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शनिवार, 1 सितंबर 2018

नानक दुखिया सब संसार-(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा-(ओशो

सामूहिक जीवन

अब अकारण यह खयाल बहुत लोगों को है--एक मोहल्ला है, उसमें दो सौ परिवार रहते हैं, तो दो सौ किचिन बनाए हुए हैं, यह निहायत मिस्टेक है। दो सौ परिवारों का तो दो किचिन से भी काम चल सकता है। और दो सौ स्त्रियां पूरी जिंदगी उसमें खराब कर रही हैं। जो कि दस या पांच स्त्रियां अगर कम्यूनल किचिन हो, सामूहिक किचिन हो, तो पांच स्त्रियां, दस स्त्रियां सम्हाल लेंगी। और एक सौ नब्बे स्त्रियों का श्रम बचेगा। उन्हें किसी दूसरी दिशा में उपयोग में लाया जा सकता है। लेकिन आधी जिंदगी, हमारा आधा टुकड़ा स्त्रियों का तो सिर्फ खाना बनाने, बर्तन साफ करने और उसमें व्यय होता है। क्योंकि हर आदमी ने घर-घर प्राइवेट इंतजाम करने की सोची है। और प्राइवेट इंतजाम करना महंगा है बहुत। अगर दो सौ परिवार का इकट्ठा हो सके इंतजाम तो बहुत सस्ता होगा। और दो सौ परिवार का अलग-अलग होगा तो बहुत महंगा होने वाला है।

आज से कोई हजार साल पहले, पांच सौ साल पहले एक-एक घर में आदमी अपने बच्चे के पढ़ने का इंतजाम करता था, वह बहुत महंगा था। कभी भी सारी दुनिया शिक्षित नहीं हो सकती थी उस ढंग से। क्योंकि गरीब आदमी तो इंतजाम कर ही नहीं सकता था।

जो आदमी एक शिक्षक को घर पर लगा सके, दो-चार शिक्षकों को घर पर ट््यूशन लगवा सके, तो राजाओं के लड़के, पैसे वालों के लड़के पढ़ सकते थे, गरीब का लड़का कैसे पढ़ सकता था? वह तो कम्यूनल टीचिंग शुरू हो गई। एक स्कूल में सारे गांव के बच्चे पढ़ने लगे, इसलिए संभव हुआ कि गरीब का बच्चा भी पढ़ ले। जिस दिन कम्यूनल किचिन शुरू होगा उस दिन यह संभव होगा कि सबका पेट भर जाए। क्योंकि वह बहुत सस्ता पड़ सकता है। और रहने का भी, वह रहने की भी हमारी व्यवस्था अत्यंत अवैज्ञानिक है। नगर जो हैं वे भी अवैज्ञानिक हैं। उनकी बनावट का ढंग जो है वह व्यर्थ है, समय को जाया करवाने वाला है, परेशान करने वाला है। तो यह इस तरह की कल्पनाओं पर काफी जोर दिया जाना, सोचा जाना चाहिए। नगर की व्यवस्था ऐसी तो होनी ही चाहिए कि कहीं से भी कोई चले वह कम से कम समय में कहीं भी पहंुच सके।
अब आज की वैज्ञानिक दुनिया में यह संभव है। उसकी प्लानिंग पर सारी बात निर्भर करेगी। और अगर सामूहिक इंतजाम किया जा सके तो बहुत बड़े परिवर्तन होंगे। अब बच्चों के लिए भी अब हमें कोई दिक्कत नहीं है बच्चों को स्कूल में पढ़ाने में। लेकिन आज हमारी कल्पना के बाहर है यह बात कि बच्चे सामूहिक रूप से बड़े भी हों। अभी हमारी कल्पना के बाहर है। सामूहिक रूप से शिक्षा देने लगे तो सबको शिक्षा मिल रही है। लेकिन जिस दिन बच्चे सामूहिक रूप से बड़े हों, उस दिन सैकड़ों तरह की बीमारियों से उन्हें बचाया जा सकता है। जो कि अलग-अलग पाल कर नहीं बचा सकते, क्योंकि उनके मां-बाप उनते शिक्षित नहीं है। सामूहिक रूप से बच्चों को अच्छे से अच्छे डाक्टर का इंतजाम हो सकता है जो कि अलग-अलग इंतजाम करना असंभव है।
और बहुत से मनोवैज्ञानिक प्रश्न हैं कि जब हम बच्चों को अपने-अपने घरों में पालते हैं, तो जाने-अनजाने परिवार उनका केंद्र बन जाता है जीवन का। राष्ट्र केंद्र नहीं बनता, न समाज केंद्र बनता है। उन्हें चिंता इस बात की होती है कि मेरे पिता को अगर सुविधा मिल जाएं तो पर्याप्त है, लेकिन पड़ोस का पिता भी उतना ही बूढ़ा हो गया है, उसको भी कोई अलग सुविधा मिलती है, इसका सवाल नहीं। मेरी मां को अच्छा कपड़ा मिल जाए ठीक है, लेकिन पड़ोसी की मां भी बूढ़ी हो रही है, उसको भी जरूरत है सहारे की, सहयोग की, कपड़े की, रोटी की, वह उसकी कोई चिंता नहीं। असल में जो कांशसनेस है हमारी वह फैमिली सेंटर्ड हो जाती है। और यह हम तभी तोड़ पाएंगे जब हम बच्चों को सामूहिक ढंग से बड़ा करें। तो उनको जो भाव पैदा हो वह अगर पिता का भाव पैदा हो तो नगर के सब वृद्ध लोगों के प्रति पैदा हो। अगर मां का भाव पैदा हो तो नगर की सब वृद्धाओं के प्रति पैदा हो। अगर बहन का भाव पैदा हो तो नगर की सब लड़कियों के लिए पैदा हो। अगर भाई का भाव पैदा हो तो नगर के सारे...लेकिन वह तभी होगा, अभी भी कैसे रहा है। अभी भी अगर हम पचास साल पीछे लौट जाएं तो संयुक्त परिवार था। तो उसमें काकाओं के, पांच काकाओं के लड़के थे। खुद के भाई थे, काकाओं के लड़के थे, लड़कियां थी। उन सबके बीच एक भाई-चारे का भाव है, वह फैमिली यूनिट और छोटा हो गया। तो आज काका के लड़के के साथ वह संबंध नहीं है जो आज से पचास साल पहले था, क्योंकि बच्चे उसके साथ बड़े होते थे। उसे पता ही नहीं था कि कौन-कौन हैं, वे सब हमारे हैं। अगर आज नहीं कल कम्यूनल लिविंग पर जोर हो; एक हिस्से के लोग हजार परिवार अपने बच्चों को इकट्ठा पालें और इकट्ठा बड़े होने दें, तो फैमिली सेंटर्ड जो बीमारी है हमारे दिमाग की, वह खत्म हो जाएगी। और तभी समाज की पूरी धारणा पैदा हो सकती है, नहीं तो समाज की धारणा पैदा नहीं हो सकती। अभी समाज सिर्फ बातचीत है, समाज की धारणा तभी पैदा हो सकती है जब समाज के प्रत्येक वृद्ध के प्रति मेरे मन में वह भाव हो जो मेरा अपने पिता के प्रति है। और प्रत्येक नये बच्चे के प्रति पूरे समाज का वह भाव हो जो किसी का अपने बच्चे के प्रति। यह संभावना में, यह कल्पना में कोई दो-तीन सौ वर्षों से अनेक लोगों के दिमाग में वह बात चलती है, लेकिन वह पूरी नहीं हो पाती, क्योंकि उसके पीछे जो वैचारिक पृष्ठभूमि चाहिए, और वह जो दृष्टि चाहिए कि रोग कहां पैदा हो रहा है?
जैसा कल ही मैं बात कर रहा था। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर एक बच्चे को एक ही स्त्री के पास पाला जाए और आमतौर से पाला जाता है, अपनी मां के पास ही बच्चा बड़ा होगा। तो वह बचपन से एक ही स्त्री को जानता है। एक ही स्त्री के शरीर को जानता है। एक ही स्त्री के प्रेम को जानता है। बड़ा होते-होते प्रेम और यह एक स्त्री की प्रतिमा, दोनों उसकेे चित्त में संयुक्त हो जाते हैं। और मनोवैज्ञानिक कहते हैं उसके अचेतन के समय अब वह जीवन भर जिस पत्नी की तलाश कर रहा है, वह वैसी होनी चाहिए, जैसी उसकी मां है। और यह होना असंभव है, क्योंकि उसकी मां जैसी कोई दूसरी स्त्री इस पृथ्वी पर नहीं है। तो जो भी पत्नी उसे मिलेगी, उसी पत्नी से कलह शुरू होने वाली है। क्योंकि उसकी अपेक्षा की जो स्त्री है, एक ही स्त्री उसने जानी वह उसके दिमाग में फिक्स्ड इमेज, उस स्त्री की, वह उसी स्त्री की तलाश कर रहा है। और वह स्त्री मिलनी नहीं है। और इसलिए पति और पत्नी सारी दुनिया में कष्ट उठा रहे हैं। और उनके कष्टों का बुनियादी कारण यह है कि बच्चों को एक स्त्री के पास पाला गया है। और जब तक हम बच्चों को एक स्त्री के पास पालेंगे, तब तक स्त्री और पुरूष के बीच अच्छे संबंध पैदा नहीं करवा सकतेे। क्योंकि बच्चे की मांग एक स्त्री की निश्चित हो गई है। वही स्त्री उसे तृप्ति दे सकती है, उसकी मां और मां उसकी पत्नी नहीं बन सकती। और मां जैसी स्त्री खोजी कहां से जाए? उसे भी पता नहीं है कि वह अपनी पत्नी से मां की अपेक्षाएं कर रहा है। और मां की अपेक्षा में बड़ी गहरे खतरनाक बातें हैं।
बच्चा पैदा हुआ तो बच्चा इतना छोटा होता है कि उससे तो प्रेम मांगा नहीं जा सकता, सिर्फ दिया जा सकता हैै। तो मां सिर्फ प्रेम देती है, बच्चा प्रेम दे, सवाल ही नहीं उठता कभी। जब वह बड़ा होके शादी करता है तो अपनी पत्नी से भी प्रेम मांगता हैै, देता-वेता नहीं है। पत्नी भी प्रेम मांगती है, और दो प्रेम मांगने वाले जहां इकट्ठे हो जाएं, वहां कलह होनी निश्चित है। तो सवाल तो है देने वालों का, क्योंकि अगर मैं भी मांगू और आप भी मांगें और दोनों में से कोई देने कोे राजी नहीं है, मांगने को दोनों तैयार हैं, तो कलह होनी निश्चित है। तो मां के पास बच्चे को पालना बड़ा खतरनाक है। अब इसका मतलब यह हुआ कि हमें कोई और दूसरा इंतजाम करना होगा, नहीं तो पति और पत्नी का जीवन कभी सुखी होने वाला है ही नहीं। वह हो ही नहीं सकता, सौ में एकाध घटना घट जाए संयोगिक, तो वह बिलकुल दूसरी बात है, उससे कोई नियम नहीं बनता। लेकिन निन्यानबे मौकों पर पति-पत्नी का जीवन कलह का, संघर्ष का, परेशानी। और मजा यह है कि और दोनों को समझ में भी नहीं आता कि क्या परेशानी है, क्या कठिनाई हो रही है? तो यह तो ठीक है।
इधर मेरी दृष्टि इस बाबत है, और मैं ऐसा ही सोचता हूं अभी वह, इसलिए मैंने आपको इजरायल का नाम लिया। वहां उन्होंने थोड़ी फिकर की है इस बात के लिए, छोट बच्चों को वे नर्सरीज में पाल रहे हैं। और नर्सरीज में एक नर्स को तीन महीने से ज्यादा किसी बच्चे की देख-रेख में नहीं रहने देते। हर तीन महीने में नर्स बदल जाएगी। और वह क्रम बदलता रहेगा, और सिर्फ इसलिए कि बच्चे के दिमाग में सिर्फ एक स्त्री की इमेज तय न हो जाए। उसको बड़े होते-होते दस, पचास-सौ स्त्रियों का प्रेम मिलना चाहिए। यानी उसके मन में स्त्री के प्रति प्रेम तो पैदा हो लेकिन किसी खास स्त्री के प्रति प्रेम का बंधन न हो जाए। लिक्विड इमेज चाहिए ताकि जब वह शादी करे तो वह जो इसके मन में धुंधला सा चित्र था, वह इस पत्नी को घेर ले और इस पत्नी से तय हो जाए। लेकिन मां के पास पले हुए बच्चे के मन में बहुत सुनिश्चित धारणा स्त्री की बनती है, वह बड़ी खतरनाक है। यह जो हमारी, जो जीवन की, चाहे परिवार की, चाहे दांपत्य की जितनी भी उलझनें हैं, उन उलझनों को बहुत रूपों में जब तक वैज्ञानिक ढंग से हल करने की कोई कोशिश नहीं करते, अब जैसे जो हम खाना खा रहे हैं वह अवैज्ञानिक है। जब कि वह वैज्ञानिक हो सकता है, और उससे हम कितनी तकलीफें झेल रहे हैं, जिनका कोई हिसाब नहीं है। लेकिन उनको कोई विचार करने को भी राजी नहीं है। शरीर में अगर कोई एक तत्व कम हो जाए, तो सारे व्यक्तित्व में जिसको आप आत्मा कहते हैं, उस तक में परिणाम होने वाले हैं।
अभी वह पावलफ ने रूस में कुछ प्रयोग किए। एक कुत्ता है, घर में बहुत भौंकता है, लड़ने में तेज है, जानदार है, उसकी वह एक ग्रंथि काट लेता है। वह कुत्ता वही है, सब वही है, लेकिन उसकी जान गई। एक ग्रंथि उसकी अलग कट गई।

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