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शनिवार, 1 सितंबर 2018

नानक दुखिया सब संसार-(प्रवचन-07)

सातवां-प्रवचन-(ओशो)

नानक दुखिया सब संसार

मैं अगर दुखी हूं तो सारी दुनिया जिम्मेवार है, ऐसा ही मन मानने को करता है, लेकिन जब मेरे दुख में सारी दुनिया जिम्मेवार है तो यह कैसे हो सकता है कि सारी दुनिया के दुख में मैं जिम्मेवार न रहूं? यह तो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अगर इस कमरे में बैठे हुए सारे लोग मेरे दुख में जिम्मेवार हैं तो यह कैसे संभव है कि मैं उनके दुख में जिम्मेवार न हो जाऊं? क्योंकि, जब तुम सोचोगे, तुम जिस सारे कमरे की बाबत सोचोगे, उसमें मैं भी हूं। मैं जिस दुनिया के संबंध में सोचूंगा, तुम भी उस दुनिया में हो। आमतौर से हमारा मन यह मानने को करता है कि मैं अगर दुखी हूं तो सारी दुनिया जिम्मेवार है। लेकिन इसका ही दूसरा पहलू यह है कि तब दुनिया के दुख में मैं भी जिम्मेवार हूं, क्योंकि यहां हमारा जो जीवन है, वह अलग-अलग जीवन नहीं है।
जीवन इकट्ठा है और इतना इकट्ठा है कि सिर्फ हमारी समझ की कमी है कि हमें उसका इकट्ठापन पूरा दिखाई नहीं पड़ता है। इस कमरे में हम इतने लोग बैठे हैं। इस कमरे में अगर एक भी आदमी दुखी है तो इस कमरे की हवा, इस कमरे का वातावरण वह दुख की तरंगों से भर देगा और इस कमरे में आने वाले व्यक्ति को पता भी नहीं चलेगा कि वे दुख के वातावरण में प्रविष्ट कर गए हैं।


हम सब एक-दूसरे को छू रहे हैं। छू रहे हैं, यह कहना भी गलत ही है, हम सब एक-दूसरे से जुड़े ही हुए हैं। हम इतने ज्यादा जुड़े हुए हैं कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। हमारी हालत ऐसी है जैसे एक वृक्ष के पत्ते को होश आ जाए और वह सोचे तो उसको ऐसा समझ में पड़े कि वह जो पड़ोस का पत्ता है वह अलग है, मैं अलग हूं, जब कि वे एक ही शाखा पर लगे दो पत्ते हैं और उनमें से एक पत्ता भी बीमार नहीं पड़ सकता--सब पत्तों को बिना बीमार किए। सब जुड़े हुए हैं।
एक की लहरें दूसरे तक पहुंचती रहेंगी। हम कह सकते हैं कि एक वृक्ष के सब पत्ते जुड़े हैं, लेकिन बगल का वृक्ष तो अलग है। लेकिन, नीचे जमीन दोनों को जोड़े हुए है और जिस जमीन से इस वृक्ष की जड़े बंधी हैं, उसी से दूसरे की भी बंधी हैं। यह असंभव है कि एक वृक्ष बीमार हो और दूसरा स्वस्थ रह जाए, क्योंकि दोनों एक ही जमीन से जुड़े हुए हैं एक ही हवाओं से जुड़े हुए हैं। तब हम यह कह सकते हैं कि इस पृथ्वी पर जो वृक्ष हैं, हो सकता है वे परस्पर जुड़े हुए हों, लेकिन और पृथ्वीयां भी होंगी, कहीं उन पर भी वृक्ष होंगे। वास्तविकता इतनी सी ही है कि हमें दिखाई नहीं पड़ता है कि जोड़ सब तरफ फैला हुआ है।
असल में दूर, अंतहीन सीमाओं पर भी जो तारे होंगे, वे भी किसी न किसी भांति मुझसे प्रभावित होंगे, और मैं उनसे प्रभावित होऊंगा। यानी, जिन तारों का हमें कोई पता भी नहीं है और जिन तारों को मेरा तो कोई पता ही न होगा (लेकिन पता होना ही जरूरी नहीं है) सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। एक समुद्र के किनारे जो लहरें आकर टकरा गई हैं उसकी हजारों लहरों ने आकर प्रभावित किया है, जिसका उसे कोई भी पता नहीं है जो न मालूम कितने हजारों मील दूर एक लहर उठी होगी। अब उस लहर के संदर्भ में सारी लहरें प्रभावित होंगी।
अभी यह जान कर भी हम हैरान होंगे कि लहर जैसी चीज आमतौर से हमें आती हुई दिखाई पड़ती है, वस्तुतः कोई लहर आती नहीं। लहर तो अपनी जगह से उठती है, लेकिन उसके उठने की वजह से बगल में गड्ढा हो जाता है। इसी तरह दूसरी लहर अपनी जगह उठती है। कोई लहर आती नहीं है; सब लहरें अपनी जगह उठती और गिरती हैं। ‘लहर आना’ बिलकुल ही भ्रामक बात है; लेकिन वह जो छा जाती है, कंप्लीट हो जाती है।
एक लहर उठेगी तो उसका परिणाम पूरे अंतहीन सागर की छाती पर पड़ने वाला है, और वह जो एक लहर उठी है उससे रेत पर भी फर्क पड़ेगा हवाओं पर भी फर्क पड़ेगा। सब कुछ बदल जाएगा। यह दुनिया ठीक ऐसी ही न होती, अगर वह लहर न उठी होती। इस दुनिया में बुनियादी फर्क होता है। हम एक आदमी को हटा लें दुनिया से तो सारी दुनिया दूसरी होगी। आदमी तो बहुत बड़ी चीज है, कई दफा तो बहुत छोटी-छोटी घटनाएं सारे विश्व को प्रभावित कर देती हैं।
नेपोलियन जिंदगी भर बिल्ली से डरता रहा। छह महीने का था कि एक बिल्ली उसकी छाती पर सवार हो गई। नौकरानी बाहर गई हुई थी। वह भागी हुई आई। बिल्ली उसने उतार दी। लेकिन उस छह महीने के बच्चे पर असर हो गया बिल्ली का। वह बाद की जिंदगी में शेर से लड़ सकता था, लेकिन बिल्ली को देख कर कांप जाता था। जिस युद्ध में वह नेल्सन से हारा, उसमें नेल्सन सत्तर बिल्लियां अपनी फौज के सामने बांधकर ले गया था, क्योंकि उसे यह पता चल गया था कि नेपोलियन बिल्ली से डरता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि नेलसन नहीं जीता, बिल्लियां जीतीं। अगर छह महीने की उम्र में नेपोलियन की छाती पर एक बिल्ली सवार न होती तो दुनिया का इतिहास पूरा दूसरा होता। अगर नेपोलियन जीतता तो इतिहास बिलकुल दूसरा होता; मगर नेपोलियन हारा तो इतिहास बिलकुल दूसरा हो गया।
इस घटना की गहराई में जाएं तो मालूम होगा कि बिल्ली का एक बच्चा जो उसकी छाती पर चढ़ गया था, वह सारी दुनिया के इतिहास को प्रभावित करने वाला बच्चा (बिल्ली का) है; वह साधारण नहीं; ऐतिहासिक बच्चा है। यानी तब हो सकता था कि भारत अंग्रेजों का कभी गुलाम न होता, अगर वह बिल्ली का बच्चा नेपोलियन की छाती पर न चढ़ा होता। तब हो सकता था अंग्रेजों का साम्राज्य कभी पैदा ही न हुआ होता, क्योंकि वह तो नेलसन की लड़ाई में तय हुआ कि साम्राज्य जगत पर किसका होगा--फ्रांस का होगा कि इंग्लैंड का होगा। हालांकि उस बिल्ली के बच्चे को क्या मतलब दुनिया के इतिहास से? वह तो ऐसे ही गुजर रहा था और एक बच्चे पर सवार हो गया था। उसे क्या लेना-देना था इतिहास से?
मैं सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं कि जिंदगी इतनी संबंधित है कि वह जिसको हम बहुत क्षुद्र कहते हैं, उसको भी क्षुद्र नहीं कहना चाहिए। हम सिर्फ इसलिए क्षुद्र कह पाते हैं कि विराट संदर्भ में उसके क्या-क्या परिणाम होंगे, यह हमें कुछ भी पता नहीं है। हम सब जुड़े हैं। वह जो जीवित है, जुड़ा है, वह जो नहीं जीवित है, वह भी जुड़ा है। यानी हमारे सुख और दुख में हमारे जीवित लोगों का ही हाथ नहीं है; वे जो अब नहीं है जगत में, उनका भी हाथ है हमारे सुख-दुख में। हम और गहरे देखें तो अभी जो पैदा नहीं हुए हैं, उनका भी हाथ है।
 अजन्मे लोगों के प्रभाव को समझना जरा मुश्किल पड़ता है, क्योंकि हमें तो यही देखना मुश्किल पड़ता है कि वियतनाम में किसी आदमी की हत्या हो गई है तो उससे मेरा क्या संबंध है? वस्तुतः मैं भी उस दुनिया को बना रहा हूं, जिसमें वियतनाम संभव है। अमेरिका को गाली देकर कुछ हल नहीं होगा। मैं भी उस दुनिया को बनाने में जिम्मेवार हूं, जिसमें वियतनाम जैसी घटना घट सकती है। मैं भी उस दुनिया को बना रहा हूं, जिसमें अहमदाबाद का दंगा हो सकता है, भले ही मैं अहमदाबाद में नहीं रहता। जिस दुनिया में मैं रहता हूं, उसी में अहमदाबाद भी संभव हुआ है। तो जाने अनजाने मैं भी जुड़ा हुआ हूं, अपराधी मैं भी हूं। ‘अगर जिंदगी में कहीं फूल खिलता है तो उसकी खुशी का भागीदार मैं भी हूं।’ जब तक इस भांति एक-एक व्यक्ति अपने पूर्ण उत्तरदायित्व को अनुभव न करे तब तक दूसरी दुनिया नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि जब मैं ऐसा अनुभव करूं कि वियतनाम में जो हत्या हो रही है, उसमें मैं जिम्मेवार हूं, तब मुझे बदलना ही पड़ेगा अपने को।
लेकिन मैं क्या कहता हूं? मैं कहता हूं--अमरीका के लोग जिम्मेवार हैं, फलां प्रेसिडेंट जिम्मेवार है, फलां पार्टी जिम्मेवार है, मैं बच गया, मेरी बात खत्म हो गई। अगर हिंदुस्तान में गरीब है तो मैं कहूंगा--पैसे वाले लोग जिम्मेवार हैं; उसमें मैं क्या कर सकता हूं? बिरला जिम्मेवार है, फलां जिम्मेवार है; बात खत्म हो गई।
मै अपने को जिम्मेवार मानूं तो मुझे क्रांति से गुजरना पड़े इसी वक्त, क्योंकि तब मुझे देखना पड़ेगा कि क्या मेरे मन में भी अपने से किसी को नीचे रखने में रस आता है? अगर रस आता है तो फिर किसी को गरीब करने में बिरला ही जिम्मेवार नहीं है मैं भी जिम्मेवार हूं। मुझसे कोई बड़ा मकान बना लेता है तो क्यों मुझे पीड़ा और परेशानी होती है? क्योंकि मेरी भी जिम्मेवारी है, मैं भी जुड़ा हुआ हूं कहीं। हम सब भी कोशिश में लगे हुए हैं, चाहे हम गरीब हों, लेकिन हम इस कोशिश में लगे हुए हैं कि कैसे अमीर हो जाएं? वह कोशिश गरीबी पैदा करती रहेगी।
अगर मुझे कोई अपमानित कर दे तो क्या मेरे मन में उसकी हत्या कर देने का खयाल नहीं उठ आता? हम कितनी दफा सोच लेते हैं कि मार डालो फलां आदमी को, समाप्त कर दो। नहीं मारते हैं, यह दूसरी बात है, लेकिन यह हमारे मन में तो उठ आता है। अगर हमारे पास ताकत हो, सुविधा हो, हम पर कोई रोक न हो, हमारे पकड़ जाने का कोई उपाय न हो तो हम इस बात को भी कार्यान्वित कर देंगे। अगर तुम्हारे हाथ में इतनी ताकत हो कि तुम अपने सारे दुश्मनों को आज ही समाप्त कर सको और तुम पर कोई उंगली भी न उठा सके तो पूछना जरूरी है कि क्या तुम समाप्त करोगे कि छोड़ दोगे? तो मन कहेगा कि समाप्त कर देंगे। न करने का कारण यह नहीं कि हम समाप्त नहीं करना चाहते हैं; नहीं करने का कारण यह है कि समाप्त करने की सुविधा जुटाना बड़ी मुश्किल बात है। किसी को मिल गई है, वह कर रहा है। किसी को नहीं मिली है, वह सोच रहा है।
जब तक मेरे मन में ऐसा सवाल उठता हो कि जो मेरे विरोध में है, मेरा दुश्मन है उसे खत्म कर देना है, तब तक वियतनाम होता रहेगा, क्योंकि वियतनाम वही है। एक बड़े पैमाने पर वही घटना हो रही है कि जो मुझे बरदाश्त नहीं है; उसे मैं जिंदा नहीं देखना चाहता हूं। हमारा पूरा समाज वही कर रहा है। एक चोर को हम सजा दे रहे हैं, एक हत्यारे को हम फांसी दे रहे हैं, बड़े मजे की बात है। हत्यारे पर जुर्म ठहरा रहे हैं कि समाज की तुमने हत्या की है, इसलिए तुम जिम्मेवार हो। सजा हम उसे हत्या की दे रहे हैं कि हम तुम्हें मार डालते हैं। अब उनके मार डालने के लिए कौन जिम्मेवार होगा? फर्क इतना ही है कि वह अकेला है और समाज के खिलाफ हत्या कर गया है; और हम समाज के पक्ष में हत्या कर रहे हैं, इसलिए हम जज हैं, न्यायाधीश हैं। हम जो हत्या कर रहे हैं वह हत्या नहीं है, वह सजा है! उस आदमी ने भी, हो सकता है, सिर्फ सजा दी हो।
जिस समाज में एक हत्या न्यायोचित है और
एक हत्या न्यायोचित नहीं है,
उस समाज में हत्याएं कभी भी हो सकती हैं।
सवाल सिर्फ यह है कि कब हम न्यायोचित हत्या ठहरा सकें। वह न्यायोचित हो जाए, हत्या तब हत्या नहीं रहेगी। हम कहते हैं कि आदमी को मारना पाप है, लेकिन दो मुल्क लड़ने लगते हैं तो जिस आदमी ने जितने ज्यादा आदमी मारे हैं, उसको हम ‘महावीर चक्र’ देंगे! अब कितने मजे की बात है! आदमी को मारना हर हालत में पाप नहीं है! कभी तो आदमी को मारना पुण्य है और कभी जो जितने ज्यादा आदमी मारेगा, उतना जल्द स्वर्ग जाने का हम उसका इंतजाम किए हुए हैं।
जब तक हमारी ऐसी दोहरी वृत्ति है कि जब हमारा मतलब होता है, तब हत्या करना पुण्य होता है, जब हमारा मतलब नहीं होता, तब हत्या करना पाप हो जाए, तो फिर वियतनाम संभव रहेगा, हिंदू-मुस्लिम दंगे संभव रहेंगे। इसमें जब भी हम ऐसा सोचेंगे कि कोई और जिम्मेवार है, तब वह हमारे मन की तरकीब है; और जो तरकीब हम उपयोग कर रहे हैं, वही तरकीब सारे लोग उपयोग कर रहे हैं। जब सारी दुनिया में हर आदमी यही तरकीब उपयोग कर रहा है, तो उसमें क्रांति कहां से शुरू हो? कैसे शुरू हो?

प्रश्नः मेरा अनुभव अलगता का अनुभव है। मैं जुड़ा हुआ हूं। ऐसा मुझे महसूस क्यों नहीं होता?

अगर तुम्हारा ऐसा अनुभव है कि दुनिया तुम्हें दुखी कर रही है तो तुम कैसे अनुभव करोगे? अगर तुम अलग ही हो तो बात खत्म हो गई। लेकिन, जब दुनिया तुम्हें दुखी कर रही है तब तो तुम जुड़े हुए हो, तब तो तुम मानते हो कि मुझे दुनिया दुख दे रही है, मुझे फलां आदमी दुख दे रहा है, मुझे फलां आदमी परेशान कर रहा है; लेकिन जब दुनिया को दुख देने का सवाल उठा तब तुम अलग हो गए। यह तो दोहरा मापदंड हुआ।
अगर मैं यह कहूं कि मुझे कोई दुखी ही नहीं कर सकता, दुनिया कैसी भी हो, तब मैं शायद दूसरी बात के कहने का हकदार हो जाऊं कि मैं किसी को दुख नहीं दे रहा हूं। ये दोनों बातें जुड़ी हैं, ये दोनों बातें इकट्ठी हैं। इसमें तुम कहो कि आधे के लिए हम जुड़े रहेंगे और आधे के लिए हम जुड़े नहीं रहेंगे, तो ऐसा नहीं चलेगा; क्योंकि, तुम जुड़े हो तो जुड़े हो, नहीं जुड़े हो तो नहीं जुड़े हो। अगर मैं यह कहता हूं कि तुम मुझे दुखी कर सकते हो तो मैं यह भी माने ले रहा हूं कि मैं भी तुम्हें दुखी कर सकता हूं। अगर मैं यह कह सकता हूं कि इस दरवाजे से भीतर आना संभव है तो दूसरी बात अनिवार्य रूप से हो गई कि इस दरवाजे से बाहर जाना भी संभव है। लेकिन मैं यह कहता हूं कि ऐसा दरवाजा है, जिससे सिर्फ भीतर ही आना संभव है, बाहर जाना संभव नहीं है, फिर तो इस दलील का हर आदमी उपयोग कर ही रहा है। यथार्थ यह है कि अगर तुम दुनिया में पूछने जाओगे कि ‘कौन है दुनिया तो?’ तो तुम्हें एक-एक आदमी मिलेगा, तुम्हारे बराबर ही; दुनिया कहीं भी नहीं मिलेगी। अगर तुम खोजने चले जाओगे कि पता लगा लें कि दुनिया कहां है तो मैं मिलूंगा, आप मिलेंगे और हम सब तुम्हारे बराबर आदमी होंगे।
दुनिया तुम्हारी तरकीब है जिसमें तुम अपने को अकेला कर लेते हो और सब की भीड़ को जोड़ देते हो। वे भी कहां जुड़े हुए हैं! वे सब भी अकेले हैं, इसलिए प्रत्येक आदमी को दुनिया बड़ी मालूम पड़ती है, क्योंकि वह अपने को छोड़ कर सब से जोड़ लेता है। इस कमरे में बहुत बड़े लोग बैठे हुए हैं। एक-एक आदमी देखने जाओगे तो सब अलग-अलग हैं। यह जो भीड़ हम जोड़ लेते हैं और अपने को अलग कर लेते हैं, बाकी सब को जोड़ देते हैं, तो कठिनाई शुरू हो जाती है। जितना बड़ा हिस्सा मैं हूं इस दुनिया में, उतना ही बड़ा हिस्सा कोई और भी है; बड़ा छोटा कुछ भी नहीं। समाज, दुनिया और देश झूठे शब्द हैं, उनका कोई अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व व्यक्ति का है।
मेरे लिए तुम दुनिया हो। तुम कहते हो कि मैं बहुत छोटा आदमी हूं। मैं जिसको भी पकड़ कर कहूंगा कि तुम मेरे लिए दुनिया हो, वह भी कहेगा कि मैं बहुत छोटा आदमी हूं, दुनिया तो बहुत बड़ी है। फिर दुनिया को कहां पकड़ने जाओगे? दुनिया कहीं भी नहीं है; सब जगह व्यक्ति ही है। अगर तुम्हें यह बात समझ में आ जाए कि व्यक्ति का जोड़--जैसी कोई चीज नहीं है, व्यक्ति है और उन व्यक्तिओं के अंतः संबंध हैं और उन व्यक्तिओं को एक-दूसरे को प्रभावित करने वाली लहरें हैं और वे व्यक्ति भीतर से एक दूसरे से जुड़े हुए संयुक्त हैं--ऐसा तुम अगर एहसास करोगे, तब तुम अपने को न तो असहाय समझोगे, न ही इंपोटेंट , निर्वीर्य समझोगे। न तुम यह समझोगे कि अब मैं कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि तब तुम यह समझोगे कि मेरे ही बराबर तो सारे लोग हैं। जितना वे कर सकते हैं, उतना मैं कर सकता हूं। लेकिन तुम बाकी सबको जोड़ लेते हो और अपने को अलग कर देते हो, तब तुम मुश्किल में पड़ जाते हो। जोड़ जैसी चीज कहीं है ही नहीं।
यह गलत है कि तुम अपने को तो व्यक्ति की तरह देखते हो और बाकी दुनिया को व्यक्ति की तरह नहीं देखते हो। मैं कह रहा हूं कि दोहरे हमारे स्टेंडर्ड हैं हर चीज में। जो हम अपने लिए सोचते हैं, वह हम सब के लिए नहीं सोच पाते। यहीं से तकलीफ शुरू हो जाती है। अगर मुझे कोई गाली दे तो मैं जानता हूं कि क्रोध उठता है। लेकिन किसी दूसरे को कोई गाली दे रहा हो तो मैं समझा सकता हूं कि क्रोध बुरी चीज है। वहां मैं बिलकुल निर्दयी हो जाऊंगा। वहां मैं व्यक्ति को अनुभव नहीं करूंगा। उसकी तकलीफ, उसकी कमजोरी, उसकी परेशानी, उसकी मुश्किल, उसका अस्तित्व अगर मैं अपने जैसे अनुभव करूं तो एक तो जिंदगी के प्रति बहुत करुणा अनुभव होगी, क्योंकि जितना असहाय तुम हो, उतना असहाय कोई और भी है; और दूसरी तरफ तो सारे लोग असहाय मालूम पड़ेंगे।
दूसरी तरफ यह बात मालूम पड़ेगी कि जितनी सामथ्र्य उनकी थी, उतनी सामथ्र्य मेरी थी। सब से बड़ी बात विचारणीय जो है, वह यह है कि तब तो कुछ कर सकोगे। अभी तुम जो रुख ले रहे हो, वह तुम्हें निष्क्रिय कर देगा और तुम कुछ भी न कर सकोगे। उससे तुम सिर्फ निर्वीर्य होकर गिर पड़ोगे और कुछ भी नहीं कर सकोगे, क्योंकि तुमने एक झूठी दुनिया का जोड़ खड़ा कर लिया है, जो हिमालय मालूम पड़ रहा है, जब कि तुम तो एक टुकड़े रह गए छोटे। अगर तुम व्यक्ति की तरह दुनिया को देख पाओ तो फिर बहुत करने के संभावना के द्वार खुल जाते हैं। सब से बड़ा द्वार यह खुलता है कि अगर मुझे कहीं कुछ गलत दिखाई पड़ रहा है, तो मैं उसमें कहां तक भागीदार हूं।
इस तरह के आदमी को ही धार्मिक कहा जा सकता है, जिसको यह खयाल हो रहा है कि दुनिया में जो खराबी है, बीमारी है, दुख है, पीड़ा है, चिंता है, उसमें मैं कहां-कहां जिम्मेवार हूं, मैं कितनी चिंता पैदा करवा रहा हूं, मैं कितने दुख पैदा करवा रहा हूं जिनमें फल लगेंगे। अगर मैं विरोध में हूं और मुझे लगता है कि वियतनाम में बुरा हो रहा है तो फिर मुझे सोचना पड़ेगा कि मैं कितनी दूर तक वियतनाम में सहयोगी बन रहा हूं। वह हवा पैदा कर रहा हूं, जहां वियतनाम पैदा हो सके और कम से कम उतना तो हाथ को खींचूं, उतने दूर तक तो मेरा सहयोग शुरू हो जाए।
जब कोई व्यक्ति दूर तक अपना सहयोग कर ले जीवन की स्थिति से, तो उसको बड़ी ऊर्जा, बड़ी शक्ति उपलब्ध होती है, क्योंकि वह जीवन के प्राणों से बहुत तादात्म्य स्थापित कर लेता है। उसका अनुभव उससे शुरू हो जाता है; तब उसके हाथ से बड़े काम घटित हो सकते हैं, क्योंकि बहुत गहरे में तब वह व्यक्ति रहा ही नहीं। इसने समग्र के साथ एक भीतरी तादात्म्य जो उत्पन्न कर लिया!
असल में कठिनाई यह है कि अपने को भी तुम वैसा ही नहीं जानते हो। जो मै कह रहा हूं, वह यह है कि हम अपने लिए भेद कर लेते हैं। कुल इतना कह रहा हूं कि जब मैं नींद की बात सोचने चलता हूं तो तुम्हारे हाथ में दूसरे तराजू का उपयोग करता हूं। जब मैं किसी आदमी को कहने जाता हूं कि तुम जिम्मेवार हो इस सारे उपद्रव के लिए, तब मैं दूसरे तराजू का उपयोग करता हूं। जब मैं अपने को तोलने जाता हूं तो उसका कारण बन जाता है।

प्रश्नः मैं भाषा से अपने को देख रहा हूं।

यह तो ठीक है कि भाषा के कारण कठिनाइयां पैदा होती हैं, लेकिन भाषा के द्वारा वे कठिनाइयां हल भी की जा सकती हैं। अगर भाषा के द्वारा तुमने यह समझा है कि दुनिया इकट्ठी है और मैं अकेला हूं, तो भाषा के द्वारा यह भी समझा जा सकता है जो मैं कह रहा हूं। असल में भाषा जो भी भूल पैदा करती है, वह भाषा से ही दूर की जा सकती है। भाषा में उनके दूर करने का उपाय है। जो भूल भाषा ने पैदा ही नहीं की है, उनका तो भाषा से कोई संबंध ही नहीं है। अगर वैसी कोई भूल है तो मौन से ही दूर हो सकती है, भाषा से दूर कभी नहीं हो सकती। यानी भाषा का कोई कुसूर ही नहीं है। भाषा से जितनी भूलें पैदा हुई वे तो हल की जा सकती हैं। जैसे भाषा ने तुम्हें एक नाम दे दिया है। नाम के कारण तुम्हें एहसास होने लगा है कि तुम अलग हो, क्योंकि तुम प्रताप हो, दूसरा आदमी प्रताप नहीं है। भाषा ने हमें अलग होने का बोध दे दिया है। इस बोध को अगर तुम पकड़ के जिओगे तो तुम एहसास करते रहोगे कि तुम अलग हो।
अलग होना और इकट्ठा होना भी भाषा की ही बात है। अगर तुम इस अलग होने पर थोड़ा सोच-विचार कर सको, क्योंकि सब सोच-विचार भाषा में है, तो तुम यह भी अनुभव कर सकते हो कि यह अलग होना सिर्फ कामचलाऊ है, उपयोगी है, सत्य नहीं है। उपयोगी जरूर है, लेकिन सत्य नहीं है। उपयोगिता को सत्य नहीं बनाना चाहिए।
यह ठीक है की हिंदुस्तान की एक सीमा हो और यह उपयोगी हो सकती है; और पाकिस्तान की एक सीमा हो; लेकिन यह सीमा सत्य नहीं है। सीमाएं दो तरह का काम करती हैंः
एक सीमा वह है, जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान को अलग करती है।
एक सीमा वह है, जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान को जोड़ती है।
सीमा कुछ भी नहीं कहती कि आप मेरे साथ क्या उपयोग करो। मेरे बगल के मकान की दीवाल है, मेरे और बगल के पड़ोसी में। इसे हम ऐसा भी ले सकते हैं कि यह दीवाल मुझे और मेरे पड़ोसी को अलग करती है, और हम ऐसा भी समझ सकते हैं कि मेरे पड़ोसी के बीच कामन एलीमेंट (साझा तत्व) यही दीवाल है, जो हमें जोड़ती है। दीवाल को किस रूप में समझना है, यह तुम पर निर्भर है। दीवाल जो है, वह पड़ोसी से मुझे अलग करनेवाली भी हो सकती है। वही चीज जोड़ने वाली भी हो सकती है, क्योंकि पड़ोसी और मेरे बीच वह कामन है। एक हिस्सा पड़ोसी के पास है उस तरफ वाला हिस्सा, इस तरफ वाला मेरे पास है। उस दीवाल से हम दोनों मिलते भी हैं, उस दीवाल से हम दोनों अलग भी हो सकते हैं। दीवाल आपसे कुछ भी नहीं कहती कि आप क्या करो।
शब्दों की सीमाएं जोड़ती भी हैं, तोड़ भी देती हैं। एक्सप्रेशन जो है, वह उपयोगी भी है, घातक भी हो सकता है। जैसे कि हम कहते हैं--मनुष्यता को प्रेम करो। अब यह बड़ा खतरनाक मामला है, क्योंकि प्रेम हमेशा मनुष्य से हो सकता है। मनुष्यता से कैसे प्रेम करिएगा? मनुष्यता--जैसी चीज तो कहीं है भी नहीं जिसको गले लगा सको, जिसको हृदय से लगा सको, जिसको पास बिठा सको, जिसके पैर दबा सको। मनुष्यता कहीं भी नहीं मिलेगी। मैं यह कह रहा हूं कि मनुष्यता, ह्युमैनिटी एक एक्सप्रेशन है। मनुष्य तो सत्य है और मनुष्यता एक बिलकुल ही काॅस्मिक बात है। लेकिन जब हम कहते हैं कि मनुष्यता से प्रेम करो, तब हम यह कह रहे होते हैं कि ऐसा एक भी मनुष्य मत छोड़ो जो तुम्हारे प्रेम का पात्र रह जाए। इसका हम यह मतलब भी ले सकते हैं कि ‘मनुष्यता से प्रेम करो’ का मतलब यह है कि अब एक भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो प्रेम करने योग्य न रहा। मनुष्य होना ही प्रेम करने की पर्याप्त व्याख्या हो गई, यानी उसकी अपेक्षा दूसरी मत करना। और कि वह अच्छा आदमी है; चोर न हो, ईमानदार हो; व्याभिचारी न हो, आश्वासन का पक्का हो। अब अपेक्षा मत करना। मनुष्य होना काफी शर्त हो गई; वह बेईमान हो, ईमानदार हो, ये गौण बातें हैं। मनुष्यता से प्रेम करो, इसका यह मतलब भी हो सकता है कि एक आदमी कहे कि हम मनुष्य को तो प्रेम ही न करेंगे, हम तो मनुष्यता को प्रेम करेंगे। ऐसे लोग आज भी मौजूद हैं जो मनुष्यता को प्रेम करने की बात भी कर रहे हैं, ताकि मनुष्य से प्रेम करने से बच जाएं, एक-एक मनुष्य को प्रेम करने से बच जाएं। वे तो कहते हैं कि हम तो मनुष्यता को प्रेम करेंगे, हम तो परमात्मा को प्रेम कर सकते हैं। अब बड़े मजे की बात है कि मनुष्य से प्रेम करने से बचा जा सकता है--मनुष्यता से प्रेम करने पर। क्योंकि, तब मैं कहूंगा कि आप तो सिर्फ मनुष्य हैं; मनुष्यता तो नहीं हैं? मैं तो मनुष्यता के प्रेम के लिए जी रहा हूं। तब मैं पत्नी को छोड़ सकता हूं, बच्चे को छोड़ सकता हूं, क्योंकि मैं तो मनुष्यता के लिए जीऊंगा। मैं सारे दायित्व को छोड़ सकता हूं, क्योंकि मैं कहूंगा कि सब मुझे बांधते हैं। मुझे तो मनुष्यता से प्रेम करना है, विराट से प्रेम करना है। अब विराट को प्रेम करने में हो सकता है कि मैं जो प्रेम कर रहा था उसको भी तोड़ डालूं। लेकिन हम क्या उपयोग करते हैं, यह हम पर निर्भर है। सभी चीजें दोहरी हैं; उनके दोहरे उपयोग हो सकते हैं। शब्द की अपनी तकलीफ है, लेकिन अपनी सुविधा भी है उसकी।
जो मैं कह रहा हूं वह दूसरी बात कह रहा हूं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि हमें यह समझना बहुत कठिन मालूम पड़ता है कि सड़क पर जो आदमी भीख मांग रहा है तो मैं भी उसमें जिम्मेवार हूं, क्योंकि जिम्मेवारी समझ में नहीं आती मुझे। कहीं हमारा तालमेल नहीं है। न मैं उस आदमी को जानता हूं जो लंदन में हो सकता है क्योंकि लंदन तो मैं कभी गया नहीं। लंदन में जो भीख मांग रहा है, उससे मेरा क्या लेना देना है? पैरिस में जिस स्त्री को वेश्या हो जाना है, उससे मेरा क्या संबंध है? मैं तो कभी वहां गया भी नहीं, मैंने तो कभी उसकी शक्ल भी नहीं देखी। मुझे कभी पता भी नहीं चलेगा कि वह कब पैदा हुई और कब मर गई। तब मुझे कैसे आप जिम्मेवार ठहराते हैं कि पैरिस में एक स्त्री वेश्या हो गई तो मैं उसके लिए जिम्मेवार हूं?
नहीं, इस जिम्मेवारी का मतलब और है। मतलब यह है कि जिस ढंग से मैं जी रहा हूं, जिस ढंग की मान्यताओं में जी रहा हूं, जिस ढंग का आदमी हूं, जिस ढंग के मेरे सोच-विचार हैं, उस सारे सोच-विचार, उस ढंग के आदमी होने, उस ढंग के जीने, उस तरह की धारणा, उस तरह की फिलासफी वेश्याओं को पैदा करती ही है। वह पैरिस में पैदा करती है, लंदन में या बंबई में, यह सवाल नहीं है। मेरे सोचने का ढंग, मेरे जीने का ढंग क्या वेश्याओं को पैदा करने के लिए उर्वर भूमि बनता है? यह सवाल है। और अगर बनती है तो सारी दुनिया में कभी भी, कहीं भी वेश्या पैदा हुई है, तो मैं जिम्मेवार हूं। इसे समझना मुश्किल होगा।
आप कहेंगे कि मैं कभी भी किसी वेश्या के पास नहीं गया, न मैंने कभी किसी स्त्री को रुपये देकर शरीर खरीदने के लिए मजबूर किया, तब मुझे कैसे जिम्मेवार ठहराते हैं? लेकिन, जिम्मेवारी बहुत गहरी है। जिसको हम विवाह कहते हैं वह भी पैसा देकर शरीर को बेचने का इंतजाम है। हो सकता है एक आदमी कभी किसी वेश्या के पास न गया हो और न वेश्या के संबंध में उसने सोचा हो, लेकिन
जब तक विवाह भी पैसे के ऊपर आधारित होता है,
तब तक जिसे हम पत्नी कह रहे हैं,
वह भी जीवन-भर के लिए खरीदी गई वेश्या से ज्यादा नहीं हो सकती।
यह समझने में कठनाई होती है क्योंकि हम कहेंगे--जीवन भर की वेश्या? कैसा शब्द आप उपयोग करते हैं? क्योंकि हमने उसे बहुत अच्छे लिबास में रखा हुआ है, छिपा कर। एक आदमी है, जो कि जिंदगी-भर के लिए स्त्री नहीं खरीद सकता है। हजार कारण हो सकते हैं। एक आदमी ऐसा भी है जिसे सुविधा है कि जीवन भर के लिए स्त्री खरीद सकता है। एक आदमी सुविधानुसार पांच सौ स्त्रियां खरीद सकता है; वह वेश्या के पास क्यों जाएगा? हैदराबाद का निजाम क्यों जाए वेश्या के पास? वह पांच सौ स्त्रियां खरीद सकता था इस जमाने में। तो एक आदमी पांच सौ पत्नियों का पति हो सकता है। निजाम हैदराबाद को कोई कहने नहीं जाएगा कि तुम यह क्या कर रहे हो? या, तुम एक ऐसी दुनिया बना रहे हो जिसमें वेश्या पैदा होगी। जो आदमी पांच सौ स्त्रियों को खरीद कर घर में नहीं रख सकता, वह भी पांच सौ स्त्रियों को चाह तो सकता है। अगर वह एक स्त्री को इस भांति लाता है कि वह खरीदी हुई हो तो वह उस समाज को पैदा कर रहा है जिसमें वेश्या पैदा होगी। अगर मैंने विवाह किया हुआ है और एक स्त्री को अपने साथ रखे हुए हूं और आज मेरा उसका सारा प्रेम समाप्त हो गया है, फिर भी मैं उसे अपने साथ जीने के लिए मजबूर कर रहा हूं और उसके साथ जी रहा हूं; तब मैं ऐसी दुनिया बना रहा हूं जिसमें वेश्या पैदा होगी, क्योंकि मेरा और मेरी पत्नी का संबंध अब वेश्या का संबंध हो गया है। और तो कोई संबंध नहीं रह गया है। क्योंकि, प्रेम जहां समाप्त हो गया है, वहां सब संबंध पैसे के रह जाते हैं।
सिर्फ प्रेम एक संबंध है
जो बिना पैसे के हो सकता है,
बाकी संबंध पैसे के हैं।
अभी मेरी पत्नी मेरे साथ रह रही है, क्योंकि अगर वह चली जाए तो कहीं भीख मांगेगी; कौन जाने क्या करेगी, क्या नहीं करेगी। अगर भीख मांगने के डर से वह मेरे पास रह रही है तो संबंध पैसे का हो गया। वही काम बेचारी वेश्या किसी आदमी के आगे अपने को बेच कर कर रही है, क्योंकि उसको भीख मांगनी पड़ेगी, अगर अपने शरीर को न बेचे। लेकिन वह चूंकि रोज अलग-अलग आदमी को बेच रही है, इसलिए दिखाई पड़ रही है। एक स्त्री ने एक आदमी को जिंदगी भर के लिए बेच दिया है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहा है।
ये सारे इंप्लीकेशंस देखने की बात है कि हम किस ढंग से जी रहे हैं, किस ढंग की बातों को हम धारणा बनाए हुए हैं। अब तुम्हारी बहन की तुम्हें अगर शादी करनी हो, तुम्हारे बेटे की शादी करनी हो, तुम्हें अपनी बेटी की शादी करनी हो, तो सोचो कि तुम उसके लिए प्रेम का मौका दे रहे हो या लड़का-लड़की खोज रहे हो? अगर तुम लड़का खोज रहे हो तो तुम वह दुनिया बना रहे हो जिसमें कि वेश्या पैदा होगी। यानि मैं यह कह रहा हूं कि लंदन की वेश्या और पैरिस की वेश्या से कुछ लेन-देना नहीं है। देखना यह है कि मैं जिस ढंग से जीऊंगा, वह कैसी दुनिया को बनाने में सहयोगी होता है? मेरे रहने का ढंग किस दुनिया को बनाता है? अपनी सीमा में ही वह एक छोटी दुनिया बनेगी, लेकिन उसकी धाराएं तो फैलती रहेंगी! आप, हम, सब जानते हैं कि--
राम ने सीता की अग्नि-परीक्षा ली, लेकिन कोई भी यह नहीं पूछता कि सीता ने राम से क्यों नहीं कहा कि तुम भी अग्नि-परीक्षा से गुजरो? राम भी अकेले थे और किसी स्त्री से उनका भी संबंध हो सकता था।
लेकिन राम से सवाल ही नहीं उठा इतने हजार वर्षों में कि अग्नि-परीक्षा इनकी भी ली जाए। उस गरीब स्त्री की अग्नि-परीक्षा भी ले ली गई और फिर भी उसको धक्के देकर घर से निकाल दिया गया। राम ने जो दुनिया बनाई है, अब राम तो नहीं है आज, लेकिन राम जिस ढंग से जीए, उससे वह पुरुष को हमेशा के लिए मजबूत कर गए और स्त्री को हमेशा के लिए कमजोर कर गए। उनके जीने के ढंग का परिणाम है--पुरुष को सदा के लिए मजबूत कर गए, पुरुष को सदा कसौटी के बाहर कर गए। उसकी परीक्षा का कोई सवाल न रहा। स्त्री को सदा कसौटी पर चढ़ा गए।
हम कैसे जी रहे हैं--यह न केवल आज की दुनिया को प्रभावित करेगा, यह प्रभाव अनंतकालीन होगा। क्योंकि हम तो मिट जाएंगे, लेकिन हम जो लहरें छोड़ रहे हैं, वह चलती चली जाती हैं। राम से सवाल ही नहीं उठा कि आप भी अग्नि-परीक्षा दे दो। सीता ने तो नुकसान किया ही स्त्रियों का, कि उसने सवाल ही नहीं उठाया। फिर उसे घर से निकाल दिया गया, तब भी सवाल नहीं उठा। फिर पांच हजार साल में हमसे भी किसी ने सवाल नहीं उठाया कि राम कैसे छूट गए। हमने सवाल इसलिए नहीं उठाया, क्योंकि हम सब पुरुष थे, और रामायण की सब टीकाएं पुरुषों ने लिखी हैं एवं सब व्यवस्था पुरुषों ने की है। स्त्रियों ने तो कोई रामायण की टीका लिखी नहीं अब तक, और मजा यह है कि पुरुष ने राम को आदर्श पति सिद्ध कर दिया और सीता को आदर्श पत्नि भी सिद्ध कर दिया। अपेक्षा बांध दी कि सीता जैसा व्यवहार करते रहना चाहिए स्त्री को! सीता-धर्म से कोई चूकती है तो वह व्यवहार से नीचे उतरती है। तो हम किस ढंग से जी रहे हैं? अगर तुम राम की प्रशंसा करते हो तो तुम एक ऐसी दुनिया बना रहे हो, जिसमें पुरुष के लिए एक अलग मापदंड है और स्त्री के लिए अलग। मेरे लिए तो राम का अस्वीकार इतना ही काफी है कि सीता के साथ उसने जो दुव्र्यवहार किया, उतना दुव्र्यवहार रावण ने भी सीता के साथ नहीं किया। रावण का सीता के साथ बहुत सदव्यवहार रहा, जिसे समझ पाना जरा कठिन बात है। जितना सदव्यवहार रावण ने किया है, राम ने जो दुव्र्यवहार किया है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। इसलिए मेरे लिए तो इतना काफी है कि राम जो हैं, वह अस्वीकृत हो जाने चाहिएं। लेकिन अगर मैं थोड़ा भी आदर राम को देता हूं तो मैं समर्थन करता हूं किसी अन्य बात का। सीता ने जो ढंग अख्तियार किया, वह बिलकुल ही गैर-विद्रोही का ढंग था, जो कि खतरनाक है। स्त्रियों को उसका विरोध करना चाहिए, पुरुषों को उसका विरोध करना चाहिए।
समझ लें कि एक आदमी मकान और घर बार छोड़ कर सड़क पर नंगा भिखारी हो जाता है तो क्या तुम उसे सम्मान देने जाते हो? अगर तुम उसे सम्मान देते हो और कहते हो कि त्यागकर बहुत बड़ा काम किया तो तुम इस दुनिया में दुख को बढ़ाने में सहयोगी बनोगे, क्योंकि जब वह आदमी घर में था, शांति से था, सुख से था, तब तुम उसे सम्मान देने नहीं गए थे। जब वह धूप में खड़ा हो गया और भूखा खड़ा हो गया सड़क पर कांटों में लेट गया और सर्दी आई और धूप आई और वह वहीं पड़ा रहा तब तुम उसे सम्मान देने गए, तब तुम एक ऐसी दुनिया को बनाने में सहयोगी बन रहे हो जिसमें दुखी आदमी को, दुख का वरण करने वाले आदमी को आदर मिलेगा जिसमें सुखी आदमी को, सुख के वरण करने वाले को, सुख की खोज करने वाले को आदर नहीं मिलेगा। दोनों तरह तुम सहयोगी बन रहे हो। यानि मैं जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि हमारा सहयोग गहरा है। तुम्हारे इशारे तक में हमारा सहयोग है। जो दुनिया बन रही है, उसमें हमारा इशारा भी है। हम सड़क पर एक आदमी को नमस्कार कर रहे हैं, वह भी है।
मैं जिस कालेज में था, उसमें एक चपरासी था। उसकी उम्र होगी कोई साठ साल की, वह बूढ़ा आदमी था और उतनी उम्र का कोई प्रोफेसर नहीं था। लेकिन मैंने कभी किसी को भी उस बूढ़े से सम्मान से बोलते नहीं देखा। सामान्यतः एक आदमी होने का जितना सम्मान होना चाहिए, उतना भी नहीं। उसके आदमी होने की हैसियत ही नहीं। उसको किसी भी तरह बुलाया जा सकता है। मैं जब पहली दफा वहां गया तो मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने चार छह दिन देखा और कहाः ‘यह क्या पागलपन है। इतना बूढा आदमी है कि हम सब के पिता की उम्र का होगा, उससे इस तरह का व्यवहार?’
उन्होंने कहाः वह चपरासी है।
मैंने कहाः चपरासी उसका काम है, उसका होना थोड़े ही। कोई आदमी चपरासी थोड़े ही होता है। वह छह घंटे चपरासी का काम करता है; और एक आदमी का काम है कि वह छह घंटे मजिस्ट्रेट का काम करता है। लेकिन न तो कोई आदमी मजिस्ट्रेट हो सकता है, न कोई आदमी चपरासी हो सकता है। छह घंटे के दफ्तर के बाद दोनों आदमी रह जाते है। एक आदमी चपरासी है छह घंटे दफ्तर में काम करके। जब दफ्तर के बाहर जाता है तो चपरासी है? चपरासी तो उसका एक काम था, इसका बीइंग (अस्तित्व) तो नहीं हो गया? तो मैंने उनसे कहाः ठीक है, तुम चपरासी के साथ एक दुव्र्यवहार कर रहे हो। दफ्तर के बाहर तुमने कभी इसे नमस्कार किया है?
उन्होंने कहाः वह चपरासी है; आप कैसी बात करते हैं! दफ्तर के बाहर भी कोई सवाल नहीं है।
अब यह ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जहां आदमी आदमीयत से नहीं पहचाना जाएगा। जहां आदमी क्या काम करता है, इससे पहचाना जाएगा। तो फिर ध्यान रहे, भंगी को कभी सम्मान नहीं मिल सकता। घुमा-फिरा कर उस आदमी से कई दफा बातें की उन्होंने कहा कि नहीं, भंगी को, चमार को, हरिजन को सब को बराबर मौका होना चाहिए। वर्ण-व्यवस्था ठीक नहीं है।
जिस आदमी ने मुझसे यह कहा कि वर्ण-व्यवस्था ठीक नहीं है, वह वही आदमी है, जो दो दिन पहले मुझसे कहता था कि यह आदमी चपरासी है, इससे हम ऐसे ही बोलेंगे। तो फर्क क्या है वर्ण-व्यवस्था और इसके चपरासी होने में? मुआमला क्या है? कठिनाई क्या है? वह चूंकि बेचारा भंगी है इसीलिए, क्योंकि उसका फंक्शन (कार्य) उसका बीइंग (अस्तित्व) बना दिया है हमने, यानी पाखाना साफ करना उसका कार्य नहीं रहा; उसका अस्तित्व उसकी आत्मा हो गई। पाखाना साफ करना ही उसकी आत्मा है, इसलिए छूने योग्य नहीं रहा वह! अगर सिर्फ काम होता तो छह घंटे बाद छूटने पर, छह घंटे तो छूने योग्य होता! काम तो खत्म हो जाता है, लेकिन आत्मा तो खत्म नहीं होती। तो हमने काम को उसकी आत्मा बना दिया है, वह चपरासी बना रहे, कोई उसमें फर्क नहीं है।
रास्ते में जब तुम एक मिनिस्टर को नमस्कार करते हो तो तुम वर्ण-व्यवस्था पैदा कर रहे हो। लेकिन वह खयाल में नहीं होता, क्योंकि भंगी को नमस्कार नहीं करते हो, एक मिनिस्टर को नमस्कार करते हो तो वर्ण व्यवस्था पैदा कर रहे हो। फिर वह वर्ण व्यवस्था जो कुछ करेगी, उसके जिम्मेवार तुम और मैं होंगे; क्योंकि हम जो व्यवहार कर रहे हैं, उससे वह पैदा होती है; यानी हम जो भी कर रहे हैं, उससे हम कोई समाज-व्यवस्था, चारों तरफ उसकी धारा पैदा किए चले जा रहे हैं और वे धाराएं पैदा होंगी।
एक सज्जन आए, छह महिने पहले। उनका एक लड़का था, वह चल बसा बहुत दुखी थे। पढे-लिखे आदमी हैं; कोई डेढ़ हजार रुपये की तनख्वाह पर हैं। मैंने उनसे कहाः घबड़ाइए मत, चार-छह महीने में सब ठीक हो जाएगा। मैंने तो सिर्फ ऐसे ही कहा था कि मन हलका हो जाएगा, लेकिन दो दिन पहले वे आए और कहने लगेः आपकी कृपा से सब ठीक हो गया। मैंने कहाः क्या हुआ? पता लगा कि पड़ोस में किसी ने अपना बच्चा उनको दे दिया था। उस बच्चे को लेकर वे आए थे। बिलकुल अच्छे खून का है, खत्री खून का। अच्छे खानदान का लड़का है और अपनी ही जाति का है। माता-पिता बड़े भले लोग थे कि उन्होंने दे दिया। मैंने उनसे पूछा कि क्या खून भी खत्री होता है? कोई जांच करवा कर बता सकिएगा कि यह खून खत्री का है? इस लड़के का खून निकलवा कर, आपका खून निकलवा कर कोई दुनिया में नहीं बता सकता कि यह खून किसका है। खून कहीं खत्री का होता है? अब यह जो आदमी कह रहा है, उसके कहने से एक दुनिया निर्मित होगी। उस दुनिया में वर्ण-व्यवस्था होने वाली है; उससे नहीं बचा जा सकता। अब यह आदमी कह रहा है कि वे बड़े अच्छे लोग हैं। उसकी पत्नि जो छह महिने पहले रोती थी, पाकर बड़ी प्रसन्न है उस बच्चे को। लेकिन उसने पहले बच्चे की बात ही नहीं की। वह बहुत प्रसन्न है और वे दोनों कह रहे थे कि बहुत अच्छे लोग हैं। वे तो अच्छे लोग हैं, जिन्होंने बच्चा दे दिया; आप कैसे लोग हैं जिन्होंने बच्चा ले लिया? जिन्होंने दे दिया वे अच्छे लोग हैं, तो कैसे लोग हैं जिन्होंने बच्चा ले लिया? कुल कारण यह है कि वह गरीब घर का बच्चा है। चार-छह बच्चे हैं उनके , पाल नहीं सकते हैं तो उसको दे दिया है। मैंने कहाः अगर इस बच्चे से थोड़ा भी प्रेम होता तो तुम इसे उनसे न तोड़ते। तुम जो प्रेम दिखला रहे हो इस बच्चे से, वह जरा भी प्रेम नहीं है। अगर तुम्हें थोड़ा भी प्रेम इससे है, तो तुम इसे उनके पास पलने दो। इसकी व्यवस्था करो, जो तुम व्यवस्था अभी करोगे। इस बच्चे से तो कोई प्रेम ही नहीं है उनको। बल्कि उस बच्चे की नई मां ने कहाः इसकी मां इसे देखने आना चाहती थी तो हमने उसे मना कर दिया है। इस तरह तो मोह बना रहेगा, वह टूटेगा कैसे? मैं तो अपने पति को कहीं भी जल्दी यहां से ट्रांसफर करा लेने को कह रही हूं ताकि यह मोह न रह जाए। और वे लोग, बड़े अच्छे लोग हैं! कह दिया तो वे लोग नहीं आ रहे हैं।
अब ऊपर से देखने में इसमें कुछ बुराई न मालूम पड़ेगी, लेकिन ये लोग एक ऐसी दुनिया बनाएंगे, जो बड़ी खतरनाक होगी। उसमें इनका जिम्मा होगा। मैंने इनसे पूछा कि अगर यह बच्चा मर जाए...
एकदम वे कहने लगेः आप ऐसी अपशकुन की बात मत करिए।
अगर यह बच्चा मर जाए, तब आप तो बहुत दुखी होंगे।
उन्होंने कहाः बहुत दुख होगा।
मैंने कहाः यह बच्चा अगर उसी के पास रहता और मर जाता, तो भी यही बच्चा मरता तब आपको कोई तकलीफ होती?
उन्होंने कहाः इसमें क्या तकलीफ होती? हमसे कोई संबंध नहीं था!
इसका मतलब क्या होता है? इसका मतलब होता है कि जब एक अमरीकी किसी वियतनामी को गोली मारता है तो उसका कोई मतलब नहीं है उससे। वह जो मर रहा है तो मर जाए, उससे संबंध क्या है! अमरीकी युवक का एक वियतनामी युवक से क्या संबंध! क्या लेना-देना! जैसे कि एक हिंदुस्तानी एक पाकिस्तानी की छाती में छुरा भोंकता है तो हमें क्या मतलब! लेकिन बीस साल पहले हमें मतलब था। अगर कराची पर बाॅम्बार्डमेंट होता, तो हम दुखी होते उतना ही जितना दिल्ली पर होता। लेकिन अब अगर कराची पर बाॅम्बार्डमेंट हो तो हम यहां बंबई में खुश होंगे।
मैं यह कह रहा हूं कि यह जो इस मां और इस बाप ने कहा, वह इनका फैलाव है। हमारा वर्तन का यह सारा का सारा फैलाव है। तब हमको ऐसा नहीं लगता। कराची में कोई मर रहा है तो वह पाकिस्तानी मर रहा है, उसको मरना ही चाहिए! हमको उससे क्या लेना-देना है। हमारा देश अलग, उसका देश अलग! पड़ोसी का लड़का मरे तो मरे, हमें क्या मतलब! परंतु हमारे ये वर्तन हमें खतरे में ले जाएंगे।
अभी गुणा, मुझे एक बढ़िया बात कह रही थी। गुणा की छोटी बहन का पति चल बसा। कोई गुजरेगा तो हम दुखी होंगे। या तो हमें पता चल जाए कि उसने कोई पाप किया था और वह कम उम्र में चल बसा, हम निश्चित हो जाएं। अगर हमें पता चले तो हम तकलीफ में होंगे।
अब इसे हम अगर बहुत गौर से देखेंगे तो यह बहुत कठोर बात है। अगर पुराना परिचित यह कहता है कि कोई आदमी दुख में पड़ा हो तो उसने कोई पाप किया होगा, तो इसको थोड़ा समझने की कोशिश करना। इसका मतलब यह होता है कि हम उसके दुख में सहभागी नहीं होना चाहते। हमें पक्का पता लग जाए कि इसने पाप किया है तो अपना फल भोग रहा है। हम उससे फिर कट गए। कोई आदमी दुख भोग रहा है, अगर हमें पक्का हो जाए कि उसने पाप किया है तो हम कहते, ठीक है, अपना फल भोग रहा है। फिर हमारा संबंध ही खत्म हो गया। अगर पड़ोस में कोई आदमी मर जाए तो हम सोचेंगे कि कुछ किया होगा, इसलिए इतनी जल्दी मर गया। तब वह जो पीड़ा, वह करुणा हमारे प्राणों को झकझोर जाती है, उससे हम बच गए। हमने एक व्यवस्था बना ली कि वह अपना फल भोग रहा है। हम यह मानने को राजी नहीं है कि जिंदगी बड़ी रहस्यपूर्ण है। उसमें जरूरी नहीं है कि जो मरता है उसने पाप किया होगा, जो नहीं मरता वह पुण्यात्मा है; कि जो बच गया है वह पुण्य के कारण बच गया है और जो चला गया है, वह पाप के कारण चला गया है।
जिंदगी बहुत रहस्यपूर्ण है। उसमें जन्म भी व्यवस्था है, उसमें मृत्यु भी व्यवस्था है। यहां जो चीजें आएंगी, वे जाएंगी भी। लेकिन हम एक्सप्लेनेशन, व्याख्या खोजते हैं। हम क्यों खोजते है? इसलिए नहीं कि जो आदमी चला गया है, व्याख्या खोज लेने से उसको कुछ हम रोक लेंगे। वह तो चला गया। वह चला गया, लेकिन व्याख्या खोज लेने से हम छुटकारा पा जाएंगे।
अब मेरा कहना है कि जिसे हमने प्रेम किया है, वह गया है, हमें रोना होगा, दुख झेलना होगा, झेलना चाहिए, व्याख्या हम क्यों खोजें? मैंने तुम्हें प्रेम किया है, तुम चल बसे हो तो मैं रोऊंगा, दुखी होऊंगा, पीड़ित होऊंगा। यह मेरे प्रेम का ही भाग है, यह मेरे प्रेम की ही नीति है। प्रेम हमने किया था। जब तुम थे तो तुम्हारे होने का सुख मैंने लिया था, तुम्हारे न होने का दुख कौन लेगा? मैं यह पूछता हंू कि मैं एक व्यक्ति को प्रेम करता हूं और उसके होने का सुख मैंने लिया, और आज वह चल बसा तो उसके न होने का दुख कौन लेगा? उसके न होने का दुख मुझे लेना ही चाहिए उतने ही आनंद से जितने आनंद से मैंने उसके होने का सुख लिया। लेकिन हम व्याख्या खोजना चाहते हैं! हम पूछना चाहते हैं--क्यों चला गया, व्याख्या मिल जाए! सुख लेते वक्त हमने कभी नहीं पूछा कि उस व्यक्ति में सुख मिल रहा है, इसकी क्या व्याख्या है।
बिहार में भूकंप हुआ तो गांधी जी ने कहा कि बिहार के लोगों ने हरिजनों के साथ जो पाप किया, उसका फल भोग रहे हैं। अब यह जरा सोचने जैसा है। कितनी कठोर बात है! जैसे कि हरिजनों के साथ बिहार के लोगों ने ही बुरा काम किया हो। क्या यह सारा मुल्क बुरा काम नहीं कर रहा है हरिजनों के साथ? अगर हरिजनों के साथ बुरा काम करने का फल भूकंप है तो इस पूरे हिंदू समाज को भी रसातल में चला जाना चाहिए था। इसके बचने का कोई कारण ही नहीं है इस पृथ्वी पर। उसने इतना अनाचार किया है, जिसकी गणना और हिसाब लगाना मुश्किल है। किसी आदमी को मार डालना बहुत बड़ा अपराध नहीं है, क्योंकि आदमी क्षण भर में मर जाता है, लेकिन किसी आदमी को हरिजन बना कर जिंदा रखना एक लबीं सजा है, जो सत्तर-अस्सी साल तक शूली पर लटकाए रखना है। उसका हिसाब लगाना मुश्किल है कि उसने कितना पाप किया है। वह अगर उसका फल था तो पूरे मुल्क को कभी का डूब जाना चाहिए। जमीन पर होना ही नहीं चाहिए। लेकिन बिहार में भूकंप आया, वहां लोग तकलीफ में पड़े तो गांधी जी ने व्याख्या कर ली कि वहां कि लोगों ने हरिजनों के साथ जो दुव्र्यवहार किया था, उसका फल वे भोग रहे थे। अब सोचो, इस व्याख्या को सुन कर भूकंप की जो पीड़ा है, वह एकदम विदा हो जाती है? मैं नहीं कहता कि व्याख्या सही या गलत है, यह सवाल नहीं है बड़ा। सवाल यह है कि जैसे हमने सुना है कि भूकंप इसलिए पड़ा कि उन लोगों ने पाप किया था और उसका फल भोगा उन्होंने, वैसे ही, वह जो दुख भोग रहा है, उसके प्रति हमारा भाव बदल गया है, बुनियादी रूप से बदल गया है, उसके हमारे बीच एक खाई का फासला हो गया है। तब हमें बिलकुल ऐसा लगेगा कि ठीक ही हो रहा है। अगर ठीक उसका परिणाम लें तो उसका मतलब होगा कि ठीक ही हो रहा है, बल्कि फल मिलना ही चाहिए। अगर हम ऐसी व्याख्या सोचते हैं तो हम एक ऐसी दुनिया बनाएंगे जो अत्यंत कठोर होगी।
मेरा मानना है कि जिन लोगों ने जीवन के रहस्यपूर्ण तथ्यों की काल्पनिक व्याख्याएं कर ली हैं, उन लोगों ने कठोर दुनिया निर्मित की है। जैसे मेरा मानना है कि हिंदुस्तान में हमने बहुत कठोर समाज निर्मित किया है, क्योंकि हमने प्रत्येक चीज की व्याख्या खोज ली है। व्याख्या की वजह से सब कठोर और जड़ हो गया। कोई गरीब है तो हमने व्याख्या खोज ली कि अपने पाप का फल भोग रहा है। कम उम्र में मरा तो हमने कहा कि उसने अपने किसी पाप का फल भोगा है। दुखी है, पीड़ित है, अंधा है, लंगड़ा है, लूला है तो हमने सोचा कि अपने पाप का फल भोग रहा है। हमने जब-जब व्याख्या कर ली, तब-तब पीड़ा की जो गहराई थी, उससे हम बच भागे।
मेरे पास अगर कोई किसी को लाता है, एक पागल आदमी को लेकर आता है, तो वह मुझसे पूछता है कि पागल क्यों है? पागल है, ठीक हो सकेगा कि नहीं हो सकेगा? किस पाप का फल भोग रहा है? अब हो सकता है वह पागल आदमी, हम सब के पाप का फल भोग रहा हो, क्योंकि उसके बाप ने उसे पैदा करते वक्त डाक्टर से सलाह ही नहीं ली जाकर कि मेरा बच्चा पागल तो पैदा नहीं हो जाएगा? मां ने उसको पैदा करने के पहले विशेषज्ञों से नहीं पूछा कि मेरा बच्चा पागल तो नहीं हो जाएगा? पूछ यह रहे हैं कि कौन से पाप का फल भोग रहा है? यह आदमी, जो पागल है, किस पाप का फल भोग रहा है? उनको मैं क्या कहूं? उन्होंने यह भी नहीं पूछा सोचा कि कहीं उन्होंने तो इसको पागल नहीं किया हुआ है? कितने ही बच्चे इसलिए पागल हैं कि मां बाप जो उनके साथ वर्तन कर रहे हैं, उसमें वे पागल हो ही जाएंगे लेकिन वह सवाल ही नहीं है। हम व्याख्याएं चाहते है जो हल कर दें मुआमले को। हम ऐसी व्याख्या चाहते हैं जो हमें छुटकारा दिला सकें, यानि वह आदमी जिम्मेवार रह जाए। इसलिए हमने व्यक्तिगत कर्म की बहुत अदभुत फिलाॅसफी खोजी है, जबकि वस्तुतः कर्म बड़ी सामूहिक घटना है; कर्म एकदम व्यक्तिगत घटना नहीं है। कर्म का घटनाक्रम बड़ा सामूहिक और बड़ा जाल से भरा हुआ है। लेकिन हमने व्यवस्था कि है कि बच्चू भाई अपने कर्म का फल भोग रहे हैं, हमें अपने कर्म का फल भोगना चाहिए। न बच्चू भाई से मुझे कुछ लेना-देना है और न मुझसे उनको कुछ लेना-देना है। वह अपने कर्म का फल भोगते रहेंगे, मैं अपने कर्मों का फल भोगता रहूंगा। हमारी अलग-अलग यात्राएं हैं और कहीं कोई ताल-मेल नहीं है, कहीं हमारा कोई जोड़ नहीं है।
इस मुल्क ने जो ऐसी व्याख्याएं खोज लीं कि एक-एक व्यक्ति अपना-अपना भोग रहा है, उसने एक-एक व्यक्ति को अलग तोड़ दिया है। इसलिए हिंदुस्तान में इतने दिनों तक गरीबी रह सकी, क्योंकि हर आदमी ने समझा कि इससे हमें क्या लेना देना है। यह हम जानकर हैरान होंगे कि सारी दुनिया में धर्मों मे जो व्याख्या दी है, उन्होंने दुनिया जैसी है, उसको वैसे बनाए रखने में सहयोग दिया है। तो यह जो? कल्पना है, विचार है, यह जो धारणा है कि मैं जिम्मेवार हूं, यह असल में पुराने सारे धर्मों के विपरीत है, क्योंकि पुराने सारे धर्म यह कहते हैं कि तुम अपने लिए जिम्मेवार हो। हम दोनों की कोई सामूहिक जिम्मेवारी--जैसी कोई चीज नहीं है पुराने धर्मों में। पुरानी सारी की सारी व्यवस्था समूह-चित्त के लिए कुछ भी नहीं कहती, वह सिर्फ व्यक्ति-चित्त के लिए कुछ कहती है और उसका परिणाम यह हुआ कि पांच हजार साल से समाज जैसा था, वैसा ही है,क्योंकि वह बुनियादी बात ही पैदा नहीं हुई। अगर मैं भी जिम्मेवार हूं, अगर मेरा लड़का पैदा होता है और वह पागल पैदा होता है तो उसमें मैं भी जिम्मेवार हूं और मेरे पिता भी जिम्मेवार हैं और हजारों साल की सारी परंपरा जिम्मेवार है, यह समझने पर तो बड़ी घबराहट होगी। अभी तो परेशानी सिर्फ इतनी है कि यह आदमी पागल है। तब परेशानी यह भी हो जाएगी कि हमने भी कुछ किया है।
हम अपने रास्ते चलते हों सड़क पर, एक आदमी भूखा मर रहा है, वह अपने ढंग से मर रहा है, हम सोचते हैं कि हमें क्या लेना देना है! इसलिए हिंदुस्तान इनसेंसिटिव, कठोर हो गया है, बिलकुल संवेदनशीलता है ही नहीं इसमें किसी तरह की। एक आदमी भीख मांग रहा है तो हम उसको डांट देंगे कि क्या भीख मांगते हो! शर्म नहीं आती? लेकिन हमें यह खयाल नहीं आता कि यह जो भीख मांग रहा है, तो शर्म हमें भी आनी चाहिए, क्योंकि हम जिस समाज में खड़े हैं, उसी में यह भीख मांग रहा है। इसमें कहीं न कहीं हमें भी शर्म में भागीदार होना चाहिए। हम बड़ी बेशर्मी से उसको कह सकते हैं--हटो, शर्म नहीं आती जवान होते हुए भीख मांगने में? लेकिन इसने जो समाज बनाया है, वह हमने भी बनाया है, हम भी उसमें भागीदार हैं। यह बात हमारे खयाल में नहीं आती! वह जो बात है, कुल जमा इतनी ही है कि निरंतर यह ध्यान रखने की जरूरत है। अगर एक नई दुनिया बनानी हो तो हमें पुराने सारे आधार बदल देने होंगे। अभी जो बड़े से बड़े आधार हैं, वे है व्यक्तिगत कर्मों और व्यक्तिगत दायित्वों के। दायित्व सामूहिक हैं, कर्मों का जाल भी सामूहिक है।
मैं अपना किया ही नहीं भोगता,
मैं दूसरों का किया भी भोगता हूं।
दूसरे अपना किया ही नहीं भोगते,
मेरा किया भी भोगते हैं।
हमारा जो रहना है, हमारा जो जीना है, वह जीना आइसोलेटेड, अकेले का नहीं है। हम व्यक्ति तो हैं, लेकिन आइसोलेशंस नहीं हैं। एक-एक लहर का अपना व्यक्तित्व है, लेकिन एक-एक लहर का अलग अस्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व हमारा अलग-अलग है, लेकिन अस्तित्व हमारा सामूहिक है। वह जो अस्तित्व का नीचे फैलाव है, वह हमारे अनुभव में आ जाए तो सब दुख, सब पीड़ा, सब आनंद, सब सुख के लिए हम जिम्मेवार हैं। अगर एक दफा यह बोध मनुष्य जाति को हो जाए तो जिंदगी को बदलने में देर नहीं लगेगी, क्योंकि बदलाहट के बिंदु को हमने पकड़ लिया, जहां से बदलाहट हो सकती है।
अभी मैं परसों मनोविज्ञान कालेज में बोलने गया था मनोचिकित्सा पर, साइकोथेरेपी पर। उनसे मैंने यही कहा कि हमने जो समाज बनाया, वह तो ऐसा है कि एक-एक आदमी को रुग्ण कर दे, और फिर हम इंतजाम करते हैं चिकित्सा का। अब हम ज्यादा से ज्यादा चिकित्सा इतनी ही कर सकते हैं कि उसको हम वापस उतनी सीमा तक रुग्ण कर दें, जितनी सीमा तक काम-चलाऊ व्यवहार में वह उपयोगी हो जाए। एक आता है उसको हम कहते है, यह पागल हो गया है, इसको ठीक करना है, नार्मल लाना है। तो कुल मतलब इतना है कि समूह जितने पागलपन के लिए राजी है, उतने पागलपन की सीमा तक उसको पागल होना चाहिए, उसके आगे नहीं। बस, उतना वह पागल हो जाए तो ठीक है, कोई झंझट नहीं है। उससे ज्यादा होता है, तब हमें कठिनाई शुरू होती है कि कुछ गड़बड़ हो गया है।
वस्तुतः दो तरह के पागलपन हैं--एक सामूहिक पागलपन है जिसको हम स्वीकार किए हुए हैं, और एक व्यक्तिगत पागलपन है जो हमें स्वीकार नहीं हैं। उसको हम, व्यक्ति को इलाज कर कराकर ठीक कराके बिठा देते हैं, लेकिन समाज वहीं का वहीं है। फिर उन्हीं लोगों के बीच एक पत्नी बीमार हो जाए, उसको हम ठीक-ठाक करके फिर उसी पति के पास पहुंचा देते हैं, उसी दुनिया में, जहां वह पागल हुई थी। उस दुनिया में तो कोई फर्क हुआ नहीं। वहां न उसका पति बदला, न उसका बेटा बदला, न घर बदला। कुछ नहीं बदला, सब वैसे का वैसा है। यह स्त्री वहीं पागल हुई थी, इसको हम फिर ठीक कर के वहीं घर में पहुंचा देते हैं। अब वह फिर पागल होगी। इसके पागल होने का तो सारा का सारा इंतजाम पूरी अपनी जगह बैठा हुआ है। इसके पागल होने में इसका पति यह नहीं सोचता है कि मैं भी जिम्मेवार हूं। वह कहता है--यह पागल हो गई है तो इसका इलाज करवा दो। अगर उसको ऐसा अनुभव हो कि इसके पागल होने में, मैं भी जिम्मेवार हूं, उसका बेटा भी सोचे कि मैं भी जिम्मेवार हूं उसके पागल होने में, क्योंकि मैं इसका बेटा हूं, यह मेरी मां है, मेरी मां पागल हो गई तो यह कैसे हो सकता है कि बेटे में कोई तरकीब न हो और मां पागल हो जाए? क्योंकि, बेटा और मां जो है, वे एक ही चीज के दो छोर हैं। यह कैसे हो सकता है कि पत्नी पागल हो जाए और पति में गड़बड़ न हो क्योंकि, पत्नी जो है, वह पति का ही दूसरा छोर है। अगर यह पति, इसका बेटा, इसका भाई, इसकी मां, इसके बाप यह सोच सकें, समझ सकें कि हम भी कुछ कहीं न कहीं इसको पागल बनाने में जिम्मेवार हैं तो फर्क आ सकता है और एकदम आ जाएगा। अन्यथा ज्यादा से ज्यादा हम इसको फिर नोर्मल बनाकर ले आएंगे, दो चार साल में फिर इसको पागल करने का इंतजाम करेंगे।
जोर इस बात पर देने का है कि किसी न किसी अर्थ में हम सामूहिक दायित्व को अनुभव करें। कहीं भी दूर-से-दूर कहीं कुछ हो रहा हो, यह हमें खयाल में नहीं आता। जैसे कि हिटलर हुआ है। आज सारी दुनिया गाली देती है कि हिटलर का होना बुरा था और बुरा हुआ। लेकिन हम सब वही काम करते हैं जो हिटलर को पैदा करने वाले हैं। अभी इंदिरा बंबई में आए तो पचास हजार आदमी रैली करेंगे। उन्हें पता ही नहीं कि रैली हिटलर पैदा करवाती है। हिटलर के पहले बहुत रैलियां हुई हैं, जिनसे वह पैदा हुआ है। मेरा मतलब समझ रहे हो तुम? हिटलर के पैदा होने की सीढ़ियां हैं। वे सीढ़ियां सब हम पूरी कर देंगे। जब हिटलर पैदा हो जाएगा, तब हम कहेंगे कि यह तो बहुत बुरी घटना घट गई। हिटलर भी आसमान से पैदा नहीं होता; उसे पैदा किया जाता है। हम सब उसे पैदा करते हैं। हमें खयाल ही नहीं कि हम कैसी तरकीब से पैदा करते हैं। एक दफा एक आदमी कैसे हिटलर हो जाता है? जब हो जाता है, तभी हमें पता चलता है। फिर वश के बाहर बात हो जाती है, लेकिन करने की प्रक्रिया हम पूरी करते हैं। हिटलर फिर-फिर पैदा होते रहेंगे। अभी हिटलर बंद नहीं हो सकते हैं दुनिया में, क्योंकि दुनिया वहीं-की-वहीं है।
मैं एक गांव गया हुआ था। किसी ने पूछा कि अब तो हिटलर जैसे लोग पैदा नहीं होते, अब तो नाजीइज्म का कोई उपाय नहीं है। मैंने कहा रोज उपाय है, वही का वही है सब, क्योंकि हिटलर जिस दुनिया में पैदा हुआ था, उस दुनिया में कोई फर्क नहीं पड़ा। आदमी का दिमाग वही का वही है, जिसमें हिटलर पैदा हुआ था। वह फिर पैदा हो जाएगा। हिटलर ने तो सब उपद्रव किया, उसको हम गालियां देते हैं लेकिन हमें खयाल नहीं है कि हम सब लोगों ने सारी दुनिया ने हिटलर को बड़ी प्रशंसा दी है। सब तरह की प्रशंसा ने उसको खड़ा किया था और वही रुख आज भी है।
हिटलर ने अपनी आत्म-कथा में लिखा है कि शुरू-शुरू में जब उसके साथ बहुत कम लोग थे और सभाओं में कोई आता भी नहीं था, तब वह अपने बीस-पच्चीस लोगों को सभाओं में लेकर जाता था, जो भीड़ में चारों तरफ खड़े रहते । यह पहले से नियत था कि कब उनको तालियां बजानी हैं। वे पच्चीस लोग तालियां बजाएंगे ठीक वक्त पर । हिटलर ने कहाः ‘एक दिन मैं बड़ा हैरान हुआ। पहले तो मैंने सोचा था कि पच्चीस ही तालियां बजेंगी, लेकिन तालियां तो दस हजार बज गईं। बजाई तो मेरे पच्चीस लोगों ने, लेकिन लोगों ने साथ दिया!’ अब तुम खयाल करना, तुम जब तालियां बजाते हो कहीं मीटिंग में, तो तुम्हारे बगलवाला ताली बजा रहा है इसलिए तो तुम नहीं बजाते हो? नहीं तो तुम हिटलर पैदा कर सकते हो। मेरा मतलब समझा तुमने? कहीं बगलवाले को देख कर तुमने ताली नहीं बजाई? इस तरह तुम पैदा कर सकते हो हिटलर क्योंकि तुम इमिटेट (अनुकरण) कर सकते हो। हिटलर इतना ही चाहता है कि बस, इमिटेट करने वाले लोग मिल जाएं, फोलो (अनुसरण) करने वाले लोग मिल जाएं तो हिटलर बनने में क्या दिक्कत है!
ध्यान रहे, हम हंसते हैं तो हम फोलो (अनुसरण) करते हैं। हमें खयाल नहीं होता कि हम क्या कर रहे हैं। हमसे सिर्फ करवाया जा रहा है। चारों तरफ कुछ हो रहा है, हम वही करने लगते हैं। इस पर बहुत प्रयोग किए गए हैं। ध्यान में मैं देखता हूं निरंतर, कि ध्यान में अगर एक आदमी खांसा, तो दो मिनट के भीतर पचास आदमी खांसेंगे। एकदम से सिलसिला शुरू हो जाएगा। यह सब इमिटेट कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि ये जान-बूझ कर कर रहे हैं। अभी यहां बैठे हैं आप। एक आदमी पेशाब करने चला जाए; पंद्रह मिनट में सारे लोग पेशाब करने को जाने की हालत में हो जाएंगे, जिनको खयाल भी नहीं था। इमिटेट करने की एक वृत्ति है हमारी। कोई कुछ करेगा तो एकदम से खयाल आ जाता है कि यह करने योग्य है। बस, खयाल आया कि क्रिया शुरू हो जाती है।
मैं यह कह रहा हूं कि हमारा छोटे से छोटा काम इस जगत में बड़े से बड़े काम के पीछे आधारभूत होता है। अगर तुमने बिना समझे-बूझे ताली बजाई, तो तुम एक ऐसी दुनिया बनाओगे जो कि बिना समझे-बूझे निर्मित होगी। इतना छोटा सा कृत्य भी इतना काम करेगा इसका बोध अगर तुम्हें हो जाए तो तुम एक ऐसे ढंग से जीना शुरू करोगे जो एक बदला हुआ ढंग होगा। जिस दिन तुम बदलकर देखना शुरू करोगे, तुम बहुत हैरान हो जाओगे कि लोग बिलकुल मशीनों की तरह काम कर रहे हैं। जिस दिन तुम होश से ताली बजाओगे, उस दिन तुम हैरान हो जाओगे कि बाकी लोग क्या कर रहे हैं। तब तुम लोगों को देख कर बहुत चैंकोगे कि यह क्या हो रहा है। बिलकुल एक हिप्नोटाइज्ड है, सम्मोहित ढंग से सारी दुनिया चली जा रही है, बेहोशी में सब होता चला जा रहा है। इस बेहोशी को तोड़ने वाले तुम्हीं को बनना होगा, नहीं तो कौन तोड़ेगा! इतना पक्का है कि यदि एक आदमी तोड़ता है तो वह नई तरह की धाराएं पैदा शुरू कर देता है, क्योंकि तुम बिना धाराएं पैदा किए तो रह ही नहीं सकते। समझ लें कि पचास आदमी तालियां बजा रहे हैं और एक आदमी ने ताली नहीं बजाई और वह बैठा रह गया, तब तुम यह मत समझ लेना कि उसका भी परिणाम नहीं हो रहा है। उसके बगल वाले की ताली कमजोर बजेगी। उसका बगल वाला अपने आगे के बगल वाले की ताली देखकर बजा रहा था। लेकिन इस तरफ एक आदमी ताली नहीं बजा रहा था, इस ताली की चोट कम हो जाएगी। इस आदमी का भी असर होने वाला है, क्योंकि अगर बगल वाले की ताली का असर हो रहा है तो क्या गैर-ताली वाले का नहीं होगा? होगा। वह भी होने वाला है। अगर उसके पीछे भी कोई ताली नहीं बजा रहा हो और आगे भी ताली नहीं बजा रहा हो तो हो सकता है, वह भी चुप रह जए; वह सोचे, ताली बजाने जैसी बात नहीं है।
हम जो भी कर रहे हैं, वह परिणामकारी हैं और हमें अपने को जिम्मेवार मानना ही चाहिए। हैं हम जिम्मेवार। बड़ी बात तो यह है कि इसका परिणाम क्रांति होता है, क्योंकि जब तुम जिम्मेवार मानोगे, तुम्हें बदलना ही पड़ेगा। जब तुम बदलोगे तो दुनिया बदलेगी, क्योंकि तुम उतने ही बड़े हिस्से हो दुनिया के, जितना कोई और है। तुम कोई छोटे हिस्से नहीं हो। जो हमें बहुत बड़े लोग दिखाई पड़ते हैं, ये बहुत छोटे-छोटे लोगों की ताकत से बड़े होते हैं। इसलिए मेरा कहना है कि जो छोटे आदमियों की ताकत पर बड़ा हो जाता है, वह बहुत बड़ा नहीं हो सकता। हमें दिखता है कि हिटलर बहुत बड़ा आदमी था, लेकिन किन लोगों की ताकत पर वह बड़ा आदमी था? उन लोगों की, जिन्होंने ताली बजा दी और वे सब छोटे आदमी थे।
मैं कल या परसों उर्दू के किसी कवि की दो पंक्तियां देख रहा था। शायद वे पंक्तियां आपकी नजरों से भी गुजरी हों उसमें उसने कहा है कि जिंदगी भर गधे ताली बजाएं, इसके लिए हम मेहनत करते रहें। कहना उसका यह है कि हमारी हालत उनसे ज्यादा नहीं हो सकती है। हम मेहनत इसलिए करते रहे कि एक अच्छी कविता लिखें और दस आदमी ताली बजा दें तो हमारी हालत उनसे बहुत अच्छी नहीं हो सकती। उनकी ताली पर तो हम निर्भर हैं। उनकी ताली पर तो हम जिंदा हैं, उनकी ताली तो हमारी आत्मा है, वह न बजाई गई तो गए। वे, जिनको तुम बहुत बड़े लोग कहते हो, वे बहुत छोटे-छोटे लोगों की छाती पर खड़े होकर बड़े लोग हैं। छोटे लोग स्वयं जिम्मेवार हैं उनको छाती पर खड़ा रखने में, नहीं तो वे कह दें कि नीचे उतर जाओ, बात खत्म हो जाती। इस छोटे होने का खयाल छोड़ देना होगा।
न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। हम सब शक्तिओं के पुंज हैं। हम उसका कैसे उपयोग करते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है। हम सब शक्तिपुंज है। लेकिन अगर एक दफा यह खयाल बैठ गया कि हम छोटे हैं तो छोटे ही रहेंगे। यह खयाल बड़े लोगों ने बिठाया है, नहीं तो इसके बिना वे बड़े नहीं हो सकते। इसलिए सारा बड़प्पन जो है दुनिया का, वह अधिक लोगों को छोटे होने के खयाल को पिला कर ही खड़ा होता है, नहीं तो खयाल खड़ा नहीं हो सकता। दुनिया में बड़े होने का जो राज है, उस राज का बुनियादी आधार इस पर रखा हुआ है कि अधिक लोगों को यह समझना ही पड़ेगा कि तुम बिलकुल छोटे आदमी हो, तुम कुछ भी नहीं कर सकते हो, तुम कुछ हो ही नहीं, तुम तो इतना ही कर सकते हो कि किसी के अनुयायी बनो, किसी के शिष्य बनो, किसी के पीछे जाओ, किसी के पैर पकड़ो, यही तुम कर सकते हो। यह समझाया गया है बहुत दिनों तक। उसका परिणाम भी हो गया है, बहुत लोगों ने यही मान लिया है। मजा यह है कि छोटे-छोटे चेले जो कुछ भी नहीं हैं, उनके बल पर एक बड़ा आदमी, एक बड़ा गुरु हो जाता है, जो हजारों साल तक पूजा जाता है। अगर तुम उसका बल देखने जाते हो तो वह दिखाई देगा उन छोटे-छोटे आदमियों में, जो कुछ भी नहीं थे। इतना तो बल है उनमें कि एक आदमी को बड़ा बनाते हैं। बल खींच लें तो यह आदमी एकदम सामान्य हो जाए।
अच्छी दुनिया में बड़े आदमी और छोटे आदमी नहीं होंगे, अच्छी दुनिया में आदमी होंगे। बड़ा और छोटा लक्षण है, रुग्ण और बीमार दुनिया का। वह महापुरुष भी है और क्षुद्र पुरुष भी है; महात्मा भी है और हीन आत्मा भी है--यह बीमार दुनिया का लक्षण है। अच्छी दुनिया में आदमी होंगे और अपने-अपने ढंग से जिएंगे, किसी की छाती पर सवार होने का कोई सवाल नहीं है। तुम अपने ढंग से जिओ, बस। तुम ऐसा समझो कि इससे सुख मिलेगा मुझे। दूसरे को सुख मिलेगा तो आनंद मिलेगा मुझे--हम एक ऐसी दुनिया बना सकें। अपने को एक मौका मिलता है सत्तर साल का, एक आदमी को अवसर मिलता है दुनिया बनाने का, उसको चूक नहीं जाना चाहिए। और कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उसका परिणाम व्यापक हो सकता है। तो मेरा मानना यह है कि जब दुनिया को दुखी करने के इतने व्यापक परिणाम हो सके हैं तो दुनिया को सुखी करने के परिणाम और व्यापक हो सकते हैं, क्योंकि मूलतः सब की आकांक्षा सुख के लिए है। अगर दुनिया को अग्ली, गंदी और कुरूप बनाने में हम उपयोगी हो सके हैं तो सुंदर बनाने में क्यों नहीं हो सकते, जब कि सबकी आकांक्षा सुंदर बनने की है। छोटे का खयाल ही गलत है। यह खयाल कुछ लोगों ने पैदा किया है, क्योंकि उनको बड़े होना है।
मैं राजस्थान की एक लोक-कथा पढ़ रहा था। एक ठाकुर साहब हैं, गांव का नाई उनसे मिलने आया। नाई नीचे बैठा है, ठाकुर साहब ऊपर बैठे हैं। नाई बूढ़ा है और ठाकुर जवान। नाई नीचे बैठ गया है, स्वाभाविक है नीचे बैठना ही चाहिए नाई को। ठाकुर साहब ऊपर तख्त पर बैठे हैं। नाई ने निमंत्रण दिया है कि मैं तो हमेशा आता हूं, कभी आप मेरे घर आएं। ठाकुर साहब उसके घर गए। दालान में उसने दरी बिछा दी है। ठाकुर साहब उस पर बैठ गए हैं और नाई दलान से नीचे उतर कर सड़क में जाकर बैठा। तब ठाकुर साहब ने कहाः नहीं-नहीं, यह क्या करते हो। ऐसा करोगे तो मैं भी वहीं आ जाऊंगा, आओ यहां बैठो।
उसने कहाः नहीं-नहीं, हम नाई, आप ठाकुर! हम छोटे आदमी, आप बड़े आदमी!’
उस ठाकुर को कुछ व्यंग लगा है तो वह उतर कर नीचे आ गया है। नाई ने कहाः ‘ऐसा मत करिए, ऐसा करेंगे तो मुझे एक गड्ढा खोदना पड़ेगा, फिर मुझे गड्ढे में ही बैठना पड़ेगा।
उस ठाकुर ने कहाः अगर मैं गड्ढे में आकर बैठ गया, तो?
उस नाई ने कहाः फिर जो मुझे करना चाहिए और बहुत दिनों से नहीं किया, वह मैं करूंगा।
ठाकुर साहब ने पूछाः क्या करोगे?
उसने कहाः मैं गड्ढे को पूर के आराम से सो जाऊंगा, जो मुझे बहुत दिनों से करना चाहिए था और मैंने अभी तक नहीं किया।
छोटे आदमी ने बहुत दिनों से नहीं किया वह काम। मजा यह है कि उसको नीचे बिठलना जरूरी है, नहीं तो बड़ा आदमी कहां टिकेगा? कहां जाएगा। सारा इंतजाम किया है बड़ा होने का। यहां बड़ा होना मैनेज्ड, प्रबंधित है, उसकी सारी व्यवस्था करनी पड़ती है और व्यवस्था न हो तो बड़ा आदमी फिसल जाएगा। बड़ा आदमी फासला रखेगा, निकट न आने देगा।
हिटलर के कंधे पर कोई हाथ नहीं रख सकता था। इतना निकट कोई भी न था, इतना मित्र कोई भी न था कि उसके कंधे पर हाथ रखे। ऐसा कोई भी एक व्यक्ति नहीं था जो उसका सीधा नाम ले सके। जब भी उससे कहा गया, तो उसने कहा कि यह संभव ही कैसे है। इसीलिए उसने शादी नहीं की। आखिरी उम्र में शादी की, मरने के घंटे भर पहले। एक लड़की से उसका प्रेम था, लेकिन वह प्रेम वैसा ही था, जैसा हिटलर का हो सकता था। वह लड़की उसके पास थी, लेकिन उसका काम बिलकुल आज्ञाकारिणी का था। प्रेम भी आज्ञा की बात थी उसके लिए। हिटलर अपने आफिस जा रहा है। उस लड़की ने कहा कि मेरी मां बीमार है, मैं उससे मिल आऊं? उसने कहाः नहीं। और वह अपनी गाड़ी में बैठ कर चला गया। लड़की ने सोचा कि वह चार बजे लौटेगा, पास ही तो उसकी मां है, जाकर देख कर लौट आएगी। वह गई और देख कर लौट के चली आई। हिटलर आया दफतर से, नीचे उसने संतरी से पूछा कि गई तो नहीं थी? उसने कहा, गई थी। संतरी के हाथ से बंदूक लेकर ऊपर गया और गोली मार दी। फिर उसने पूछा नहीं उससे कि गई क्यों? गया और जाते ही गोली मार दी उसने। असंभव था कि हिटलर को कोई ना कह सके। हिटलर कह दे ‘नहीं’ और फिर कोई चला जाए, असंभव था।
फिर एक स्त्री उसको बारह साल तक प्रेम करती रही, लेकिन उससे उसने शादी नहीं की। जिस दिन बर्लिन पर बम गिर रहा था उसके सामने, जहां वह नीचे छिपा था तलघरे में, सामने दुश्मन गोलियां चलाने लगे। आधी रात थी उसने खबर भिजवाई कि कहीं से एक पादरी को पकड़ लाओ और जल्दी से शादी कर दो। उसके मित्रों ने पूछाः अब क्या मतलब है शादी का? उसने कहाः अब कोई भय नहीं रहा। अब मरना ही है तो कुछ भय नहीं है। तलघरे में पांच छहः लोग मौजूद थे जहां हिटलर की शादी हुई। शादी के बाद पादरी बाहर गया। फिर दोनों ने मिल कर गोली मार ली। यह था उसका हनीमून! पर उसने कहाः अब कोई भय नहीं है, अब कर सकते हैं। मैं इतना करीब किसी को भी नहीं ला सकता हूं, जो कंधे पर हाथ रख सके, जो किसी बात से इनकार कर सके, जो मित्रता जतला सके, जो बराबरी दिखा सके।
मतलब यह है कि बड़े आदमी के वास्ते बराबरी दिखाना बहुत असंभव है। इसलिए बड़े आदमी की पत्नी होना बहुत कष्टपूर्ण है, बड़े आदमी का मित्र होना बहुत कष्टपूर्ण है, क्योंकि बड़े आदमी के या तो आप फाॅलोअर हो सकते हैं या दुश्मन हो सकते हैं, मित्र नहीं हो सकते। मित्रता का कोई संबंध ही नहीं है बड़े आदमी से। मजा यह है कि अगर बड़ा आदमी आपको मित्र बनाए तो आप उसको फौरन बड़ा नहीं समझेंगे। ऐसा नहीं की हिटलर ही कसूरवार था। जो मैं कह रहा हूं वह यह कि हमीं सदा जिम्मेवार रहे हैं। अगर हिटलर आपको कंधे पर हाथ रखने दे तो हिटलर गया। फौरन बड़ा आदमी न रहा।
जिस चपरासी की मैं बात कर रहा था कि मैंने देखा और लोगों को कहा तो उन्होंने कहा वह चपरासी है। मैं उससे आदर से बोलता था। उसका नाम द्वारका था, तो मैं ‘द्वारका जी’ ही उसको कहता था। वह मुझे पानी लाकर नहीं देता था। ऐसे आदमी की क्या फिक्र करनी जो ‘द्वारका जी’ चपरासी को कह रहा है। उससे मैंने कहा कि द्वारका जी, पानी ले आना। वह सुनता हुआ भी नहीं सुन रहा है। लेकिन जो उसको कह रहे हैं कि ‘अबे द्वारका!’ उनका काम वह झट से कर रहा है। वह और ये दोनों सहभागी हैं इस मुआमले में; यानी आदमी भी तभी सुनने को राजी होगा, जब उससे ‘अबे’ कहा जाए, उसको ‘जी’ कह कर बुलाइए तो बात खत्म हो गई। वह पहले मुझसे बहुत हैरान हुआ। चपरासी को ‘जी’ कह रहे हैं? मतलब चपरासी से भी गए-बीते आदमी हैं? तब इज्जत की बात ही न रही। खत्म हो गई बात। हिटलर अगर कंधे पर हाथ रखने दे तो गया, मर गया उसी वक्त; यानी उसमें हिटलर ही जिम्मेवार नहीं है, उसमें हम भी जिम्मेवार हैं।
तुम अपने दुख से भी इसलिए पीड़ित हो, क्योंकि तुम दुनिया का दुख नहीं देख पा रहे हो। अगर तुम दुनिया के दुख देख पाओ, तो तुम्हारे दुख बड़े छोटे रह जाएंगे--इतने छोटे कि उनसे पीड़ित होना बिलकुल बेमानी मालूम पड़ेगा। उसका जो कारण है, वह यह नहीं कि बहुत दुख तुम्हारे पास हैं। उसका कारण यह है कि तुम्हारे पास और दुख नहीं है, जिनसे तुम तुलना कर सको। तुम्हारे पास कोई तुलना नहीं है।
जीसस को जिस दिन सूली लगी, उस दिन एक आदमी के दांत में दर्द था। उसकी पत्नी ने रात में कई बार उससे कहा कि आज नींद नहीं आती मुझे, कल सुबह जीसस को सूली लग जाएगी। पति ने कहाः भाड़ में जाने दो जीसस को! मेरे दांत में दर्द है, इसकी तो तुम्हें फिकर नहीं है, जीसस की फिकर में लगी हो! मैं मरा जा रहा हूं, करवटें बदल रहा हूं, दवा ले रहा हूं, दर्द ठीक ही नहीं होता। सुबह वह उठ कर बैठ गया है। जो भी निकलता है, वह जीसस की बात करता है, और कहता है, सुना है तुमने कि जीसस को सूली लग जाएगी? वह सुनता ही नहीं है! कहता हैः रात भर सोया नहीं। दवा भी काम नहीं कर रही है। यह भी करता हूं, वह भी करता हूं, दांत का दर्द ही नहीं जाता! फिर तो जीसस सूली लिए हुए निकले दरवाजे से। लोगों ने कहाः देखो तो! उसने कहाः क्या देखूं! दर्द इतना ज्यादा है कि रात भर सो नहीं सका। दो रात से नींद नहीं आई, कोई दवा काम नहीं करती।
अब जिसका दांत दुख रहा हो, वह ठीक ही कह रहा है कि जीसस को सूली लग रही हो या न लग रही हो, इससे क्या लेना-देना! दांत में तकलीफ है, यह बड़ी बात है। लेकिन मेरा मानना है कि काश! वह आदमी भी जीसस की सूली देख सके तो उसका दांत का दर्द चला जाए। मेरा कहना यह है कि दांत का दर्द दिखाई इसलिए पड़ रहा है कि उस आदमी के देखने का ढंग ही बहुत गलत है। इधर दुनिया में इतनी पीड़ाएं हैं, मेरी अपनी समझ यह है कि बुद्ध या महावीर, कृष्ण या क्राइस्ट जैसे लोगों को जो कोई पीड़ा नहीं हुई, दुख नहीं हुआ, इसका कारण यह नहीं है कि उनको दुख नहीं था, पीड़ा नहीं थी। उसका कुल कारण यह है कि उन्हें इतना दुख दिखाई पड़ रहा था, इतनी पीड़ा दिखाई पड़ रही थी कि अपना दुख और पीड़ा उनके वास्ते बेमानी थी। इसका अहसास ही चला गया था एक सीमा पर आकर। इसका अंतिम अर्थ यह है कि बात ही खत्म हो गई। यह बात ही बेमानी है कि मैं अपने दांत के दर्द की बात करूं। जहां दर्द ही दर्द है, पीड़ा ही पीड़ा है, वहां दांत के दर्द की बात एकदम बेहूदगी है। अगर दुनिया का दुख तुम्हें दिखाई पड़ने लगे तो तुम्हारा दुख एकदम विलीन हो जाएगा। इतना छोटा लगेगा कि आप सोचेंगे--इसको भी दुख कहना चाहिए?
जिस कंपार्टमेंट में मैं आया, उसमें मेरे साथ एक सज्जन थे। एअरकंडीशंड में सब सुविधा है, लेकिन भाग्य से वह डिब्बा चक्के के ऊपर आ गया। वह जो हमारा कंपार्टमेंट है, नीचे चाक है उसके। वह थोड़ा धक्का-मुक्की करता रहा, कंपार्टमेंट हिलता रहा। पूरे बीस घंटे उनको इसी तकलीफ में बीते। कितनी ही बार उन्हें इसकी पीड़ा हुई कि वह चाक ऊपर आ गया। चपरासी को बुलाया है, कंडक्टर को पूछा है कि दूसरा नहीं मिल सकता? अब इस बड़ी दुनिया में इतनी पीड़ाएं हैं, उसमें तुम्हारा डिब्बा एक चाक के ऊपर आ गया और किसी न किसी का डिब्बा चाक पर आएगा ही। चाक नीचे है, करोगे क्या? लेकिन उसका बोध ही नहीं है! इतना बड़ा जो फैलाव है जगत का, उसका बोध ही नहीं है! चेतना यहां सीमित हो गई है। वह उस डिब्बे में बंद है, उस चाक से जुड़ी है। तो ठीक है, वह आदमी बहुत दुख झेल लेगा। ऐसा नहीं है कि वह कम झेल रहा है। वह बहुत झेलता है, लेकिन झेलने के लिए भी वही जिम्मेवार है। वह अगर विराट के संबंध में उसको देखेगा तो बात हंसने जैसी लगेगी। अगर वह अपने ही संदर्भ में देखेगा तो फिर बहुत बड़ी लगेगी।
तो तुम्हारा दुख, तुम्हारी पीड़ा बहुत छोटी हो सकती है, अगर तुम्हें विराट का दुख और पीड़ा दिखाई पड़ जाए। तुम्हारे पास पहली दफा मेजरमेंट भी होगा न, कि दुख क्या है? वह हमारे पास है ही नहीं। हम सब अपने-अपने डिब्बे में बंद हैं, वहीं जी रहे हैं। उधर से थोड़े बाहर निकल कर देखना चाहिए। तुम्हारे घर का दिया बुझ गया है, ठीक है। बाहर निकल कर देखना चाहिए। वहां सूरज ही बुझा हुआ है तो शायद लौट कर तुम्हें घर में अंधेरा दिखाई न पड़ेगा। थोड़ी रोशनी मालूम पड़ने लगेगी, क्योंकि इतना अंधेरा देख कर आए हो। यह बहुत से मनोचिकित्सकों का अनुभव है कि उनकी बीमारियां उनके बीमारों से बातचीत करने में दूर हो गई हैं। जब उनको पहली दफा लोगों की बिमारियों का पता चला तब उनकी बीमारियां इतनी बेमानी मालूम पड़ीं, इस तरह एवोपरेट, वाष्पित हो गईं कि जैसे थी ही नहीं।
बर्नार्ड शाॅ एक दफा बहुत जोर से बीमार पड़ा। अचानक उसको ऐसा लगा कि मर न जाऊं! डाक्टर को फोन करवाया। रात के बारह-एक बजे का समय होगा। डाक्टर बेचारा नींद से उठा और भागा। सीढ़ियां हैं, उन पर वह चढ़ रहा है। बूढा आदमी है डाक्टर भी। बर्नार्ड शाॅ अपनी खाट पर पड़ा हुआ है, बिलकुल डरा हुआ कि कहीं मर न जाए! लेकिन उस डाक्टर ने फिकर ही न की। वह गया और एकदम हांफने लगा। आंखें बंद की और आरामकुर्सी पर लेट गया। बर्नार्ड शाॅ घबड़ा कर उठा कि यह क्या हो गया? उसने देखा कि वह आंखें बंद किए है और ऐसा लग रहा था कि उसका हार्ट फेल हो रहा था। वह गया और उसका हार्ट वगैरह देखा। पूछाः क्या हुआ? डाक्टर ने कहाः ‘मैं तो जाता हूं, मेरे घर सबको कह देना। वह बेचारा पानी-वानी लाया और भूल गया अपनी बीमारी। पानी छिड़क कर हवा की, पसीना पोंछा, उसको जाकर बिस्तर पर लिटाया। आध घंटे बाद जब वह ठीक हुआ तो उस डाक्टर ने कहाः अच्छा मैं चलूं, मेरी फीस दे दो। बर्नार्ड शाॅ ने कहाः फीस काहे की? उसने कहाः तुम्हें ठीक करने की। यह तो सिर्फ मेरा इलाज था, क्योंकि मैं जानता था कि तुम्हारे जैसे लोग चीजों को बड़ा करके देख लेते हैं। तुम बिलकुल ठीक हो न अब! बर्नार्ड शाॅ ने कहाः बिलकुल ठीक हूं। इस आधे घंटे में मुझे अपने रोग का खयाल ही नहीं रहा!
जिंदगी की पीड़ा को देखना चाहिए, तो खुद की पीड़ा बहुत छोटी हो जाती है। खुद की पीड़ा देखते रहोगे तो वह बड़ी होती जाएगी। फिर भूत-प्रेत खुद ही खड़ा कर लोगे, उन्हीं में घिर जाओगे।

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