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मंगलवार, 4 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-03)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्तएं)-ओशो

तीसरा-प्रवचन

पहले सक्रियता फिर अक्रिया

प्रेरणा आपकी होनी चाहिए, होनी चाहिए। तो ही आप जा पाएंगे, अन्यथा आप जा नहीं पाएंगे। बल्कि और पचड़े में पड़ जाएंगे आप। यह हम सारे लोग दूसरे की प्रेरणा से ही चल रहे हैं। इसमें कठिनाई क्या है, यह मामला ऐसा हो गया। अभी मेरे पास एक सज्जन अपनी पत्नी को लेकर आए। पत्नी भली चंगी है, स्वस्थ है। लेकिन कहीं भी किसी पत्रिका में, किसी किताब में, किसी बीमारी का वर्णन पढ़ लेती है तो वही बीमारी उसको हो जाती है।
प्रेरणा पकड़ जाती है उसको।
धर्म-युग में कोई एक निकलता है...एक चिकित्सा से संबंधित हर बार, तो वह उसको पढ़ लेती है। और जो-जो उसमें बताया हो कि इस बीमारी में पेट में दर्द होता है तो उसको पेट में दर्द शुरू हो जाता है। वे परेशान हो गए चिकित्सकों के पास जा-जा कर। वे दवा दे रहे हैं। तुमने कहा, पेट में दर्द है तो दर्द की दवा ले लो।

अब उसको पेट में दर्द है नहीं। पेट का दर्द सिर्फ प्रेरित दर्द है। और दवा और दिक्कत देगी। क्योंकि दवा बीमारी की हो तो बीमारी ठीक करे, नहीं तो बीमारी पैदा करे। तो वह मेरे पास लाए। उन्होंने कहा कि मैं मुश्किल में पड़ गया हूं कि अब यह इसका क्या होगा?
तो मैंने उनसे कहा कि इसको नहीं हो रहा है, यह मेडिकल काॅलेजेज का आम अनुभव है कि क्लास में शुरू-शुरू पहले वर्ष में जिस बीमारी को पढ़ाया जाता है, तीस परसेंट लड़के-लड़कियों को वह बीमारी होनी शुरू हो जाती है। यह आम अनुभव है। क्योंकि बताया जाता है सब वर्णन कि पेट के दर्द में ऐसा-ऐसा होता है। और वह सब अपने पेट पर खयाल पहले चला जाता है कि कहीं हो तो नहीं रहा है? और पेट में थोड़ा बहुत तो कुछ हो ही रहा है। फिर उसको इमेजिनेशन जगह दे देती है, फिर वह प्रेरित हो जाता है।
दुनिया में बहुत सी बीमारियां तो हमारे खयाल की बीमारियां हैं। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि इसी तरह बहुत सी प्रेरणाएं हमारे खयाल की हैं।
एक आदमी ने गीता पढ़ ली। हो सकता था ट्रेन में जा रहा था। कुछ नहीं था तो गीता पढ़ ली। तो गीता में उसने पढ़ा कि भगवान को पाने से बड़ा आनंद मिल जाता है। तो उसे लगा भगवान को पाना चाहिए, क्योंकि आनंद मिल जाता है। भगवान से उसे मतलब नहीं है, मतलब आनंद से है। मतलब आनंद से है। आनंद को अभी खोज रहा था, कभी शराब में, कभी सिनेमा में, कभी सेक्स में। उसने उस किताब में पढ़ा कि भगवान से मिल जाता है।
अब उसने आनंद की तो बात बंद कर दी, वह लोगों से पूछता फिरता है कि भगवान कैसे मिलेंगे? यह बिलकुल फाॅल्स डिजी.ज पकड़ गई उसको। यह जो मामला है, अब यह बेचारा बहुत दिक्कत में पड़ेगा। क्योंकि इसके भीतर कहीं इसका मूलस्रोत नहीं है ईश्वर की खोज का। इसलिए यह पूछेगा भी, करेगा भी कुछ नहीं। कुछ करेगा भी, तो भी कहीं पहुंचेगा नहीं। क्योंकि कभी टोटली पूरा उसमें लग नहीं पाएगा और एक चक्कर में पड़ जाएगा।
मेरी अपनी यह समझ है कि इस तरह की जो प्रेरणाएं हैं, वे हमें बहुत तरह के गलत चक्करों पर डाल देती हैं। आदमी के बड़े से बड़े उलझाव में यह बात है एक, कि आप अपनी सूझ-बूझ से बिलकुल नहीं चलते। कोई सूझ-बूझ दे रहा है आपको। बाप बेटे को पिला रहा है; मां बेटी को पिला रही है, स्कूल पिला रहा है; काॅलेज पिला रहा है; गुरु, साधु, संन्यासी, सब हैं भिड़े हैं--इन सबको सुधारने के लिए लगे हुए हैं। और ये सब मिल कर बिगाड़ डालते हैं। क्योंकि इतनी, इतनी प्रेरणाएं दे देते हैं कि उस व्यक्ति की क्या प्रेरणा थी, उसका उसे पता ही नहीं रह जाता कि उसके पास अपनी भी कोई प्रेरणा थी।
तो मैं तो यह भी कहता हूं कि जैसे शास्त्र से बचना, ऐसे ही प्रेरणा से भी बचना। ताकि अपनी प्रेरणा आपको पता चल सके कि आपकी खुद की जिंदगी की क्या पे्ररणा है? आप क्या चाहते हैं? आज अगर हम किसी लड़के से पूछेंगे कि वह क्या चाहता है, तो वह पक्का नहीं है कि जो वह कह रहा है वह वही चाहता हो। हो सकता है उसका बाप जो चाहता है, वह कह रहा है। वह कह रहा है, मैं इंजीनियर बनना चाहता हूं, यह उसका बाप चाहता है। यह बेचारा फंसा। और इसकी जिंदगी भर फंसाव में पड़ जाएगी। क्योंकि बाप इसका चाहता था कि इंजीनियर बने, और इसने समझा कि यह अपनी प्रेरणा हो गई।
यह सारी जो कठिनाई है, यह मनुष्य को विकृत करती है, स्वस्थ नहीं करती। मेरी अपनी समझ यह है कि शास्त्रों को प्रेरणा की तरह भी मत पढ़ना। शास्त्र को सिर्फ परिचय की तरह पढ़ना। परिचय की तरह, एक्वेंटेंस की तरह। गीता क्या कहती है, और जल्दी से इसको प्रेरणा मत बनाना। बनाना ही मत प्रेरणा। यह बड़े मजे की बात है कि यह मुझे अपनी प्रेरणा अपने से ही खोजनी चाहिए कि मैं क्या पाना चाहता हूं। कई बार ऐसा होता है कि आप कंकड़ पाना चाहते हैं और हीरा खोजने निकल जाते हैं। हीरा मिल जाए तो तृप्ति न मिलेगी। क्योंकि पाना चाहिए था कंकड़ आपको, और न मिले तो अतृप्ति रहेगी। और कंकड़ तो कभी मिलेगा नहीं, क्योंकि उसको आप पाने नहीं निकलते।
जिंदगी में जो आपको पाने को लगता हो, उसकी भीतर खोज करना। बाप से बचना, मां से बचना, गुरु से बचना, शास्त्र से बचना, औैर इसकी खोज करना कि मैं भी तो...गुरु, बाप, मां, स्कूल, कालेज के अलावा मेरा भी तो कोई अस्तित्व है। और मैं क्या पाने के लिए यहां इस जगत में हूं? कि मैं कुछ पाने के लिए नहीं हूं? बस मैं दूसरों की इच्छाओं का जोड़ हूं और दूसरों की सलाहों का जोड़ हूं? तो मैं आदमी न हुआ एक बंडल हो गया। जिसमें कि कुछ है ही नहीं भीतर। तो मुझे अपनी खोज कर लेनी चाहिए। और जैसे ही आपको अपनी प्रेरणा का पता चल जाएगा कि यह रहा मेरा स्रोत, वैसे ही आपकी जिंदगी में चमक आनी शुरू हो जाती है। क्योंकि यह आपकी खोज थी।
खोज असल में रास्तों से नहीं होती। आपके भीतर की सहज प्रेरणा से होती है। अब जैसे हमारा मुल्क है, जो आदमी देखो वही धार्मिक है। यह असंभव है बात! आप फ्रांस में जाओ, पेरिस में जाओ, तो जो आदमी देखो वही पेंटर। यह असंभव है बात!
लेकिन पेरिस में हवा है पेंटिंग की। तो जो भी आदमी सुसंस्कृत है वह अगर कहे कि मैं पेंटिंग नहीं जानता तो असंस्कृत है। तो जिसको भी जरा सुसंस्कृत होने का झक है, तो वह अपना पेंट कर रहा है। हिंदुस्तान में जिसको भी जरा लगा कि अच्छा आदमी होना है, वह संन्यासी हुआ जा रहा है।
व्यक्ति की निजी प्रेरणा असली बात है। दूसरे की प्रेरणा से भी बचना। हालांकि दूसरों को बहुत मजा आता है आपको प्रेरणा देने में। उसे बहुत मजा आता है। क्योंकि मेरी अपनी समझ में दूसरे को प्रेरणा देने में जो मजा है वह एक तरह की हिंसा का मजा है, वायलेंस का मजा है।
जब हम किसी आदमी को बनाने की कोशिश में लग जाते हैं कि ऐसा बनाएंगे, तब हम उसके साथ खिलौने का खेल शुरू करेंगे। हमारी मुट्ठी में बांध लिया। अब यह हमें दिखाई नहीं पड़ता। एक बाप कहता है मैं अपने बेटे को अच्छा बना कर रहूंगा। तब वह एक ढांचा बनाएगा। बेटे के हाथ जरा लंबे होंगे तो छांटेगा। पैर जरा बड़ा होगा तो सफाई करेगा। और वह बेटे को छांट-छूंट कर बना कर खड़ा कर देगा। वह उसकी इच्छा का सबूत तो होगा, लेकिन वह जिंदा आदमी नहीं रह जाएगा। वह मर चुका होगा यह सब बनाने में।
इसलिए बनाना जो है, हमारे मन की बड़ी सूक्ष्म हिंसा है।
और दुनिया में किसी की छाती में छुरा भोंकने से बचना बहुत आसान है। आमतौर से कोई भोंकता नहीं, लेकिन दूसरे की छाती में सलाह भोंकने से बचना बहुत कठिन है। क्योंकि वह दिखाई नहीं पड़ती। हो जाता है छुरा ही वह। आखिर दूसरा, हम जैसा चाहते हैं वैसा हो, यह बात ही बेहूदी है। दूसरा जो होना चाहता है, वह हो। लेकिन हम अब तक इसके लिए राजी नहीं हुए दुनिया में। इसलिए अच्छी दुनिया पैदा नहीं हो पाई। कोई आदमी राजी नहीं है कि लोग अपने जैसे हो जाएं। सब बनाने में लगे हुए हैं। पत्नी पति को बना रही है; पति पत्नी को बना रहा है। सब बना रहे हैं। एक दूसरे को सब बनाने में लगे हुए हैं। तो उसको ठीक करना है। वह जो कई स्त्रियां मिल कर यह कहती हैं कि हम अपने पति को ठीक न कर सके, तो वह बिगड़ जाता है।
मैंने कहा कि बिगड़ जाता तो भी जिंदा होता, अब वह बिलकुल मरा-मरा है। और बिगड़ा हुआ जिंदा आदमी बेहतर होता है, मरे हुए बने-बनाए से। और वह बिलकुल गोबरगणेश हो गया है। उसको बना-बनू कर तैयार कर दिया है बिलकुल। वह बिलकुल आज्ञाकारी हो गया है, इसमें गई उसकी जान। तो मजा तो मिल गया कि बना दिया बिलकुल, लेकिन वह आदमी जिंदा भी रह गया है कि नहीं। यह, यह खयाल से बाहर उतर जाता है।
महात्मा हैं, साधु हैं, संन्यासी हैं, इनको जो मजा है, वह बड़ी हिंसा का मजा है। तो मैं नहीं कहता कि प्रेरणा लें, मैं तो इतना ही कहता हूं कि अपनी प्रेरणा खोजें। और अगर आपको अपनी प्रेरणा मिल जाए तो आपके समतुल्य प्रेरणाएं कितनी हैं इस जगत में, उनसे आपका तालमेल बैठ जाएगा। वह बिलकुल दूसरी बात है। पर आपकी प्रेरणा तो होनी चाहिए पहले, जिससे तालमेल बैठ सके। अगर आपके संगीत की खोज है, तो किसी रविशंकर से आपका तालमेल बैठ जाए, यह दूसरी बात है।
लेकिन संगीत की खोज ही नहीं। रविशंकर को देखा सितार बजाते, प्रेरित होकर खरीद लाए सितार और बजाने लगे। अब इसमें एक सितार भी खराब हुआ, आप भी खराब हुए। और जो आप बन सकते थे, वह भी न बन पाएंगे। और एक दुख की दुनिया शुरू हो गई। तो हमारी सारी कठिनाई, प्रेरणा भी एक बड़ी कठिनाई है। और उससे बचने की जरूरत है और दूसरे को प्रेरणा देने से भी बचने की जरूरत है।

प्रश्नः अब तक मैंने आपके बहुत भाषण सुने, बहुत कुछ पुस्तकें देखी हैं, विशेष रूप से जो साधना पर हैं, वह मुझे बहुत पसंद आईं। और साधना शिविर में जो डायरेक्शंस आपने दिए, आरंभ में उसमें भी यही था कि यानी मन के जो संकल्प-विकल्प हैं, वे नहीं आने चाहिए। यानी क्रियाहीनता का मालिक, शून्य का मालिक, मन में संकल्प हो जाए, कुछ इस प्रकार का था। अब यहां जो साधना बताई गई, उसमें क्रिया की बहुलता है, तो इसमें कुछ विरोधाभास मुझे ऐसा लग सकता है...

लग सकता है, विरोधाभास है नहीं। असल में हम चीजों को दो हिस्सों में तोड़े बिना रह ही नहीं पाते। हम तो चीजों को दो विरोधी हिस्सों में तोड़ कर देखते हैं। हम कहते हैं यह है अंधेरा, और यह है प्रकाश। लेकिन जिंदगी में अंधेरा और प्रकाश दो चीजें नहीं हैं। जिंदगी में एक ही चीज की तारतम्यता अंधेरा और प्रकाश है। एक ही चीज की डिग्री। दो चीजें नहीं हैं। हां, एक ही चीज की डिग्री। जिसको हम प्रकाश कहते हैं वह उसी चीज की सघन डिग्री है। जिसको हम अंधेरा कहते हैं वह उसी की विरल डिग्री है। अंधेरा और प्रकाश ऐसी दो दुश्मन जैसी चीजें नहीं हैैं। ऐसे ही क्रिया और अक्रिया दो दुश्मन चीजें नहीं हैं। और दोनों तरफ से यात्रा हो तो भी एक ही जगह पहुंचते हैं आप। क्योंकि बहुत गहरे में दोनों एक हैं।
तो जब मैं कहता हूं अक्रिया--अक्रिया का मार्ग है। अगर सब क्रिया छोड़ कर निष्क्रिय हो सकें, और सब विचार छोड़ कर निर्विचार हो सकें, तो समाधि में पहुंच जाएंगे। लेेकिन आप न विचार छोड़ पाते हैं, न क्रिया छोड़ पाते हैं। तो मैंने अनुभव यह किया कि शायद हजार में एक आदमी मुश्किल से मुझे मिल पाता है जो सीधा अक्रिया में जा सके।

प्रश्नः तो उनको विशेष रूप से लाभ भी हुआ?

न-न, आपको हो सके तो बिलकुल उसे करिए, यह सवाल नहीं है। यह सवाल नहीं है। अगर हो सके तो उसे करें और चले जाएं, उससे। जो मैं कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि मुश्किल से हजार में एक आदमी सीधा अक्रिया में जा सकता है। तब मुझे खयाल करना पड़ा कि कठिनाई क्या है? मुझे तो कभी खयाल में नहीं थी यह बात। क्योंकि मुझे तो अक्रिया में जाना इतना सरल है, जितना क्रिया में जाना सरल नहीं है। तो मैं इस कठिनाई में पड़ा कि मामला क्या है? हजार आदमियों को करवाता हूं। कभी एक को, दो को गहराई आती है। बाकि नौ सौ अट्ठानवे तो खाली रह जाते हैं।
तो मुझे यह खयाल में आया कि ये नौ सौ निन्यानबे जो लोग हैं ये सीधे अक्रिया में नहीं जा सकते। इन्हें पहले क्रिया के पूरे तनाव में ले जाना जरूरी है। जब ये क्रिया के पूरे क्लाइमेक्स पर पहुंच जाते हैं, तो वहां से छोड़ने से इनको अपने आप अक्रिया में जाना पड़ता है।
यह जो मामला है, जैसे कि मेरा हाथ है, और आप मुझसे कहें कि इसे शिथिल कर दो, तो मैं कहूंगा कि कैसे शिथिल कर दूं? तो ठीक है छोड़ दिया, मगर इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता जैसा यह पहले था, वैसा ही है। तब मुझे खयाल में आया कि इस हाथ को बांधो मुट्ठी जोर से और जितनी ताकत से बांध सकते हो, पूरी ताकत इस पर लगा दो कि तुममें ताकत ही न बचे और जब यह पूरा टेंस हो जाए, तब मैं आपसे कहता हूं कि रिलैक्स करो। तो अब आपको तत्काल...ये दो अतियों के कारण तत्काल गति हो जाती है।
तो मैंने यह अनुभव किया कि इस प्रयोग में जो आपको करवा रहा हूं, यह कोई सिक्सटी परसेंट लोगों को, सौ में से साठ लोगों को भी संभव होगा। वे जब पूरी तीव्र क्रिया में चले जाते हैं, क्योंकि है तो ले जाना अक्रिया में ही। वह जो आखिरी चरण है, मैं अक्रिया में ले जाता हूं।...हां, तो वे जो तीन चरण हैं, वे क्रिया में तीव्रता लाने के हैं। वह इतनी तीव्र हो जाए कि फिर आपको खुद ही लगने लगे कि अब जल्दी कहो कि छोड़ो। यानी मुझे न कहना पड़े कि क्रिया छोड़ो, आप ही रास्ता देखने लगो कि अब और दो मिनट बचे हैं, किस तरह अब यह छूटे और आराम में चले जाएं। आप टेंशन में जब पूरे चले जाते हैं तो नाॅन-टेंशन में जाना आपके लिए एकदम सहज हो जाता है।
और जिसको सीधा हो सकता हो, उसकोे करने की कोई भी जरूरत नहीं। लेकिन फिर भी करके देख लेना। क्योंकि सीधे से जितनी गहराई मिली है, जरूरी नहीं है कि वह बहुत गहरी हो, वह उथली भी हो सकती है। और इससे जो गहराई मिले अगर वह उससे ज्यादा मिलती हो तो भी इसका उपयोग है। जैसे कि कुछ मित्र जो उससे प्रयोग कर रहे थे, उन्होंने भी जब इससे किया तो उन्होंने कहा कि इससे हमारी गहराई बहुत बढ़ गई। उसके कारण हैं।
हमारा माइंड जो है एक्सट्रीम से बदलना, बहुत उसे आसान होगा। एकदम आसान होगा। जैसे एक आदमी से हम कहें, एक बच्चे को हम कहें कि कोने में बैठ जाओ शांत होकर। तो वह बैठ भी जाएगा तो भी वैसा करता रहेगा। क्योंकि हम कह दिए हैं तो वह बैठ गया उस कोने में। तो जो काम वह पूरे कमरे में घूम कर करता, वह वहीं करेगा। अब एक रास्ता यह है कि हम उससे कहें कि पहले मकान के पचास चक्कर लगाओ। और वह मकान के पचास चक्कर लगा रहा है। और वह कहता है कि पच्चीस हो गए, अब मैं रुक जाऊं? हम कहते हैं कि नहीं, तुम पूरे पचास पूरे करो। अब पचास चक्कर...वह बार-बार कहता है कि अब बहुत हो गया, हम रुक जाएं? हम कहें कि नहीं, पहले पचास पूरे करो। अब हम उससे कहते भी नहीं हैं कि कोने में बैठ जाओ। पचास पूरे हुए कि नहीं वह कोने में बैठ गया।
अब जो बैठ जाना है उसका, यह बेसिकली डिफरेंट है। डिफरेंस जो है वह यह है कि अब जो भीतर की गति थी वह खुद ही शिथिल होने के लिए तैयार हो गई। और इस शिथिलता में गहराई ज्यादा संभव है। लेकिन अगर पहले प्रयोग से होती हो...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

नहीं होता, नहीं होता। यह, यह जो मैं आपसे कह रहा हूं यह प्रयोग कभी भी नहीं कहा गया है। उसके कारण हैं। योगासन का यह लक्ष्य नहीं है, योगासन का यह लक्ष्य नहीं है। योगासन के लक्ष्य बहुत इससे बिलकुल विपरीत हैं। इससे बहुत भिन्न हैं। यह तो जो मैं कह रहा हूं, यह तो इसको कहना चाहिए एक्सपेरिमेंट इनटेंशन है यह। यह तो तनाव की एक प्रक्रिया है। इतने तनाव की प्रक्रिया है कि आप बिलकुल पागल हो जाएंगे।
लेकिन इसमें एक मजा है, कि चूंकि पागलपन इंटेंशनल है, क्योंकि आप ही उसे पैदा कर रहे हैं, इसलिए किसी भी सेकेंड छोड़ सकते हैं। और छोड़ते से वह विदा हो जाएगा। एक तो पागलपन वह है जो आप पर आ जाए, आ जाए तो आपके हाथ के बाहर है छोड़ना। यह तो एक ऐसा पागलपन है, जो हम खुद पैदा कर रहे हैं। और क्योंकि हम खुद पैदा कर रहे हैं इसलिए हम एक अर्थ में सदा इसके बाहर हैं। सब तरह से पैदा कर लें तो भी भीतर एक सूत्र पर हम बाहर खड़े हैं और हम जानते हैं कि (अस्पष्ट...)वह भी आप हो जाता है। क्योंकि (अस्पष्ट...)यह सारा का सारा हमने पैदा किया है। इंटेंशनल है, वाॅलेंटरी है।
और चूंकि वालेंटरी है इसलिए इसमें दोहरे फायदे हैं। एक तो हम अलग रहते हैं और पागलपन अलग हो जाता है। जब आपका शरीर भी नाच रहा है तब भी आप अलग होकर देख पाते हैं कि मेरा शरीर नाच रहा है या मैं रो रहा हूं। और एक रोना और है कि आपकी पत्नी मर गई है और आप रो रहे हैं, तब आप अलग नहीं हो पाते हैं कि यह कोई और रो रहा है और मैं देख रहा हूं। तब अलग होना असंभव है। क्योंकि आप ही क्रिया कर रहे हैं। और आप चाहें कि इसी वक्त रोक दूं रोना। तो आप नहीं रोक सकते, क्योंकि वह आपके हाथ से आया हुआ नहीं है।
यह क्योंकि आपके हाथ से आया हुआ है, आप पूरे वक्त बाहर होते हैं, इसलिए साक्षी का अनुभव बड़े सहजता से हो जाता है। और दूसरी बात यह है कि इसको चूंकि किसी भी वक्त समाप्त किया जा सकता है। तो आप तनाव का भी अनुभव कर लेते हैं और उसके साथ ही तत्काल, गैर-तनाव का भी अनुभव कर लेते हैं। इसलिए कंपेरिजन में आपको फासले साफ दिखाई पड़ते हैं, कंट्रास्ट में। क्योंकि सीधा आप जब शिथिल होते हैं तो आपको कुछ पता ही नहीं चलता कि क्या हुआ है।
यह ऐसे कि जैसे हम काले पत्ते पर सफेद अक्षर से लिख रहे हैं। और अगर काला पत्ता तीस मिनट में तैयार करते हो और वह दस मिनट में सफेद अक्षर। वह पूरा दोनों आपको साफ दिखाई पड़ जाएगा--ये मेरे दो एक्सट्रीम, यह मेरा माइंड, यह दो काम कर सकता है। इतने तनाव में जा सकता है, इतनी शांति में जा सकता है। ये दोनों छोर हैं मेरे। ये आपको बहुत साफ सामने खड़े हो जाते हैं दोनों। और इसके फायदे तो अदभुत हैं, इसलिए कि एक दफा अगर आप वाॅलेंटरी पागलपन पैदा करने में समर्थ हो गए, तनाव करने में समर्थ हो गए तो धीरे-धीरे वह जो नाॅन-वाॅलेंटरी है, उसके भी आप बाहर हो जाएंगे।
गुरजिएफ एक फकीर था। तो वह, अगर कोई उसके पास जाता कि मुझे क्रोध बहुत आता है। अगर अभी आज मुझे कह दे कोई कि क्रोध बह‏ुत आता। उसके पास गया होता तो वह एक काम करता। वह कहता, अगर क्रोध आता है तो वह कहता कि पंद्रह दिन यहां रहो और जो भी तुम्हें मौका मिले, जितना तुम क्रोध कर सको, करो। फिर वह हजार मौके जुटाता। और वह वालेंटरी क्रोध करवाता। पूरा क्रोध करो। क्रोध आता है तो पूरा करो। उसे रोको मत। हाथ-पैर पटकना है, पटको। सामान तोड़ना है तोड़ो, पूरी तरह करो।
लेकिन जब पूरी तरह वालेंटरी कोई क्रोध करता है तो फौरन साक्षी हो जाता है। साक्षी होते ही उसे पता चलता है कि मैं क्या कर रहा हूं? अच्छा, चूंकि उसका खुद का किया हुआ है, वह अब भी आप कर सकता है। और एक दफा जब क्रोध को आॅन-आॅफ करना आ गया, तो आप असली क्रोध को भी आॅन-आॅफ कर सकते हैं, क्योंकि फर्क दोनों में नहीं है। बात तो वही है। लेकिन बटन का पता नहीं था कि यह आॅन-आॅफ हो सकती है।
तो यह जो तनाव का प्रयोग है, ये अगर आप करते तो आप किसी भी तनाव को इसी तरह फौरन आॅफ कर सकते हो कि देखो इसका अनुभव है क्या? किसी भी तनाव को। यानी मेरी तो अपनी समझ यह है और अभी इस पर एक, एक व्यवस्था जैसी कर रहे हैं कि पागल को भी यह प्रयोग कराया जा सके, तो इक्कीस दिन में उसको पागलपन के बाहर किया जा सकता है। इतनी फिर होश उसमें हो कि वह प्रयोग करने को राजी हो सके, बस। बिलकुल बाहर किया जा सकता है। क्योंकि हम उसको पूरे टेंशन पर ले जा सकते हैं पागलपन केे। और जब वह खुद ही देख ले कि पागलपन लाया और ले जाया जा सकता है, अपने हाथ की बात है तो फिर पागलपन के हाथ में नहीं रह जाएगा वह।
जो चीज हमारे हाथ की बात है, उसके हाथ में हम नहीं जा पाते। तो इसलिए मैं मानता हूं कि बजाय अच्छाई को हाथ में करने के बुराई हमारे हाथ की बात है, यह हमें साफ-साफ पता होना चाहिए। तब फिर हम उसके हाथ के शिकार नहीं रह जाते, नहीं। और मैं तो हर शिविर में ध्यान की पद्धति बदल देता हंू। बदलने का कारण है, आपको एक पद्धति ठीक मालूम पड़ी तो आप सीधे से उस पर चल पड़े। लेकिन इनको वह पद्धति ठीक मालूम नहीं पड़ी, अब इनको उसमें क्यों अटकाए रहंू। इनको मैं दूसरी पद्धति कहता हंू। वह उनको ठीक से पड़ जाती है, उससे चल पड़े।
तो ध्यान के एक सौ बारह प्रयोग संभव हैं, और सब कारगर हैं। मेरी तो तकलीफ यह है कि एक ही प्रयोग को चलाने में इतनी मुसीबतें आती हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। तो वे सब प्रयोग चलाए जा सकते हैं। और वे एक सौ बारह प्रयोग टोटल। ऐसा एक आदमी नहीं बचेगा फिर, जिसको कोई न कोई प्रयोग कारगर न हो जाए। यानी अभी जो हमको लगता है कि मुझको नहीं होता, उसका बहुत कारण तो हमें टेक्नीक सूट नहीं पड़ता, और कोई कारण नहीं हो सकता। न आपके पिछले जन्म का सवाल है; न आप शराब पीते हैं, इसका सवाल है; न सिगरेट पीते हैं, इसका सवाल है। ये सब बेमानी बातें हैं। इररेलिवेंट है। गहरे में सवाल यह है कि जिस-जिस टेक्नीक से हम कर रहे हैं, वह टेक्नीक आपको सूट नहीं कर रहा, बस और कोई कारण नहीं है।
तो जो टेक्नीक सूट पड़ जाए। इसलिए उसमें कंट्राडिक्शन न लेंगे। वह तो मैं बहुत विभिन्न...उनमें भेद हैं, विरोध नहीं हैं। बुनियाद में तो वहीं ले जाने की बात है।

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