकल हैं। उनका इलाज होना चाहिए। इन तीन तरह के लोगों के अतिरिक्त दुनिया में कोई आदमी दुख के वरण करने के लिए न राजी होता है, न होना चाहिए।
लेकिन हिंदुस्तान तीन हजार साल से दुख की शिक्षा दे रहा है कि दुख को वरण करो। इसलिए यहां एक उपद्रव पैदा हो गया है। वह उपद्रव यह है कि जब तक हम गुलाम थे तब तक तो ठीक था। अब हम स्वतंत्र हो गए हैं। अब हम सबको सुख की एक पागल दौड़ शुरू हुई है, जो बिलकुल ही फैनेटिक है। क्योंकि हमने इतने दिन तक दुख को वरण करने की चेष्टा की है कि अब सब बांध तोड़ कर हम सुख की तरफ दौड़ रहे हैं। अब सब बांध तोड़ दिए। अब वह सुख चाहे दूसरे को दुख देेने से मिले तो भी हम लेने को तैयार हैं। हमने इतने दिन तक गरीबी को पकड़ने की, आदर देने की कोशिश की है कि अब हम अमीरी की तरफ पागल हो गए हैं। अब वह अमीरी चाहे हजारों लोगों की छाती पर खड़े होकर मिलती हो तो भी हम तैयार हैं। इसलिए रिश्वत है, इसलिए भ्रष्टाचार है, इसलिए बेईमानी है। बेईमानी, रिश्वत, भ्रष्टाचार, अमीर होने की पागल तरकीबें हैं। और यह मुल्क इतने दिन से गरीबी का आदर कर रहा है कि यह पागल ढंग से ही अमीर हो सकता है। इसे और कोई ढंग नहीं दिखाई पड़ता है। असल में हम सुख को स्वस्थ रूप से स्वीकार नहीं करते हैं, इसलिए हम बीमार होकर ही सुख की तरफ दौड़ सकते हैं। इस देश का भ्रष्टाचार, इस देश की रिश्वतखोरी, इस देश की कालाबाजारी हमारे सुख के विरोध से पैदा हुई है, लेकिन गुलामी में उनका पता न चला।
असल में, सभी पता स्वतंत्रता में चलता है। स्वतंत्रता का मतलब यह है कि हम जो करना चाहें उसके लिए स्वतंत्र हुए। गुलामी का मतलब यह है कि जो हम करना चाहें उसके लिए हम स्वतंत्र नहीं हैं। तो गुलामी में हम स्वतंत्र न थे, जो हम होना चाहें। अब हमें मौका मिला जो हम होना चाहें। तो अब हम हो गए हैं पूरे अर्थों में। अब हम होने की कोशिश कर रहे हैं। और उस कोशिश को अगर हम ऊपर से सुलझाने की कोशिश करेंगे तो वह हल न होगी।
मामला ऐसा है कि एक आदमी को हम तीस दिन भूखा रखें, तीस दिन उपवास करवाएं और अचानक उसको चैके में पहुंचने का मौका मिल जाए तो यह पक्का है कि वह आदमी ज्यादा खा लेगा। और यह भी पक्का है कि जितना नुकसान उसे भूखे रहने से पहुंचा होगा उससे ज्यादा नुकसान वह खाने से पहुंचा लेगा। और जब वह खाने से नुकसान पहुंचा ले तो वह भी सोचेगा कि खाना बुरी चीज है, फिर भूखा रहना चाहिए। हम तीन हजार साल से दमन किए हुए हैं, सुख की वृत्ति का। वह जो सुख के खोज की सहज वृत्ति है मनुष्य के भीतर उसे हमने दबाया है और काटा है। अब हम मुक्त हुए हैं, अब हम स्वतंत्र हुए हैं। इसलिए अब स्वतंत्रता ने हमें मौका दिया है। अब हम उस मौके का तीव्रता से प्रयोग कर रहे हैं। अब हम फीवरिश, बुखार की तरह दौड़ रहे हैं। और किसी भी तरह सुख मिल जाए तो उसको पाने की कोशिश में हैं। लेकिन यह कोशिश स्वस्थ नहीं है। और यह स्वस्थ तभी हो सकेगी जब हम बुनियादी दमन को दूर करने के लिए तैयार हो जाएं।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, भारत को अपनी इन बीमारियों से मुक्त होने के लिए सुख की सहज खोज को स्वीकार करना पड़ेगा। लेकिन हम स्वीकार करते हैं, आवश्यकताएं कम करो, और मन आवश्यकताएं बढ़ाता है। सच तो यह है कि जीवन का नियम ही विस्तार है, संकोच नहीं है। एक बीज को गपा दें जमीन में, एक छोटा सा बीज फैलने लगता है, अंकुर फेंक देता है, पत्ते निकल आते हैं, बड़ा वृक्ष हो जाता है, फूल आकाश में खिलने लगते हैं। एक छोटा सा बीज फैल जाता है। जब पूरा फैल जाता है तब तृप्त हो पाता है। जब फूल खिल जाते हैं और फल लग जाते हैं तब तृप्त होता है। बीज को सिखाओ कि आवश्यकताएं मत बढ़ाना...क्योंकि ध्यान रहे, वृक्ष की आवश्यकताएं बीज से बहुत ज्यादा हैं। सच तो यह है कि बीज की कोई आवश्यकता ही नहीं है। बीज की आवश्यकता तभी बढ़नी शुरू होती है जब वह अंकुर बनता है। और जब वह फैलता है तब उसे पानी चाहिए और खाद चाहिए और सूरज की रोशनी चाहिए और किसी माली की रक्षा चाहिए और किसी का प्रेम चाहिए। उसे सब चाहिए, तब वह फैल पाएगा। उसकी आवश्यकताएं बढ़ती चली जाती हैं।
यह देश एक गलत शिक्षा के अंतर्गत जी रहा है कि आवश्यकताओं को कम करो। आवश्यकताओं को कम करने का मतलब? चित्त का जो विस्तार का सहज नियम है उसे रोको, दबाओ। हम समझाते हैं अपने देश को कि चादर से हमेशा पैर भीतर रखो। और मजा यह है कि चादर अपने आप नहीं बढ़ती और आदमी अपने आप बढ़ता चला जाता है। अब वह आदमी बड़ा हो रहा है और चादर उतनी की उतनी रहती है। और पांव भीतर सिकोड़ो, हाथ भीतर सिकोड़ो। कभी हाथ बाहर निकलता है, कभी पैर बाहर निकलता है, कभी सिर बाहर निकलता है। और चादर? चादर बढ़ानी नहीं है। क्योंकि चादर वही बढ़ाता है जो पैर फैलाता है। जब पैर बाहर निकलते हैं तब जरूरत आती है कि चादर को बढ़ाओ। जब पैर ही बाहर नहीं निकलते तो चादर को बढ़ाने की जरूरत ही नहीं आती।
यह देश कह रहा है अब तक कि आवश्यकताएं कम करो। फिर इसके दोहरे परिणाम होते हैं। एक तो परिणाम यह होता है कि जो आवश्यकताएं बढ़ा कर जीता है वह पापी मालूम पड़ने लगता है दूसरों को और खुद को भी। उसको लगता है कि मैं कुछ गलती कर रहा हूं। मैं कुछ पाप कर रहा हूं। तो उसके विस्तार की जो सहजता है वह नष्ट हो जाती है। पाय.जनस हो जाती है, जहर मिल जाता है, पाप का बोध सम्मिलित हो जाता है। और दूसरी तकलीफ यह होती है कि वह लोगों से यह छिपाने की कोशिश करता है कि मैं आवश्यकता नहीं बढ़ा रहा। आवश्यकताएं पीछे के दरवाजे से बढ़ा रहा है। बाहर के दरवाजे पर चटाइयां लगा लेता है।
जब डाक्टर राजेंद्र प्रसाद पहली दफा राष्ट्रपति हुए तो मैं दिल्ली गया। एक मित्र ने मुझे कहा कि देखते हैं, कितने त्यागी पुरुष हैं! जहां वायसराय रहता था उस भवन के अंदर उन्होंने चटाइयां लगा ली हैं। मैंने कहाः अजीब पागल हैं। और खर्चा ज्यादा किया। चटाइयों का खर्चा तो कम से कम वायसराय नहीं करता था। बाकी खर्च उतना ही है जारी। बैठक के अंदर, वायसराय की बैठक के अंदर चटाई लगा ली और वे झोपड़े के भीतर हो गए क्योंकि वे चटाई के भीतर हैं। और एक हजार नौकर काम कर रहे हैं और उतना बड़ा महल और वह सारा विस्तार जारी है, लेकिन राजेंद्र प्रसाद चटाइयों के भीतर बैठे हैं। मैंने कहा कि वायसराय सीधा-सादा आदमी था, राजेंद्र प्रसाद थोड़े तिरछे आदमी मालूम पड़ते हैं। वायसराय जैसा जी रहा था, जी रहा था। यह चटाई का धोखा तो खतरनाक है। यह पाखंड है, यह हिपोक्रेसी है।
यह तो ऐसा है कि मैंने उनसे कहाः एक संन्यासी, एक बड़े संन्यासी मेरे साथ एक दिन कार में जा रहे थे। इम्पाला गाड़ी है। मैं तो पहले ही जाकर बैठ गया था। फिर संन्यासी के शिष्य आए, उन्होंने कहाः जरा उठिए, क्योंकि संन्यासी जी सोफे पर नहीं बैठते हैं और गाड़ी में सोफा है। तो मैंने कहाः संन्यासी जी कैसे बैठेंगे, किस तरकीब से बैठेंगे? उन्होंने कहाः पहले सोफे पर चटाई डाल देंगे, फिर संन्यासी जी चटाई पर बैठ जाएंगे। वे चटाई पर ही बैठते हैं, वे सोफे पर कभी नहीं बैठते। फिर चटाई डाल दी गई। मैं सोफे पर रहा, संन्यासी चटाई पर हो गए। इम्पाला गाड़ी जा रही है, उन्हें मतलब नहीं है। वे अपनी जादू की चटाई पर जा रहे हैं।
यह बेईमानी पैदा होती है। जब हम आवश्यकताओं को कम करने की शिक्षा देते हैं जो कि अप्राकृतिक है, नैसर्गिक नहीं है, चित्त के विकास के अनुकूल नहीं है। कोई बीज विकसित नहीं होता संकोच से। मनुष्य भी विकसित नहीं होता है। विस्तार जीवन का नियम है। वैज्ञानिक कहते हैं कि चांद-तारे भी विस्तार पा रहे हैं, एक्सपैंड कर रहे हैं। सारा जगत एक्सपैंडिंग है, सब चीजें फैल रही हैं। चांद-तारे करोड़ों-अरबों मील की रफ्तार से फैलते जा रहे हैं। विस्तार! ब्रह्म शब्द का मतलब भी विस्तार होता है। ब्रह्म का मतलब होता है, दि एक्सपेंडेड। वह जो फैला हुआ है और फैलता ही चला जा रहा है। विस्तार और ब्रह्म एक ही शब्द से बने हैं। ब्रह्मांड का मतलब, जो फैलता ही चला जा रहा है। जीवन का नियम तो फैलाव है, सब फैल रहा है। लेकिन हमको एक शिक्षा दी गई है सिकुड़ने की--सिकोड़ो अपने को। सिकुड़ना चूंकि जीवन के प्रतिकूल है इसलिए पाखंड पैदा हुआ है।
हिंदुस्तान की एक जलती समस्या है पाखंड, सब तरह का पाखंड। जो आदमी पक्का अहंकारी है, वह हाथ जोड़ कर कहता है, मैं तो कुछ भी नहीं हूं, आपके पैर की धूल हूं। जरा उसकी आंखों में देखें। वह ऐसा लग रहा है कि अगर मौका मिल जाए तो आपको अभी पैर के नीचे दबा दे। लेकिन वह कह रहा है कि मैं विनम्र हूं, मैं सेवक आदमी हूं, मैं आपके पैर की धूल हूं। यह हम पाखंड सिखा रहे हैं। वह आदमी भीतर तिजोरी बड़ी करता जा रहा है और वस्त्र सादे पहने हुए है। वह पैदल चल रहा है और महल बड़ा किए जा रहा है। वह यूरोप और अमरीका के बैंकों में धन इकट्ठा कर रहा है और यहां बैठ कर चर्खा कात रहा है। बहुत अजीब मामला है। यह भारत का जलता हुआ प्रश्न है, हिपोक्रेसी, पाखंड! हर आदमी पाखंड के साथ में खड़ा हो गया है। तोड़ेंगे कैसे इसे हम?
जब तक हम उन नियमों को नहीं बदलते जिनकी वजह से पाखंड पैदा होता है, तब तक यह तोड़ना मुश्किल है। जीवन को सहज स्वीकार करना होगा तो हिपोक्रेसी टूट सकती है।
टायनबी ने एक बात लिखी है। उसने लिखा है कि पश्चिम की संस्कृति सेंसुअस है, सेंसेट है, ऐंद्रिक है। कोई मुझे वह किताब पढ़ कर सुना रहा था। पक्के भारतीय मुझे वह किताब पढ़ कर सुना रहे थे। उन्होंने कहाः देखते हैं, टायनबी जैसा विचारक कहता है कि पश्चिम की संस्कृति सेंसेट है, ऐंद्रिक है। तो मैंने कहाः इतनी अकड़ आप किसलिए दिखा रहे हैं? अगर पश्चिम की संस्कृति सेंसेट है तो पूरब की संस्कृति हिपोक्रेट है, पाखंडी है।
और ऐंद्रिक होना पाखंडी होने से बेहतर है। क्योंकि ऐंद्रिक होना जीवन का सहज नियम है। ऐंद्रिक व्यक्ति कभी आध्यात्मिक भी हो सकता है क्योंकि जिसने शरीर को स्वीकार किया है वह किसी दिन आत्मा को भी स्वीकार कर सकता है। जिसने द्वार में प्रवेश किया वह कभी भीतर के गर्भ में भी पहुंच सकता है। जो कभी सीढ़ियां चढ़ा है वह कभी मंदिर के भीतर भी जा सकता है। लेकिन पाखंडी कभी भी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। हमारी संस्कृति आध्यात्मिक नहीं, पाखंडी है, क्योंकि हमने जो नियम निर्मित किए हैं, वे आदमी को झूठा होने के लिए मजबूर करते हैं। और अगर वह सीधा-सीधा साफ-साफ हो तो पापी मालूम पड़ता है, कंडेमनेशन मालूम पड़ता है, चारों तरफ निंदा मालूम पड़ती है। वह जितना पाखंडी हो उतना आदर, उतना सम्मान मिलता है।
मैं एक आश्रम में ठहरा हुआ था। तीन दिन वहां था। आश्रम था, तो आश्रम में जिस तरह के जीव रहते हैं वैसे जीव वहां थे। एक लड़की ने मुझे आकर रात को कहा..ड़रते हुए, जब सब चले गए, मैं बिस्तर पर सोने गया, वह आई। उसने कहाः मुझे एक बात कहनी है। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गई हूं। मैं कालेज से निकली थी और जनता की सेवा करने के काम में आ गई। जिस गुरु से मैंने जनता की सेवा का पाठ लिया, उन्होंने मुझे ब्रह्मचर्य, आजीवन ब्रह्मचर्य का नियम दिलवा दिया। उन्होंने कहा कि तू आजीवन ब्रह्मचारी रह! तब मैं जानती भी न थी। क्योंकि मैं सेक्स ही न जानती थी तो ब्रह्मचर्य कैसेे जानती? मुझे कुछ पता ही न था कि ब्रह्मचर्य यानी क्या? जब इतना बड़ा महात्मा कहता है तो मैंने कसम खा ली और जीवन भर के लिए नियम ले लिया।
लेकिन जिंदगी नियम नहीं मानती। जिंदगी बड़ी अदभुत है। वह सब नियम तोड़ देती है, सब दीवालें तोड़ देती है।
उसने कहाः उसी सेवा में लगे-लगे एक व्यक्ति से मेरा प्रेम हो गया। और जब प्रेम हुआ तब हम निकट, निकट और निकट आना चाहे। तब मुश्किल खड़ी हो गई। क्योंकि वह भी आजीवन ब्रह्मचर्य का पाठ लिए बैठा था। अब हम क्या करें? अब हम इतनी कठिनाई में पड़ गए कि हमने अपने गुरु को जाकर कहा कि हम तो मुश्किल में पड़ गए हैं। आप हमें कृपा करके आशीर्वाद दें कि हम विवाह कर लें। हम तो बहुत कठिनाई में पड़ गए हैं। गुरु पहले तो बहुत नाराज हुए। असल में गुरुओं की गुरुता नाराजगी पर ही निर्भर है। अगर वे नाराज न हों तो गुरुता खिसक जाए। वे भारी नाराज हुए कि यह बहुत पाप है, यह है, वह है। उन्होंने हजार उपदेश दिए, नरक में सड़ोगे। लेकिन वे नरक में जाने को तैयार थे लेकिन प्रेम छोड़ने को तैयार न थे। और कोई भी भला आदमी नरक में जाने को तैयार होगा, प्रेम छोड़ने को तैयार नहीं हो सकता। क्योंकि प्रेम इतना बड़ा स्वर्ग है कि हजार नरक सहे जा सकते हैं। उन्होंने कहाः जो कुछ भी हो, नरक तो जब होगा, होगा--अभी तो हमें विवाह की आज्ञा दें।
असल में पुराने नरक का अब प्रभाव नहीं रहा, क्योंकि आदमी ज्यादा निर्भय हुआ है। पुराना आदमी बहुत भयभीत था। उसको डरवाया जा सकता था। नया आदमी निर्भय हुआ है। उसे इतने आसानी से नहीं डरवाया जा सकता है। इसलिए पुराने सब समाधान गड़बड़ हो गए। वह डरे हुए आदमी को दिए गए समाधान थे। आज का आदमी निर्भय है। वह कहता है, होगा नरक। ठीक है, निपट लेंगे, देखेंगे। पहुंचेगे, हड़ताल तो कर सकते हैं नरक में! घेराव तो कर सकते हैं! देखेंगे नरक में। और जब सभी को नरक में जाना है तो देख लेंगे नरक में, घेराव कर लेंगे, हड़ताल कर लेंगे, कुछ करेंगे; सत्याग्रह, कुछ उपाय करेंगे। लेकिन अब नरक से मत डराओ।
उन दोनों ने कहा कि आप हमको क्षमा करें, नरक में जाने को तैयार हैं, हमारा विवाह करवा दें। आश्रम में मीटिंग बुला कर, पांच सौ, छह सौ लोगों के सामने गुरु ने उनका विवाह करवा दिया। तालियां बज गईं, फूलमालाएं डलवा दीं। फिर गुरु ने आशीर्वाद दिया और आशीर्वाद में उसने कहा कि तुम दोनों ने विवाह किया, यह बहुत अच्छा है, यह बड़ा पवित्र कार्य है। लेकिन ध्यान रहे, जीवन भर ब्रह्मचर्य का व्रत ले लो। अब वे दोनों नासमझ उस भीड़ के सामने फिर चक्कर में आ गए और भीड़ ने तालियां बजाईं। तालियां बड़ी खतरनाक हैं। किसी से गलत काम करवाना हो तो तालियां बजा कर करवाया जा सकता है। ये सारे नेताओं से जो गलत काम हो रहे हैं आपकी तालियों से हो रहे हैं। जरा तालियां बहुत कंजूसी से बजाना भविष्य में, क्योंकि आपकी तालियां गलत खबर दे देती हैं। पांच लाख आदमी इकट्ठे हो जाएं, किसी नेता को ताली बजा दें, वह पागल हो जाएगा आदमी। कि ये पांच लाख आदमी मेरे साथ हैं। और उसको पता नहीं कि उसके ही दस आदमियों ने किराए की ताली बजाई है तो बाकी लोग सिर्फ साथ दे देते हैं। तालियां बजा दीं पांच सौ लोगों ने, इतना ऊंचा कार्य! उन दोनों ने फिर ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया।
मैं जब उस आश्रम में ठहरा, तो उस लड़की ने मुझसे कहा कि दो साल हो गए हैं, या तो मैं आत्महत्या करूं या क्या करूं? मुझे फिट भी आने लगे, हिस्टीरिया भी शुरू हो गया, और रात भर सिर घूमता है, सिर दुखता है, चक्कर आते हैं। और हम इतने डर गए हैं कि अब क्या होगा। और पति से मैं इतनी डर गई हूं, और पति मुझसे डरता है क्योंकि कहीं ब्रह्मचर्य न टूट जाए! तो हम ताले लगा लेते हैं एक-दूसरे के कमरे में और चाबियां दूसरे के कमरे में फेंक देते हैं कि रात कहीं खोल न लें।
अब यह आदमी के जीने का ढंग है? इससे जिंदगी सुंदर होगी? इससे जिंदगी प्रेमपूर्ण होगी? इससे जिंदगी निपट पाखंड हो जाएगी। तो मैंने उनसे कहा, तुम घबड़ाओ मत। आज शाम कोई हजार लोग मुझे भी सुनने आने वाले हैं। ताली मैं बजवा दूंगा। ब्रह्मचर्य का व्रत छुड़वा देता हूं और आशीर्वाद देता हूं कि ब्रह्मचर्य का व्रत छोड़ कर स्वर्ग में प्रवेश मिलेगा। घबड़ाना मत। क्योंकि वहां मेरे खयाल में एक भी देवता ब्रह्मचर्य का व्रत पालन कर रहा हो, ऐसा शास्त्रों में नहीं है। तुम बिलकुल बेफिकर रहो, तुम जा सकोगे।
यह हम एक अस्वाभाविक ढंग से जीवन को ढालने की जो कोशिश किए, उसने हमारे सारे प्रश्न खड़े कर दिए। एक भी प्रश्न को हम हल नहीं कर पाते, क्योंकि जिन समाधानों से प्रश्न पैदा होते हैं, प्रश्न पैदा होने पर उन्हीं समाधानों को हम वापस दोहराते हैं। जो दवा हमारी बीमारी है उसी दवा को हम और दिए चले जाते हैं। बीमारी और बढ़ती चली जाती है। और जैसे-जैसे इस देश में दवा होती है वैसे-वैसे बीमार और बीमार होता चला जाता है।
मैं आपसे प्रार्थना करना चाहता हूं रि-कंसिडर करने की, पुनर्विचार करने की। हमारी सारी समस्याओं के पीछे हमारे पुराने समाधान हैं। उन पुराने समाधानों से मुक्त होना पड़ेगा। और प्रत्येक समस्या को नये छोर से, नये सिरे से, फ्रेशली, बिलकुल ताजे ढंग से--जैसे हमने उस समस्या को कभी जाना नहीं--फिर से छूना पड़ेगा और फिर से खोलना पड़ेगा।
यदि हम अपनी समस्याओं को समाधानों के पर्दे से हट कर सीधा देखना शुरू कर सकें तो भारत की ऐसी कोई भी समस्या नहीं है जो हल न हो जाए। और यदि हम समस्याओं को समाधानों को मान कर ही हल करने की कोशिश करेंगे तो भारत की ऐसी कोई समस्या नहीं है जो रोज दुगुनी बड़ी न होती चली जाए। समाधानों से हट जाना पड़ेगा और समस्याओं को सीधा लेना पड़ेगा।
समस्याएं बहुत बड़ी नहीं हैं। जिंदगी के साथ प्रश्न होते ही हैं और जिन्हें जीना है उन्हें प्रश्न हल करने ही पड़ते हैं। हमारा कोई प्रश्न बहुत बड़ा नहीं है, न हमारी गरीबी का प्रश्न बहुत बड़ा है। अगर हमारे पुराने समाधान छोड़े जा सकें तो गरीबी इस देश की भी मिट सकती है। न हमारी नैतिकता का प्रश्न बहुत बड़ा है; अगर हम पुरानी नैतिक मान्यताओं की व्यर्थता को समझ सकें तो नई नैतिक मान्यताएं पैदा की जा सकती हैं। न हमारे युवकों की समस्या बहुत बड़ी है। अगर हम पुराने आधारों को ही युवकों पर न थोपे चले जाएं तो हमारे युवक की शक्ति मुक्त हो सकती है और देश के सृजन में लग सकती है।
इन आने वाले दिनों में जिंदगी की जो भी जीवित समस्याएं हैं, आप मुझे लिख कर दे देंगे--जिसके जो खयाल में जीवित समस्या है, मैं उस पर बात करना चाहूंगा। और उसके लिए क्या नया समाधान हो सकता है, उसकी भी बात करना चाहूंगा। मेरी बातों को मानना जरूरी नहीं है। मैं इस बात का सीधा-सीधा दुश्मन हूं कि कोई आदमी किसी को अपनी बातें मनवाए। बुरा है। वही तो पुराना ढंग है। नहीं, वह नहीं चाहिए। मेरी बातें मानने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरी बात सुन ली, यह भी बहुत कृपा है। उस पर सोच लिया, यह भी बहुत कृपा है। अगर आप सोचने लग जाएं तो मैं मानता हूं कि आप भी उन समाधानों पर पहुंच जाएंगे जिन समाधानों से देश का हल हो सकता है।
आप सोचने लग जाएं इसकी मेरी फिकर है। मैं अपने विचार आपको दे दूं, यह मेरी चिंता नहीं है। मेरी चिंता यह है कि आप विचार करने लग जाएं। यह देश सोचने लगे तो कोई कारण नहीं है कि हम अगर सारे लोग सोचें तो हमारी कोई भी समस्या बची रह जाए और कोई भी प्रश्न ऐसा हो कि हल न हो सके।सब सवाल हल हो सकते हैं। असल में सब सवालों के भीतर ही उनके हल छिपे होते हैं, लेकिन सोचने वाला मस्तिष्क चाहिए। और हमें सिखाया गया है कि कभी सोचना मत। सोचना ही मत, सोचना पाप है। मानना, सोचना मत। मैं नहीं कहना चाहता आप मुझे मानना। मेरी बातें इतना ही कर दें कि आपको उकसा दें, आपके भीतर थोड़ी चोट कर दें, थोड़े शॉक लग जाएं, आप थोड़े हिल जाएं और सोचना शुरू कर दें तो मेरा काम पूरा हो गया।
आप अगर सोचते हैं, हम अगर सोचते हैं, तो हम बहुत जल्दी उन निष्कर्षों पर पहुंच जाएंगे जोे अनिवार्य रूप से तार्किक चिंतन से पैदा होते हैं। तो जो भी आपके प्रश्न हों--यह तो मैंने प्राथमिक बात कही--जो भी आपको जलते हुए प्रश्न लगते हों वे आप लिख कर दे देंगे तो मैं तीन दिनों में उनकी बात करना चाहूंगा।

मेरी बातों को इतने शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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