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मंगलवार, 4 सितंबर 2018

प्रेम नदी के तीरा-(प्रवचन-01)

प्रेम नदी के तीरा-(अंतरग वार्ताएं)-ओशो
 

पहला-प्रवचन

सामूहिक रेचन का महत्व


प्रश्नः कई लोगों के मन में ऐसे कोई खयाल रहते हैं कि तीन दिन के शिविर से क्या हो सकता है? इनसान के जीवन में इतनी आसानी से कैथार्सिस वगैरह हो जाती है क्या? और इसकी कोई आवश्यकता वगैरह है कि ध्यान खुद ही अपने आप ही अपना रियलाइजेशन करने से, पृथक्करण करने से ही आता है। इसके बारे में जरा कुछ...। मैंने अपने ढंग से कुछ न कुछ तो बताया लेकिन आप जरा साफ...?

तो, ध्यान आ सकता है, स्वयं से भी आ सकता है। लेकिन पृथक्करण से नहीं आएगा। बड़ा सवाल यह नहीं है कि हम अपने मन को एनालाइज करते हों। क्योंकि वह पृथक्करण, विश्लेषण करते वक्त में हमारा मन भी काम करता है। और यह सारा पृथक्करण हमारे ही मन को दो खंडों में तोड़ कर चला जाता है। तो न तो पृथक्करण से संभव है कि मन एक हो जाए, न ही चिंतन-मनन--उससे संभव है कि एक हो जाए। क्योंकि ये सारी क्रियाएं जिस मन से चलने वाली हैं, उसी मन को बदलना है।

एक ही व्यवस्था से हो सकता है कि न तो हम पृथक्करण करें, न हम चिंतन-मनन करें; वरन मन के प्रति हम धीरे-धीरे जागरूक होते चले जाएं। जागरूक होने का अर्थ यह नहीं है कि हम कोई निर्णय नहीं लेते कि क्या बुरा है, क्या भला है। हम कोई पक्ष-विपक्ष नहीं लेते। मन का यह हिस्सा बचाना है, यह अलग करना है। ऐसी भी कोई धारणा नहीं, जैसा भी मन है। बिना किसी भाव के, बिना किसी पूर्व धारणा के हम इस मन के प्रति जागते चले जाएं। अगर जागरण में थोड़ा सा भी पक्षपात हुआ मन में, तो मन खंड-खंड हो जाएगा।
तब दो हिस्से हम तोड़ लेंगे, अच्छे और बुरे का हिस्सा हम अलग कर लेंगे। और जैसे ही मन टूटा कि ध्यान असंभव है। ध्यान का अर्थ ही है कि मन की समग्र अवस्था मिल जाए, अटूट अवस्था। टोटल अवस्था मिल जाए। तो अगर मैं बिना किसी पूर्व-धारणा के, निर्णय के, अच्छे-बुरे के खयाल के, शुभ-अशुभ के, जैसा भी हूं; इसके प्रति मेरे होने के दो ढंग हो सकते हैं। जैसा भी मैं हंू--इसके प्रति मैं सोया हुआ हो सकता हूं। और जैसा भी मैं हूं--इसके प्रति मैं जागा हुआ हो सकता हंू। निर्णायक नहीं, कोई जजमेंट नहीं। जो भी मैं कल तक करता रहा हूं, वह मैं सोते-सोते करता रहा हूं। आप पर क्रोध किया है तो बेहोशी में किया है। ऐसे ही हुआ है कि जब हो चुका है, जब मुझे पता चला कि यह क्रोध हो रहा है। और जब हो रहा था तो मुझे पता ही नहीं चला कि हो रहा है।
पृथक्करण वाला आदमी कहेगा क्रोध बुरा है, इसे मन से अलग करो। चिंतन-मनन वाला आदमी कहेगा कि क्रोध बुरा है, उसका कोई पक्ष होगा। जागरण, अप्रमाद की जो व्यवस्था है, अवेयरनेस की जो व्यवस्था है, वह इतना ही कहेगी कि क्रोध हुआ है। और मैं दुखी क्रोध की वजह से नहीं हूं, दुखी हूं इस वजह से कि मेरे सोते-सोते हुआ है।
तो मेरी लड़ाई क्रोध से नहीं है, मेरी लड़ाई इस सोएपन से है। तो अगर हम अपने सोएपन से लड़ते चले जाएं और धीरे-धीरे हमारी प्रत्येक क्रिया हमारे होश में होने लगे, तो बड़े मजे की बात है कि कुछ क्रियाएं होश में हो ही नहीं सकतीं। इससे क्रोध नहीं हो सकता। इससे घृणा नहीं हो सकती, ईष्र्या नहीं हो सकती।
तो मैं तो कहता ही रहता हूं कि जो जागरूक अवस्था में हो सके वही पुण्य है, वही शुभ है। और जिसके होने के लिए निद्रा अनिवार्य हो--वही पाप है, वही अशुद्ध है। यानी सोया हुआ होना जिसके लिए अनिवार्य भूमिका बने, जिसके बिना हो ही न सके; वही पाप है। तो स्वयं ध्यान फलित हो सकता है। व्यवस्था जागने की करनी पड़ेगी।
साधारणतः यह संभव नहीं हो पाता। क्योंकि हमारा वह जो सोया हुआ चित्त है, वह इसका भी स्मरण नहीं रख पाता कि हम जागे रहें। वह इस बात के प्रति भी सो जाता है। कभी-कभी खयाल आता है कि निर्णय किया था कि हम जागते रहेंगे। लेकिन यह निर्णय भी तो हमने जागा हुआ नहीं किया है। यह निर्णय भी तो हमारी नींद का ही निर्णय है। इसलिए यह बात तो बिलकुल ठीक लगती है लेकिन हो नहीं पाती।
हो सकती है, वह सिर्फ संभावना है। और कभी लाख-दो लाख आदमी में एक आदमी को हो भी जाता है। साधारणतः यह बात लगेगी बिलकुल उचित लेकिन हो नहीं पाएगी। न होने में दो-तीन कारण होंगे। एक कारण तो यह होगा कि हमारा जो निर्णय है जागे होने का, वह भी सोए हुए आदमी का निर्णय है। हम इसे भी तो चैबीस घंटे याद नहीं रखने वाले, यह भी तो हमें भूल जाएगी पांच क्षणों के बाद। अब यह हमने निर्णय लिया है, निर्णय लेकर हम झुके भी नहीं हैं और घटना आ जाएगी और हम भूल जाएंगे कि हमने निर्णय लिया है।
यह जो, एक तो कठिनाई यह है कि सोए हुए मन से लड़ना है, लेकिन सोया हुआ मन ही तो निर्णय लेगा। दूसरी कठिनाई यह है कि हमारे मन का जो अर्जित संस्कार है, वह जो कंडिशनिंग है, वह बाधा डालेगा। यानी वह ऐसे ही है जैसे हम बीमार आदमी से कहें कि तुम स्वस्थ हो जाओ। राजी वह भी होगा। सब बीमार भी स्वस्थ होना ही चाहता है। वह भी कहेगा कि बिलकुल सहमत हैं आपसे, बात बिलकुल ठीक कहे। लेकिन ये जो बीमारी के कीटाणु भरे पड़े हैं, यह जो बुखार चढ़ा हुआ है, इसका क्या करूं, स्वस्थ तो मुझे भी होना है।
जब भी हम किसी आदमी से बात कर रहे हैं तो वह आदमी खाली नहीं है, वह आदमी भरा हुआ है। इस जन्म के संस्कार हैं और अगर हम और गहरे देखें तोे और जन्मों के संस्कार हैं। वे सब भरे हुए हैं। वह बोझ उसके सर पर है। तो यह जो बोझ है, यह बाधा डालेगा। क्योंकि कल तक जो मैंने किया है, अनंत बार जिसेे किया है, उसकी गहरी पकड़ और उसके सांचे बन गए हैं, उसके ग्रूव्ज हैं। मुझे पता ही नहीं चलता और वही हो जाता है।
क्योंकि स्वभाव का, मन का नियम है कि जहां लीस्ट रेसिस्टेंस है, मन वही करेगा। जीवन का ही नियम है। अगर मुझे यहां से उस दरवाजे तक पहुंचना है, तो मैं सबसे कम दूरी चुनूंगा। यह स्वभावतः। सीधी से सीधी रेखा चुनूंगा। सीधी रेखा का मतलब ही यह है कि दो बिंदुओं के बीच में निकटतम जो दूरी है, कम से कम जो दूरी है।
उसको हम पागल कहेंगे, जो पच्चीस चक्कर लगा कर उस जगह पहुंचेगा। और निकटतम और सरलतम वही है, जो मैंने किया है। क्रोध मैंने किया है करोड़ों बार। अब क्रोध मैंने कभी किया ही नहीं। तो करोड़ों बार किए गए क्रोध की अपनी नहर बनी हुई है, इधर उठ ही नहीं सकती कि उधर बही नहीं। वह नहर बिलकुल तैयार है, वह प्रतीक्षा कर रही है। दूसरी कोई नहर नहीं है, तो आॅल्टरनेटिव बहुत कम है। संभावना यही है कि जब क्रोध की स्थिति उत्पन्न हो तब आप फिर क्रोध कर जाएं। हालांकि फिर पछताएंगे, यह पछताने का भी ग्रूव है। यह हर बार क्रोध के पास का बगल का चैनल है, जो कि हर बार आपने क्रोध किया है और हर बार आप पछताए भी हैं।
तो क्रोध का भी एक रास्ता बना हुआ है। फिर क्रोध के बाद पछताने का रास्ता भी बना हुआ है, वह उसी की छाया है। इसमें भी आप कोई नया काम नहीं कर रहे हैं। पहले भी क्रोध किया था, पहले भी पछताए थे; अब फिर क्रोध किया, अब फिर पछता लिए। उसी के पास में कसम खाने का रास्ता भी बना हुआ है, वह सब बने हुए रास्ते हैं। पहले भी कसम खाई थी कि अब क्रोध न करूंगा, अब फिर कसम खा लेंगे कि अब क्रोध न करूंगा। लेकिन एक बात बिलकुल खयाल में न आएगी कि यह सब वही हो रहा है जो हो चुका है बहुत बार। और जितनी बार दोहरता जाएगा, उतना मजबूत होता चला जा रहा है, एक।
तीसरी बात, जो कुछ भी हमने किया है उसे भी हमने कभी पूरा नहीं किया है। क्रोध भी हमने कभी पूरा नहीं किया है। घृणा भी हमने कभी पूरी नहीं की। दुश्मन भी हम कभी पूरे नहीं हुए। किसी को मार डालना जरूर चाहा, मार ही नहीं डाला। खुद भी आत्महत्या करनी चाही, लेकिन की नहीं। तो जो भी हमने करना चाहा है उसका एक हिस्सा हमने दबाया भी है। वह हमारा सप्रेशन का बोझ है। वह प्रतीक्षा कर रहा है हर वक्त, वह हमेशा बल देता है उसी को करने को जो आपने रोक लिया है। तो इधर नहर खुदी हुई है, इधर पीछे से फोर्सेज इकट्ठी हैं, बड़ी शक्तियां इकट्ठी हैं, जो कहती हैं कि बस करो क्रोध। क्योंकि वहां भरा हुआ है बोझ, जो निकलना चाहता है।
यह तीन चीजें आपको, सब निर्णय आपके तोड़ देंगी। ध्यान आपसे हो नहीं पाएगा। इन तीनों से निपटने के लिए जो मैं ध्यान कह रहा हूं, वह व्यवस्था है। इसलिए कैथार्सिस उसमें मेरा पहला हिस्सा है। कैथार्सिस में दो बातें हैं। एक तो जो मुझमें भरा है, पुराना दबाया हुआ उसको मुक्त करना है, उसको रेचन करना है। अब यह जो पुराना दबाया हुआ है, अगर किसी के ऊपर इसका रेचन किया जाए तो फिर उपद्रव शुरू हो जाएंगे।
अगर मेरे भीतर दबाए हुए क्रोध की एक मात्रा है, वह मैं अगर आप पर निकालूं तो आप बैठे तो नहीं रहेंगे। आप भी जवाब देंगे, आप भी मेरे जैसे आदमी हैं। आप भी लकड़ी लेकर खड़े हो जाएंगे। तो मैं जितना निकालूंगा उतना, फिर उससे दुगुना आप पैदा करवा देंगे। फिर उसे दबाना पड़ेगा, क्योंकि यह सिलसिला कहीं तो तोड़ना पड़ेगा। तो फिर दबा लूंगा। तो किसी पर निकालने से तो रेचन कभी नहीं हो सकता। किसी पर तो हम निकालते ही रहे हैं और रेचन नहीं हुआ है।
इसलिए कैथार्सिस इन वैक्यूम, कैथार्सिस अनडायरेक्टिड। इसकी जरूरत है कि मैं निकालूं तो क्रोध, लेकिन किसी पर नहीं--हवा में निकालूं, खालीपन में निकालूं। जिसमें कि लौटती प्रतिक्रिया न हो उसकी। वह जो लौटती प्रतिक्रिया है। प्रतिक्रिया है। अगर न हो, तो मैं नया अर्जन न करूंगा। और एक दूसरी मजे की घटना घटेगी कि अगर हवा में मेरा क्रोध निकल जाए जो कि साधारणतः आपको पागलपन मालूम पड़ेगा। इसलिए माॅस-मेडिटेशन पर मेरा जोर है शुरू में। अकेले में आप बिलकुल पागल मालूम पड़ेंगे। अकेले में आपको लगेगा मैं यह क्या कर रहा हूं। और बड़े मजे की बात है अगर दो सौ लोग वही कर रहे हैं तो फिर आप पागल नहीं मालूम पड़ेंगे। फिर आपको लग रहा है कि मैं नहीं कर रहा हूं, एक सौ निन्यानबे लोग और कर रहे हैं।
असल में हमारे पागल और न पागल होने का जो निर्णय है वह भी समूह से दिया हुआ निर्णय है। किसी मुल्क में अगर मिलकर दो आदमी नाक रगड़ कर नमस्कार करते हैं तो वह पागलपन नहीं है, क्योंकि पूरा मुल्क करता है। आज मुंबई में जाकर किसी को नमस्कार नाक रगड़ कर करें, तो हम पागल हैं, वह भी आदमी चैंकेगा और आस-पास के लोग भी चैंक जाएंगे। लेकिन फर्क क्या है?
फर्क सिर्फ इतना है कि हम यहां अकेले पड़ गए हैं और वहां पूरी भीड़ वही कर रही है। अफ्रीकन औरत है, वह सिर घुटा कर सुंदर हो जाती है क्योंकि बाकी सारी औरतें भी सिर घुटा कर सुंदर होती हैं। हिंदुस्तान में कोई स्त्री सिर घुटाने को राजी नहीं होगी। वह कहेगी मुझे कुरूप बनाना है? मुझे कोई भूत-प्रेत बनाना है? अफ्रीकन औरतें क्यों कर पा रही हैं? बाकी सारी भीड़ वही कर रही है।
असल में हमारे पागल और गैर-पागल होने का हमको पता ही सिर्फ इतना ही से चलता है कि हम अकेले तो नहीं पड़ गए हैं? तो इसलिए मेरा जोर है कि यह जो कैथार्सिस है, आप अकेले में शुरू नहीं कर पाएंगे। कर सकें तो अच्छा है। मुझे कोई एतराज नहीं कि अकेले में कोई कर सके, लेकिन कर नहीं पाएगा। अकेले में उसे खुद ही लगेगा कि मैं घूंसा किसको मार रहा हूं? क्योंकि हमारी सदा की आदत जो है वह किसी को घूंसा मारने की है। हवा में घूंसा मारने में हम पागल मालूम पड़ेंगे कि मैं यह क्या पागलपन कर रहा हूं।
हवा में घूंसे हमने सिर्फ पागलों को मारते देखा है; हवा में चिल्लाते सिर्फ पागलों को देखा है; नहीं कोई मौजूद हो और बोलते सिर्फ पागलों को देखा है। हम तो सब समझदार हैं। कोई हो तो बोलते हैं; कोई हो तो घूंसा मारते हैं; कोई हो तो क्षमा मांगते हैं; कोई हो तो चिल्लाते हैं। कोई कारण हो तो हम रोते हैं, कोई कारण हो तो हम हंसते हैं। अकारण तो हम कुछ भी नहीं करते। अगर ठीक से समझेें तो अकारण करने वाले आदमी को ही हम पागल कहते हैं। अभी एक आदमी बैठा अचानक यहां हंसने लगे खिलखिला कर, तो हम कहेंगे कि यह पागल है। क्योंकि अभी तो कोई बात भी न हुई थी, अभी तो कोई चर्चा न हुई थी। चर्चा हो, खूंटी हो टांगने को, फिर हंसे, तो हम कहेंगे, चलेगा।
तो इसलिए कैथार्सिस जो है, वह मेरी दृष्टि में मास ही शुरू की जा सकती है। इतने हिम्मत के बहुत कम लोग हैं जो अकेले में कैथार्सिस कर सकें। और अकेले में किसी न किसी तरह का रेसिस्टेंस बना ही रहेगा। अकेले में, क्योंकि अकेले ही हैं आप। और आपको पूरे वक्त यह खयाल बना रहेगा कि जो मैं कर रहा हूं, यह क्या कर रहा हूं? कहीं पागलपन तो नहीं कर रहा? लेकिन दो हजार आदमी कर रहे हैं, दस हजार आदमी कर रहे हैं। इसलिए मेरा इरादा यह है कि इसको जितने बड़े व्यापक पैमाने पर किया जाए, दस हजार आदमी करेंगे, आप और भी ज्यादा आसान अनुभव करेंगे। तब आपको पागल होने का डर न रहा। दस हजार आदमी पागल नहीं हैं। और आप वे सब चेहरे देख रहे हैं, जो पागल नहीं हैं। आपको अपने चेहरे पर शक हो सकता है। सब आदमियों को शक होता है अपने पर कि वे कभी भी पागल हो सकते हैं।
क्योंकि भीतर जो वे चलते देखते हैं, वह है भी पागल होने के निकट। वहां सदा ही कहना चाहिए, वाॅलकेनो पर ही हम बैठे हुए हैं। लेकिन जब आप देखते हैं कि मजिस्ट्रेट गांव का भी कर रहा है और वकील भी कर रहा है; और डाक्टर भी कर रहा है और प्रोफेसर भी कर रहा है; और वृद्ध भी कर रहा है और जवान भी कर रहा है, तब आप एकदम...यह आपके खयाल से तत्काल बात उतर जाती है कि यह कोई पागलपन हो रहा है। यह उतर जाना बहुत जरूरी है, नहीं तो कैथार्सिस न हो पाएगा। इसलिए कैथार्सिस मास ही हो सकती है।
अभी पश्चिम में गु्रप-थैरेपी पर बहुत जोर बढ़ा। मैं मानता हूं कि वह जोर उचित है। एक आदमी को अकेले में उसके मस्तिष्क को ठीक करना कठिन पाने लगे हैं वे भी। लेकिन एक ग्रुप में उसे ठीक करना ज्यादा आसान हो जाता है। क्योंकि ग्रुप में वह एक्टिविज हो जाता है। यह थोड़ा खयाल में लेने जैसा है कि एक आदमी अकेले में स्वस्थ से साधारणतः जिसकोे हम नार्मल आदमी कहते हैं, उसे भी हम एक अकेले में दो-चार साल एक कमरे में डाल दें, तो वह पागल हो जाएगा। यह वही आदमी है। अकेला क्या करेगा इसको? अकेला इसको पागल नहीं बना सकता अकेलापन। लेकिन यह पागल क्यों हो जा रहा है?
असल में यह वे ही काम इस अकेलेपन में करना शुरू करेगा, जो इसने किसी के साथ किए थे। लेकिन तब वजह थी इसके पास। अब बेवजह हो जाएगा मामला। तब यह क्रोधित हुआ था। उसने कहा था कि क्रोध का कारण है, क्योंकि लड़के ने गलती की है। अब भी क्रोध आएगा। क्योंकि क्रोध बाहर से बनी हुई चीज नहीं, वह हमारी भीतरी अवस्थाओं से बनी है। अब भी क्रोध आएगा, अब कोई लड़का नहीं है, कोई पत्नी नहीं है, कोई नहीं है, दीवालें हैं। अब किस पर क्रोध करेगा? कुछ दिन रोकेगा, दबाएगा, फिर बस के बाहर हो जाएंगी चीजें। फिर यह दीवालों को गालियां देने लगेगा।
दीवालों को जिस दिन इसने गाली दी, यह भी जानेगा कि मैं पागल हो गया और बाहर के लोग भी जान जाएंगे कि यह आदमी पागल हो गया। क्योंकि अब यह अकारण काम कर रहा है। कैथार्सिस का मतलब है कि जो हमने सदा आॅब्जेक्टिव के साथ किया है, काॅ.जल था। अब हम उसे अनकाॅ.जल कर रहे हैं, अनडायरेक्टिड। तो इसके लिए बड़ा ग्रुप हो तो आसान हो जाएगा, एक।
दूसरी बात कि अगर यह हमने अकारण किया तो जो क्रोध सदा कारण से चलता था, वह बंधी हुई नहर से बहता था। बंधी हुई नहर सदा डायरेक्शन में होती है। अब यह अकारण है। यह ओवरफ्लो है। अनडायरेक्टिड होने की वजह से इसका कोई चैनेलाइजेशन नहीं होगा। क्योंकि अगर आप पर मुझे क्रोध करना था तो आपके मेरे बीच एक रास्ता बनता क्रोध का। लेकिन अब मैं किसी पर क्रोध नहीं कर रहा हूं तो यह डाइमेन्शनलेस होगा।
और कैथार्सिस जो है, वह डाइमेन्शनलेस ही हो सकता है। अगर उसमें डाइमेन्शन है तो फिर कैथार्सिस नहीं होगा। यह ओवरफ्लो होगा। यह पुल की तरह होगा, बाढ़ की तरह होगा, जो किनारे तोड़ देगा। किनारे टूट जाने जरूरी हैं, तभी आप पूरे खाली हो सकते हैं--एक। क्योंकि इतना क्रोध है जन्मों-जन्मों का, इतनी वासना है, इतना काम है। वह सब है इकट्ठा, वह पूरा बहना चाहिए। दूसरा, जब यह बांध तोड़ कर बहता है तो फिर इसके कोई रास्ते नहीं बनते हैं। जब यह बह जाता है तो जगह खाली छूट जाती है। इसके पीछे जगह खाली हो जाती है और बंधे रास्ते नहीं रह जाते।
और एक दफा आपने क्रोध को अगर अकारण बहते देखा, एक बार भी अनुभव कर लिया अकारण तो अब आप कारण न खोजेंगे कभी क्रोध के लिए। और एक बार आपने उसको सारे रास्ते तोड़ कर बहते देख लिया तो वे जो पुराने बंधे हुए रास्ते थे, वे नष्ट हो गए। वे टूट गए। पुरानी गांठ टूट गई, पुराना पश्चात्ताप टूट गया, प्रायश्चित्त टूट गया, वह गया सब।
यह मन खाली हो जाए आदत से और दमन से, दोनों से खाली हो जाए तो फिर जिसको मैं जागरूकता कह रहा हूं, वह सरल घटना हो जाएगी। अब लोगों को लगता है सदा ऐसा कि तीन दिन में कैसे हो जाएगा? समय के बाबत भी हमारी बड़ी अजीब धारणा है।
असल में हमें यह खयाल नहीं है कि कोई भी टेक्नीक कम विकसित हो तो ज्यादा समय लेती है। ज्यादा विकसित हो तो कम समय लेती है। बैलगाड़ी में चलता था जो आदमी, उसकी कल्पना में नहीं हो सकता था कि घंटे भर में दिल्ली पहुंच जाए। उसका घंटे भर में दिल्ली पहुंचने की कोई आंतरिक कठिनाई नहीं है, बैलगाड़ी की टेक्नीक की तकलीफ है उसके दिमाग में। उसका जो टाइम-स्केल है वह बैलगाड़ी का है। वह अनुभव से कह रहा है। वह अनुभव से कह रहा है कि यह हो ही नहीं सकता कि घंटे भर में दिल्ली आप पहुंच जाएंगे। और यह तो हो ही नहीं सकता कि चांद पर आप पहुंच जाएंगे। क्योंकि बैलगाड़ी को चांद पर ले कैसे जाइएगा?
आज से दो सौ साल पहले सिर्फ बच्चों की कहानी में हम, कहानी लिख सकते थे चांद पर पहुंचने की, सिर्फ बच्चे ही यह बकवास कर सकते थे, चांद पर पहुंचने की। कोई बुद्धिमान आदमी, कोई प्रौढ़ आदमी यह बात नहीं करता था कि ये क्या बचकानी बातें करते हो। क्योंकि हमारे पास जो साधन थे यात्रा के, वह उनसे कोई संबंध ही नहीं जोड़ पाता। ठीक वैसे ही ध्यान की जो स्थिति है वह करीब-करीब वहीं ठहर गई है, जहां बैलगाड़ी ठहरी थी। जिस वक्त बैलगाड़ी हमारा आम वाहन थी और घोड़ा हमारा तेज से तेज वाहन था, उस जमाने में ध्यान ने जो टेक्नीक विकसित की थी, वह वहीं ठहर गई है। उसमें कोई विकास नहीं हुआ। बैलगाड़ी तो हवाई जहाज बन गई, लेकिन ध्यान वहीं ठहरा हुआ है।
अब भी हम जब ध्यान को खोजने जाते हैं तो स्वाभावतःमहावीर में खोजेंगे, पतंजलि में खोजेंगे, लेकिन हमको पता नहीं कि पतंजलि बैलगाड़ी में चलता था। और पतंजलि का जो टाइम-स्केल है, वह बैलगाड़ी का टाइम-स्केल है। और अगर बैलगाड़ी की दुनिया में विकसित की गई ध्यान की पद्धतियों की चर्चा आप जेट की दुनिया में करेंगे तो आप अपने हाथ से ध्यान को हरवाने जा रहे हैं।
तो उस जमाने में बिलकुल सहज थी यह बात कि ध्यान एक जन्म में उपलब्ध नहीं होता है। तीन दिन तो बहुत थोड़े हैं, एक जन्म भी छोटा है। ध्यान एक जन्म में उपलब्ध होता ही नहीं है। यह जन्मों-जन्मों की बात है। जिस समय की गति पर हम जी रहे थे, वहां यह बात मौजूद थी। लगती थी कि ठीक है, ऐसा ही होगा। और कोई उपाय भी नहीं था इसको समझने का। जिन्होंने पाया था वे भी कहते थे कि जन्मों-जन्मों की यात्रा है।
वे भी गलत न कहते थे, अनुभव से ही कहते थे। लेकिन इसमें कारण कोई ध्यान की, कोई इंटिं्रजिक समय से कोई लेना-देना नहीं है ध्यान को। न गति को समय से कुछ लेना-देना है। समय और गति के बीच में टेक्नीक निर्धारक होता है कि क्या होगा? अब अगर हम आयुर्वेद की दवा आपको देते हैं तो उसका समय होगा। वह असल में बैलगाड़ी के वक्त में विकसित हुई थी। एलोपैथी का इंजेक्शन उतना समय नहीं लेगा। वह बैलगाड़ी के जमाने का विकास नहीं है। मेरी अपनी समझ यह है कि जगत में जब भी एक स्तर पर गति बढ़ती है तो सारे स्तरों पर गतियों को बढ़नी चाहिए। अन्यथा वह असंगत हो जाती हैं व्यवस्थाएं।
अब जैसे कि पश्चिम में फ्रायड ने जो मनोविश्लेषण विकसित किया था, आज से पचास-साठ साल पहले, वह हारने लगा है। क्योंकि उसका टाइम-स्केल बहुत लंबा है। अगर फ्रायडियन एनालेसिस करवानी है तो तीन साल भी लग सकते हैं, दस साल भी लग सकते हैं। दो-तीन साल तो लगने ही वाले हैं। तो गरीब आदमी तो करवा ही नहीं सकता। और दो-तीन साल जो अफोर्ड कर सके निरंतर, हर सप्ताह कम से कम तीन सिटिंग ले सके, और खर्चीला है।
तो फ्रायड अब चल नहीं सकता आगे। क्योंकि उसका जो ढंग है, वह बिलकुल बैलगाड़ी वाला है। तीन साल में...अगर एक मानसिक आदमी को थोड़ी सी तकलीफ है। उसको तीन साल लगे इलाज में, तो बीमारी तो एक तरफ रही, इलाज बड़ी बीमारी हो गई। यह, यह इलाज नहीं लागू किया जा सकता। कितने लोगों के पास इतना समय है? कितने लोगों के पास इतना पैसा है? जो तीन साल एक छोटी-मोटी मानसिक बीमारी के लिए व्यवस्था दें। यह नहीं चल सकता।
तो निरंतर इधर पिछले पंद्रह वर्षों में मनस-शास्त्रियों को तीव्र गतियां खोजनी पड़ी हैं कि कैसे जल्दी हो सके। जो आदमी एक-एक मिनट बचा रहा है, जो एक-एक मिनट बचाने के लिए जीवन दांव पर लगाए हुए है, उस आदमी से आप कह रहे हैं कि तीन साल तुम्हारा मानसिक विश्लेषण करने में लगाएंगे। तो वह कहेगा कि भई, अगले जन्म में देखा जाएगा। लेकिन तीन साल फिर भी समझ में आते हैं, हम इस मुल्क में ध्यान के लिए जो भाषा बोलते हैं, वह जन्मों की बोलते हैं। मेरा अपना मानना है कि यह कोई सवाल नहीं है। यह सिर्फ टेक्नीक अविकसित है।
जिस टेक्नीक की मैं बात कर रहा हंू, इसको अगर चैबीस घंटे किया जाए तीन दिन। तो तीन दिन बहुत हैं। चैबीस घंटे अगर इसको तीन दिन किया जाए, तो तीन दिन थोड़े नहीं हैं। थोड़े जरूरत से ज्यादा हैं, और आप पर भारी पड़ सकते हैं। क्योेंकि कैथार्सिस है, एक तो यही है।
यह कैथार्सिस साधारण घटना नहीं है। अगर इसे बहुत लंबे अर्से पर निकाला जाए। अगर इसमें हम तीन दिन की जगह तीन साल लगाएं तो इतनी थोड़ी-थोड़ी मात्रा आपसे निकलेगी कि उतनी मात्रा आप रोज पैदा कर लेंगे। इसको लंबाया नहीं जा सकता। समझ लें कि इस घर को हम इस तरह झाड़ें, इतना आहिस्ता झाड़ें कि इसे झाड़ने में चैबीस घंटे लग जाएं। तो जब दूसरे दिन तक हम झाड़ कर चुकें, तब तक हम पाएं कि कचरा घर में आ गया। तो चैबीस घंटे में कचरा ही तो आने वाला है। तो इस, इस घर को अगर झाड़ने में चैबीस घंटे लगें तो झाड़ना बिलकुल बेकार है। झाड़ना ही नहीं चाहिए। इसका कोई अर्थ ही नहीं। क्योंकि जब तक आप झाड़ पाएंगे, तब तक कचरा वापस जगह आ जाएगा। और यह घर कभी भी स्वच्छ हालत में दिखाई नहीं पड़ सकता।
तो कैथार्सिस का तो कोई भी प्रयोग इंटेंस होना चाहिए, पहली बात। यानी इसके पहले कि नया कचरा इकट्ठा हो, आपमें खालीपन दिखाई पड़ना चाहिए, नहीं तो दिखाई ही नहीं पड़ेगा। अगर हम बहुत धीमी मात्रा के डोज दें, होम्योपैथी के डोज हों अगर, तो नहीं चलेगा। वह इतने आहिस्ता चलने वाला काम है, और आपकी बीमारियां इतनी हैं कि जितना हम निकाल पाएंगे, उससे ज्यादा तो आप कल इकट्ठा करके हाजिर हो जाएंगे। उतने धीमे कैथार्सिस नहीं हो सकती।
दूसरी बात, बहुत तेज भी नहीं की जा सकती। क्योंकि आपकी बीमारियां भी आपका व्यक्तित्व हैं। अगर उनको एकदम से निकाल दिया जाए तो आप एकदम ही घबड़ा सकते हैं। तो यह तीन दिन से कम में भी हो सकता है। मेरे हिसाब में तो यह चैबीस घंटे में भी हो सकता है; आठ घंटे में भी हो सकता है। लेकिन आठ घंटे में इतनी तीव्र प्रक्रिया होगी और गैप इतना बड़ा होगा कि आप फिर अपने को पहचान नहीं सकेंगे कि आठ घंटे पहले जो आप थे, वही आप हैं। आपकी जो पर्सनल आइडेंटिटी है, उसके टूट जाने का डर है।
तो सफाई इतनी धीमे भी नहीं होनी चाहिए कि कचरा इकट्ठा हो जाए, और इतनी तेज भी नहीं होनी चाहिए कि मकान साफ हो जाए। इतनी तेज भी हो सकती है। बुलडोजर लगा कर सफाई की तो फिर गया मामला। फिर आप जब सफा मकान देखने आएंगे तो पाएंगे कि मकान साफ है। वहां कुछ बचा ही नहीं है। कचरा ही नहीं; मकान भी गया। तो हर आदमी की अपनी आइडेंटिटी है, आपका अपना एक व्यक्तित्व है। बीमार, स्वस्थ, जैसा भी है, आपका अपना व्यक्तित्व है। उस व्यक्तित्व कोे इतने धीमे भी साफ नहीं करना है कि वह अपने को वापस स्थापित करता चला जाए, इतनी तेजी से भी साफ नहीं कर देना है कि आठ घंटे बाद आप पूछें कि मैं कौन हंू? तो हालत खतरनाक हो जाएगी।
तो इधर मैंने जान कर तीन दिन तय किए हैं। तो बहुत सोच कर, बहुत प्रयोग करके तीन दिन तय किए हैं। जल्दी उनको सात दिन भी करना चाहता हूं, लेकिन तब भी डर लगता है। क्योंकि सात दिन में आप इतनी गहराई में चले जाएंगे कि आप लौटना न चाहें। तो तीन दिन में मैं आपको इतनी गहराई तक भर ले जाता हूं, जहां से आप कुछ अनुभव भी करें और अपनी पूरी पुरानी व्यवस्था में वापस भी लौट सकें। इस प्रयोग को लंबा किया जा सकता है। इसी इंटेंसिटी पर सात दिन, पंद्रह दिन, इक्कीस दिन। फिर इक्कीस दिन केे बाद आप अगर लौटने से इनकार कर दें...आपको तो कोई नुकसान नहीं होने वाला, मेरा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं।
लेकिन धर्म ने जो नुकसान सदा से पहुंचाया है संसार को, वह शुरू हो जाएगा। हमारे खयाल में भी नहीं है कि धर्म एक बुनियादी नुकसान पहुंचाता रहा है। कि जिन लोगों को भी उसने गहराई दी, वे संन्यासी हो जाएंगे, वे भाग जाएंगे। तो मैं इस पक्ष में नहीं हूं कि भगौड़ा कोई भी हो।
मैं इस पक्ष में हूं कि आपकी जिंदगी में जो हुआ है, वह आप जहां हैं, वहीं घटित हो। और मैं मानता हंू कि उसके ज्यादा परिणाम होंगे। क्योंकि आप आस-पास जुड़े हुए हैैैं एक जगत से। वह जगत भी आपसे रूपांतरित होगा। और मैं मानता हूंः जब तक बीमार थे, तब तक पत्नी का साथ दिया और जब स्वस्थ हुए तो भाग गए। फिर तो बीमार आदमी ही बेहतर था।
मैं तो मानता हूं कि अब यह तो कर्तव्य का हिस्सा हुआ। बल्कि अब यह प्रेम का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए कि जिस दिन मैं शांत हो जाऊं, उस दिन मेरी पत्नी को तो मुझे शांत करने की चिंता करनी चाहिए। क्योंकि बीमारियां मैंने उस पर निकालीं; क्रोध उस पर निकाला; घृणा उससे की; लड़ा उससे; प्रेम उसे कभी दिया नहीं। अब दे सकता हूं, अब मैं भाग रहा हूं।
तो मैं किसी को उसकी जीवन-व्यवस्था से तोड़ने के पक्ष में नहीं हूं। इसलिए इस समय को लंबा भी नहीं कर सकता। और इस समय के लंबा होने की वजह से धर्म के प्रति भय व्याप्त होे गया है। लोग डरते हैं। पति उत्सुक होता है, पत्नी डरती है; पत्नी उत्सुक होती है, पति डरता है; बेटा उत्सुक होता है, बाप डरता है।
यह बड़े मजे की बात है कि अगर एक बाप के सामने विकल्प हो कि लड़का गुंडा हो जाए कि संन्यासी, तो बाप गुंडा ही होना पसंद करेगा। क्योंकि कम से कम घर में तो रहेगा। और गुंडे के लौट आने की संभावना है, संन्यासी की तो लौट आने की कोई संभावना ही नहीं है। यह बड़े मजे की बात है कि बुद्ध के बाप कोई प्रसन्न नहीं हैं। यानी बुद्ध अगर चोर भी हो गए होते तो बाप इतने परेशान नहीं होते, जितने बुद्ध के संन्यासी हो जाने से परेशान हो गए। स्वाभाविक भी है।
तो मैं तोड़ने के पक्ष में नहीं हूं, इसलिए इस पीरियड को लंबा भी करने में मैं निरंतर विचार करता हूं। उसको लंबा करने की कठिनाई है। इसको इससे छोटा भी नहीं किया जा सकता। तीन दिन मैंने कुछ सोच कर तय किए हैं।
मनुष्य के मन के कुछ गहरे नियम हैं। जैसे कि आप नये मकान में आए हैं। तो आपको तीन दिन तो शायद उसमें नींद ही न आ सके, नये मकान में। और तीन सप्ताह तक तो वह मकान आपको नया लगेगा, तीन सप्ताह के बाद नहीं लगेगा। तीन सप्ताह मन को किसी भी नई चीज के लिए राजी होने में लग जाते हैं। और तीन दिन से राजी होना वह शुरू होता है और तीन सप्ताह पर पूरा होता है। इसलिए आदमी मरता है तो हम तीसरा दिन मनाते हैं, अब एक नया एडजस्टमेंट। एक आदमी कम हो गया घर से। तीन दिन में हम राजी हो पाएंगे। फिर हम तेरहवां दिन मनाते हैं। फिर हम कुछ और राजी हो गए होंगे। फिर हम राजी होते जाएंगे। वे हमने टाइम-स्केल कुछ सोच कर ही, बहुत से अनुभवों से तय किए हैं। एक दिन, दो दिन का फर्क हो सकता है।
लेकिन तीन दिन का मेरा अपना खयाल ऐसा है कि तीन दिन छोटा से छोटा यूनिट है काम करने के लिए। और यह प्रक्रिया इतनी तेज है कि अगर आप आॅनेस्टली तीन दिन इस पूरी प्रक्रिया को करें तो फर्क होने शुरू हो जाएंगे। अगर आप खाली हो जाते हैं अपने पुराने बोझ से और पुरानी आदतों की धाराएं टूट जाती हैं, तो फिर आपको ध्यान में गति दी जा सकती है। और इसलिए प्रत्येक प्रयोग के बाद दस मिनट का जो गैप है, वह गति देने का गैप है। तीस मिनट आप कुछ खाली कर रहें हैं, कुछ तोड़ रहे हैं, कुछ ओवरफ्लो होने दे रहे हैं। और दस मिनट सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे हैं। उस दस मिनट में आपमें ध्यान आना शुरू होगा। जिस दिन उस दस मिनट में ध्यान आपका आना शुरू हो जाएगा, उस दिन वह जो दस मिनट में उतरेगा, वह धीरे-धीरे चैबीस घंटे आपके साथ रहने लगेगा। क्योंकि वह इतना आनंदपूर्ण है।
इधर मेरा यह भी अनुभव है कि हमने अशांति का दुख तो जाना है, शांति का सुख नहीं जाना है। इसलिए हमारे पास बहुत विकल्प नहीं हैं, चुनाव नहीं हैं। हम निरंतर कहते हैं कि क्रोध बुरा है, लेकिन अक्रोध हमने जाना ही नहीं। तो हम चुनाव कैसे करें? हम निरंतर कहते हैं कि यह सब संसार बेकार हैै, लेकिन हमने कोई मुक्ति का तो कोई तरह का रस जाना नहीं। हम जिस चीज की निंदा कर रहे हैं, उसी को भर जानते हैं और जिसकी हम आकांक्षा कर रहे हैं, वह बिलकुल अपरिचित स्वाद है। और जो अपरिचित स्वाद है, वह चुना नहीं जा सकता। उसका स्वाद मिलना चाहिए, एक दफा भी मिल जाए।
अब एक आदमी ने अंधेरा ही अंधेरा जाना। अब वह बहुत दफा कहता है कि अंधेरा छोड़ना चाहता हूं, प्रकाश पाना चाहता हूं। लेकिन जब वह यह बोलता है कि मैं अंधेरा छोड़ना चाहता हूं और प्रकाश पाना चाहता हूं। तब अंधेरा छोड़ना चाहता हूं--यह कहते वक्त तो उसका अनुभव होता है। जब कहता हैः प्रकाश पाना चाहता हंू, तब सब धुंधला हो जाता है। तब इतना ही होता है कि अंधेरा नहीं होगा, बाकी प्रकाश की कोई रेखा नहीं होगी।
और मैं मानता हूं कि अभी यह नहीं छोड़ सकता। क्योंकि हम छोड़ तभी सकते हैैं, जब उससे विपरीत हमें मिलना शुरू हो जाए। अन्यथा छोड़ना मुश्किल है। क्योंकि हम यह भी खो दें, जो है; और वह भी न मिले, जो नहीं है; जो हमें पता ही नहीं है। तो आदमी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाता। कभी कोई लाख-दो लाख में एक आदमी जुुटाता है। उसको हम अपवाद मानें, वह नियम के बाहर है। उसके लिए कोई व्यवस्था की जरूरत नहीं पड़ती। और वैसा आदमी कई दफा भूल भरी बातेें दूसरों से कहता है। वह कहता है, तुम्हें भी कोई व्यवस्था की जरूरत नहीं है।
वह ठीक कहता है। बाकी वह बेमानी है बात। यह साधारणजन जो है हमारा, जो औसत आदमी है, यह कुछ पा ले तो कुछ छोड़ने को राजी हो सकता है।
तो इधर मैं इसको तीस मिनट में खाली करवाता हंू और दस मिनट में मौका देता हूं कि वह जो जगह खाली हो गई, उसमें कुछ भर आए। और जैसे प्रकृति वैक्यूम को बरदाश्त नहीं करती, वैसा ही चित्त भी नहीं करता। अगर आप गलत से खाली हों, तो ठीक भरना शुरू हो जाएगा।
एक दफा खाली होना जरूरी है। तो इसलिए दो हिस्से हैं उसमें। एक तो कैथार्सिस का है, जो खाली होने का है। और दूसरा हिस्सा ध्यान का है, जो कुछ किसी चीज के उतरने का है, किसी चीज के भरने का है। उसमें आपको कुछ भी करना नहीं। यह अनुभव अगर दस मिनट में आपको धीरे-धीरे उतरने लगे, तो यह अनुभव आपके साथ चैबीस घंटेे रहने लगेगा। और यह अनुभव आपको नई बीमारियां इकट्ठी करने से रोकेगा। नये दमन करने से रोकेगा। नई गलतियां करने से रोकेगा। फिर से पुराने रास्तों पर नया-नया जाने से रोकेगा। यह अनुभव है।
यानी अब आपको नियम न लेना पड़ेगा, व्रत न बनाना पड़ेगा कि अब मैं क्रोध न करूंगा। अब आप जानते हैं अक्रोध का आनंद, अब आप क्रोध नहीं करेंगे। और वह जोे कैथार्सिस का प्रयोग है, वह तीन महीने के लिए अगर कोई ठीक से करेगा तो ज्यादा से ज्यादा तीन महीने चलेगा। फिर धीरे-धीरे शिथिल होता जाएगा। तीन सप्ताह में ही शिथिल होने लगेगा। फिर धीरे-धीरे वह खत्म हो जाएगा। आप नाचना चाहेंगे तो न नाच सकेंगे तीन महीने के बाद, चिल्लाना चाहेंगे तो न चिल्ला सकेंगे, रोना चाहेंगे तो न रो सकेंगे। क्योंकि वह होना चाहिए न भीतर। आप एकदम खाली और रिक्त हो गए हैं। रोना निकलेगा ही नहीं तो आप रोएंगे कैसे? हंसना निकलेगा नहीं, आप हंसेंगे कैसे?
तो वह जो कैथार्सिस है, वह एक अर्थ में मापदंड का काम भी करेगी। वह रोज-रोज कम होती चली जाएगी। और जितनी तीव्रता से करेंगे, उतनी शीघ्रता से कम होती चली जाएगी। अगर उसको रोका तो उतना वक्त लेगी, लंबा। और लंबा वक्त खतरनाक है। क्योंकि इस बीच आप और इकट्ठा कर लेंगे, इसलिए तीन दिन में इंटेंसिवली मैं उसको जोर लगवाने को कहता हंू कि तीन बैठक में आप उसको पूरे वक्त निकालें। यह निकल जाए तो यह अनिवार्य हिस्सा नहीं है। यह तो खत्म हो जाएगा अपने आप। यह तो सिर्फ बीमारी को फेंक देना है बाहर। फिर आप नई बीमारियां इकट्ठी नहीं करेंगे, और इसकी कोई जरूरत नहीं रह जाएगी।
एक दूसरा, दूसरा हिस्सा इसके पीछे आना शुरू होगा। अभी कैथार्सिस ध्यान के पहले है। तीस मिनट की कैथार्सिस और दस मिनट का ध्यान। जैसे-जैसे कैथार्सिस खत्म होगी, वैसे-वैसे दस मिनट के बाद कुछ होना शुरू हो सकता है। फिर नाचना आ सकता है, लेकिन वह नाचना बहुत और होगा! अभी यह नाचना कैथार्टिक हैै। अभी यह नाचने में कुछ निकल रहा है, उस नाचने में कुछ हां-ना होगा। फिर गीत निकल सकता है। फिर खंजड़ी बज सकती है। फिर कोई नाच कर गा सकता है सड़क पर खड़े होकर। लेकिन वह और बात है! फिर वह कैथार्सिस नहीं है। फिर जो आपको मिल गया है, उसके आनंद का अतिरेक है। वह हर्षोन्माद है, वह एक एक्सटेसी है, वह पीछे आएगा।
यह पहला हिस्सा जब खत्म होगा, तब दूसरा हिस्सा शुरू होगा। वह इसके पीछे की बात है। इसलिए मैं उसकी साधारणतः बात नहीं करता, क्योंकि अभी वह मिक्सड-अप हो सकता है। अभी हमारे खयाल में पड़ना मुश्किल हो जाएगा कि क्या क्या है? इसलिए यह निकल जाए एकबारगी, तो वह अपने से धीरे-धीरे उसकी धारा टूटेगी। अभी इसके करने से हलकापन लगेगा। फिर उसके करने से बहुत हलकापन लगेगा। वह एक क्रिएटिव एक्ट है। रोग के बाहर हो गए हैं आप। अब एक स्वास्थ्य उतरा है। अब उस स्वास्थ्य की अपनी धाराएं होंगी बहने की।
इतना ही काफी नहीं है कि आपमें से क्रोध न बहे, किसी दिन अक्रोध भी बहना चाहिए; इतना काफी नहीं है कि आपसे घृणा न निकले, किसी दिन प्रेम भी निकलना चाहिए। घृणा न निकले यह जरूरी है, पर्याप्त नहीं। प्रेम निकले, तभी आप पर्याप्त पर पहुंचते हैं। वह दूसरे हिस्से में घटनाएं घटनी शुरू होती हैं। और इसलिए मैं समूह पर जोर देता हूं।
असल में अकेले में जाने का डर भी नहीं है, समूह का डर भी है हमारे मन में। वही सहयोग भी है, वही हमारा डर भी है। बहुत लोग आते हैं, वे मुझसे कहेंगेे कि अकेले में हम कर लें तो क्या हर्ज है। हर्ज यही है कि तुम अकेले में करना चाह रहे हो। वह तो वही... जिस वजह से तुम अकेले में करना चाह रहे हो, वह वजह तो रुकावट की है। तुम डरते हो, कोई देख न ले।
जीओगे अकेले में फिर?
ध्यान तो अकेले में कर लोगे, जीना तो पड़ेगा समूह में। वह जो संन्यासी भागता था, उसका कारण था। ध्यान किया उसने अकेले में और जीना तो पड़ता है समूह में। जिसको अकेले में ध्यान करना थिर हो जाएगा, वह समूह से भागने लगेगा।
जिंदगी तो समूह है। जीएंगे हम कैसे अकेले में? जीएंगे तो सबके साथ और ध्यान करेंगेे अकेले में। नहीं, इनका तालमेल नहीं होगा।
जब जीना ही सबके साथ है तो ध्यान भी सबके साथ। तो उसमें एक सहजता होगी। और जो लोग हों सो हों, और अच्छा है कि लोग जान लें। अगर मेरी पत्नी मुझे देख लेती है ध्यान के पहले चिल्लाते हो, गालियां बकते हो, घूंसे तानते हो, तो कल अगर मैं उस पर घर में घूंसा भी तानूं तो हो सकता है वह हंस पाए। क्योंकि, क्योंकि अब जरूरी नहीं है मानना कि मैं उसके ऊपर घूंसा तान रहा हूं। अब यह अनिवार्य नहीं रहा, क्योंकि उसने हवा में घूंसे तानते भी मुझे देखा है। अगर मैं अपनी पत्नी को रोते-चीखते ध्यान में देखता हूं, कल वह अचानक छोटी सी बात पर रोने-चीखने लगे तो मुझे यह मानने की जरूरत नहीं कि मुझ पर डायरेक्टिड है। मैं सिर्फ बहाना ही हूं। अब मैं जानता हूं कि यह तो इसके, बिना इसके भी हो सकता है। इसलिए समूह में मेरा जोर है।
फिर दूसरी बात यह है कि दुनिया इतना विराट प्रश्न है आज, कि इसे एक-एक आदमी को बदल कर हम ऐसे हैं जैसे चम्मच-चम्मच पानी समुद्र से लेकर रंग रहे हैं। इससे कुछ होने वाला नहीं। रंगने वाला थकेेगा; चम्मच टूट जाएगा; पानी जैसा है, वैसा ही रहेगा। अब तो मास-स्केल पर चूंकि बीमारी है, विराट उसका रूप है, विराट ही संघर्ष करना होगा। इससे काम नहीं चलेगा कि गांव में एक आदमी ध्यान कर ले मंदिर में बैठ कर, पूरे गांव को ही डुबाना पड़ेगा।
इधर तो मेरी योजना है। इधर मेरी योजना है कि एक, दो-तीन वर्ष में हजार-दो हजार युवक-युवतियों को संन्यास पीरियाॅडिकल। क्योंकि उसमें मेरी दृष्टि यह है कि जिसको जब लौटना है, वह उस वक्त लौट जाए। यह संन्यास कोई आजीवन नहीं है। आजीवन हो तो प्रोफेशनल हो जाता है। यह मौज है। आपको छह महीने की छुट्टी मिली। आप छह महीने के लिए मौज से संन्यासी हो जाएं। फिर घर लौट जाएं। फिर घर में रहें। तो धीरे-धीरे हजारों लोग संन्यासी होकर घरों में पहुंच जाएंगे। फिर ये घरों को बदलने वाले सिद्ध होंगे। और ये फिर कभी भी महीने-दो महीने के लिए वापस संन्यासी हो सकते हैं।
यानी संन्यास को मैं कोई जिंदगी से अलग चीज नहीं, बल्कि जिंदगी का फैला हुआ, फैला हुआ हाथ--वह शक्ल देना चाहता हूं। तो ये हजार-दो हजार लोग सदा ही संन्यासी रहेंगे। इसमें लोग बदलते रहेंगे, मगर ये दो हजार बने रहेंगे। इन दो हजार को लेकर मेरा, ठीक जिसको कहना चाहिए कि एक माॅरल अटैक, एक गांव पर कर देने का है। दो हजार आदमी पूरे गांव में सात दिन के लिए ठहर जाएं। पूरे गांव को हम सात दिन ध्यान में डुबाने की कोशिश करें। इससे कम पैमाने से काम नहीं होगा। और यह टेक्नीक ऐसी है, इसमें सत्तर प्रतिशत व्यक्तियोें को प्रवेश की संभावना है। हंड्रेड प्रतिशत हो सकती है, पर वे तीस प्रतिशत कमजोर पड़ जाते हैं। वे नहीं जा पाते, नहीं कोआॅपरेट कर पाते। हजार तरह की बातें सोच कर रुक जाते हैैं। लेकिन सत्तर प्रतिशत तो अनिवार्य रूप से इसमें प्र्रवेश हो जाएगा।
अगर हम एक गांव का, दस हजार का गांव हो और उसमें हजार लोगों को भी अगर हम ध्यान में प्रवेश करवा सकें, हम उस गांव की जिंदगी को बदलने में समर्थ हो जाएंगे। क्योंकि अभी भी किसी गांव में हजार गुंडे नहीं हैं।
यानी अभी भी बुराई जो है, कोई इतनी बड़ी नहीं हो गई है। लेकिन कठिनाई सिर्फ यह है कि बुराई के समूह हैं और भलाई के कोई समूह नहीं है। तो इसको इस कारण से जितना बड़ा हो सके और जितना व्यापक हम कर सकें, और जितने कम समय में हो सके। जितने कम समय में हो सके, क्योंकि अगर एक गांव कोे हमें चार महीने करवाने में लग जाएं तो पूरे हम, पूरे गांव को नहीं डुबा सकते। तो इसलिए टेक्नीक को रोज गतिमान करते जाना है।
अब आपने खयाल किया होगा कि सुबह की जो टेक्नीक है, उससे रात की जो टेक्नीक है और भी तीव्र है। हम पूरे गांव को रात इकट्ठा कर सकते हैं जब कोई काम पर नहीं है, सब फुरसत में होंगे। पूरे गांव को इकट्ठा कर सकते हैं, पूरे गांव को डुबा सकते हैं। सुबह तो उनको कुछ करना भी है, श्वास भी लेनी है, कुछ और भी करना है। रात को वह भी करना नहीं है। कोई एक सौ आठ विधियां हैं ध्यान की। और उनमें से प्रत्येक विधि को इस पर भी किया जा सकता है। उसमें थोड़ा सा जोड़ करना पड़ेगा। अब जैसेे इसमें मैं पहले दस मिनट श्वास के लिए जोड़ रहा हंू। श्वास का खयाल सदा से है। लेकिन सदा से खयाल था रिदमिक ब्रीदिंग का। रिदमिक ब्रीदिंग से अगर यह प्रयोग किया जाए तो वर्षों लगेंगे।
तो मेरा जो प्रयोग है वह नाॅन-रिदमिक ब्रीदिंग है। उसमें रिदम को नहीं लाना है, क्योंकि रिदम के साथ आप एडजेस्ट हो जाएंगे जल्दी, नाॅन-रिदमिक रखना है। ताकि आप एडजेस्ट न हो पाएं। और खलबली तत्काल मच जाए। उसको प्रतीक्षा न करनी पड़े। तो इसलिए वह दस मिनट को मैं भस्त्रिका जैसा, बस सिर्फ लोहार की धौंकनी की तरह झोंक कर। जिसमें कोई व्यवस्था नहीं, ताकि दस मिनट में ही आप केआॅटिक हो जाएं। और आप केआॅटिक हो जाएं, अराजक हो जाएं तो फिर हम दूसरे चरण में कैथार्सिस कर सकते हैं, नहीं तो नहीं कर सकते हैं।
मजा यह है कि भस्त्रिका भी रही, लेकिन उसके दूसरे प्रयोग होंगे। उसका कभी भी ध्यान के लिए प्रयोग नहीं था। उसके प्रयोग दूसरे थे। प्राणायाम के जो प्रयोग थे, वे सब लयबद्धता के प्रयोग थे। इसलिए उनकी चोट तीव्र नहीं हो सकती। अगर तीव्र चोट करनी है तो बिलकुल अराजक होनी चाहिए। उसकी अराजकता ही उसकी स्पीड है।
अब दूसरा जो चरण है, यह दूसरा चरण रोकने के उपाय किए योग में। इसलिए आसन की व्यवस्था है। आसन की जो व्यवस्था है वह कैथार्सिस को मध्यम गति से करने की व्यवस्था है। शरीर पर प्रकट न हो, भीतर से निकले। तो शरीर को पहले आसनों का वर्षों तक अभ्यास कराया जाए। जैसे सिद्धासन हो या पद्मासन--ये इस बात के अभ्यास हैं कि भीतर चित्त में कुछ भी हो, शरीर थिर रहे। भीतर बहुत कुछ होगा। कैथार्सिस भीतर से भी हो जाएगी। यानी मैं आपको घूंसा मारूं, घूंसा उठा कर, यह जरूरी नहीं है। हाथ बिना उठाए भी घूंसा मारा जा सकता है। होता ही है। तो, तोे इस योग ने यह व्यवस्था की थी कि पूरा पहले आसन सिखाएंगे वर्षों तक, ताकि आपके शरीर पर प्रकट न हो, नहीं तो लोग पागल कहेंगे। लेकिन तब पहले वर्षों आसन सिखाई।
न तो कोई वर्षोें आज आसन सीखने को तैयार है, न ही मैं मानता हूं कि इतना समय खराब करने की जरूरत है। फिर यह भय क्या, कि बाहर निकल जाएगा। इस भय को तोड़ दें। हम कहें कि निकलना उचित ही है। और भय टूट गया और तो कुछ मामला नहीं है। हम डरते हैं कि ऐसा न हो जाए कि मैं भला आदमी और अचानक चिल्लाने लगूं, और रोने लगूं, यह हमारी मान्यता है। अब अगर यह प्रयोग जहां-जहां हुआ है --एक-दो दफे, तीन दफे प्रयोग होता है, गांव भर को पता चल जाता है। कोई ऐसी बात नहीं है, वह टूट जाता है। इसके लिए वर्षों खराब करवाने के मैं पक्ष में नहीं हूं। तो मैं तो उलटे प्रयोग के पक्ष में हूं, कि जो शरीर करना चाहे उसको और सहयोग देकर पूर्णता से करें, ताकि जो छह महीने में निकलता हो, वह तीन दिन में निकल जाए। उसको पूरा सहयोग दें।
और भी एक मजे की बात है कि योग में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटती हैं (साइलेंट)...तो आदमी को रहने की जगह नहीं बचने वाली इस जमीन पर। किन गुफाओं में, किन पहाड़ों पर इनको ले जाएंगे? कहां इनके लिए इस तरह से बनाएंगे, यह सब होने वाला नहीं है? अब तो हमें जिंदगी में भी इसको स्वीकार करना पड़ेगा।
दूसरी मजे की बात है कि यह प्रक्रिया अपने आप घटती है। अगर न बताया जाए तो बहुत घबड़ाने वाली बात है। और जब घटती है तो आदमी रोकने की कोशिश करता है। रोक लें तो रुक जाएगी। लेकिन वह जो रुक जाना है, वह उसकी कैथार्सिस न होने देगा। तो इधर मैं इसको पूरी की पूरी गति देना चाहता हूं। और इसके लिए पूरी स्वीकृति देना चाहता हूं। और ऐसे ग्रुप गांव-गांव में पैदा करना चाहता हूं जिनके भीतर यह स्वीकृत है। यह स्वीकृत होने से निकलने में इसको बड़ी आसानी हो जाएगी, इसका प्रवाह सहज हो जाएगा।
तो इसलिए वह जो लोग कहते हैं कि अकेले में क्यों न ध्यान कर लें, अक्सर तो वे वे लोग हैं, उनसे पूछिए कि आपने किया, अकेले में कौन रोकता था आपको आपका करने से, अकेले तो आप हैं ही, आपको कौन रोका है कब करने से, आपने किया?
आदमी का मन बहुत ही चालाक है। जब उसे एक विधि करने को कहो तो वह कहेगा कि अगर वैसा करूं तो कोेई हर्ज नहीं? और वैसा उसने कभी किया नहीं। और मैं कब उससे कहने गया था कि वह न करे या कौन उससे कहने कब गया। वह कहेगा, वैसा करें। आप अगर वैसा करने को कहेंगे तो वह कहेगा कि वैसा करें। और कोई रास्ता नहीं है?
असल में न करने से बचने की बड़ी इच्छाएं हैं, बड़ी इच्छाएं हैं। मेरे पास लोग आते थे। जब मैं उनसे कहता था कि तुम्हें ही करना पड़ेगा, तब वे कहते थे कि आप कुछ करो, हमसे क्या हो सकेगा? हम से क्या होगा? हमसे हो सकता तो हम कर लेते आप कुछ करें...और मैं कहता था कि तुम्हें ही करना पड़ेगा। वे कहते थे कि कुछ...कोई कृपा हो, कोई ग्रेस हो, कोई परमात्मा की कृपा हो, हमसे नहीं होगा! अब जब मैं उनको करवा रहा हूं तो वे मेरे पास आते हैं कि अगर हम अकेले में कर लें, या हम ही कर लें, आपकी इसमें क्या जरूरत है?
वही थे वे लोग, तब मुझे बड़ी हैरानी होती है। बड़ी हैरानी होती है कि यह वही आदमी है। नहीं करना हो तो यही जानो कि नहीं करना है, इसमें कौन तुमसे कहने जा रहा है। लेकिन नहीं, यह भी नहीं जानना है। हम तरकीबें निकालते रहेंगे। और जोखिम तो इतनी बड़ी है भीतर प्रवेश की कि हमें छोटी-मोटी जोखिम करवा कर परीक्षा लेनी ही चाहिए। लेनी ही चाहिए, नहीं तो वह बड़ी जोखिम कैसे उठाएगा? भीतर तो परतें टूटेंगी बहुत तरह की, बहुत घटनाएं घटेंगी। अगर वह रोने-चिल्लाने से डर गया है तो मैं मानता हूं कि उसका भीतर न जाना ही अच्छा है। क्योंकि भीतर तो बहुत कुछ और घटेगा। बहुत मवाद है, वह टूटेगी-फूटेगी, बहेगी, भीतर तो बहुत सा फूहड़ है, वह सब दिखाई पड़ेगा। वह उसमें तो कैसे जा पाएगा?
इसलिए अगर वह इससे डर गया है तो ठीक ही है। मैं मानता हूं जिसने इतनी हिम्मत की वह थोड़ा हिम्मतवर है, और थोड़ी हिम्मत करेगा। कदम-कदम भीतर ले जाया जा सकता है। और मैं क्या कर रहा हूं? कोई भी क्या करेगा? कर तो आप ही रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा यह सिचुएशन पैदा की जा सकती है। और आप बिना सिचुएशन के नहीं कर सकते हैं, यह साफ है। अन्यथा कौन रोकता है? आप मजे से करें। जिसको भी करना है वह मजे से करे। उसे कौन रोकने कब गया है? लेकिन जो नहीं कर सकते हैं उनके लिए हम सिचुएशन पैदा करेंगे। लेकिन हमारा है मन ऐसा, हमारा मन ऐसा है कि कहीं कुछ होने लगे तो भी डर लगता है, कि कहीं हो ही न जाए।
अब एक, एक महिला इधर आई थी, अभी इस कैंप में। तो पहले दिन उसने प्रयोग किया, और बहुत अच्छा परिणाम हुआ। तो पहले भी तीन कैंपों में वह आई है। तो मुझे आकर पैर पकड़ कर रोकर उसने कहा कि यह पहले आपने क्यों न करवाया, हमारा इतना समय बेकार गया? बड़े आनंद से, बड़े भाव से उसने कहा, कि पहले आपने क्यूं हमें यह प्रयोग न करवाया, हमारा इतना समय बेकार गया? और किसी दिन वह भाग गई बीच में से और दोपहर में मुझे कह गई कि मैं घबड़ा गई हूं। वह तो आपका पहले वाला प्रयोग अच्छा था। वही मैं कहा। वह आपका पहले वाला प्रयोग अच्छा था। इसमें तो रोना-धोना, चिल्लाना और चीखना ऐेसे तो पागल हो जाएंगे। यह महिला मुझसे, अभी एक ही दिन पहले मुझसे कहती है कि आपने यह पहले क्यों न करवाया और तीसरे दिन कहती है कि नहीं, वही ठीक था। शांत होकर बैठने वाला प्रयोग बहुत अच्छा था। और भाग गई बीच से वह।
अब हम क्या करें? आदमी का मन बहुत अजीब है, वह बचाव खोज रहा है। नहीं होगा तो आकर कहेगा कि हो नहीं रहा है। होगा तो आकर कहेगा कि कहीं हो तो नहीं जाएगा। दोनों बातें हैं। और बहुत कभी-कभी हंसने जैसा मालूम होता है। हैरान करने वाले लोग हैं!

प्रश्नः मेरे सामने जो दूसरा सवाल आया, कई विचारक लोग भी थे, कई लोगों के प्रति बड़ा सदभाव भी था कि इंसान दो ढंग से काम कर रहा है, सब्जेक्टिव भी और आॅब्जेक्टिव भी। तो आपकी जो प्रवृत्तियां हैं, आप चाहते हैं कि आपके पास इतना समय भी नहीं है और आपके पास...हमारे पास इतना समय भी नहीं है, हम बड़ी आसानी से और बड़े पैमाने पर यह कार्य करना चाहते हैं। अगर वैसा ही कुछ करना है, तो आपकी जो शक्तियां हैं और भावनाएं हैं, वे कंस्ट्रक्टिव आॅटोराइट लाइन पर चैनेलाइज हो जाएं तब बड़ी आसानी से काम बन सकता है। लेकिन कभी-कभी क्या होता है कि आपकी बातों में इतना औरों के प्रति कुछ खंडनात्मक, वे लोग कह लेते हैं कि गांधी हो, कि महावीर, या कोई और, आपकी दृष्टि से कुछ छूटता नहीं है। तो कितने लोगों को ऐसा लगता है, मुझे भी लगता है कि इससे क्या होता है कि जो लोग सदभाव की दृष्टि से देखते हैं आपकी प्रवृत्तियों की ओर, उनके दिमाग में भी तो हलचल मचती है। और फिर आपको भी, तो आप अगर, आपका और इनका जो मेल होता है इसमें भी कुछ विक्षेप आता है। तो जब प्रवृत्ति आसानी से होे सकती है, इसके बजाय वे लोग अलग-अलग जो प्रकृति है, वह आपस में टकराती है। तो इससे यह अच्छा नहीं होगा कि आप कंस्ट्रक्टिव दृृष्टि से आपको जो कुछ कहना है वह कहें। औरों ने क्या किया और क्या कहा वह बात छोड़ कर अगर यह काम आगे चल पाए तो क्या आसान नहीं होगा?

मुझे, मुझे नहीं लगता। मर ही जाएगा; आसान तो होगा ही नहीं। काम ही मर ही जाएगा। क्योंकि यह दलील नई नहीं है। महावीर के पास भी लोगों ने आकर यही कहा कि आप कृपा करके अगर उपनिषदों और वेदों के खिलाफ न बोलें तो लोगों का सदभाव रहेगा। बुद्ध के पास भी लोगों ने आकर यही कहा कि आप अगर महावीर के खिलाफ न बोलें तो लोगों का सदभाव रहेगा और काम हो सकेगा। शंकर को भी लोगों ने आकर यही कहा कि अगर आप बुद्ध के खिलाफ न बोलें तो आसानी पड़ेगी, जिनका बुद्ध के प्रति सदभाव है उनका भी आपको साथ मिल जाएगा; जीसस को भी यही कहने वाले लोग थे। तो थोड़ा सोचने जैसा मामला है कि ये सारे के सारे लोगों को यह समझ में बात नहीं आई, समझाने वाले लोग थे। कौन थे समझाने वाले? आज हम, आज हम उनका नाम भी नहीं बता सकते।
कारण क्या है? न बुद्ध को खयाल में आता, न शंकर को खयाल में आता, न जीसस को, न महावीर को? मुझे भी खयाल में नहीं आता। उसका कारण है। पहली तो बात यह है कि जिसको हम व्यक्ति केे भीतर आमूल परिवर्तन की व्यवस्था करते हैं, वह मूलतः डिस्ट्रक्टिव होती है। वह मूलतः डिस्ट्रक्टिव होती है। उसमें जो सृजनात्मकता आती है, वह पीछे आया हुआ फल है। उसके प्रारंभिक चरण तो सब विनाश के हैं।
आप जो हैैं, अगर मैं कल सत्य कुछ बात करूं तो वह इसमें भी एक जोड़ होगा आप जो हैं। आप जो हैं, और इसलिए आपको आसानी पड़ेगा, सदभाव बनाना भी आसान पड़ेगा, क्योंकि आपको मैं अंगीकार करता हूं, जैसे आप हैं। ज्यादा से ज्यादा मैं यह कहता हूं कि इस कमीज के ऊपर आप एक बंडी और पहन लें, उससे आप और अच्छे लगेंगे। कुर्ता तो बहुत अच्छा है, आदमी आप बहुत अच्छे हैं, यह एक बंडी और पहन लें, इससे और सुंदर हो जाएंगे। इसके लिए आप राजी हो जाते हैं। क्योंकि आपको तो मैं बदलने को कुुछ कहता नहीं, कुछ छोड़ने को कहता नहीं, कुछ तोड़ने को कहता नहीं, आपको मैं पूरा स्वीकार करता हूं। और कुछ एडिशन करता हूं आपमें, इसकोे आप कंस्ट्रक्शन कहते हैं। साधारणतः हम इसको कंस्ट्रक्शन कहते हैं कि आप जैसे हैं, उसको हम स्वीकार करते हैं, निश्चित ही। मुझे काम में सुविधा होगी मैं आपको बंडी पहना दूंगा। लेकिन आपको बंडी पहनाने का मेरा कोई प्रयोजन ही नहीं है।
मैं आपको बदलना चाहता हूं, आपको सुधारना-संवारना नहीं चाहता। आप सुधरे-संवरे होकर भी यही रहेंगे जो आप हैं, हो सकता है और खतरनाक हो जाएं। क्योंकि अभी शायद कभी-कभी आपको अपना शरीर भी दिखाई पड़ जाता हो, बंडी पहन कर वह भी दिखाई न पड़े और एक कोट पहन कर उसका और भी दिखाई पड़ना बंद हो जाए।
तो मौलिक रूप से तो मैं आपको मिटाना चाहता हूं, मिटाना चाहता हूं। और उस मिटाने में बड़ी लम्बी यात्रा है। और अभी तो आपके विचार पर चोट करूंगा, कल आपके भाव पर चोट करूंगा और परसों आपके पूरे अस्तित्व पर चोट करूंगा। तो अगर विचार से ही आप भाग खड़े हुए तो मैं सोचता हूं, अपना कोई संबंध नहीं। क्योंकि और गहरी चोट कैसे आप सहेंगे? गांधी आपके लिए विचार से ज्यादा नहीं हैं। वह आपकी विचारधारा है। मोहम्मद आपकी विचारधारा है या महावीर आपकी विचारधारा है। अगर विचार का इतना मोह है, सिर्फ विचार का, तो आप अपने अस्तित्व को बदलने वाले आदमी नहीं हैं।
तो मेरे लिए तो उपयोगी है वह, कि मैं देख लेता हूं कि आदमी बदलने वाला आदमी है कि सिर्फ जोड़ने वाला आदमी है। तो मैं तोे आपके विचार पर चोट करके, आपकी बिलकुल परिधि पर चोट कर रहा हूं। अगर वहीं से आप भाग खड़े होते हैं और मेरा आपसे संबंध टूट जाता है तो मैं समझता हूं कि अच्छा हुआ इस झंझट में मैं नहीं पड़ा। क्योंकि यह काम होने वाला नहीं था आगे। चोट तो मुझे और गहरी करनी पड़ेगी। कल आपके भाव पर भी चोट करूंगा, कल आपके अस्तित्व पर भी चोट करूंगा।
जिनको भी इतनी गहरी चोट करनी है, जो भी ट्रांसफर्मेशन के लिए उत्सुक हैं, वे कंस्ट्रक्टिव नहीं हो सकते। और जो कंस्ट्रक्टिव हैं उनसे कभी ट्रांसफर्मेशन किसी का हुआ नहीं है। वह चाहे गांधी हो, चाहे विनोबा हो--इन दोनों को मैं कंस्ट्रक्टिव आदमी कहता हूं। इनसे किसी का कोई ट्रांसफर्मेशन कभी हुआ नहीं। तो अगर मुझे भी नेतृत्व भर करना हो तो वे जो मित्र सलाह देते हैं, उचित सलाह देते हैं। अगर मुझको भी एक महात्मा बन कर बैठ जाना हो तो वह बहुत सरल मामला है। उससे ज्यादा सरल कोई काम नहीं है।
पर मैं, आप जैैसे हैं, उसको स्वीकार करता हूं और सजा देता हूं आपको थोड़ा, आपके अहंकार को और फुसलाता हूं और सजा देता हूं। तो आपको परसुएड कर लेता हूं। लेकिन तब बस मैं नेता हो पाता हूं और कुछ भी नहीं होता, मैं महात्मा हो पाता। इससे ज्यादा कोई...आप पर मैं कुछ नहीं कर पाता। क्योंकि आपको तो मैं पहले ही स्वीकार करके चल पड़ा। अब तो आपके साथ तो कुछ करने का उपाय नहीं। तो मेरे जैसे व्यक्तियों को तो अनिवार्य रूप से इस उपद्रव से गुजरना पड़ता है।
वह उपद्रव नया नहीं है, वह पुराना है। अच्छा, और मजा यह है कि महावीर ने जिन लोगों के खिलाफ कहा, महावीर जैसे आदमी को फिर महावीर के खिलाफ बोलना पड़ रहा है। क्योंकि तब तक महावीर का भी अनुगामी वहीं खड़ा हो गया होगा, जहां उपनिषद-अनुगामी महावीर के वक्त खड़ा है। यह झगड़ा महावीर से नहीं है। महावीर का जो झगड़ा था, वही यह झगड़ा है। दिखता है कि महावीर से है, क्योंकि महावीर को उपनिषद के अनुयायी के साथ लड़ना पड़ा था। क्योंकि वह उपनिषद स्टेटस-को हो गया था। अब मुझे महावीर से लड़ना पड़ेगा, क्योंकि महावीर स्टेटस-को हो गए हैं। इसमें महावीर की सहानुभूति मेरे हिसाब से तो होगी ही, क्योंकि मैं काम वही कर रहा हूं।
और ऐसा नहीं है कि यह काम कोई खत्म हो जाने वाला है। कल मेरे जैसे व्यक्तियों को ही मुझसे लड़ना पड़ेगा। इसमें कोई उपाय नहीं है। यानी कल मेरे जैसे व्यक्ति को मुझसे फिर इसी भांति लड़ना पड़ेगा। और मेरी उसके साथ सहानुभूति है। क्योंकि किसी न किसी को लड़ना ही पड़ेगा, लड़ना ही चाहिए। क्योंकि तब तक मैं सेटल हो जाऊंगा, मैं कुछ लोगों के मन पर बैठ जाऊंगा। जिनके मन में मैं बैठ जाऊंगा, उनको अनसेटल करना पड़ेगा।
तो मेरी दृष्टि में वे जो मित्र कहते हैं, बड़ी गणित की, चालाकी की, होशियारी की बातें कहते हैं। ठीक कहते हैं, नेतृत्व के लिए वही जरूरी भी होगा। लेकिन मुझे उसमें उत्सुकता नहीं है। मुझे उत्सुकता आप में है और आपके लिए कुछ हो सके तो उसमें उत्सुकता है। और उसके लिए वह जो सर्जरी है, वह जरूरी चीज है, और विचार उसमें सबसे कमजोर हिस्सा है जिसको पहले चोट की जानी चाहिए। अगर उस पर ही चोट करने से आप तिलमिला जाते हैं तो फिर भीतर और चोटेें करनी बहुत मुश्किल हैं। फिर तो और गहरा अहंकार है भीतर, वह और गहरा होता चला जाएगा।
इधर मेरे लिए तो वह परीक्षा का उपाय बन गया है। यानी मैं तो मानता हूं कि मेरे खंडन वगैरह को सुन कर, मेरे क्रिटिसिज्म को सुन कर भी मेरे पास कोई आ रहा है तो मैं समझता हूं कि इस आदमी के साथ कुछ आगे मेहनत की जा सकती है। मैं उसको कहता नहीं कि वह मुझे माने, मेरे खंडन को माने। इसको भी नहीं कहता, लेकिन फिर भी मेरे पास आ रहा है। और मेरे डिस्ट्रक्टिव ढंग से भाग ही नहीं गया है तो मैं समझता हूं कि यह आदमी डिस्ट्रक्शन के लिए तैयार हो सकता है। इसके, इसके भीतर कुछ तोड़ा जा सकता है। और यह आदमी थोड़ी देर टिक सकता है।
अन्यथा हम सबकी मान्यताएं ऐसी हैं कि एक बड़ी कठिनाइयां हैं, बड़े मजेदार मामले हैं। और एक आदमी तो नहीं है कोई। गुजरात में कोई गांधी का भक्त है, कोई माक्र्स का भक्त है; बंगाल में कोई माक्र्स का भक्त है, कोई गांधी का दुश्मन; कोई महावीर का भक्त है, कोई मोहम्मद का। यह, लेकिन इन सबका माइंड एक है। मेरी लड़ाई उस माइंड से है। वह इनको थोड़े दिन, दिन में समझ में आने लगेगा। क्योंकि जब मैं गांधी से लड़ता हूं तो माक्र्सिस्ट मेरे पास आ जाता है। वह कहता है, तो बढ़िया है आप बिलकुल सच बात कहते हैं। साल भर बाद वह एकदम भाग खड़ा होता है, जब मैं माक्र्स के खिलाफ बोलता हूं, तब वह भाग जाता है कि नहीं यह आदमी अब गड़बड़ हो गया है। वह पहले बिलकुल ठीक था। ये पांच-दस वर्ष लगेंगे कि लोग समझेंगेे कि मुझे न माक्र्स से कोई लेना है न गांधी से, इरेलिवेंट हैं ये।
आपके माइंड से मुझे लड़ना है। तो गांधी के भक्त से लड़ना है तो मैं गांधी के खिलाफ बोलूंगा। माक्र्स के भक्त से लड़ना है तो माक्र्स के खिलाफ बोलूंगा। और कई बार इन दोनों में बड़ा कंपिटिशन दिखाई पड़ेगा, दिखाई पड़ेगा ही। क्योंकि माक्र्स के खिलाफ लड़ना है तो और ढंग से लड़ना पड़ेगा, और गांधी के खिलाफ लड़ना है तो और ढंग से लड़ना पड़ेगा।
ये दोनों बातों में कई बार इनकंसिस्टेंसी भी दिखाई पड़ेगी। क्योंकि अगर मुझे एक गंाधी के खिलाफ लड़ना हो तो मैं कंस्सिटेंट हो सकता हूं। मुझे तो एक तरह के माइंड से लड़ना है, वह माइंड जो माक्र्स को पकड़ लेता है; गांधी को पकड़ लेता है; बुद्ध को पकड़ लेता है, उस माइंड से लड़ना है। उस माइंड से लड़ने के लिए मुझे नाहक इन विचारों से भी लड़ना पड़ता है। इनसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है।
लेकिन यह लड़ाई करनी पड़ेगी। और अगर सिर्फ महात्मा बन कर रह जाना हो किसी आदमी को तो बहुत सरल है। उससे ज्यादा सरल काम तो है ही नहीं। और हमारे मुल्क में तो उससे ज्यादा सरल काम है ही नहीं। इसलिए इधर जो यह सलाह मित्र देते हैं। इन्हीं मित्रों की सलाह या इन्हीं तरह के सोचने वाले लोग हजारों हैं, उनसे कुछ हो नहीं पाता।

प्रश्नः नहीं, लेकिन मैं यह कहता हूं कि हर एक व्यक्ति अपनी-अपनी परिस्थिति की पैदाइश है। मान लीजिए कि महावीर और गांधी सब अपनी-अपनी परिस्थिति और अपने-अपने विषय पर संतुष्ट हैं, उनकी एक पैदाइश है। तो विचारों के साथ अगर झगड़ना ही है तो फिर व्यक्ति निरपेक्ष विचारों के साथ अगर झगड़ा जाए तो अच्छा नहीं होगा, क्योंकि कभी-कभी होता है कि इंसान को कभी हमारे अनजानेपन से अन्याय भी हो सकता है?

सवाल यह नहीं है, सवाल यह है, एक तो यह कि यह हमारा जो, जो सोचने का ढंग है--व्यक्ति को अलग करें, विचार को अलग करें, यह सही नहीं है। गांधी के सब विचार अलग कर लें तो गांधी में बचता क्या है? कुछ भी नहीं बचता। यह मोहनदास नाम का आदमी किसी मतलब का... इससे कुछ लेना-देना...। यह आदमी जो कुछ भी है वह एक इक्ट्ठा जोड़ है। और गांधी के व्यक्तित्व को अलग कर लें तो विचारों में क्या बचता है? क्योंकि बापू ने बहुत विचार रखे, वह एक मुर्दा किताब रह जाएगी।
व्यक्ति और विचार ऐसी कोई दो चीजें नहीं हैं। व्यक्ति ही विचार है, विचार ही व्यक्ति है। बस अस्तित्व में तो इकट्ठे हैं। इसलिए हम एक से नहीं लड़ सकते हैं। हालांकि वह भी चालाकी की जाती है। वह चालाकी की जाती है कि नहीं? गांधी के व्यक्तित्व को तो हमें कोई मतलब नहीं है। मेरा तो इस विचार से विरोध है। पूरे विचार से नहीं, इस विचार से विरोध है। ये सब आत्म-रक्षा के उपाय हैं।
दूसरी बात कि सब अपनी परिस्थिति की उपज हैं। लेकिन वही परिस्थिति रावण भी पैदा करती है और वही परिस्थिति राम भी पैदा करती है। आज परिस्थिति दुनिया में एक है, लेकिन तीन अरब आदमी हैं। तीन अरब ढंग के आदमी। माना कि वे परिस्थिति की उपज होते हैं, लेकिन एकदम परिस्थिति की ही उपज नहीं होते। हम भी रोपे, जो परिस्थिति को उपजाता रहता है, वह भी होता है हमारे जीवन में। परिस्थिति ही हमारा चुनाव है। परिस्थिति को भी हम बदलते हैं। परिस्थिति को बदलने में अपने गुण बदलते हैं और निर्धारक होते हैं। तो कोई व्यक्ति निपट परिस्थिति की उपज नहीं है।
तीसरी बात, जब महावीर के, के विरोध में कुछ कह रहा हूं या बुद्ध के या किसी के भी, तो असली सवाल महावीर-बुद्ध से नहीं है। अगर दुनिया में अनुयायी न रह जाएं तो मैं बुद्ध-महावीर की बात ही बन्द कर दूं। मुझे उनसे तो कुछ लेना ही देना नहीं है। जिस दिन दुनिया अच्छी होगी और अनुयायी नहीं होंगे, समझदार लोग होंगे। क्योंकि अनुयायी सिर्फ नासमझ ही हो सकते हैं। जिस दिन दुनिया समझदार होगी और अनुयायी नहीं होंगे, महावीर को लोग पढ़ेंगे और समझेंगे, बुद्ध को पढ़ेंगे-समझेंगे, लेकिन कोई किसी का अंधा अनुयायी नहीं होगा। उस दिन मेरे जैसे आदमी को बड़ी सुविधा हो जाएगी। हमें महावीर, बुद्ध की बात ही नहीं करनी पड़ेगी। उन्हें बीच में लाने का कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता है। उनसे आज भी कोई प्रयोजन नहीं है। आज भी प्रयोजन आप से है। गांधीवादी से है, बुद्धवादी से है। यह जो वादी का चित्त है, यह वादी का चित्त कहता है कि आपको जो कहना है वह आप कहो, हमारी बात को मत छेड़ो। हमारे गुरु को मत छेड़ो।
हमें उसके गुरु से...लेकिन ऐसा हो सकता है, वह तो मर चुका। उसको हमारे छेड़ने से कोई जरूरत ही नहीं। हम उसके गुरु को मारने जा नहीं रहे, वह हमारे बिना ही मर गया। हम इसे छेड़ने जा रहे हैं, लेकिन अगर इसका गुरु न छेड़ा जाए तो यह आदमी नहीं छिड़ता। ये अपने दरवाजे पर गुरु को खड़ा किए हुए हैं। ये अपने दरवाजे पर झंडा लगाए हुए हैं गुरु का। यह कहता है कि इस झंडे को बस मत उतारो। और यह इसका सुरक्षा-कवच है।
यह झंडा उतारना पड़ेगा, यह लड़ाई लेनी पड़ेगी। मेरी अपनी जो दृष्टि है, मेरी जो दृष्टि है वह यह है कि व्यक्ति का आमूल जो रूपांतरण है, उस आमूल रूपांतरण में उसके विचार की प्रक्रिया से, उसके वाद के ढंग से, उसकी आइडियालाॅजी से उसकी पकड़, वह जो किं्लगिंग है उसकी, उसको तोड़ना पड़ेगा। अगर हम उसे किसी तरह अपरूट नहीं कर पाते हैं उसकी जड़ों से, तो हम उसे नई जड़ों पर नहीं ले जा सकते हैं। उसका कोई उपाय नहीं है। और इसलिए वक्त... मेरी बात में हमेशा देर लगने वाली है, देर लगेगी ही स्वभावतः। वह स्वाभाविक है।

प्रश्नः लेकिन यह आपने कहा न कि दो साइड हो गई। जो अटैक करता है और जिनके ऊपर अटैक किया जाता है। तो आत्म-रक्षा का प्रबंध और शायद कोई अगर इससे अच्छा शब्द मुझे मिल सके तो मुझे आनंद होगा लेकिन आत्म-श्लाघा का प्रपंच, वह दोनों के बीच में एक छोटी सी एक लकीर है, कहां पर उसका जजमेंट कैसे निकालना, कि अगर आप कुछ कहते हैैं कि मैं कुछ कहूं कि किसी ने भी कहा, तो एक और कह सकते हैं, कि गांधीवादी या तो बिनोवावादी या तो महावीरवादी यह इनकी आत्म-रक्षा का प्रबंध है, क्योंकि ये करते हैं। कोई आपके लिए भी ऐसा कह सकता है, कि वह रजनीश, जिसका आत्म-श्लाघा का प्रपंच है ?

मैं समझ गया। मैं समझ गया। नहीं, मैं कहता नहीं कि हम जजमेंट लगाएं या हम अलग करें या उस चिंता में पड़ें। इसलिए नहीं कहता हूं कि अगर मैं किसी दिन किसी के पास पूछने जाऊं कि मुझे शांति चाहिए, मुझे आनंद चाहिए, मुझे सत्य चाहिए। तभी सवाल उठता है। वह जो महावीरवादी है अगर उसकी आत्म-रक्षा का उपाय नहीं है और महावीर से उसने कुछ पा लिया है, तब उसकी खोज बंद हो जाती है। लेकिन मैं मानता हूं वह है महावीरवादी, आया मेरे पास है। मैं उसके पास नहीं गया। यानी अगर मैं अगर आत्म-श्लाघा में जी रहा हूं तो यह मेरा (अस्पष्ट)...बंद हो जाए। इसमें किसी को क्या लेना-देना? मेरी जो, मजे की बात है न, वह महावीरवादी आया है मेरे पास। अभी जैन मुनि मेरे पास आते हैं, अब वे कहते हैं कि मैं आचार्य तुलसी का दीक्षित साधु हूं, ध्यान सिखाइए। मैं उनको कहता हूं, आचार्य तुलसी से क्या सीखा है? दीक्षा किसलिए ली, औैर दीक्षा ले ली और ध्यान भी नहीं आया तो दीक्षित हुए कैसे?
अब यह बड़े मजे की बात है क्योंकि अगर, अगर सीधी तो बात यह है कि अगर महावीर से कुछ मिल गया है तो अब मेरे पास आने का कोई अर्थ ही नहीं है। बात खत्म हो गई। अगर गांधी से तुम्हें ज्ञान मिल गया है तो मजा करो। इससे कुछ लेना-देना नहीं। लेकिन मिला नहीं है, खोज जारी है। लेकिन फिर कहते हो कि गांधी को पकड़े रहेंगे। नहीं, मैं गांधी को छुड़वाऊंगा। क्योंकि जिससे नहीं मिला, कृपा करके उसे छोड़ो। मिल गया हो तो मैं नहीं कहता, मैं कभी आऊंगा नहीं कहने घर। इसलिए मैं, मेरा जो निरंतर खयाल है वह इतना ही है कि नहीं मिलता है जहां से, वहां भी हम पकड़े रहना चाहते हैं। अच्छा, फिर मुझसे भी यही चाहते हैं कि मैं भी उसमें थोड़ा एडीशन बन जाऊं। यानी मजेदार है मामला है न। मुझसे भी कुछ सीख कर जाएं, समझ कर जाएं, वह भी गांधीवाद में ही एडीशन होने वाला है।
तो इसलिए मैं तो इसमें अगर यह मेरी आत्म-श्लाघा है, हो सकती है, तो यह मेरा नरक बनेगी। अगर यह आपकी आत्म-रक्षा है तो यह आपका नरक बनेगी। और हमें सोच लेना चाहिए कि हम क्या बना रहे हैं उसको? और यह इतनी निकट वैयक्तिक है बात...इसलिए निर्णय का कोई उपाय भी नहीं है। इसके लिए मैं हो सकता है कि मैं सिर्फ अपनों को, सबको धोखा दे रहा हूं। लेकिन तब इसकी दुख और पीड़ा मेरी है। इसकी दुख और पीड़ा किसी की भी नहीं है।
क्योंकि इससे अगर मैं कुछ खो रहा हूं जो मुझे गांधी को पकड़ने से मिल सकता था, तो मैं उसे खोने को तैयार हूं। उसमें कोई कठिनाई नहीं है। मुझे महावीर को पकड़ने में जो शांति मिल सकती थी, वह मुझे लेने की इच्छा नहीं है। और अगर मैं अशांत हूं तो ज्यादा दिन यह आत्म-श्लाघा चल नहीं सकती। क्योंकि अगर आप भी अपनी अशांति से परेशान होंगे, मैं नहीं होऊंगा। आप अपने दुख से पीड़ित होंगे, मैं अपने दुख से पीड़ित नहीं होऊंगा। आप तो अपना नरक मिटाने की कोशिश में लगे हैं, मैं अपना नरक बनाता रहूंगा। कितनी देर तक यह चलेगा, यह कैसे चल सकता है? यह असंभव है।
इधर मुझे निरंतर सवाल उठता ही है। जो लोग भी सोचते हैं, उठेगा ही। पर मेरा मानना यह है कि इसके निर्णय की हमें जरूरत ही नहीं है। यह तो हमारे अपने सोचने की बात है। मैं जो पकड़े हुए हंू उससे अगर मुझे कुछ मिल रहा है तो बात खत्म हो गई। और अगर नहीं मिल रहा है तो मैं कहता हूं कि कृपा कर इसे छोड़ो। इससे पहले कि कुछ और तुम्हारी जिंदगी में उतर सके, तुम इसे छोड़ो। और उसे छुड़ाने की लड़ाई ही कष्टपूर्ण बनती है। और जब मैं देखता हूं कि आप छोड़ने को भी तैयार नहीं हैं तो मैं मानता हूं कि नये को पाने की सामथ्र्य आपकी नहीं है। इसलिए मैं उधर से हिसाब ही छोड़ देता हूं।
यानी उचित है न यह। उचित है कि मैं एक जगह कुआं खोदने गया हूं। तो मैं कुदाली मार कर देख रहा हूं, अगर पत्थर ही है सामने और कुदाली पत्थर पर ही पड़ती है तो बेहतर है कि मैं दूसरी जगह खोदूं। इतनी मेहनत क्यूं करूं? अन्यथा जो आप कह रहे हैं, अगर वह उस तरह किया जाए तो मुझे अकारण फिजूल लोगों पर मेहनत करनी पड़ेगी। ये वे लोग होंगे जो बदलना नहीं चाहते। और जिनको मैं बदलने की कोशिश करता रहूंगा। अब यह मुझे धीरे-धीरे साफ होता चला जाता है कि इस भांति सहज ही वे लोग मेरे पास आ पाते हैं, जिनकी बदलने की आतुरता है। जिनमें बदलने का साहस है और जो कुछ भी छोड़ने को तैयार हैं।
क्योंकि जो विचार ही छोड़ने को तैयार नहीं, वे कुछ और भी छोड़ पाएंगे, यह बहुत मुश्किल मामला है। क्योंकि विचार से ज्यादा निकम्मी चीज कुछ और है नहीं। यानी सिर्फ शब्द ही शब्द हैं, उसको भी छोड़ने में जो आदमी घबड़ा रहा है, वह कुछ और सब्स्टेंशियल छोड़ पाएगा किसी दिन, इसकी आशा बांधनी बहुत मुश्किल है। तो मेरे लिए तो वह परीक्षा का उपाय भी बन गया है। यानी मैं तो मानता यह हूं कि उससे मुझसे छंट जाते हैं लोग। वे ही लोग बच जाते हैं जिनके साथ मेहनत करनी ठीक होगी। और, और मैं सब तरह से उनको छांटता ही रहता हूं। क्योंकि मैं अकारण, अकारण मेहनत करने की मेरी उत्सुकता नहीं। क्योंकि असल में मेरी सीमा है। सबकी सीमाएं हैं।
सारी दुनिया को मैं बदल नहीं सकता। सारी दुनिया को बदलने का खयाल भी नहीं करना चाहिए। जितनी मेरी शक्ति है वह अधिकतम उपयोग में आ जाए, यह मुझे खयाल होना चाहिए। इस मामले को, यह एक अर्थ में सनातन है बहुत, और यह रोज उठता रहा है, और सदा उठेगा। क्योंकि आसान मेरे लिए भी वही है। आसान मेरे लिए भी वही है कि मेरे लिए भी लाख आदमी सुन सकते हैं। अगर मैं उन सबके अहंकारों की किसी तरह की तृप्ति कर रहा हूं, या तृप्ति नहीं कर रहा हूं सिर्फ चोट ही नहीं पहुंचा रहा हूं, इतनी ही तृप्ति ही कर रहा हूं तो मुझे लाखों लोग सुन सकते हैं। लेकिन मैं लाखों लोगों को सुना कर भी क्या करूंगा? मैं दस आदमियों को सुनाना पसंद करूंगा जो कि बदलने के लिए तैयार रहें। ये लाख आदमी सुन कर ताली बजा कर चले जाएंगे, लेकिन इससे क्या होने वाला है? वह रोज चल रहा है, वह रोज चल रहा है।
इधर मेरी अपनी समझ यह है कि जैसे गांधी जी ने पूरा प्रयोग किया ही वही का वही, जो सलाह मुझे मित्र देते हैं। गांधी जी ने पूरी जिंदगी वही किया। अल्लाह-ईश्वर तेरे नाम को भी इकट्ठा कर लिया, गीता-कुरान को भी इकट्ठा कर लिया, मुसलमान को भी बदल दें, हिंदू को भी बदल दें, ईसाई को भी बदल दें। सबको तृप्ति भी दे दें कि तुम्हारी किताब में भी वही, हमारी किताब में भी वही। किसी के खिलाफ न बोलें, सबके पक्ष में बोलें। यह पूरी जिंदगी प्रयोग किया।
पर मैं नहीं मानता हूं कि दस-बीस आदमी की जिंदगी भी बदल पाए। खुद की भी बदल पाए, यह भी मैं नहीं मानता हूं। क्योंकि मेरा खयाल है कि अगर खुद को भी बदल पाते तो यह बात बहुत साफ हो जाती है कि यह जो गोरखधंधा वह कर रहे हैं, यह संभव नहीं है। यह महावीर और बुद्ध और क्राइस्ट ने नासमझी नहीं की है। ठीक जो हो सकता था, वही किया है। नहीं तो बुद्ध भी कह सकते थे कि महावीर भी वही कहते हैं; उपनिषद भी वही कहते हैं; गीता भी वही कहती है; सभी वही कहते हैं; वही मैं कहता हूं। इसमें हर्ज क्या था कहने में? यह बराबर कहा जा सकता है। लेकिन मैं मानता हूं कि बुद्ध, शायद लाख-दो लाख लोग, दस लाख लोग उनको सुन लेते। लेकिन आपको नाम भी खयाल में न होता बुद्ध का। लेकिन कुछ लोग उनमें बदले। और वे कुछ बदले हुए लोग ही काम पर हैं।
हर आदमी काम करता है। उसे कोई मतलब भी नहीं। तो मेरी उत्सुकता किसी तरह के नेतृत्व में नहीं है। और किसी तरह के परसुएशन में नहीं है। सीधी-साफ आॅनेस्ट बात होनी चाहिए। मुझे जो लगता है कि आप गलत हैं तो मैं पूरी चोट से कहूंगा। और मैं मानता हूं कि अगर आप अपनी किसी तरह की आत्म-रक्षा के उपाय में नहीं लगेंगे तो आप समझ पाएंगे। अगर लगे हैं तो जल्दी ही आपसे मेरा छुटकारा हुआ। ज्यादा समय आप मेरा जाया नहीं करेंगे।
अभी मैं, देखा न कि क्या हुआ कि मुझे जो गांधीवादी बहुत शुभ-शुभ सुनता था, अब मैं मानता हूं उसने मुझे कभी नहीं सुना। क्योंकि मुझे वह वर्षों से सुनता था, कैंपों में आता था, ध्यान के लिए बैठता था, मैं गांधी के खिलाफ बोला तो वह भाग गया। अब मैं सोचता हूं कि वे कई वर्ष जो मैंने उसके साथ मेहनत की, वह बेकार गई। मुझे गांधी के खिलाफ पहले ही बोल देना था।
मेरे अपने तौलने के ढंग हैं। यह मानता हूं कि मेरा समय व्यर्थ गया, क्योंकि वह आदमी तो भाग गया। और वर्षों ध्यान करके और वर्षों मुझे सुन कर भी वह इतनी हिम्मत न जुटा पाया कि इतनी आलोचना सह लेता। तो वह बेकार समय जाया हुआ। मैं और वर्षों उसको सुनाए जा सकता था, गांधी के खिलाफ भर नहीं बोलता। वह भी समय जाया होने वाला था। इधर मेरी अपनी यह समझ है, मेरा मानना ऐसा है कि जो आदमी बदलने की तैयारी पर खड़ा है, वह आदमी सब तरह की चोट झेलने की भी तैयारी पर खड़ा होता है।

प्रश्नः ठीक है लेकिन कभी-कभी ऐसा होता है कि विश्राम का काल भी होता है न। कि अगर मान लीजिए जिनको आप मानते हैं कि यानी अगर गांधी की बात आप करने लगे तो वे लोग चले गए, वैसा नहीं है। शायद कभी-कभी होता है कि कोई चोट ऐसी लगती है कि अगर ठेस इधर लग गई तो मैं चल सकता हूं, लेकिन अगर यहां लग गई तो मुझे जरा कुछ पांच-दस मिनट, पंद्रह मिनट कुछ ठहरना पड़ सकता है। ऐसा नहीं है कि वे लोग छोड़ गए, इतना ही है कि विश्राम का काल है वे फिर से वापस आ सकते हैं।

नहीं, यह मैं नहीं कहता। वे अगर लौट भी आएंगे तो मैं मानता हूं कि वे पहले से बेहतर हालत में होंगे। क्योंकि अब वे लौटेंगे तो इस बात को जानते हुए लौटेंगे कि मैं उनको चोट पहुंचा सकता हूं। अब मेरे बाबत वे साफ लौटेंगे, तो भी हितकर होगा। वे दूसरे ही आदमी होकर लौटेंगे। अब अगर वे लौटते भी हैं, लौट रहे हैं। कुछ मित्र लौटे हैं वापस, तो अब वे एक बात साफ करके लौट रहे हैं कि मैं किसी तरह से उनको परसुएड करने में उत्सुक नहीं हूं। और मैं मानता हूं अंत में यह बल बनेगा। अगर मैं आपको किसी तरह परसुएड नहीं कर रहा, किसी तरह आपमें इस तरह की उत्सुकता नहीं ले रहा कि किसी भी हालत में आपको राजी होना हो। तो मैं मानता हूं मेरे और आपके बीच ज्यादा सिंसियर संबंध पैदा होंगे। क्योंकि एक तरह का धोखा ही है वह।
अगर मैं गांधी के खिलाफ वह नहीं बोलता, तो भी धोखा ही दे रहा हूं। अगर एक आदमी मेरे पास आता है और मैं कुरान के खिलाफ, यह देख कर कि चूंकि वह मुसलमान है, इसलिए कुरान के खिलाफ नहीं बोलता तो भी मैं धोखा दे रहा हूं। मेरे बीच उसके संबंध कभी आॅनेस्ट नहीं हो सकते। मैं जो हूं, मुझे साफ है। तो अब तो धीरे-धीरे मैं ऐसी स्थिति बना लूंगा दो साल में कि मैं जैसा हूं, वैसा साफ हूं। बुरा-भला जैसा। आप आते हैं तो सब जान कर आते हैं। इसलिए आपके लौटने का उपाय कम हो जाएगा।
अभी पीछे दिक्कत थी, लौट जाने का डर सदा बना रहता था। वह, वह कठिनाई थी। अब वह मैं मिटा लेता हूं बिलकुल। तो उसमें सीधा-साफ मामला हो जाएगा। आप जान कर आते हैं कि मैं ऐसा आदमी हूं। मेरे साथ दो घंटे अगर बैठना है तो यह सब संभावना है। तो मैं मानता हूं कि हम कुछ काम कर पाएंगे। और संबंध हार्दिक हो पाएंगे। और नहीं तो नहीं हो पाएंगे। और छोटे से छोटे लोग ही नहीं, बड़े-बड़े लोगों के साथ ऐसी हालत है।
एक बड़े संत अपने आश्रम में रोज मेरी किताबों का पाठ करते थे वर्षों से। और बैठ कर सारे साधकों को समझाते थे। गांधी के विपरीत बोला तो वे सब किताबें वहां से हटा दी गईं। वे किताबें वही हैं, उनमें मैंने कोई फर्क नहीं कर दिया है। मगर मैं गांधी के विपरीत बोला तो उनके लिए सारा गड़बड़ हो गया। अब मैं मानता हूं कि वह अच्छा ही हुआ। कि वह नाहक ही मेहनत कर रहे थे। वह मेरी किताब नहीं समझ पाएंगे। वह भूल-चूक की बात चल रही थी। तो कठिनाई तो है ही इसमें, लंबा भी वक्त लेती है यह बात। लेकिन थोड़ा सा भी जो काम हो पाएगा, वह होगा। लगेगा कि काम हुआ। और अन्यथा काम नहीं हो पाएगा। फैलाव बहुत दिखेगा, कुछ हो नहीं पाएगा उससे। उससे कुछ निकलेगा नहीं।

प्रश्नः आपका जो आंदोलन है, प्रवृत्ति वगैरह है, तो इनका व्यक्ति के ढंग से अगर देखा जाए, तो आखिरी मकसद क्या है? और समाज की दृष्टि से देखा जाए, तो एम, इसका मकसद क्या है? आप क्या, अल्टीमेटली कहां जाना चाहते हैं?

दोनों ही दृष्टि से एक ही, एक ही बात है। व्यक्ति की दृष्टि से भी, समाज की दृष्टि से भी। व्यक्ति की जितनी संभावना है आनंद पाने की, वह प्रकट नहीं हो पाएगी। नहीं हो पा रही है। कभी इक्के-दुक्के आदमी में प्रकट हुई है। बड़े व्यापक पैमाने पर वह प्रकट नहीं हुई है। और उसकी जो आनंद की संभावना प्रकट न हो तो वह जिस समाज को निर्मित करता है, वह भी दुख का समाज ही होता है। इसलिए मेरे लिए तो एक ही है दोनों के पीछे कि व्यक्ति अधिकतम आनंद को कैसे उपलब्ध हो? जिस रास्ते से मुझे लगता है कि आनंद है, जिस रास्ते से मुझे आनंद मिलता है, वह मैं आपसे कह देना चाहता हूं। अपेक्षा बिलकुल नहीं है मेरी कि आप उसको मानें ही। मेरा कर्तव्य पूरा हो जाता है।
यानी मुझे अगर दिखाई पड़ रहा है कि जिस जगह मैं खड़ा हूं वहां से रोशनी दिखाई पड़ती है। और आप अगर दो इंच हट आएं अपनी जगह से तो इतनी ही रोशनी के मालिक हो सकते हैं। तो मैं दो इंच हटाने की आपको कोशिश कर रहा हूं। इसमें भी आप पर मेरी कोई दया नहीं है। इसमें भी आनंद बंटने से मुझे आनंद मिलेगा, उतनी ही बात है। आप पर कोई करुणा नहीं, आपसे कुछ लेना-देना नहीं है। इधर मेरा अनुभव ऐसा है कि आनंद मिलेगा, तो आनंद मिलता ही है।
जब हम उस आनंद को बांटें, तो वह करोड़ गुना हो जाता है। तो मैं अपने आनंद को करोड़ गुना कर रहा हंू। कितने ज्यादा लोगोें को वह मिल सकेगा, उतना ज्यादा मुझे मिल जाएगा। और अल्टीमेट का कोई खयाल नहीं। इमिडिएट पर मेरी सदा नजर है। यानी मेरा मानना है, अभी मिल सकता है आपको। जरा से अंतर की जरूरत है। जहां आप खड़ें हैं, वहां से शायद थोड़ा ही रुख बदलने की बात है। और वह आपको मिल सकता है।
तो जितने लोग मेरे निकट जाएंगे, उनको मैं वह कहता चला जाऊंगा। अगर वे राजी हों तो उनको घुमा कर खड़ा करने की भी तैयारी है। मैं उनको घुमा कर उस तरफ रुख कर दूं, जहां रोशनी मुझे मालूम पड़ती है। जिस तरफ उन्होंने आदतवश ही कभी देखा नहीं है। इससे मुझे आनंद मिल रहा है। इससे आपको मिलेगा, नहीं मिलेगा, ऐसा मुझे पक्का नहीं। मैं आपको घुमा ही पाऊंगा, यह भी जरूरी नहीं। लेकिन मैंने आपको घुमाने की कोशिश की, उससे भी मैं आनंदित हूं। और व्यक्ति बदले तो मेरे लिए समाज भी बदलता है।

प्रश्नः आप जिस दृष्टि सेे एक प्रेम के माध्यम से चलते हुए समाज की कल्पना करते हैं, वैसे समाज में भी तो कोई पैटर्न उसकी रहेगी, क्या कुछ रेगुलेशंस वगैरह भी रहेंगे? नियंत्रण वगैरह कुछ रहेगा कि नहीं?

इस पर हम कल-परसों बात करेंगे।

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