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शनिवार, 8 सितंबर 2018

भारत का भविष्य-(प्रवचन-07)

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

आध्यात्मिक दृष्टि

मोरार जी भाई देसाई ने कहा कि गांधी जी की आलोचना आर्थिक सोच-विचार करने वाले लोग करते थे, अब आध्यात्मिक लोगों ने भी इनकी आलोचना करनी शुरू कर दी है। शायद मोरार जी भाई को पता नहीं कि गांधी न तो आर्थिक व्यक्ति थे और न राजनैतिक। गांधी मूलतः आध्यात्मिक व्यक्ति थे। और इसलिए गांधी को समझने में न तो आर्थिक समझ के लोग उपयोगी हो सकते हैं और न राजनैतिक बुद्धि के लोग उपयोगी हो सकते हैं। गांधी को समझने में केवल वे ही लोग समर्थ हो सकते हैं जिनकी कोई आध्यात्मिक दृष्टि है। और जब तक गांधी पर आध्यात्मिक दृष्टि के लोग विचार नहीं करेंगे तब तक गांधी के संबंध में सत्य का उदघाटन असंभव है।
गांधी के साथ अन्याय यही हो गया कि गांधी मूलतः आध्यात्मिक व्यक्ति थे और दुर्भाग्य से सारे जीवन राजनीतिज्ञों से घिरे रहे। गांधी के लिए राजनीति आपद-धर्म में थी। गांधी का धर्म तो नीति थी, राजनीति मजबूरी थी। लेकिन गांधी के आस-पास जो लोग इकट्ठे हुए थे, उनके लिए, उनके लिए राजनीति मूल थी, नीति आपद-धर्म थी। और यही फासला गांधी और गांधीवादियों के बीच हिंदुस्तान के लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ है।
जैसे ही सत्ता हिंदुस्तान के हाथ में आई, राजनीति तो गांधी को मजबूरी थी, सत्ता हाथ में आते ही वे हट गए। और उनके साथियों और सहयोगियों और अनुयायियों के हाथ में सत्ता पहुंच गई, उनके लिए नीति आपद-धर्म थी, सत्ता हाथ में आते ही उनकी नीति छूट गई। गांधी की राजनीति छूटी, उनकी नीति छूटी। जिसका जो सार भाग था वह शेष रह गया और जो असार था वह छूट गया। गांधी के लिए राजनीति असार थी वह छूट गई और उनके अनुयायियों के लिए नीति और धर्म असार था वह छूट गया।
गांधी ने शायद सोचा होगा कि उनके पीछे जो लोग इकट्ठे हैं, वे धर्मबुद्धि के, वे विचारशील, वे नैतिक और सदाचारी सिद्ध होंगे। गांधी वहां चूक कर गए, गांधी वहां ठीक नहीं समझ पाए, गांधी से भूल हो गई। उस भूल के लिए हम अभी भी पछता रहे हैं, और पता नहीं हमें कितने दिन पछताना होगा। गांधी यह बात भूल गए कि जो लोग सत्ता उपलब्ध होने के पहले उनके अनुयायी थे, सत्ता उपलब्ध होते ही गांधी से उनका कोई संबंध नहीं रह गया है। गांधी की उपयोगिता उन्हें इतनी थी कि सत्ता गांधी के बिना उपलब्ध नहीं हो सकती थी। सत्ता उपलब्ध होते ही गांधी का कोई प्रयोजन नहीं रह गया था। गांधी को भी आखिर-आखिर में यह समझ में आने लगा था और उन्होंने कहा भी कि मैं अब एक खोटा सिक्का हो गया हूं अब मेरी कोई सुनता नहीं। काश, उन्हें यह पहले ही ख्याल में आ जाता कि जो उनके पीछे लोग इकट्ठे हैं, सत्ता मिलते ही कोई भी उनकी सुनेगा नहीं। गांधी अगर जीते तो मुझे लगता है कि गांधी को अपने बुढ़ापे में एक दूसरी लड़ाई शुरू करनी होती अपने ही शिष्यों के खिलाफ।
गांधी इतने हिम्मत के आदमी थे कि उस बुढ़ापे में भी वे दूसरी लड़ाई जरूर शुरू करते। लेकिन शिष्यों का सौभाग्य कि शिष्यों की दिखता है भीतरी प्रार्थना गोडसे ने सुन ली और गांधी को समाप्त कर दिया। शिष्यों का सौभाग्य समझना चाहिए कि गांधी बीच से हट गए, अन्यथा इस बात की करीब-करीब गारंटी कही जा सकती है कि एक लड़ाई गांधी को अंग्रेजों से लड़नी पड़ी थी, उससे भी खतरनाक और बड़ी लड़ाई गांधी को कांग्रेस से लड़नी पड़ती।
लेकिन इतिहास बड़ी अजीब और अदभुत घटना है। जिनसे उन्हें लड़ना पड़ता वे ही उनके हकदार और मालिक और कोई रक्षक हो गए हैं। वे ही अब गांधी को बचाने में लगे हुए हैं। गांधी से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं है, गांधी के नाम से वे अपने को बचाने में लगे हुए हैं। श्री मोरार जी ने कहा कि टीकाकार धीरे-धीरे समझ लेंगे कि सत्य क्या है। जैसे कि मोरार जी और उनके साथियों को सत्य पता है सिर्फ टीकाकारों को समझने की जरूरत है।
मैं उनसे कहना चाहता हूं कि टीकाकारों की तरफ सत्य है इस बार। सत्ताधिकारियों के पास सत्य नहीं है। समझना टीकाकार को नहीं पड़ेगा, समझना सत्ताधिकारियों को पड़ेगा। और नहीं समझेंगे तो सत्ता खोए बिना और कोई रास्ता नहीं है। सच तो यह है कि सत्य शायद ही सत्ता के साथ कभी रहा हो। सत्य अक्सर सूली पर रहा है, सिंहासनों पर तो असत्य ही बैठ जाता है। हमेशा की कथा यह है अब तक हम ऐसा समाज निर्मित नहीं कर पाए जिसमें सत्य को भी सिंहासन मिल सके।
मैं दिल्ली था अभी। और वहां कुछ बात मैंने कही तो मुझे एक पत्र मिला। मुझे एक पत्र मिला कि आप जैसे आदमी को तो फौरन तत्काल जेल भेज दिया जाना चाहिए। मैंने आंख बंद करके गांधी जी को स्मरण किया और मैंने कहा, बड़ा अदभुत सत्संग है आपका। मैं तो जब आप थे, तब इतनी उम्र न थी मेरी कि आपका सत्संग कर सकता। इसलिए एक साध मन में रह गई अब उसका कोई उपाय न था। लेकिन आपका नाम भी लिया, आपकी जरा दोस्ती जाहिर की तो जेल जाने की धमकी मिलने लगी। मरने के बाद भी तुम जेल जाने और भिजवाने वाले पुराने आदमी अब भी कायम मालूम होते हो। जो तुम्हारे साथ रहे वे जेल गए। मैंने अभी दोस्ती की थोड़ी सी, आपकी जरा बात की कि मुझे जेल जाने की बात आने लगी। सत्य सदा सूली पर है। गांधी की पूरी जिंदगी सूली पर लटके-लटके व्यतीत हुई। और उनके शिष्य सत्ताधिकारी हो गए हैं। और गांधी की आत्मा अगर कहीं भी होगी तो वे पछताते होंगे कि क्या इसी आजादी के लिए मैंने जीवन भर कोशिश की! इसी आजादी के लिए, यह आजादी जो मिली भारत को! गांधी का सपना यह था कि आजादी मिलेगी भारत को।
तो किस भारत को?
बिड़ला, डालमिया और टाटा के भारत को नहीं; गरीब भारत को, करोड़-करोड़ लोगों के भारत।
गांधी भले आदमी थे। भले आदमी हमेशा एक भूल करते हैं कि वे दूसरों को भी भला समझ लेते हैं। गांधी में भी वह भूल भरपूर की। वे निर्दोष चित्त व्यक्ति थे। ऐसे इनोसेंट, ऐसे निर्दोष लोग बहुत कम होते हैं। उनको ख्याल था कि समझा-बुझा कर वे हिंदुस्तान के पूंजीपति को भी राजी कर सकेंगे। लेकिन चालीस साल निरंतर कोशिश करने के बाद एक पूंजीपति को भी राजी नहीं कर सके कि वे पूंजी का विसर्जन कर दे, ट्रस्टी हो जाए, संरक्षक हो जाए। शायद उन्हें आखिर-आखिर में भूल दिखाई पड़ने लगी होगी, लेकिन भूल दिखाई पड़ने के पहले उनको उठा लिया गया।
अन्यथा यह बात करीब-करीब तो निश्चित है कि गांधी अपने ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर पुनर्विचार करने को मजबूर हुए होते। उन्हें यह बात दिखाई पड़ जानी कठिन न होती आजादी आने के बाद। जो वे यह सोचते रहे हैं कि हिंदुस्तान में कोई समाजवाद, कोई सर्वोदय, कोई सबका उदय, गरीब भारत का उदय हो सकेगा, और पूंजीपति राजी हो जाएगा। वह उन्हें सत्ता के हस्तांतरण के बाद दिखाई पड़ जाता कि पूंजीपति राजी नहीं होता है। बल्कि उनको यह भी दिखाई पड़ जाता कि जो पूंजीपति उनकी सेवा करते रहे थे, उनके सेवा का उन्होंने बहुत लाभ उठा लिया। उनके एक बड़े पूंजीपति सेवक, जब हिंदुस्तान आजाद हुआ तो उनकी कुल जायदाद तीस करोड़ रुपये थी और बीस साल में उनकी जायदाद तीन सौ तीस करोड़ रुपये हो गई है।
बीस साल में तीन सौ करोड़ रुपये की आमदनी! मनुष्य-जाति के इतिहास में किसी एक परिवार ने कभी भी न अमरीका में न कहीं और इतनी आमदनी बीस वर्षों में इकट्ठी की! तीन सौ करोड़ रुपया बीस वर्षों में! प्रतिवर्ष पंद्रह करोड़ रुपया! प्रतिमाह चार लाख से, सवा करोड़ से ज्यादा रुपया! प्रतिदिन चार लाख से ज्यादा रुपया! गांधी को ख्याल आ जाता कि आजादी किसके हाथ में गई है।
गरीब हिंदुस्तान को, असली हिंदुस्तान को, आजादी जरा भी नहीं मिली, कुछ भी प्रयोजन नहीं हुआ। सिर्फ इतना हुआ कि अंग्रेज पूंजीपति के हाथ से हिंदुस्तानी पूंजीपति के हाथ सत्ता का हस्तांतरण हो गया। गांधी इसके लिए नहीं लड़े थे...भला आदमी जो भूल करता है वह उन्होंने भी की। उनको भी यह ख्याल था कि पूंजी का यह राज, पूंजीपति का यह शोषण, समझाने-बुझाने से हल हो सकता है। वह हल नहीं हुआ। और वह हल नहीं होगा। और अब लोकतंत्र के नाम पर उसे निरंतर चलाए जाने की कोशिश की जा रही है। हिंदुस्तान में तब तक सही लोकतंत्र निर्मित नहीं हो सकता है जब तक हिंदुस्तान में आर्थिक समानता की हम कोई व्यवस्था आयोजित नहीं कर लेते। आर्थिक रूप से समान हुए बिना लोकतंत्र एक धोखा है, एक सरासर धोखा है। जहां गरीब और अमीर का भारी विभाजन हो, जहां संपत्तिशाली और संपत्तिहीनों के बीच करोड़ों का फासला हो, वहां लोकतंत्र सिर्फ नाम है, लोकतंत्र के पीछे धनपति का ही तंत्र होना सुनिश्चित है। हिंदुस्तान में लोकतंत्र तभी हो सकता है जब हिंदुस्तान एक समाजवादी जीवन-व्यवस्था को स्वीकार करे। उसके पहले हिंदुस्तान में लोकतंत्र एक आत्मवंचना के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। समानता आए बिना वास्तविक स्वतंत्रता और लोकतंत्र निर्मित होते भी नहीं है।
इसलिए मैंने जब अभी पीछे कहीं कहा कि हिंदुस्तान को अभी एक सर्वहारा के, अधिनायक तंत्र की जरूरत है, एक डिक्टेटरशिप प्रोलिटेरिएट की जरूरत है। तो मुझे चारों तरफ से गालियां मिलीं कि मैं लोकतंत्र का दुश्मन मालूम होता हूं। लोकतंत्र है ही नहीं, उसके दुश्मन होने का उपाय भी नहीं है। लोकतंत्र होता तो हम दुश्मन भी हो सकते थे, लेकिन लोकतंत्र है कहां? अमीर के तंत्र का नाम लोकतंत्र है! कितने हैं अमीर? वह जो बड़ा लोक-समुदाय है उसका कौन सा तंत्र है? उसका तंत्र हो कैसे सकता है?
लेकिन जब भी पूंजीपति की व्यवस्था को और शोषण को हटाने की बात की जाए, तो सवाल उठता है कि लोकतंत्र में दबाव कैसे डाला जा सकता है! लोकतंत्र में दबाव डालना तो गलत हो जाएगा। लेकिन मैं यह पूछता हूं कि चोरों पर आप दबाव नहीं डालते कि चोरी मत करो, हत्यारों पर दबाव नहीं डालते कि हत्या मत करो!
हत्यारे और चोर नहीं कल कहेंगे कि हमारा लोकतंत्र छीना जा रहा है, हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छिनी जा रही है, हम चोरी करना चाहते हैं हमें चोरी करने दी जाए। लेकिन चोर के लिए तलवार है और शोषक के लिए तलवार नहीं हो सकती? शोषक के लिए तलवार की जब बात उठती है तब अहिंसा और लोकतंत्र बीच में खड़े हो जाते हैं। और हत्यारे और चोर के लिए? नहीं, उसके लिए लोकतंत्र का सवाल नहीं है। उसके लिए सत्ता अधिनायकशाही का उपयोग करती है। सच बात यह है कि हमने अब तक यह नहीं समझा कि शोषक चोर से भी ज्यादा खतरनाक है।
मैंने सुना है कि चीन में एक अदभुत विचारक था लाओत्सु। वह एक बार एक राज्य का कानून-मंत्री हो गया था। ज्यादा दिन नहीं चला वह मंत्रीपन, क्योंकि इतने अच्छे विचारक कितनी देर इस तरह के काम कर सकते हैं। पहले ही दिन उसकी अदालत में एक मुकदमा आया। एक आदमी ने चोरी की थी, चोरी पकड़ गई थी। उस आदमी ने चोरी स्वीकार भी कर ली थी। लाओत्सु ने उस चोर को छह महीने की सजा सुनाई और साथ ही कहा कि जिस साहूकार के घर चोरी हुई है उसको भी छह महीने की सजा देता हूं।
साहूकार कहने लगा, आप पागल हो गए हैं! यह कभी दुनिया में हुआ है? मेरा कसूर क्या है? यह कौन सा न्याय है? किस किताब में लिखा है?
लाओत्सु ने कहाः गांव की सारी संपत्ति एक आदमी के पास इकट्ठी हो जाएगी तो चोरी नहीं होगी तो और क्या होगा! चोर पीछे चोर है तुम पहले चोर हो। तुम्हारी वजह से चोरी पैदा होती है। जब तक दुनिया में शोषण है तब तक चोरी बंद नहीं हो सकती। चाहे कितने ही जेल भरो, कितने ही मुकदमे चलाओ, चाहे कितनी ही नैतिक-शिक्षा दो। जब तक दुनिया में शोषण की महाचोरी चल रही है तब तक छोटी चोरियां उससे अपने आप पैदा होती रहेंगी वह बंद नहीं हो सकतीं।
लाओत्सु को मंत्री-पद छोड़ देना पड़ा, क्योंकि सम्राट ने भी कहा कि तुम पागल हो, साहूकारों को कभी सजा मिली है! चोर को सजा देनी पड़ती है! लाओत्सु ने कहा था, जब तक साहूकार को सजा नहीं मिलेगी, मैं यह घोषणा किए देता हूं, तब तक दुनिया से चोरी बंद नहीं हो सकती।
लेकिन लोकतंत्र चोर को तो रोकता है, शोषक को नहीं रोकता। शोषक को रोकने की बात की जाए तो वह कहता है, लोकतंत्र पर खतरा है। हत्या हो जाएगी लोकतंत्र की। ऐसे लोकतंत्र की दो कौड़ी कीमत नहीं है जिसका कुल मतलब बहुजन का शोषण हो। हिंदुस्तान को लोकतंत्र की जरूरत पड़ेगी, एक समय आएगा कि हिंदुस्तान लोकतांत्रिक बने। लेकिन अभी जब तक हिंदुस्तान का बड़ा हिस्सा गरीब और शोषित है तब तक हिंदुस्तान को एक सख्त अधिनायकशाही की जरूरत है। जो हिंदुस्तान के शोषण के तंत्र को तोड़ देने का काम करे और उसके बाद ही सही लोकतंत्र स्थापित हो सकता है।
अच्छी-अच्छी बातों के पीछे बुरे-बुरे इरादे छिपे होते हैं। लोकतंत्र का अच्छा नारा है लेकिन पीछे? पीछे लोकतंत्र के नाम पर पूंजीशाही को बचाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमें ख्याल में भी नहीं आता, अच्छे सब आड़ बन जाते हैं और हम उनमें ही जीए चले जाते हैं।
अभी मैंने कुछ थोड़ी सी जो आलोचना की तो हिंदुस्तान भर के विचारक कितने गहरे विचारक हैं यह मुझे दिखाई पड़ा। बड़े से बड़े विचारक छोटी से छोटी गाली देने पर उतर आए। जो बहुत सज्जन थे उन्होंने सज्जनता की गाली दी। जो जरा उतने सज्जन नहीं थे उन्होंने सीधी-सीधी गालियां दीं। श्री देबर भाई ने कहा कि मालूम होता है रजनीश जी गांधी जी को समझे नहीं। अगर माक्र्स की आलोचना करो तो कम्युनिस्ट मित्र कहते हैं, मालूम होता है आप माक्र्स को समझे नहीं। अगर महावीर की आलोचना करो तो जैन कहते हैं, मालूम होता है आप महावीर को समझे नहीं। अगर बुद्ध की आलोचना करो तो बुद्ध के अनुयायी कहते हैं, मालूम होता है आप बुद्ध को समझे नहीं।
इसका मतलब यह होता है कि आलोचना सिर्फ वे लोग करते हैं जो समझते नहीं और प्रशंसा केवल वे लोग करते हैं जो समझते हैं। साहब, प्रशंसा करने के लिए समझने कोई भी जरूरत नहीं है। प्रशंसा तो कुत्ते भी पूंछ हिला कर कर देते हैं। आलोचना के लिए समझने की जरूरत है।
श्री देबर भाई को मैं कहूंगा, अगर वे प्रशंसा ही किए जा रहे हैं गांधीवाद की, तो ठीक से समझ लें, समझे नहीं होंगे। अन्यथा गांधीवाद को अरथी पर चढ़ा देने का वक्त आ गया। गांधी तो जीएं, हजार-हजार वर्ष जीएं। गांधी जैसे प्यारे आदमी मुश्किल से पैदा होते हैं दुनिया में। लेकिन गांधी के आसपास गांधीवादियों ने जो एक वाद का जाल पैदा किया है उसे अरथी पर चढ़ा देने की जरूरत है। सच तो यह है कि गांधी ने कभी चाहा नहीं और कभी कहा नहीं कि मेरा कोई वाद है। गांधी निरंतर कहते थे कि मेरा कोई वाद नहीं है। इतने भले लोग वाद पैदा नहीं करते हैं। वाद और विवाद भी बहुत रद्दी तरह के लोग पैदा करते हैं। गांधी ने कभी कहा नहीं कि मेरा कोई वाद है। वे तो एक अदभुत विनम्र आदमी थे। वे कहते थे, जो पहले कहा गया है बहुत बार वही मैं नये प्रसंगों में नये ढंग से कहता हूं, मेरा कोई वाद नहीं है। लेकिन फिर यह गांधीवाद किसने खड़ा कर दिया?
बुद्ध कहते थे, मेरा कोई वाद नहीं है। लेकिन फिर बुद्धवाद किसने खड़ा कर लिया? ये अनुयायी हमेशा से बहुत ईजाद करने वाले लोग रहे हैं। इन्हें असली आदमी से कोई मतलब नहीं होता। इनका तो जब वाद खड़ा हो जाता है तब ही प्रयोजन हल होता है। जीसस सूली पर चढ़ गया उससे किसी को मतलब नहीं है। अठारह सौ, उन्नीस सौ वर्षों में जीसस के पीछे जो पादरी है उसने क्रिश्चिएनिटी खड़ी कर ली। क्रिश्चिएनिटी खड़ा करना बहुत आसान और अपने मतलब की बात है। जीसस बहुत खतरनाक आदमी है। जीसस के साथ पादरी का जीना बहुत मुश्किल है। लेकिन क्रिश्चिएनिटी पादरी की अपने हाथ की बनावट है। वह उसका जैसा मतलब निकालना चाहता है मतलब निकालता है, जो व्याख्या करना चाहता है व्याख्या करता है।
मैंने सुना है, एक घटना बड़ी अदभुत है। एक कहानी है। मैंने सुनी है कि अठारह सौ वर्ष बाद जीसस के मरने के, स्वर्ग में जीसस को ख्याल आया कि अब अगर मैं दुनिया में जाऊं तो मेरा बहुत स्वागत होगा। क्योंकि जब मैं गया था गलत जगह पहुंच गया था। अपने आदमी ही नहीं थे कोई, कोई क्रिश्चिएन न था, कोई ईसाई न था, मैं पहुंच गया यहूदियों में। उन्होंने मेरे साथ दुव्र्यवहार किया, वे मुझे समझ नहीं सके। लेकिन अब तो आधी दुनिया ईसाई हो गई है। गांव-गांव में मेरे चर्च हैं, गांव-गांव में मेरे पादरी हैं। आपको पता है सिर्फ कैथेलिक पादरियों की संख्या बारह लाख है। सिर्फ कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट अलग हैं और पच्चीस मत-मतांतर अलग हैं। अब तो मेरे पादरियों से भरा है पृथ्वी का पूरा का पूरा जगत, गांव-गांव, देश-देश ईसाई हैं, अब मैं जाऊं तो मेरा ठीक स्वागत होगा। अठारह सौ वर्ष बाद जीसस जेरुसलम में एक दिन सुबह-सुबह उतरे, रविवार का दिन था, धर्म का दिन। धार्मिक आदमी बड़े होशियार हैं। उन्होंने दिन भी बांट लिए हैं। छुट्टी के दिन को धर्म का दिन कहते हैं। क्योंकि उस दिन कुछ करना नहीं पड़ता। बाकी छह दिनों को अधर्म का दिन मानते हैं। क्योंकि दुकान चलानी पड़ती है, दफ्तर चलाना पड़ता है। रविवार के दिन जीसस उतर गए जेरुसलम में, एक झाड़ के नीचे खड़े हो गए। चर्च से धार्मिक लोग लौटते थे, जीसस बड़े प्रसन्न होकर उनकी तरफ देखने लगे कि ये लोग मुझे जरूर पहचान जाएंगे। वे लोग पहचान गए, पास आए और कहने लगे, यह कौन नकली आदमी खड़ा हुआ है? यह कौन अभिनेता, बिल्कुल जीसस बन कर खड़े हुए हो साहब! कहां से आए हो आप?
जीसस ने कहाः तुम मुझे पहचाने नहीं, मैं हूं वही जीसस क्राइस्ट, ईश्वर का पुत्र। वे लोग हंसने लगे और कहा, जल्दी भाग जाओ, अगर पादरी निकलने वाला है, पता चल गया तो मुसीबत में पड़ जाओगे। क्योंकि पादरी का कहना है कि जीसस हो चुके, अब कभी नहीं होंगे।
सभी यही कहते हैं। जैनी कहते हैं, हमारा आखिरी तीर्थंकर हो चुका अब कोई तीर्थंकर नहीं होगा। क्योंकि तीर्थंकर हमेशा खतरनाक होता है। तीर्थंकर आ जाए तो बनी-बनाई सारी दुकानदारी मिटा दे। मुसलमान कहते हैं हो चुका पैगंबर हमारा मोहम्मद, अब कोई पैगंबर नहीं होगा। क्योंकि पैगंबर आ जाए तो सारी मुसलमानी बेवकूफी को आग लगा दे। जीसस का मानने वाला कहता है, अब कोई जीसस नहीं होंगे। ईश्वर का इकलौता बेटा था वह हो चुका एक दफा। उन लोगों ने कहा, तुम भाग जाओ जनाब, नहीं तो बहुत दिक्कत में पड़ जाओगे। लेकिन तभी वह पादरी भी निकल आया। पादरी के गले पर सोने का क्रास लटका हुआ है। बड़े मजे की बात, जीसस को जिस सूली पर लटकाया गया था वह लकड़ी की थी, पर पादरी सोने का क्रास लटकाए हुए है। सोने के कहीं क्रास हुए हैं। कोई पागल होगा जो सोने के क्रास बना कर किसी को लटकाने जाएगा। फिर भी जीसस ने सोचा कि पादरी तो जरूर मुझे पहचान लेगा। देखो मेरा क्रास लटकाए हुए है। उस पादरी ने आकर भीड़-भाड़ में, रास्ता बना दिया लोगों ने, जीसस के लिए कोई सुनने को तैयार न था, पादरी के लिए रास्ता बना दिया। पादरी अंदर आया लोग झुक-झुक कर नमस्कार करने लगे।
जीसस बहुत हैरान हुए, मैं खड़ा हूं मुझे कोई नमस्कार नहीं करता, मेरे पादरी को लोग नमस्कार करते हैं। पादरी अंदर आया और उसने कहा कि तुम कौन हो? यह क्या तुमने ढोंग रचा हुआ है? जीसस ने कहा, ढोंग नहीं, मैं वही हूं ईश्वर का पुत्र, जीसस क्राइस्ट। पहचाने नहीं, तुम भी नहीं पहचाने। उस पादरी ने चार लोगों से कहा, पकड़ो इस बदमाश को, यह अपने को जीसस कह रहा है, अपमान कर रहा है हमारे भगवान का। जीसस ने कहा, मैं वही हूं, अपमान नहीं कर रहा। जीसस तो घबड़ाए। चार लोगों ने उन्हें पकड़ लिया, भीड़ उन्हें ले चली। यह तो फिर वही होने लगा जो अठारह सौ साल पहले हुआ था।
अरे, वह जीसस कहने लगे, क्या करते हो? मैं वही हूं। उन्होंने कहाः चुप, ज्यादा गड़बड़ मत करो। ले जाकर एक कोठरी में ताला डाल कर बंद कर दिया। ऐसे ही अठारह सौ साल पहले भी किया था। जीसस उस कोठरी में पड़े हुए रोने लगे। कि आश्चर्य! मेरे लोग भी यही व्यवहार करते हैं क्या मेरे साथ? आधी रात पादरी ने दरवाजा खोला, अंदर आया, जीसस के पैरों पर गिर पड़ा और कहने लगा, महाशय, हे प्रभु, मैं आपको पहचान गया था। लेकिन बाजार में सबके सामने नहीं पहचान सकता हूं। यह अकेले की पहचान अलग बात है। जीसस कहने लगे, सबके सामने क्यों नहीं पहचान सकते हो? उस आदमी ने कहा कि सबके सामने पहचान कर क्या अपनी मुसीबत कराऊंगा? यू आर द ओल्ड डिस्टर्बर। वही पुराने तुम गड़बड़ कर दोगे सब। हमने किसी तरह दुकानदारी अठारह सौ साल में जमाई है। तुम हमेशा गड़बड़ कर देते हो। तुम्हारी अब आने की कोई भी जरूरत नहीं है। हम काम बहुत अच्छे से संभाल रहे हैं। हम तुम्हारे दलाल, हम तुम्हारे एजेंट। हम काम बहुत अच्छी तरह सम्हाल रहे हैं। आपकी कोई भी जरूरत नहीं है। आप स्वर्ग में विश्राम करो। पृथ्वी पर हम ठीक से सब सम्हालते हैं। और अगर आपने गड़बड़ की तो हमें कष्ट तो बहुत होगा, लेकिन हमें फिर सूली लगानी पड़ेगी। इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं।
अगर गांधी जी वापस लौट कर आएं तो गांधीवादी उन्हें सूली लगा दें। अगर वे वापस लौट कर आएं तो देख कर हैरान हो जाएं कि ये उनके ही चरखा-तकली कातने वाले लोग, ये सत्य-अहिंसा की दुहाई देने वाले लोग, ये बड़े भले साधु-संत दिखाई पड़ते थे, ये बड़े भोले मालूम पड़ते थे, ये कैसे हो गए? इनके चेहरों पर ये खून के दाग कैसे? इनके हाथ में यह अन्याय का रंग कैसा? इनका ये सारा व्यक्तित्व अंधेरा-अंधेरा कैसे हो गया?
हां, खादी तो ये बहुत सफेद पहने हुए हैं। इतनी गांधी को भी सफेद खादी पहनने नहीं मिलती थी। लेकिन इस सफेद खादी के पीछे आदमी बिल्कुल काले हो गए हैं। सच तो यह है, दुनिया का नियम यह है कि जितने काले आदमी होते हैं उतने सफेद कपड़े खोज लेते हैं। वह काले आदमी की पुरानी तरकीब यह है अपने कालिखपन को छिपाने की। खादी तो बुरी नहीं है, लेकिन गांधीवादी के हाथ में खादी तक बुरी हो गई है। गांधीवादी के हाथ में वह खादी तक अपमानित हो गई है, अपवित्र हो गई है।
मैंने अभी बंबई में कहा कि खादी जैसी पवित्र चीज और गांधी जैसी सुंदर टोपी को भी हो सकता है हिंदुस्तान को होली जलानी पड़े। क्योंकि वह अब सत्ता का प्रतीक और अन्याय का प्रतीक हो गई है। जैसे एक दिन अंग्रेजी कपड़ा, विलायती कपड़ा सत्ता का प्रतीक हो गया था। और गांधी को उसकी होली जला देनी पड़ी। दुर्भाग्य कहें, संयोग कहें, इतिहास का चमत्कार कहें कि उसी गांधी की टोपी आज उसी हालत पहुंच गई है जहां विदेशी कपड़ा पहुंच गया था। आज वह होली में जलाए जाने योग्य हो गई। नहीं मैं यह कह रहा हूं कि होली में जला दें। टोपी जलाने से कोई फायदा नहीं है। मुल्क का बेकार खर्च हो जाएगा। वह मैं नहीं कह रहा हूं, लेकिन मैं यह कह रहा हूं कि यह हालत कर दी है गांधीवादी ने।
गांधी का कोई वाद नहीं है। गांधी का एक व्यक्तित्व था, गांधी की एक भावना थी, गांधी की एक आत्मा थी, उन्हें जो ठीक लगा उन्होंने किया। लेकिन गांधी ने कोई सूत्रबद्ध बाध्य नहीं दिया है जिसके कि पीछे चल कर पूरे मुल्क को बनाना है।
नहीं, गांधी कोई सिस्टेमेटाइजर नहीं थे। गांधी ने कोई सिस्टम नहीं बनाई है। गांधी ने कोई रेखाबद्ध जीवन-दर्शन नहीं बनाया है कि इस ढांचे में तुम इस सारे मुल्क को बनाने की कोशिश करना। गांधी ढांचा-विरोधी लोग थे, वे ढांचा नहीं बनाते हैं। जो ठीक लगता है वह जीते हैं, जो ठीक लगता है वह करते हैं। जो कल गलत लगता था आज ठीक लग रहा है, जो आज ठीक लगता है कल गलत लगेगा, तो वे ईमान से स्वीकार करते हैं कि वह गलत था मैं उसको छोड़ता हूं। अदभुत हिम्मत के आदमी थे। जीवन के अंत तक भी उन्होंने कोई ढांचा नहीं बना लिया था व्यक्तित्व का। एक स्वतंत्र व्यक्ति थे।
लेकिन गांधीवादियों ने एक ढांचा बना दिया मुल्क के लिए। और अब वह कहते हैं कि हम पूरे मुल्क को इस ढांचे में ढालेंगे। और उस ढांचे में पूरे मुल्क का अहित होने वाला है। क्योंकि गांधी ने जो विचार दिए थे वे आजादी के पूर्व थे। और आजादी के पूर्व आजादी का मसला दूसरा था। आजादी के बाद भारत की समस्या बुनियादी रूप से बदल गई है। और गांधी ने जो भी कहा और किया था आज उसकी कोई संगति नहीं रह गई है। गांधी के लिए सवाल था देश स्वतंत्र कैसे हो? अब हमारे लिए वह सवाल नहीं है। अब हमारे लिए सवाल है कि देश समान कैसे हो? स्वतंत्रता की जो लड़ाई थी उसमें और समानता की लड़ाई में बुनियादी फर्क है। स्वतंत्रता की लड़ाई विदेशियों के खिलाफ थी। समानता की लड़ाई अपने ही उन लोगों के खिलाफ होगी, जो सत्ताधिकारी हैं, जो पूंजी और संपत्ति को इकट्ठा करके शोषक बन कर बैठ गए हैं। आजादी की लड़ाई परदेसी के खिलाफ थी। समानता की लड़ाई अपने ही उन लोगों के खिलाफ होगी जो शोषक हैं। यह लड़ाई बुनियादी रूप से भिन्न होगी। और ध्यान रहे कि गांधी अंग्रेज को तो अहिंसा के रास्ते से झुका सके, लेकिन भारतीय पूंजीपति को अहिंसा के रास्ते से झुकाना मुश्किल मालूम पड़ता है। ये भारतीय बहुत होशियार हैं। ये अहिंसा-वहिंसा की तरकीब में फंसने वाले नहीं हैं। इन पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। चालीस साल की गांधी की पूरी जिंदगी में एक पूंजीपति राजी नहीं हो सका ट्रस्टीशिप के लिए! तो अब गांधीवादियों की हिम्मत है कि ये ट्रस्टीशिप के लिए राजी कर लेंगे लोगों को? गांधी जो नहीं कर पाए, वह गांधीवादी कर लेंगे? गांधी जहां असफल हो गए, वह गांधीवादी कर लेंगे? कहां गांधी, कहां बेचारे छुटभइए गांधीवादी, इनका क्या संबंध हो सकता है? ये क्या कर पाएंगे? इनसे कुछ भी नहीं हो सकता, लेकिन ये नारे दोहराते रहेंगे और नारे दोहराने के पीछे पूंजी का तंत्र जारी रहेगा, शोषण का तंत्र जारी रहेगा।
अगर गांधी वापस लौटे तो शायद उनके सामने पहला सवाल होगा कि भारत समान कैसे हो। गांधी की बात को मान कर उनके एक शिष्य, एक बहुत प्यारे आदमी, एक बहुत सज्जन व्यक्ति विनोबा उनकी बात को मान कर काम में लगे हैं। लेकिन उनके काम से हिंदुस्तान में समाजवाद नहीं आ रहा, बल्कि आने वाले समाजवाद के मार्ग में बाधा पड़ी। उनका भूदान उनकी सदभावना का तो प्रतीक है, लेकिन उनकी बहुत गहरी समाज को समझने की अंतर्दृष्टि का नहीं। दान वगैरह से गरीब को थोड़ी राहत मिल सकती है लेकिन शोषण का तंत्र नहीं बदलता। दान से थोड़ी-बहुत गरीबी को गरीबी सहने में सुविधा मिल सकती है, लेकिन गरीब जितने दिन तक गरीबी सहता है उतने दिन तक ही शोषण को बदलने की, क्रांति की उसकी तैयारी में बाधा पड़ती है। और गरीब को दान इत्यादि से ऐसा मालूम होने लगता है कि यह पूंजीवाद भी बहुत अच्छा वाद है, हमें जमीन भी देता है, रोटी-रोजी भी देता है, कपड़े भी देता है, ये पूंजीपति बड़े अच्छे लोग हैं। और पूंजीवाद की जो रुग्ण और विकृत और कुरूप जीवन-व्यवस्था है उसमें भी उसे राहत मिलने लगती है, सांत्वना मिलने लगती है। मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि गांधी जिंदा होते तो भूदान की इस अंतिम परिणति का उन्हें बोध न हो जाता। लेकिन विनोबा को वह बोध नहीं हो सका है। गांधी के पास एक बहुत गहरी अंतर्दृष्टि थी, शायद विनोबा के पास उतनी गहरी अंतर्दृष्टि नहीं है।
शिष्यों के पास गुरुओं जैसी अंतर्दृष्टि होती भी नहीं। अगर हो तो वे शायद ही किसी के शिष्य होने को तैयार हों। वे खुद ही गुरु हो जाते हैं। आजादी के बाद हिंदुस्तान के सारे अच्छे लोग भूदान और सर्वोदय के काम में लग गए। उनका ख्याल था इससे समाजवाद आ जाएगा।
मैं आपसे कहना चाहता हूं, सर्वोदय से समाजवाद नहीं आ सकता, समाजवाद से सर्वोदय जरूर आ सकता है। इसे मैं फिर दोहराऊं, सर्वोदय से समाजवाद नहीं आ सकता, क्योंकि जब तक समाज श्रेणियों में विभक्त है तब तक सर्वोदय की बात ही व्यर्थ है। सबका उदय कैसे हो सकता है? जहां पूंजी है, जहां पूंजीपति है, जहां शोषण है, जहां शोषित है, जहां दीन-हीन दरिद्र है और जहां धन के अंबार है, इन दोनों का एक साथ उदय कैसे हो सकता है? इन दोनों के एक साथ उदय का कोई भी अर्थ नहीं है। इन दोनों के एक साथ उदय का अर्थ पूंजीपति का ही उदय होगा। हम भेड़ों को भेड़ियों के साथ पालें और कहें कि दोनों का उदय होगा तो भेड़ियों का उदय होगा भेड़ें थोड़े दिन में सफाचट हो जाएंगी। भेड़िए बिल्कुल राजी हो जाएंगे कि हमें यह सर्वोदय की फिलासफी बिल्कुल पसंद है। भेड़िये कहेंगे, हमें बिल्कुल जंचता है, यह तत्व ज्ञान बहुत ऊंचा है। बिल्कुल ठीक है। सबका उदय होना चाहिए, हमारा भी और भेड़ों का भी। क्योंकि वे भलीभांति जानते हैं कि दोनों के साथ रहने में बेचारी भेड़ों का उदय क्या हो सकता है?
जब तक श्रेणी विभक्त है समाज, जब तक वर्ग विभक्त है, जब तक क्लासेज हैं समाज में, जब तक दो तरफ समाज का जीवन विभाजित है और जब तक शोषण का यंत्र काम करता है तब तक सर्वोदय जैसी कोई चीज कभी नहीं हो सकती। सर्वोदय हो सकता है जब श्रेणी विभक्त समाज समाप्त हो जाए। जब श्रेणी मुक्त समाज निर्मित हो, वर्गहीन समाज हो तो सबका उदय हो सकता है। क्योंकि तब सबका हित एक हो जाता है।
तो मैं कहता हूं, समाजवाद से सर्वोदय निष्पन्न होगा, लेकिन सर्वोदय से समाजवाद निष्पन्न नहीं हो सकता है। और सर्वोदय की बातचीत में हम जितना समय खराब करेंगे और जितनी शक्ति लगाएंगे, उतनी देर तक समाजवाद को लाने की दिशा में जो हमारे प्रयास होने चाहिए वे शिथिल पड़ते हैं और उनमें बाधा पड़ती है। इसलिए मैंने यह ठीक समझा कि हम गांधी के पूरी जीवन चिंतना पर, उनके जीवन भर के प्रयोगों पर एक बार फिर से विचार कर लें। क्योंकि उनके आधार पर हमें अपने मुल्क के भविष्य को एक दिशा, एक मार्ग, एक व्यवस्था देनी है। और गांधीवादी वह काम जरा भी नहीं कर रहे हैं। उनका एक ही काम है कि वे गांधी की जय-जय कार जोर-जोर से करवाते रहें।
क्यों? क्योंकि गांधी की जय-जय कार में पीछे धीरे-धीरे उनकी भी जय-जय कार हो जाती है। जिस दिन गांधी की जय-जय कार बंद हो गई, उस दिन इन बेचारों की जय-जय कार करने वाला कहां खोजने से मिलेगा! तो वे गांधी की जय-जय कार करते रहते हैं। आदमी बहुत होशियार है। आदमी को अगर यह भी कहना हो कि मैं कुछ हूं तो वह सीधा नहीं कहता, क्योंकि सीधे से बड़ी चोट पड़ती है। वह तरकीबें निकालता है। अगर गांधीवादी को यह कहना है कि मैं महान हूं, तो वह यह नहीं कहेगा कि मैं महान हूं। वह कहेगा, गांधी जी महान थे, गांधीवाद महान है। और धीरे से कहेगा, मैं गांधीवादी हूं! वह इतनी तरकीब लगानी पड़ती है। और विनम्रता से कहेगा कि मैं गांधीवादी हूं, मैं तो विनम्र आदमी हूं, मैं तो कुछ भी नहीं हूं। मगर गांधी महान थे, गांधीवाद महान है और मैं, मैं रहा छोटा सा एक सेवक।
मैंने सुना है कि पेरिस विश्वविद्यालय में फिलासफी का एक प्रोफेसर था, दर्शनशास्त्र का एक प्रधान अध्यापक। एक दिन सुबह आकर उसने युनिवर्सिटी के विद्यार्थियों को अपने विभाग के विद्यार्थियों को कहा, तुम्हें पता है मैं दुनिया का सबसे श्रेष्ठ आदमी हूं।
वे लोग हैरान हुए, समझे कि दार्शनिक का दिमाग खराब हो गया। अक्सर हो जाता है। यह बेचारा गरीब प्रोफेसर फटा कोट-कमीज पहने हुए यह, दुनिया का श्रेष्ठतम आदमी कैसे हो गया?
उनकी आंखों में शक देख कर उसने कहाः तुम क्या शक करते हो इस बात पर?
एक विद्यार्थी ने कहा कि महानुभाव, शक तो होता है आप कैसे दुनिया के श्रेष्ठतम आदमी हैं?
उसने कहाः मैं सिद्ध कर सकता हूं।
उन विद्यार्थियों ने कहाः आप सिद्ध करेंगे तो बड़ी कृपा होगी।
वह बोर्ड पर गया, जहां दुनिया का नक्शा लटका हुआ था। उसने छड़ी उठाई और कहा कि देखो, यह बड़ी दुनिया है इसमें सबसे श्रेष्ठ देश कौन सा है? सारे बच्चे फ्रांस के थे, उन्होंने कहाः फ्रांस सर्वश्रेष्ठ है, फ्रांस से ऊंची पुण्य-भूमि नहीं, फ्रांस में ही भगवान जन्म लेते, फ्रांस दुनिया का गुरु है। सभी मुल्कों को यही बेवकूफी चढ़ी हुई है। हमारे मुल्क गुरु है, हमारे मुल्क में भगवान जन्म लेते हैं, हम ही सर्वश्रेष्ठ। उनको भी वही पागलपन जो हमको। सारी दुनिया में पागलपन है, एक सा है।
उसने कहाः फिर ठीक, फ्रांस सबसे श्रेष्ठ देश है यह तो मानते हो?
उन्होंने कहाः यह हम मानते हैं।
उसने कहाः अब बाकी दुनिया का सवाल न रहा सिर्फ फ्रांस का रह गया। अब इतना ही सिद्ध करना है कि फ्रांस में मैं सर्वश्रेष्ठ हूं कि नहीं। उसने कहा, अब तुम बता सकते हो कि फ्रांस में सर्वश्रेष्ठ नगर कौन सा है? लड़के समझ गए कि फंस गए चक्कर में, क्योंकि पेरिस, वे पेरिस में ही सब रहते थे। उन्होंने कहाः पेरिस।
उसने कहाः तब फ्रांस भी खत्म हो गया, रह गया पेरिस। अब मैं तुमसे पूछता हूं, पेरिस में सबसे श्रेष्ठतम स्थान कौन सा है?
मजबूरी थी, कहना पड़ा, युनिवर्सिटी। युनिवर्सिटी से श्रेष्ठ विद्या का मंदिर और कहां है! विश्वविद्यालय! उन्होंने कहाः विश्वविद्यालय श्रेष्ठतम है। तब तक वे समझ गए कि तर्क तो पहुंच गया निष्पत्ति तक, मामला खत्म हुआ जाता है।
उसने कहाः फिर विश्वविद्यालय में श्रेष्ठतम विभाग, श्रेष्ठतम विषय कौन सा है? फिलासफी, दर्शनशास्त्र, वे सभी दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी हैं। उसने कहाः तब अब कुछ और बताने की जरूरत है, मैं दर्शनशास्त्र का हेड ऑफ दि डिपार्टमेंट हूं। मैं दुनिया का सबसे बड़ा आदमी हूं।
गांधी महान और गांधीवाद महान और मैं, मैं एक छोटा सा गांधीवादी हूं। वह पीछे से आवाज, उस आवाज को बचाने के लिए सारा शोरगुल है। मैंने गांधी की थोड़ी सी आलोचना की तो इतना शोरगुल मच गया। एक महीने...। मैं तो गुजरात में नहीं था, मैं तो पंजाब था। मुझे तो पता भी नहीं था यहां क्या हो रहा है? यहां आया तो मैं तो देख कर हैरान हो गया। गांधीवादी को इतनी पीढ़ा क्या पहुंची, मैंने गांधी की कुछ आलोचना की तो। इस बेचारे को इतने जोर के घाव कैसे लग गए? इसको घाव लगने का कारण है। गांधी को बचा कर यह अपने को बचाता है। और सच यह है कि गांधी को बचाने की किसी को कोई जरूरत नहीं है। उनकी दुनिया कोई नहीं मिटा सकता। सिर्फ गांधीवादी मिटा सकते हैं। अगर यह बेईमानों का जत्था उनके पीछे पड़ा रहा तो गांधी को ये नेस्तनाबूद कर देंगे। गांधी हैं राष्ट्रपिता, और अगर गांधीवादियों के चक्कर में और दस-बीस साल उनको रहना पड़ा। अब वह बेचारे अब कुछ कर भी नहीं सकते। वह तो रहे नहीं गए उनकी फोटू रह गई है। तो फोटू को अदालतों में लटकाए हुए हैं, पुलिसथानों में लगाए हुए हैं। कोई पूछे कि इस बेचारे गांधी को पुलिसथाने में किसलिए बिठाया हुआ है। उसी के नीचे हवलदार बैठ कर मां-बहन की गालियां दे रहा है और गांधी की तस्वीर पीछे लटकी हुई है। उसी के सामने मजिस्ट्रेट रिश्वत ले रहा है और गांधी की तस्वीर पीछे लटकी हुई है।
गांधी को तुमने कोई पंचम जार समझा हुआ है! गांधी कोई अंग्रेज बादशाह है! गांधी के साथ यह सलूक ठीक हो रहा है। तुम बर्बाद कर दोगे गांधी के नाम को। तुम मूर्तियां बना कर और तुम समझ रहे हो कि तुम बहुत बड़ा उपकार कर रहे हो गांधी पर। तो बड़ी भूल में हो। और तुम अदालत, पुलिसथानों में उनकी तस्वीरें लटका कर तुम समझ रहे हो कि तुम गांधी की इज्जत बढ़ा रहे हो। तुम कम कर रहे हो। तुम्हें पता नहीं है कि जितना गांधी सरकारी हो जाएंगे उतने ही गांधी अपमानित हो जाएंगे। गांधी को कोई पूछेगा नहीं, गांधीवादियों के अगर काम सफल हो गए तो। गांधी को हमने किसी दिन राष्ट्रपिता कहा था। अगर गांधीवादियों से उनका छुटकारा नहीं हुआ तो गांधी राष्ट्रहंता मालूम पड़ने लगेंगे। इसे पूर्व से सचेत हो जाना जरूरी है।
मैं जो गांधी के विचार की कोई आलोचना करता हूं तो वह गांधी की आलोचना नहीं है। गांधी की आलोचना का सवाल नहीं उठता। गांधी की तरफ इशारा उठाने की भी जरूरत नहीं है। उन जैसे पवित्र लोग मुश्किल से हजारों-लाखों वर्षों में एकाध बार पैदा होते हैं। उन पर हाथ उठाने का सवाल भी नहीं है। लेकिन गांधीवाद उनकी आड़ में खड़ा है और गांधीवादी गांधीवाद की आड़ में खड़े हैं। अगर इन पर कोई ठीक विरोध किया जाना है और इनकी आलोचना की जानी है तो गांधी के विचार से आलोचना को शुरू करने के सिवाय और कोई मार्ग नहीं है। और यह ध्यान रहे कि हिंदुस्तान के भाग्य में बहुत निपटारे का समय है। अगर हिंदुस्तान को अपना भविष्य ठीक से सुनिश्चित करना है, एक व्यवस्था देनी है जीवन को, तो हमें सारी बातों पर पुनर्विचार कर लेना होगा। हमें सारी यात्रा पर पुनर्विचार कर लेना होगा।
हमें समझ लेना होगा कि हम किस यात्रा को पचास वर्षों में किए आजादी के पहले, आजादी के बाद बीस वर्षों में हमने क्या किया? और कहीं हम उसी तरह की भूल, अगर विचार नहीं करेंगे तो दुबारा दोहराएंगे, दुबारा दोहराएंगे। दोहराते चले जाएंगे। हिंदुस्तान में ईसाई रहते हैं, हिंदू रहते हैं, मुसलमान रहते हैं, जैन रहते हैं, सिक्ख रहते हैं, फारसी रहते हैं, लेकिन आजादी के पहले? आजादी के पहले हमने एक बात दोहरानी शुरू कर दी..हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई! हिंदू मुस्लिम एकता! और हमने कभी ख्याल नहीं किया कि हमारे इस गलत शब्द के चुनाव में हिंदू-मुसलमानों के लिए सदा के लिए अलग कर दिए। हिंदुस्तान में ईसाई भी रहते हैं, फारसी भी, बौद्ध भी, जैन भी, सिक्ख भी। यह मुसलमान को ही क्यों चुन लिया आपने और हिंदू को क्यों चुन लिया? हिंदू-मुस्लिम एकता! कहना चाहिए था..भारतीय एकता। इंडियन यूनिटी। हिंदू-मुसलमान की एकता का क्या सवाल था? लेकिन तीस साल तक हम यह दोहराते रहे कि हिंदू-मुस्लिम एकता। और मुसलमान को यह लग जाना बिल्कुल स्वाभाविक था कि मेरी एकता के बिना हिंदुस्तान की कोई गति नहीं है। हमने वह भूल की। भारतीय एकता, यह सवाल हो सकता था, हिंदू-मुस्लिम एकता का क्या सवाल था? लेकिन वह भूल हमने की। लेकिन हम विचार नहीं किए उस भूल पर कि वह कोई भूल हो गई। और उसकी वजह से हिंदुस्तान और पाकिस्तान टूटे। मुसलमान कांशस हो गया। हिंदू कांशस हो गया। दो चीजें कांशस हो गईं इस मुल्क में..हिंदूइज्म और मोहम्मडेनिज्म। हिंदू और मुसलमान, ये दो सचेत हो गए कि हम ही सब कुछ हैं। इन दोनों को सारा मूल्य देने का परिणाम यह हुआ कि हिंदुस्तान दो हिस्सों में टूट गया। इसका परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान बना। और इसका परिणाम यह हुआ कि एक हिंदू ने गांधी को गोली मारी। लेकिन हम उसको विचार भी नहीं किए। और फिर जब हिंदुस्तान आजाद हो गया तो आपको पता है हम फिर क्या कहने लगे, हम कहने लगे, हिंदी-चीनी भाई-भाई। फिर वही बेवकूफी हमने फिर दोहरानी शुरू कर दी।
चीन के राजनीतिज्ञों को समझने में कठिनाई नहीं हुई होगी कि ये हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई कहने वाले लोग अब हिंदी-चीनी भाई-भाई क्यों कहने लगे? वे समझ गए होंगे कि जिससे ये डरते हैं उसी को भाई-भाई कहते हैं। जिससे डरते हैं उसी को भाई-भाई कहने लगते हैं। एशिया में चीन अकेला मुल्क नहीं है। थाई भी है, बर्मा भी है, सिलोन भी है, इंडोचायना भी है, इंडोनेशिया भी है, जापान भी है, मलाया भी है, तिब्बत भी है, सब है, लेकिन हमें कोई दिखाई नहीं पड़ा, हमको दिखाई पड़ा हिंदी-चीनी भाई-भाई। हम जिससे डर गए उसी को भाई-भाई कहने लगे। फिर हमने एक कांशसनेस पैदा की। फिर हमने उसको सचेत कर दिया।
मैंने उदाहरण के लिए कहा कि अगर हम पिछली भूलों को नहीं समझते हैं तो हम आगे उनकी पुनरुक्ति करते चले जाते हैं। ज्यादा भूलें नहीं करता है आदमी, कुछ भूलों को निरंतर दोहराए चला जाता है। हम फिर दोहराए चले जा रहे हैं। इधर बीस वर्षों में जो भूलें हमने की हैं वे हम आगे भी दोहराए चले जा रहे हैं। इधर बीस वर्षों में हमने कोई स्पष्ट नक्शा, भारत को क्या बनाना है वह हमने तय नहीं किया। हम शब्दों पर खेल रहे हैं। जो जैसा मौका आता है वैसा नारा लगा देते हैं।
समाजवाद क्या है, हिंदुस्तान में यह समझना भी मुश्किल हो गया, यहां इतने प्रकार के समाजवाद हैं। कांग्रेसियों का भी समाजवाद है, प्रजा समाजवादियों का भी समाजवाद है, समाजवादियों का भी समाजवाद है, साम्यवादियों का भी समाजवाद है, इतने समाजवाद हैं कि समझना मुश्किल है कि भारत की शक्ल क्या बनाना चाहते हैं! हम शब्दों का उपयोग करते हैं, लेकिन कोई सुनिश्चित धारणा, कोई स्पष्ट विचार, कोई स्पष्ट योजना, मुल्क के सामने कोई भविष्य, जब तक मुल्क के सामने कोई स्पष्ट योजना और भविष्य न हो तब तक मुल्क अंधेरे में लड़खड़ाता है, भटकता है, इस दरवाजे, उस द्वार, इस दीवाल से टकराता है और एक फ्रस्ट्रेशन, एक विषाद मुल्क के प्राणों में भरता चला जाता है। धीरे-धीरे जब हमें कुछ करने जैसा नहीं लगता तो हम खाली हो जाते हैं। हिंदुस्तान का युवक बसें जला रहा है, मकान तोड़ रहा है, स्कूल की खिड़कियां तोड़ रहा है और हिंदुस्तान के नेता समझा रहे हैं कि यह नहीं करना चाहिए। इतने से नहीं होगा।
हिंदुस्तान का युवक मुल्क के लिए कुछ करना चाहता है, और करने की कोई योजना नहीं है, वह क्रोध में तोड़ रहा है। सिर्फ वे कौमें तोड़-फोड़ में लगती हैं जिनके पास बनाने की कोई स्पष्ट योजना नहीं रह जाती। जिनके पास बनाने की स्पष्ट योजना होती है वे तोड़-फोड़ में नहीं लगतीं। लेकिन हमारे पास कभी भी स्पष्ट योजना नहीं रही। उसका कारण है और उस कारण पर भी अंतिम बात मैं आपसे कहना चाहता हूं वह ध्यान देना जरूरी है।
हिंदुस्तान हजारों वर्षों से पीछे देखने वाला देश रहा है, वह आगे देखता ही नहीं। जब रूस के बच्चे चांद पर बस्तियां बसाने की सोच रहे हैं तो हिंदुस्तान के बच्चे रामलीला देखते रहते हैं। देखो रामलीला! तुम देखते रहना रामलीला! हमारी बुद्धि पीछे की तरफ देखती है, अतीतोन्मुखी है, भविष्य की तरफ हम देखते ही नहीं, विचार ही नहीं करते। वह तो भगवान ने बड़ी गलती की है, हिंदुस्तानियों की आंखें खोपड़ी में सामने की तरफ नहीं, पीछे की तरफ लगाई जानी चाहिए थी, ताकि उनको पीछे की तरफ दिखाई पड़ता रहे। आगे देखने की जरूरत ही क्या है! अगर हिंदुस्तान कभी अपनी मोटरें बनाएगा, अभी तो हमें पश्चिम की नकल करनी पड़ती है, अपनी तो कोई मोटर क्या बनाना, अपनी तो सुई बनाना भी मुश्किल है। हिंदुस्तान कभी अगर अपनी मोटरें बनाएगा तो हिंदुस्तानी संस्कृति की मोटर की जो लाइट है वह पीछे रहेगी, आगे नहीं हो सकते। आगे क्या फायदा है? वह इंडियन ही नहीं होगी, वह भारतीय नहीं होगी। यह तो पश्चिमी ढंग है आगे लगाना आंख, यह आगे लाइट लगाना। पीछे होना चाहिए लाइट। पीछे की उड़ती हुई धूल दिखाई पड़ती रहनी चाहिए कि कितना रास्ता पार कर लिया है।
लेकिन आपको पता है जिंदगी आगे की तरफ जाती है, पीछे की तरफ नहीं जाती। देख पाते हो पीछे की तरफ लेकिन चलना हमेशा आगे की तरफ पड़ता है, चलना पीछे की तरफ कभी नहीं होता। कोई उपाय नहीं है पीछे की तरफ जाने का। जाना हमेशा आगे की तरफ। और जो लोग पीछे की तरफ देखते हैं और आगे की तरफ जाते हैं उनका जीवन अगर दुर्घटना बन जाता हो तो आश्चर्य क्या है। चलें आप आगे को देखें पीछे को तो टकराएंगे नहीं?
हिंदुस्तान टकरा रहा है हजारों साल से लेकिन उसे यह बुद्धिमत्ता नहीं आती कि पीछे की तरफ देखना बंद करो, शक्ति आगे की तरफ देखने के लिए परमात्मा ने दी है, आगे देखो। वह जो दूर अभी दिन पैदा नहीं हुआ उसको देखो, अभी वह भी जो सूरज नहीं जन्मा उसकी तरफ आंखें उठाओ, अभी वह जो तारा उगने वाला है उसको देखो, क्योंकि कल तुम उसके पास पहुंच जाओगे और अगर तुमने आज उसे नहीं देखा तो कल तुम उसके पास पहुंच कर एकदम घबड़ा जाओगे। समझ भी नहीं पाओगे कि क्या करना है और क्या नहीं करना? नहीं हम पीछे की तरफ देखेंगे।
मैंने एक छोटी सी कहानी सुनी है। मैंने सुना है, एक गांव था बहुत पुराना, उस पुराने गांव में गांव जितना ही पुराना एक चर्च था। वह चर्च इतना पुराना था उसकी दीवालें इतनी जर-जर और जीर्ण हो गई थी कि उसके भीतर कोई प्रार्थना करने जाने में भी डरता था। क्योंकि भीतर जाना तो खतरा था कि वह कभी भी गिर जाए। हवा चलती थी जरा तो लगता था अब गिरा, आकाश में बादल गरजते थे तो उसकी दीवालें कंपने लगती थीं। प्रार्थना करने उपासकों ने उसमें आना बंद कर दिया। संरक्षण की कमेटी थी, ट्रस्टी थे उसके, उन्होंने बैठक बुलाई कि कोई आता ही नहीं, अब क्या करें? उन्होंने भी बैठक बाहर बुलाई। वे भी भीतर नहीं गए उसके। क्योंकि वहां जान का खतरा था। जहां अनुयायी न जाते हों वहां नेता कभी नहीं जाते, यह ख्याल रखना। अनुयायी को पहले चलाते हैं पीछे नेता चलते हैं। अखबारों में भर दिखाई पड़ते हैं कि वे आगे चल रहे हैं। असलियत में, जिंदगी में अनुयायी के पीछे चलते हैं। वह जहां अनुयायी चला जाता है वे भी पीछे से चले जाते हैं। ट्रस्टी भी बाहर बैठे। उन नेताओं ने बैठक की और उन्होंने कहाः अब क्या किया जाए? कोई आता नहीं मंदिर में?
तो उन्होंने चार प्रस्ताव पास किए। वह जरा ध्यान से सुन लेना। वह हिंदुस्तान की जिंदगी से बड़ा उनका संबंध होने वाला है।
उन्होंने चार प्रस्ताव पास किए। आप कहेंगे उस चर्च में उस कमेटी के प्रस्ताव का हिंदुस्तान की जिंदगी से क्या लेना-देना? लेकिन नहीं, कुछ लेना-देना है। उन्होंने पहला प्रस्ताव पास किया कि पुराने चर्च को गिरा देना आवश्यक है क्योंकि वह बहुत पुराना हो गया, अब कोई उपासक उसमें नहीं आते। सर्वसम्मति से उन्होंने स्वीकृति दी। उन्होंने तत्काल दूसरा प्रस्ताव पास किया कि और एक नया चर्च बनाना जरूरी है ताकि लोग प्रार्थना करने आ सकें। और फिर उन्होंने तीसरा प्रस्ताव पास किया उसको भी सर्वसम्मति से और वह यह कि नया चर्च ठीक पुराने जैसा बनाना है। पुरानी ही दीवाल की आधार पर नये चर्च की दीवाल उठानी है। पुरानी नींव पर। पुराने ही द्वार-दरवाजे लगाने हैं, खिड़कियां लगानी हैं, पुराने ही चर्च की ईंटों से नई दीवालें चुननी हैं, पुराने ही सामान से बिल्कुल पुराने जैसा ही नया चर्च बनाना है। यह तीसरा प्रस्ताव उन्होंने स्वीकार किया। और फिर चैथा प्रस्ताव स्वीकार किया और वह यह कि जब तक नया चर्च न बन जाए तब तक पुराना गिराना नहीं है। तो इसको भी सर्वसम्मति से स्वीकृति दे दी!
वह चर्च अभी भी खड़ा हुआ है। वह चर्च कैसे गिरेगा? वह कभी भी गिरने वाला नहीं है। भारत के जीवन का मंदिर, समाज का मंदिर बहुत पुराना हो गया। यह चर्च बहुत पुराना हो गया। यह बहुत जरा-जीर्ण हो गया। इसके नींव हजारों साल पहले मनु ने, याज्ञवल्क्य ने, करोड़ों...कितने-कितने समय पीछे उन्होंने इसकी नींव रखी थी। वह उसी नींव पर समाज खड़ा है।
राम ने, कृष्ण ने, बुद्ध ने इसकी दीवालें चूनी थीं हजारों साल पहले, वे दीवालें वही की वही हैं। मकान बहुत पुराना हो गया। बनाने वाले होशियार रहे होंगे कि उनके बेटे इतने दिन से बनाने का काम बंद किए हुए हैं, तो भी किसी तरह काम चल जाता। लेकिन मकान बिल्कुल पुराना हो गया। उसमें जीना असंभव हुआ जा रहा है। समाज की सारी की सारी रचना, सारी व्यवस्था जरा-जीर्ण हो गई। उसके भीतर मरना आसान जीना कठिन है। लेकिन हम जीए चले जा रहे हैं, क्योंकि हम पुराने के बड़े प्रेमी हैं, हम पुराने के बड़े भक्त हैं, हम पुराने के प्रति बड़े श्रद्धालु हैं।
कभी आपने सोचा, छोटे बच्चे हमेशा भविष्य की तरफ देखते हैं, उनके पास कोई अतीत नहीं होता, उनके पास पीछे देखने को कोई उपाय नहीं होता, वे हमेशा आगे की तरफ देखते हैं, बूढ़े, बूढ़े सदा पीछे की तरफ देखते हैं। उनके आगे कुछ भी नहीं होता सिवाय मौत के। मौत देखने जैसी नहीं। पीछे लौट कर देखते रहते हैं। बचपन, जवानी, बीती हुई कहानियां, बीते हुए किस्से वे सब चलते रहते हैं उनके दिमाग में। जब कोई कौम पीछे की तरफ ही देखती रहती है, तो सचेत हो जाना चाहिए उस कौम के प्राण बूढ़े हो गए हैं। वह कौम मरने के करीब पहुंच गई है। अगर वह कौम भविष्य की तरफ देखना शुरू नहीं करती तो बहुत जल्दी मर जाएगी। गांधी को राम से बहुत प्रेम था। राम बड़े प्यारे आदमी, उसी प्रेम के पीछे उन्होंने राम-राज्य की कल्पना गढ़ ली। वह कल्पना ठीक नहीं है।
रामराज्य पुरानी व्यवस्था है। भविष्य की व्यवस्था नहीं, अतीत की व्यवस्था है। रामराज्य पूंजीवाद से भी पिछड़ी हुई व्यवस्था है, सामंतवाद की, फ्यूडेलिज्म की व्यवस्था है। रामराज्य में लौटना नहीं है हमें, राम बहुत प्यारे आदमी थे वह ठीक है, लेकिन रामराज्य बहुत पुरानी व्यवस्था है। राम को हम स्मरण कर लें वह ठीक, राम को हम आदर दे दें वह ठीक, लेकिन रामराज्य नहीं चाहिए। रामराज्य तो आज की अवस्था से भी बदतर अवस्था है। हमें चाहिए भविष्य का राज्य, हमें चाहिए पूंजीवाद से आगे का राज्य, हमें पीछे नहीं लौटना, हमें आगे जाना है।
लेकिन पीछे लौटने का मोह हमारे मन में होता है कई कारणों से। एक तो कारण यह होता है कि पीछे का सब कुछ परिचित मालूम होता है, जाना-माना मालूम होता है। जानी-मानी चीज में घबड़ाहट कम होती है, सिक्युरिटी ज्यादा होती है, सुरक्षा ज्यादा होती है। अनजान अपरिचित रास्तों में जाने में भय लगता है, पता नहीं क्या हो जाए? आज है स्थिति बुरा न हो जाए। अनजान रास्ते पर आदमी डरता है। लेकिन ध्यान रहे, भविष्य सदा अनजान है और जीवन सदा अननोन, अज्ञात और अनजान की खोज। जो लोग ज्ञात, नोन, जाने-माने में ही भटकते हैं वे जीवन से संबंध तोड़ देते हैं और मृत्यु के साथी हो जाते हैं।
नहीं, पीछे नहीं लौटना है। नहीं, रामराज्य नहीं। चाहिए भविष्य का राज्य, अतीत का नहीं।
और ध्यान रहे, अच्छे लोग हुए हैं अतीत में, लेकिन अच्छा समाज नहीं हुआ है। इस फर्क को समझ लेना जरूरी है। इससे बड़ी फैलेसी पैदा होती है, इससे बड़ा भ्रम पैदा होता है। आज से दो हजार साल बाद न तो मुझे कोई याद रखेगा, न आपको कोई याद रखेगा, लेकिन गांधी जी को दो हजार साल बाद भी लोग याद रखेंगे। दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे जिस जमाने में गांधी हुआ उस जमाने के लोग कितने अच्छे रहे होंगे! जरूर सोचेंगे, गांधी याद रह जाएंगे, गांधी के आधार पर वे सोचेंगे कि दो हजार साल पहले गांधी जैसा अच्छा आदमी हुआ, तो जिन लोगों के बीच हुआ होगा वे लोग भी कितने अच्छे नहीं रहे होंगे! लेकिन उनकी धारणा बिल्कुल गलत होगी, गांधी जरूर अच्छे थे, गांधी जिस समाज में पैदा हुए थे उस समाज से गांधी के अच्छे होने का क्या संबंध है? वह समाज तो अति कुरूप था, वह समाज तो अति दुर्गंध से भरा था। वह समाज तो गोडसे का समाज हो सकता था गांधी का समाज नहीं हो सकता। गांधी इसके प्रतिनिधि नहीं थे, वे रिप्रेजेंटेटिव नहीं थे हमारे। वे एक्सेप्शन थे, वे अपवाद थे। हम, हमारे बाबत उनके द्वारा कोई भी निर्णय लिया जाएगा वह गलत होगा। लेकिन दो हजार साल बाद लोगों को हम याद नहीं रहेंगे, गांधी याद रहेंगे। यही पीछे के बाबत भी सच है। हमको राम याद हैं, लेकिन राम का समाज? हमें बुद्ध याद हैं, लेकिन बुद्ध का समाज? हमें महावीर याद हैं, लेकिन महावीर का समाज? हमें कृष्ण याद हैं, लेकिन कृष्ण का समाज? नहीं, राम से राम के समाज का अंदाज मत लगाना, भूल हो जाएगी।
और यह मैं क्यों कहता हूं कि राम का समाज राम जैसा नहीं रहा होगा। मेरे ऊपर कई इलजाम लगाए अभी कि मैं इतिहास नहीं जानता हूं। मुझे जरूरत भी नहीं इतिहास जानने की। लेकिन जीवन के कुछ सत्य मुझे दिखाई पड़ते हैं। मुझे पता नहीं कि राम का समाज कैसा रहा होगा। लेकिन कुछ बातें मैं कहता हूं, एक बात यह कि अगर राम का समाज राम जैसा रहा होता तो राम की हमें याददाश्त भी न रह जाती। महापुरुष हमेशा छोटे पुरुषों के बीच में दिखाई पड़ते हैं, नहीं तो दिखाई भी नहीं पड़ सकते।
अगर हिंदुस्तान में दस-पचास हजार गांधी हों, तो मोहनदास करमचंद गांधी को खोजना आसान होगा? कहीं भी खो जाएंगे भीड़ में, वे अकेले हैं इसलिए दिखाई पड़ते हैं। छोटे से स्कूल का शिक्षक भी जानता है कि सफेद खड़िया से सफेद दीवाल पर नहीं लिखना चाहिए। काले ब्लैक बोर्ड पर लिखता है सफेद खड़िया से। क्योंकि वह सफेद खड़िया ब्लैक बोर्ड पर दिखाई पड़ती है। जितना होता है काला बोर्ड, उतनी ही वह खड़िया ज्यादा सफेद दिखाई पड़ती है।
राम जो इतने महान दिखाई पड़ते हैं, पीछे ब्लैक बोर्ड है समाज का। उसके बिना दिखाई नहीं पड़ सकते। मुझे इतिहास का कोई भी पता नहीं है, हो सकता है। कौन फिजूल की कहानी-किस्से पढ़े कि कौन बेवकूफ कब पैदा हुआ। कि वे कब जन्मे और कब मरे। मुझे नहीं पता होगा, लेकिन इतिहास को समझना और इतिहास को जानना दो बातें हैं। महावीर और बुद्ध, ये दिखाई पड़ते हैं इसीलिए कि इनके आस-पास जो समाज रहा होगा वह इनके प्रतिकूल विपरीत रहा होगा, और इनकी शिक्षाओं से भी सबूत मिलता है।
महावीर क्या समझा रहे हैं लोगों को? लोगों को समझा रहे हैं कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, दूसरे की स्त्री को बुरे भाव से मत देखो, ये समझा रहे हैं। समाज अच्छा था तो ये बातें समझाने की जरूरत थी? ये किसको समझा रहे हैं? ये किसको समझा रहे हैं? आपका दिमाग खराब है महावीर स्वामी! आप पागल हो! किसको समझा रहे हो? जो लोग चोरी नहीं करते उनको सुबह से शाम तक यह क्या समझा रहे हो कि चोरी मत करो? चोरों को ही समझाना पड़ता है कि चोरी मत करो! और हिंसकों को समझाना पड़ता है कि अहिंसा परम-धर्म है! और अधार्मिकों को धर्म की शिक्षा देनी पड़ती है। जिस दिन दुनिया धार्मिक होगी धर्म के शिक्षक को कोई जगह नहीं रह जाएगी। क्या जरूरत है? जिस गांव में सब लोग स्वस्थ होते हैं उसमें हर घर के बाद एक डाक्टर की, दवाखाने की जरूरत होगी? क्या प्रयोजन है? लेकिन उनकी शिक्षाएं बताती हैं कि जिनको शिक्षाएं दी गई हैं वे शिक्षाओं से उलटे लोग रहे होंगे।
एक गांव में, एक चर्च में एक फकीर को निमंत्रण दिया था लोगों ने बोलने के लिए कि आप बोलने आएं। वह फकीर बोलने गया। उन लोगों ने कहा कि सत्य के संबंध में हमें समझाइए। उस फकीर ने कहा, सत्य के संबंध में! लेकिन समझाने के पहले मैं एक बात पूछूंगा, चर्च के लोगों तुमसे मैं एक बात पूछता हूं। मेरा उत्तर दे दोगे तभी मैं समझाऊंगा। उस फकीर ने कहा कि तुमने बाइबिल जरूर पढ़ी होगी, बाइबिल में ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय है वह भी तुमने पढ़ा होगा, जिन लोगों ने ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा हो वह हाथ ऊपर उठा दें।
सब लोगों ने हाथ उठा दिए, सिर्फ एक आदमी जो सामने बैठा था उसको छोड़ कर। उन सबने कहा कि हमने पढ़ा है। उस फकीर ने कहा, हाथ नीचे कर लें, अब मैं सत्य पर प्रवचन शुरू करता हूं। और तुम्हें बता देता हूं कि ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय ही बाइबिल में नहीं है। और आप सबने पढ़ा है! वह है ही नहीं अध्याय वहां। उनहत्तरवां अध्याय है ही नहीं ल्यूक का कोई। अब मैं सत्य पर बोलना शुरू करता हूं क्योंकि पहले पता तो चल जाए कि कैसे लोग इकट्ठे हैं? अगर सभी लोग सत्य पर बोलते हों तो सत्य पर बोलना फिजूल है। अब ठीक वक्त, ठीक जगह तुमने मुझे बुला लिया। लेकिन उसने कहा कि मुझे बड़ा आश्चर्य है कि इस चर्च में एक सत्य बोलने वाला कैसे आ गया? क्योंकि चर्च की तरफ, मंदिरों की तरफ सत्य बोलने वाले जाते ही नहीं। यह आदमी मेरे सामने बैठा है यह मिरेकल है, एक चमत्कार है यह आदमी हाथ नहीं उठाया। हे मेरे भाई! उसने उस आदमी से कहा कि तुमने हाथ क्यों नहीं उठाया? आश्चर्य! तुम इतने सत्यवादी हो। उस आदमी ने कहा कि महाशय, जरा जोर से बोलिए मुझे कम सुनाई पड़ता है। क्या आप यह कह रहे हैं कि उनहत्तरवां अध्याय ल्यूक का? साहब रोज पढ़ता हूं, सुबह उसी का पाठ करता हूं। ये चर्च में इकट्ठे लोग हैं, यहां इनको सत्य की शिक्षा देनी पड़ती है।
ये बुद्ध-महावीर सुबह से सांझ तक बेचारे सत्य की, अहिंसा की, प्रेम की चर्चा करते हैं। ये किन लोगों के सामने करते होंगे? इसी तरह इस चर्च जैसे लोग वहां इकट्ठे होंगे।
नहीं; राम थे सुंदर, राम थे सत्य, लेकिन राम का समाज नहीं है। अगर समाज इतना सुंदर और सत्य होता, तो उस समाज से हम पैदा होते! हम पैदा कहां से होते हैं? हम अपने अतीत से पैदा होते हैं। हम सबूत होते हैं अपने अतीत के असली। इतिहास नहीं। हम हैं असली सबूत अतीत के। बेटा अपने बाप का सबूत है। फल अपने बीज का सबूत है। फल अगर कड़वा है और फल कहे कि बीज तो बड़ा मधुर था। तो हम मानेंगे नहीं। हम कहेंगे कि बीज का पता नहीं चला होगा तुम्हें। बीज कड़वा ही रहा होगा, अन्यथा तुम कड़वे कैसे हो जाते! तुम उससे पैदा हुए हो, तुम उसके सबूत हो। आज बीज तो नहीं है खो गया मिट्टी में कहीं, लेकिन तुम हो। और तुम बताते हो कि बीज कैसा रहा होगा!
हिंदुस्तान में कुछ व्यक्ति अच्छे पैदा हुए हैं। समाज कभी भी अच्छा नहीं था। हम सबूत हैं उसके। वह समाज तो खो गए। हम हैं सबूत उसके। हम उससे पैदा हुए हैं। हम उसी की प्रॉडक्ट हैं। इसलिए भूल कर भी पीछे लौटने का विचार मत करें। पीछे से तो हम आ रहे हैं। वहां जाने की अब जरूरत नहीं है। हमें जाना है आगे। और आगे जहां जाना है वहां अतीत की भूलों से हम सीख लें, अतीत के ढांचे को पुनरुक्त करने की जरूरत नहीं है। नये ढांचे, जीवन के लिए नये मार्ग, जीवन के लिए नया चिंतन, नये द्वार, नये तथ्य, नई समाज व्यवस्था खोजनी है।
नहीं; राम बहुत प्यारे हैं, लेकिन रामराज्य बिल्कुल भी नहीं चाहिए। गांधी को बहुत प्रेम था राम से। वे दीवाने थे राम के। कहें कि बिल्कुल दीवाने थे राम के। बड़ा प्रेम उनको रहा होगा। मरते वक्त, गोली भी लगी तो न पिता का नाम याद आया, न मां का, न भाई का, न बेटों का, न गांधीवादियों का, राम का नाम याद आया। नाम आया राम का याद! लग गई छाती में गोली उस क्षण में वही नाम याद आया जो सबसे प्यारा उन्हें रहा होगा। जो प्राणों के प्राण में बैठा रहा होगा वही उस क्षण में याद आ सकता है। उस वक्त धोखा नहीं दिया जा सकता। फुर्सत कहां हैं मरते आदमी को कि धोखा दे दे। तो उस वक्त सोचे कि अभी राम का नाम ले दूं तो अच्छा असर पड़ेगा, लोग कहेंगे कि धार्मिक है। इतनी फुर्सत वहां नहीं है। आमतौर से तो ऐसे ही लोग रामराम कहते हुए सड़क पर से निकलते हैं। जब कोई नहीं सुनता तो धीरे-धीरे कहते हैं या नहीं भी कहते। जब रास्ते पर कोई दिखाई पड़ता है कि आ रहा है तब जोर-जोर से राम-राम, राम-राम जोर से कहने लगते हैं। वह सुनाने के लिए। लेकिन गांधी की छाती में तो लगी है गोली, सुनाने का सवाल कहां है! इस अंतिम क्षण में तो वही निकल सकता है जो प्राणों के प्राणों में गहरे बैठा हो। राम उनके प्राण हैं। राम के वे दीवाने हैं। उसी दीवानगी में वे कहने लगे कि राम का राज्य चाहिए। वह भूल है। वह बात ठीक नहीं है। राम का राज्य नहीं चाहिए। हमें तो भविष्य का राज्य निर्मित करना है। कोई सामंतवादी व्यवस्था में वापस नहीं लौट जाना है। इन्हीं सारी बातों पर देश के प्राणों को चिंतन करना जरूरी है।
मैं यह नहीं कहता हूं कि जो मैं कहता हूं वही मान लें। जो भी आदमी आपसे कहे कि मेरी बात मान लो वह आदमी अच्छा नहीं है, सज्जन नहीं है, वह आदमी ठीक नहीं है, वह आदमी खतरनाक है। सच तो यह है कि अपनी बातों को मनवाने की जबरदस्त चेष्टा वही करता है जिसको खुद शक होता है कि मेरी बातें ठीक हैं या नहीं। मुझे उसका प्रयोजन नहीं है। मुझे जो ठीक लगता है वह मैं पूरे मुल्क को कह देना चाहता हूं। अगर वह ठीक लगे ठीक, गलत लगे उसे कचरे में फेंक देना। अगर आपके विवेक को ठीक लगे तो ठीक, अन्यथा मेरे कहने से कुछ सत्य नहीं हो जाता है। लेकिन मेरी इतनी स्पष्ट बात से भी गांधीवादी परेशान हो गए।
मैं कहता नहीं किसी को कि मेरी बात मान लो। मैं कहता नहीं कि मेरा वचन आप्त वचन है कोई आथेरिटी है। मैं कहता नहीं यह। मैं यह कहता हूं कि मैं गांधी पर सोचता हूं, जो मुझे दिखाई पड़ता है वह मुझे कहना चाहिए। और लोगों को बता देना चाहिए। वे भी यह सोचें, विचार करें। गांधी पर हम ठीक से सोचें और विचार करें तो शायद हम अपने मुल्क के लिए, आने वाले भविष्य के रास्ते बनाने में, देखने में, बहुत योग्यता से सफल हो सकेंगे।
और यह ध्यान रहे कि गांधी पर सोचना महावीर और बुद्ध पर सोचने से ज्यादा कारगर सिद्ध होगा। क्योंकि महावीर और बुद्ध से हमारा फासला बहुत लंबा हो गया है। ढाई हजार साल का। गांधी से हमारा फासला बहुत कम है। बहुत निकट है।
दूसरी बात, गांधी पर सोचना और भी उपयोगी है क्योंकि महावीर और बुद्ध ने समाज के जीवन को बदलने के लिए कोई विचार नहीं किया। उन्होंने व्यक्ति को शांति, ध्यान, मोक्ष तक ले जाने की विज्ञान को खोजा। लेकिन समाज के ढांचे को बदलने की कोई बात नहीं सोची। गांधी हिंदुस्तान में, पहले इतनी ऊंची कोटि के विचारक हैं जिन्होंने समाज के मोक्ष के लिए भी विचार किया है। इसलिए गांधी पर विचार करना बहुत जरूरी है।
और स्वभावतः क्योंकि गांधी पहले आदमी हैं, एक माइल स्टोन हैं। हिंदुस्तान में गांधी के पीछे का इतिहास, हिंदुस्तान के साधु और संन्यासी का समाज से भागने का इतिहास है। गांधी हिंदुस्तान के पहले साधु हैं जो समाज से नहीं भागे और समाज में खड़े होकर समाज को बदलने की कोशिश की। पहले आदमी से भूल-चूक होना संभव है। पहला आदमी पायोनियर है। पहला आदमी एक नया रास्ता तोड़ता है। वह परिपूर्ण बातें नहीं कह सकता। परिपूर्ण बातें तो अंतिम आदमी भी नहीं कह सकता है। और गांधी हिंदुस्तान में एक नई दृष्टि के पहले उदघाटक हैं। इसलिए बहुत भूल की संभावनाएं हैं। अगर हम इन पर विचार नहीं करेंगे तो हम अपना ही आत्मघात करने में सहयोगी होंगे।

मेरी ये थोड़ी सी बातें आपने इतने प्रेम और शांति से सुनी, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं।
कल सुबह आपके प्रश्नों के उत्तर दूंगा। जो कुछ आपके इस संबंध में प्रश्न हों आज सुबह और आज सांझ की चर्चा में वे सुबह आप लिख कर दे देंगे, ताकि उनकी बात हो सके।
परमात्मा को, आपके भीतर बैठे परमात्मा को, अंत में प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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