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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

प्रेम है द्वार पभु का-(प्रवचन-06)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

अहंकार

एक पूर्णिमा की रात में एक छोटे से गांव में, एक बड़ी अदभुत घटना घट गई। कुछ जवान लड़कों ने शराबखाने में जाकर शराब पी ली और जब वे शराब के नशे में मदमस्त हो गए और शराब गृह से बाहर निकले तो चांद की बरसती हुई चांदनी में यह ख्याल आ गया कि नदी पर जाए और नौका विहार करें। रात बड़ी सुंदर थी और नशे से भरी हुई थी। वे गीत गाते हुए नदी के किनारे पहुंच गए। नाव वहां बंधी थी। मछुवे नाव बांध कर घर जा चुके थे। रात आधी हो गयी थी। सुबह की ठंडी हवाओं ने उन्हें सचेत किया। उनका नशा कुछ कम हुआ और उन्होंने सोचा कि हम न मालूम कितने दूर निकल आए हैं। आधी रात से हम नाव चला रहे हैं, न मालूम किनारे और गांव से कितने दूर आ गए हैं। उनमें से एक ने सोचा कि उचित है कि नीचे उत्तर कर देख लें कि हम किस दिशा में आ गए हैं। लेकिन नशे में जो चलते हैं उन्हें दिशा का कोई भी पता नहीं होता है कि हम कहां पहुंच गए हैं और किस जगह हैं। उन्होंने सोचा जब तब हम इसे न समझ लें तब तक हम वापस भी कैसे लौटेंगे। और फिर सुबह होने के करीब है, गांव के लोग चिंतित हो जाएंगे।

एक युवक नीचे उतरा और नीचे उतर कर जोर से हंसने लगा। दूसरे युवक ने पूछा, हंसते क्यों हो? बात क्या है? उसने कहा, तुम भी नीचे उतर आओ और तुम भी हंसो। वे सारे लोग नीचे उतरे और हंसने लगे। आप पूछेंगे बात क्या थी?

अगर आप भी उस नाव में होते और नीचे उतरते तो आप अभी हंसते। बात ही कुछ ऐसी थी। वे कहीं के वही खड़े थे, नाव कहीं भी नहीं गयी थी। असल में वे नाव की जंजीर खोलना भूल गए थे। नाव की जंजीर किनारे से बंधी थी। उन्होंने बहुत पतवार चलायी थी और बहुत श्रम किया था लेकिन सारा श्रम व्यर्थ हो गया था क्योंकि किनारे से बंधी हुई नावें कोई यात्रा नहीं करती।
मनुष्य की आत्मा की नाव भी किसी खूंटी से बंधी है। और इसीलिए उसकी आत्मा की कभी परमात्मा तक नहीं पहुंच पाती है। वे वहीं खड़े रह जाते हैं जहां से यात्रा शुरू होती है। श्रम वे बहुत करते हैं, पतवार वे बहुत चलाते हैं, समय वे बहुत लगाते हैं लेकिन नाव कहीं पहुंचती नहीं है। और आदमी उस खूंटी से बंधा हुआ एक कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगाता है। एक ही जगह पर घूमता है। घूमते-घूमते नष्ट और समाप्त हो जाता है। सारा जीवन इन्हीं चक्करों में व्यर्थ चला जाता है।
एक गांव में मैं गया था। एक बैल कोल्हू चलाने का जीवन भर काम करता रहा। फिर वह बूढ़ा हो गया और बैल के मालिक ने उसे काम के योग्य न समझ कर छोड़ दिया। अब वह खुला ही घूमता रहता था। लेकिन मैं बड़ा हैरान हुआ। वह गोल चक्करों में ही घूमता था। खेत में उसे छोड़ देते तो वह गोल चक्कर लगाता था। जीवन भर की उनकी आदत थी। आज कोई बीच में खूंटी भी नहीं थी। आज किसी कोल्हू में भी वह नहीं जुता था। लेकिन जीवन भर गोल चक्करों में जो घूमा है वह गोल चक्करों में घूमने की आदत के कारण फिर भी गोल गोल ही घूमता था। गांव के लोगों ने उस बैल को समझाने की बहुत कोशिश की, कि इस तरह मत घूमो, लेकिन बैल कहीं किसी की सुनते हैं? बैल तो दूर, आदमी ही नहीं सुनते तो बैल कैसे सुनेंगे? उस गांव के लोग कैसे नासमझ थे, उस बैल को समझाते थे कि सीधे चलो, गोल गोल घूमने की कोई भी जरूरत नहीं है क्योंकि जो गोल गोल घूमता है वह कहीं भी नहीं पहुंचता है। जिसे पहुंचना हो, उसे सीधा जाना होता है, गोल नहीं घूमना होता है। मुझे हंसी आयी थी उन गांव के लोगों पर। मैं भी उस गांव के लोगों को समझाने गया था। गांव के एक बूढ़े आदमी ने कहा कि तुम हम पर हंसते हो कि हम बैलों को समझाते हैं और हम तुम पर हंसते हैं कि तुम आदमी को समझाते हो। न बैल सुनते हैं, न आदमी सुनता है और बैल तो सुन भी सकते हैं कभी क्योंकि बैल सीधे और सरल हैं। आदमी तो बहुत तिरछा है, वह नहीं सुन सकता है।
लेकिन फिर भी चाहे यह गलती ही सही, नासमझी ही सही, आदमी को समझाना ही पड़ोगे। वह सुने या न सुने उसे कहना ही पड़ेगा। क्या कहना है उसे? उस खूंटी के बाबत उसे कहना है जिससे बंधा हुआ वह एक कोल्हू का बैल बन जाता है, एक अमृतमयी आत्मा नहीं। वह एक बंधा हुआ पशु बन जाता है। शायद आपको पता न हो कि पशु शब्द का अर्थ क्या होता है? पशु शब्द का अर्थ ही होता है जो पाश में बंधा हो। बंधे हुए होने को ही पशु कहते हैं। पशु का अर्थ है जो पाश में बंधा है, किसी जंजीर में बंधा है, किसी कील से ठुका है। जो बंधा है वही पशु है। हम सारे लोग ही बंधे हैं। हमारे भीतर मनुष्य का भी जन्म नहीं हो पाता, परमात्मा तो बहुत दूर की मंजिल है। अभी तो आदमी भी होना बहुत कठिन है।
डायोजनीज का नाम सुना होगा, जरूर सुना होगा। और यह भी हो सकता है कि वह कहीं न कहीं आपको मिल गया हो। सुनते हैं दो हजार साल पहले वह पैदा हुआ था और दिन की भरी रोशनी में जलती हुई लालटेन लेकर गांवों में घूमा करता था और हर आदमी के चेहरे के पास लालटेन ले जाकर देखता था। लोग चैंक जाते थे कि क्या बात है! क्या देखना चाहता है! और दिन की रोशनी में जब कि सूरज आकाश में हो, लालटेन किसलिए लिए हुए हैं? दिमाग खराब हो गया है? वह कहता, दिमाग मेरा खराब नहीं हुआ है। मैं आदमी की तलाश में हूं। मैं हर आदमी के चेहरे को रोशनी में देखने की कोशिश करता हूं, आदमी है या नहीं? क्योंकि चेहरे बहुत धोखा देते हैं। चेहरों से ऐसा मालूम होता है कि सब आदमी हैं और भीतर आदमियत का कोई निवास नहीं होता है।
आदमी भी होना कठिन है, परमात्मा तो दूर की मंजिल है। लेकिन यह भी आपसे कहूं, जो आदमी हो जाता है उसके लिए परमात्मा की मंजिल भी बहुत निकट हो जाती है। कौन सी चीज है जो हमें बांधे हैं जिसके कारण हम पशु हो जाते हैं?
एक छोटी सी कहानी से शायद इशारा ख्याल में आ सके कि कौन सी चीज हमें बांध हुए है, कौन चीज के इर्द गिर्द हम जीवन भरी घूमते हैं और नष्ट हो जाते हैं। कुछ ऐसी चीज है जिसके पीछे हम पागल की तरह चक्कर लगाते हैं और व्यर्थ नष्ट हो जाते हैं।
एक जंगल के पास एक छोटा सा गांव था। और एक दिन सुबह एक सम्राट शिकार खेलने में भटक गया और उस गांव में आया। रात भर का थका मांदा था और उसे भूख लगी थी। वह गांव के पहले ही झोपड़े पर रुका और उसे झोपड़े के बूढ़े आदमी को कहा, क्या मुझे दो अंडे उपलब्ध हो सकते हैं? थोड़ी चाय मिल सकती है? उस बूढ़े आदमी ने कहा: जरूर, स्वागत है आपका! आइए! वह सम्राट बैठ गया उस झोपड़े में। उसे चाय और दो अंडे दिए गए। नाश्ता कर लेने के बाद उसने पूछा कि इन अंडों के दाम कितने हुए उस बूढ़े आदमी ने कहा: ज्यादा नहीं, केवल सौ रुपये। सम्राट तो हैरान हो गया। उसने बहुत महंगी चीजें खरीदी थीं, लेकिन कभी सोचा भी नहीं था कि दो अंडों के दाम भी सौ रुपये हो सकते हैं। उस सम्राट ने उस बूढ़े आदमी को पूछा: क्या इतना कठिन है अंडे का मिलना यहां? वह बूढ़ा आदमी बोला: नहीं, अंडे तो बहुत मुश्किल नहीं हैं, बहुत होते हैं, लेकिन राजा मिलना बहुत मुश्किल है। राजा कभी कभी मिलते हैं। उस सम्राट ने सौ रुपये निकाल कर उस बूढ़े को दे दिए और अपने घोड़े पर सवार होकर चला गया।
उस बूढ़े की औरत ने कहा, कैसा जादू किया तुमने कि दो अंडे के सौ रुपये वसूल कर लिए। क्या तरकीब थी तुम्हारी? उस बूढ़े ने कहा, मैं आदमी की कमजोरी जानता हूं। जिसके आसपास आदमी जीवन भर घूमता है वह खूंटी मुझे पता है। और खूंटी को छू दो और आदमी एकदम घूमना शुरू हो जाता है। मैंने वह खूंटी छू दी और राजा एकदम घूमने लगा। उसकी औरत ने कहा, मैं समझी नहीं। कौन सी खूंटी? कैसा घुना? उस बढ़े ने कहा, तुझे मैं एक और घटना बताता हूं अपनी जिंदगी की। शायद उससे तुझे समझ में आ आए।
जब मैं जवान था तो मैं एक राजधानी गया। मैंने वहां एक सस्ती सी पगड़ी खरीदी जिसे के दाम तीन चार रुपये थे। लेकिन पगड़ी बड़ी रंगीन और चमकदार थी। जैसी कि सस्ती चीजें हमेशा रंगीन और चमकदार होती हैं। जहां बहुत रंगीनी हो और बहुत चमक हो, समझ लेना भीतर सस्ती चीज होनी ही चाहिए। सस्ती थी लेकिन तब भी बहुत चमकदार थी, बहुत रंगीन थी। मैं उस पगड़ी को पहनकर सम्राट के दरबार में पहुंच गया। सम्राट की आंख एकदम से उस पगड़ी पर पड़ी। क्योंकि दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम हैं जो कपड़े के अलावा कुछ और देखते हों। आदमी को कौन देखता है? आत्मा को कौन देखता है? पगड़ियां भर दिखाई पड़ती हैं। उस सम्राट की नजर एकदम पगड़ी पर गई और उसने कहा, कितने में खरीदी है? बड़ी सुंदर रंगीन है। मैंने उस सम्राट से कहा, पूछते हैं कितने में खरीदी है? पांच हजार रुपए खर्च किए हैं इस पगड़ी के लिए। सम्राट तो एकदम हैरान हो गया लेकिन इससे पहले कि सम्राट कुछ कहता, वजीर ने उसके सिंहासन के पास झुककर सम्राट के कान में कुछ कहा। उसने सम्राट के कान में कहा कि सावधान! आदमी धोखेबाज मालूम होता है। दो चार पांच रुपए की पगड़ी के पांच हजार दाम बता रहा है। बेईमान है। लूटने के इरादे हैं।
उस बूढ़े ने अपनी पत्नी को कहा: मैं फौरन समझ गया कि वजीर क्या कह रहा है। जो लोग किसी को लूटते रहते हैं वे दूसरे लूटने वाले से बड़े सचेत हो जाते हैं। लेकिन मैं भी हारने को राजी नहीं था। मैं वापस लौटने लगा। मैंने उस सम्राट को कहा कि मैं जाऊं? क्योंकि मैंने जिस आदमी से यह पगड़ी खरीदी है उसने मुझे यह वचन दिया है कि इस पृथ्वी पर एक ऐसा सम्राट भी है जो इस पगड़ी के पचास हजार भी दे सकता है। मैं उसी सम्राट की खोज में निकला हुआ हूं? तो मैं जाऊं? आप वह सम्राट नहीं हैं। यह राजधानी वह राजधानी नहीं है। यह दरबार वह दरबार नहीं है जहां यह पगड़ी बिक सकेगी। लेकिन कहीं बिकेगी, मैं जाता हूं।
उस सम्राट ने कहा: पगड़ी रख दो और पचास हजार रुपए ले लो। वजीर बहुत हैरान हो गया। जब और कहा हद कर दी। हम भी बहुत कुशल हैं लूटने में लेकिन यह तो जादू हो गया। मामला क्या है? तो मैंने वजीर के कामन मग कहा कि तुम्हें पता होगा कि पगड़ियों के दाम कितने होते हैं, लेकिन मुझे आदमियों की कमजोरियां का पता है। मुझे उस खूंटी का पता है जिसको छू दो और आदमी एकदम घूमने लगता है।
पता नहीं वह बूढ़ी समझा पाई अपने पति की यह बात या नहीं। लेकिन आप समझ गए होंगे। आप पहचान गए होंगे कि आदमी किस खूंटी से बंधा है। अहंकार के अतिरिक्त आदमी के जीवन में और कोई खूंटी नहीं है। और जो अहंकार से बंधा है वह और हजार तरह से बंध जाएगा। और जो अहंकार से मुक्त हो जाता है वह और सब भांति भी मुक्त हो जाता है। एक ही स्वतंत्रता है जीवन में, एक ही मुक्ति है, एक ही मोक्ष है और एक ही द्वार है प्रभु का और वह वह है अहंकारी की खूंटी से मुक्त हो जाना। एक ही धर्म है, एक ही प्रार्थना है, एक ही पूजा है और वह है अहंकार से मुक्त हो जाना। एक ही मंदिर है, एक ही मस्जिद है, एक ही शिवालय है। जिस हृदय में अहंकार नहीं वही मंदिर है, वही मस्जिद है, वही शिवालय है।
जीवन को देखने की दी दृष्टियां हैं और जीवन को जीने के दो ही ढंग हैं। या तो अहंकार के इर्दगिर्द जियो या निरहंकार के। जो अहंकार से बंधा है वह पृथ्वी से बंधा रह जाता है। और निरहंकार में जो उठते हैं आकाश उनका हो जाता है। आकाश की स्वतंत्रता उनकी हो जाती है। जीवन में विराट तक पहुंचने का मार्ग खुल जाता है। क्यों? क्योंकि जो क्षुद्र से मुक्त होता है वह विराट से संयुक्त हो जाता है। यह तो गणित की तरह सीधा सा नियम है। यह तो एक सार्वभौम (न्नदपअमतेंस) नियम है। जो क्षुद्र से बंधा है वह विराट से वंचित हो जाएगा। और जो क्षुद्र से मुक्त हो जाता है वह विराट में प्रविष्ट हो जाता है।
एक पानी की बूंद थी। वह समुद्र होना चाहती थी। वह बूंद मुझसे पूछने लगी, मैं समुद्र कैसे हो जाऊंगी? मैंने उस बूंद को कहा, बड़ी छोटी और एक ही तरकीब है। बूंद अगर बूंद होने से राजी है, अगर बूंद, बूंद ही बनी रहने में सुखी है तो समुद्र से मिलने का कोई रास्ता नहीं है। लेकिन अगर तू बूंद की भांति मिटने को राजी हो जा तो मिटते ही सागर हो जाएगी। उस बूंद ने मेरी बात मान ली। वह सागर में कूद गई। उसे खो दिया अपने को। उसने अपने अहंकार को धो डाला। वह सागर से एक हो गई लेकिन उसने कुछ खोया नहीं। उस बूंद ने खोया बूंद होना और वह हो गई सागर। इसे कोई खोना कहेगा? इसे कोई मिटना कहेगा? अगर मिटना है तो फिर पाना और क्या हो सकता है।
 हम अहंकार की खूंटी में बंधे हुए हैं और परमात्मा के सागर को खोजने निकल पड़े हैं। हम अहंकार की छोटी क्षुद्र बिंदु बने हुए हैं और विराट के, असीम के साथ एक होने की कामना ने हमें पीड़ित कर रखा है। हम भी इनके किनारे से बंधे हुए हैं और सागर की यात्रा, अज्ञात सागर की यात्रा का हमने स्वीकार कर लिया है। इन्हीं दोनों के बीच खिंच खिंच कर आदमी नष्ट हो जाता है कबीर कहते थे, उसकी गली बहुत संकरी है, वहां दो नहीं समा सकेंगे। या तो वही हो सकता है या फिर हम हो सकते हैं।
हमारा सारा जीवन अहंकार को परिपुष्ट करने में व्यतीत होता है, विसर्जित करने में नहीं। हम उसे मजबूत करते हैं जो हमारी पीड़ा है। हम उसी घाव को गहरा करते हैं जो हमारा दुख है। हम उसी बीमारी को पान सींचते हैं जो प्राण लिए लेती है। अहंकार को सींचने के सिवाय हम जीवन भर और करते ही क्या है? किसलिए उठाते हैं यह मकान, आकाश को छू लेने वाले? आदमी के रहने के लिए? झूठी है यह बात। अहंकार का निवास बनाने के लिए, आदमी के रहने के लिए छोटे झोपड़े भी काफी हैं लेकिन अहंकार के लिए बड़े से बड़े मकान भी छोटे हैं। अहंकार उठाता है बड़े मकानों को कि आकाश छू लें। किसलिए विजय यात्राएं चलती हैं? किसलिए सिकंदर, नेपोलियन और चंगेज पैदा होते हैं? जीने से चंगेज का, सिकंदर का, नेपोलियन का क्या वास्ता? लेकिन नहीं, अहंकार की यात्राएं बड़ी दूर ले जाती हैं आदमी को।
सिकंदर जिस दिन मरने को था बहुत उदास था। किसी ने पूछा कि तुम इतने उदास क्योंकि हो? सिकंदर ने कहा कि मैं इसलिए उदास हूं कि सारी दुनिया को मैंने करीब करीब जीत लिया। अब बड़ी कठिनाई में मैं पड़ गया हूं। दूसरी कोई दुनिया ही नहीं जिसको मैं आगे जीतूं और अब मेरे भीतर बड़ा खालीपन मालूम होता है। क्योंकि जब तक मैं जीतता न रहूं तब तक मुझे कोई चैन नहीं और दुनिया समाप्त होने के करीब आ गई है। दूसरी कोई दुनिया नहीं है। मैं क्या जीतूं?
अहंकार दुनिया को जीत ले तो फिर दूसरी दुनिया को जीतने की आकांक्षा शुरू हो जाती है।
अमरीका का एक बहुत बड़ा करोड़पति कारनेगी मरणशैया पर पड़ था। एक मित्र ने उससे पूछा कितनी संपत्ति तुमने जीवन में इकट्ठी की है? उसने कहा¬ज्यादा नहीं, केवल दस अरब। मित्र ने कहा¬दस अरब! और कहते हो ज्यादा नहीं! कारनेगी ने कहा, मेरे इरादे सौ अरब इकट्ठा करने के थे, लेकिन बुढ़ापा निकट आ गया, योजना अधूरी रही जाती है।
क्या आप सोचते हैं कि कारनेगी सौ अरब इकट्ठा कर लेता तो कोई फर्क पड़ जाता? जरा भी फर्क नहीं पड़ने वाला था। आदमी को हम भली भांति जानते हैं। फर्क जरा भी नहीं पड़ कसता था। कारनेगी के पास भी अरब इकट्ठे हो जाते तो कारनेगी के इरादे हजार अरब पर पहुंच जाते। आदमी का इरादा उसके आगे चलता है। आदमी की वासना उसके आगे चलती है। आदमी हमेशा पीछे रह जाता है। मंजिल जिसको वह छूना चाहता है और आगे हट जाती है। अहंकार दौड़ता है और दौड़ता है, लेकिन कहीं भी पहुंचता नहीं है। एक छोटी सी बच्चों की कथा है। अलाइस नाम की एक लड़की स्वर्ग में पहुंच गई, परियों के देश में। पृथ्वी से स्वर्ग तक पहुंचते पहुंचते बहुत थक गई थी। स्वर्ग में पहुंचते ही, परियों के देश में पहुंचते ही उसे दिखाई पड़ा कि दूर एक आम की घनी छाया के नीचे परियों की रानी खड़ी है और उसके पास फूलों के और मिठाइयों के थाल सजे हैं और वह रानी उस भूखी अलाइस को बुला रही है कि आ जाओ। वह दिखाई पड़ रही है। उसकी आवाज सुनाई पड़ती है कि अलाइस आ जा। अलाइस दौड़ना शुरू कर देती है। सुबह है, सूरज निकल रहा है। फिर दोपहर हो जाती है। सूरज ऊपर आ गया है और अलाइस दौड़ी चली जा रही है। अब वह थक गई है। उसने खड़ी होकर चिल्लाकर पूछा कि कैसी दुनिया है तुम्हारी! सुबह से मैं दौड़ रही हूं लेकिन मेरे और तुम्हारे बीच का फासला पूरा नहीं होता! तुम उतनी ही दूर मालूम पड़ती हो रानी! रानी ने चिल्लाकर कहा, घबरा मत, दौड़ती आ। जो दौड़ते हैं वे पहुंच जाते हैं। खड़ी होकर समय मत खो। थोड़ी देर में सूरज ढल जाएगा और सांझ आ जाएगी। दौड़ जल्दी आ।
अलाइस और तेजी से दौड़ने लगी। सूरज जैसे जैसे नीचे उतरने लगा अलाइस और तेज दौड़ रही है और तेज दौड़ रही है। लेकिन न मालूम कैसी पागल दुनिया है। रानी उतनी ही दूर, रानी और उसके बीच का फासला कम नहीं होता। फिर वह थक कर चकनाचूर होकर गिर पड़ती है और चिल्लाती है कि मामला क्या है? ये कैसे रास्ते हैं परियों के देश के कि मैं सुबह से दौड़ रही हूं, सूरज डूबने के करीब आ गया और अब तक तुम्हारे पास पहुंचा नहीं पाई। तुम उतनी दूर खड़ी हो जितनी सुबह थी? वह रानी खूब हंसने लगी। उसने कहा पागल! परियों के देश में ही रास्ते ऐसे नहीं है, आदमियों के देश में भी रास्ते ऐसे ही हैं। लोग दौड़ते हैं, लेकिन पहुंचते कभी भी नहीं। फासला उतना ही बना रहता है।
जन्म के साथ आदमी जहां होता है मरने के साथ भी अपने को वहीं पाता है। कोई फासला पूरा नहीं होता, कोई यात्रा पूरी नहीं होती। जिस अहंकार को हम भरने चले हैं वह एकदम झूठी इकाई (थंसेम मदजपजल) है। वह होती तो भर भी जाती। वह होती तो हम उसे पूरा भी कर लेते। वह होती तो हम उसकी पूर्ति का कोई न कोई रास्ता खोज लेते। लेकिन अहंकार है झूठी इकाई। आदमी के भीतर अहंकार से ज्यादा बड़ा असत्य नहीं है। वह है ही हनीं। मैं जैसी कोई भी चीज शब्दों के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। और जिस दिन शब्दों को छोड़कर भीतर झांकेंगे तो वहां किसी मैं को नहीं पाएंगे। कभी किसी ने नहीं पाया है।
मैं एक शब्द मात्र है, मैं एक संज्ञा मात्र है, एक काम चलाऊं शब्द है। हमारे सभी शब्द काम चलाऊ हैं। एक आदमी का नाम हम रख लेते हैं। दूसरे लोगों के पुकारने के लिए नाम रख लेते हैं ताकि दूसरे लोग पुकारें तो पता चले कि किसको पुकार रहे हैं। दूसरे को पुकारने के लिए होता है नाम और खुद को पुकारने के लिए होती है मैं की इकाई, अन्यथा हम क्या पुकारें अपने आपको? कहते हैं मैं। यह शब्द काम दे देता है जीवन में। लेकिन यह शब्द झूठा है। इसके पीछे कोई भी सत्य नहीं है, यह बिल्कुल छाया है। इसके पीछे कोई भी वस्तु नहीं, कोई भी पदार्थ नहीं। यह बिल्कुल झूठी छाया है और इस छाया को हम घेरने में, दौड़ने में लगे रहते हैं, छाया को ही पकड़ने में लगे रहते हैं।
एक संन्यासी एक घर के सामने से निकल रहा था। एक छोटा सा बच्चा घुटने टेक कर चलता था। सुबह थी और धूप निकली थी और उस बच्चे की छाया आगे पड़ रही थी। वह बच्चा छाया में अपने सिर को पकड़ने के लिए हाथ ले जाता है, लेकिन जब तक उसका हाथ पहुंचता है छाया आगे बढ़ जाती है। बच्चा थक गया और रोने लगा। उसकी मां उसे समझाने लगी कि पागल यह छाया है, छाया पकड़ी नहीं जाती। लेकिन बच्चे कब समझ सकते हैं कि क्या छाया है और क्या सत्य है? जो समझ लेता है कि क्या छाया और क्या सत्य, वह बच्चा नहीं रह जाता। वह प्रौढ़ होता है। बच्चे कभी नहीं समझते कि छाया क्या है, सपने क्या हैं, झूठ क्या है।
 वह बच्चा रोने लगा। कहा कि मुझे तो पकड़ना है इस छाया के सिर को। वह संन्यासी भीख मांगने आया था। उसने उसकी मां को कहा, मैं पकड़ा देता हूं। वह बच्चे के पास गया। उस रोते हुए बच्चे की आंखों से आंसू टपक रहे थे। सभी बच्चों की आंखों से आंसू टपकते हैं। जिंदगी भर दौड़ते हैं और पकड़ नहीं पाते। पकड़ने की योजना ही झूठी है। बूढ़े भी रोते हैं और पकड़ नहीं पाते। पकड़ने की योजना ही झूठी है। बूढ़े भी रोते हैं और बच्चे भी रोते हैं। वह बच्चा भी रो रहा था तो कोई ना समझी तो नहीं कर रहा था। उस संन्यासी ने उसके पास जाकर कहा, बेटे रो मत। क्या करना है तुझे? छाया पकड़नी है? उस संन्यासी ने कहा, जीवन भर भी कोशिश करके थक जाएगी, परेशान हो जाएगा। छाया को पकड़ने का यह रास्ता नहीं है। उस संन्यासी ने उस बच्चे का हाथ पकड़ा और उसके सिर पर हाथ रख दिया। इधर हाथ सिर पर गया, उधर छाया के ऊपर भी सिर पर हाथ गया। संन्यासी ने कहा, देख, पकड़ ली तू ने छाया कोई सीधा पकड़ेगा तो नहीं पकड़ सकेगा। लेकिन अपने को पकड़ लेना तो छाया पकड़ में जा जाती है।
जो अहंकार को पकड़ने के लिए दौड़ता है वह अहंकार को कभी नहीं पकड़ पाता। अहंकार मात्र छाया है। लेकिन जो आत्मा को पकड़ लेता है, अहंकार उसकी पकड़ में आ जाता है। वह तो छाया है। उसका कोई मूल्य नहीं। केवल वे ही लोग तृप्ति को, केवल वे ही लोग आप्तकामता को उपलब्ध होत हैं जो आत्मा को उपलब्ध होते हैं। आत्मा और अहंकार के बीच चुनाव है। आत्मा और अहंकार के बीच सारा विकल्प है, आत्मा और अहंकार के बीच जीवन की सारी व्यथा, सारी पीड़ा है। जो अहंकार की तरफ जाते हैं वे भटक जाते हैं। वे गलत खूंटी के पास जीवन को घुमाते हैं। लेकिन जो अहंकार से पीछे हटते हैं और उसकी तरफ जाते हैं जो मूल है जो भीतर है, जो मैं हूं वस्तुतः, जो मेरी आत्यंतिक सत्ता है, उसे उपलब्ध हो जाते हैं और उनके लिए छायाएं देखने को नहीं रह जाती। दुनिया में दो ही तरह की यात्राएं हैं¬अहंकार को भरने की यात्रा है और आत्मा को उपलब्ध करने की यात्रा है। लेकिन अहंकार से जो बंध जाते हैं वे आत्मा से वंचित रह जाते हैं।
यह अहंकार क्या हम छोड़ने की कोशिश करें? नहीं, अगर छोड़ने की कोशिश की तो अहंकार से कभी मुक्त नहीं हो सकेंगे। छाया न तो पकड़ी जा सकती है और न छोड़ी जा सकती है। जो चीज छोड़ी जा सकती है वह पकड़ी भी जा सकती है। अहंकार न पकड़ा जा सकता है, न छोड़ा जा सकता है। इसलिए पकड़ने वाले तो भूल में पड़ते हैं। छोड़ने वाले और भी भूल में पड़ जाते हैं। अहंकार के रास्ते बड़े सूक्ष्म हैं। छाया बड़ी सूक्ष्म हैं, पकड़ में नहीं आती और छोड़ने में भी नहीं आती। जो लोग सोचते हैं कि अहंकार छोड़ देंगे वे और भी बड़ी भूल में पड़ जाते हैं। आज तक किसी ने अहंकार को छोड़ा नहीं है। क्योंकि अहंकार पकड़ा भी नहीं जा सकता और छोड़ा भी नहीं जा सकता। तो फिर हम क्या करें।
अहंकार जाना जा सकता है, अहंकार पहचाना जा सकता है, अहंकार की प्रत्यभिज्ञा (त्तमबवहदपजपवद) हो सकती है, अहंकार का बोध हो सकता है अहंकार के प्रति जागरूक हो सकते हैं। और जो आदमी अहंकार के प्रति जागरूक हो जाता है उसका अहंकार विसर्जित हो जाता है। मनुष्य की निद्रा में अहंकार है, मनुष्य के जागरण में नहीं। जैसे ही कोई जाग कर देखने की कोशिश करता है, कहां है अहंकार, वैसे ही अंधकार हटने लगता है।
एक गांव में एक घर था। उस घर में बड़ा अंधकार था और कोई हजार साल से अंधेरा था। उस गांव के लोग उस घर में नहीं जाते थे। मैं उस गांव में गया। मैंने कहा, इस घर को ऐसा ही क्यों छोड़ रखा है। गांव वालों ने कहा, इस घर में हजारों साल से अंधेरा है। मैंने कहा, अंधेरे की कोई ताकत होती है? दिया जलाओ और भीतर पहुंच जाओ। उन्होंने कहा¬दिया जलाने से क्या होगा? यह कोई एक रात का अंधेरा नहीं हैं, हजारों साल का अंधेरा है। हजारों साल तक दिए जलाओ तब कहीं खत्म हो सकता है। गणित बिल्कुल ठीक था। बिल्कुल तर्कसंगत थी यह बात। मैं भी डरा। बात तो ठीक थी। हजारों साल में घिरा अहंकार कहीं एक दिन के दिए जलाने से दूर हो सकता है? फिर भी मैंने कहा, एक कोशिश तो करके देख ही लें। क्योंकि जिंदगी में कई बार गणित काम नहीं करता और तर्क व्यर्थ हो जाता है। जिंदगी बड़ी अनूठी है। वह तर्कों के पास से चली जाती है और गणित से दूर निकल जाती है। गणित में हमेशा दो और दो चार होते हैं, जिंदगी में कभी पांच भी हो जाते हैं और तीन भी हो जाते हैं। जिंदगी गणित नहीं है। तो चलें देख लें।
वे लोग राजी नहीं हुए और कहा कि जाने से फायदा क्या है? हमें नहीं पसंद है यह बात। हमारे बाप दादा भी यही कहते थे। उन्होंने कहा कि दिए मत जलाना। हजारों साल का अंधेरा है। उनके बाप दादों ने भी यही कहा था और आप तो बड़े परंपरा के विरोधी मालूम होती हैं। आप शास्त्रों को नहीं मानते। बुजुर्गों को नहीं मानते हैं। हम नासमझ हैं? हमारे गांव में तो लिखा हुआ रखा है कि इस घर में दिया मत जलाना यह हजारों साल का पुराना अंधेरा है, मिट नहीं सकता। फिर भी मैंने उन्हें बामुश्किल राजी किया कि चलो देख तो लें। बहुत से बहुत यही होगा कि हम असफल होंगे। मुश्किल से वे जाने को राजी हुए। दिया जलते ही वहां तो कोई भी अंधेरा नहीं था। वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, कहां गया अंधेरा! मैंने कहा, दिया तुम्हारे हाथ में है खोजें कि कहां है अंधेरा। और अगर किसी दिन मिल जाए तो मुझे खबर कर दें, मैं फिर तुम्हारे गांव में आ जाऊं। अभी तक उनकी कोई खबर नहीं आयी। खोज रहे होंगे वे लोग दिए लेकर अंधेरे को और कहीं दिए के सामने अंधेरा आता है? कहीं में अंधेरा मिलता है।
अहंकार अंधकार के समान है। जो अपने भीतर दिए को लेकर जाता है वह उसे कहीं भी नहीं पाता। न तो उसे छोड़ना है न उससे भागना है। एक दिया जलाना है और उसे देखना है, उस दिए की रोशनी में ढूंढ़ना है कि वह कहां है? हमें भीतर जागकर देखना है कि कहां है अहंकार? और वह वहां नहीं पाया जाता है। और जहां अहंकार नहीं पाया जाता है वहां जो मिल जाता है उसी को कोई परमात्मा कहता है, कोई आत्मा कहता है, कोई सत्य कहता है। उसी को कोई सौंदर्य कहता है उसी को कोई और नाम देता है। लेकिन बस नामों के ही भेद होते हैं। अहंकार जहां नहीं है वहां वह मिल जाता है जो सबके प्राणों का प्राण है, जो प्यारे से प्यारे है। लेकिन हम अहंकार से बंधे हैं और उसी के साथ जीते और मरते हैं इसलिए आत्मा कील तरफ आंख नहीं जा पाती। इसे देखना जरूरी है, इसे छोड़ना जरूरी नहीं है। इससे भागना जरूरी नहीं है, इसे पहचानना जरूरी है।
अहंकार को देखने की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है। कैसे हम देखें इसे जो कि हमें घेरे हुए है और पकड़े हुए हैं? क्या है रास्ता? कोई घड़ी आधी घड़ी किसी मंदिर मैं बैठ जाने से यह नहीं देखा जा सकता। मंदिर में बैठने वालों का अहंकार तो और भी मजबूत हो जाता है, क्योंकि उन्हें ख्याल होता है कि हम धार्मिक हैं। बाकी सारा जगत अधार्मिक है। क्योंकि हम मंदिर जाते हैं और हमारा स्वर्ग बन जाता है और बाकी सब नर्क में खड़े हैं।
क्या आपको पता है ईसाई मजहब के हिमायतियों की राय है कि जो लोग संत पुरुष हैं, जो धार्मिक पुरुष हैं वे लोग स्वर्ग के आनंद उठाएंगे। जो पापी हैं वे नर्क में कष्ट भोगेंगे और स्वर्ग में जो धार्मिक लोग जाएंगे उन्हें एक विशेष प्रकार के सुख की भी सुविधा रहेगी और वह यह है कि नर्क में जो पापी कष्ट भोग रहे हैं उनको देखने का मजा भी वे ले सकेंगे। वहां से वे देख सकेंगे कि कितने पापी नर्क में पड़ गए और कैसे कैसे कष्ट झेल रहे हैं। जिन लोगों ने यह ख्याल किया होगा पुण्यात्माओं ने, धार्मिकों ने कि पापियों को नर्क में कड़ाहों में जलते हुए देखने का मजा भी हम लेंगे, वे कैसे लोग रहे होंगे इसे आप भलीभांति सोच सकते हैं। और यह कोई ईसाइयत का सवाल नहीं है। दुनिया के सारे तथाकथित धार्मिक लोगों ने अपने को स्वर्ग में ले जाने की और दूसरे को नर्क में डालने की पूरी योजना और व्यवस्था कर रखी है। क्योंकि वह यह कह सकते हैं भगवान को कि मैं रोज तुम्हारे नाम पर माला फेरता था और इस आदमी ने माला नहीं फेरी। इसको डालो कड़ाहे में। मैं रोज मंदिर आता था। एक दिन भी नहीं चूका। सर्दी पड़ती थी तब भी आता था, धूप पड़ती थी तब भी आता था। यह आदमी कभी मंदिर में नहीं दिखाई पड़ा। डाली इसको कड़ाहे में। मैं गीता पढ़ता था, कुरान पढ़ता था, बाइबिल पढ़ता था। रोज तुम्हारे भजन कीर्तन करता था। क्या वे सब व्यर्थ गए? मुझे बैठाओ स्वर्ग में। लेकिन मुझे मजा इतने भर में नहीं आएगा कि मैं स्वर्ग में बैठ जाऊं। उन सब लोगों को जो मेरे पड़ोस में रहते थे बिना नर्क में पड़े देखे मुझे कोई आनंद उपलब्ध नहीं हो सकता। उन सबको डालो नर्क में।
जर्मन कवि था ह्यूम। उसने एक कविता लिखी है। उस कविता में लिखा है कि एक रात भगवान ने मुझसे पूछा कि तुम चाहते क्या हो? जिससे तुम खुश हो जाओ। तो मैंने कहा मैं बहुत बड़ा मकान चाहता हूं। जैसा गांव में दूसरा मकान न हो। भगवान ने कहा ठीक है यह हो जाएगा। और क्या चाहते हो? एक बहुत शानदार बगीचा चाहता हूं जैसा पृथ्वी पर न हो। भगवान ने कहा ठीक, यह भी हो जाएगा। और क्या चाहते हो? मैं जो भी जिस क्षण चाहूं उसी वक्त मुझे मिल जाए। भगवान ने कहा यह भी हो जाएगा। और क्या चाहते हो? ह्यूम ने कहा अगर आप मानते ही नहीं और मेरे दिल की आखिरी मुराद पूरी ही करना चाहते हैं तो एक काम और कर दें। मेरे बगीचे के दरख्त जो हों, मेरे पड़ोसी उन दरख्तों से लटके रहें तो मुझे पूरा आनंद उपलब्ध हो जाएगा। नींद खुल गई ह्यूम की और उसने बाद में लिखा कि वह बहुत घबराया कि मेरे भीतर भी कैसी कैसी कामनाएं हैं। लेकिन अगर आप धार्मिक आदमियों के मन में खोजेंगे तो सबके मन में यह कामना है कि पड़ोसी नर्क में चले जाए और हम स्वर्ग में चले जाए। उस स्वर्ग में जाने के लिए सारा आयोजन करते हैं। मंदिर में बैठने वाले अहंकार से मुक्त नहीं होते। स्वर्ग में जाने की कामना रखने वाले अहंकारी ही हैं। मुझे परमात्मा मिल जाए, मैं परमात्मा को भी अपने अधिकार में कर लूं वह भी मेरी संपत्ति बन जाए, यह अहंकार की ही दौड़ है।
फिर क्या करें? चैबीस घंटे जागरूक होना पड़ता है और देखना पड़ता है कि जीवन की किन किन क्रियाओं में अहंकार खड़ा होता है। क्या वस्त्रों के पहनने से खड़ा होता है? आंख के देखने के ढंग में खड़ा होता है? पैर के उठने में खड़ा होता है, बोलने में खड़ा रहता है कि चुप रह जाने में खड़ा होता है? कहां कहां अहंकार खड़ा होता है? किन किन जगहों से सिर उठाता है? चैबीस घंटे एक होश (ःूंतमदमे) चाहिए कि कहां खड़ा हो रहा है? चैबीस घंटे खोजबीन चाहिए दिया लेकर कि अहंकार कहां खड़ा होता है? कैसे खड़ा होता है? क्या है उसकी कोशिश? उसके खड़े होने की प्रक्रिया क्या है? कैसे निर्मित होता है भीतर? कैसे संगठित होता है? क्या मार्ग है उसके बन जाने का? और अगर चैबीस घंटे कोई देखता रहे, देखता रहे, खोजता रहे, खोजता रहे तो बहुत हैरानी, बहुत आश्चर्य, बहुत चमत्कार अनुभव करेगा। जिन जिन जगहों पर यह खोज लेंगे कि यहां अहंकार खड़ा होता है वहीं वहीं से अहंकार बिदा हो जाएगा। और जिस दिन जीवन के सभी पहलुओं में, और चित्त के सभी हिस्सों में अहंकार की खोज पूरी हो जाएगी और मन का कोई अनजान अपरिचित कोना बाकी नहीं रहेगा, उसी दिन आप अहंकार के बाहर हो जाते हैं।
एक सम्राट था। एक फकीर ने उस सम्राट को कहा तू अगर चाहता है कि परमात्मा को पा ले तो एक ही रास्ता है। मेरे झोपड़े पर आ जा और कुछ दिन मेरे पास रह जा। उस सम्राट की बड़ी तीव्र प्यास और आकांक्षा थी। वह उस फकीर के झोपड़े पर चला गया। उस फकीर ने कहा, कल सुबह तेरी शिक्षा शुरू होगी और शिक्षा बड़ी अजीब है। शिक्षा यह है कि कल सुबह तू कुछ भी कर रहा होगा और मैं लकड़ी की तलवार लेकर तेरे पीछे से हमला कर दूंगा। तू खाना खा रहा होगा, तू झोपड़े में बुहारी लगा रहा होगा, तू कपड़े धो रहा होगा, तू स्नान करता होगा और मैं तेरे ऊपर तलवार से हमला कर दूंगा। लकड़ी की तलवार के होगी। हमेशा सावधान रहना कि मैं कब हमला करता हूं। क्योंकि मेरा कोई ठिकाना नहीं। मैं कोई खोज खबर नहीं दूंगा। पहले से रेडियो में कोई खबर नहीं निकालूंगा। अखबार में स्थानीय कार्यक्रम में खबर नहीं होगी कि आज मैं यह करने वाला हूं। यह कोई खबर नहीं होगी। किसी भाषा में कोई सिलसिला नहीं होगा। किसी भी क्षण में हमला कर दूंगा। तैयार रहना।
 उस सम्राट ने कहा, लेकिन इससे मतलब क्या है? वह फकीर बोला अहंकार इसी भांति चैबीस घंटे न मालूम कहां कहां से हमले कर दे। तो मैं हमला करूंगा। मेरी तलवार का ख्याल रखना। सात दिन में सम्राट की हड्डी पसलियां टूट गई। क्योंकि चैबीस घंटे तक वह बूढ़ा फकीर हर कभी हमला करने लगा। लेकिन सात दिन में सम्राट को यह भी ख्याल में आ गया कि सावधानी जैसी भी कोई चीज थी। पहली दफा जिंदगी में उसे पता चला कि मैं अभी तक सोया जीता रहा। अभी तक मैं होश से नहीं जीया। कभी मैंने होश का ख्याल ही नहीं किया। लेकिन सात दिन बराबर चुनौती मिली, चोट पड़ी और भीतर कोई चीज जागने लगी और ख्याल रखने लगी कि हमला होने को है। पंद्रह दिन पूरे हो गए थे; हमले की खबर उसे मिलने लगी। गुरु के पैर की धीमी सी आहट भी उसे सुनाई पड़ जाती थी। वह अपनी ढाल संभाल लेता और हमले से बच जाता।
 तीन महीने पूरे हो गए। अब हमला करना मुश्किल हो गया। किसी भी हालत में हमला किया जाए, वह हमेशा सावधान होता और रोक लेता। उसके गुरु ने कहा एक पाठ तेरा पूरा हो गया। कल से दूसरा पाठ शुरू होगा। उसने पूछा कि इन तीन महीनों में तुझे क्या हुआ? तो सम्राट ने कहा दो बातें हुई। मैं हैरान हो गया। पहले तो मैं डर गया था कि इस लकड़ी की तलवार से चोट पहुंचाने का और परमात्मा से मिलने का क्या रास्ता है, क्या संबंध है! यह पागल तो नहीं है फकीर। मैं किसी पागल के चक्कर में तो नहीं पड़ गया हूं? लेकिन तीन महीने में मुझे पता चला कि जितना मैं सावधान रहने लगा उतना ही मैं निरहंकारी हो गया। जितना मैं सावधान रहने लगा उतना ही निर्विचार हो गया। जितना ही मैं होश से जीने लगा उतनी ही मन के विचारों की धारा क्षीण हो गई। मन एक ही साथ दो काम नहीं कर सकता। या तो विचार कर सकता है या जागरूक हो सकता है। दो चीजें एक साथ नहीं हो सकती। इसको थोड़ा देखना। जब विचार होंगे, सावधानी क्षीण हो जाएगी। जब सावधानी होगी, विचार क्षीण हो जाएंगे। अगर मैं एक छुरी लेकर आपकी छाती पर आ जाऊं तो विचार एकदम बंद हो जाएंगे। क्योंकि खतरे में चित्त पूरी तरह सावधान हो जाएगा कि पता नहीं क्या होगा? इस समय विचार करने की सुविधा नहीं है, इस समय तो होश बनाए रखने की जरूरत है कि पता नहीं क्या होगा? एक क्षण में कुछ भी हो सकता है तो आप जाग जाएंगे।
तो उस सम्राट ने कहा कि मैं एकदम जागा हुआ हो गया हूं। विचार शांत होगे, अहंकार का कोई पता नहीं चलता। दूसरा पाठ क्या है?
उस वृद्ध फकीर ने कहा¬कल से रात में भी हमला शुरू होगा। कल तू रात में सोया रहेगा तक भी दो चार दफा सामने आऊंगा। अब रात को भी सावधान रहना। उस सम्राट ने कहा, जागने तक भी गनीमत थी। अब यह बात जरा ज्यादा हो जाती है। नींद में मैं क्या करूंगा? मेरा क्या बस है नींद में? वृद्ध ने कहा, नींद में भी बास है, तुझे पता नहीं। नींद मग भी तेरे भीतर कोई जागा हुआ है और होश में है। चादर सरक जाती है और किसी को नींद में पता चल जाता है कि चादर सरक गयी है। एक छोटा सा मच्छर कान लगता और नींद में कोई जान लेता है कि मच्छर आ गया है। एक मां रात में सोती है उसका बच्चा बीमार है। आकाश में बादल गरजते रहें उसे कोई खबर नहीं मिलती लेकिन बच्चा बीमार है, वह जरा सी आवाज करता है और मां जाग जाती है और हाथ फेरने लगती है और पुचकारने लगती है कि सो जा कोई भीतर होश से भरा हुआ है कि बच्चा बीमार है।
बहुत लोग इकट्ठे सो जाएं और फिर आधी रात में आकर कोई बुलाने लगे राम! राम! सारे लोग सो रहे हैं, किसी को सुनायी नहीं पड़ेगा लेकिन जिसका नाम राम है वह आंख खोलकर कहेगा, कौन बुलाता है? आधी रात को कौन परेशान करता है? आधी रात की निद्रा में भी किसी को पता है कि मेरा नाम राम है। इस नींद में भी कोई होश, कोई चेतना (बवदेबपवनेदमे) बनी रहती है। कोई चेतना है, कोई अंतर्धारा (न्नदकमत(बनततमदज) है। उस बूढ़े ने कहा फिकर मत कर। हम तो चुनौती खड़ी करेंगे, भीतर जो सोया है वह जागना शुरू हो जाएगा। जागने का एक ही सूत्र है चुनौती (ींींससमदहम)। जितनी बड़ी चुनौती भीतर है, उतना बड़ा जागरण होता है। कितने धन्यभागी हैं वे लोग जिनके जीवन में बड़ी चुनौतियां होती है।
दूसरे दिन से हमला शुरू हो गया। रात सम्राट सोता और हमले होते। आठ दस दिन में फिर वही हालत हो गई। फिर हड्डी हड्डी दुखने लगी लेकिन एक महीना पूरा होते होते सम्राट को पता चला कि बूढ़ा ठीक कहता है। बूढ़े अक्सर ठीक कहते हैं। लेकिन जवान सुनते ही नहीं। और जब तक उन्हें समझ आती है तब तक वे भी बूढ़े हो जाते हैं। फिर दूसरी जवानी उन्हें लौट नहीं सकती। तो समझा और उठने कहा कि ठीक कहते थे शायद आप। अब नींद में भी मेरे साथ संभलने लगे। रात नींद में गुरु आता दबे पांव, नींद में से जाग आता वह युवक, बैठ जाता और कहता ठीक है माफ करिए मैं जाग गया हूं। अब कष्ट मत उठाइए मारने का। नींद में भी हाथ रात भर उसकी ढाल पर ही बना रहता था। नींद मग भी ढाल उठती है।
तीन महीने पूरे हुए और तब नींद में भी हमला करना मुश्किल हो गया। गुरु ने कहा कि क्या हुआ इन तीन महीनों में। दूसरा पाठ पूरा होता है। उस सम्राट ने कहा बड़ा हैरान हूं। पहले तीन महीने में विचार खो गया, दूसरे तीन महीने में सपने खो गए, नींद खो गई, रात भर सपने नहीं। मैं तो सोचता था कि बिना सपने के नींद ही नहीं हो सकती। अब मैं जानता हूं कि सपने वालों की भी कोई नींद होती है? अदभुत शांति छा गई है भीतर, एक शून्यता, एक मौन पैदा हो गया है। मैं बड़े आनंद में हूं। तो उसके गुरु ने कहा जल्दी मत कर। बड़ा आनंद अभी थोड़ी दूर है। यह तो केवल आनंद की शुरुआत की झलक है। जैसे कोई आदमी बगीचे के पास पहुंचने लगे तो ठंडी हवाएं आने लगती हैं, खुशबू हवा में आ जाती है। अभी बगीचा आया नहीं लेकिन बगीचे की खबर आनी शुरू हो गई है। अभी आनंद मिला नहीं। केवल बाहरी खबर मिलनी शुरू हुई है। कल से तेरा तीसरा पाठ शुरू होगा।
तीसरा पाठ क्या है? तो उस बूढ़े ने कहा, कल से असली तलवार से हमला होगा। अब तक नकली तलवार से हमला किया है। वह युवक बोला यह भी गनीमत थी कि अपनी लकड़ी की तलवार से हमला करते थे। यह तो जरा ज्यादा हो जाएगी बात। असली तलवार से हमला! अगर मैं एक भी बार चूक गया तो जान गई। तो उस बूढ़े ने कहा, जब यह पक्का पता हो कि एक भी बार चूका कि जान गई तब कोई भी नहीं चूकता है। चूकता आदमी तभी तक है जब तक उसे पता चलता है कि चूक भी जाऊं तो कुछ जाएगा नहीं। एक बार पता चला कि चूका कि जान गई तब प्राण इतनी ऊर्जा से चलते हैं कि फिर चूकने का कोई मौका नहीं रहता।
उस बूढ़े ने कहा, मेरा गुरु था। जिसके पास मैं सीखता था, उसने मुझे एक दिन सौ फूट ऊंचे दरख्त पर चढ़ा दिया। वह मुझे दरख्त पर चढ़ना सिखाता, पहाड़ों पर चढ़ना सिखाता, नदियों में तैरना सिखाता, झीलों में डूबना सिखाता। वह बड़ा अजीब गुरु था। वह कहता था जो पहाड़ पर चढ़ना नहीं जानता है वह जीवन में चढ़ना क्या जानेगा? जो झीलों की गहराइयों में डूबना नहीं जानता वह प्राणों की गहराइयों में डूबना क्या जानेगा? वह बड़ा अजीब गुरु था। उसने मुझे एक दरख्त पर चढ़ा दिया। मैं नया-नया चढ़ा था। जब मैं सौ फूट ऊपर पहुंच गया और मेरे प्राण कंपते थे कि हवा का एक झोंका भी कहीं जान लेने वाला न बन जाए, पैर का जरा सार सकर जाना भी मौत न बन जाते तब वह गुरु चुपचाप आंख बंद किए झाड़ के पास बैठा था। फिर मैं धीरे धीरे उतरने लगा। जब मैं जमीन के बिल्कुल करीब आ गया कोई आठ दस फूट दूर रह गया तक वह बूढ़ा जैसे नींद से उठ गया और खड़ा हो गया और कहने लगा¬सावधान! बेटे संभलकर उतरना! होश संभालकर उतरना। मैंने कहा, पागल हो गए हैं आप! जब जरूरत थी सावधानी की, तब आंख बंद किए सपने देख रहे थे और अब जब कि मैं नीचे आ गया हूं, अगर गिर भी जाऊं तो कोई खतरा नहीं है तब आपको होशियार की याद दिलाने का ख्याल आया? वह बूढ़ा कहने लगा मैं अपने अनुभव से जानता हूं जब तू सौ फूट पर था तब किसी के सावधान करने की कोई जरूरत नहीं थी। तब तू खुद ही सावधान था। और अभी अभी मैंने देखा है कि जैसे जैसे जमीन करीब आने लगी है, तुम गैर सावधान होना शुरू हो गए। नींद पकड़ गई है तुझे। मैं चिल्लाया कि सावधान। क्योंकि मैंने जीवन में देखा है कि लोग ऊंचाई से कभी नहीं गिरते, नीचे आने से गिर जाते हैं और मर जाते हैं। मैंने आज तक जिंदगी में देखा नहीं कि कोई आदमी ऊंचाई से गिरा हो। लोग नीचाई से गिरते हैं और मर जाते हैं इसलिए तुम सावधान कर दिया।
उस बूढ़े ने सम्राट से कहा कि कल से असली तलवार आती है। और दूसरे दिन से असली तलवार आ गई। लेकिन बड़ा हैरान हुआ वह सम्राट। लकड़ी की तलवार की तो बहुत चोटें उसके शरीर पर लगी थी लेकिन असली तलवार की तीन महीने में एक भी चोट नहीं मारी जा सकी। तीन महीने पूरे होने को आ गए। उसका मन एक शांति का सरोवर हो गया। उसका अहंकार कहीं दूर हट गया किसी रास्ते पर। पता नहीं कहां रह गया। जैसे जीर्ण शीर्ण वस्त्र छूट जाते हैं या सांप अपने केंचुल को छोड़कर जैसे आगे बढ़ जाते हैं ऐसे ही वह अपने अहंकार को कहीं पीछे दौड़ आया। याद भी नहीं रहा कि कभी मैं भी था। इतनी शांति हो गई है कि वहां कोई लहर भी नहीं उठती है उस झील में।
 तीन महीने पूरे होने को आ गए। हैं। आज आखिरी दिन है। कल वह बिदा हो जाएगा। सुबह सुबह सूरज निकलता है। वह बैठा है झोपड़े के बाहर। उसका गुरु काफी दूर पर एक दरख्त के नीचे बैठा है और कोई किताब पढ़ रहा है, वह अस्सी साल का वृद्ध। उसके मन में ख्याल आया कि इस बूढ़े ने नौ महीने तक मुझे एक क्षण भी आलस्य में नहीं जाने दिया। एक क्षण भी प्रसाद नहीं करने दिया। हमेशा जगाए रखा, सावधान रखा। कल तो मैं बिदा हो जाऊंगा। यह गुरु भी उतना सावधान है या हनीं यह भी तो मैं दुख लूं। तो उसने सोचा कि उठाऊं तलवार और आज उस बूढ़े पर पीछे से चुपचाप हमला कर दूं। मुझे भी तो पता चल जाए कि हमें ही सावधान किया जाता है या ये सज्जन खुद भी सावधान हैं?
उसने इतना सोचा ही था, सिर्फ सोचा ही था। अभी कुछ किया नहीं था, बस सोचा ही था कि वह गुरु चिल्लाया उस झाड़ के नीचे से कि बेटा ऐसा मत करना, मैं बूढ़ा आदमी हूं। वह सम्राट तो बहुत हैरान हुआ। उसने कहा मैंने कुछ किया नहीं। मैंने केवल सोचा है। तो उस बूढ़े ने कहा, तुम थोड़े दिन और ठहर जाओ जब चित्त बिल्कुल शांत हो जाता है और मौन हो जाता है, जब अहंकार बिल्कुल बिदा हो जाता है और जब विचार शून्य और शांत हो जाते हैं, तब दूसरे के पैरों की ध्वनि ही नहीं सुनाई पड़ती, दूसरों के चित्त की पद ध्वनियां भी सुनाई पड़ने लग जाती हैं। तब दूसरों के विचारों की पगध्वनियां भी सुनाई पड़ने लग जाती हैं। विचार भी सुनाई पड़ने लगते हैं दूसरों के। लेकिन हम तो ऐसे अंधे हैं कि हमें दूसरों के कृत्य ही दिखाई नहीं पड़ते। विचार सुनाई पड़ना तो बहुत दूर की बात है।
उस बूढ़े ने कहा था जिस दिन इतना शांत हो जाता है चित्त, इतना जागरूक हो जाता है, तो उस दिन ही वह जो अदृश्य है उसकी झलक मिलती है। उस परमात्मा के पैर सुनाई पडने लगते हैं जिसके कोई पैर नहीं हैं। उस परमात्मा की वाणी आने लगती है जिसकी कोई वाणी नहीं है। उस परमात्मा का स्पर्श मिलने लगता है जिसकी कोई देह नहीं है। सब तरफ से वह मौजूद हो जाता है। जिस दिन हमारे भीतर शांति की वह ग्राहकता उत्पन्न होती है उसी दिन वह सब तरफ मौजूद हो जाता है। फिर वृक्ष की पत्तियों में वही है, राह के पत्थरों में वही है, सागर की लहरों में भी, आकाश के बादलों में भी, आदमियों की आंखों में भी, पशु पक्षियों के प्राणों में भी, फिर सब में वही है। जिस दिन भीतर जीवन की प्रतिध्वनि सुनने की ग्राहकता (त्तमबमचजपअपजल) उपलब्ध हो जाती है, पात्रता उपलब्ध हो जाती है उसी दिन उसके दर्शन मिलने शुरू हो जाते हैं।
पता नहीं उस सम्राट का फिर क्या हुआ। पहा नहीं उस बूढ़े फकीर का फिर क्या हुआ लेकिन मुझे और आपको उससे प्रयोजन ही क्या है। जहां उनकी कहानी खतम होती है अगर वहीं आपकी कहानी शुरू हो जाए तो बात पूरी हो जाएगी।
क्या आप भी अपने भीतर इतने जागने का सतत श्रम करने को तत्पर हैं? अगर हां तो जीवन की संपदा आपकी है। अगर हां तो परमात्मा खुद आपके द्वार चला आएगा। आपको उसके द्वार जाने की जरूरत नहीं। यह बात कठिन मालूम पड़ सकती है क्योंकि जो लोग चलने के आदी नहीं होते, यात्राएं उन्हें बहुत बड़ी और जटिल दिखाई देती हैं। उन्हें डर लगता है कि छोटे से पैर हैं अपने पास। हजारों मील की यात्रा हम कैसे पूरी कर सकेंगे? लेकिन अगर एक कदम भी उठाने के लिए वे तैयार हो गए तो हर उठाया गया कदम आने वाले कदम के लिए भूमि बन जाता है, बल बन जाता है, शक्ति बन जाता है और छोटे से कदमों से आदमी पूरी पृथ्वी की परिक्रमा कर सकता है और छोटे से मन की सामथ्र्य, छोटे से कामों की सावधानी, थोड़े से हृदय की शांति से मनुष्य परमात्मा की परिक्रमा भी कर सकता है।  

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