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रविवार, 2 सितंबर 2018

पंथ प्रेम को अटपटो-(प्रवचन-04)

प्रवचन -चौथा -(ओशो) 

स्वयं का साक्षात

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक बहुत पुराने नगर में एक बहुत पुराना चर्च था। उस चर्च की दीवालें गिरनी शुरू हो गई थीं। उस चर्च के नीचे खड़ा होना खतरनाक था। उस चर्च में आने वाले लोगों ने धीरे-धीरे आना बंद कर दिया। उस बड़े भवन के पास से निकलना भी खतरे की बात थी। वह भवन किसी भी क्षण गिर सकता था। हवाओं के छोटे झोंके भी उस भवन को कंपा देते थे और वर्षा में जब बादल गरजते और बिजलियां चमकतीं, तो नगर के लोग बार-बार सोच लेते कि शायद वह चर्च गिर गया है।
अंततः उस चर्च के संयोजकों, संरक्षकों की कमेटी की बैठक हुई, उन्होंने कुछ प्रस्ताव पास किये। उनका पहला प्रस्ताव था कि पुराने चर्च को गिरा दिया जाना चाहिए। सभी इस पर सहमत थे। उनका दूसरा प्रस्ताव था कि नया चर्च बनाया जाना चाहिए। इससे भी सभी लोग सहमत थे।
उनका तीसरा प्रस्ताव था कि पुराने चर्च के सामान से ही नया चर्च बनाया जाना चाहिए। इस पर भी सभी लोग सहमत थे। और चैथा प्रस्ताव था, जब तक नया चर्च बन जाए, तब तक पुराना चर्च नहीं गिराया जाना चाहिए। इस पर भी सभी सहमत थे।


दुनिया में भी मनुष्य के मन का मंदिर बहुत पुराना हो गया है। उसके गिर जाने की प्रतिक्षण संभावना है। हर बार जरा सा संकट आता है, पूरी मनुष्य-जाति खतरे में पड़ जाती है। बहुत बार मनुष्य को बचाने वाले लोग इकट्ठे हुए हैं और उन्होंने भी ये चार ही प्रस्ताव पास किये हैं। मैं उन प्रस्तावों पर ही आज सुबह आपसे और विचार करना चाहता हूं।
पहले दो प्रस्ताव तो ठीक हैं। पुराना मंदिर जरूर गिरा दिया जाना चाहिए, नया मंदिर जरूर बनना चाहिए। लेकिन पुराने मंदिर के ईंटों से न कभी नया मंदिर बना है और न बन सकता है। क्योंकि पुरानी ईंटों से बना हुआ मंदिर नया नहीं होगा, पुराना ही होगा। वह पुराने का ही रूपांतरण होगा। वह जीर्ण-जर्जर पुराना मंदिर ही फिर नये मंदिर में स्थापित हो जाएगा। पुराने से खतरा है, पुराना फिर जीवित बना रहेगा। पुराने से खतरा है, पुराना फिर जीवित बना रहेगा। नया मंदिर अगर उन्हीं ईंटों से बना, तो वह देखने में ही नया होगा। उसके प्राण पुराने होंगे, उसकी आत्मा पुरानी ही होगी।
तीसरे प्रस्ताव से मैं सहमत नहीं हूं। और चैथा प्रस्ताव तो अत्यंत मूर्खतापूर्ण है कि जब तक नया न बन जाए, तब तक पुराने को नहीं गिराना चाहिए। क्योंकि जिस भूमि पर पुराना खड़ा है, उसी भूमि पर नये को बनाना है। पुराने की मृत्यु ही नये का जन्म बन सकती है। पुराने का अंत ही नये का प्रारंभ होगा। पुराने का विध्वंस ही नये का सृजन बनता है। और जो लोग तोड़ने में कमजोर हो जाते हैं, वे बनाने में भी असमर्थ हो जाते हैं। जिनकी मिटाने की क्षमता क्षीण हो जाती है, उनके निर्माण करने की शक्ति भी विलीन हो जाती है। और तब फिर उन्हें उसी पुराने मंदिर में रहना पड़ता है जिसके प्रतिपल गिर जाने का खतरा है और जिसके साथ स्वयं की मृत्यु भी बनी हुई है।
मनुष्य ऐसे ही पुराने मंदिर में जी रहा है। हम सब भी ऐसे ही पुराने मंदिर के वासी हैं। और जब तक हम इस पुराने मंदिर में हैं, तब तक निर्भय नहीं हो सकते हैं। तब तक न हम रात शांति से सो सकते हैं और न दिन चैन से बैठ सकते हैं। हर क्षण उसके गिरने का खतरा बना हुआ है।
यह जो मनुष्य के मन का पुराना मंदिर है, यही मनुष्य की बीमारी, रोग, रुग्णता और विक्षिप्तता है। और अब तक हम पुराने की इतनी पूजा करते रहे हैं कि नये का जन्म कठिन से कठिन हो गया है। सचाई यह है कि पुराने को हमेशा विदा हो जाना चाहिए, प्रतिपल पुराना विदा हो जाना चाहिए। इन चारों तरफ लगे वृक्षों पर हर वर्ष नये पत्ते आते हैं, क्योंकि पुराने पत्ते विदा हो जाते हैं। अगर पुराने पत्ते यह जिद्द करें कि हम बने रहेंगे, तो नये पत्तों के जन्म की कोई संभावना न रह जाये। पुराने मनुष्य विदा हो जाते हैं, इसलिए नये मनुष्य विकसित होते हैं। पुराना रोज विलीन होता है, इसलिए नये का प्रादुर्भाव होता है।
लेकिन मनुष्य के मन ने पुराने से कुछ ऐसे प्रगाढ़ बंधन कायम कर लिये हैं कि मनुष्य के मन से पुराना विदा नहीं होता है, इसलिए मनुष्य के चित्त में नये का जन्म नहीं हो पाता है। और जिस मनुष्य के चित्त पर नये का जन्म नहीं होता, वह केवल भ्रांति में है कि जी रहा है। वह असल में, बहुत पहले मर चुका है। पुराने का कोई जीवन नहीं है। जीवन तो नित नया है, वही है। जो प्रतिपल नया होता है, वही जीवन है। जिसके नये होने की प्रक्रिया बंद हो जाती है, वह मर चुका है।
तो मैं आपसे पुछना चांहूगा इस सुबह, आप मर चुके हैं या कि जीवित हैं? आपके चित्त में नये होने की क्षमता खो गई है, या कि कायम है? आप नये हो सकते हैं या कि पुराने से इस भांति बंध गए हैं कि नये होने का कोई द्वार खुला नहीं रह गया है? आपके चित्त में प्रतिक्षण, प्रतिपल नये और युवा होने की शक्ति बची है या नहीं? इसे सोचना होगा, इसे विचारना होगा। और अगर पुराने मृत, जरा-जीर्ण पत्थर बहुत इकट्ठे हो गये हों, तो उन्हें विदा कर देना होगा। अगर पुराना मकान रहने योग्य न रह गया हो और मृत्यु का कारण बन रहा हो, तो उसे गिरा देना होगा।
इस बात का पूरा-पूरा बोध ही मनुष्य को सत्य की, जीवन की और परमात्मा की दिशा में अग्रसर करता है। क्योंकि परमात्मा कभी भी पुराना नहीं है, जीवन कभी भी पुराना नहीं है। सत्य कभी भी पुराना नहीं है। सत्य सदा नया है। सत्य सदा युवा है। और हम? हम पुराने पड़ जाते हैं। इसलिए हमारा कोई मेल सत्य से नहीं हो पाता है। हो भी नहीं सकता। हम मृत हो जाते हैं। हम अतीत और बीते को, गये को, जा चुके को, परमात्मा को छाती से लगा कर बैठ जाते हैं। हम लाशों को सिर पर ढोने लगते हैं। फिर हमारा जीवन से कैसे संबंध रह जायेगा!
किसी घर में, जितने लोग मर जाते हों, सबकी लाशें सुरक्षित रख ली जाती हों, तो उस घर में फिर कोई जीवित रह सकेगा? उस घर में जीवित को भी मर जाना पड़ेगा। लाशों के बीच जिंदा आदमी जीवित नहीं रह सकता। लेकिन हमारे मन पर बहुत मुर्दा लाशें इकट्ठी हो गयी हैं और उन सबके बीच हमारा मन एक मरघट की भांति हो गया है। और इस मरे हुए मन को लेकर अगर हम सोचते हों कि जीवन के राजा से, जो सदा नया और जवान है, परमात्मा से, प्रभु से हमारा मिलन हो जाये, तो हम भूल में हैं, गलती में हैं। उस नित-नवीन से मिलने के लिए हमें भी नया हो जाना पड़ेगा। हमें भी अपने को नया कर लेना होगा।
पुराने से मुक्त होना जरूरी है, और नये के मंदिर का निर्माण भी। लेकिन पुराने मंदिर की ईंटों से नया मंदिर नहीं बन सकता। और अगर यह भी शर्त लगी हो कि उसी मंदिर की ईंटांे से नये को बनाना है और नये को बना कर ही पुराने को गिराना है, तब तो असंभव हो गयी बात। फिर तो कोई गति इस दिशा में नहीं हो सकती।
तो पहले तो हम यह समझ लें कि हमारा चित्त पुराना किन बातों से हो जाता है। क्योंकि अगर ठीक से यह ख्याल में आ जाये कि चित्त क्यों पुराना हो जाता है, तो नया हो जाना बहुत सरल है, क्योंकि कोई भी न तो पुराना होना चाहता है। आप बूढ़े होना चाहते हैं? पुराने होना चाहते हैं? मृत्यु चाहते हैं? कोई भी नहीं चाहता। लेकिन शायद भूल से, जिसे हम नया समझते हैं, जीवन समझते हैं, वह भीतर पुराना होता है और इसलिए हम उसे पकड़े बैठे होते हैं।
तो पहले तो यह खोज कर लेनी जरूरी है कि मनुष्य का मन पुराना क्यों हो जाता है? किन बातों से, किन कारणों से? एक बात: सीखा हुआ ज्ञान मनुष्य के मन को पुराना कर देता है। जाना हुआ ज्ञान मनुष्य के मन को नया करता है। जो भी हम सीख लेते हैं और इनफार्मेशन की तरह, सूचना की तरह संगृहीत कर लेते हैं, उससे हमारा मन पुराना पड़ जाता है। क्योंकि जिस ज्ञान को हम बाहर से सीख कर इकट्ठा करते हैं, चाहे शास्त्रों से, चाहे गुरुओं से, चाहे परंपराओं से--जिसको भी हम सीख कर इकट्ठा कर लेते हैं, सीखा हुआ ज्ञान कभी भी हमारा प्राण नहीं बनता। केवल प्राण पर इकट्ठी धूल बन जाता है। सीखे हुए ज्ञान से हमारी आत्मा के कोई संबंध नहीं होते। ऊपर से उधार, लाई गई चीजें कभी हमारे प्राणों में सम्मिलित नहीं हो पाती हैं, प्राणों से एक नहीं हो पातीं। वे हमारे ऊपर इकट्ठी होती चली जाती हैं और वे जितनी ज्यादा इकट्ठी हो जाती हैं, भीतर हमारे प्राण उतने ही जरा-जीर्ण में, पुराने में ग्रसित हो जाते हैं और बंध जाते हैं।
हम बहुत सा ज्ञान का कचरा इकट्ठा किये हुए हैं लेकिन यदि उसे हम ज्ञान समझते रहेंगे, तो फिर उससे छुटकारे का कोई उपाय नहीं है। लेकिन यदि वह हमें कचरा दिखाई पड़ने लगे और ऐसा प्रतीत होने लगे कि वही हमारे मन को नये होने से रोकता है, तो शायद हमारा यह बोध ही उससे मुक्ति का मार्ग बन जाये।
हमने क्या-क्या सीख रखा है? हमने जीवन के संबंध में जो भी सत्य, केवल जाने जा सकते हैं, कभी माने नहीं जा सकते हैं, उन सबको ही हमने मान रखा है। जीवन में जो भी बहुमूल्य है, सुंदर है, जो भी श्रेष्ठ है और सत्य है, वह सब हमारा बासा, जूठा और पुराना है। कृष्ण का है, महावीर का है, बुद्ध का है, क्राइस्ट का है। लेकिन हमारा! हमारा अपना उसमें कुछ भी नहीं है। गीता का है, कुरान का है, बाइबिल का है, लेकिन हमारा! हमारा उसमें कुछ भी नहीं है।
एक बार अपने मन के सारे ज्ञान पर ठीक से दृष्टि डाल लेनी जरूरी है कि यह कहीं पराया, उधार और बासा तो नहीं है! हम भोजन भी करते हैं, तो विचार कर लेते हैं, बासा तो नहीं है, पुराना तो नहीं है, जूठा तो नहीं है। लेकिन रोज जो हम भोजन करते हैं, उसमें इतना विचार कर लेते हैं, लेकिन ज्ञान का भोजन करते समय कोई विचार नहीं करता कि बासा और जूठा और पुराना तो नहीं है! बल्कि एक उल्टी बात चल पड़ी है: जितना पुराना ज्ञान हो, उतना ही हमें लगता है, ज्यादा बहुमूल्य है। जितना बासा हो, उतना ही हम सोचते हैं, कीमती है। हर धर्म का आदमी अपने ग्रंथ को प्राचीन से प्राचीन सिद्ध करने की इसीलिए कोशिश करता है।
हर धर्म अपने धर्म को पुराने से पुराना सिद्ध करने का प्रयाय करता है--अपने तीर्थंकर को, अपने अवतार को, अपने ईश्वरपुत्र को, सबसे प्राचीन सिद्ध करने की कोशिश में सिर तोड़े डालते हैं विद्वान। एक ही कारण से, क्योंकि जितना पुराना ज्ञान होता है, उतने ही ग्राहक मिल जाते हैं। होना उलटा ही चाहिए। जितना पुराना ज्ञान हो, उसके लिए तो ग्राहक मिलने ही नहीं चाहिए। किसी धर्म का बहुत पुराना सिद्ध हो जाना उसे दफनाने की तैयारी की शुरुआत होनी चाहिए। क्योंकि जितना पुराना हो जाता है, उतना ही झूठा हो जाता है।
पहली तो बात, जिस आदमी के चित्त में ज्ञान का जन्म होता है, तब तो वह फस्र्ट हैंड होता है, ताजा और नया। और जैसे ही वह बोलता है, वैस सेकेंड हैंड हो जाता है। क्योंकि बोलते में ही वह उतना नहीं बोल पाता, जितना जानता है। वह नहीं कह पाता, जो वह जानता है। सारी बात बदल जाती है। उसी वक्त ज्ञान झूठा होना शुरू हो जाता है। फिर वह एक-एक हाथ से हजारों हाथ में यात्रा करता है और तब इस यात्रा में, जितनी पुरानी लंबी यात्रा होती है, ज्ञान उतना ही विकृत, उतना ही असत्य, उतना ही झूठा होता चलता है।
एक वैज्ञानिक इस बात पर प्रयोग कर रहा था कि एक हाथ से बात दूसरे हाथ में जाती है, तो उसकी शक्ल क्या हो जाती है? इसने सौ युवकों के एक समूह को चुना और एक छोटे से कमरे में एक युवक को भीतर ले गया और वहां एक ज्यामेट्री की फिगर, ज्यामिति का एक रेखाचित्र बनाया। उस युवक को कहा कि ‘इसे पांच मिनट देख लो’, फिर चित्र को उल्टा कर रख दिया और कहा, ‘अब अपनी स्मृति से चित्र बनाओ।’ पांच मिनट उसने देखा था, फिर चित्र बंद करके रख दिया गया। फिर इस युवक ने, वे सभी विद्यार्थी गणित के विद्यार्थी थे, उस युवक ने उस ज्यामेट्री के फिगर को बनाया।
फिर दूसरे युवक को भीतर ले जाया गया और पहले युवक ने जो चित्र बनाया था, वह दूसरे युवक को पांच मिनट चित्र दिखाया, चित्र बंद कर दिया और कहा कि तुम अपनी स्मृति से यह चित्र बनाओ। फिर उसने जो चित्र बनाया था, वह तीसरे युवक को दिखाया। ऐसे सौ युवकों ने चित्र बनाये, और पहला चित्र जो उसने खुद बनाया था, लाकर उसने बाहर टांगा और सौवां चित्र। उन सौ में से एक भी चित्र पहचान नहीं सका कि इन दोनों में कोई संबंध है। वे दोनों ही अनूठी बातें थीं, उनमें कोई संबंध नहीं था। कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि इसी चित्र के सौ हाथों से गुजर जाने पर, बीत जाने पर यह दशा हो जायेगी।
ज्ञान की दशा इससे भी ज्यादा विकृत होती है, क्योंकि चित्र तो देखा जा सकता है, ज्ञान तो देखा भी नहीं जा सकता। चित्र की रेखाएं तो याद भी रखी जा सकती हैं, लेकिन ज्ञान तो इतना सूक्ष्म है कि उसकी कोई रेखाएं नहीं, कोई रूप नहीं, एक हल्की प्रतिध्वनि मन में रह जाती है और फिर वह एक हाथ से दूसरे हाथ में यात्रा करने लगती है।
करोड़ों-करोड़ों हाथों में ज्ञान यात्रा करते-करते, ज्ञान से उसका कोई संबंध नहीं रह जाता। जितना पुराना ज्ञान, उतना बासा, उतना मृत, उतना झूठा। ज्ञान तो तभी अर्थ रखता है, जब वह पहली दफा पहले हाथ में उपलब्ध होता हैं। हम सब ‘सैकेंड हैंड’ कहना भी गलत है, क्योंकि करोडों हाथों से गुजरे हुए हम सब आदमी हैं। हमारा सारा ज्ञान इतने हाथों में इतना झूठा हो चुका है, इतना बासा हो चुका है, उस ज्ञान को लिए बैठे हैं तो हमारा चित्त नया नहीं हो सकता है।
लेकिन हजारों साल से हमें सिखाया गया है, पुराने को पकड़ रखने को। हजारों साल के प्रोपेगेंडा और प्रचार का यह परिणाम हुआ है कि हम अपने प्राणों से भी ज्यादा बहुमूल्य जो ज्ञान हमें मिलता है, उसे सम्हाल कर रखते हैं। और उसी वजह से, जितना यह ज्ञान पुराना होता चला जाता है, उतना ही सत्य को उपलब्ध लोगों की संख्या कम होती चली जाती है। प्रती दिन ज्ञान पुराना होता चला जाता है और सत्य को पाने वाले लोंगो की संख्या क्षीण होती चली जाती है।
इस सारे पुराने ज्ञान को एक बार चित्त से हटा देना अत्यंत जरूरी है। इस मंदिर को गिरा ही देना जरूरी है। अगर आपके जीवन में कोई क्रांति होनी है, तो इस साहसपूर्ण कदम के बिना वह नहीं हो सकती। कोई समझौता, कोई कंप्रोमाइज इसमें नहींं हो सकती। आप कहें कि इसी से नये मंदिर को बना लेंगे, इन्हीं पुरानी ईंटों से। पुरानी ईंटों का मोह, नये के जन्म में बाधा है।
कौन हटायेगा मन पर इस इकट्ठे बोझ को? गीता, कुरान, बाइबिल को कौन विदा देगा? अतीत के विचारकों को, उन्होंने जरूर जाना होगा। उनके जानने का कोई विरोध मैं नहीं करता हूं, लेकिन उनका जाना हुआ आपके लिये बोझ है। उनका जाना हुआ उनके लिये मुक्ति रही होगी। उनका जाना हुआ आपके लिए बंधन है। मैं जो जानता हूं, वह मुझे मुक्त करेगा, लेकिन आपको बांध लेगा। आप जो जानेंगे, वही आपको मुक्त कर सकता है। खुद के ज्ञान के अतिरिक्त और कोई मुक्ति न संभव है, न संभव हो सकती है।
तो इस पहली सुबह, मैं आपको इस सुबह जैसा ही ताजा हो जाने के लिये निवेदन करना चाहता हूं। और आप पूछेंगे कि क्यों हम बंधें हैं इस पुराने से? पुराने से बंधने के पीछे कुछ कारण हैं। एक तो, आलस्य बहुत बड़ा कारण है। हम सब आलसी हैं, जो हमें मुफ्त में मिल जाये, उसे हम तत्क्षण स्वीकार कर लेते हैं। उधार ज्ञान मुफ्त में उपलब्ध होता है। उसके लिये कुछ भी हमें करना नहीं पड़ता। तो कौन इस मुफ्त ज्ञान को छोड़ने को राजी होगा? सभी आलसी चित्त लोग, सभी श्रम न करने के लिये उत्सुक लोग इसे तत्काल स्वीकार कर लेंगे।
हम सब भिक्षु हैं। श्रम कोई भी नहीं करना चाहता है, भीख मांग लेना चाहते हैं। और एक आदमी सड़क पर दो पैसे की भीख मांगता है और हम उसे अपमान की दृष्टि से देखते हैं कि भिखारी है, भिखमंगा है, पैसे मांगता है! हम उससे यह भी कहते हुए सुने जाते हैं कि खुद नहीं कमा सकते हो? लेकिन हम कभी ख्याल नहीं करते कि ज्ञान के जगत में हम सब भिक्षापात्र लिए भीख मांग रहे हैं! और कोई भी यह नहीं सोचता कि क्या खुद हम नहीं कमा सकते हैं।
और फिर मैं कहता हूं कि धन तो मांग कर भी पाया जा सकता है, क्योंकि धन बाहर है। धन तो मांग कर भी पाया जा सकता है, लेकिन ज्ञान तो कभी मांग कर नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि जो भीतर है, उसकी भिक्षा संभव नहीं हो सकती।
ज्ञान भीख नहीं है। धन तो कोई भीख में मांग भी ले, क्योंकि धन बाहर है। लेकिन ज्ञान? ज्ञान स्थूल नहीं है, बाहर नहीं है, उसके कोई सिक्के नहीं हैं। उसे किसी से मांगा नहीं जा सकता है। उसे तो जानना ही होता है।
लेकिन आलस्य हमारा, प्रमाद हमारा, श्रम न करने की हमारी इच्छा, हमें इस बासे, उधार ज्ञान को-जो कि ज्ञान नहीं है-इकट्ठा कर लेने के लिए तैयार कर देती है। इससे बड़ा मनुष्य का और कोई अपमान नहीं है कि वह ज्ञान मांगने किसी के द्वार पर जाये। इससे बड़ा कोई अपमान नहीं है। इससे बड़ा कोई पाप नहीं है।
लेकिन इस बात को तो धर्म समझा जाता रहा है, जिसे मैं पाप कहता हूं। जो आदमी जितना शास्त्रों से, शास्ताओं से ज्ञान इकट्ठा कर लेता है, उतना धार्मिक समझा जाता है। उससे ज्यादा पापी मनुष्य दूसरा नहीं है। क्योंकि जीवन में सबसे बड़ा पाप वह कर रहा है, वह यह कि वह ज्ञान उधार मांग रहा है, भीख मांग रहा है, जो कि कभी मिल ही नहीं सकता।
जैसे ही कोई देता है ज्ञान, देते ही झूठा हो जाता है। एक युवक समुद्र के किनारे घूमने गया था। बहुत सुंदर, बहुत शीतल, बहुत ताजगी देने वाली हवाएं उसे वहां मिलीं। वह एक युवती को प्रेम करता था, जो दूर किसी अस्पताल में बीमार थी। उसने सोचा, ‘इतनी सुंदर हवाएं, क्यों न मैं अपनी प्रेयसी को भेज दूं!’ उसने एक बहुमूल्य पेटी में उन हवाओं को बंद किया और पार्सल से अपनी प्रेयसी के लिये भिजवा दिया। साथ में एक प्यारा पत्र लिखा कि बहुत शीतल, बहुत सुंगधित, बहुत ताजी हवाएं तुम्हें भेज रहा हूं, तुम बहुत आनंदित होओगी।
पत्र तो मिल गया, लेकिन हवाएं न मिलीं। पेटी खोली तो वहां कुछ भी न था। वह युवती बहुत हैरान हुई। इतनी बहुमूल्य पेटी में भेजा था उसने उन हवाओं को, इतने प्रेम से। पत्र तो मिल गया, पेटी भी मिल गयी, लेकिन हवाएं? हवाएं वहां नहीं थीं।
समुद्र की हवाओं को पेटियों में भर कर नहीं भेजा जा सकता। चांद की चांदनी को भी पेटियों में भर कर नहीं भेजा जा सकता। प्रेम को भी पेटियों में भर कर नहीं भेजा जा सकता है। लेकिन परमात्मा को हम पेटियों में भर कर हजारों साल से एक दूसरे को भेजते रहे हैं। पेटियां मिल जाती हैं, बड़ी खूबसूरत पेटियां हैं, साथ में लिखे पत्र भी मिल जाते हैं, गीता के, कुरान के, बाइबिल के। लेकिन पेटी खोलने पर कुछ नहीं मिलता। जो ताजी हवाएं उन लोगों ने जानी होंगी जिन्होंने प्रेम में ये पत्र भेजे, वे हम तक नहीं पहुंच पाती हैं।
समुद्र की ताजी हवाओं को जानना हो, तो समुद्र के किनारे ही जाना पड़ेगा। और कोई रास्ता नहीं है। कोई दूसरा उन हवाओं को आपके पास नहीं पहुंचा सकता है। आपको खुद ही समुद्र तक ही यात्रा करनी होगी।
सत्य की ताजी हवाएं भी कोई नहींं पहुंचा सकता है। हमें स्वयं ही यात्रा करनी होती है। इस पहली बात को बहुत स्मरणपूर्वक ध्यान में ले लेनी जरूरी है। इस बात को ध्यान में लेते ही शास्त्र व्यर्थ हो जायेंगे, परंपराओं से भेजी गयी खबरें हंसने की बातें हो जायेंगी और आपका चित्त नये होने के लिये तैयार हो सकेगा। आलस्य है, जो इस सत्य को नहीं देखने देता।
दूसरी बातः परंपरागत ज्ञान के साथ जीने में एक तरह की सुरक्षा, एक तरह की सिक्योरिटी है। सभी लोग जिस बात को मानते हैं, उसे मान लेने में एक तरह की सुरक्षा है; राजपथ पर चलने जैसी सुरक्षा है। एक बड़ा राजपथ है, हाईवे है, उस पर हम सब चलते हैं सुरक्षित। कोई भय नहीं, बहुत लोग चल रहे हैं। लेकिन पगडंडियां हैं, अकेले रास्ते हैं, जिन पर यात्री मिले या न मिले, कोई साथी सहयोगी हो या न हो, अकेले जंगलों में भटक जाने का डर है। अंधेरे रास्ते हो सकते हैं-अनजान, अपरिचित, अननोन, उन पर जाने में भय लगता है। इसलिये हम सब सुरक्षित, बंधे हुए रास्तों पर चलते हैं, क्योंकि वहां सभी लोग चलते हैं। वहां कोई भय नहीं है। रास्ते पर और भी यात्री हैं-आगे भी यात्री हैं, पीछे भी। इससे यह विश्वास प्रबल होता है कि जब आगे लोग जा रहे हैं, तो ठीक ही जा रहे होंगे। पीछे लोग जा रहे हैं, तो ठीक ही लोग जा रहे होंगे। मैं ठीक ही जा रहा हूं, क्योंकि बहुत लोग जा रहे हैं। और हर आदमी को यही ख्याल है कि बहुत लोग जा रहे हैं। यह एक म्युचुअल फैलेसि है, यह एक पारस्परिक भ्रांति है। बहुत लोग एक तरफ जा रहे हैं, तो प्रत्येक यह सोचता है कि इतने लोग जा रहे हैं, तो जरूर ठीक जा रहे होंगे और हर एक यही सोचता है! भीड़ एक भ्रम पैदा कर देती है। तो हजारों वर्षों की एक भीड़ चलती है, एक रास्ते पर। एक नया बच्चा पैदा होता है, इस भीड़ से अलग हट कर कैसे जाये। उसे विश्वास नहीं आता कि मैं ठीक हो सकता हूं। उसे विश्वास आता है, इतने लोग ठीक होंगे।
ज्ञान की दिशा में यह डेमोक्रेटिक ख्याल सबसे बड़ी भूल साबित हुई है। ज्ञान कोई लोकतंत्र नहीं है। यहां कोई हाथ उठाने और भीड़ के साथ होने का सवाल नहीं है। अक्सर तो उल्टा हुआ है, भीड़ गलत साबित हुई है। इकहरे, इक्के-दक्के व्यक्ति सही साबित हुए हैं। अगर भीड़ ही सही होती, तो दुनिया बहुत दूसरी होनी चाहिए। दुनिया एकदम गलत है। भीड़ गलत है। भीड़ गलत होगी।
कभी इक्का-दुक्का आदमी तो सही हुआ है, लेकिन भीड़ सही नहीं हुई है। लेकिन भीड़ को एक सुविधा है यह भ्रम पाल लेने की, पोस लेने की कि जहां सभी लोग साथ हैं, जहां बहुत लोग साथ हैं, वहां सत्य होगा ही। सत्य के लिये ऐसी कोई गारंटी और कसौटी नहीं है। बल्कि, सचाई तो यह है कि सत्य की शुरुआत ही नहीं हो पाती इस विश्वास के कारण कि लोग बहुत होने की वजह से सही होंगे और अकेले होने की वजह से गलत होंगे।
मैं कहीं गलत न हो जाऊं! ज्ञान मुझे खोजना है, सत्य मुझे पाना है, जीवन मुझे जीना है, और मुझे स्वय को कोई विश्वास नहीं है। भीड़ को अन्यों पर विश्वास है। तो फिर यह यात्रा कभी नहीं हो सकती। मुझे होना चाहिए स्वयं पर विश्वास और मुझे होता है भीड़ पर विश्वास। भीड़ जो भी कह देती है, उसे मान लेता हूं। भीड़ अगर हिंदू होती है, तो एक बात मान लेता हूं। भीड़ जैनी होती है, तो दूसरी बात मान लेता हूं। भीड़ कम्युनिस्टों की होती है, तो तीसरी बात मान लेता हूं। भीड़ आस्तिकों की है चैथी, नास्तिकों की है पांचवीं! भीड़ जो कहती है, वह मैं मान लेता हूं। भीड़ मेरे प्राणों को जुटाये हुए है।
यह जो कलेक्टिव माइंड है, यह जो समूह का मन है, यह व्यक्ति के मन को सत्य तक नहीं पहुंचने देता है। कलेक्टिव माइंड, समूह का जो मन है, हजारों-हजारों साल में निर्मित होता है। ...
मैंने सुना है, एक सुबह एक पति अपना अखबार पढ़ रहा था। उसकी पत्नी ने उसे अखबार पढ़ते देख कर चिंता अनुभव की होगी, क्योंकि पत्नियां यह कभी पसंद नहीं करतीं कि उनका पति उनके अतिरिक्त और किसी चीज में उत्सुक हो। अखबार में भी उत्सुक हो, तो ईष्र्या पैदा होती है। तो उस पत्नी ने कहा कि ‘ऐसा मालूम होता है कि अब तुम मुझे प्रेम नहीं करते। मैं आधे घंटे से बैठी हूं, लेकिन तुमने मेरी तरफ देखा नहीं। तुम अपना अखबार ही पढ़े जाते हो? ’ उसके पति ने कहा, ‘गलती में हो तुम। अब तो मैं तुम्हें और भी ज्यादा प्रेम करता हूं। अब तो तुम्हारे बिना मैं एक क्षण भी नहीं जी सकता। तुम्हीं मेरी श्वास, तुम्हीं मेरे प्राण हो।’ और आखिर में कहा, ‘अब बकवास बंद करो, अब मुझे अखबार पढ़ने दो। अब बहुत हो गया, अब बकवास बंद करो, मुझे अखबार पढ़ने दो।’
ऊपर, एक आवरण जीवन में हम प्रेम का ओढ़े बैठे रहते हैं और पीछे? पीछे वह हमारी सारी क्रूरता, सारी हिंसा मौजूद होती है। अगर आदमी को जरा खरोंच दो, उसका सारा झूठा व्यक्तित्व खत्म और उसके भीतर से असली आदमी बाहर। जरा किसी के पैर पर चोट लगा दो, जरा किसी को धक्का दे दो, वह गयी बात। वह जो ऊपर से आदमी था विलीन हो गया, दूसरा आदमी मौजूद हो गया। इस आदमी का पता नहीं था कि यह इतनी दूरी पर पास ही मौजूद है। हम सबके भीतर वह आदमी मौजूद है। और उस आदमी की वह मौजूदगी और ऊपर से यह आवरण झूठा, विरोधी है। और हमें इस विरोध के भीतर हिंसा मालूम पड़ती है, तो जो अपोजिट है, जो विरोध है-अहिंसा-उसका वस्त्र ओढ़ लिया है। भीतर क्रोध है, तो हमने ऊपर क्षमा का वस्त्र ओढ़ लिया। भीतर घृणा है, तो हमने ऊपर प्रेम का वस्त्र ओढ़ लिया। आदमी का चित्त विकृत है, इस अपोजिट के कारण।
यह जो विरोध ओढ़े हुए है इसके कारण मनुष्य कभी स्वस्थ नहीं हो सकता। क्योंकि इस विरोधी के ओढ़ने से वह जो भीतर है, वह नष्ट नहीं होगा, बल्कि वह नष्ट हो सकता था, अगर यह विरोधी न ओढ़ा जाता। क्योंकि उसके साथ जीना बहुत कठिन था, उसके साथ एक क्षण जीना कठिन था। इस विरोधी के ओढ़ लेने के कारण उसके साथ जीना आसान हो गया। अगर किसी भिखमंगे को यह ख्याल हो जाये कि मैं सम्राट हूं-और ऐसा अक्सर भिखमंगों का ख्याल हो जाता हैत्तो फिर भिखमंगेपन के मिटने की कोई संभावना नहीं रही, क्योंकि ख्याल है कि मैं सम्राट हूं। और आदमी भिखमंगा है, भिखारी है, लेकिन ख्याल है कि मैं सम्राट हूं, तो अब उसके भिखमंगेपन के मिटने का क्या मार्ग रहा? लेकिन इस ख्याल से वह सम्राट हो नहीं जाता है, रहता तो भिखमंगा ही है। एक सपना ओढ़ लेता है सम्राट के होने का, और इस सपने ओढ़ लेने के कारण भिखमंगी में रहने की सुविधा मिल जाती है। अगर यह ख्याल न हो कि मैं सम्राट हूं और जाने कि मैं भिखारी हूं तो भिखारी होने के साथ जीना कठिन है। उसे बदलना होगा, उसे भिखारीपन से मुक्ति और छुटकारा पाना होगा।
अगर एक बीमार आदमी को ख्याल हो जाये कि मै स्वस्थ हूं, तो फिर, उसकी बीमारी के उपचार की क्या संभावना रही? वह अपनी बीमारी को मिटाने के लिये क्या करेगा? वह कुछ भी नहीं करेगा। लेकिन इस ख्याल से कि मैं स्वस्थ हूं, वह स्वस्थ हो नहीं जाता। रहता तो बीमार है, लेकिन इस ख्याल के कारण बीमारी को भीतर सरकने का, जीने का मौका मिल जाता है। बीमारी के मिटने की सारी संभावना समाप्त हो जाती है।
बीमारी को मिटाने के लिये बीमारी को पूरी तरह जानना जरूरी है। बीमारी से मुक्त होने के लिए बीमारी को भूलना सबसे घातक बात है, और हम सब अपनी बीमारियों को भूल कर बैठ जाते हैं। हम सब तरकीबें निकाल लेते हैं कि बीमारी भूल जाये और फिर बीमारी जीती है, भीतर सरकती है, अपरिचित और अनजान हो जाने के कारण, अनकांशस हो जाने के कारण, अचेतन हो जाने के कारण हमारा उससे ऊपर से कोई संबंध नहीं रह जाता, लेकिन प्राणों को भीतर-भीतर वह रौंद डालती है। मनुष्य इसलिये अस्वस्थ है, मनुष्य का चित्त इसलिये अस्वस्थ है।
इस पूरी बात को अगर हम संक्षिप्त में समझें, तो इसका यह अर्थ हुआ कि मनुष्य तथ्यों को छिपाने के लिए आदर्शों का उपयोग करता है। वे जो फैक्ट्स हैं, उनको छिपाने के लिए फिक्शन खड़े करता है। जो तथ्य हैं, जो सचाइयां हैं, उन्हें छिपाने के लिए झूठी कल्पनाएं और आदर्श और आइडियल्स खड़े करता है। और फिर, इन आदर्शों के कारण तथ्यों को भूल जाता है। लेकिन तथ्य, तथ्य भूलने से मिटते नहीं हैं। अगर चीजें भूलने से मिटती होतीं, तो बहुत आसान बात थी। तब तोे एक आदमी शराब पी लेता और दुख मिट जाता। लेकिन शराब पीने से दुख मिटता नहीं, केवल भूलता है।
आदर्शों की शराब पी लेने से भी जीवन के तथ्य बदलते नहीं, मौजूद रहते हैं। यह हमारा ही देश है। यह अहिंसा की शराब हजारों साल से पी रहा है, लेकिन एक भी आदमी अहिंसक नहीं हो पाया! हिंसा मौजूद है। हमारे चित्त में सब तरफ हिंसा मौजूद है, लेकिन हम अहिंसा की बातें करके अपनी हिंसा को छिपाए रखते हैं। जरा सी चोट और हमारी हिंसा के फव्वारे निकलने शुरू हो जाते हैं। हमारे कवि हिंसा के गीत गाने लगते हैं, हमारे नेता हिंसा की बात करने लगते हैं। हमारे साधु-संन्यासी भी कहने लगते हैं, अहिंसा की रक्षा के लिए अब हिंसा की जरूरत है। और सारी अहिंसा एक क्षण में विलीन हो जाती है!
हम हजारों साल से प्रेम की बातें करते रहे हैं, लेकिन हमारे जीवन में कहां है प्रेम? हम दया की, सेवा की बातें करते रहे हैं, कहां है दया और कहां है सेवा? और हमारी सारी सेवा और हमारी दया भी हमारे गहरे से गहरे स्वार्थों की अनुचर हो गयी है। एक को मोक्ष जाना है, इसलिए वह दया करता है, दान करता है। यह दया और दान है? या कि सौदा है! एक आदमी को आत्मा को पाना है, इसलिए वह सेवा करता है गरीबी की। यह सेवा है? या अपने स्वार्थ के लिए गरीब को भी उपकरण बनाना है!
एक चर्च में एक पादरी ने रविवार के दिन आने वाले बच्चों को समझाया कि जिन्हें भी स्वर्ग जाना है, उन्हें सेवा जरूर करनी चाहिए। उन बच्चों ने पूछा, ‘हम कैसे सेवा करें, क्योंकि स्वर्ग तो हम सब जाना चाहते हैं।’ पादरी ने कहा, ‘कई प्रकार हैं सेवा के। डूबता हुआ कोई हो, तो उसे बचाना चाहिए। किसी घर में आग लग गयी हो, तो जाकर घर का सामान या व्यक्तियों को बाहर निकालना चाहिए। यह बहुत सरल सी बात, कोई भी किसी तरह की किसी को कोई सहायता पहुंचानी हो, तो पहुंचानी चाहिए।’
अगले रविवार को जब ये बच्चे फिर आए, उस पादरी ने पूछाः तुमने कोई सेवा का कार्य किया? तीन बच्चों ने हाथ उठाए। एक बच्चे से पूछा कि उसने क्या किया। उसने कहा, ‘मैंने एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई। उसने धन्यवाद दिया कि खुश हूं मैं, तुमने बहुत अच्छा काम किया। दूसरे बच्चे से पूछाः तुमने क्या किया? उसने कहाः मैंने भी एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई! वह थोड़ा हैरान हुआ। लेकिन उसको भी धन्यवाद दिया और तीसरे से पूछाः तुमने क्या किया? उसने कहाः मैंने भी एक बूढ़ी औरत को सड़क पार करवाई! वह बहुत हैरान हुआ। उसने पूछाः क्या तीन बूढ़ी औरतें तुम्हें पार करवाने को मिल गईं? ’ उन तीनों ने कहाः तीन कहां, एक ही बूढ़ी औरत। तो वह बहुत हैरान हुआ, पूछा कि तुमको, तीन को उसे पार करवाना पड़ा? उन तीनों ने कहाः वह पार होना नहीं चाहती थी, बडी मुश्किल से पार कर देना पड़ा। वह तो बिल्कुल भागती थी, पकड़ कर जबर्दस्ती हमने सड़क पार करवाई, क्योंकि स्वर्ग जाना तो जरूरी है और सेवा करनी ही पड.ेगी!’ उस पादरी ने कहा, ‘अब कृपा करके ऐसी सेवा मत करना। अच्छा किया तुमने कि औरत को ही पार करवाया, कहीं मकान में आग लगा कर लोंगो को नहीं बचवाया, या किसी को नदी में डुबा कर प्राण नहीं बचाए। यही बहुत है, अब तुम और सेवा मत करना!’
सेवकों ने दुनिया में ऐसे बहुत से काम किये हैं। लेकिन उन्हें सेवा करनी जरूरी है, क्योंकि स्वर्ग जाना जरूरी है। ये सारी सेवा, ये सारे दान, ये सारी दया, ये सारी अहिंसा की बकवास हमारे भीतर जो असली आदमी है, उसको छिपा लेती है। और वह जो असली आदमी है, वही है। जो कुछ भी होना है, उसके द्वारा होना है। जो भी जीवन में क्रांति, या न क्रांति, जीवन में कोई परिवर्तन या न परिवर्तन-जो कुछ भी होना है- उस असली आदमी से होना है। उस फेक्चुअल आदमी से, जो मैं हूं, जो आप हैं। यह आदर्शों से कुछ भी होना नहीं है। लेकिन आदर्शों में हम अपने को छिपा लेते हैं।
एक बुरा आदमी अच्छे बनने की कोशिश में यह भूल जाता है कि मैं बुरा आदमी हूं। यही वह भूलना चाहता है। यही वह भूलना चाहता है कि मैं बुरा आदमी हूं। इसलिये सब बुरे आदमी अच्छे आदर्शों को पकड़ लेते हैं। अच्छे आदर्शों की जो बात करता हो, पहचान लेना, उसके भीतर बुरा आदमी मौजूद है। बुरा आदमी मौजूद न हो तो अच्छे आदर्श की बात हो ही नहीं सकती। क्योंकि तब आदमी अच्छा होगा। अच्छे आदर्श का सवाल कहां है? अच्छा आदर्श, भीतर छिपे हुए बुरे आदमी की तरकीब है। और बहुत गहरी तरकीब है, जिससे वह अपने को बचा लेता है। अच्छे बनने की कोशिश में बुरा आदमी भूल जाता है। और बुरा आदमी जब तक मौजूद है भीतर, तब तक कोई अच्छा आदमी बन कैसे सकता है। वह लाख उपाय करे, वह जो भी करेगा, उसमें बुरा आदमी भीतर से लौट कर फिर खड़ा हो जायेगा।
रोज हम देखते हैं, लेकिन देखने की क्षमता शायद हमने खो दी। बुरा आदमी भीतर मौजूद है। वह हिंसा और घृणा से भरा हुआ चित्त, तो फिर आप कुछ भी करें-आप जो भी करेंगे, चाहे कितना भी पवित्र काम करेंगे, आपके पवित्रतम काम के पीछे चूंकि बुरा आदमी मौजूद है, आपका पवित्रतम काम भी धोखा होगा; उसके पीछे भी असलियत कुछ और ही होती है। लेकिन हो सकता है, ऊपर से वह दिखाई पड़नी बंद हो जाये। शायद लोगों को दिखाई न पड़े, लेकिन आपको भलीभांति दिखाई पड़ सकती है। और आपको दिखाई पड़ जाये, तो आप स्वस्थ चित्त की दशा में, स्वस्थ चित्त के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं।
पहली बात है: स्वस्थ चित्त की दिशा में पहला कदम। पहला सूत्र इस सत्य को देखना कि तथ्य में मैं क्या हूं, आदर्शों में नहीं। फेक्चुअलिटी क्या है? मेरी आइडियोलाजी क्या है यह नहीं, आप क्या मानते हैं यह नहीं, आप क्या हैं? सचाई क्या है आपकी? अगर हम उसको जानने के लिये राजी हो जायें, और इसको हम जानने को तभी राजी हो सकते हैं, जब यह व्यर्थ ख्याल हमारा छूट जाये कि आदर्शों की कल्पना और आदर्शों की दौड़ में हम बदल सकते हैं, परिवर्तित हो सकते हैं। कभी कोई आदर्शों के द्वारा परिवर्तित नहीं हुआ है। ऊपर से दिखाई भी पड़े कि यह आदमी बदल गया है, भीतर वही आदमी मौजूद रहेगा।
एक गांव में एक बहुत क्रोधी आदमी था। इतना क्रोधी था कि उसने अपनी पत्नी को कुएं में फेंक दिया। उसकी पत्नी कर गई। पीछे उसे पश्चात्ताप हुआ होगा। सभी क्रोधी लोग पीछे पश्चात्ताप जरूर कर लेते हैं। उस भ्रांति उनका जो अपराधभाव है, समाप्त हो जाता है। वे फिर से का्रेध करने के लिए तत्पर और तैयार हो जाते हैं। पश्चात्ताप तरकीब है, किये गये बुरे से साफ कर लेने की स्वयं को।
उसने पश्चात्ताप किया, उसने मित्रों से कहा, ‘मैं बहुत दुखी हुआ हूं। अब इस क्रोध से मुझे किसी न किसी रूप से छुटकारा पाना है। हद्द हो गई, यह तो सीमा के बाहर चला गया। जिस पत्नी को मैं प्रेम करता था, उसी की मैंने हत्या कर दी!’
यह वाक्य कितना ठीक लगता है कि जिस पत्नी को मैं प्रेम करता था, उसी की मैंने हत्या कर दी! लेकिन यह वाक्य क्या ठीक हो सकता है? क्योंकि जिसको हम प्रेम करते हैं, उसकी हत्या कर सकते हैं? लेकिन हम रोज यह कहते हैं कि जिस बच्चे को मैं प्रेम करता था, उसको मैंने चांटा मार दिया। जिस मित्र को मैं प्रेम करता था, उससे मैंने बुरे शब्द बोल दिये। जिस पत्नी को मैं प्रेम करता था, उससे मेरा झगड़ा हो गया। झगड़ा सच है, चांटा मारना सच है, हत्या करना सच है, प्रेम का ख्याल झूठा है। लेकिन उसके मित्रों ने कहा, ‘तुम्हें पश्चात्ताप हो रहा है, यह बड़ी अच्छी बात है। गांव में एक मुनि आये हुए हैं, तुम वहां चलो। शायद उनसे तुम्हें कोई रास्ता मिल जाये।’
मुनि के पास उस क्रोधी व्यक्ति को ले गये, और मुनि जो हमेशा से रास्ता बताते रह पेटेंट, वह उन्होंने उसे बता दिया कि ‘तुम संन्यासी हो जाओ। बिना संन्यासी हुए क्रोध इत्यादि से छुटकारा नहीं हो सकता। संसार में रहोगे, तो क्रोध और लोभ और मोह में बंद फंसे ही रहोगे। यह तो संसार में स्वाभाविक है। संन्यासी हुए बिना क्रोध के बाहर तुम नहीं हो सकते हो।’ वह आदमी तो दुख में था ही। उसने अपने वस्त्र फेंक दिए, वह नग्न खड़ा हो गया। उसने कहा कि ‘मैं संन्यासी हो गया।’
वे मुनि भी नग्न थे। मुनि बड़े हैरान हुए और बहुत उन्होंने धन्यवाद किया उस व्यक्ति का कि ‘ऐसा मैंने व्यक्ति नहींं देखा, इतना संकल्पवान! तत्क्षण इतनी शीघ्रता से परिवर्तित हो जाने वाला! एक तो वह बाल्या भील की कथा थी, कि दूसरी तुम्हारी है,’ उन्होंने कहा। लेकिन मुनि धोखे में आ गये। पूरे गांव ने प्रशंसा की, लेकिन उनको पता नहीं था कि यह क्रोधी आदमी का सहज लक्षण था।
क्रोधी आदमी शीघ्रता से कुछ भी कर सकता है। यह उसके एंगर का ही, यह उसके क्रोधी होने का ही सबूत था; संकल्प वगैरह का सबूत नहीं था। और न ही उसके दृढ़शक्ति वाले और विल पावर होने का सबूत था। वह सिर्फ उसके क्रोधी होने का सबूत था। जिस शीघ्रता से उसने अपनी पत्नी को कुएं में धक्का दिया था, उतनी ही शीघ्रता से खुद को संन्यास में धक्का दे दिया। ये दोनों एक ही चित्त के लक्षण थे। लेकिन गांव धोखे में आ गया। वह मुनि भी धोखे में आ गये। उन्होंने कई लोगों को संन्यास की दीक्षा दी थी, लेकिन जब तक वे लोग शुरू में कहते थे कि हां, कभी संन्यास लेंगे जरूर। लेकिन इस आदमी ने तत्क्षण कपड़े फेंक दिये। गुरु के मन में भी इस शिष्य का बड़ा आदर हो गया।
और फिर उस शिष्य ने जो तपश्चर्या की, उसका तो पूरे देश में कोई मुकाबला न रहा। उसने जैसे कष्टपूर्ण उपवास किये, वह एक पैर पर घंटांे खड़ा रहा! ऐसे कठिन उसने शीर्षासन किये! जितने उपद्रव हो सकते थे, उसने सब अपने साथ किये। उसके तप की सब जगह प्रशंसा और हवा फैल गई। दूर-दूर से लोग उसके दर्शन को आने लगे। वह महातपस्वी उसके तप का कोई प्रतियोगी न रहा। लोग फिर भी भूल में पड़ गये। उन्हें पता नहीं कि वही क्रोधी आदमी है। और यह क्रोध का ही रूपांतरण है, यह क्रोध का ही रूप है कि वह आदमी आज धूप में खड़ा हुआ है, आज रेत में लेटा हुआ है, कल कांटों पर सोया हुआ है। महीनों भूखा है, सूख कर हड्डी हो गया है। यह क्रोध का ही रूप है, किसी को ख्याल न आया। लोग कहने लगे, महातपस्वी है। ऐसा तपस्वी नहीं देखा गया।
और जितनी उसको प्रशंसा मिलने लगी, उतना अहंकार उसका मजबूत होने लगा। उतना ही वह और तपस्या करने लगा। फिर तो उसकी ख्याति बहुत फैली। और जब किसी तपस्वी की ख्याति बहुत फैल जाये, तो वह राजधानी की तरफ यात्रा करता है। उसने भी यात्रा की। वह तपस्वी राजधानी की तरफ चला। सभी तपस्वी अंततः राजधानी पहंुच जाते हैं। चाहे तप का कोई रूप हो, कि धार्मिक, कि राजनीतिक, कि समाज सेवा का, लेकिन तपस्वी अंत में राजधानी जरूर पहुंचता है। वह राजधानी की तरफ चला। क्योंकि अब छोटे-मोटे गांव काम नहींं कर सकते थे। अब इस तपस्वी के लिये, महातपस्वी के लिये राजधानी चाहिये।
वहां राजधानी में उसके बचपन का एक मित्र, उसके साथ पढ़ा हुआ एक मित्र था। उसने सुनी प्रशंसा इस मित्र की, वह उसके दर्शन को गया। मन में उसके संदेह जरूर था कि वैसा क्रोधी व्यक्ति! कहीं सब क्रोध का रूपांतरण न हो! यह जो इतनी तीव्र तपस्या चल रही है, यह कहीं क्रोध का ही रूप न हो! यह कहीं क्रोध खुद पर ही न लौट आया हो, यह कहीं क्रोध धार्मिक न बन गया हो! क्रोध धार्मिक बन गया था। उसके मन में शक तो था। वह पहुंचा, सोचा था कि शायद अगर मित्र सचमुच में ही साधु हो गया होगा, तो कम से कम मुझे पहचान तो लेगा। बचपन में वर्षों वे साथ रहे थे।
लेकिन जो लोग भी अहंकार की सीढ़ियां चढ़ जाते हैं, वे फिर किसी को भी पहचानते नहीं हैं। सभी उनको पहचानें यह तो वे चाहते हैं, लेकिन किसी को उन्हें पहचानना पड़े, ऐसा वे कभी नहीं चाहते। क्योंकि जो किसी को पहचानता है, वह छोटा हो जाता है। और जो सबसे पहचाना जाता है, सब जिसे रिकग्नाइज करते हे, वह बड़ा हो जाता है। देख तो लिया उसने मित्र को, लेकिन पहचाना नहीं। कौन पद पर पहुंचे लोग मित्रों को कब पहचानते हैं!
मित्र पास जाकर बैठ गया है चरणों में। शक तो मित्र को हुआ कि मुझे पहचान तो उन्होंने लिया है, क्योंकि वे इरछी-तिरछी आंख से देख कर इधर-उधर देखने लगते थे। क्योंकि न पहचाना होता, तो बार-बार देखने की उस तरफ जरूरत ही न थी। और देखने से बच भी रहे थे, उसकी भी कोई जरूरत न थी। उस मित्र ने पूछा कि ‘क्या महाराज, मैं पूछ सकता हूं, आपका नाम? ’ महाराज ने कहा, ‘मेरा नाम! अखबार नहीं पढ़ते हो? रेडियो नहीं सुनते हो? मेरा नाम कौन है जो नहीं जानता? लेकिन फिर भी तुम पूछते हो। मेरा नाम है मुनि शांतिनाथ।’ कहने से ही मित्र को ख्याल आ गया कि शांति कितनी उपलब्ध हुई होगी। दो-चार मिनट शांतिनाथ आत्मा-परमात्मा की बातें करते रहे। फिर दो-चार मिनट के बाद उस मित्र ने पूछा कि ‘मुनि जी, क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपका नाम क्या है? ’ मुनि जी तो हैरान हो गये। हद्द हो गयी। अभी इसने पूछा, और मैंने बताया। कहा कि ‘सुनते हो या कि बहरे हो! कहा मैंने मुनि शांतिनाथ।’
मित्र का संदेह मजबूत होने लगा। शांति खो गयी थी। दो-चार मिनट आत्मा-परमात्मा की फिर बात चलती रही। मित्र ने फिर पूछाः ‘क्या मैं पूछ सकता हूं, आपका नाम? ’ उन्होंने डंडा उठा लिया। उन्होंने कहाः ‘अब मैं तुम्हें बताता हूं मेरा नाम!’ उसके मित्र ने कहाः ‘मैं पहचान गया, शांतिनाथ जी। आप मेरे पुराने ही मित्र हैं। कोई फर्क कहीं भी नहीं हुआ है!’
चित्त स्वयं को, सबको धोखा देने में समर्थ है। लेकिन धोखे से चित्त रुग्ण होता चला जाता है, अस्वस्थ होता चला जाता है। हम सब भी ऐसे धोखे रोज दे रहे हैं। हमारी मुस्कुराहटें झूठी, हमारा प्रेम झूठा, हमारी दया झूठी, हमारी अहिंसा झूठी, और भीतर जो हमारी सचाई है, वह बिल्कुल और है। बाहर से हम मुनि शांतिनाथ हैं, भीतर हम कौन हैं, वह हमें खोजना है और जानना है। वह हमें पहचानना है कि भीतर हम कौन हैं।
यह जो बाहर का सारा का सारा हमने एक फिक्शन, एक कल्पना, एक सपना खड़ा कर रखा है, एक आदर्श अपने ऊपर ओढ़ रखा है, यही है जो हमारे जीवन में क्रांति को, ट्रांसफार्मेशन को नहीं आने देता है। इसके कारण हम तथ्यों को देख ही नहीं पाते। और एक और बहुत मजे की बात है कि तथ्यों को देखना ही उनकी बदलाहट हो जाती है। किसी तथ्य को पूरी तरह देख लेना ही उसकी बदलाहट हो जाती है। लेकिन तथ्यों का तीव्रता से हम दर्शन नहीं कर पाते, तो बदलाहट नहीं हो पाती।
एक वैज्ञानिक एक प्रयोग कर रहा था। उसने दो बाल्टियों में पानी भरा और दो मेंढक पकड़ कर लाया। एक बाल्टी में उसने उबलता हुआ पानी भरा और मेढक को उसमें छोड़ा। जानते हैं आप, क्या हुआ? मेढक छलांग लगा कर बाहर निकल गया। उबलता हुआ पानी था। क्या होता? और होना क्या था? इतना तीव्र था उत्ताप जल का, मेंढक छोड़ा और वह छलांग लगा कर बाहर निकल गया। इस बात का दिखाई पड़ जाना मेढक को कि आग सा पानी है, फिर कुछ करना थोड़े ही पड़ा। हो गई बात। निकल गया बाहर।
दूसरी बाल्टी में उसने मेढक को डाला। उसमें कुनकुना पानी, ल्यूकवार्म, और धीरे-धीरे बाल्टी को वह नीचे से गरम करता गया। मेढक मर गया। धीरे-धीरे पानी गर्म होता गया, धीरे-धीरे पानी गर्म होता गया, मेढक को किसी तल पर यह पता नहीं चला कि पानी इतना गर्म हो गया है कि मैं निकल जाऊं। धीरे-धीरे पानी गर्म हुआ, मेढक एडजेस्ट होता गया। मेंढक जो था, वह धीरे-धीरे उस पानी से राजी होता गया, वह धीरे-धीरे गर्म होता गया, एक-एक डिग्री गर्म होता रहा। मेढक भी उसके साथ तैयारी करता रहा और खत्म होता गया। थोड़ी देर में जब पानी उबला, तो मेंढक उसी में उबल गया और मर गया।
पहला मेंढक छलांग लगा कर क्यों निकल सका? दूसरा मेंढक छलांग लगा कर क्यों नहीं निकल सका? दूसरे मेंढक को पानी के गर्म होने का तथ्य तीव्रता से दिखायी न पड़ सका। धीरे-धीरे पानी गर्म हुआ। उसे पानी की गर्मी का एहसास किसी भी क्षण नहीं हो सका।
जो लोग आदर्शों में जीते हैं, वे ल्यूक वार्म, कुनकुने पानी में जीने लगते हैं। उनकी नजर होती है आदर्शों पर। जीवन तथ्यों की पीड़ा और जलन का पूरा अहसास उन्हें कभी नहीं हो पाता। पूरी इंटेसिटी में, पूरी तीव्रता में वे अपनी हिंसा को कभी नहींं देख पाते अहिंसा के कारण। उनके भीतर की हिंसा ल्यूक वार्म मालूम पड़ने लगती है, कुनकुनी मालूम पड़ने लगती है। वे रोज छान कर पानी पी लेते हैं, रात भोजन नहीं करते हैं, मांस नहीं खाते हैं, ऐसे वे अहिंसक हो जाते हैं; भीतर की हिंसा कुनकुनी मालूम पड़ने लगती है।
लेकिन अगर वे अहिंसा की इस सारी बातचीत को अलग कर दें और पूरी दृष्टि से भीतर की हिंसा को देखें, तो जैसे मेंढक छलांग लगा कर बाहर निकल गया, वैसे ही मनुष्य हिंसा के बाहर निकल सकता है। वैसे ही मनुष्य दुख के भी बाहर निकल सकता है। वैसे ही मनुष्य अज्ञान के भी बाहर निकल सकता है। लेकिन हमारे आदर्श, हमारे जीवन को कुनकुना बना देते हैं। और जो आदमी अपने जीवन को जितना आदर्शों से घेर लेता है, उतना ही उसके जीवन में ट्रांसफार्मेशन, वह क्रांति का क्षण कभी भी नहीं आ पाता, जो जीवन को बदल दे और नया कर दे।
अस्वस्थ चित्त है आदर्शों के कारण, लेकिन हम तो यही सोचते रहे हैं हजारों वर्षों से कि आदर्शों के कारण ही हम मनुष्य हैं पशु नहीं हैं, फलां नहीं हैं, ढिकां नहीं हैं। आदर्श ही हमारे जीवन का लक्ष्य है। आदर्श जिसके जीवन में है, वही महान है! आदर्श जिसके जीवन में है, वही नैतिक, वही धार्मिक है। झूठी हैं ये बातें। आदर्श, खुद को धोखा देने की, सेल्फ-डिसेप्शन की तरकीब है, साइंस है। और हजारों साल से आदमी अपने को धोखा दे रहा है।
इस प्रवंचना को तोड़ना जरूरी है। जिस व्यक्ति को भी स्वस्थ चित्त उपलब्ध करना हो, उसे आदर्शों के जाल से मुक्त हो ही जाना चाहिए। फिर हम जीवन के तथ्यों को, जैसे वे हैं देखने में समर्थ हो सकते हैं। फिर हम अपने भीतर उतर सकते हैं और खोज सकते हैं हिंसा को, क्रोध को, घृणा को। स्वास्थ्य तो आधा इससे ही उपलब्ध हो जायेगा, जिस क्षण आपके आदर्शांे से चित्त मुक्त हो गया। आप एकदम सरल हो जायेंगे। एक ह्यूमिलिटी, एक विनम्रता आ जायेगी। आदर्श की वजह से एक दंभ आ जाता है। मैं अहिंसक हूं, मैं फला हूं, मैं ढिकां हूं, मैं धार्मिक हूं, ये सब अहंकार के रूप हैं, रोग हैं।
लेकिन जो आदमी सारे आदर्शों को मन से हटा देता है, और मन की तथ्यात्मकता को, वह जो मन है, हिंसा, क्रोध, घृणा सेे भरा हुआ, ईष्र्या से भरा हुआ, उसको जानता है, वह एकदम विनम्र हो जाता है। एक ह्यूमिलिटी अचानक उसके ऊपर आ जाती है। वह देखता है, मैं क्या हूं! तथ्य बताते हैं कि मैं क्या हूं। मेरी असलियत क्या है! और जिस दिन वह पूरी शांति से और पूरी सरलता से, पूरी विनम्रता से इन तथ्यों को देखता है, वह देखना ही, वह दर्शन एक छलांग बन जाती है, एक जंप उसके जीवन में आ जाती है, एक क्रांति उसके जीवन में आ जाती है।
कैसे हम उन तथ्यों को देख सकेंगे? अभी मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि आदर्शों के कारण हम नहीं देख पाते हैं। आदर्शांें के कारण एक भ्रम-जाल, एक इल्युजन पैदा हो जाता है। और हम सब आदर्शोंं में पाले गये हैं और जी रहे हैं। इससे एक हिपाके्रसी, एक पाखंड, एक झूठ, एक वंचना खड़ी हो गयी है। और वही झूठ, वही वंचना, वही स्वयं को कुछ और समझना, जो कि हम हैं उससे भिन्न, उससे विरोधी, वही वंचना हमारे जीवन का सारा रोग है।
एक युवक सारी पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकला हुआ था। उस विस्तृत यात्रा में, एक अनजान अपरिचित रास्ते पर एक फकीर से उसका मिलना हो गया। वह फकीर भी अपने गांव को लौटता था। वह युवक जिस देश से आता था, उस देश में सभी लोग सफेद कपड़े पहनते थे। और यह फकीर बड़ा अजीब मालूम पड़ा, यह पूरे ही काले कपड़े पहने हुआ था। उस युवक ने उस फकीर से पूछा कि ‘आप एकदम काले कपड़े पहने हुए हैं? हमारे देश में तो सभी लोग सफेद कपड़े पहनते हैं!’ उस फकीर ने कहाः ‘सफेद कपड़े पहन सकूं, ऐसा अभी मेरा मन कहां? मन है मेरा काला, इसलिए काले कपड़े पहने हुए हूं!
वह युवक बोला, ‘तब तो सफेद बिल्कुल ही पहनने चाहिए! और अगर खादी के मिल जायें, तो और भी अच्छा है। क्योंकि काला मन हो, तो सफेद कपड़े में छिप जाता है। और खादी के हों, तब तो सोने में सुगंध आ जाती है!’ हमारे मुल्क में तो लोग ऐसी नासमझी कभी नहीं करते कि कोई काला कपड़ा पहनता हो, और काले चित्त का आदमी, कभी ऐसा हो नहीं सकता।
उस फकीर ने कहाः ‘लेकिन मैं दुखी हूं, मैं वही कपड़े पहनना चाहता हूं, जो मैं हूं। क्योंकि सफेद कपड़े पहनने से तुम्हें धोखा हो जायेगा, लेकिन मुझे तो धोखा नहीं होगा। मैं जानूंगा, और सफेद कपड़ो के कारण और भी जानूंगा कि भीतर सब काला है!’
उस युवक ने कहाः ‘किस गांव में आप रहते हैं, मैं वहां जरूर जाना चाहूंगा और संभव है अपनी यात्राओं में वहां से मैं निकलूं, तो मैं आपके दर्शन करने आना चाहूंगा। किस मोहल्ले में आप रहते हैं? ’ उसने कहाः ‘तुम पूछ लेना मेरे गांव में आकर कि झूठों की बस्ती कहां है? मैं वहीं रहता हूं!’
‘झूठों की बस्ती!’ उस युवक ने कहाः ‘हद्द हो गयी। ऐसा नाम हमने सुना नहीं!’ हजारांे बस्तियां हैं हमारे देश में, हजारों मोहल्ले, हजारों नगर, हजारों गांव। हमारे यहां तो ऐसा कभी नहीं सुना गया कि कोई झूठों की भी बस्ती हो। हमारे यहां तो जिस मोहल्ले में लोग एक-दूसरे की गर्दन काटने को तैयार रहते हैं उसका नाम ‘शांतिनगर’ रखा है! और जिस मोहल्ले में हर आदमी एक-दूसरे की जेब में हाथ डाले रहता है, उसका नाम ‘सर्वोदय नगर’ रखते हैं। हमारे मुल्क में ऐसा कभी हमने सुना नहीं। आप क्या कहते हैं-‘झूठों की बस्ती!’ लेकिन उसने कहा, ‘हां, मेरी बस्ती का तो यही नाम है, आना तो पूछ लेना।’ वह युवक लंबी यात्राओं में उस गांव में पहुंचा। उसने गांव में जाकर बहुत लोगों को पूछा कि ‘झूठों की बस्ती कहां है? ’ गांव के लोगों ने कहा, ‘पागल हो गये हो? ऐसे तो सारी दुनिया ही झूठों की बस्ती है, लेकिन नाम कौन रखेगा अपनी बस्ती का-झूठों की बस्ती? ’ उसने कहा, ‘एक फकीर था काला कपड़ा पहले हुए...।’ तो किसी ने कहाः ‘हां, ऐसा एक फकीर है इस गांव में। लेकिन वह झूठों की बस्ती में नही, वह तो मुर्दों की बस्ती में रहता है, मरघट में रहता है। तुम्हें, मालूम होता है कोई भूल हो गयी। उसने कहा होगा मुर्दों की बस्ती। तुम झूठों की बस्ती के ख्याल में आ गये। तुम पूछो, मरघट कहां है? मरघट पर एक फकीर रहता है इस गांव में जो काले कपड़े पहनता है!’
खैर, वह खोजता हुआ मरघट पहुंचा, बात सच निकली। मरघट पर उस फकीर का झोपड़ा था। फकीर के पास जाकर वह अंदर गया, तो देखा, बडी हड्डियां, बड़े सिर खोपड़ियां उस झोपड़ी में चारों तरफ रखी हुई हैं। ढेर लगा हुआ है। और फकीर बीच में बैठा हुआ है। उसने कहाः ‘आप तो मुझसे कह रह थे कि मैं झूठों की बस्ती में रहता हूं और आप तो यहां मुर्दों की बस्ती में रहते हैं! मुझे बड़ी परेशानी हुई, पूछते-पूछते हैरान हो गया।’ उस फकीर ने कहाः ‘दोनों ही बातें सच हैं। इन मुर्दों की खोज-बीन करने से मुझे इस बस्ती का नाम झूठों की बस्ती रखना पड़ा।’
‘कैसी खोज-बीन? ’
तुम देखते हो, ये हड्डियां और खोपड़ियां रखी हैं! मैंने ब्राह्मण की खोपड़ी की बहुत खोजबीन की कि पता चल जाये कि शूद्र की खोपड़ी से भिन्न है, लेकिन कुछ पता नहीं चलता है। मैंने साधु की हड्डियां खोजीं और असाधु की और दोनों में पता लगाया कि कोई फर्क पता चल जाए, पर पता नहीं चलता। और ये सारे लोग जब तक जिंदा थे, तब तक ये बहुत फर्क मानते थे कि मैं यह हूं, तुम वह हो, और मरने पर मैं पाता हूं कि सब मिट्टी साबित हुए! और एक ने भी जिंदगी में यह नहीं कहा कि मैं मिट्टी हूं। इसलिए मैंने इस बस्ती का नाम झूठों की बस्ती रख दिया है। सब झूठे थे, असलियत मिट्टी थी। लेकिन न मालूम क्या-क्या दावे करते थे कि मैं यह हूं, मैं वह हूं। मैं ब्राह्मण हूं, तू शूद्र है। मैं नेता हूं, तू अनुयायी है। मैं गुरु हूं, तू शिष्य है! फलां हैं, ढिकां है। न मालूम क्या-क्या! असलियत एक थी कि सब मिट्टी थे। मरघट पर आकर मुझे यह पता चला इसलिए मैंने इसका नाम झूठों की बस्ती रख लिया। और शायद तुम्हें हैरानी होगी कि मरघट को बस्ती कहना उचित है या नहीं। तो मैंने इसलिए इसका नाम बस्ती रखा है। जिसको तुम बस्ती कहते हो, वहां तो रोज कोई न कोई मरता है और उजाड़ हो जाती है। यहां जो एक दफा बस जाता है, फिर कभी नहीं उजड़ता। इसलिए इसका नाम मैंने बस्ती रख छोड़ा है। और ये सब झूठे थे। मरने से यह पता चल गया।’
हम सब झूठे लोग हैं, और जब तक हम झूठे लोग हैं, तब तक हम अस्वस्थ रहेंगे। हम स्वस्थ नहीं हो सकते। स्वस्थ होने के लिये झूठ से मुक्त होना जरूरी है। उस झूठ से, वह जो हमने अपने व्यक्तित्व के संबंध में सृजन कर रखी है, निर्माण कर रखी है। उस झूठ से मुक्त होना जरूरी है, जो हमने अपने बाबत आदर्शांे का जाल खड़ा करके निर्मित कर ली है। और जो इस झूठ से मुक्त नहींं होता, उसका सत्य से कभी कोई संबंध नहीं हो सकता। व्यक्तित्व झूठा हो, तो सत्य से मिलन कैसे होगा? सत्य से मिलने के लिये कम से कम सच्चा व्यक्तित्व तो होना चाहिए, कम से कम सच्चाई तो साफ होनी चाहिए कि मैं क्या हूं!
तो आज की सुबह तो इतना की कहना चाहूंगा कि यह भ्रमजाल जो हमने आदर्शों का अपने आस-पास खड़ा कर रखा है, उस भ्रमजाल में हम झूठे आदमी हो गये हैं और हमारी दुनिया झूठों की बस्ती हो गयी है। इसको हम देखें। अब सुबह के ध्यान के लिये बैठेंगे।
सुबह के ध्यान के संबंध में दो बातें आपसे कह दूं, फिर हम बैठेंगे। सुबह के इस ध्यान में हम बैठे रहेंगे अपनी जगह शरीर को सीधा रख कर। लेकिन सीधा रखने में कोई तनाव न पड़े। बहुत आहिस्ता से, आराम से, सारे शरीर को भी ढीला छोड़ देना है, ताकि शरीर पर कोई किसी तरह का स्ट्रैन न हो। ऐसे बैठ जाना है, जैसे हम विश्राम कर रहे हैं। फिर बहुत आहिस्ता से, आंख बंद कर लेनी है। वह भी बहुत आहिस्ता से, आंख पर जोर न पड़े कि हमने आंख भींच कर बंद कर ली हो। पलक गिर जाये। फिर क्या करेंगे? फिर कुछ भी नहीं करेंगे...चुपचाप बैठे रहेंगे, जस्ट सिटिंग। कुछ भी नहीं करना है। वह जापान में तो ध्यान के लिये कहते हैं...झा-झेन। और झा-झेन का मतलब होता है...जस्ट सिटिंग, बस खाली बैठ रहना।
एक बहुत बड़ा आश्रम था जापान में और जापान का बादशाह उस आश्रम को देखने गया। कई हजार भिक्षु उस आश्रम में रहते थे। आश्रम का जो प्रधान था भिक्षु, उसने बादशाह को सभी जगहें दिखलाईं जाकर दिखलाया एक-एक झोपड़ा--यहां भिक्षु स्नान करते हैं, यहां भोजन करते हैं, यहां अध्ययन करते हैं। बीच में एक विशाल भवन था। राजा बार-बार पूछने लगा, ‘और वहां क्या करते हैं? ’ भिक्षु उसकी बात सुन कर चुप रह जाता था। राजा बहुत हैरान हुआ। बाथरूम, पाखाने....सब बतलाये, लेकिन वह जो विशाल भवन था, वह देखने जैसे लगता था, उसकी वह भिक्षु बात भी नहीं करता था। आखिर राजा के विदा का वक्त आ गया। द्वार पर लौट आया, अभी वह भवन तुम दिखलाया गया था। राजा ने कहा, ‘या तो मैं पागल हूं या तुम। जिसे मैं देखने आया था, वह भवन तुम दिखलाते नहीं और फिजूल के झोपड़े मुझे दिखलाते फिरे। अब मैं जा रहा हूं। क्या मैं पूछ सकता हूं? ’
उस भिक्षु ने कहाः ‘तुम्हारे इस पूछने के कारण ही मैं बताने में असमर्थ हो गया। वहां हम कुछ नहींं करते। वह हमारा ध्यान का कक्ष है। वहां हम कुछ भी नहीं करते। तुम बार-बार पूछते हो, वहां क्या करते हो? तो मैं वे झोपड़े तुमको बताता रहा, जहां हम कुछ करते हैं। कहीं स्नान करते हैं, कहीं भोजन करते हैं। इस भवन में हम कुछ नहीं करते। तो मैं कैसे बताऊं कि हम वहां क्या करते हैं! इसलिए मैं ले नहीं गया। समझ गया कि यह करने की भाषा समझता है, न करने की भाषा समझेगा नहीं। इसलिये मैंने उस भवन को छोड़ दिया। वहां हम कुछ भी नहीं करते हैं। वहां तो हम बस बैठ जाते हैं। कुछ भी नहीं करते।’
यहां भी हम बैठे जाएंगे। बस कुछ भी नहीं करेंगे। आवाजें सुनाई पड़ेगीं, हवाएं पत्तों को हिलायेंगी, वृक्षों से आवाज होगी, उस आवाज को चुपचाप सुनते रहेंगे...सुनते रहेंगे...सुनते रहेंगे, और सुनते ही सुनते आप पायेंगे कि भीतर एक साइलेंस, एक शांति उत्पन्न होनी शुरू हो जाती है।
अगर हम चुपचाप बैठ कर सिर्फ सुनते ही रहें, जीवन को, जो चारों तरफ न मालूम कितने रूपों में ध्वनियां कर रहा है, तो हम भीतर एकदम शांत होते चले जायेंगे। और वह शांति जैसे-जैसे गहरी होगी, वैसे-वैसे एक नये आयाम का भीतर उदघाटन हो जाता है, एक नई डाइमेन्शन खुलनी शुरू हो जाती है। उसी एक आयाम में कही सत्य है, कहीं परमात्मा है, कहीं जीवन का अनुभव है। उसी द्वार पर चल कर कहीं कुछ है जिसे शब्दों में कहना कठिन है कि क्या है।
थोड़े दूर-दूर बैठेंगे, ताकि कोई किसी को छूता न हो। थोड़े-थोड़े फासले पर बैठ जायें। दूर दरख्तों के नीचे भी जाकर बैठ सकते हैं, और भी सुखद होगा। आवाज तो मेरी वहां सुनाई पड़ेगी, लेकिन थोड़े फासले पर बैठें, बीच से हट जायें। कोई किसी को छूता हुआ न हो।
बैठ जाइए, कहीं भी बैठ जाइए। कहां बैठते हैं इसका सवाल नहीं है। कैसे बैठते हैं, इसका सवाल है। कहीं भी बैठ जाइए। फिर आहिस्ता से आंख बंद कर लें। शरीर को ढीला छोड़ दें। बिल्कुल विश्राम में बैठ जाएं। आराम कर रहे हैं, कोई काम नहीं है। बिल्कुल शांत और शिथिल बैठ जाएं। देखें...शांत और शिथिल। हवाएं जोर से आने को हैं, वृक्ष हिलेंगे, आवाज होगी, चुपचाप सुनते रहें। सुनते ही सुनते...सुनते ही सुनते भीतर सब शांत होता जाता है। सुनें, मौन सुनें...पक्षियों की आवाज, चुपचाप सुनते रहें और कुछ भी नहीं करना है। बस बैठे हैं, सुन रहे हैं।
सुनते रहें, बैठे रहें और धीरे-धीरे मन शांत होता जाएगा। एक सन्नाटा भीतर गहरा हो जाएंगा। सुनें, बाहर जीवन का जो संगीत है, उसे चुपचाप सुनें। कोई तनाव न रखें, बिल्कुल शिथिल। मन पर कोई भार न रखें। मस्तिष्क खिंचा हुआ न हो, सब ढीला छोड़ दे। सुनें, सुनते-सुनते मन शांत होता जाएगा।
सुनते रहें, बैठे रहें। भीतर कोई चीज शांत होती चली जाएगी। मन शांत हो जाएगा। भीतर देखें, मन शांत होता जा रहा है...बिल्कुल शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...मन शांत हो रहा है...। सुनते जाएं, सुनते रहें...मन शांत होता जा रहा है...मन बिल्कुल शांत हो गया है...मन शांत हो गया है...मन शांत हो गया है...।
धीरे-धीरे दो-चार गहरे श्वास लेें, फिर बहुत धीरे से आंख खोलों। जैसी शांति भीतर है, वैसी ही शांति बाहर भी है, और अनुभव होगी। धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास लेकर आहिस्ता से आंख खोलें।
यह तो हमने प्रयोग के लिए किया। दोपहर में कहीं भी एकांत में चले जाएं, किसी वृक्ष के नीचे अकेले बैठ जाएं और चुपचाप इस प्रयोग को करें।

सुबह की बैठक समाप्त हुई।

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