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गुरुवार, 20 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-75

विपरीत ध्रुवों में लय की खोज

प्रवचन-पिच्हत्रवां 

सारसूत्र:

102-अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्मा की कल्पना करो, जब तक कि संपूर्ण अस्तित्व आत्मवान न हो जाए।
103-अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही, जानों।
104-हे शक्ति, प्रत्येक आभार सीमित है, सर्वशक्तिमान में विलीन हो रहा है।
104-सत्य में रूप अविभक्त हैं। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानों।
महाकवि वाल्ट व्हिटमैन ने कहा है, ‘मैं अपना ही विरोध करता हूं क्योंकि मैं विशाल हूं। मैं अपना ही विरोध करता हूं क्योंकि में सब विरोधों को समाहित करता हूं, क्योंकि मैं सब कुछ हूं।’  शिव के संबंध में, तंत्र के संबंध में भी यही कहा जा सकता है। तंत्र है विरोधों के बीच, विरोधाभासों के बीच लय की खोज। विरोधाभासी, विरोधी दृष्टिकोण तंत्र में एक हो जाते हैं। इसे गहराई से समझना पड़ेगा, तभी तुम समझ पाओगे कि इसमें इतनी विरोधाभासी, इतनी भिन्न विधियां क्यों हैं।

जीवन है विरोधों के बीच एक लयबद्धता : पुरुष और स्त्री, विधायक और निषेधात्मक, दिन और रात, जन्म और मृत्यु। इन दो विरोधों के बीच जीवन की धारा बहती है। किनारे विरोधी ध्रुव हैं। वे विरोधाभासी दिखाई पड़ते हैं पर वे हैं सहयोगी। विरोध का वह आभास झूठ है। जीवन, विरोधी ध्रुवों के बीच लय के बिना नहीं रह सकता। और जीवन में सब समाहित है।

तंत्र न इसका है, न उसका है; तंत्र सबका है। असल में तंत्र का अपना कोई दृष्टिकोण ही नहीं है। जितने भी दृष्टिकोण हो सकते हैं सब इसमें समाहित हैं। यह विशाल है। तंत्र अपना ही विरोध कर सकता है क्योंकि इसमें सब समाहित है; यह आशिक नहीं है, पूर्ण है। इसीलिए सुंदर है।
सभी आशिक दृष्टिकोण असुंदर होंगे ही; वे सुंदर नहीं हो सकते, क्योंकि विरोधी ध्रुवों को समाहित नहीं करते। हो सकता है वे तर्कयुक्त और तर्कसंगत हों, लेकिन जीवंत नहीं हो सकते। जहां भी जीवन है, अपने विरोधी ध्रुव के कारण है। जीवन अकेला नहीं हो सकता, विरोधी ध्रुव अनिवार्य है।
ग्रीक पुराणों में दो देवता एकदम विपरीत हैं : अपोलो और डायोनीशियस। अपोलो व्यवस्था का, अनुशासन का, पुण्य का, आदर्श का, सभ्यता का देवता है; और डायोनीशियस अव्यवस्था, अराजकता, स्वतंत्रता और प्रकृति का देवता। दोनों एकदम विपरीत है। लगभग सभी धर्म अपोलोनियन दृष्टिकोण पर आधारित हैं। वे तर्क में विश्वास करते हैं, व्यवस्था में विश्वास करते हैं, पुण्य में विश्वास करते हैं, साधना में, नियंत्रण में विश्वास करते हैं। असल में वे अहंकार में विश्वास करते हैं।
लेकिन तंत्र बुनियादी रूप से भिन्न है : इसमें दोनों समाहित हैं। इसमें डायोनीशियन दृष्टिकोण भी सम्मिलित है। यह प्रकृति में विश्वास करता है, अराजकता में विश्वास करता है, हंसने और नाचने और गाने में विश्वास करता है; यह केवल गंभीर ही नहीं है, यह दोनों है। यह गंभीर और गैर-गंभीर दोनों है।
नीत्शे अपने एक पत्र में लिखता है 'मैं केवल एक नाचते हुए परमात्मा में विश्वास कर सकता हूं।’
वह कोई नाचता हुआ परमात्मा नहीं खोज पाया। यदि वह शिव के विषय में कुछ जानता होता तो उसके जीवन की पूरी कहानी ही बिलकुल दूसरी होती। शिव नाचते हुए परमात्मा हैं। नीत्शे केवल ईसाई परमात्मा के विषय में जानता था। वही एकमात्र धारणा उसे पता थी, जो बहुत गंभीर है।
कई बार तो ईसाई परमात्मा की गंभीरता बड़ी अटपटी, बड़ी बचकानी लगती है, क्योंकि उसमें विरोधी ध्रुव का इनकार है। तुम ईसाई परमात्मा की नाचते हुए कल्पना नहीं कर सकते। असंभव! नाचना तो बड़ा लौकिक मालूम होता है। और तुम ईसाई परमात्मा की हंसते हुए कल्पना नहीं कर सकते-या कि कर सकते हो? यह असंभव है। ईसाई परमात्मा हंस नहीं सकता। हंसना तो बड़ा लौकिक लगेगा। ईसाई परमात्मा गंभीरता की आत्मा है, और नीत्शे उसमें विश्वास नहीं कर सका।
और मैं सोचता हूं कि ऐसे परमात्मा में कोई भी विश्वास नहीं कर सकता, क्योंकि वह आधा है पूरा नहीं है। बिली ग्राहम जैसे लोग ही उसमें विश्वास कर सकते हैं। बिली ग्राहम ने बड़ी गंभीरता से कहीं कहा है कि जब तुम अश्लील पत्रिकाएं पढ़ रहे हो तो याद रखना परमात्मा तुम्हें देख रहा है। यह तो छूता लगती है। तुम अश्लील पत्रिका पढ़ रहे हो और परमात्मा तुम्हें अश्लील पत्रिका पढ़ते हुए देख रहा है! यह धारणा मूढ़तापूर्ण है। यह मूढतापूर्ण है क्योंकि इसमें विरोधी ध्रुव समाहित नहीं है।
यदि विरोधी ध्रुव का निषेध हो जाए तो तुम छू और मुर्दा हो जाओगे। लेकिन यदि तुम बिना किसी विरोधाभास के विरोधी ध्रुवों में गति कर सको, यदि तुम गंभीर हो सको और हंस भी सकी, यदि तुम बुद्ध की तरह बैठ सको और कृष्ण की तरह नाच सको और इन दोनों के बीच कोई स्वाभाविक विरोध न हो-तुम आसानी से बुद्ध से कृष्ण होने की ओर गति कर सको-यदि तुम ऐसा कर सको तो तुम जीवंत रहोगे। और यदि तुम यह कर सको तो तुम तांत्रिक होओगे क्योंकि तंत्र बुनियादी खोज है उस लयबद्धता की जो विरोधों के बीच होती है उस धारा की जो विरोधों के बीच बहती है।
तो तंत्र हर संभव विधि पर कार्य किए चला जाता है। तंत्र किसी एक के लिए नहीं है, सबके लिए है। तंत्र से हर तरह का मन तरंगायित हो सकता है। हर तरह का मन ईसाई नहीं हो सकता, हर तरह का मन बौद्ध नहीं हो सकता। एक विशेष तरह का मन बुद्ध से आकर्षित होगा, एक विशेष तरह का मन जीसस से, एक विशेष तरह का मन मोहम्मद से। शिव में सब समाहित है। शिव हर तरह के मन को आकर्षित कर सकते हैं। इसमें समग्र को संपूर्ण को समाहित किया गया है, यह कोई आशिक दृष्टिकोण नहीं है।
यही कारण है कि तंत्र का कोई संप्रदाय नहीं है। तुम संपूर्ण के आस-पास कोई लय की खोज संप्रदाय खड़ा नहीं कर सकते हो, लेकिन कोई संप्रदाय नहीं बना सकते। संप्रदाय तो तभी बन सकता है तो तुम जी सकते हो, लेकिन कोई संप्रदाय नहीं बना सकते। संप्रदाय तो तभी बन सकता है जब तुम किसी चीज के पक्ष में होओ और किसी चीज के विपक्ष में। यदि दोनों ही विरोधी ध्रुव समाहित हों तो तुम सांप्रदायिक मन कैसे रख सकते हो? तंत्र सारभूत धर्म है, कोई संप्रदाय नहीं। इसीलिए इतनी विधियां हैं।
लोग मेरे पास आकर पूछते रहते हैं 'इतनी विधियां हैं और एक विधि दूसरी का विरोध करती है?'
हां, एक विधि दूसरी विधि का विरोध करती है क्योंकि ये किसी विशेष मन के लिए नहीं हैं। इन एक सौ बारह विधियों में हर तरह के लोगों को, हर तरह के संभावित लोगों को समाहित कर लिया गया है। तो कृपया सारी विधियों की ओर ध्यान मत दो, नहीं तो तुम उलझन में पड़ोगे। तुम तो बस वही ढूंढ लो जो तुम्हें रास आए, जो तुम्हें आकर्षित करे। उसकी ओर तुम एक गहन समानुभूति, एक आकर्षण अनुभव करोगे; उसके तुम प्रेम में पड़ जाओगे। फिर बाकी एक सौ ग्यारह विधियों को भूल जाओ। उन्हें भूल ही जाओ। तुम तो बस उसी को पकड़े रहो जो तुम पर काम करे।
इन एक सौ बारह विधियों में केवल एक विधि तुम्हारे लिए है। यदि तुम कई विधियों का उपयोग करोगे तो उलझन में पड़ोगे क्योंकि इतनी विधियों के उपयोग के लिए तुम्हें बड़े विशाल मन की जरूरत पड़ेगी जो विरोधाभासों को पचा सके। अभी तो ऐसा संभव नहीं है। शायद किसी दिन संभव हो जाए। तुम इतने समग्र, इतने संपूर्ण हो सकते हो कि कई विधियों के साथ एक साथ यात्रा कर सको। फिर कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन फिर कोई जरूरत भी न रहेगी! अभी जरूरत है। तो अपनी विधि खोज लो।
तुम्हें कौन सी विधि रास आएगी यह जानने में मैं तुम्हारा सहयोगी हो सकता हूं। और यदि तुम्हें लगे कि जो विधि तुम्हें रास आ रही है, दूसरी विधियां उसके विरोध में हैं तो उनके बारे में मत सोचो। वे विरोधाभासी हैं। लेकिन वे तुम्हारे लिए नहीं हैं। कम से कम अभी तो वे तुम्हारे लिए नहीं हैं। किसी दिन यह संभव हो सकता है जब तुम्हारे भीतर अहंकार न रहे कि तुम बिना किसी समस्या के विरोधी ध्रुव पर जा सको। अहंकार समस्या खड़ी करता है। वह एक जगह रुक जाता है, किसी चीज को पकड़ लेता है; अहंकार तरल नहीं है, बह नहीं सकता। और शिव हर दिशा में बह रहे हैं।
तो याद रखो, इन विधियों के बारे में सोचने मत लगो कि यह विधि उसके विपरीत है। शिव कोई व्यवस्था खड़ी करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं वह कोई व्यवस्थापक नहीं हैं। शिव बिना किसी व्यवस्था के सब विधियां दे रहे हैं। उन्हें व्यवस्था में नहीं बांधा जा सकता, क्योंकि व्यवस्था का अर्थ है विरोधाभासों का, विरोधों का निषेध। और यहां सभी विरोधी ध्रुव समाहित हैं। यह अपोलो और डायोनीशियस दोनों है; गंभीर और हंसता हुआ दोनों है; अंतरस्थ और पार दोनों है; लौकिक और अलौकिक दोनों है; क्योंकि यह सब कुछ है।’'
अब हम विधियों में प्रवेश करें।

पहली विधि:
      अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्‍मा की कल्‍पना करो। जब तक कि संपूर्ण अस्‍तित्‍व आत्‍मवान न हो जाए।
पहले तो तुम्‍हें समझना है कि कल्‍पना क्‍या है। आजकल बहुत ही निंदित शब्‍द है यह। जैसे ही ‘कल्‍पना’ शब्‍द सुनते हो, तुम कहते हो यह तो व्‍यर्थ है। हम कुछ वास्‍तविकता चाहते है। काल्‍पनिक नहीं। लेकिन कल्‍पना तुम्‍हारे भीतर की एक वास्‍तविकता है। एक क्षमता है, एक संभावना है। तुम क्षमता एक वास्‍तविकता है। इस कल्‍पना के द्वारा तुम स्‍वयं को नष्‍ट कर सकते हो। और स्‍वयं को निर्मित भी कर सकते हो। यह तुम पर निर्भर करता है। कल्‍पना बहुत शक्‍तिशाली क्षमता है। यह छिपी हुई शक्‍ति है।
कल्‍पना क्‍या है? यह किसी धारणा में इतना गहरे चले जाना है कि वह धारणा ही वास्‍तविकता बन जाए। उदाहरण के लिए, तुमने एक विधि के बारे में सुना होगा। जो तिब्‍बत में प्रयोग की जाती है1 वे उसे ऊष्‍मा योग कहते है। सर्द रात है, बर्फ गिर रही है। और तिब्‍बतन लामा खुले आकाश के नीचे नग्‍न खड़ा हो जाता हे। तापमान शून्‍य से नीचे है। तुम तो मरने ही लगोगे, जम जाओगे। लेकिन लामा एक विधि का अभ्‍यास कर रहा है। विधि यह है कि वह कल्‍पना कर रहा है कि उसका शरीर एक लपट है। और उसके शरीर से पसीना निकल रहा है। और सच ही उसका पसीना बहने लगता है जब कि तापमान शून्‍य से नीचे है। और खून तक जम जाना चाहिए। उसका पसीना बहने लगता है। क्‍या हो रहा है? यह पसीना वास्‍तविक है, उसका शरीर वास्‍तव में गर्म है, लेकिन यह वास्‍तविकता कल्‍पना से पैदा की गई है।
तुम कोई सरल सी विधि करके देखो। ताकि तुम महसूस कर सको कि कल्‍पना से वास्‍तविकता कैसे पैदा की जा सकती है। जब तक तुम यह महसूस न कर लो, तुम इस विधि का उपयोग नहीं कर सकते। जरा अपनी धड़कन को गिनो। बंद कमरे में बैठ जाओ और अपनी धड़कन को गिनो। और फिर पाँच मिनट के लिए कल्‍पना करो कि तुम दौड़ रहे हो। कल्‍पना करो कि तुम दौड़ रहे हो, गर्मी लग रही है, तुम गहरी श्‍वास ले रहे हो, तुम्‍हारा पसीना निकल रहा है। और तुम्‍हारी धड़कन बढ़ रही है, पाँच मिनट यह कल्‍पना करने के बाद फिर अपनी धड़कन गिनो। तुम्‍हें अंतर पता चल जायेगा। तुम्‍हारी धड़कन बढ़ जाएगी। यह तुमने कल्‍पना करके ही कर लिया, तुम वास्‍तव में दौड़ नहीं रहे थे।
प्राचीन तिब्‍बत में बौद्ध भिक्षु कल्‍पना द्वारा ही शारीरिक अभ्‍यास किया करते थे। और वे विधियां आधुनिक मनुष्‍य के लिए बड़ी सहयोगी हो सकती है। क्‍योंकि सड़कों पर दौड़ना अब कठिन है, दूर तक घूमने जाना कठिन है। कोई निर्जन जगह खोज पाना कठिन है। तुम बस अपने कमरे में फर्श पर लेट कर एक घंटे के लिए यह कल्‍पना कर सकते हो कि तुम तेजी से चल रहे हो। कल्‍पना में ही चलते रहो। और अब तो चिकित्‍सा विशेषज्ञ कहते है कि उसका प्रभाव सच में चलने के समान ही होगा। एक बार तुम अपनी कल्‍पना से लयवद्ध हो जाओ तो शरीर काम करने लगता है।
तुम पहले ही कितने ऐसे काम कर रहे हो जो तुम्‍हें पता नहीं तुम्‍हारी कल्‍पना कर रही है। कई बार तुम कल्‍पना से ही कई बीमारियां पैदा कर लेते हो। तुम कल्‍पना करते हो कि फलां बीमारी,जो संक्रामक है, सब और फैली हुई है। तुम ग्रहणशील हो गए, अब पूरी संभावना है कि तुम बीमारी पकड़ लोगे। और वह बीमारी वास्‍तविक होगी। लेकिन यह कल्‍पना से निर्मित हुई थी। कल्‍पना एक शक्‍ति है। एक ऊर्जा है और मन उससे चलता है। और जब मन उससे चलता है तो शरीर अनुसरण करता है।   
अमेरिका के एक यूनिवर्सिटी होस्‍टल में एक बार ऐसा हुआ कि चार विद्यार्थी सम्‍मोहन का प्रयोग कर रहे थे। सम्‍मोहन और कुछ नहीं कल्‍पना शक्‍ति ही है। जब तुम किसी व्‍यक्‍ति को सम्‍मोहित करते हो तो वास्‍तव में वह गहन कल्‍पना में चला जाता है। और तुम जो भी सुझाव देते हो, वह होने लगता है। तो जिस लड़के को उन्‍होंने सम्‍मोहन किया हुआ था, उसे कई सुझाव दिए। चार लड़कों ने एक लड़के  पर सम्‍मोहन का प्रयोग किया। उन्‍होंने कई बातें करके देखी। वे जो भी कहते, लड़की तत्‍क्षण अनुसरण करता। जब वे कहते, ‘कुदो’ तो लड़का कूदने लगता। जब वे कहते ‘रोओ’ लड़का रोने लगता। जब उन्‍होंने कहा, ‘तुम्‍हारी आंखों से आंसू गिर रहे है।’ तो उसकी आंखों से आंसू बहने लगते। फिर बस एक मजाक की तरह उन्‍होंने कहा, ‘अब तुम लेट जाओ, तुम मर गये।’ लड़का लेटा और मर गया।
यह उन्‍नीस सौ बावन में हुआ। इसके बाद अमेरिका में उन्‍होंने सम्मोह न के विरूद्ध कानून बना दिया। जब तक कोई शोध-कार्य न चलता हो कोई सम्‍मोहन का प्रयोग न करे; जब तक कोई मेडिकल इंस्टीट्यूट, या किसी यूनिवर्सिटी का मनोविज्ञान विभाग तुम्‍हें अधिकृत न करे, तुम कोई प्रयोग नहीं कर सकते। वरना तो यह बड़ा खतरनाक है, उस लड़के ने तो बस विश्‍वास किया, कल्‍पना की कि वह मर गया है और वह मर गया।
यदि कल्‍पना में मृत्‍यु हो सकती है तो जीवन, अधिक जीवन क्‍यों नहीं मिल सकता।
यह विधि कल्‍पना –शक्‍ति पर आधारित है: ‘अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्‍मा की कल्‍पना करो, जब तक कि संपूर्ण अस्‍तित्‍व आत्‍म वान न हो जाए।’
बस किसी निर्जन स्‍थान पर बैठ जाओ जहां तुम्‍हें कोई परेशान न करे। किसी एकांत कमरे से काम चलेगा। और यदि तुम कहीं बाहर जा सको तो बेहतर होगा। क्‍योंकि जब तुम प्रकृति के समीप होते हो तो अधिक कल्‍पनाशील होते हो। जब तुम्‍हारे आस-पास बस मनुष्‍य निर्मित चीजें होती है तो तुम कम कल्‍पनाशील होते हो। प्रकृति स्‍वप्‍न देख रही है और तुम्‍हें स्‍वप्‍न देखने की शक्‍ति देती है। अकेले तुम अधिक कल्‍पनाशील हो जाते हो।
इसीलिए तो तुम जब अकेले होते हो तो डरते हो। ऐसा नहीं है कि कोई भूत तुम्‍हें परेशान करेंगे, लेकिन तुम्‍हारी कल्‍पना काम कर सकती है। और तुम्‍हारी कल्‍पना भूत या जो भी तुम चाहो, पैदा कर सकती है। जब तुम अकेले होते हो तो तुम्‍हारी कल्‍पना की संभावना ज्‍यादा होती है। जब कोई और साथ होता है तो तुम्‍हारी बुद्धि नियंत्रण में होती है। क्‍योंकि बुद्धि के बिना तुम दूसरों से नहीं जुड़ सकते। जब कोई दूसरा साथ होता है तो तुम प्राणों के गहरे कल्‍पनाशील तलों की और लौट जाते हो। जब तुम अकेले होते हो, कल्‍पना काम करने लगती है।
इंद्रियगत संवेदनाओं के अभाव पर बहुत प्रयोग किए गए है। यदि किसी व्‍यक्‍ति को सभी संवेदनात्‍मक उत्‍तेजनाओ से वंचित कर दिया जाए—तुम्‍हें किसी साउंड-प्रूफ कमरे में बंद दिया जाए जिसमें कोई प्रकाश न आता हो, जिसमें दूसरें मनुष्‍यों से जुड़ने की कोई संभावना न हो, दीवारों पर कोई तस्‍वीर न हो, कुछ न हो जिससे तुम जुड़ सको—तो एक,दो या तीन घंटे बाद तुम स्‍वयं से जुड़ने लगोगे। तुम कल्‍पनाशील हो जाओगे। तुम स्‍वयं से बातें करने लगोगे। तुम्‍हीं प्रश्‍न पूछोगे और तुम्‍हीं उत्‍तर दोगे। एकल-संवाद शुरू हो जाएगा। जिसमें तुम बंट जाओगे।
फिर तुम अचानक कई चीजें अनुभव करने लगोंगे जो तुम समझ नहीं पाओगे। तुम्‍हें ध्‍वनियां सुनाई पड़ने लगेंगी, जब कि कमरा साउंड-प्रूफ है, कोई ध्‍वनि भीतर नहीं आ सकती। अब तुम कल्‍पना कर रहे हो। हो सकता है तुम्‍हें सुगंध आने लगे। जबकि वहां कोई सुगंध नहीं है। अब तुम कल्‍पना कर रहे हो। संवेदनाओं के परिपूर्ण आभाव के छत्‍तीस घंटे बाद कल्‍पना वास्‍तविक बन जातीहै1 वास्‍तविकता कल्‍पना लगने लगती है।
यही कारण है कि पुराने दिनों में साधक पर्वतों पर निर्जन स्‍थानों पर चले जाते थे। जहां वे वास्‍तविक और अवास्‍तविक के बीच के भेद को गिरा सकते थे। एक बार भेद गिर जाए तो तुम्‍हारी कल्‍पना प्रबल हो जाती है। अब तुम इसका उपयोग कर सकते हो और इसके द्वारा कुछ भी निर्मित कर सकते हो।
इस विधि के लिए किसी एकांत स्‍थान पर बैठ जाओ; यदि आस-पास प्राकृतिक स्‍थान हो तो अच्‍छा है, नहीं तो कमरे से भी काम चलेगा। फिर आंखें बंद कर लो और कल्‍पना करो कि तुम्‍हारे भीतर और बहार एक आत्‍मिक शक्‍ति का आभास हो रहा है। तुम्‍हारे भीतर चेतना की एक नदी बह रही है और वह सारे कमरे में भर रही है। फैल रही है। भीतर और बाहर तुम्‍हारे आस-पास सब जगह शक्‍ति उपस्‍थित है, ऊर्जा उपस्‍थित है। और केवल मन में ही इसकी कल्‍पना मत करो, शरीर में भी अनुभव करना शुरू करो।
तुम्‍हारा शरीर आंदोलित होने लगेगा। जब तुम्‍हें लगे कि शरीर आन्दोलित होने लगा तो उससे पता चलता है कि कल्‍पना ने काम करना शुरू कर दिया। अनुभव करो कि पूरा जगत धीरे-धीर आत्‍मवान होता जा रहा है। सब कुछ कमरे की दीवारें, तुम्‍हारे आस-पास के वृक्ष—सब कुछ अभौतिक ऊर्जा रह जाती है। जिसमें कोई सीमाएं नहीं होती।
कल्‍पना के द्वारा तुम इस बिंदु पर पहुंच रहे हो जहां अपने चेतन प्रयास से तुम बुद्धि के ढांचे, बुद्धि के ढर्रे को नष्‍ट कर रहे हो। तुम अनुभव करते हो कि पदार्थ नहीं है। केवल ऊर्जा है, केवल आत्‍मा है—भीतर भी, बाहर भी। जल्‍दी ही तुम अनुभव करोगे कि भीतर तथा बाहर समाप्‍त हो गए है। जब तुम्‍हारा शरीर आत्‍ममय हो जाता है और तुम्‍हें लगता है कि यह ऊर्जा ही है, तो भीतर तथा बाहर में कोई भेद नहीं रहता। सीमाएं खो जाती है। केवल तरंगायित, आंदोलित ऊर्जा का एक महासागर बचता है। यही सत्‍य भी है। तुम कल्‍पना के द्वारा सत्‍य तक पहुंच रहे हो।
कल्‍पना क्‍या कर ही हो? कल्‍पना केवल पुरानी धारणाओं को, पदार्थ को मन के पुराने ढंगों को नष्‍ट कर रही है जो चीजों को एक खास दृष्‍टि कोण से देखते है। कल्‍पना उनको नष्‍ट कर रही है। और तब सत्‍य प्रकट होगा।
‘अपने भीतर तथा बाहर एक साथ आत्‍मा की कल्‍पना करो, जब तक कि संपूर्ण अस्‍तित्‍व आत्‍मवान न हो जाए।’
जब तक तुम्‍हें यह न लगने लगे कि सब भेद समाप्‍त हो गए। सब सीमाएं विलीन हो गई और जगत केवल ऊर्जा का एक महासागर रह गया है। यही वास्‍तविकता भी है। लेकिन विधि में तुम जितने गहरे उतरोगे, उतने ही भयभीत हो जाओगे। तुम्‍हें लगेगा कि तुम पागल हो रहे हो। क्‍योंकि तुम्‍हारी बुद्धि भेदों में बनी है। तुम्‍हारी बुद्धि इस तथाकथित से बनी है, और जब यह वास्‍तविकता समाप्‍त होने लगती है तो साथ ही तुम्‍हें लगता है कि तुम्‍हारी बुद्धि भी नष्‍ट हो रही है।
संत और पागल दोनों ऐसे जगत में जीते है जो हमारी तथाकथित वास्‍तविकता के पार होता है। दोनों ही पार के जगत में जीते है, लेकिन पागल नीचे गिर जाता है, और संत ऊपर उठ जाते है। भेद छोटा सा है। लेकिन बहुत बड़ा है। यदि बिना किसी प्रयास के तुम मन और वास्‍तविक तथा अवास्‍तविक के भेद खो दो तो तुम विक्षिप्‍त हो जाओगे। लेकिन यदि चेतन प्रयास से तुम धारणाओं को नष्‍ट कर दो तो तुम विमुक्‍त हो जाओगे। विक्षिप्‍त नहीं। यह वियुक्तता ही धर्म का आयाम है। यह बुद्धि के पार है। लेकिन चेतन प्रयास चाहिए। तुम शिकार न बनो,मालिक ही बने रहो। जब तुम्‍हारा प्रयास मन के सारे आकारों को नष्‍ट करता है तो तुम निराकार सत्‍य का साक्षात्‍कार करते हो।  
उदाहरण के लिए, बौद्ध कहते है कि संसार में कोई पदार्थ नहीं है। संसार केवल एक प्रक्रिया है। कुछ भी वास्‍तविक नहीं है। सब कुछ गतिमान है। या गतिमान कहना भी ठीक नहीं है, मात्र गति है। जब हम कहते है कि सब कुछ गतिमान है तो वही पुरानी भूल हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे कि कुछ है जो गतिमान है। बुद्ध कहते है, कुछ भी गतिमान नहीं है। केवल गति ही है। केवल गति है, इसके अलावा कुछ नहीं है।  
तो थाईलैंड या बर्मा जैसे बौद्ध देशों में, उनकी भाषा में ‘है’ के लिए कोई शब्‍द नहीं है। जब बाइबिल पहली बार थाई में अनुवादित हुई तो उसे अनुवादित करना बड़ा कठिन हो गया, क्‍योंकि बाइबिल में तो कहा गया है ‘परमात्‍मा है’। बर्मीज या थाई में तुम यह नहीं कह सकते कि ‘परमात्‍मा है’। तुम ऐसा कह ही नहीं सकते। तुम जो भी कहोगे उसका अर्थ होगा, ‘परमात्‍मा हो रहा है।’ सब कुछ हो रहा है। कुछ भी है नहीं है। जब एक बर्मा निवासी संसार की और देखता है तो गति की और देखता है। जब हम देखते है, विशेषत: जब ग्रीक उन्‍मुख पाश्‍चात्‍य मन देखता है, तो कोई प्रक्रिया नहीं होती। केवल वस्‍तु होती है। केवल मृत वस्‍तुएं है, गति नहीं है।
जब तुम नदी की और देखते हो तो नदी को ‘है’ की तरह देखते हो। नदी है नहीं नदी का अर्थ तो बस एक गति है। कुछ जो सतत हो रहा है। और कोई बिंदू नहीं आता जहां तुम कहो कि यह होना पूरा हो गया। यह एक अंतहीन प्रक्रिया है। जब हम एक वृक्ष की और देखते है तो कहते है कि वृक्ष है। बर्मी भाषा में कहते है कि वृक्ष हो रहा है। वृक्ष बह रहा है। वृक्ष बढ़ रहा है। वृक्ष प्रक्रिया है। तो संसार और यथार्थ बिलकुल भिन्‍न होंगे। तुम्‍हारे लिए यह भिन्‍न है। और यथार्थ तो एक ही है। लेकिन इसकी व्‍याख्‍या किसी तरह करते हो। उससे सब बदल जाता है।
एक मूल बात ध्‍यान रखो: जब तक तुम्‍हारे मन के ढांचे को मिटा न दिया जाए, जब तक तुम उस ढाँचे  से मुक्‍त न हो जाओ, जब तक तुम्‍हारे संस्‍कार न पोंछ दिए जाएं और तुम निर्सस्‍कार न हो जाओ। तब तक तुम्‍हें पता नहीं चलेगा कि वास्‍तविकता क्‍या है। तुम केवल व्‍याख्‍याएं ही जानते हो। वे व्याख्याएं तुम्‍हारे मन के ही खेल है। निराकार सत्‍य ही एकमात्र वास्‍तविकता है। और यह विधि तुम्‍हें निर्धारण होने में,निर्संस्‍कार होने में तुम्‍हारे मन पर इकट्ठे हो गए शब्‍दों को हटाने में मदद देने के लिए है। उनके कारण तुम देख नहीं पाते। जो भी तुम्‍हें सत्‍य जैसा लगता है उसे मिट जाने दो।
ऊर्जा की कल्‍पना करो—पदार्थ की नहीं। वरन प्रक्रिया की, गति की, लय कि, नृत्‍य की। और कल्‍पना करते रहा जब तक कि पूरा जगत आत्‍मवान न हो जाए। यदि तुम धैर्यपूर्वक लगे रहे तो तीन महीने के एक घंटा प्रतिदिन सधन प्रयास के बाद, तुम इस आभास को पा सकते हो। तीन महीने के भीतर अपने आस-पास के सारे अस्‍तित्‍व का तुम एक दूसरा ही अनुभव कले सकते हो। पदार्थ नहीं बचा, मात्र अभौतिक, महासागरीय अस्‍तित्‍व बचा—केवल लहरें केवल कंपन।
जब यह अनुभव होता है तभी तुम जानते हो कि परमात्‍मा क्‍या है। ऊर्जा का यह महासागर ही परमात्‍मा है। परमात्‍मा कोई व्‍यक्‍ति नहीं है। परमात्‍मा कहीं स्‍वर्ग में किसी सिंहासन पर नहीं बैठा है। वहां कोई भी नहीं बैठा है। लेकिन हमारे सोचने का एक ढंग है। हम कहते है कि परमात्‍मा स्‍त्रष्‍टा है। परमात्‍मा क्षृष्‍टा नहीं है। बल्‍कि, परमात्‍मा सृजनात्‍मक शक्‍ति है, स्‍वयं सृजन ही है।  
हमारे मन पर बार-बार थोपा गया है कि कहीं अतीत में परमात्‍मा ने संसार की रचना की। और फिर वहीं सृजन समाप्‍त हो गया। ईसाइयों की कहानी है कि परमात्‍मा ने छ: दिन में संसार बनाया और सातवें दिन विश्राम किया। इसीलिए तो सातवां दिन, रविवार, छुट्टी का दिन है। परमात्‍मा ने उस दिन छूटी ली। छ: दिन में उसने संसार को बनाया, हमेशा-हमेशा के लिए, और तब से कोई सृजन नहीं हुआ। छठे दिन के बाद कोई सृजन ही नहीं हुआ है।
यह बड़ी मुर्दा धारणा है। तंत्र कहता है परमात्‍मा सृजनात्‍मकता ही है। सृष्‍टि कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है। जो कि अतीत में कभी घटी, यह हर क्षण घट रही है। परमात्‍मा हर क्षण सृजन कर रहा है। इससे ऐसा लगता है कि परमात्‍मा कोई व्‍यक्‍ति है जो सृजन करता रहा है। नहीं वह सृजनात्‍मकता जो हर क्षण घटती है। वह सृजनात्‍मकता ही परमात्‍मा है। तो तुम हर क्षण सृजन में हो।
यह बड़ी जीवंत धारणा है। ऐसा नही है कि परमात्‍मा न कहीं कुछ बनाया और तबसे परमात्‍मा और मनुष्‍य के बीच कोई संवाद नहीं रहा, कोई संपर्क, कोई संबंध नहीं रहा; उसने सृजन किया और बात समाप्‍त हो गई। तंत्र कहता है कि तुम हर क्षण निर्मित हो रहे हो। हर क्षण तुम दिव्‍य के साथ, सृजनात्‍मकता के स्‍त्रोत के साथ गहन संबंध में हो। यह बहुत ही जीवंत धारणा है।
इस विधि के द्वारा तुम भीतर ओर बाहर सृजनात्‍मक शक्‍ति की झलक पाओगे। एक बार तुम सृजनात्‍मक शक्‍ति और उसके स्‍पर्श, उसके प्रभाव को महसूस कर लो तो तुम बिलकुल भिन्‍न हो जाओगे। तुम फिर वही नहीं रह जाओगे। परमात्‍मा तुममें प्रवेश कर गया। तुम उसके निवास बन गए।
   
दूसरी विधि:
      अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही जानो।
इस विधि के संबंध में मूल बात है ‘संपूर्ण चेतना’। यदि तुम किसी भी चीज पर अपनी संपूर्ण चेतना लगा दो तो वह एक रूपांतरणकारी शक्‍ति बन जाएगी। जब भी तुम संपूर्ण होते हो, किसी चीज में भी, तभी रूपांतरण होता है। लेकिन यह कठिन है। क्‍योंकि हम जहां भी है, बस आंशिक ही है। समग्रता में नहीं है।
यहां तुम मुझे सुन रहे हो। यह सुनना ही रूपांतरण हो सकता है। यदि तुम समग्रता से सुनो, इस क्षण में अभी और यहीं, यदि सुनना तुम्‍हारी समग्रता हो, तो वह सुनना एक ध्‍यान बन जाएगा। तुम आनंद के अलग ही आयाम में, एक दूसरी ही वास्‍तविकता में प्रवेश कर जाओगे।
लेकिन तुम समग्र नहीं हो। मनुष्‍य के मन के साथ यही मुश्‍किल है, वह सदैव आंशिक ही होता है। एक हिस्‍सा सुन रहा है। बाकी हिस्‍से शायद कहीं और हो, या शायद सोए ही हुए हों, या सोच रहे हो कि क्‍या कहा जा रहा है। या भीतर विवाद कर रहे हो। उसमें एक विभाजन पैदा होता है और विभाजन से ऊर्जा का अपव्‍यय होता है।
तो जब भी कुछ करो, उसमे अपने पूरे प्राण डाल दो। जब तुम कुछ भी नहीं बचाते, छोटा सा हिस्‍सा भी अलग नहीं रहता, जब तुम एक समग्र, संपूर्ण छलांग ले लेते हो। तुम्‍हारे पूरे प्राण उसमें लग जाते है। तभी कोई कृत्‍य ध्‍यान पूर्ण होता है।
कहते है एक बार रिंझाई अपने बग़ीचे में काम कर रहा था—रिंझाई एक झेन गुरु था—और कोई आया। वह आदमी कुछ दार्शनिक प्रश्‍न पूछने आया था। वह एक दार्शनिक खोजी था। उसे नहीं पता था कि जो आदमी बग़ीचे में काम कर रहा है वही रिंझाई है। उसने सोचा कि यह कोई माली है। कोई नौकर होगा। तो उसने पूछा, ‘रिंझाई कहां है?’ रिंझाई ने कहां, ‘रिंझाई तो हमेशा यहीं है।’ स्‍वभावत: उस आदमी ने सोचा कि माली कुछ पागल लगता है। क्‍योंकि उसने कहा रिंझाई तो हमेशा यही है। तो उसने सोचा कि इस आदमी से और कुछ पूछना ठीक नहीं होगा। और वह किसी से पूछने के लिए जाने लगा। रिंझाई ने कहा, ‘कहीं मत जाओं क्‍योंकि तुम उसे कहीं भी नहीं पाओगे।’ लेकिन वह तो उस पागल आदमी से बच कर भाग गया।
फिर उसने औरों से पूछा तो वे बोले, ‘जिस पहले व्‍यक्‍ति से तुम मिले थे वहीं तो रिंझाई है।’ तो वह वापस आया और बोला, ‘मुझे क्षमा करे, बहुत खेद है मुझे, मैंने सोचा कि आप पागल है। मैं कुछ पूछने आया हूं। मैं जानता चाहता हूं कि सत्‍य क्‍या है। उसे जानने के लिए मैं क्‍या करूं?’ रिंझाई ने कहा, ‘तुम जो करना चाहो वहीं करो, लेकिन समग्रता में रहो1’
सवाल यही नहीं है कि तुम क्‍या करते हो। वह बात ही असंगत है। सवाल यह है कि तुम उसे समग्रता से करो।
‘उदाहरण के लिए’, रिंझाई बोला, जब मैं यह गड्ढा खोद रहा था। तो मेरी समग्रता गड्ढा खोदना हो गई थी। पीछे कोई रिंझाई नहीं था। पूरा का पूरा खोदने में लग गया है। असल में कोई खोदने वाला नहीं बचा। बस खोदने की क्रिया ही बची है। यदि खोदने वाला बचे तो तुम बंट गए।‘
तुम मुझे सून रहे हो, यदि सुनने वाला बचे तो तुम समग्र नहीं हुए। यदि केवल सुनना ही हो और पीछे कोई सुनने वाला न बचे तो तुम समग्र हो गए। अभी और यही। फिर यह क्षण ही ध्‍यान बन जाता है।
इस सूत्र में शिव कहते है, ‘अपनी संपूर्ण चेतना से कामना के, जानने के आरंभ में ही जानो।’
यदि तुम्‍हारे भीतर कोई कामना उठे तो तंत्र उससे लड़ने को नहीं कहता। वह व्‍यर्थ है। कामना से कोई भी नहीं लड़ सकता। वह मूर्खता भी है, क्‍योंकि जब भी अपने भीतर तुम किसी चीज से लड़ने लगते हो तो तुम स्‍वयं से ही लड़ रहे हो। तुम विक्षिप्‍त हो जाओगे, तुम्‍हारा व्‍यक्‍तित्‍व खंडित हो जाएगा।
और इन सारे तथाकथित धर्मों ने मनुष्‍यता को धीरे-धीरे विक्षिप्‍त होने में सहयोग दिया है। हर कोई बंटा हुआ है। हर कोई खंडित है और स्‍वयं से लड़ रहा है। क्‍योंकि तथाकथित धर्मों ने तुम्‍हें बताया है। कि यह बुरा है, यह मत करो। लेकिन यदि कामना उठती है तो तुम क्‍या कर रहे हो। तुम कामना से लड़ रहे हो। तंत्र कहता है कि कामना से मत लड़ो।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उसके शिकार हो जाओ। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम उसमें लिप्‍त हो जाओ। तंत्र तुम्‍हें बड़ी सूक्ष्‍म विधि देता है1 जब कामना उठे तो आरंभ में ही अपनी समग्रता से जागरूक हो जाओ। अपनी समग्रता से उसको देखो।  बस दृष्‍टि बन जाओ। द्रष्‍टा को पीछे मत छोड़ो। अपनी समग्रता से उसका देखो। बस दृष्‍टि बन जाओ। द्रष्‍टा को पीछे मत छोड़ो। अपनी पूरी चेतना को इस उठती हुई कामना पर लगा दो। यह बड़ा सूक्ष्‍म उपाय है। लेकिन बहुत अद्भुत है। इसके प्रभाव चमत्‍कारिक है।
तीन बातें समझने जैसी है। पहली, जब कामना उठ ही रही है तो कुछ तुम कर नहीं सकते। तब वह अपना रास्‍ता पूरा करेगी। अपना वर्तुल पूरा करेगी। और तुम कुछ भी नहीं कर सकते। आरंभ में ही कुछ किया जा सकता है। बीज को तभी और वही जला देना चाहिए। एक बार बीज अंकुरित हो जाए और वृक्ष विकसित होने लगे तो कुछ करना कठिन होगा, लगभग असंभव ही होगा। तुम जो भी करोगे उससे और संताप ही पैदा होगा। ऊर्जा ही नष्‍ट होगी। विक्षिप्‍तता, निर्बलता ही पैदा होगी। तो जब कामना उठे आरंभ ही हो। पहली झलक में ही पहले आभास में ही कि कामना उठ रही है। अपनी संपूर्ण चेतना को, अपने प्राणों की समग्रता को उसे देखने में लगा दो। कुछ भी मत करो। और कुछ करने की जरूरत भी नहीं। समग्र प्राणों से देखने पर दृष्‍टि इतनी आग्‍नेय हो जाती है कि बिना किसी संघर्ष के, बिना किसी विवाद के, बिना किसी विरोध के, बीज जल जाता है। समग्र प्राणों से गहरे देखने की बात है। और उठती हुई कामना पूरी तरह दग्‍ध हो जाती है।
और जब कामना बिना किसी संघर्ष के समाप्‍त हो जाती है तो वह तुम्‍हें इतना शक्‍ति शाली कर जाती है। इतनी उर्जा से, इतने गहन होश से भर देती है कि तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकते। यदि तुम लड़ोगे तो हारोगे। यदि तुम न भी हारों ओर कामना ही हार जाए तब भी बात वही होगी। कोई ऊर्जा नहीं बचेगी। चाहे तुम जीतों चाहे हारों। तुम थके हारे ही अनुभव करोगे। दोनों ही बातों में तुम अंत में कमजोर रहो जाओगे। क्‍योंकि कामना तुम्‍हारी उर्जा से लड़ रही थी। और तुम भी उसी ऊर्जा से लड़ रहे थे। ऊर्जा एक ही स्‍त्रोत से आ रही थी। तुम एक ही स्‍त्रोत से उलीच रहे थे। तो कुछ भी परिणाम हो, स्‍त्रोत निर्बल ही होगा।
लेकिन यदि कामना आरंभ में ही समाप्‍त हो जाए, बिना विरोध के—याद रखो,यह मूल बात है—बिना किसी संघर्ष के,बस देखने भर से विरोध भरी दृष्‍टि से नहीं,नष्‍ट करने वाले मन से नहीं। शत्रुता से नहीं। बस देखने भर से: उस समग्र दृष्‍टि की सघनता से ही बीज जल जाता है। और जब कामना उठती हुई कामना, आकाश में धुएँ की तरह विलीन हो जाती है तो तुम एक अद्भुत ऊर्जा से भर जाते हो। वह ऊर्जा ही आनंद है। वह तुम्‍हें एक सौंदर्य,एक गरिमा देगी।
तथाकथित संत जो अपनी कामनाओं से लड़ रहे है, कुरूप है। जब मैं कहता हूं कुरूप तो मेरा अर्थ है वे सदैव क्षुद्र से उलझे है, संघर्ष कर रहे है। उनका पूरा व्‍यक्‍तित्‍व गरिमाहीन हो जाता है। ओर वे हमेशा कमजोर होते है। हमेशा ऊर्जा की कमी होती है। क्‍योंकि उनकी सारी ऊर्जा अंतर्युद्ध में नष्‍ट हो जाती है।
बुद्ध पुरूष बिलकुल भिन्‍न होता है। और बुद्ध के व्‍यक्‍तित्‍व में जो गरिमा प्रकट हूं कुरूप तो मेरा अर्थ है वे सदैव क्षुद्र से उलझे है, संघर्ष या युद्ध के, बिना किसी अंतर्हिंसा के नष्‍ट हो गई कामनाओं के कारण है।
      अपनी संपूर्ण चेतना से कामना है, जानने के आरंभ में ही जानो।
उसी क्षण में बस जानो, अवलोकन करो, देखो। कुछ भी मत करो। और कुछ भी नहीं चाहिए। बस इतना ही चाहिए कि तुम्‍हारे समग्र प्राण वहां उपस्‍थित हो। तुम्‍हारी पूर्ण उपस्‍थिति चाहिए। बिना किसी हिंसा के परम बुद्धत्‍व उपलब्‍ध करने का यक एक राज है।
और याद रखो, परमात्‍मा के राज्‍य में तुम हिंसा से प्रवेश नहीं कर सकते। नहीं,वे द्वार तुम्‍हारे लिए कभी नहीं खुलेंगे, भले तुम कितनी ही दस्‍तक दो। खटखटाओं और खटखटाते ही जाओ। तुम अपना सिर फोड़ ले सकते हो लेकिन वे द्वार कभी नहीं खुलेंगे। लेकिन जो भीतर गहरे में अहिंसक है और किसी चीज से नहीं लड़ रहे। उनके लिए वे द्वार सदा खुले है, कभी बंद ही नहीं थे।
जीसस कहते है, दस्‍तक दो और तुम्‍हारे लिए द्वार खुल जाएंगे। मैं तुमसे कहता हूं कि दस्‍तक देने की भी जरूरत नहीं है। देखो द्वार खुले ही हुए है। वे सदा से ही खुले हुए है। वे कभी बंद नहीं थे। बस एक गहन समग्र संपूर्ण, अखंड दृष्‍टि से देखो।

   
तीसरी विधि:
      हे शक्‍ति, प्रत्‍येक आभास सीमित है, सर्वशक्‍तिमान में विलीन हो रहा है।
जो कुछ भी हम देखते है सीमित है, जो कुछ भी हम अनुभव करते है सीमित है। सभी आभास सीमित है। लेकिन यदि तुम जाग जाओ तो हर सीमित चीज असीम में विलीन हो रही है। आकाश की और देखो। तुम केवल उसका सीमित भाग देख पाओगे। इसलिए नहीं कि आकाश सीमित है, बल्‍कि इसलिए कि तुम्‍हारी आंखें सीमित है। तुम्‍हारा अवधान सीमित है। लेकिन यदि तुम पहचान सको कि यह सीमा अवधान के कारण है, आंखों के कारण है, आकाश के सीमित होने के कारण नहीं है तो फिर तुम देखोगें कि सीमाएं असीम में विलीन हो रही है। जो कुछ भी हम देखते है वह हमारी दृष्‍टि के कारण ही सीमित हो जाता है। वरना तो अस्‍तित्‍व असीम है। वरना तो सब चीजें एक दूसरे में विलीन हो रही है। हर चीज अपनी सीमाएं खो रही है। हर क्षण लहरें महासागर में विलीन हो रही है। और न किसी को कोई अंत है, न आदि। सभी कुछ शेष सब कुछ भी है।
सीमा हमारे द्वारा आरोपित की गई है। यह हमारे कारण है, क्‍योंकि हम अनंत को देख नहीं पाते, इसलिए उसको विभाजित कर देते है। ऐसा हमने हर चीज के साथ किया है। तुम अपने घर के आस-पास बाड़ लगा लेते हो। और कहते हो कि ‘यह जमीन मेरी है, और दूसरी और किसी और की जमीन है।’ लेकिन गहरे में तुम्‍हारी और तुम्‍हारे पड़ोसी की जमीन एक ही है। वह बाड़ केवल तुम्‍हारे ही कारण है। जमीन बंटी हुई नहीं है। पड़ोसी और तुम बंटे हुए हो अपने-अपने मन के कारण।
देश बंटे हुए है तुम्‍हारे मन के कारण। कहीं भारत समाप्‍त होता है और पाकिस्‍तान शुरू होता है। लेकिन जहां अब पाकिस्‍तान है कुछ वर्ष पहले वहां भारत था। उस समय भारत पाकिस्‍तान की आज की सीमाओं तक फैला हुआ था। लेकिन अब पाकिस्‍तान बंट गया, सीमा आ गई लेकिन जमीन वही है।
मैंने एक कहानी सुनी है जो तब घटी जब भारत और पाकिस्‍तान में बंटवारा हुआ। भारत और पाकिस्‍तान की सीमा पर ही एक पागलखाना था। राजनीतिज्ञों को कोई बहुत चिंता नहीं थी कि पागलखाना कहां जाए। भारत में कि पाकिस्‍तान में। लेकिन सुपरिनटैंडैंट को चिंता थी। तो उसने पूछा कि पागलखाना कहां रहेगा। भारत में या पाकिस्‍तान में। दिल्‍ली से किसी ने उसे सूचना भेजी कि वह वहां रहने वाले पागलों से ही पूछ ले और मतदान ले-ले कि वे कहां जाना चाहते है।
सुपरिन्‍टेंड़ेंट अकेला आदमी था जो पागल नहीं था और उसने उनको समझाने की कोशिश कि। उसने सब पागलों को इकट्ठा किया और उन्‍हें कहां, ‘अब यह तुम्‍हारे ऊपर है, यदि तुम पाकिस्‍तान में जाना चाहते हो तो पाकिस्‍तान में जा सकते हो।’
लेकिन पागलों ने कहां, ‘हम यही रहना चाहते है। हम कहीं भी नहीं जाना चाहते।’ उसने उन्‍हें समझाने की बहुत कोशिश की। उसने कहां, ‘तुम यहीं रहोगे। उसकी चिंता मत करो। तुम यहीं रहोगे लेकिन तुम जाना कहां चाहते हो।’ वे पागल बोले, ‘लोग कहते है कि हम पागल है, पर तुम तो और भी पागल लगते हो। तुम कहते हो कि तुम भी यहीं रहोगे और हम भी यहीं रहेंगे। कहीं जाने की चिता नहीं है।’
सुपरिन्‍टेंड़ेंट तो मुश्‍किल में पड़ गया कि इन्‍हें पूरी बात किस तरह समझाई जाए। एक ही उपाय था। उसने एक दीवार खड़ी कर दी और पागल खाने के दो बराबर हिस्‍सों में बांट दिया। एक हिस्‍सा पाकिस्‍तान हो गया एक हिस्‍सा भारत बन गया। और कहते है कि कई बार पाकिस्‍तान वाले पागल खाने के कुछ पागल दीवार पर चढ़ आते है। और भारत वाले पागल भी दीवार कूद जाते है और वे अभी भी हैरान है कि क्‍या हो गया है। हम है उसी जगह पर और तुम पाकिस्‍तान चले गए हो हम भारत चले गए है। और गया कोई कहीं भी नहीं।
वे पागल समझ ही नहीं सकते, वे कभी भी नहीं समझ पाएंगे, क्‍योंकि दिल्‍ली और कराची में और भी बड़े पागल है।
हम बांटते चले जाते है। जीवन अस्‍तित्‍व बंटा हुआ नहीं है। सभी सीमाएं मनुष्‍य की बनाई हुई है। वे उपयोगी है यदि तुम उसके पीछे पागल न हो जाओ और यदि तुम्‍हें पता हो कि वे बस कामचलाऊ है, मनुष्‍य की बनाई हुई है। मात्र उपयोगिता के लिए है; असली नहीं है, यथार्थ नहीं है, बस मान्‍यता मात्र है, कि वे उपयोगी तो है, लेकिन उसमें कोई सच्‍चाई नहीं है।
      हे शक्‍ति, प्रत्‍येक आभास सीमित है, सर्वशक्‍तिमान में विलीन हो रहा है।
तो तुम जब भी कुछ सीमित देखो तो हमेशा याद रखो कि सीमा के पार वह विलीन हो रहा है, सीमा तिरोहित हो रही है। हमेशा पार और पार देखो।
इसे तुम एक ध्‍यान बना सकते हो। किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ और देखो, और जो भी तुम्‍हारी दृष्‍टि में आए, उसके पार जाओ, पार जाओ, कहीं भी रूको मत। बस यह खोजों कि यह वृक्ष कहां समाप्‍त हो रहा है। यह वृक्ष तुम्‍हारे बग़ीचे में यह छोटा सा वृक्ष पूरा अस्‍तित्‍व अपने में समाहित किए हुए है। हर क्षण यह अस्‍तित्‍व में विलीन हो रहा है।
यदि कल सूर्य न निकले तो यह वृक्ष मर जाएगा। क्‍योंकि इस वृक्ष का जीवन सूर्य के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। उनके बीच दूरी बड़ी है। सूर्य की किरणें पृथ्‍वी तक पहुंचने में समय लगता है। दस मिनट लगते है। दस मिनट बहुत लंबा समय है। क्‍योंकि प्रकाश बहुत तेज गति से चलता है। प्रकाश एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलता है। और सूर्य से इस वृक्ष तक प्रकाश पहुंचने में दस मिनट लगते है। दूरी बड़ी है, विशाल है। लेकिन यदि सूर्य न रहे तो वृक्ष तत्‍क्षण मर जायेगा। वे दोनों एक साथ है। वृक्ष हर क्षण सूर्य में विलीन हो रहा है। और सूर्य हर क्षण वृक्ष में विलीन हो रहा है। हर क्षण सूर्य वृक्ष में प्रवेश कर रहा है। उसे जीवंत कर रहा है।
दूसरी बात, जो अभी विज्ञान को ज्ञान नहीं है, लेकिन धर्म कहता है कि एक और घटना घट रही है। क्‍योंकि प्रति संवेदन के बिना जीवन में कुछ भी नहीं रह सकता। जीवन में सदा एक प्रति संवेदन होता है। और ऊर्जा बराबर हो जाती है। वृक्ष भी सूर्य को जीवन दे रहा होगा। वे एक ही है। फिर वृक्ष समाप्‍त हो जाता है सीमा समाप्‍त हो जाती है।
जहां भी तुम देखो, उसके पार देखो, और कहीं भी रूको मत। देखते जाओ। देखते जाओ, जब तक कि तुम्‍हारा मन न खो जाए। जब तक तुम अपने सारे सीमित आकार न खो बैठो। अचानक तुम प्रकाशमान हो जाओगे।
पूरा अस्‍तित्‍व एक है, वह एकता ही लक्ष्‍य है। और अचानक मन आकार से सीमा से परिधि से थक जाता है। और जैसे-जैसे तुम पार जाने के प्रयत्‍न में लगे रहते हो, पार और पार जाते चले जाते हो। मन छूट जाता है। अचानक मन गिर जाता है। और तुम अस्‍तित्‍व को विराट अद्वैत की तरह देखते हो। सब कुछ एक दूसरे में समाहित हो रहा है। सब कुछ एक दूसरे में परिवर्तित हो रहा है।
      हे शक्‍ति, प्रत्‍येक आभास सीमित है, सर्वशक्‍तिमान में विलीन हो रहा है।
इसे तुम एक ध्‍यान बना ले सकते हो। एक घंटे के लिए बैठ जाओ और इसे करके देखो। कहीं कोई सीमा मत बनाओ। जो भी सीमा हो उसके पार खोजने का प्रयास करो और चले जाओ। जल्‍दी ही मन थक जाता है। क्‍योंकि मन असीम के साथ नहीं चल सकता। मन केवल सीमित से ही जुड़ सकता है। असीम के साथ मन नहीं जुड़ सकता; मन ऊब जाता है। थक जाता है। कहता है, ‘बहुत हुआ,अब बस करो।’ लेकिन रूको मत, चलते जाओ। एक क्षण आएगा जब मन पीछे छूट जाता है। और केवल चेतना ही बचती है। उस क्षण में तुम्‍हें अखंडता का अद्वैत का ज्ञान होगा। यही लक्ष्‍य है। यह चेतना का सर्वोच्‍च शिखर है। और मनुष्‍य के मन के लिए यह परम आनंद है, गहनत्‍म समाधि है।

   
चौथी विधि  
      सत्‍य में रूप अविभक्‍त है। सर्वव्‍यापी आत्‍मा तथा तुम्‍हारा अपना रूप अविभक्‍त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।
      सत्‍य में रूप अविभक्‍त है।
वे विभक्‍ति दिखाई पड़ते है, लेकिन हर रूप दूसरे रूपों के साथ संबंधित है। वह दूसरों के साथ अस्‍तित्‍व में है—बल्‍कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्‍तित्‍व में है—बल्‍कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्‍तित्‍व में है। हमारी वास्‍तविकता एक सह सही अस्‍तित्‍व है। वास्‍तव में यह एक पारस्‍परिक वास्‍तविकता है। पारस्‍परिक आत्मीय ता है। उदाहरण के लिए, जरा सोचो कि तुम इस पृथ्‍वी पर अकेले हो। तुम क्‍या होओगे? पूरी मनुष्‍यता समाप्‍त हो गई हो, तीसरे विश्‍वयुद्ध के बाद तुम्‍हीं अकेले बचे हो—संसार में अकेले, इस विशाल पृथ्‍वी पर अकेले। तुम कौन होओगे?
पहली बात तो यह है कि अपने अकेले होने की कल्‍पना करना ही असंभव है। मैं कहता हूं, अपने अकेले होने की कल्‍पना करना ही असंभव है। तुम बार-बार कोशिश करोगे और पाओगे कि कोई साथ ही खड़ा है—तुम्‍हारी पत्‍नी, तुम्‍हारे बच्‍चे, तुम्‍हारे मित्र—क्‍योंकि तुम कल्‍पना में भी अकेले नहीं रह सकते। तुम दूसरों के साथ ही हो। वे तुम्‍हें अस्‍तित्‍व देते है। वे तुम्‍हें सहयोग देते है। तुम उन्‍हें सहयोग देते हो और वे तुम्‍हें सहयोग देते है।
तुम कौन होओगे। तुम अच्‍छे आदमी होओगे या बुरे आदमी होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्‍योंकि अच्‍छाई और बुराई सापेक्ष होती है। तुम सुंदर होओगे। कि कुरूप होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तुम पुरूष होओगे या स्‍त्री होओगे? कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्‍योंकि तुम जो भी हो, दूसरे के संबंध में हो। तुम बुद्धिमान होओगे या मूढ़?
धीरे-धीरे तुम पाओगे कि सब रूप समाप्‍त हो गए। और उन रूपों के समाप्‍त होने के साथ तुम्‍हारे भीतर के भी सब रूप समाप्‍त हो गए है। न तुम मूर्ख हो न बुद्धिमान, न अच्‍छे न बुरे, न कुरूप न सुंदर, न पुरूष न स्‍त्री। फिर तुम क्‍या होओगे। यदि तुम सब रूपों को हटाते चलो तो जल्‍दी ही तुम पाओगे कि कुछ भी नहीं बचा। हम रूपों को अलग-अलग देखते है। लेकिन वे अलग है नहीं, हर रूप दूसरों के साथ जुड़ा है। रूप एक श्रंखला में होते है।
यह सूत्र कहता है: ‘सत्‍य में रूप अविभक्‍त है। सर्वव्‍यापी आत्‍मा तथा तुम्‍हारा अपना रूप अविभक्‍त है।’
तुम्‍हारा रूप और संपूर्ण अस्‍तित्‍व का रूप भी अविभक्‍त है। तुम उसके साथ एक हो। तुम उसके बिना नहीं हो सकते। और दूसरी बात भी सच है, लेकिन उसे समझना थोड़ा कठिन है: जगत भी तुम्‍हारे बिना नहीं हो सकता। जगत तुम्‍हारे बिना नहीं हो सकता। जैसे की तुम जगत के बिना नहीं हो सकते। तुम अलग-अलग रूपों में सदैव रहे हो और अलग-अलग रूपों में सदैव रहोगे। लेकिन तुम रहोगे ही। तुम इस जगत के एक अभिन्‍न अंग हो। तुम बाहरी नहीं हो, कोई अजनबी नहीं हो, कोई परदेशी नहीं हो। तुम एक अंतरंग, अभिन्‍न अंग हो। और जगत तुम्‍हें खो नहीं सकता। क्‍योंकि यदि वह तुम्‍हें खोता है तो स्‍वयं भी खो देगा। रूप विभक्‍त नहीं है। अविभक्‍त है। वे एक है। केवल आभास ही सीमाएं और परिधियां खड़ी करते है।
यदि तुम इस पर मनन करो। इसमें प्रवेश करो, तो यह एक अनुभूति बन सकती है। यह एक अनुभूति बन जाती है। कोई सिद्धांत नहीं, कोई विचार नहीं, बल्‍कि एक अनुभूति है, हां, मैं जगत के साथ एक हूं और जगत मेरे साथ एक है।
यही जीसस यहूदियों से कह रहे थे। लेकिन वह नाराज हुए,क्‍योंकि जीसस ने कहा, ‘मैं और स्‍वर्ग में मेरे पिता एक ही है।’ यहूदी नजारा हुए। जीसस क्‍या दावा कर रहे थे? क्‍या वह यह दावा कर रहे थे कि वह और परमात्‍मा एक ही है? यह तो ईश्‍वर विरोधी बात हो गई। उन्‍हें दंड मिलना चाहिए। लेकिन वह तो मात्र एक विधि दे रहे थे। और कुछ भी नहीं। वह मात्र यह विधि दे रहे थे कि यह विभक्‍त नहीं है, कि तुम और पूर्ण एक ही हो--'मैं और स्‍वर्ग में मेरे पिता एक ही है।' लेकिन यह कोई दावा नहीं था, यह मात्र एक विधि थी।
और जब जीसस ने कहा कि 'मैं और मेरे पिता एक ही है, तो उनका यह अर्थ नहीं था। कि तुम और पिता परमात्‍मा अलग-अलग हो। जब उन्‍होंने कहा, 'मैं तो उसमें हर 'मैं' आ गया। जहां भी 'मैं' है वह उस मैं और परमात्‍मा एक है। लेकिन इसे गलत समझा गया। और यहूदी तथा ईसाइयों, दोनों ने ही इसे गलत समझा। ईसाइयों ने भी गलत समझा। क्‍योंकि वे कहते है कि जीसस परमात्‍मा के इकलौते बेटे है। परमात्‍मा के इकलौते बेटे ताकि कोई और यह दावा न कर सके कि वह भी परमात्‍मा का बेटा है।'
मैं एक बड़ी मजेदार पुस्‍तक पढ़ रहा था। उसका शीर्षक है, ''तीन क्राइस्‍ट।'' एक पागलख़ाने में तीन आदमी थे और तीनों ही यह दावा करते थे कि वे क्राइस्‍ट है। यह एक सच्‍ची घटना है। कोई कहानी नहीं है। तो एक मनोविश्‍लेषक ने तीनों को अध्‍ययन किया। फिर उसके मन में एक विचार आया कि यह उन तीनों को आपस में मिलवाया जाए तो देखें क्‍या होता है। बड़ी दिल्‍लगी रहेगी। वे एक दूसरे को कैसे परिचय देंगे और क्‍या उनकी प्रतिक्रिया होगी। तो उसने उन तीनों को इकट्ठा किया और आपस में परिचय करने के लिए एक कमरे में छोड़ दिया।
पहला बोला, ''मैं इकलौता बेटा हूं, जीसस क्राइस्‍ट।''
दूसरा हंसा और उसने अपने मन में सोचा कि यह जरूर कोई पागल होगा। वह बोला: ''तुम कैसे हो सकते हो। मेरी और देखो। परमात्‍मा का बेटा यहां है।''
तीसरे ने सोचा कि दोनों मूर्ख है। कि दोनों पागल हो गए है। उसने कहा, ''तुम क्‍या बात करते हो। मेरी और देखो। परमात्‍मा का बेटा यहां है।''
फिर उस मनोविश्‍लेषक ने उनसे अलग-अलग पूछा। ''तुम्‍हारी प्रतिक्रिया क्‍या है।''
उन तीनों ने कहा, ''बाकी दोनों पागल हो गये है।''
और ऐसा केवल पागलों के साथ ही नहीं है। यदि तुम ईसाइयों से पूछो कि वे कृष्‍ण के विषय में क्‍या सोचते है तो वे उसे परमात्‍मा समझते है। तो वे कहेंगे कि उस पार से केवल एक ही आगमन हुआ है। वे है जीसस क्राइस्‍ट। इतिहास में केवल एक ही बार परमात्‍मा संसार में उतरा है। और जीसस क्राइस्ट के रूप में। कृष्‍ण भले है, महान है, लेकिन परमात्‍मा नहीं है।
यदि तुम हिंदुओं से पूछो, वे जीसस पर हंसेंगे। वही पागलपन चलता है। और वास्‍तविकता यह है कि सब परमात्‍मा के बेटे है--सब। इससे अन्‍यथा संभव ही नहीं है। तुम एक ही स्‍त्रोत से आते हो। चाहे तुम जीसस हो, कि कृष्‍ण हो, कि अ, ब, स कुछ भी हो, या कुछ भी नहीं हो, तुम एक ही स्त्रोत से आते हो। और हर ''मैं'' हर चेतना, हर क्षण दिव्‍य से संबंधित है। जीसस केवल एक विधि दे रहे थे। वह गलत समझे गए।
यह विधि वही है: ''सत्‍य में रूप अविभक्‍त है। सर्वव्‍यापी आत्‍मा तथा तुम्‍हारा अपना रूप अविभक्‍त है। दोनों  को इसी चेतना से निर्मित जानो।''
न केवल यह अनुभव करो कि तुम इस चेतना से बने हो। बल्‍कि अपने आस-पास की हर चीज को इसी चेतना से निर्मित जानो। क्‍योंकि यह अनुभव करना तो बड़ा सरल है कि तुम इस चेतना से बने हो। इससे तुम्‍हें बड़े अंहकार का भाव हो सकता है। अहंकार को इससे बड़ी तृप्‍ति मिल सकती है। लेकिन अनुभव करो कि दूसरा भी इसी चेतना से बना है। फिर यह एक विनम्रता बन जाती है।
जब सब कुछ दिव्‍य है तो तुम्‍हारा मन अहंकारी नहीं हो सकता। जब सब कुछ दिव्‍य है तो तुम विनम्र हो जाते हो। फिर तुम्‍हारे कुछ होने का कुछ श्रेष्‍ठ होने का प्रश्‍न नहीं रह जाता, फिर पूरा अस्‍तित्‍व दिव्‍य हो जाता है। और जहां भी तुम देखते हो, दिव्‍य को ही देखते हो। देखने वाला दृष्‍टा और देखा गया दृश्‍य दोनों दिव्‍य है। क्‍योंकि रूप विभक्‍त नहीं है। सब रूपों के पीछे अरूप छिपा हुआ है।
आज इतना ही। 

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