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शनिवार, 15 सितंबर 2018

भारत का भविष्य-(प्रवचन-14)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

चौदहवां-प्रवचन-(ओशो) 

सादगी का कभी-कभी मजाक करते हैं तो ऐसा नहीं है कि गांधी जी ने इस देश का निरीक्षण किया, पर्यटन किया और करुणा की वजह से उन्होंने जीवन में जो जरूरी थी उतनी चीजों से चला कर वह सादगी का अंगीकार किया था, वह करुणा की वजह से किया नहीं है वह?
करुणा की वजह से हो या न हो, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। मेरे लिए यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि गांधी जी ने किस वजह से सादगी अख्तियार की। मेरे लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि सादगी का रुख मुल्क को गरीब बनाता है। मेरे लिए वह महत्वपूर्ण नहीं है। वह गांधी जी की व्यक्तिगत बात है कि वे करुणा से सादे रहे हैं, या उनको कोई ऑब्सेशन है इसलिए सादे रहे हैं, या दिमाग खराब है इसलिए सादे रहे हैं। इससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। वह गांधी जी की निजी बात है। मेरे लिए प्रयोजन जिस बात से है वह यह है कि जो मुल्क सादगी को प्रतिष्ठा देता है वह मुल्क संपन्न नहीं हो सकता।

मेरे लिए जो आधार है आलोचना का वह बिल्कुल दूसरा है। इससे मुझे प्रयोजन ही नहीं है। गांधी जी की करुणा हो वह उनके साथ है। लेकिन जो सवाल है वह यह है कि अगर हम एक बार किसी मुल्क में..आवश्यकताएं कम होनी चाहिए, सादगी होनी चाहिए, जीवन सीधा होना चाहिए,

चीजें कम होनी चाहिए, कम से कम जरूरत में हमें पूरा करना चाहिए। इस धारणा को अगर मजबूत बना ले तो यह गरीब रहने का रामबाण नुस्खा है। इससे फिर कभी कोई कौम संपन्न नहीं हो सकती। इसलिए अगर गांधी जी करुणा से कह रहे हैं तो मैं भी करुणा से कह रहा हूं कि वह उनकी बात बकवास है।
मेरी बात समझ रहे हैं न? यानी मैं भी करुणा से ही कह रहा हूं और अगर उनकी करुणा बहुत सामयिक है तो मेरी करुणा बहुत शाश्वत है। क्योंकि पांच हजार साल में जिन लोगों ने भी करुणा के कारण हिंदुस्तान को सादा रहने की शिक्षा दी है, वे ही लोग जिम्मेवार हैं हिंदुस्तान की गरीबी के लिए। हिंदुस्तान कभी भी अमीर हो सकता था। लेकिन अमीरी के अपने सूत्र हैं। अमीरी का पहला सूत्र तो यह है कि जो है उससे हम संतुष्ट न हों। असंतोष सदा बना रहे। जितनी हमारी आवश्यकताएं हैं, उतने पर हम ठहर न जाएं, हमारी आवश्यकताएं रोज विस्तीर्ण होती रहें।
जिंदगी का जो विकास है वह जटिलता से है। तो जितना जटिल होता है उतना ही विकास होता है। बुद्ध भी करुणा कर रहे हैं, महावीर भी करुणा कर रहे हैं, गांधी जी भी करुणा कर रहे हैं, सब करुणा कर रहे हैं, यह मुल्क मरा जा रहा है। उनकी करुणा महंगी है। उनकी करुणा मेरी दृष्टि में मुल्क के हित में नहीं है, मंगलदायी नहीं है, दिखाई तो पड़ती है। दिखाई तो ऐसा पड़ता है कि ठीक है भई इतना गरीब देश है। इस मुल्क को अगर हम गरीबी में रहने की राजी करने की व्यवस्था नहीं करेंगे तो यह मुल्क तो बहुत परेशान हो जाएगा। लेकिन मेरा मानना है कि जितना यह गरीब रह कर परेशान होगा, उतना गरीबी से मुक्त होने के लिए परेशान होना, उतना खतरनाक नहीं है।
इस गरीबी को कहीं तोड़ना पड़ेगा। गांधी जी को पांच हजार साल के बाद भी करुणा करनी पड़ती है, अगर आप गांधी जी को मानते हैं तो पांच हजार साल बाद भी करुणा करनी ही पड़ेगी हमको इस मुल्क में। यह व्यवस्था नहीं टूटेगी। इसलिए यह महत्वपूर्ण नहीं है। मैं गांधी जी करुणा पर कोई बात नहीं कह रहा हूं। कोई सवाल नहीं है। मैं आपको करुणा से भर कर आप बीमार हैं और आपको मिठाई दे देता हूं। मैं करुणा से ही देता हूं इससे कोई सवाल नहीं है। आप पर क्या होगा अंतिम परिणाम, सवाल यह है? अंतिम परिणाम मैं मानता हूं कि आवश्यकताएं कम करने की कल्पना, कम आवश्यकताओं में जीने की आस्था, जिंदगी को विकसित नहीं होने देती। अन्यथा हम शायद जमीन पर सबसे समृद्ध कौम हो सकते हैं, सबसे। जमीन कहीं भी इतनी समृद्ध नहीं है जितनी हमारी है। और सबसे पहले दुनिया में हमने ही मानसिक रूप से विकास किया, बाकी कौमों ने, बहुत पीछे आईं।
और आज हालत उलटी हो गई। आज हालत यह है कि हम उनसे कैसे उनके कदम मिलाएं, यह सवाल है। नहीं तो दुनिया में हमसे कोई कदम नहीं मिला सकता था। गणित हमने कोई तीन हजार साल पहले खोज लिया था। विज्ञान के मूलभूत कदम हमने कोई ढाई हजार साल पहले खोज लिए थे। दुनिया की सारी महत्वपूर्ण खोज की शुरुआत हमने की लेकिन पूरा किसी और ने किया है। जब कि हम बहुत आगे थे। यानी आज फ्रायड जो कह रहा है, वह हमारा पतंजलि, हमारा बुद्ध ढाई हजार साल पहले समझता था। अभी उनके पास जो भी समझ है वह ज्यादा से ज्यादा तीन सौ साल पुरानी है। हमारे पास जो समझ है वह पांच हजार साल पुरानी है।
लेकिन समझ भी थी, सुविधा भी थी, देश के स्रोत संपन्न थे। लेकिन हमने जो फिलासफी पकड़ी, हमने जो जीवन-दर्शन पकड़ा वह सादगी का था। उसने हमें नुकसान पहुंचाया।
यह सब इस बात पर निर्भर करता है, दो चीजों पर निर्भर करता है। भविष्य को देखते हैं आप या सिर्फ वर्तमान को देखते हैं? अगर सिर्फ वर्तमान को देखते हैं तो गांधी की करुणा बहुत सार्थक मालूम पड़ेगी। लेकिन अगर भविष्य को देखते हैं तो बहुत खतरनाक और पाय.जनस, विषाक्त मालूम पड़ेगी। पर मुझे उससे प्रयोजन ही नहीं है। यानी मैं यह कहता हूं, एक आदमी करुणा करे यह उसका मजा होगा। लेकिन इस करुणा का विस्तीर्ण परिणाम क्या होगा? और इसमें गांधी जी से मुझे लेना देना नहीं है। असल में, मेरी बात समझने में कठिनाई होती है। असली सवाल तो हमारी दृष्टि का है। गांधी जी उस दृष्टि को फिर मजबूत कर जाते हैं।

रचनात्मक काम के बारे में जब आप कहते हैं तो कोई ऐसा ख्याल नहीं है कि देश में जितना कपड़ा है उससे कम कपड़ा मिले। जब देश को ग्यारह गज कपड़ा मिलता था तब गांधी जी ने तीस गज कपड़ा हरेक को मिलना चाहिए ऐसा विचार कहा। लेकिन वह प्राप्त करने के लिए साधन कौन से इस्तेमाल करें। आज देश में देखेंगे तो दो पंचवर्षीय योजना के बाद सत्रह गज से ज्यादा कपड़ा हम उत्पन्न नहीं कर सकते हैं क्योंकि उसका बिक्री नहीं हो सका है। तो गांधी ने तो ऐसा कहा कि जिनको कपड़ा पहनने को नहीं मिलता है वह कपड़े वाला हो। उसके लिए उत्पादन के साधन जो उनको मिले उन्होंने लिए, उस जमाने में चरखा मिला तो चरखा लिया। अब हमें चरखा मिला तो एक आदमी सिर्फ बीस घंटा काम करे, तो भी उसको पांच-सात गज कपड़ा मिल सकता है। ऐसे औजार स्रोत की खोज हुई है। इसका मतलब आपका जो यह ख्याल है कि रचनात्मक काम देश को दरिद्र बनाने के लिए है या नहीं।

नहीं, रचनात्मक काम की बात ही नहीं की है अभी। मैंने जो बात की है वह सादगी के लक्ष्य की बात की है। रचनात्मक काम की बात मैं अलग से आपसे करता हूं। आपने जो सवाल उठाया था वह रचनात्मक से संबंधित नहीं था। जो मैंने बात की है वह यह की है कि सादगी मेरे लिए लक्ष्य नहीं है। मेरे लिए जीवन को जितने वैभव और संपन्नता से जीआ जा सके उतना ही मैं मानता हूं उचित है। क्योंकि उसके वैभव और संपन्नता से जीने की जो अभीप्सा है वह हमारी सोई हुई शक्तियों को चुनौती देती है और हम आगे बढ़ते हैं।
कोई अमरीका में इतनी संपत्ति पैदा हो जाए और हम भीख मांगते रहें। इसमें कुछ अमरीका की जमीन की विशेषता नहीं, सिर्फ अमरीका के मस्तिष्क की विशेषता है। क्योंकि वह सादगी से जीने को राजी नहीं है। और मजे की बात यह है कि वह जो चीज पा लेता है उसी को सादगी मानने लगता है, फौरन। और आगे बढ़ने की कोशिश करने लगता है। अगर किसी के पास बहुत बड़ी गाड़ी है तो वह भी सादी हो जाती है, और बड़ी गाड़ी चाहिए। यह तो मैंने सादगी...रचनात्मक जिसको आप कह रहे हैं, मैं नहीं मानता कि रचनात्मक है। क्योंकि कारण क्या है, पहली तो बात यह है कि अगर एक आदमी, गांधी जी ने जो उपाय सुझाए चरखा या तकली या उस तरह के सामान्य यंत्र जो आदमी एक-एक आदमी मेनेज कर सके।
गांधी जी की नजर कुल इतनी है कि वह बड़ा यंत्र जो व्यक्तियों के ऊपर हावी हो जाता है उसके खिलाफ हैं। वे ऐसा यंत्र चाहते हैं जिस पर व्यक्ति हावी रहे। इसमें मेरा मानना है कि गांधी जी की मनुष्य की आत्मा में बहुत कम भरोसा है। उनका चित्त आदमी में बहुत कम भरोसे वाला है। क्योंकि वे मानते हैं बड़ा यंत्र आदमी पर हावी हो जाएगा। उनको आदमी की आत्मा जो है बहुत छोटी मालूम पड़ती है। बहुत कम हिम्मतवर नपुंसक मालूम पड़ती है, एक। दूसरी बात, गांधी जी जो यंत्र दे रहे हैं। यह हो सकता है कि एक आदमी को तीस गज कपड़ा मिल जाए। यह हो सकता है, यह बहुत कठिन नहीं। अगर एक आदमी गांधी जी के चरखे को ही चलाता रहे तो तीस गज कपड़ा मिल सकता है। लेकिन विकास मल्टी डाइमेन्शनल है। जो आदमी छह घंटे चरखा चला कर तीस गज कपड़ा पा लेगा या चार घंटे चला कर तीस गज कपड़ा पा लेगा। चार घंटे चरखा चलाने में उसने कितना खोया उसका हिसाब आपको नहीं है। अगर मेरा बस चले तो गांधी जी को सजा करवा देनी चाहिए कि तुमको हम चरखा नहीं चलाने देंगे, क्योंकि गांधी जैसा आदमी दो घंटे चला कर मुल्क का कितना नुकसान पहुंचा रहा है इसका हमें कुछ पता नहीं है।
गांधी जैसी हैसियत की प्रतिभा का आदमी दो-तीन घंटे चरखे के साथ उलझा रहे, इन तीन घंटों में इस प्रतिभा का हम कितना उपयोग कर सकते थे और कितना हमने सूत पैदा किया? यह सूत और इस प्रतिभा के उपयोग का कोई संबंध नहीं जुड़ता। यह जो दो-तीन मालाएं सूत की बन जाएंगी, यह गांधी जी के तीन घंटे श्रम का हम फायदा लेंगे, तो आप समझ लेना कि आप गरीब रहेंगे। उसके कारण हैं। सच बात तो यह है कि मनुष्य का विकास इससे होता है कि वह अपने समय, समझ और श्रम का कितना इकोनॉमिक उपयोग करता है।
आप कितने कम समय में कितना ज्यादा पैदा करते हैं इससे आपके विकास की संभावना बढ़ती है। गांधी जी के जो साधन हैं वे ज्यादा समय में बहुत कम पैदा करवाने वाले हैं। इसलिए मैं उनके खिलाफत में हूं। मैं रचनात्मक नहीं मानता, विध्वंसात्मक मानता हूं। गांधी जी के सब साधन डिस्ट्रक्टिव हैं। उनमें रचना नहीं है, विध्वंस हैं। लेकिन दिखाई हमें यह पड़ता है कि अगर मैं छह घंटे बैठ कर चरखा चलाता रहूं तो आपको भी दिखाई पड़ेगा कि सूत तो पैदा हुआ लेकिन छह घंटे से मैं जो पैदा कर सकता था वह पैदा नहीं हुआ। वह आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है। और मुझे एक गधा-पचीसी में लगाया कि छह घंटे में सूत पैदा करूं, जो कि एक मशीन कर देगी जिसमें मेरी जरूरत ही नहीं।
मेरे छह घंटे बच सकते थे जिनका मैं उपयोग कर रहा हूं। मनुष्य की सारी संस्कृति, मनुष्य के लीजर टाइम का विकास है। जो भी कौमें संस्कृत हुई हैं और जो भी सयता विकसित हुई है वह खाली समय में विकसित हुई है। खाली समय कितना आदमी के पास है, इससे निर्भर करेगा कि वह कितना विकसित होता है। अगर गांधी जी की पूरी व्यवस्था अगर हम मानें, तो साबुन अपनी खुद बना लेनी चाहिए, अपना खाना खुद पैदा कर लेना चाहिए, अपना कपड़ा खुद बना लेना चाहिए। तो मैं मानता हूं कि अगर एक आदमी इस व्यवस्था को स्वीकार कर ले, तो सिर्फ जिंदगी में वह आदमी खाना पैदा करने वाली, कपड़ा बनाने वाली, साबुन बनाने वाली मशीन बन जाएगा। उसकी पूरी जिंदगी इसमें नष्ट हो जाएगी।
जिंदगी का हिसाब क्या है? आप अगर साठ साल जीते हैं, जो कि हिंदुस्तान में नहीं जीते हैं। अगर गांधी जी की बात को अमरीका मान ले तो शायद थोड़ा ठीक भी है क्योंकि उनके पास जिंदगी ज्यादा है। हिंदुस्तान के पास अब भी औसत उम्र पैंतीस साल, छत्तीस साल के करीब हैं।

इक्यावन वर्ष।

इक्यावन हो गया क्योंकि बच्चे कम मर रहे हैं। आपकी उम्र नहीं बढ़ गई कहीं कोई। और कुछ नहीं फर्क पड़ गया है। यह जो आदमी जी रहा है, पचास साल समझ लें, साठ साल समझ लें। एक आदमी साठ साल जीता है, उसमें कम से कम बीस साल तो सोने में जाते हैं, नींद में चले जाते हैं। बचते है चालीस साल। चालीस साल में, अगर गांधी जी की व्यवस्था मानी जाए तो आठ घंटे चैबीस घंटे में सोने में चले जाते हैं। नहाना, खाना, कपड़े धोना, साबुन बनाना, खेती करना, चरखा चलाना, रूई ओटना। अगर यह सब आदमी करे तो मैं मानता हूं कि जरूर उसको कपड़े भी मिल जाएंगे। तीस गज भी मिल जाएंगे, खाना भी कामचलाऊ मिल जाएगा, साबुन से भी कपड़ा धोने लायक साबुन भी बना लेगा, अपना जूता भी तैयार कर लेगा। लेकिन यह आदमी यही करते मरेगा। इस आदमी के पास लीजर टाइम नहीं बचने वाला है।

उसी में से मूल्य खड़ा होगा?

कोई मूल्य खड़ा नहीं होगा। इसमें से सिर्फ एक जानवर खड़ा होगा, आदमी नहीं। आदमी और जानवर में इतना ही फर्क है कि जानवर के पास लीजर टाइम नहीं है। वह अपने खाने-पीने की फिकर में पूरा वक्त गुजार देता है। एक कुत्ता है वह दिन भर घूम रहा है। वह बहुत रचनात्मक बुद्धि का है, उसके पास लीजर टाइम नहीं है। या तो सोता है या खाने की तलाश करता है, या अपनी पत्नी को या प्रेयसी को भोगता है। बस ये तीन काम हैं उसके पास।
अगर गांधी जी की बात पूरी मानी जाए..तो आदमी बच्चे पैदा करेगा, कपड़े पैदा करेगा, खाना बनाएगा। लेकिन लीजर टाइम उसके पास नहीं, और लीजर के वे खिलाफ हैं। उसके पास खाली समय नहीं बचेगा। दुनिया का सारा विकास खाली समय में हुआ है। चाहे संगीत हो, चाहे साहित्य हो, चाहे धर्म हो, चाहे विज्ञान हो, यह खाली लोगों की खोज है। जिनके पास कोई काम नहीं बचता; जिनके पास काम के अतिरिक्त समय है। अब वे क्या करें? इसमें वे जुआ खेल सकते हैं, ध्यान भी कर सकते हैं। वह दूसरी बात है कि वे क्या करेंगे। जुआ भी खाली समय में आता है, ध्यान भी खाली समय में आता है, प्रार्थना भी खाली समय में आती है, भगवान भी खाली समय में आता है। जिन दिनों में कोई मुल्क के पास खाने, कपड़े, पत्नी, बच्चों के अलावा समय बचता है उन दिनों में उस मुल्क की चेतना विकसित होती है।
अगर हम गांधी जी की बात मानें तो मैं मानता हूं कि सबसे डिस्ट्रक्टिव योजना है, सबसे विध्वंस की। क्योंकि इसका परिणाम क्या होगा? इसका परिणाम सिर्फ इतना होगा कि आदमी को हम एनिमल लेवल पर खड़ा कर देंगे। हां, एनिमल सादा भी है। आवश्यकताएं भी उसकी ज्यादा नहीं हैं। वह भी ठीक है। लेकिन मैं मानता हूं कि मनुष्य का जो विकास है वह मनुष्य का विकास पशु के तल से ऊपर उठने में है और पशु के तल से ऊपर उठने में जो सबसे बड़ी बात काम करती है वह है आपके पास अतिरिक्त समय? आपके पास कितना अतिरिक्त समय है उतनी ही आपकी चेतना मुश्किल में पड़ जाती है कि अब मैं क्या करूं?
तो मेरी अपनी दृष्टि यह है कि छोटी मशीनें अतिरिक्त समय नहीं ला सकती, न चरखा ला सकता है, न अंबर चरखा ला सकता है। सिर्फ वे ही मशीनें अतिरिक्त समय ला सकती हैं जो मशीनें अधिकतम लोगों का काम करने में समर्थ हैं। जैसे मेरी समझ है कि आने वाले बीस वर्षों में अमरीका के पास दुनिया का सर्वाधिक अतिरिक्त समय होगा, आज भी है। यह जो अतिरिक्त समय अमरीका के पास बचेगा, यह अतिरिक्त समय ही उसको चांद पर पहुंचाएगा, मंगल पर पहुंचाएगा, यह अतिरिक्त समय ही उसे ध्यान में भी लगाएगा, योग में भी लगाएगा, साहित्य, संगीत, सब तरफ लगेगा।
इधर जो कठिनाई है क्या है, गांधी जी बहुत ही ज्यादा जिसको कहना चाहिए सामयिक हैं, वे देख रहे हैं समय को। वे देख रहे हैं कि कपड़ा नहीं है, साबुन नहीं है, फलां नहीं है, ढिकां नहीं है। लेकिन इसको देखने की भी उनकी समझ जो है प्रिमिटिव है। वह दो हजार साल पुरानी है। यानी अगर वह दो हजार साल पहले पैदा हुए होते तो वे ठीक आदमी थे। दो हजार साल बाद वे ठीक आदमी नहीं हैं। क्योंकि जिस समाज से वे यह कह रहे हैं, उस समाज के पड़ोसी समाज यंत्र का उपयोग कर रहे हैं बड़े पैमाने पर। और आदमी को मुक्त कर रहे हैं। और मेरा मानना यह है कि यंत्र ही आदमी को मुक्त करने वाला है। अगर पूर्ण यंत्र आ जाए तो आदमी पूर्ण मुक्त होता है।
जब तक किसी भी आदमी को श्रम करना पड़ेगा मजबूरी में, तब तक गुलामी जारी रहेगी किसी न किसी तरह की। अगर एक बार आदमी को श्रम करने से छुटकारा हो जाए और श्रम भी स्वेच्छा हो जाए कि पूरण चंद जी को काम करना है, शौक है उनका, तो करें। नहीं करना है तो उनकी मौज है। उनको बिना काम किए भी इतना मिल सकता है। तो यह तो संभव तभी है जब हम बड़ी आटोमैटिक यंत्रों पर भरोसा करें। और बड़े मजे की बात यह है कि मैं कभी भी नहीं देख पाता कि बड़ा यंत्र आदमी को क्यों दबा लेगा? कोई यंत्र आदमी को कभी नहीं दबा सकता है।
असल में, चूंकि यंत्रों का बनाने वाला आदमी है। और यंत्रों को किसी भी दिन बंद कर सकता है एक बटन को दबा कर। कोई यंत्र आदमी को कभी नहीं दबा सकता। मेरी अपनी समझ यह है कि छोटा यंत्र आदमी को ज्यादा गुलाम बनाता है। समझ लें कि मैं एक पंखा लेकर आपको हवा करने बैठूं, तो वह मुझे ज्यादा गुलाम बनाता है, बजाए एअरकंडीशनर के। एअरकंडीशनर मुझे गुलाम बना ही नहीं रहा एक अर्थों में। क्योंकि मैं चैबीस घंटे मुक्त हूं और आपको हवा मिल रही है। अगर मैं पंखा लेकर बैठूं तो मैं चैबीस घंटे आपको पंखा चलाना चाहिए। वह जो पंखा चलाने वाला आदमी मुक्त हो गया पंखा चलाने से वह उस पंखे की वजह से मुक्त हो गया है जो यंत्र ने दे दिया है। जिंदगी को हम कितने ज्यादा यंत्र दें इस पर निर्भर करेगा कि हम आदमी को कितनी आत्मा दे दें।
तो मैं नहीं मानता हूं कि गांधी की दृष्टि कोई रचनात्मक है। रचनात्मक दिखाई पड़ती है, वह एपिअरेंस है। लेकिन बहुत गहरे में डिस्ट्रक्टिव है। क्योंकि मनुष्य में जो क्षमता विकास की होनी चाहिए वह उसमें मर जाएगी।
अगर गांधी से कोई भी राजी हो जाए, हालांकि कोई राजी नहीं होगा। आप चिल्लाते रहें कोई राजी नहीं होने वाला। क्योंकि विकास के खिलाफ कभी किसी समाज को राजी किया नहीं जा सकता है। हां, थोड़े से सिरफिरे लोगों को राजी किया जा सकता है। थोड़े से इक्सेंट्रिक लोगों को जिनको कि दिमाग में बात पकड़ जाती है, वे अपनी कुर्बानी दे सकते हैं। उनको राजी किया जा सकता है। समाज को कभी राजी नहीं किया जा सकता।
इसलिए गांधी जी की अपील आजादी के पहले ज्यादा थी। आजादी आते से ही अपील क्षीण हो गई। गांधी को खुद ही लगा कि मैं खोटा सिक्का हो गया हूं। इसमें गांधी खोटे सिक्के नहीं हो गए थे। असल में हमको पहली दफा विकास का मौका मिला और हमको पता चला कि गांधी खतरनाक है। इसके साथ विकास हो नहीं सकता। इसको छोड़ना पड़ेगा एक तरफ। लेकिन पूरे मन से हम नहीं छोड़ पाए। तो वह चलता है दोनों..पंचवर्षीय योजना भी चलती है और हमारी बुद्धि में गांधी जी भी चलते हैं। वह जो आप कहते हैं, पंचवर्षीय योजना से क्या हुआ? बहुत कुछ हो सकता था। रूस में बहुत कुछ हुआ। हिंदुस्तान में नहीं हुआ क्योंकि रूस के दिमाग में गांधी नहीं था, सिर्फ पंचवर्षीय योजना थी।
हिंदुस्तान के दिमाग में गांधी और हाथ में पंचवर्षीय योजनाएं! इन दोनों में विरोध है। ये दोनों नहीं चल सकते साथ। या तो पंचवर्षीय योजना चला लें या गांधी जी को चला लें। ये दोनों हैं इसलिए अहित हो रहा है। और यह जो सारा मैं कह रहा हूं वह इस बात को ध्यान में रख कर कह रहा हूं कि मेरे लिए एक पर्सपैक्टिव है भविष्य का आदमी के लिए। और जो हमारी सामान्य धारणाएं हैं, उन सामान्य धारणाओं को हम कभी सोच नहीं पाते कि हम..अब गांधी जी को हम थर्ड क्लास में चला रहे हैं। बड़ा सादगी मान रहे हैं और महात्मा मान रहे हैं। लेकिन गांधी जैसा आदमी जहां घंटे भर में पहुंच सकता था, वहां अड़तालीस घंटे में पहुंचेगा। ये जो सैंतालीस घंटे गांधी के हमने खराब किए इसका कौन जिम्मेदार होगा? और गांधी जैसे आदमी को खुद तो हक है ही नहीं कि सैंतालीस घंटे अपने खराब कर दे कि ये तो हमारे घंटे हैं। गांधी जैसे आदमी को हम खराब नहीं करने देंगे लेकिन हम खराब करवाएंगे। अगर विनोबा पैदल चले तो हम और खुश हो जाएंगे। अगर जमीन पर ही सरकने लगे, रेंगने लगे तो हमारी खुशी का कोई अंत न रहे। हम इनको बिल्कुल परमहंस मान लेंगे। हमारे सोचने का जो ढंग है वह संकोच वाला है। और जिसको हम रचनात्मक कहते हैं वह रचनात्मक है नहीं।
अब जैसे कि समझ लें, रचनात्मक किसको कहें..एक आदमी ने जिसने बिजली बनाई वह रचनात्मक है या एक आदमी जो एक-एक घर में दीया रखता फिर रहा है वह रचनात्मक है? रचनात्मक कौन है? जिस आदमी ने चरखा चला दिया है लोगों को पकड़ा दिया है कि चरखा चलाओ वह आदमी रचनात्मक है या एक आदमी ने एक बटन बनाई है और लाखों चरखे चल रहे हैं उस बटन से वह रचनात्मक है?
नहीं; हमें यह घर-घर में चरखा वाला रचनात्मक मालूम पड़ेगा। और एक-एक आदमी के छह-छह घंटे खराब करना, करोड़ों आदमियों के अरबों घंटे खराब करना है और जिंदगी बहुत छोटी है। इसलिए मैं राजी नहीं हूं। मेरी अपनी समझ यह है कि...लेकिन अगर गांधी जी जैसी बात को हम पकड़ लें, तो हम चरखा चलाने में उलझ सकते हैं। और हमारा जो चित्त है तीन-चार हजार साल का वह राजी हो सकता है इसके लिए। क्यों? उसके कारण हैं। हम जटिलता से भयभीत कौम हैं। और ध्यान रहे, जितनी जटिलता का हम मुकाबला करेंगे उतनी हमारी प्रतिभा विकसित होगी। एक बैलगाड़ी चला रहा एक आदमी, एक बैलगाड़ी चलाने वाले आदमी की प्रतिभा बहुत विकसित नहीं हो सकती। इसी आदमी को हवाई जहाज चलाने के लिए बिठाइए। तो आप पाएंगे कि इसकी प्रतिभा को मजबूरन विकसित होना पड़ेगा। क्योंकि हवाई जहाज चलाने के लिए जितने जटिल यंत्र को सम्हालना है उतनी बुद्धि भी चाहिए। फिर हवाई जहाज को चलाने में जितना खतरा है उतनी चेतना भी चाहिए, अवेयरनेस भी चाहिए। बैलगाड़ी में वह कोई भी नहीं। बैलगाड़ी में चलाने वाला आदमी बैल की बुद्धि से बहुत ज्यादा आगे विकसित नहीं हो सकता। क्योंकि वह चला बैल को ही रहा है न आखिर। तो उसकी भी एक, उसमें भले ही कितनी बुद्धि हो लेकिन उसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। बैल को ही चलाना है तो बैल को ही चलाने लायक बुद्धि की पुकार आती है।
और हमारे पास जो समझ है वह बड़ी हैरानी की है। वह यह है कि आदमी अच्छे से समझदार से समझदार आदमी अपनी बुद्धि के पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा का उपयोग नहीं कर पाता। अच्छे से अच्छा आदमी, बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी। तो जिसको हम साधारण जन कहें वह तो तीन-चार-पांच परसेंट उपयोग करता है।
वह जो अस्सी-नब्बे परसेंट बुद्धि हमारी अतिरिक्त पड़ी है उसका कैसे उपयोग होगा? गांधी जी के पास उसकी कोई जगह नहीं है। न तो हरि भजन से हो सकता है, न राम की धुन से हो सकता है, न चरखे से हो सकता है। गांधी जी के पास मनुष्य की प्रतिभा को जगाने का कोई क्रिएटिव प्रोग्राम नहीं है। तो इसलिए मैं नहीं मानता कि वह रचनात्मक है। मैं तो मानता हूं कि रचनात्मक बातचीत के भीतर बहुत विध्वंसात्मक है। और मेरी हालत मैं उलटी मानता हूं। मेरी सारी विध्वंसात्मक बातचीत के बीच में बिल्कुल रचनात्मक हूं। और मेरी रचना का अपना अर्थ है, उनकी रचना का अपना अर्थ है। उनकी रचना को मैं रचना नहीं मानने को राजी हूं।

उनका ख्याल यह था रचनात्मक का कि जिस आदमी को काम भी नहीं मिलता है और खाना भी नहीं मिलता है उससे काम लेना एक समाज का धर्म बन रहा है। और क्या नजदीक से कौन सा काम देखते हैं। आज भी देखें कि आज साठ रुपया प्राप्त करने के लिए काफी लोग अंबर चरखा कातने के लिए आते हैं। सिर्फ गुजरात में यह हालत है इतना बड़ा वस्त्र उद्योग है सारे हिंदुस्तान का वस्त्र उद्योग में नौ लाख आदमी को रोजी मिलती है। अतिरिक्त और इसको आटोमैटिक कर दें तो मैं समझता हूं कि ढाई लाख से ही सारा हिंदुस्तान का कपड़ा बन जाएगा।
दूसरा प्रश्न, हम देहात में रह कर देखते हैं कि लोगों को खाने का भी मिलता नहीं है, काम नहीं है। तो काम प्राप्त करने का, काम इसलिए कि उसको रोटी चाहिए। तो वह अधिकार हम कैसे दिलवा सकेंगे? मानो कि आप कहें, वैसे ही स्वयं संचालित युग आ गया और मैं तो एक टेक्नालॉजी का विद्यार्थी हूं। ऐसे एक मशीन बन गई कि जिसमें सब स्वयं संचालित हैं और हिंदुस्तान की जितनी मिल हैं, वह साठ लाख से नहीं सिर्फ एक लाख से चलने लगें और जितनी रेडियो हैं इसमें सब आटोमैटिक कर दें, मैथेमेटिक आटोमैटिक कर दें, कंप्यूटर रख दें तो हिंदुस्तान की आम जनता को जो काम नहीं मिलता है, खाना नहीं मिलता है, उनको क्या काम और कैसे देंगे? वह सब देंगे तो बराबर।

हमारी तकलीफ क्या है कि जब हम भविष्य के किसी यंत्र की बात करते हैं तब भी आर्थिक बुद्धि हमारी अतीत की होती है। भविष्य के यंत्र की बात करते हैं और समझ हमारी अतीत की आर्थिक होती है। इसलिए कठिनाई होती है। जैसे मैं आपसे कहता हूं, जिस दिन आटोमैटिक यंत्र आ जाएगा, आप समझते हैं..हजारों कारखाने बंद हो जाएं कार के, एक कार का कारखाना चलेगा। उसमें किसी को मजदूर की जरूरत नहीं रह जाएगी। शायद दस-पांच आदमी उपयोगी होंगे, लाखों आदमी बेकार हो जाएंगे। लेकिन क्या आप समझते हैं, ये कारें आप बनाइएगा किसलिए, खरीदेगा कौन? जब सारा मुल्क बेकार होगा तो ये कारें खरीदेगा कौन, इनको बनाइएगा किसलिए?
इधर आपको कार बनानी पड़ेगी, इधर बेकार लोगों को पैसा देना पड़ेगा। नहीं तो ये कार बिकेगी कहां? आप समझ नहीं रहे हैं। हमारा जो पुराना दिमाग है वह यह कहता है कि जब काम नहीं होगा तो फिर मर जाएंगे आदमी। लेकिन जिस दिन आटोमैटिक यंत्र आ गया उस दिन हमारी पूरी आर्थिक-व्यवस्था का पुराना ढांचा बदलेगा और ढांचा नया होगा, और वह ढांचा यह होगा कि बेकार आदमी के लिए हमें पैसा देना पड़ेगा। अन्यथा वह खरीदने वाला ही नहीं है कोई।
आप टुथपेस्ट बना लें, साबुन बना लें आटोमैटिक यंत्र से, खरीदेगा कौन? पूरा का पूरा मुल्क बेकार है। अगर आपको यह उत्पादन जारी रखना है आटोमैटिक तो आपको बेकार लोगों को पैसा देना पड़ेगा।
बल्कि मेरी अपनी समझ यह है, और आज अमरीका में जहां कि अकेली स्थिति बनी है, तो इस सदी के पूरे होते-होते आटोमैटिक स्थिति आ जाएगी। तो उनको अपना पूरा...अभी तक हमारी यह व्यवस्था थी कि जो काम करे उसे पैसा मिले। आने वाली व्यवस्था यह होगी कि जो काम न करे उसे पैसा मिले। जो काम भी मांगे, क्योंकि बहुत लोग होंगे जो ऑब्सेशनल हैं, बहुत लोग हैं जो खाली नहीं बैठ सकते हैं। बहुत लोग हैं..न संगीत में रुचि ले सकते हैं, न कविता रच सकते हैं, न किताब पढ़ सकते हैं, न ताश खेल सकते हैं, न सिगरेट पी सकते हैं..बहुत लोग हैं जिनको काम जो है वह बीमारी है..उनको काम चाहिए ही।
जैसे कर्मयोगी जिनको हम कहते हैं इस तरह के लोगों को तो काम चाहिए। इनकी कर्म बीमारी है, ये फुर्सत में हो नहीं सकते, इनका रोग है। तो इस तरह के लोगों के लिए हमें काम देना पड़ेगा। तो इस तरह के लोगों को तनख्वाह कम मिलेगी भविष्य में। क्योंकि ये दोनों चीजें मांगते हैं तनख्वाह भी मांगते हैं और काम भी मांगते हैं। भविष्य की पूरी इकोनॉमिक्स बदलेगी।
हमारी पुरानी इकोनॉमिक्स की वजह से हमको सवाल उठता है कि लोग बेकार हो जाएंगे। तो फिर क्या होगा? लोग बेकार हो जाएंगे यह सवाल लोगों के लिए नहीं है। जो लोग उत्पादन कर रहे हैं उनके लिए सवाल है कि उत्पादन का क्या होगा? अगर आपको उत्पादन खपाना है और कारखाना चलाना है, कंप्यूटर चलाना है, आटोमैटिक मशीन चलानी है, तो बेकार आदमियों के लिए आपको पैसा देना पड़ेगा। और जो आदमी जितने कम काम की मांग करेगा, उसको उतना ज्यादा पैसा देना पड़ेगा। जो आदमी कहेगा हम बिल्कुल नहीं काम करने को राजी हैं उसको ज्यादा से ज्यादा तनख्वाह मिल सकेगी। जैसे अभी तक हमारा नियम था जो जितना काम करे उतना मिले। अब हमारा नियम होगा, आटोमैटिक के बाद, जो जितना कम काम करे उतना ज्यादा पाए। क्योंकि कम काम करने वाला आदमी समाज पर दोहरी कृपा कर रहा है। काम नहीं मांग रहा और बेकाम होने को राजी है।
हमारी जो तकलीफ है वह तकलीफ इसलिए है कि हमारा सारा ख्याल तो होता है पुरानी परिस्थिति का और नई परिस्थिति जब बनती है तो पुरानी पूरी परिस्थिति बदलेगी, उससे उत्तर नहीं मिलता। अब जैसे होता क्या है, आदमी की सारी उलझनें ऐसी हैं, अब आज हम..आज भी हम चरखे पर सूत काते जा रहे हैं। अब हमको अंदाज नहीं है कि चरखे से सूत कातना या लूम में भी सूत कातना अवैज्ञानिक है। अब सूत कातना ही अवैज्ञानिक है। उसका कारण यह है कि जब हम कपास से सूत बनाते थे तो कपास को पहले हमें सूत बनाना पड़ता है। फिर सूत को बुनना पड़ता है। अब यह निपट गंवारी हो गई है अब। लेकिन हमारी पुरानी आदत की वजह से...
अब टेरीलीन है, उससे सीधा कपड़ा ढाला जा सकता है। सूत बनाने की जरूरत नहीं है। लेकिन पुरानी खोपड़ी की वजह से हम टेरीलीन को पहले सूत बनाते हैं। पुरानी खोपड़ी, कपास का व्यापार हम टेरीलीन के साथ, और जितने नये सिंथेटिक चीजें बनी हैं कपड़े की उनके साथ कर रहे हैं पुरानी बुद्धि का उपयोग। पहले सूत बनाएंगे, अब यह बिल्कुल अनावश्यक मूर्खता है, इसको सूत बनाने की जरूरत ही नहीं है। यह तो सीधा ही ढल सकता है। सीधा ही, इसको काट कर दर्जी बनाए इसकी भी जरूरत नहीं है, क्योंकि वह काटना भी हमारी पुरानी बुद्धि है। इसका तो हम सीधा शर्ट ही ढाल सकते हैं, सीधा पेंट ही ढाल सकते हैं। असल में, जैसे और चीजें ढालते हैं अब कपड़ा भी ढल सकता है। लेकिन दिक्कत क्या होती है कि हमारे पास पुराना दिमाग है!
जैसे अभी मैं लुधियाना था तो युनिवर्सिटी बोलने गया था। तो वहां कोई, हम सात साल के बच्चे को स्कूल भेज देते हैं। अब भी हम सात साल के बच्चे को स्कूल भेजे चले जाते हैं। कोई नहीं पूछता कि सात साल के बच्चे को हमने स्कूल क्यों भेजा था? सात साल से बच्चे के स्कूल जाने का कौन सा संबंध है? आठ साल का क्यों नहीं? छह साल का क्यों नहीं? सात साल का हमने भेजना शुरू किया था कभी आज से पांच सौ साल पहले। स्कूल इतने दूर थे कि सात साल से कम बच्चा भेजा ही नहीं जा सकता था। बस इतना कुल कारण था।
अभी भी हम भेजे चले जा रहे हैं सात साल के बच्चे को। अब कोई कारण नहीं है। अब हालतें उलटी हो गई हैं। अब मनोविज्ञान यह कह रहा है कि चार साल का बच्चा ही असल में शिक्षित किया जाना चाहिए। चार साल के पहले ही क्योंकि जिंदगी का पचास प्रतिशत सीख लेता है चार साल का बच्चा। पचास प्रतिशत बाकी जिंदगी में सीखेगा है। तो जिस बच्चे ने चार साल अशिक्षा में गुजार दिए अब इसको ठीक से शिक्षित करना असंभव है। लेकिन हमारी पुरानी आदत वह हम उसको जारी रखे हैं। हम सब चीजों के मामले में ऐसा हुआ है। सारी चीजों के मामले में ऐसा होता है कि हमारे पास दिमाग होता है पुराना, घटना घटती है नई, पुरानी परिस्थिति में नई घटना को जोड़ना चाहते हैं। इसको भूल जाते हैं कि नई घटना भी पैदा होगी नई चीज के साथ। तो मेरी अपनी समझ यह है कि जब तक हम रोक रहे हैं आटोमैटिक यंत्र को।
असल में हमें आटोमैटिक यंत्र को नहीं रोकना चाहिए। हमें बेकार आदमी को पैसा मिलना चाहिए, इसकी मांग बढ़ानी चाहिए। आटोमैटिक यंत्र को रोकने की जरूरत नहीं है। वह तो खतरनाक है। देखें आप यह हमारी...लेकिन स्वभावतः चोट तो इस पर पड़ती है। आज एक कारखाने में अगर आटोमैटिक यंत्र लगेगा तो उस कारखाने के मजदूर बेकार होंगे और उसके मजदूर लड़ाई करेंगे आटोमैटिक यंत्र के खिलाफ। उनको पता नहीं कि आटोमैटिक यंत्र के खिलाफ लड़ाई अपने ही खिलाफ लड़ाई है। वे यह कह रहे हैं कि हम मजदूर ही रहेंगे। वे यह कह रहे हैं। उनको आटोमैटिक यंत्र के खिलाफ नहीं लड़ना चाहिए, उन्हें लड़ना चाहिए कि हम काम छोड़ने को राजी हैं काम के छोड़ने के बदले में क्या देते हो?
यह सवाल नहीं है आटोमैटिक यंत्र बराबर लाओ। जिस दिन सारी दुनिया आटोमैटिक यंत्र पर आ जाएगी उस दिन सारी दुनिया में इतना एक्सपेंशन होगा चेतना का, इतना बड़ा विस्फोट होगा..कि मैं मानता हूं, लाखों बुद्ध एक साथ पैदा हो सकेंगे। असल में, बुद्ध भी बेकार घर में पैदा होते हैं, महावीर भी बेकार घर में पैदा होते हैं। जहां वे मुक्त हैं काम से, वे कोई काम नहीं कर रहे हैं। आज तक दुनिया में जो जिसको हम श्रेष्ठ चेतना कहें, वह चाहे गांधी की हो..वे भी दीवान के बेटे हैं..वे भी कोई चैबीस घंटे चरखा चलाने वाले के घर में पैदा नहीं हो जाते। सारी दुनिया में जो चेतना विकसित होती है वह संपन्न परिवारों में या संपन्न समाजों में पैदा होती है।
हमने ब्राह्मण को काम से मुक्त कर दिया था हिंदुस्तान में। उससे हम काम नहीं लेते थे, उसकी हम सेवा करते थे। उसको हमने छोड़ दिया था कि वह जो सोचना चाहे सोचे। उसको काम की जरूरत ही नहीं थी। भिक्षा का मतलब यह था कि समाज उसको देगा। तो हिंदुस्तान के ब्राह्मण ने अनूठा चीजें उपलब्ध की जो दुनिया में कोई भी नहीं कर सका। बेकार ब्राह्मण का परिणाम है और कोई कारण नहीं है उसका। अगर शूद्र को भी उतना ही बेकार किया जा सके तो शूद्र भी उतने ही बड़े महर्षि पैदा कर सकेगा जितने ब्राह्मण ने पैदा किए। वह अनएंप्लाइड लेकिन सुविधा उपलब्ध। बेकार लेकिन उसको भोजन की चिंता नहीं। तो ब्राह्मण क्या करता, उसने आकाश की बड़ी उड़ाने ली। जैसी उड़ान ब्राह्मण ले सका है, एज ए होल कम्युनिटी की तरह, ऐसी दुनिया की कोई कम्युनिटी नहीं ले सकी। ले ही नहीं सकती क्योंकि कोई कम्युनिटी इतनी बेकार नहीं रही अतीत में।
दुनिया में हिंदुस्तान में पहली दफे बेकारी का प्रयोग किया है। ब्राह्मण जो है उसको हमने कहा कि तुम बेकार रहो, तुम सिर्फ सोचो। तुम गाओ, तुम चिंतन करो, तुम नाचो, तुम खोजो, हम तुमसे काम न लेंगे, न हम साबुन बनवाएंगे, न हम तुमसे कपड़ा बुनवाएंगे, न हम तुमसे खेती करवाएंगे, यह हम कर लेंगे। लेकिन कुछ और ऊंची खोज तुम कर लाओ। तो वह ऊंची खोज कर सका है। आज पश्चिम में वैज्ञानिक काम से मुक्त हो गया है। आज उससे हम दूसरे काम नहीं ले रहे हैं। आज सिर्फ विज्ञान की, तो वह चांद पर उतर पा रहा है। गांधी जी कोई वैज्ञानिक पैदा नहीं कर सकते कभी भी। क्योंकि वह उनको जो आब्सेशन है, उनको जो रोग है वह यह है कि श्रम भगवान है। श्रम-व्रम भगवान नहीं है। श्रम सिर्फ गुलामी है, अबुद्धि है, श्रम अज्ञान है। हम जब तक अज्ञानी हैं तब तक श्रम हमको मजबूरी है, वह हमारी नेसेसरी ईविल है। उसको भगवान-वगवान कहने की जरूरत नहीं है कि श्रम देवता है और उसकी पूजा करो। कोई देवता नहीं है श्रम। हम श्रम भी इसीलिए करते हैं कि विश्राम कर सकें, और कोई कारण नहीं है। अगर दिन भर एक आदमी मजदूरी करता है तो सांझ घर आराम से लेट सकेगा इसलिए करता है, और कोई कारण नहीं है।
जिन समाजों में गुलाम थे, उन समाजों ने बड़ा विकास किया। मैं गुलाम के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन यह देखने जैसा मामला है। ताजमहल गुलामी से पैदा हुआ। पिरामिड गुलामों के इजिप्त में बने। दुनिया में जो भी विकास हुआ..जैसे एथेंस में सुकरात और प्लेटो और अरस्तू पैदा हुए, वह गुलामों का जमाना था। क्योंकि एथेंस में भी उन्होंने यह इंतजाम किया कि एक गुलामों का वर्ग ही खड़ा कर दिया जो काम ही करेगा। वह मशीन हो गया, वह आटोमैटिक मशीन है, और कुछ नहीं है। आदमी को आटोमैटिक मशीन बना दिया, वह सिर्फ काम करेगा। कुछ लोग सिर्फ सोचेंगे।
लेकिन यह बड़ा दुखद है। अगर हमें दुनिया को गुलामी से मुक्त करना है तो गांधी जी की बात भूल कर मत मानना, नहीं तो गुलामी से मुक्त नहीं होगी दुनिया। अगर आप, हिंदुस्तान को अगर एक आदमी को चिंतन के लिए छोड़ना है तो दूसरे लोगों को काम करना पड़ेगा। समझ लें कि मैं अगर चिंतन के लिए मुक्त मुझे छोड़ना है, तो आप मुझसे नहीं चाहेंगे कि मैं चरखा चलाता रहूं। तो आपको चरखा चलाना पड़ेगा मेरे। लिए लेकिन यह तो बड़ी बुरी बात है। आपसे मैं गुलामी करवा रहा हूं। अंततः मैं आपसे गुलामी करवा रहा हूं, वह परोक्ष हो, प्रत्यक्ष हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मुझे खाना चाहिए, अगर मैं खेती-बाड़ी में लग जाऊं तो ठीक है मैं खेतीबाड़ी में ही लगा रहूंगा। लेकिन तब मैं जो कर सकता हूं वह नहीं कर पाऊंगा। तो कोई मेरे लिए खेती-बाड़ी कर रहा है, यह बहुत अमानवीय है कि मैं खाऊं, कोई खेती-बाड़ी करे।
तो मैं कहता हूं, मशीन खेती-बाड़ी करे। किसी को करने की जरूरत नहीं। मशीन के साथ कोई दुव्र्यवहार नहीं होता। इसलिए मशीन गुलाम बनाई जा सकती है। मशीन के पास चूंकि कोई आत्मा नहीं है। अगर आप गांधी जी की बात मानते हैं तो गुलामी कभी खत्म नहीं होगी। सिर्फ पूर्ण मशीन ही मनुष्य को पूर्ण मुक्त कर सकती है। इसलिए मेरी लड़ाई है। वह लड़ाई गांधी जी से बहुत नहीं है। वह लड़ाई आपके दिमाग से बहुत ज्यादा है। इसमें गांाधी जी, बहुत लेना-देना नहीं है मेरे लिए।

आपने...में ऐसा कहा था कि मैं गांधी जी का परम भक्त हूं।

नहीं, मैं काहे को कहूंगा, मैं किसी का परम भक्त नहीं हूं। गांधी जी मेरे परम भक्त नहीं, मैं उनका क्यों होने वाला हूं। यह गोरखधंधा मैं पालता नहीं। न मैं किसी का परम भक्त हूं, न कोई मेरा परम भक्त है। भक्त को ही नहीं मानता मैं। बुद्धिहीनता से भक्ति पैदा होती है। नहीं तो कोई जरूरत नहीं है।

जो आपने कहा वैसा ही हेनरी फोर्ड ने कहा था, मोटर बहुत बन गई, तो उन्होंने कहा था, अब एक ऐसा समय आया है कि जहां हमारा एक फर्ज होता है कि जिनके घरों में पैसा नहीं है उनके घरों में पैसा पहुंचाना चाहिए। और उसके लिए उन्होंने फिर यह सोचा कि जहां गेहूं पैदा होता है वहां ब्रेड बनाओ। तो आगे चल कर लोगों के, आपका ख्याल यह है कि एक समाज ऐसा बनेगा जिसमें लोगों को मुक्ति दी जाएगी। वह भी एक संस्कृति हो सकती है कि जिसमें सब लोग कुछ काम न करें, और कल्चर ही करे, तो संस्कृति का अनुभव है कि जहां-जहां गुलामी पनपी है वहां वह संस्कृति नष्ट हो गई है। रोम का, सब आप जो-जो बताते हैं। और हमने देखा कि टाल्सटाय और जितने अच्छे से अच्छे विचारक हुए।

असल में, ऐसी गलत बातें जो करते हैं उनको आप अच्छा विचारक कहते हैं और कोई बात नहीं है। मजा यह है कि टाल्सटाय को आप अच्छा आदमी मानते हैं। इसकी वजह टाल्सटाय अच्छा है ऐसा नहीं। टाल्सटाय से दुष्ट आदमी खोजना मुश्किल है पृथ्वी पर। मैं आपको कारण से कहता हूं। टाल्सटाय से ज्यादा कामुक, दुष्ट, घृणा और हिंसा से भरा आदमी खोजना मुश्किल है। लेकिन आपको अच्छा लगेगा क्योंकि वह आप जिसको अच्छा समझते हैं वह कह रहा है। वह आखिरी दम तक बेचैन और परेशान मरा है।
गांधी ने अपने जितने गुरु चुने, सारी दुनिया में छांट कर नासमझ चुने। छांट कर, उसकी वजह यह नहीं कि वे योग्य आदमी थे। उसकी वजह गांधी जी की जो समझ थी उससे वे चुनाव करेंगे। उसका चुनाव तो वे टाल्सटाय को चुनेंगे, रस्किन को चुनेंगे, थोरो को चुनेंगे, ये कोई भी आदमी जगत के हित में नहीं है। ये कोई भी आदमी जगत के हित में नहीं है। इनकी जो बातचीत है वह हमेशा पीछे लौटने वाली बातचीत है। और ये सब परेशान लोग हैं। ये बहुत व्यथित और हैरानी से और जिंदगी जिनकी जरा भी सुलझी हुई नहीं है, बहुत उलझी हुई और परेशानी से भरी हुई है।
गांधी जी की जिंदगी भी बहुत सुलझी हुई जिंदगी नहीं है। मगर हम...हमारी तकलीफें ये हैं कि हम जिसको महात्मा मान लें, उसको हम देखना बंद कर देते हैं। असल में, महात्मा का मतलब यह है कि जिसकी तरफ हमने आंख बंद कर लीं, अब हम देखेंगे न। और हम समझाए चले जाते हैं कि गांधी और कस्तूरबा का संबंध आदर्श दांपत्य है। इससे रद्दी दांपत्य खोजना मुश्किल है। मगर हम कहे चले जाते हैं, कहे चले जाते हैं। आधी रात को गांधी कस्तूरबा को निकाल घर के बाहर कर देते हैं। इनकी कलह शाश्वत है। लेकिन हम आदर्श कहे चले जाते हैं, हम लेख लिखे चले जाते हैं।
टाल्सटाय और उसकी पत्नी के संबंध इतने नारकीय हैं जिनका हिसाब लगाना मुश्किल है। लेकिन सारी की सारी कठिनाई जो है हमारी वह यह है कि हम किसको अच्छा कहें। कई बार ऐसा होता है कि शायद ही कोई आइंस्टीन को अच्छा कहे। क्योंकि न तो वह चरखा चला रहा है, न वह पान का त्याग कर रहा है, न वह सिगरेट का त्याग कर रहा है, न शराब का त्याग कर रहा है। लेकिन मनुष्य-जाति को जो फायदा पहुंचने वाला है वह इस आदमी से पहुंचने वाला है। न टाल्सटाय से पहुंचने वाला है, न रस्किन से, न गांधी से। क्योंकि कल एटामिक एनर्जी ही मनुष्य को सारी गुलामी से मुक्त कर पाएगी। लेकिन इस सबको कभी महात्माओं में हम फिक्र न करेंगे। हम महात्माओं की फिक्र उनकी करेंगे जो कि किसी चीज से किसी को कभी मुक्त नहीं कर पाए हैं।
लेकिन हमारी कोई तृप्ति उनसे जरूर होती है। कोई तृप्ति हमारी जरूर होती है, उसकी वजह से हम उनको अच्छा आदमी कहते हैं। अब हमारी क्या तृप्ति होती है? टाल्सटाय से हमें कौन सी तृप्ति मिलती है? रस्किन से कौन सी तृप्ति मिलती है? गांधी से कौन सी तृप्ति मिलती है? असल में, गरीब आदमी इतने दिन से गरीब है तो उसे अपनी गरीबी में ग्लोरीफिकेशन चाहिए। उसको चाहिए कि गरीबी कोई ऊंची चीज है। एक आदमी पांच हजार साल से गरीब है। वह गरीबी से तो परेशान है ही, अगर कोई उसे समझाने वाला मिल जाए कि गरीबी तो बड़ी भगवान की कृपा है। तो उसको बड़ा कंसोलेशन होगा।
महावीर जब राज्य छोड़ कर सड़क पर खड़े हो गए तो गरीब बड़े प्रसन्न हुए, उन्होंने कहा, यह है महा त्याग। और गरीब ने समझा कि भगवान हम पर बड़ा कृपालु है क्योंकि महावीर को जो हमको करना पड़ा वह हमको जन्म से मिला हुआ है। जो दुनिया में गरीब की लंबी परंपरा है, वह गरीब की लंबी परंपरा त्यागियों को आदर देती है। क्योंकि त्यागी का मतलब हैः स्वेच्छा से बना हुआ गरीब। वह वालंटरी पावर्टी है उसकी। और मजे की बात यह है कि वह पुअर इसलिए नहीं बनता, वालंटरी पावर्टी जो उसकी स्वेच्छा से दरिद्रता वरण की है, वह कोई दरिद्रता के रस से नहीं की है; वह संपन्नता से अरुचि से पैदा होती है। इसका असली कारण बहुत दूसरा है।
बुद्ध के पास बुद्ध के बाप ने सब सुंदर औरतें इकट्ठी कर दीं। ऊब गया, कोई भी ऊब जाएगा। बुद्ध की कोई खूबी नहीं है उसमें। किसी भी साधारण आदमी के पास दस-पच्चीस सुंदर स्त्रियां इकट्ठी कर दो वह एकदम भाग खड़ा होगा उनसे। क्योंकि सुंदर स्त्री जितनी दूर होती है उतनी सुंदर मालूम पड़ती है। और पास ही आ जाए तो थोड़ी देर में घबड़ाने वाली और उबाने वाली हो जाती है। तो बुद्ध कोई ब्रह्मचर्य के लिए नहीं भाग गए हैं। असली कारण यह है कि औरतें इतनी इकट्ठी हैं कि औरतों से भागने के सिवाय कोई रास्ता नहीं रह गया।
लेकिन जिसके पास औरत नहीं है वह बड़ा प्रसन्न हो रहा है। वह कह रहा है, हम पर भगवान की बड़ी कृपा है। हमको पहले से ही नहीं, तुमको भागना पड़ रहा है। इस पर कोई कृपा नहीं है यह औरतों के पीछे भागता ही रहेगा। जहां भी संपन्नता गहरी पैदा होती है वहां संपन्नता से अरुचि पैदा हो जाती है। असल में, कोई भी चीज...मनुष्य के मन के बड़े अदभुत नियम हैं, एक नियम यह है कि हर चीज का स्वाद हमें उबा देता है। गरीब आदमी अमीर होने की कोशिश में लग जाता है। एक दफा आप अमीर हो जाएं आप गरीब होने की कोशिश में लग जाएंगे।
ये सब गरीब होने की कोशिश से पैदा हुए महात्मा हैं। यह टाल्सटाय, यह रस्किन, ये सारे के सारे लोग। ये अमीरी से ऊब गए हैं। इनके मुंह का स्वाद खराब हो गया है..अच्छे भोजन से, इनको अब रूखी-सूखी रोटी चाहिए। अब ये नेचरोपैथी के चक्कर में पड़ेंगे। ये बच नहीं सकते। जिस मुल्क में ज्यादा खाना पैदा होता है वहां उपवास का कल्ट फौरन पकड़ जाता है। अमरीका में जोर से पकड़ रहा है। जगह-जगह उपवास करने वाले बैठे हुए हैं। असल में जब ओवरफीडिंग हो जाती है और ज्यादा आदमी खा जाता है, तो खाने से ऊब पैदा होती है, फिर न खाने में बड़ा आनंद आता है।
महावीर को आनंद आता है न खाने में, बिहार के अकाल में पड़े आदमी को बिल्कुल आनंद नहीं आता नहीं खाने में। असल में, जो हमें मिलता है हम उससे ऊब जाते हैं। बहुत लोग गरीब हैं इसलिए हम सब गरीबी से ऊबे हुए हैं। बहुत थोड़े लोग अमीर हैं इसलिए बहुत थोड़े लोग अमीरी से ऊब पाते हैं। और जो अमीर हैं वे भी पूरी तरह अमीर नहीं हैं। जब तक पूरी सोसाइटी अमीर न हो तब तक एक इंडिविजुअल का पूरा अमीर होना बहुत मुश्किल है। बहुत मुश्किल है, वह हमेशा अमीर हो ही नहीं पाता, हमेशा होता रहता है। वह हमेशा प्रोसेस में रहता है। कभी ऐसा नहीं हो पाता कि वह अनुभव कर पाए कि अब मैं अमीर हो गया। क्योंकि हमेशा कोई आगे, हमेशा कोई पीछे।
जिस समाज की मैं बात कर रहा हूं, वैसा समाज पहली दफा अमीर होगा, और पहला समाज पहली दफा दरिद्रता से ही मुक्त नहीं होगा, अमीरी से भी मुक्त हो जाएगा। हमारी जो पकड़ है। एक आदमी अगर चैबीस घंटे कार में चले तो उसको सड़क पर पैदल चलने का मजे का हिसाब ही नहीं है। लेकिन आप यह मत सोचना कि कार के बगल से कीचड़ उड़ते हुए जो आदमी पैदल चल रहा है उसको भी वही मजा आ रहा है। इस भ्रम में आप मत पड़ना। कार में बैठे आदमी को कभी-कभी सड़क पर चलने का बड़ा मजा आता है। और जब वह सड़क पर चलता है तब सड़क पर चलने वाले के अहंकार को तृप्ति भी मिलती है कि अच्छा, मतलब सड़क पर चलने का भी मजा है। यानी हम नाहक ही परेशान हो रहे हैं।
लेकिन ध्यान रहे, सड़क पर चलने का मजा सिर्फ कार उपलब्ध हो तो ही है। और गरीब होने का मजा तभी है जब कि अमीरी चखी गई हो। नंगे होने का मजा तभी है जब कि कपड़े खूब मिल चुके हों, अन्यथा नहीं है। तो मैं तो पक्ष में हूं किसी और अर्थ में। मैं इस अर्थ में पक्ष में हूं कि जिस दिन दुनिया पूरी तरफ एफ्लुएंट होगी उस दिन गरीबी अमीरी की दोनों बेवकूफियां खत्म हो जाएंगी। उस दिन पहली दफे सादगी आएगी जो भीतरी होगी। जो बाहरी नहीं होगी, उसका बाहर से कोई संबंध नहीं होगा। कौन आदमी कितने कपड़े पहनता है इससे सादगी का कोई संबंध ही नहीं है। आदमी कपड़ों को किस भांति लेता है इससे सादगी का संबंध है। सादगी जो है वह एटिट्यूड है, व्यवहार नहीं है। कौन आदमी कार में बैठता है कौन नहीं बैठता, यह सवाल नहीं है। कार में बैठने को और पैदल चलने को अगर कोई आदमी एक जैसा लेने लगे। तब मैं समझूंगा कि सादगी आई, नहीं तो वह आदमी जटिल है। वह आदमी जटिल है।
अगर मैं कहूं कि मैं रेशम के ही कपड़े पहनूंगा और खादी नहीं पहन सकता, मर जाऊंगा खादी पहननी पड़ी तो, तो मैं जटिल हूं। इससे उलटा आदमी भी जटिल है, वह कहता है, मैं खादी ही पहनूंगा, नहीं तो मर जाऊंगा, रेशम छू भी नहीं सकता, यह भी जटिल है। ये दोनों आदमी जटिल हैं, यह सादा कोई नहीं है इनमें। असल में, अब तक दुनिया में सादगी आ नहीं सकी क्योंकि द्वंद्व बहुत तीव्र है गरीब और अमीर का। तो इस सादगी का मतलब होता है गरीबी की स्वीकृति, और कोई मतलब नहीं होता है। लेकिन गरीबी-अमीरी से जब दोनों से चित्त मुक्त होता है तभी सादगी आती है, वह सादगी बहुत अन्य है। उस सादगी को सादगी नहीं कहना चाहिए। सरलता है, वह सिंप्लीसिटी है आंतरिक। उसके तो मैं पक्ष में हूं लेकिन मैं मानता हूं गांधी उस अर्थों में सरल नहीं हैं, वे बहुत जटिल हैं। उनकी सारी सादगी चुनी हुई कैलकुलेटिड है, उसमें एक-एक इंच का हिसाब है। सादा आदमी हिसाब नहीं रख सकता। सादा आदमी सादा होता है। सादा होने का मतलब यह हैः कैलकुलेशन कनिंगनेस है, चालाकी है।
जो आदमी चैबीस घंटे कैलकुलेट कर रहा है कि इतना खाऊंगा, इतना पहनूंगा, इतने कमरे में रहूंगा, ऐसे उठूंगा, ऐसे...यह आदमी चालाक है। यह आदमी जिंदगी में गणित बिठा रहा है। सरल का मतलब ही यह है कि आदमी सरलता से जी रहा है। जो मिलता है वह खा लेता है, जहां ठहरने मिलता है सो जाता है। लेकिन यह कब संभव होगा? यह तब संभव होगा जब मशीन ने सारा काम ले लिया होगा। उसके पहले यह बड़े पैमाने पर संभव नहीं हो सकता है।
इसलिए मैं तो वृहत उद्योग के पक्ष में हूं। और आप जो कहते हैं कि अंबर से इतना काम हो सकता है। अगर ठीक से समझें तो अंबर गांधीवादी का समझौता है। अंबर गांधीवादी का विकास नहीं, कंप्रोमाइज है। अंबर गांधीवादी की हार है। क्योंकि अंबर को अब कहां रोकिएगा? आप कह रहे हैं, आटोमैटिक हो जाए। तो मतलब क्या रहा? तो लूम ने क्या बिगाड़ा है? सिर्फ नाम रखने से फर्क पड़ता है।
गांधीवादी की हार है..अंबर। मैं इसलिए कहता हूं, यह मैं इसलिए कहता हूं कि रुकिएगा कहां? अगर एक आदमी पांच तकली चला सकता है अंबर से, तो पचास क्यों नहीं, पांच हजार क्यों नहीं? और एक आदमी पांच हजार चला सकता है तो एक आदमी के बिना चल सकती हो तो हर्ज क्या है? इसमें रुकिएगा कहां? इसमें सवाल जो है, इसको मैं कंप्रोमाइज कहता हूं, यह हार है, गांधीवादी मरा अंबर चरखे के साथ। अंबर चरखा दफन करने वाली व्यवस्था है उसकी, क्योंकि अब रुकेगा कहां वह? रुकने का कहां इंतजाम करिएगा? और जब आप कहते हैं कि अंबर से इतना काम हो रहा है। आटोमैटिक अंबर हो जाए तो और काम होगा। तो मतलब यह रहा कि आटोमैटिक मशीन और आटोमैटिक अंबर में सिर्फ नाम का ही फर्क है, गांधीवादी मशीन हो गई। तो कोई फर्क पड़ने वाला है। जो मैं आपसे कह रहा हूं वह यह कह रहा हूं कि अगर गांधी जी की हम दशा को समझें मन की तो अंबर के पक्ष में नहीं हैं। गांधी जी सख्त खिलाफ हैं यंत्र के बढ़ने के। और ऐसे यंत्रों के भी खिलाफ हैं जिनको आप कभी सोच नहीं सकते थे। टेलीग्राफ के भी खिलाफ हैं। उन्नीस सौ पांच में खिलाफ थे। मैं भी कई दफा सोचता था कि उन्नीस सौ पांच में लिखी गई किताब पर भरोसा नहीं करना चाहिए। आदमी फिर और चालीस साल जी लिया है तो आदमी और जिंदा आदमी था, रोज बदल रहा था। लेकिन उन्नीस सौ पैंतालीस में नेहरू ने एक पत्र में गांधी जी को पूछा है कि आप हिंदू स्वराज में कही गई बातों से क्या अब भी राजी हैं? तो गांधी जी ने कहाः अक्षर अक्षर। हिंदू स्वराज में कहा हुआ है कि रेलगाड़ी पाप है। तो जो आदमी रेलगाड़ी को पाप कह रहा है वह अंबर चरखा वाला नहीं है।
टेलीग्राफ खतरनाक है। इसकी जरूरत नहीं है। हवाई जहाज की जगह नहीं है। आप हैरान होंगे कि एलोपैथी की भी जगह नहीं है। बड़े यंत्रों की जहां भी सुविधा है वहां कोई जगह नहीं है। और उन्नीस सौ पैंतालीस में भी वे कहते हैं कि मैं हिंदू स्वराज से सहमत हूं। यह गांधीवादी का समझौता है गांधी जी का नहीं। यह जो मैं कह रहा हूं, अंबर चरखा है, यह गांधी के मरने के बाद गांधीवादी का समझौता है, वह रोज समझौता करेगा। क्योंकि उसे करना पड़ेगा। क्योंकि उसकी बातें नासमझी पूर्ण हैं। उनको कोई मान सकता नहीं। अब उसको रोज-रोज इंच-इंच लौटना पड़ेगा वापस, वह रोज वापस लौट रहा है। बीस साल पूरे होते-होते वह वहीं खड़ा हो जाएगा जहां गांधी जी ने उसको पकड़ा था। वह वापस लौट आएगा। गांधी जी ने जो ऊहापोह पैदा किया था वह खत्म हो जाएगा क्योंकि वह न तो प्रगति के पक्ष में है, न वह मनुष्य के हित में है, न उससे मंगल सिद्ध होने वाला है, न उससे कुछ होने वाला है। और अब जो सवाल है, कई दफा मुझे ऐसा लगता है कि गांधी जी को जिंदगी के सवालों का भी पूरा साक्षात नहीं है। इसलिए वे बहुत अजीब सी बातें कहते रहते हैं।
मेरी अपनी समझ यह है कि जिंदगी के सारे सवालों का साक्षात उनको बिल्कुल नहीं है। जैसे उनको यह भी पता नहीं है कि जनसंख्या कितनी इस सदी के पूरे होते-होते हो जाएगी। इस सदी के पूरे होते-होते इतनी जनसंख्या हो जाएगी कि खेती तो करना ही मुश्किल हो जाएगा। यह सवाल नहीं है कि करो या न करो। खेती के लिए जमीन नहीं बचने वाली। और इक्कीसवीं सदी के पूरे होते-होते तो अगर जनसंख्या इस मात्रा से बढ़ती है और अगर गांधीवादी बर्थ कंट्रोल के खिलाफ प्रचार किए चले जाते हैं, तो बढ़ेगी ही। कोई और रुकने का कारण नहीं है। इक्कीसवीं सदी पूरे होते सिर्फ सौ साल में एक वर्ग फीट जमीन एक आदमी के पास बचेगी। जमीन पर इतने आदमी होंगे। आदमियों का वजन जमीन से ज्यादा हो जाएगा। तो एक वर्ग फीट जमीन में अंबर चरखा चलाइएगा, खेती करिएगा, क्या करने के इरादे हैं? गांधी जी को पर्सपैक्टिव नहीं है पूरा कि यह हो क्या रहा है? कितने जोर से...चरखा एक जीवन-व्यवस्था का अंग थी, जब संख्या बिल्कुल न के बराबर थी। खेती एक जीवन-व्यवस्था का अंग थी, जब जमीन बहुत थी और लोग बहुत कम थे। अब तो सिंथेटिक फूड की जरूरत पड़ेगी, गोली से ही काम चलाना है भविष्य में। सबको भोजन नहीं मिल सकेगा। भोजन का उपाय भी नहीं है। और मैं समझता हूं बेकार भी है। भोजन बहुत ही अनइकोनॉमिक व्यवस्था है।
तीन पाव खाओ, फिर आधा पाव पचाओ, फिर ढाई पाव निकालो, एकदम अवैज्ञानिक है। इसमें कोई मतलब नहीं है। फिर उस ढाई पाव को गांधी जी के गड्ढे में डालो, फिर उसका खाद बनाओ। यह सब पागलपन है। खाद भी मशीन बना सकती है और गोली भी मशीन बना सकती है। और मजा यह है कि जिस दिन आदमी सिंथेटिक फूड पर आ जाएगा कि एक गोली दिन में खा ले और चैबीस घंटे की उसकी वैटिलिटी, कि उसे पूरा सामान मिल जाएगा। उस दिन बीमारियां तिरोहित हो जाएंगी, नब्बे प्रतिशत बीमारियां खतम हो जाएंगी। और आदमी में पहली दफा सौंदर्य का विकास होगा। और पहली दफा...
और अगर गांधी उस सोसाइटी को प्रभावित कर पाते हैं तो उसी सोसाइटी को प्रभावित कर पाते हैं। हिंदुस्तान की आजादी में जितना गांधी का हाथ है उतना अंग्रेजों का भी हाथ है। उतना हिंदुस्तानियों का भी हाथ है। जो लोग आजादी की लड़ाई में लड़े उनका भी हाथ है, जो नहीं लड़े उनका भी हाथ है। यह सब टोटल फेनामिना है, ये इकट्ठी घटनाएं हैं। लेकिन हमारी बुद्धि को दिक्कत होती है कि हम एक-एक आदमी को पकड़ लेते हैं, और फिर हम उनको पूजे चले जाते हैं। इसका मैं कोई मूल्य नहीं मानता..व्यक्ति का। कोई इतना परेशान होने की जरूरत नहीं है। हां, जो उन्होंने किया है वह कर सके एक समाज में विशेष समाज के दायरे में, लेकिन अगर मुझसे पूछते हो तो खतरा क्या है?
खतरा यह है, जैसे कि इंग्लैंड था। दूसरा महायुद्ध हुआ और इंग्लैंड ने तत्काल चर्चिल को ताकत दे दी। क्योंकि इंग्लैंड को लगा कि चर्चिल आदमी युद्ध के क्षण में उपयोगी है। मुल्क लड़ रहा है, तो एक लड़ाका आदमी चाहिए ताकतवर। फौरन ताकत दे दी। चर्चिल के पहले जो बैठा था उसको ऐसे अलग कर दिया जैसे वह था ही नहीं। फिर युद्ध जीत गया, चर्चिल की जय-जयकार कर दी और युद्ध के बाद चर्चिल को चुपचाप अलग कर दिया। और ऐसी फिक्र ही नहीं की कि इस आदमी ने जिसने युद्ध जीताया। इंग्लैंड के इतिहास में चर्चिल से कीमती आदमी नहीं है, पूरे इतिहास में। लेकिन इसको वे चुपचाप लग कर सके और दूसरे आदमी को बिठा सके।
हमारी क्या तकलीफ है, गांधी जी ने आजादी क्या दिला दी, अब हम गांधी जी से पीड़ित रहेंगे न मालूम कितने समय तक। गांधी जी आजादी के लिए क्या लड़े हमें मुश्किल में डाल गए। अब हम न मालूम कितने हजारों साल तक उपद्रव बांधे रखेंगे कि गांधी जी ने यह किया, गांधी जी ने वह किया। जो किया वह उनकी मौज थी। बात खत्म हो गई। उसको अध्याय को बंद करो। अब क्या करना है इसकी फिक्र करो।
तो मैं व्यक्तियों में बहुत चिंता नहीं लेता। निश्चित ही उन्होंने काम किया है, और हजारों लोगों ने काम किया है। भगतसिंह का हाथ है, सुभाष का हाथ है, आजाद का हाथ है, गांधी का हाथ है, नेहरू का, तिलक का, गोखले का, सबका हाथ है। कौन आदमी आखिर में बचा यह बिल्कुल सांयोगिक है। जिसको पूरा श्रेय मिल जाता है। लेकिन सबके हाथ हैं। और ठीक है, बात खत्म हो गई अब उसको कब तक लिए बैठे रहोगे। अब पंद्रह अगस्त को खत्म होने दोगे कि उसको पकड़े ही रखोगे। उसको जाने दो। बीस साल बीत गया, अब उसको छोड़ते नहीं, उसको कब तक पकड़े रहोगे। जो कौमें अतीत को इतने जोर से पकड़ती हैं कि उनकी ग्रिप भविष्य पर कम हो जाती है। अब भविष्य में कुछ आदमी पैदा करने हों तो गांधी को अब नमस्कार करो। उनको कहो कि अब आप जाइए, अब आप बहुत हो गए। और वे तो चले ही गए हैं। हमारी खोपड़ी खराब है, हम उनको पकड़े हुए बैठे हैं। अब जय गांधी कार लगाए रहो। तो उससे कोई अर्थ नहीं। जो इतिहास जा चुका वह जा चुका, उसमें अच्छा बुरा जो हुआ वह हुआ।
सवाल यह नहीं है कि उसमें किसको श्रेय दें और किसको न दें। सवाल यह है कि उस इतिहास से अब हमारा भविष्य क्या होगा? क्या हम चरखा चलाते रहेंगे? क्योंकि गांधी जी को श्रेय देना है। तो फिर मुश्किल हो जाएगी। यह मेरे लिए इररिलेवेंट है। उसमें मैं कोई बातचीत करना ही पसंद नहीं करता। समय खराब करना है।
मेरे लिए भविष्य है अर्थपूर्ण। अतीत निबट गया, उसका अब...जिस अतीत को हम बदल नहीं सकते उसकी बात भी क्या करनी। जिस अतीत को हम छू नहीं सकते उसका बात करने से फायदा भी क्या है। ठीक है, वह बात समाप्त हो गई। उससे कोई लेना-देना नहीं। आपके पिता आपको पैदा कर गए। अब आपसे ही काम है। अब आपके पिता ने आपको पैदा किया इसको कब तक चिल्लाते रहिएगा। पैदा किया यह बात ठीक है। बात खत्म हो गई। लेकिन अब इसी का गुणगान गाते रहिए जिंदगी भर कि मेरे पिता ने मुझको पैदा किया है। तो अब और कोई काम करना है कि यही गुणगान करना है? आप भी कुछ करिएगा कि पिता ने पैदा किया काम वही खतम कर गए आपका भी। यह दृष्टि गलत है।
चीजें टोटल हैं और हमें रोज आगे बढ़ जाना चाहिए। आज में आपसे एक बात कह रहा हूं अब वह कल आप उसको पकड़ें इसकी कोई जरूरत नहीं है। जितनी सार्थक होगी वह आप में डूब जानी चाहिए, खतम हो गई बात, मैं कल मर जाऊं भूल जाना चाहिए। याद भी करने की जरूरत नहीं है। बात खत्म हो गई। हमें आगे बढ़ना चाहिए। जिंदगी रोज आगे है और हमारी खोपड़ी रोज पीछे की तरफ है। इससे हमारी दिक्कत है। तो मैं निरंतर कहता हूं कि हम भारत में अगर कार बनाएंगे तो उसमें हम सर्च जो लाइट है हेड लाइट वह पीछे लगाएंगे। चलेगी गाड़ी आगे लाइट पीछे पड़ेगा। क्योंकि हमको उड़ती पीछे की धूल देखने में बड़ा सुख है। अहा, कितना अच्छा रास्ता है।
चलना आगे पड़ता है तो लाइट आगे चाहिए। पीछे को भूलते जाना पड़ता है। धूल उड़ गई रास्ता छूट गया है। वहां कोई लाइट नहीं है। वहां जो छोटे से दो लाल लाइट लगे हैं वे भी पीछे से जो आ रहे हैं उनके लिए हैं, आपके लिए नहीं हैं। एक वह मिरर लगा हुआ है रियर व्यू, वह भी उनके लिए हैं कि जो पीछे आ रहे हैं, वे कहीं आपसे टकरा न जाएं। वह उनको याद रखने के लिए, उनके स्मरण के लिए नहीं। लेकिन हिंदुस्तान का दिमाग जो है वह रियर व्यू मिरर है, वह बस पीछे ही देखता है, उसके पास आगे कोई दृष्टि नहीं है। कल भी गांधी पैदा करने हैं कि चूक गए। आने वाले भविष्य में भी कोई आदमी पैदा करना है कि बस खतम हो गया आपका काम।
इसलिए पीछे को हमें रोज-रोज शिथिल करके छोड़ देना है। जो उसमें सार्थक है वह हमारे भीतर बच जाता है। उससे डरने की कोई जरूरत नहीं है। यानी मेरा मानना यह है, जो सार्थक है वह बच ही जाता है, उससे हम छूट ही नहीं सकते। जो सार्थक है वह बच ही जाता है, उसमें कहीं कुछ खोता ही नहीं। लेकिन अगर आप कोशिश करके पकड़ें तो जो व्यर्थ है वह पकड़ जाता है। इसलिए इसकी कोई, मैं कोई इसको बड़ा समझता नहीं।

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