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बुधवार, 5 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-06)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरंग-वार्ताएं) 

छठवां-प्रवचन-ओशो 

गुरु होना आसान है, शिष्य बनना मुश्किल


(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

ऐसा होने का कारण है। थोड़े नहीं, बहुत कारण हैं। एक तो धर्म सदा ही नई चीज है, सदा। धर्म सदा ही नई चीज है। धर्म कभी पुराना नहीं पड़ता। पड़ ही नहीं सकता। लेकिन हमारी सब मान्यताएं पुरानी पड़ जाती हैं। धर्म तो सदा नया है। लेकिन मान्यताएं सब पुरानी हो जाती हैं। इसलिए जब भी धर्म फिर से जाग्रत होगा, फिर से कभी भी किसी व्यक्ति से प्रकट होगा, तब मान्यताओं वाले सभी व्यक्तियों को अड़चन और कठिनाई होगी। ऐसा एक दफा नहीं होगा, हमेशा होगा। चाहे कृष्ण पैदा हो, तो उस जमाने का जो पुरोहित है, उस जमाने का जो तथाकथित, सो-काल्ड रिलीजियस आदमी है, वह कृष्ण के खिलाफ हो जाएगा।
वह इसलिए खिलाफ हो जाएगा कि उसके पास तो पुरानी मान्यताएं हैं और यह आदमी धर्म को फिर नया रूप देगा। यह नया रूप उस अंधे आदमी की पकड़ में नहीं आएगा। उसको यह भी पता नहीं चलेगा कि वह जिसे बचा रहा है, वही अधर्म है। और जिसके खिलाफ लड़ रहा है वह धर्म है, उसे यह पता नहीं चलेगा। उसे तो पता चलेगा कि मैं जो पकड़े हुए था वह ठीक था। और अब कोई आदमी उसे गलत किए दे रहा है।

इसलिए यह जो तथाकथित धार्मिक आदमी है, सो-काल्ड रिलीजियस है, यह अधार्मिक से न लड़ेगा कभी भी। यह सदा धार्मिक से ही लड़ेगा। अधार्मिक से इसको कोई डर नहीं मालूम पड़ेगा। लेकिन धार्मिक से इसको डर मालूम पड़ेगा। तो वह चाहे कृष्ण हो; चाहे क्राइस्ट हो; चाहे नानक हो; चाहे कोई भी हो, जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में फिर से धर्म का जागरण होगा, तब फिर धर्म नये रूप में जन्म लेगा। नई भाषा लेगा; नये आकार लेगा; और पुराने आकार जो आदमी पकड़े बैठे हैं जो सिर्फ आकार रह गए हैं, जड़ हो गए हैं, मर गए हैं, उनसे टक्कर शुरू हो जाएगी।
अगर आज फिर नानक पैदा हो जाएं, तो आप यह मत समझना कि सिक्ख उनसे नहीं लड़ेगा, सिक्ख भी उनसे लड़ जाएगा। क्योंकि नानक फिर नई भाषा बोलेंगे। पांच सौ साल का फर्क पड़ जाएगा। पांच सौ साल में नानक फिर नई भाषा बोलेंगे। सिक्ख भी लड़ जाएगा। वह भी कहेगा कि यह क्या बात कह रहे हैं? तो ऐसा नहीं है।
एक बहुत प्रसिद्ध...दोस्तोवस्की ने एक कहानी लिखी है। दोस्तोवस्की ने लिखा है कि जीसस क्राइस्ट ने अट्ठारह सौ साल बाद सोचा कि अब तो सारी जमीन पर आधे लोग ईसाई हो गए। अब अगर मैं जाऊं तो ठीक से स्वागत होगा। क्योंकि जब मैं गया था तब तो एक ईसाई न था। सब यहूदी थे। उन्होंने मुझे फांसी लगा दी। अब तो आधी जमीन पर मेरे अपने आदमी हैं। सारी जमीन चर्च से भर गई है। तो अब तो मेरा स्वागत ही स्वागत है। अब तो जो मैं कहूंगा लोग तत्काल राजी हो जाएंगे। अब ठीक वक्त है।
तो उस कहानी में जीसस उतरते हैं। और जेरुसलम में जहां बड़ा चर्च है उनका, उसके सामने खड़े हो गए हैं। सुबह है, रविवार का दिन, चर्च से लोग निकल रहे हैं। लोगों ने देखा कि एक ठीक जीसस जैसा आदमी खड़ा है, तो लोगों ने भीड़ लगा ली। और लोगों ने कहा कि रूप-रंग तो बिलकुल ठीक बनाया है। बिलकुल जीसस जैसे जंच रहे हो, कोई बहरूपिए मालूम पड़ते हो। तो जीसस ने कहा कि नहीं, नहीं तुम समझे नहीं, मैं जीसस ही हूं। और मैं फिर से आया हूं, क्योंकि अब तो मेरे प्रेम करने वाले लोग हैं। तुम भी मुझे नहीं पहचान पा रहे, क्योंकि तुम मेरी ही प्रार्थना करके निकल रहे हो चर्च से। उन्होंने कहा कि छोड़ो मजाक। गंभीर हो जाएगा मामला। हमारा पुरोहित बाहर निकलने वाला है, आर्च प्रीस्ट। अगर उसने देख लिया तो सजा पाओगे, भाग जाओ। पर उन्होंने कहा कि वह तो मेरा ही पुरोहित है। वह भी मुझे नहीं पहचानेगा? तभी पुरोहित आ गया। कोई पत्थर फेंकने लगा, कोई कंकड़, कोई गाली बकने लगा कि यह आदमी हमारे जीसस का अपमान कर रहा है, जीसस बनकर। दूसरा आदमी जीसस कैसे हो सकता है? वह हो गया एक दफा। वह यूनीक है। अब दुबारा कोई आदमी वैसा नहीं हो सकता। यह आदमी मखौल उड़ा रहा है। जीसस के लिए एक आदमी ने आदर नहीं दिखाया। वह जो आर्च प्रीस्ट मंदिर से निकला था, सारे लोगों ने झुककर उसे प्रणाम करके उसके पैर छुए।
जीसस बहुत हैरान हुए कि मेरे पुरोहित के पैर छुए जा रहे हैं। और मैं खड़ा हूं, मेरी मजाक उड़ाई जा रही है, तब तो मैंने समझा था पुरोहित दूसरे का, अब तो अपना ही है, पर कम से कम पुरोहित तो पहचानेगा। उस पुरोहित ने ऊपर आंख उठाई और कहा बदमाश, नीचे उतर! यह काम बहुत ही पापपूर्ण है कि कोई आदमी जीसस की तरह बनकर खड़ा हो जाए। वह इकलौता बेटा है परमात्मा का। दूसरा कोई उसका मुकाबला नहीं। और लोगों से कहा, पकड़ो इस बदमाश को। यह हमारे धर्म का मजाक उड़ा रहा है। जीसस ने कहा, तुम भी मुझे नहीं पहचाने। तुम मेरे सबसे बड़े पुरोहित हो, वह जो क्रास तुम लटकाए हुए हो, वह मेरा है। तुम भी मुझे नहीं पहचाने? उसने कहा, मैं ठीक पहचान गया। लेकिन तब तक तो उसके हाथ बांध दिए गए हैं। जीसस को जाकर कोठरी में बंद कर दिया गया।
जीसस बहुत हैरान हैं कि यह दूसरे की कोठरी थी, जब मैं अट्ठारह सौ साल पहले बंद किया गया था, यह अब अपनी कोठरी है। लेकिन अपना पुरोहित भी ऐसा करेगा? तब जीसस सोचते हैं कि पुरोहित सदा ऐसा करेगा, वह किसका है, इससे फर्क नहीं पड़ता।
आधी रात को दरवाजा किसी ने खोला। दीया भीतर लेकर वह पुरोहित अंदर आया। दीया रख कर जीसस के चरणों पर गिर पड़ा, और उसने कहा, पहचान तो मैं उसी वक्त गया था। लेकिन तुम सदा के डिस्टर्बर, तुम सब गड़बड़ कर दोगे। सब हमने जमाया अट्ठारह सौ साल में। अब सब बिलकुल ठीक चल रहा है, अब तुम्हारी कोई जरूरत नहीं। हम तुम्हारा काम, तुम्हारा (7ः32..अस्पष्ट)... बिलकुल ठीक से कर रहे हैं। तुम्हारे और जनता के बीच में हम पूरा काम कर रहे हैं। अब तुम्हें वापस आने की जरूरत नहीं। अन्यथा तुम फिर सब गड़बड़ कर दोगे। तुम्हें पहचान गया था भलीभांति, लेकिन भीड़ में हम तुम्हें नहीं पहचान सकते। एकांत में हम तुम्हें पहचान लेंगे। भीड़ में तुम आए तो मुझे मजबूर मत करना, नहीं तो हमें तुम्हें फिर सूली लगानी पड़ेगी। यू आर द ओल्ड डिस्टर्बर। वह कह रहा है कि तुम सदा के उपद्रवी हो। क्योंकि तुम फिर वही गड़बड़ बातें करोगे, जिनसे कि सारा जमा जमाया अस्त-व्यस्त हो जाए।
तो जो कठिनाई है वह यह है कि जब भी हम एक मान्यता को पकड़ लेते हैं, जब हम पकड़ते हैं तब तो उस मान्यता का जीवित व्यक्ति साथ होता है। लेकिन वह व्यक्ति तो विदा हो जाता है। हमारे पास तो उस जैसा कोई अनुभव नहीं होता, सिर्फ उसके शब्द रह जाते हैं। और उन शब्दों का अर्थ हम निकालते हैं। जब नानक की वाणी में आप अर्थ निकालते हैं तो इस भूल में कभी मत पड़ना कि यह नानक का अर्थ है, यह नानक का तो कभी हो नहीं सकता। क्योंकि नानक का अर्थ नानक की हैसियत का आदमी ही निकाल सकता है। आप नहीं निकाल सकते। आप जो भी अर्थ निकालेंगे, वह गलत होने वाला है। आप कितना ही अच्छा अर्थ निकालेंगे वह आपसे ही निकलेगा और आपकी चेतना का जो तल है, आपकी कांशसनेस जहां तक है, उतना ही अर्थ होगा, उससे ज्यादा नहीं हो सकता।
तो नानक विदा हो जाएंगे। नानक को प्रेम करने वाला आदमी रह जाएगा। और ऐसे लोगों को प्रेम करने वाला तो मिल ही जाएगा। यह जो प्रेम करने वाला है इसके पास शब्द रह जाएंगे, याद रह जाएगी, वह उसको सजा कर, संवार कर रख लेगा। रखनी ही चाहिए। लेकिन उसमें से जो भी अर्थ वह निकालेगा वे उसके अपने होंगे। और कल अगर नानक फिर वापस लौट आएं, तो नानक जो अर्थ निकालेंगे वे वही नहीं होने वाले हैं जो अनुयायी ने निकाले थे। फिर झगड़ा उससे ही खड़ा हो जाएगा। झगड़े की जो कठिनाई है वह कांशसनेस के लेयर्स की कठिनाई है। वह इतनी बड़ी कठिनाई है, जिसका कोई हिसाब नहीं। और तब हम फिर लड़ जाएंगे कि यह तो गलत बात हो गई। क्योंकि अब देखें मजा। अब यह बहुत मजे की बात है, लेकिन कैसे चेतना बदलती है, और कैसी दिक्कत आती है?
नानक को हम गुरु कहेंगे। जब कि नानक का कुल जोर इस पर है कि आप शिष्य हों। उनका गुरु होने पर जोर जरा भी नहीं है। जोर है कि आप शिष्य हों। उस शिष्य से ही सिक्ख बना। सिक्ख कोई धर्म नहीं है। वह सिर्फ डिसाइपलशिप है, वह कोई रिलीजन नहीं है। वह कोई पंथ नहीं है। सिक्ख का मतलब हैः वह आदमी जो शिष्य होने को तैयार हो। द एटीट्यूड आॅफ डिसाइपलशिप जिसमें है, जो सीखने को तैयार है, वह सिक्ख है।
तो जोर तो इस पर है कि आप शिष्य बनें, लेकिन हम शिष्य तो नहीं बनेंगे। हम उनको गुरु बना लेंगे। यह बिलकुल उलटी बात है। इसमें बहुत फर्क है। इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। जब हमें शिष्य बनना पड़ेगा तो हमें बदलना पड़ता है। और जब हम दूसरे को गुरु बनाते हैं तो हमें बदलने की कोई जरूरत नहीं रह जाती, सिर्फ पूजा करना काफी होता है। शिष्य बनना बड़ी मुश्किल की बात है। गुरु बनाना बहुत आसान मामला है। आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता, वह दूसरे का मामला है।
एक आदमी को आप गुरु कह देते हैं, आप निपट गए। आपने आदर दे दिया, बात समाप्त हो गई। लेकिन अगर आपको शिष्य बनना हो तो आपको पूरी जिंदगी बदलनी पड़ेगी। वह कठिन मामला है। शिष्य बनना बहुत कठिन है। गुरु बनाना बहुत आसान है। क्योंकि गुरु बनाने से ज्यादा आसान और क्या होगा? क्योंकि गुरु बनाने में आपको कुछ भी नहीं करना है। आपका कोई संबंध नहीं गुरु बनाने से। सारा जोर, सदा उन लोगों का जोर, जो जानते हैं, इस बात पर है, कि आप सीखो। लेकिन हमारा जोर यह है कि आप सिखाने वाले हो। हमारा जोर तत्काल बदल जाता है। हम फौरन कहते हैं कि तुम हो गुरु। और हम तुम्हें आदर देते हैं। अब यह बड़े मजे की बात है, कि नानक तो कम से कम गुरु बनने को राजी नहीं हो सकते। दुनिया का कोई भी वह आदमी जो गुरु की हैसियत का है, यानी जो गुरु बन सकता है, वह गुरु बनने को राजी नहीं होगा; और जो गुरु बनने को राजी होगा, वह गुरु बनने की हैसियत का नहीं होता।
जो भी आदमी गुरु बनने की स्थिति में है, वह तो कहेगा परमात्मा गुरु है। वह कभी बीच में खड़ा नहीं होगा। और जो आदमी गुरु बनने की हैसियत में नहीं है, वह कहेगा, मैं गुरु। और अगर परमात्मा तक जाना है तो मुझसे जाना पड़ेगा। तो इस तरह के लोग तो गुरु बनना न चाहेंगे। इस तरह के लोग सिर्फ शिष्य बनना हमें सिखाना चाहेंगे।
अब यह भी बड़े मजे की बात है, कि अगर आप किसी एक व्यक्ति को गुरु मान लें तो आपके शिष्यत्व की सीमा बंध जाती है। फिर आप उसी से सीखते हैं, दूसरे से नहीं सीखते। लेकिन अगर आप सिर्फ शिष्य बन जाएं तो आप सारे जगत से सीखते हैं किसी एक से सीखने का सवाल नहीं। इसलिए शिष्य होना बहुत इनफाइनाइट बात है। और गुरु बनाना बहुत फाइनाइट रिलेशनशिप है। इसमें एक, एक आदमी से हम संबंध जोड़ रहे हैं। और जब हम एक को गुरु बनाएंगे तो उससे जरा भी कोई भिन्न होगा तो उससे दुश्मनी हो जाएगी। उसके विपरीत होगा तब तो पक्की दुश्मनी हो जाएगी।
लेकिन अगर हम सिर्फ शिष्य-भाव रखते हैं तो भिन्न से क्या दुश्मनी? विपरीत से क्या दुश्मनी? हम दोनों से सीख लेंगे। हम दोनों से ही सीख लेंगे। जो जहां से मिल जाएगा, वहां से सीख लेंगे। अंधेरे से भी सीख लेंगे, उजाले से भी सीख लेंगे; मस्जिद से भी सीख लेंगे, मंदिर से भी सीख लेंगे; कुरान से भी सीख लेंगे, बाइबिल से भी सीख लेंगे। लेकिन अगर एक बार हमने कह दिया कि कुरान ही बस, तो फिर हम गीता से नहीं सीखेंगे। फिर कठिनाई होगी, फिर मुश्किल होगी।
यह जो गुरुग्रंथ है, इसमें उस समय के सभी ज्ञानियों के वचन हैं लेकिन क्लोज्ड हो गया। यह खतरा होगा। इसमें ज्ञानियों के वचन संग्रहीत होते ही चले जाने चाहिए। क्लोज्ड हो गया। उस वक्त तो बिलकुल ओपन किताब है। उस वक्त जितने ज्ञानी थे, उन सबके वचन संग्रहीत हैं। यह बड़ी अदभुत घटना है। इसलिए गुरुग्रंथ को मैं मानता हूं कि जिस दिन वह क्लोज्ड हो गया, उसी दिन नुकसान हो गया। वह क्लोज्ड नहीं होना चाहिए, वह ओपन होना चाहिए।
असल में मतलब ही इतना है नानक का, जोर ही यह है कि आप शिष्य बनें और जहां सीखना मिल जाए, वहीं से सीख लो। क्योंकि जहां भी सीखना मिल जाए, वहीं परमात्मा है। कहां से सीखते हो, इसका कोई सवाल नहीं? वह फरीद के वचन से सीखते हो, कि नानक के वचन से सीखते हो, कि कबीर के वचन से, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कहां से सीखते हो इससे कोई संबंध नहीं है। जिस दिन गुरुग्रंथ बंद हो गया, क्लोज्ड हो गया, अब उसमें जोड़ा नहीं जा सकता, उसी दिन से नुकसान हो गया।
मेरा मानना उसको ओपन होना था, वह अभी भी खुली होनी चाहिए, अभी भी ज्ञानियों की वाणी उसमें जुड़ती ही जानी चाहिए। उसका कोई एंड नहीं होना चाहिए, तभी वह गुरुग्रंथ रहेगा, नहीं तो नहीं रह जाएगा। वह क्लोज्ड हो गया। अब उसके विपरीत और भिन्न पड़ने वाले को हम समा न सकेंगे। अब वह किताब छोटी हो जाएगी। अपने वक्त में बड़ी किताब थी, खुली किताब थी; अब नहीं रह गई। अब हमने बंद कर दी। अब उस जमाने का ज्ञानी तो समाविष्ट हो गया। अब उसके बाद का ज्ञानी? अब बाद के ज्ञानी का हमें विचार करना पड़ेगा कि वह हमसे मेल खाता है कि नहीं खाता।
और जिस दिन हम यह तय करने लगे कि वह हमसे मेल खाए, तब हम मानेंगे। उसी दिन भूल होनी शुरू हो गई। क्योंकि यह जो जगत है, यह सारा का सारा जगत, इसमें कुछ भी विरोधी नहीं है। इसमें विरोध दिखाई पड़ सकता है, इसमें विरोधी कुछ है नहीं। और जहां-जहां हमें विरोध दिखाई पड़ता है, वहां-वहां भी हमारी भूल से ही दिखाई पड़ता है। अन्यथा इस जगत की पूरी की पूरी व्यवस्था पोलैरिटीज को निर्मित करके चलने की है।
ऋण है और धन है, और दोनों के जोड़ से बिजली चल रही है। अगर बिजली एक दफा तय कर ले कि हम ऋण से ही चलेंगे और धन से नहीं चलेंगे, तो उसी दिन बंद हो जाए। यह पूरा का पूरा जीवन जो है विरोध से बना हुआ है। रात है और दिन है; ठंड है और गर्मी है; जन्म है और मृत्यु है। यहां सब चीजें समाविष्ट हैं। यहां राम और रावण हमें अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं, परमात्मा में दोनों इकट्ठे हैं।
और राम नहीं हो सकते रावण के बिना, और रावण भी नहीं हो सकता राम के बिना। तो जिसके बिना आप न हो सकते हों, वह आपका विरोधी नहीं है। क्योंकि उसके बिना आप हो ही नहीं सकते। वही आपका आधार है होने का। तो नानक जैसे व्यक्ति किसी को रोकेंगे नहीं। वे इतना ही कहते हैं कि तुम सीखने के लिए खुले रहो। सिक्ख का मेरेे लिए मतलब ही यही है वह सीखने के लिए खुला हो। और अगर उसे कहीं भी सीखने को मिल जाए तो सीखने की तैयारी...बड़ी कठिन बात है सीखने की तैयारी!
क्योंकि अक्सर मन हमारा सिखाने का होता है, सीखने का नहीं होता।
गुरु होना बहुत आसान बात है। शिष्य होना बहुत मुश्किल बात है। गुरु तो कोई भी होना चाहता है। जहां भी मौका मिल जाए आदमी गुरु बन जाता है। शिष्य बनना बहुत ही कठिन बात है।
एक फकीर हुआ, सूफी। एक राह से गुजर रहा है। और एक छोटा सा बच्चा दीया लेकर जा रहा है, मंदिर में जलाने। और वह उससे पूछता है कि यह दीया तूने ही जलाया है? तो वह बच्चा कहता है, मैंने ही जलाया है। यह ज्योति तेरे सामने आई है? तो वह कहता है, मेरे सामने आई है। तो वह यह पूछता है कि यह ज्योति कहां से आई है? तो वह बच्चा फंूक मार कर दीया बुझा देता है। और उस सूफी फकीर से पूछता है कि आपके सामने ही ज्योति चली गई, आप बता दें, कहां चली गई है? अगर आप बता दें कि कहां चली गई तो फिर मैं भी कोशिश करूं बताने की कि कहां से आई है। तो वह सूफी फकीर उसके पैरों पर गिर पड़ा, और कहता है, मैं गुरुओं की तलाश में हूं। और एक गुरु तू भी मिला है। तूने भी मेरे मन में एक और द्वार खोल दिया, अनंत का और अज्ञात का। मैं तो मजाक में ही पूछ रहा था, लेकिन मजाक गंभीर हो जाएगी, यह न सोचा था। और मुझ पर लौट पड़ेगी, यह न सोचा था।
जब वह सूफी फकीर मर रहा था, और उससे किसी ने पूछा है, तुमने किस-किस से सीखा? कौन-कौन तुम्हारे गुरु हैं? उसनेे कहा गिनती बतानी मुश्किल है। उसने कई लोगों के नाम गिनाए, उसमें एक बच्चे का नाम भी गिनाया, कि उस बच्चे का नाम मुझे पता नहीं, क्योंकि फिर मैं उससे नाम पूछने की हिम्मत न कर सका, एक घटना के बाद। क्योंकि कहीं वह कुछ और उलटा-सीधा न कह दे। फिर मैंने हिम्मत नहीं की उससे पूछने की।
इसको शिष्यत्व कहेंगे। यह परमज्ञान को उपलब्ध हो गया फकीर भी। मरते वक्त स्मरण कर रहा है। आध्यात्मिक जीवन में गुरु तो होता ही नहीं, शिष्य ही होते हैं। और जहां-जहां गुरु जोर हो जाता है, वहां-वहां आध्यात्मिक जीवन तो समाप्त हो जाता है, और पाॅलिटिक्स शुरू हो जाती है। इसको बड़े ठीक से समझ लेने की जरूरत है।
यानी हमें यह खयाल में आता है कि शिष्य जब होगा तो गुरु तो होगा ही। गुरु को गुरु होने का पता नहीं होना चाहिए, और शिष्य को शिष्य होने का पता होना चाहिए। अगर गुरु को पता हो गया कि मैं गुरु हूं, तो बात ही खराब हो गई। वह तो गुरु न रहा, वह तो एक अहंकार की पूजा हो गई। वह तो एक अहंकार हो गया और गुरु...गुरुडम खड़ी हो जाएगी। शिष्य को पता होना चाहिए कि मैं शिष्य हूं। और यह उसे सदा पता होना चाहिए। यह उसे चैबीस घंटे पता होना चाहिए कि मुझे सीखना है, सीखना है, सीखना है। मैं अज्ञानी हूं, मुझे पता नहीं है। और जहां सीखने को मिल जाए, उसे सीखते चले जाना चाहिए।
यह जो स्थिति होगी, यह धार्मिक व्यक्तियों की है। ऐसा धार्मिक व्यक्ति अगर पृथ्वी पर पैदा हो जाए, जिसकी सदा कोशिश की गई, लेकिन पैदा नहीं हो पाता। अगर पैदा हो जाए तो फिर लड़ाई नहीं होगी।
फिर लड़ाई नहीं होगी। अगर मैं कुछ कह रहा हूं, और आपमें सिर्फ सीखने की भावना और कामना है तो आप सुन लेंगे, समझ लेंगे, विदा हो जाएंगे। कुछ सीखने जैसा होगा तो सीख लेंगे, कुछ सीखने जैसा नहीं होगा तो नहीं सीखेंगे। लेकिन अगर आप पहले से ही सीखे बैठे हुए हैं, और पक्का माने बैठे हुए हैं कि आपको तो पता ही चल गया है कि ज्ञान क्या है? तो फिर टक्कर हो जाएगी। फिर कठिनाई हो जाएगी। फिर अगर आप कहेंगेः नहीं, यह तो ठीक नहीं है। और मजा यह है कि क्या ठीक है उसका अगर हमें पता ही हो, तब तो कोई अड़चन नहीं। उसका हमें पता ही नहीं। लेकिन क्या ठीक नहीं है, यह कहने को हम सदा तैयार हैं।
एक, अभी एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था रूस में--आॅस्पेंस्की। एक फकीर था यूनानी--गुरजिएफ, उसके पास गया। उसने कहा कि मुझे कुछ सवाल पूछने हैं। तो गुरजिएफ बहुत अदभुत आदमी था। थोड़े से अदभुत आदमी इन पचास साल में थे, उनमें एक था। तो उसने एक कोरा कागज उठा कर आॅस्पेंस्की को दे दिया और कहा कि मैं जानता हूं, तुम बड़े विद्वान हो। बड़ा नाम है। बड़ी किताबें लिखी हैं। तो पहले तुम इस कागज पर यह लिख दो कि तुम्हें जो-जो पता है, वह तुम लिख दो, ताकि उसकी मैं बात न करूं। और तुम्हें जो पता न हो उसकी बात करें। नहीं तो बेकार समय जाया होगा। बात तो ठीक लगी। तो आॅस्पेंस्की को उसने कहा कि बगल के कमरे में चले जाएं, इस कागज पर लिख लाएं दो तरफ। जो पता है वह हम छोड़ ही देंगे। और जो पता नहीं है, उसकी बात कर लेंगे।
आॅस्पेंस्की ने लिखा है कि पहली दफा जिंदगी में मैं मुश्किल में पड़ा। लिखने बैठूं ईश्वर, तो लिखा न जाए, क्योंकि पता तो नहीं है; आत्मा, तो लिखा न जाए, क्योंकि पता तो नहीं है। फिर तो कोरा कागज ही वापस दे देना पड़ा था। मुझे तो कुछ भी पता नहीं। तो गुरजिएफ ने कहा कि तुझमें शिष्य होने की क्षमता है, अब तू बैठ। तेरे पास सिखाने को कुछ भी नहीं है तो झगड़ा खत्म। अब मैं जो कहूं उसको तुझे समझना हो तो समझ लेना; न समझना हो, न समझना। लेकिन तू यह न कह सकेगा कि यह गलत है। क्योंकि तुझे पता नहीं कि सही क्या है? इतना पक्का हो गया।
और वर्षों आॅस्पेंस्की उसके साथ रहा। लेकिन कभी उसने यह नहीं कहा कि यह गलत है। और गुरजिएफ ने वर्षों बाद कहा कि यह आदमी बड़ा अदभुत है। इसने वचन निभाया। तो आॅस्पेंस्की ने कहा, वचन निभाया नहीं, बात सच्ची समझ में आ गई। बात ही ठीक है कि जब मुझे सही का पता नहीं तो किसी को गलत कैसे कह दूं? वचन नहीं निभाया, बात ही समझ में आ गई। अब मैं सीखने की कोशिश करता हूं, समझने की कोशिश करता हूं। और जब समझता हंू और सीखता हूं तो जो सही है, उसकी किरणें धीरे-धीरे साफ होने लगीं। लेकिन अच्छा किया आपने कि पहले दिन वह कोरा कागज मुझे पकड़ा दिया, नहीं तो मैं कुछ भी न सीख पाता। क्योंकि हर बात पर मैं कहता कि नहीं, यह ऐसा नहीं है।
जिसको सच में डिसाइपलशिप कहें, शिष्यत्व कहें, उसका कुल मतलब इतना है कि हम अपने अज्ञान के पूरे बोध के साथ खड़े हैं, बस। इसलिए कहीं भी कोई कह रहा हो कि मुझे पता चल गया है तो हम सुनने को राजी हैं।
गुरुडम की घोषणा बहुत दूसरी घोषणा है। गुरुडम की घोषणा बहुत दूसरी घोषणा है। गुरु बनने की चेष्टा में लगा आदमी इस बात में बहुत उत्सुक नहीं है कि आपको सत्य पता चल जाए। इस बात में बहुत उत्सुक है कि जो वह कह रहा है, वही सत्य मान लिया जाए। लेकिन जिसको सत्य पता चल गया है, आप मान लें, इसका जोर उसमें नहीं रह जाएगा। कोई कारण नहीं है। और सत्य कहीं माना जा सकता है किसी के कहने से? सिर्फ जाना ही जा सकता है। वह अनुभव से ही जाना जा सकता है।
सारी जो कठिनाई सदा आती रही है वह यह है, और यह बड़े मजे की बात है, ये बड़े मजे की बात है कि अगर नानक, बुद्ध या कृष्ण और कबीर और क्राइस्ट और मोहम्मद कहीं मिलते हों मोक्ष में, तो बड़े हंसते होंगे। वे सब एक ही बात कह गए। और वहां इनके पीछे चलने वाले तलवारें लिए खड़े हैं और एक-दूसरे की जान पर सवार हैं। मगर अगर वह सब भी लौट आएं वापस तो इनको राजी नहीं कर सकते कि मत लड़ो। कहेंगे कि इनका दिमाग खराब हो गया है। हम कैसे मान सकते हैं?
फ्रायड की जिंदगी में एक संस्मरण है। बड़ा अदभुत है। फ्रायड जिंदा था। और उसके जिंदा में ही उसका एक बड़ा व्यापक आंदोलन हो गया था, साइकोलाॅजिकल। तो उसके बड़े-बड़े शिष्य सारी दुनिया में एक बड़ा एक पौरोहित्य फैल गया था। तो उसके बीस बड़े, सारी दुनिया के खास-खास शिष्य उससे मिलने आए हुए थे, बूढ़ा आदमी हो गया है, वह बैठा था। टेबल पर बैठा है, बीस उसके शिष्य बैठे हैं और उनमें विवाद हो गया इस बात पर, कि फ्रायड ने कोई वचन कहा है, उसका क्या अर्थ है? और वे विवाद करने में यह भूल ही गए कि फ्रायड मौजूद है, और उससे हम पूछ लें। वह आदमी बैठा है। वह बैठा है। और वह तो विवाद इतना बढ़ गया कि वह कटुता और दुश्मनी से बात होने लगी।
तो फ्रायड ने उनसे कहा कि मित्रो, अभी मैं जिंदा हूं, मर नहीं गया। लेकिन हैरानी है कि तुम मुझसे पूछते नहीं कि मेरा मतलब क्या है? तो जब मैं मर जाऊंगा, तब तुम मेरे साथ क्या करोगे? इसे देख कर मैं अभी हैरान हूं कि मैं अभी जिंदा हूं, और तुम्हारे सामने बैठा हूं। तुम मुझसे पूछने की फिकर ही नहीं कर रहे कि मेरा मतलब क्या है? तुम तय आपस में कर रहे हो कि मतलब क्या है? और लड़ रहे हो। तो जब मैं मर जाऊंगा, तब तुम क्या करोगे, वह मैं सोच कर ही घबड़ाया हुआ हूं?
 बाद के सारे के सारे जो हम एक-एक आदमी के आस-पास ढांचा बनाते हैं, वह हमारी समझ का ढांचा है। हम अपनी समझ से ऊपर नहीं उठते। हम अपनी समझ का ढांचा बना कर खड़े हो जाते हैं। फिर दुबारा सत्य प्रकट होगा, न मालूम किससे? फिर उस सांचे से टक्कर हो जाएगी। अब मजा यह है कि वह जो दूसरा आदमी है, कृष्ण का ही काम करेगा; नानक का ही काम करेगा। लेकिन नानक का मानने वाला या कृष्ण का मानने वाला ही उससे लड़ जाएगा। वह दुश्मन मालूम पड़ेगा।
जीसस ने कहा है ये, जीसस ने कहा है: जब उनको सूली दिए जाने की बात चलने लगी, और उनको पकड़ा जाने लगा, तो अब्राहिम जो बहुत पुराना पैगंबर हुआ, यहूदियों का पैगंबर--तो जीसस ने कहा कि अब्राहिम जब नहीं था, उसके पहले भी मैं था। और अब्राहिम ने जो कहा है, उसी को फुलफिल करने मैं आया हूं। लेकिन कौन सुनेगा उसकी?
क्योंकि अब्राहिम के पुजारी, उसके मंदिर, वे बरदाश्त नहीं कर सकते हैं कि कोई आदमी कहे कि मैं अब्राहिम के पहले था। और मैं वही कह रहा हूं जो अब्राहिम ने कहा था। वे नहीं मान सकते इस बात को। यह बढ़ई का लड़का! कहां अब्राहिम, परमात्मा का अवतार और कहां यह बढ़ई का लड़का! आज फिर अब जीसस बढ़ई का लड़का नहीं रह गया। अब जीसस भगवान का बेटा है। अब अगर कोई दूसरा आदमी कहेगा तो वह कहेगा कि यह चमार का लड़का है। यह फलां दुकानदार का लड़का है, यह भगवान से टक्कर लेना चाह रहा है।
जब भी आदमी में से कोई ज्योति निकलेगी, तो वह तो आदमी ही में से निकलेगी। वह आदमी बढ़ई का बेटा होगा या चमार का बेटा होगा, या दुकानदार होगा, कोई होगा, कोई होगा। लेकिन हजारों साल में जब कहानियां रच जाएंगी, तब तक वह भगवान हो चुका होगा। और उसके मानने वाले यह मानने को राजी न होंगे कि एक साधारण आदमी और इस तरह की बात कहे, और हमारे गुरु के लिए कह दे। यह नहीं हो सकता।
मगर यही उसके गुरु के साथ हुआ था, यह उसे खयाल में नहीं है। यानी मजे की बात जो है वह यह है कि हम निरंतर वही भूल दोहराए चले जाते हैं। अभी भी वही दोहराए चले जाते हैं, उसमें कोई अंतर नहीं पड़ता। हमारी मान्यताएं हमें जकड़ लेती हैं। मान्यताएं जड़ हो जाती हैं। हमारी बुद्धि से निकाली गई होती हैं। सृष्ट चेतना से आई हुई कोई भी बात उसके विपरीत मालूम पड़ती है। और वक्त बदल गया होता है।
नानक जिनसे बोल रहे थे, वह पांच सौ साल पहले का वक्त था। वेद का ऋषि जिससे बोल रहा था, वह कोई दस हजार साल पुराना वक्त था। दस हजार साल पुरानी भाषा; दस हजार साल पुराना प्रतीक; दस हजार साल पहले के आदमी की समझ; जिनसे बात की जा रही थी वे, और जो बात कर रहा था वह। वह सब है उसमें। दस हजार साल में सब बदल गया। अब मैं चाहूं भी तो वह भाषा नहीं बोल सकता।
और बोलूं तो किससे बोलूं? क्योंकि वह आदमी कहां है जो उस भाषा को समझेगा। मुझे आपसे बात करनी है, और मुझे आपसे बात करनी है। सब बदल जाएगा। लेकिन बदलता सिर्फ ढांचा है। वस्त्र बदलते हैं; रूप बदलते हैं; आकार बदलते हैं; शब्द बदलते हैं। आत्मा सदा वही है, लेकिन आत्मा को पहचानता कोई नहीं है। पहचानते हम शब्दों को हैं।
बुद्ध के जमाने में ऐसा हुआ कि बुद्ध और महावीर एक ही वक्त में हैं। और एक ही इलाके में हैं और दोनों के मानने वाले। और एक का मानने वाला दूसरे के पास जाकर कहे कि उन्होंने ऐसा कहा, उन्होंने ऐसा कहा। और दोनों उसी जगह, और बड़ी उलटी बातें दोनों कहें। महावीर कहें, आत्मा ही सब कुछ। और बुद्ध कहें, आत्मा तो कुछ है ही नहीं--सीधा झगड़ा। महावीर कहें, आत्मा को जान लिया तो परम ज्ञान हो गया, और बुद्ध कहें, जब तब तक आत्मा को माना, तब तक अज्ञान है। ये तो बिलकुल सीधी उलटी बातें हैं। एक आत्मवादी और एक अनात्मवादी। सुनने वाला तो शब्द ही पकड़ेगा।
तो महावीर को मानने वाला अब भी आत्मा को पकड़े हुए है। बुद्ध को मानने वाला अनात्मा को पकड़े हुए है। और उन दोनों को पता नहीं कि वे दोनों एक ही चीज की तरफ इन दो विपरीत शब्दों से इशारा कर रहे हैं। हम पूछ सकते हैं कि तो विपरीत शब्दों से इशारा क्यों कर रहे हो? उसका भी कारण है।
कुछ लोग हैं जो आत्मा के शब्द से ही इशारे को समझ सकेंगे, और कुछ लोग हैं जो अनात्मा के शब्द से ही इशारे को समझ सकेंगे; कुछ लोग हैं जो नाच कर ही भगवान को पा सकेंगे, और कुछ लोग हैं जो आंख बंद करके ही भगवान को पा सकेंगे; कुछ लोग हैं जो मौन हो कर पाएंगे; कुछ हैं जो गाकर पाएंगे।
तो जिसने मौन होकर पाया, वह कहेगा कि मौन हो जाओ। बकवास है शब्द, मत बोलो। सब शब्द छोड़ो। जिसने गाकर पाया, वह कहेगा, गाओ और गाना ही हो जाओ, बचो ही मत बिलकुल। गीत ही बन जाओ। अब ये दोनों बातें उलटी लगेेंगी। और जिनके पास सिर्फ शब्द है, उनके पास झगड़े खड़े रहेंगे कि एक कहेगा कि नहीं, मौन होना पड़ेगा, तभी मिलता है। और एक कहेगा कि नहीं, जब तक गाकर शब्द-रूप ही न हो जाओ, तब तक नहीं मिलेगा।
अब इनके झगड़े हजारों साल तक चलते रहेंगे। और ये दोनों पागल हैं। ये कुल इतनी खबर दे रहे हैं कि जिस आदमी ने पाया था, उसने अपनी बात कह दी। और उसे पाने के हजार रास्ते हैं। हजार होंगे ही। क्योंकि आप अपने रास्ते से आएंगे उस तक, मैं अपने रास्ते से आऊंगा उस तक; तीसरा कोई तीसरे रास्ते से आएगा, चैथा कोई चैथे रास्ते से आएगा। हम सब एक जगह नहीं खड़े हैं। इसलिए हमारे यात्रा-पथ अलग होने वाले हैं। मीरा नाच कर पाएगी, महावीर नाच कर नहीं पा सकते। महावीर नाच ही नहीं सकते। हम सोच ही नहीं सकते कि महावीर, और नाचें! यह नहीं हो सकता। नानक गाकर पा सकते हैं, तंबूरा बजता रहेगा पास। बुद्ध के पास बजाओगे तो कहेंगे कि बंद करो। डिस्टर्बेंस कर रहे हो। यह नहीं चलेगा। हटाओ यह तंबूरा यहां से।
अब यह इन दोनों का अपना व्यक्तित्व, जिस मार्ग से उनको उपलब्ध हुआ है, ये उसकी बात कह जाएंगे। और हमारे पास फिर आखिर में तंबूरा रह जाएगा। एक तंबूरा तोड़ने को खड़ा हो जाएगा, एक तंबूरा बजाने को खड़ा हो जाएगा। और समझ दोनों के पास नहीं होगी, कि बात क्या है? पहचानना पड़ेगा हमें, कि मेरे लिए है? मैं राग में डूब सकता हूं? अगर मैं डूब सकता हूं तो ठीक, डूब जाऊं। अगर मेरे लिए नहीं है, तो मैं मौन में ठहर जाऊं। मगर यह बड़ी कठिनाई है, हजार तरह के व्यक्ति हैं। हजार तरह की पहुंच हैं। हजार तरह के शब्द हैं। अनंत उसके मार्ग, क्योंकि जो स्वयं अनंत है, उस तक पहुंचने का एक रास्ता नहीं हो सकता। अनंत उसके रास्ते होंगे।
यह सारी कठिनाई, इसलिए जब जैसे मैं अगर एक बात कहूंगा तो किसी को लगेगी कि नहीं, यह तो हमारे रास्ते के विपरीत पड़ गई है। रास्ते का सवाल नहीं है, सब रास्ते एक-दूसरे के विपरीत हो सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि कहां पहुंचाते हैं? अगर एक ही जगह पहुंचाते हैं तो रास्ते के विपरीत होने से कुछ भी उपद्रव नहीं है। रहने दो रास्ते विपरीत। ध्यान इसका रखो कि पहुंच जाते हैं हम। लेकिन पहुंचने पर हमें पता नहीं कि कहीं पहुंचता है रास्ता, सिर्फ रास्तों का पता है।
 हमारी हालत ऐसी है कि जैसे हम एक बड़ा सर्कल बनाएं और उसके सेंटर पर सर्कल के, पच्चीस रेखाएं खींच दें। हम सब सर्कल पर खड़े हुए हैं। हमको अपनी-अपनी रेखा दिखाई पड़ रही है, लेकिन वह सेंटर दिखाई नहीं पड़ता, जहां सब रेखाएं जाकर मिल जाती हैं। मैं अपनी रेखा पर खड़ा हूं, आप अपनी रेखा पर खड़े हैं। मेरी आपकी रेखा के बीच बड़ा फासला है। मैं कैसे मान सकता हूं कि मेरी रेखा जहां पहुंचेगी, वहीं आपकी पहुंचती है? मैं कहूंगा, तुम कभी न पहुंच पाओगे और मैं पहुंच जाऊंगा, क्योंकि मेरे आगे एक आदमी पहुंच गया है जो कह गया है कि इस रास्ते से पहुंचना है। आप कहोगे, तुम पागल हो। हम पहुंचे ही हुए हैं, हमारे आगे भी एक आदमी पहुंच गया है जो कह गया है कि इस रास्ते से पहुंच जाओ। तब झगड़ा सुनिश्चित है। और यह झगड़ा दुश्मनी से भी भरा हुआ है, ऐसा मानने की भी कोई जरूरत नहीं।
यह झगड़ा बहुत स्वाभाविक है। बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कोई दुश्मनी करके ही करने जा रहा है, ऐसा कुछ भी नहीं है। बिलकुल स्वाभाविक है। उसको लग रहा है कि कैसे पहुंच जाओगे? उसको लग रहा है कि कहीं तुम किसी को भटका न दो? उसको लग रहा है कि कहीं किसी को तुम बिगाड़ न दो? यह बेचारा तो रुकावट डाल रहा है कि तुम बिगाड़ न पाओ।
अब, अब यह उसकी नासमझी तो है, क्योंकि उसे पता नहीं कि कितने रास्ते उस तक पहुंच जाते हैं। वह बड़ा संकीर्ण रास्ता बना रहा है। वह बना रहा है बस मेरा ही पहुंच पाएगा। लेकिन जरूरी नहीं कि वह दुश्मनी में हो। यह जो इतनी समझ साफ हो जाए, धीरे-धीरे होनी चाहिए दुनिया में। अब तक हो नहीं पा रही।
तो शायद लड़ने का कारण ही नहीं, कम से कम धर्म के मामले में तो लड़ने का कारण नहीं है। कोई भी कारण नहीं है। और किसी दिन यह अच्छा वक्त आ सकता है जब आपके पड़ोस में मस्जिद पड़ती हो तो मस्जिद में जाकर प्रार्थना कर आएं और मंदिर पड़ता हो तो मंदिर में कर आएं और गुरुद्वारा पड़ता हो तो गुरुद्वारे में कर आएं। और कोई न पड़ता हो पास तो अपने घर में बैठ कर कर लें। यह वक्त किसी दिन आ सकता है, आना चाहिए। यह सबकी चेष्टा ही रही है लेकिन यह हो नहीं पाता, बल्कि एक नया उपद्रव होता है।
अब मैं भी जानता हूं कि वह उपद्रव बिलकुल ही संभावी है। अक्सर यह होता है। तभी तो नानक ने कहा कि सभी रास्ते उसके हैं। तो गुरुद्वारा कोई सिक्ख के लिए नहीं बनाया। कोई सिक्ख के लिए नहीं बनाया। जो भी मौज, चाहे उसकी खोज ले कि उसके लिए भी एक दरवाजा है, द्वार। यह भी एक डोर है। इसलिए उसको गुरुद्वारा नाम दिया। वह बढ़िया है। मंदिर से ज्यादा बढ़िया है। जस्ट ए डोर। यह कोई महल नहीं है, यहां पहुंचने से भगवान नहीं मिल जाएगा। यह सिर्फ एक दरवाजा है, इससे भी मिल सकता है। और सबके लिए खुला है, क्योंकि दरवाजा अगर भगवान का किसी के लिए बंद हो तो बड़ा कंजूस दरवाजा हो गया। कम से कम भगवान का दरवाजा बंद नहीं होना चाहिए। सबके लिए खुला है, कोई भी आ जाए।
चाहा तो यही था, लेकिन यह हो नहीं पाता। और अंत में जो होता है, वह बहुत उलटा है। वह यह होता है कि जहां दस लड़ने वाले थे, वहां ग्यारह लड़ने वाले हो जाते हैं। वह ग्यारहवां और पैदा हो जाता है। यानी चाहा यह था कि यह ग्यारहवां लड़ेगा नहीं, और दस को भी दरवाजा दे देगा। आखिर में परिणाम इतना होता है कि एक और ग्यारहवां लड़ने वाला हो जाता है। और वह कहता है, कि यहां आओ, यहां से पहुंच जाओगे। फिर उसको मिटाने के लिए कल कोई आकर बारहवें आदमी को खड़ा करता है। तब बारह हो जाते हैं, और तेरह हो जाते हैं।
सिर्फ झगड़े की पार्टियां बढ़ती चली जाती हैं और हर नई पार्टी जिस दिन बनाई गई है, उस दिन इसलिए बनाई गई है कि बाकी लोगों का झगड़ा मिटा देगी। बड़ी मुश्किल की बात है। लेकिन ऐसा हुआ है, और यह भी कुछ अर्थों में स्वाभाविक है। अब जैसे मैं जो कह रहा हूं, अगर मुझे आप प्रेम करने लगें, तो मैं जानता हूं कि मैं पार्टी बना दे सकता हूं। अगर वह प्रेम बढ़ जाए तो मैं आपको भी झगड़ा करने वाली एक पार्टी बना दे सकता हूं। मेरे न चाहते हुए भी वह हो सकता है।
जैनों का एक सिद्धांत है--‘स्यात्वाद।’ उसका, उसका मतलब होता हैः यह भी ठीक है, वह भी ठीक है। बड़ा कीमती खयाल है। वे यह कहते हैं कि यह भी ठीक है, वह भी ठीक है। यही ठीक है, ऐसा कहना ठीक नहीं है। इसको वे, इसको वे स्यात्वाद कहते हैं। लेकिन अगर जैन से पूछो, तो वह स्यात्वाद के बाबत यह कहेगा कि स्यात्वाद ही ठीक है। अब यह बड़े मजे की बात है। अगर कोई कहे कि स्यात्वाद गलत है तो वह यह हिम्मत नहीं जुटा पाएगा कि यह भी ठीक है, यह हिम्मत न जुटा पाएगा।
अब यह बड़े मजे की बात है। कैसा कंट्राडिक्शन आदमी के दिमाग में चलता है। सिद्धांत ही कुल इतना कि कोई कितना ही विपरीत बात कह रहा हो, उसमें भी कुछ न कुछ ठीक होगा ही। कम से कम एक आदमी भी अगर कह रहा हो दुनिया में तो, कम से कम एक आदमी के भीतर का परमात्मा तो कह ही रहा है। वह कुछ न कुछ तो ठीक होगा ही। नहीं तो वह भी नहीं कह पाता। बड़े से बड़े झूठ में भी थोड़ा सा सच होता है। नहीं तो बड़े से बड़ा झूठ भी खड़ा नहीं हो सकता। उसको खड़ा तो सच पर ही होना पड़ता है। खड़ा नहीं हो सकता, एक दम गिर जाएगा। कितना ही बड़ा झूठ हो, उसके नीचे कहीं न कहीं सच की बुनियाद भी हमें खोजनी ही पड़ती है, नहीं तो वह खड़ा नहीं हो सकता। मकान तो हम कितना ही बड़ा झूठ का बनाएं, बुनियाद में सच की कहीं न कहीं ईंट रखनी ही पड़ती है। नहीं तो वह गिर जाएगा।
अरबी में एक कहावत है कि झूठ के पैर नहीं होते। पैर उसे सदा सच से ही उधार लेने पड़ते हैं। इसलिए झूठ सच होने का सदा दावा करता है। जोर से दावा करता है। नहीं तो वह लंगड़ा है, वह चल नहीं सकता, एक कदम नहीं चल सकता। वह जितना सच का दावा करता है, उतना ही चल पाता है बस। वह जैसे ही सच का दावा गिर जाता है, वह गिर जाता है। इसलिए झूठ बड़ी कोशिश करता है कि मैं सच होऊं। क्योंकि कोशिश इसलिए करता है कि वह खड़ा हो सके।
यह जो हमारी मन की पकड़ है, लेकिन यह भी सच है वह भी सच है, इसका मतलब ही केवल इतना होता है कि हम सच पर ध्यान रखेंगे। हम झूठ की फिकर छोड़ देंगे और सच को निकाल लेंगे। तो इतने को हम राजी हो जाएंगे सदा। लेकिन इस सिद्धांत को मानने वाला कहेगा, लेकिन इस सिद्धांत को गलत कहने वाला बिलकुल गलत है। यह सिद्धांत तो बिलकुल ही सच है। बस वहीं की वहीं बात वापस लौट आती है।
आदमी की बुद्धि इतनी छोटी है कि उसमें परम बुद्धि से जो भी सत्य आते हैं वे उनको सदा, खुद अपने को उन सत्यों तक ले जाने की बजाए, उन सत्यों को अपने स्थान तक ले आता है। बस, वह स्वाभाविक ही होता है। यानी बजाय इसके कि मैं आपको खींच-खींच कर ऊपर की मंजिल पर ले चलूं, मैं पूरी जिंदगी कोशिश करता रहूंगा ऊपर की मंजिल पर आपको खींच कर ले चलने की, लेकिन मरने के बाद आप मेरी लाश को नीचे की मंजिल पर ले आएंगे, जहां आप थे। और करेंगे क्या? मैं अपनी कोशिश कर चुका, आखिर में आप अपनी कोशिश करेंगे।
तो हम अपने उन सब लोगों को, जिन्होंने हमें कोई परम बात सुनाई है, इतना प्रेम करने लगते हैं कि आखिर में हम उन्हें, जब वे नहीं रहते तो अपनी जगह पर उन्हें ले आते हैं, ठीक भी है। क्यों, वहां अकेले में अब वे क्या करेंगे?

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