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शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

तंत्र-सूत्र-(भाग-5)-प्रवचन-72

असुरक्षा में जीना बुद्धत्व का मार्ग है-

प्रश्नसार-

1-कृपया बुद्ध के प्रेम को समझाएं।
2-क्या प्रेम गहरा होकर विवाह नहीं बन सकता?
3-क्या व्यक्ति असुरक्षा में जीते हुए निशिंचत रह सकता है?
4-अतिक्रमण की क्या अवश्यकता है?
पहला प्रश्न :
 आपने कहा कि प्रेम केवल मृत्यु के साथ ही संभव है। फिर क्या आप कृपया बुद्ध पुरुष के प्रेम के विषय में समझाएंगे?
व्यक्ति के लिए तो प्रेम सदा घृणा का ही अंग होता है सदा घृणा के साथ ही आता है। अज्ञानी मन के लिए तो प्रेम और घृणा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अज्ञानी मन के लिए प्रेम कभी शुद्ध नहीं होता। और यही प्रेम का विषाद है क्योंकि वह घृणा जो है, विष बन जाती है। तुम किसी से प्रेम करते हो और उसी से घृणा भी करते हो।

लेकिन हो सकता है, तुम घृणा और प्रेम दोनों एक साथ न कर रहे होओ तो तुम्हें कभी इसका पता ही नहीं चलता। जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम घृणा वाले हिस्से को भूल जाते हो वह नीचे चला जाता है, अचेतन मन में चला जाता है और वहां प्रतीक्षा करता है। फिर जब तुम्हारा प्रेम थक जाता है तो वह अचेतन में गिर जाता है और घृणा वाला हिस्सा ऊपर आ जाता है।
फिर तुम उसी व्यक्ति से घृणा करने लगते हो। और जब तुम घृणा करते हो तो तुम्हें पता भी नहीं होता कि तुम प्रेम भी करते हो, अब प्रेम गहरे अचेतन में चला गया है। यह चलता रहता है बिलकुल दिन और रात की तरह यह एक वर्तुल में चलता चला जाता है। यही विषाद बन जाता है।


लेकिन एक बुद्ध, एक जाग्रत व्यक्ति के लिए दुई, द्वैत मिट जाते हैं। सब तरफ-न केवल प्रेम के ही संबंध में बल्कि पूरा जीवन एक अद्वैत बन जाता है। फिर कोई दुई नहीं रहती, विरोधाभास नहीं बचता।
तो वास्तव में, बुद्ध के प्रेम को प्रेम कहना ठीक नहीं है, लेकिन हमारे पास और कोई शब्द नहीं है। बुद्ध ने स्वयं कभी प्रेम शब्द का उपयोग नहीं किया। उन्होंने करुणा शब्द का उपयोग किया। लेकिन वह भी कोई बहुत अच्छा शब्द नहीं है। क्योंकि तुम्हारी करुणा सदा तुम्हारी क्रूरता के साथ संबंधित है, तुम्हारी अहिंसा सदा तुम्हारी हिंसा के साथ संबंधित है। तुम कुछ भी करो उसका विपरीत सदा ही साथ होगा। तुम विरोधाभासों में जीते हो; इसीलिए तनाव, दुख और संताप होते हैं।
तुम एक नहीं हो, तुम हमेशा बंटे हुए हो। तुम बहुत से खंडों में बंटी हुई एक भीड़ हो। और वे सब खंड एक-दूसरे का विरोध कर रहे हैं। तुम्हारा होना एक तनाव है; बुद्ध का होना एक गहन विश्राम है। स्मरण रखो, तनाव दो विरोधी ध्रुवों के बीच में होता है, और विश्राम होता है ठीक मध्य में, जहां दो विरोधी ध्रुव विरोधी नहीं रहते। वे एक-दूसरे को काट देते हैं, और एक रूपांतरण घटित होता है।
तो बुद्ध का प्रेम उससे मूलत: भिन्न होता है, जिसे तुम प्रेम जानते हो। तुम्हारा प्रेम तो एक बेचैनी है; बुद्ध का प्रेम है पूर्ण विश्राम 1 उसमें मस्तिष्क का कोई भाग नहीं होता, इसलिए उसका गुणधर्म पूर्ण्त: बदल जाता है। बुद्ध के प्रेम में ऐसा बहुत कुछ होगा जो साधारण प्रेम में नहीं होता।
पहली बात तो यह कि वह ऊष्ण नहीं होगा। ऊष्णता आती है घृणा से। बुद्ध का प्रेम वासना नहीं, करुणा होता है; ऊष्ण नहीं, शीतल होता है। हमारे लिए तो शीतल प्रेम का अर्थ होता है कि इसमें कुछ कमी है। बुद्ध का प्रेम शीतल होता है, उसमें कोई ऊष्णता नहीं होती 1 वह सूर्य की तरह नहीं होता, चांद की तरह होता है। वह तुम में उत्तेजना नहीं लाता, वरन एक गहन शीतलता निर्मित करता है।
दूसरे, बुद्ध का प्रेम वास्तव में कोई संबंध नहीं होता, तुम्हारा प्रेम एक संबंध होता है। बुद्ध का प्रेम तो उनके होने की अवस्था ही है। असल में वह तुम्हें प्रेम नहीं करते वह प्रेम ही हैं। यह भेद स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। यदि तुम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हो तो तुम्हारा प्रेम एक कृत्य होता है, तुम कुछ करते हो, कोई निश्चित व्यवहार करते हो, कोई संबंध कोई सेतु निर्मित करते हो। बुद्ध का प्रेम तो बस उनका होना ही है, बस ऐसे ही वह हैं। वह तुम्हें प्रेम नहीं कर रहे, वह प्रेम ही हैं। वह तो बगीचे में खिले फूल की तरह हैं। तुम उधर से गुजरी, और सुगंध तुम तक पहुंच जाती है। ऐसा नहीं है कि फूल विशेष रूप से तुम तक सुगंध पहुंचा रहा है; जब कोई नहीं भी गुजर रहा था, तब भी वहां सुगंध थी। और यदि कभी भी कोई नहीं गुजरे, तब भी सुगंध रहेगी।
जब तुम्हारा प्रेमी तुम्हारे साथ नहीं होता, तुम्हारी प्रेमिका तुम्हारे साथ नहीं होती, प्रेम विदा हो जाता है, सुवास नहीं रहती। यह प्रेम तुम्हारा प्रयास है, तुम्हारा होना मात्र नहीं है। इसे लाने के लिए तुम्हें कुछ करना पड़ता है। जब कोई भी नहीं है और बुद्ध अकेले अपने बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हैं तो भी वह प्रेम में होते हैं। अब यह जरा अजीब लगता है कि तब भी वह प्रेम में होते हैं। वहां कोई भी नहीं है जिसे प्रेम किया जाए लेकिन फिर भी वह प्रेम में हैं। यह प्रेमपूर्ण होना उनकी अवस्था है। और क्योंकि यह उनकी अवस्था है, इसलिए उसमें तनाव नहीं होता। बुद्ध अपने प्रेम से थक नहीं सकते।
तुम थक जाओगे, क्योंकि तुम्हारा प्रेम ऐसा है जिसे तुम कर रहे हो। तो यदि बहुत प्रेम होता है तो प्रेमी एक-दूसरे से थक जाते हैं। वे थक जाते हैं, और दोबारा ऊर्जा से भरने के लिए उन्हें अवकाश की, अंतराल की जरूरत पड़ती है। यदि तुम चौबीस घंटे अपने प्रेमी के साथ रहो तो वह ऊब जाएगा, क्योंकि इतना ध्यान देना बहुत अधिक हो जाएगा। कुछ भी चौबीसों घंटे करते रहना अति हो जाती है।
बुद्ध कुछ कर नहीं रहे, वह अपने प्रेम से थकते नहीं हैं। यह तो उनका होना ही है, यह तो ऐसे ही है जैसे वह श्वास ले रहे हों। जैसे तुम श्वास लेने से कभी थकते नहीं, अपने होने से कभी थकते नहीं, ऐसे ही वह भी कभी अपने प्रेम से थकते नहीं।
और तीसरी बात यह है कि तुम्हें पता चलता है कि तुम प्रेम कर रहे हो, बुद्ध बिलकुल पता नहीं होता। क्योंकि पता चलने के लिए विपरीत की आवश्यकता होती है। तो प्रेम से इतने भरे हैं कि उन्हें पता ही न चलेगा। यदि तुम उनसे पूछो तो वह कहेंगे, 'मैं तुमसे प्रेम करता है।' लेकिन इसका उन्हें पता नहीं होगा। प्रेम इतना चुपचाप उनसे बह रहा है, उनका इतना अंतरंग हिस्सा बन गया है, कि उन्हें इसका पता हो ही नहीं सकता।
तुम्हें पता चलेगा कि वह प्रेम करते हैं, और यदि तुम खुले तथा ग्रहणशील हो तो तुम्हें अधिक पता चलेगा कि वह तुम्हें और भी प्रेम करते हैं। तो यह तुम्हारी क्षमता पर निर्भर करता है कि तुम कितना ग्रहण कर सकते हो। लेकिन उनकी तरफ से यह कोई भेंट नहीं है। वह तुम्हें कुछ दे नहीं रहे हैं ऐसे वह हैं ही, यही उनका होना है। जब भी तुम अपने समग्र अस्तित्व के प्रति जागते हो, प्रबुद्ध होते हो मुक्त होते हो, तो तुम्हारे जीवन से विरोधाभास मिट जाता है। फिर कोई द्वैत नहीं रहता। फिर जीवन एक लयबद्धता बन जाता है कुछ भी किसी भी चीज के विरुद्ध नहीं होता।
इस लयबद्धता के कारण एक गहन शांति घटित होती है, कोई अशांति नहीं रहती। अशांति बाहर पैदा नहीं होती, तुम्हारे भीतर ही होती है। विरोधाभास ही अशांति पैदा करता रहता है, जब कि बहाने तुम बाहर खोज ले सकते हो। उदाहरण के लिए जरा गौर से देखो कि अपने प्रेमी या किसी मित्र, किसी गहन, अंतरंग, निकटस्थ मित्र के साथ होने पर तुम्हें क्या होता है। उसके साथ रहो और बस देखो कि तुम्हें क्या हो रहा है। जब तुम मिलते हो तो तुम बहुत उत्साहित, आनंदित और नृत्यपूर्ण होते हो। लेकिन कितना नृत्य तुम कर सकते हो? और कितने आनंदित तुम हो सकते हो?
कुछ ही मिनटों में तुम नीचे उतरने लगते हो, उत्साह चला जाता है। और कुछ घंटों बाद तो तुम ऊब जाते हो तुम कहीं और भाग जाने की सोचने लगते हो। और कुछ दिनों बाद तो तुम लड़ने लगोगे। जरा गौर से देखो कि क्या हो रहा है। यह सब भीतर से आ रहा है लेकिन तुम बाहर बहाने खोज लोगे। तुम कहोगे कि यह व्यक्ति अब उतना प्रेमपूर्ण नहीं रहा जितना कि जब यह आया था, तब था; अब यह व्यक्ति मुझे अशांत कर रहा है मुझे क्रोधित
कर रहा है। और तुम हमेशा ही कोई बहाना खोज लोगे कि वह तुम्हें कुछ कर रहा है, तुम्हें
कभी भी पता न चलेगा कि तुम्हारा विरोधाभास, तुम्हारे मन का द्वैत या अंतर्द्वंद्व कुछ कर रहा
है। हमें कभी भी हमारे अपने मन के कृत्यों का पता नहीं चल पाता।
मैंने सुना है कि एक बहुत प्रसिद्ध, सुंदर, हालीवुड अभिनेत्री एक स्ट्रडयो में अपना फोटो लेने गई। फोटो एक दिन पहले खींचा गया था। फोटोग्राफर ने फोटो उसे दिया, पर वह तो बहुत नाराज हो गई, तमतमा गई। उसने कहा, 'यह तुमने क्या कर डाला है? पहले भी तुमने मेरे फोटो लिए हैं, पर वे सब कितने गजब के थे !' फोटोग्राफर ने अभिनेत्री को कहा, 'ही, लेकिन आप यह भूल रही हैं कि जब मैंने वे फोटो खींचे थे तो मैं बारह वर्ष छोटा था। मैं तब बारह वर्ष छोटा था, यह आप भूल रही हैं।’
हम भीतर कभी नहीं देखते कि क्या हो रहा है। यदि फोटो तुम्हें ठीक नहीं लग रहा हो तो फोटोग्राफर में कुछ गड़बड़ है। यह नहीं कि बारह वर्ष बीत चुके हैं और अब तुम बड़ी हो गई हो। यह तो एक आंतरिक प्रक्रिया है, फोटोग्राफर का इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है। लेकिन फोटोग्राफर बड़ा बुद्धिमान रहा होगा! उसने कहा, 'आप भूल रही हैं कि मैं तब बारह वर्ष छोटा था।’
बुद्ध का प्रेम बिलकुल भिन्न है, लेकिन उसके -लिए हमारे पास कोई और शब्द नहीं है। सबसे अच्छा शब्द जो हमारे पास है, वह प्रेम ही है। लेकिन यदि तुम यह स्मरण रख सकी तो उसका गुणधर्म बिलकुल बदल जाता है।
और एक बात गौठ बांध लो इस पर गहन विचार करो : यदि बुद्ध तुम्हारे प्रेमी हों तो क्या तुम संतुष्ट ही जाओगे? तुम संतुष्ट नहीं होओगे। क्योंकि तुम्हें लगेगा कि यह प्रेम तो शीतल है इसमें कोई उत्तेजना नहीं है। तुम्हें लगेगा कि वह तुम्हें ऐसे ही प्रेम करते हैं जैसे वह सबको करते है तुम कोई विशेष नहीं हो। तुम्हें लगेगा कि उनका प्रेम कोई भेंट नहीं है वह तो ऐसे है ही इसीलिए प्रेम कर रहे हैं। तुम्हें उनका प्रेम इतना स्वाभाविक लगेगा कि तुम उससे संतुष्ट नहीं होओगे।
भीतर विचार करो। जो प्रेम घृणा-रहित है उससे तुम कभी भी तृप्त नहीं हो सकते। और उस प्रेम से भी तुम कभी तृप्त नहीं हो सकते जिसमें घृणा हो। यही समस्या है। किसी भी तरह तुम अतृप्त ही रहोगे। यदि प्रेम घृणा के साथ है तो तुम अतृप्त रहोगे, सदा रुग्ण रहोगे, क्योंकि वह घृणा का अंश तुम्हें अशांत करेगा। यदि प्रेम घृणा-रहित है तो तुम्हें लगेगा कि यह शीतल है। और बुद्ध को यह इतने स्वाभाविक रूप से घटित हो रहा है कि तुम न भी होते तो भी होता तो यह कोई विशेष रूप से तुम्हारे लिए नहीं है। इसलिए तुम्हारा अहंकार तृप्त नहीं होता। और मुझे ऐसा लगता है कि यदि तुम्हारे सामने किसी बुद्ध और अबुद्ध में से अपना प्रेमी चुनने का सवाल हो तो तुम अबुद्ध को चुनोगे क्योंकि उसकी भाषा तुम समझ सकते हो। अबुद्ध कम से कम तुम्हारे जैसा तो है। तुम लड़ोगे-झगडोगे, सब अस्तव्यस्त हो जाएगा, सब गड़बड़ हो जाएगा, लेकिन फिर भी तुम अबुद्ध को ही चुनोगें। क्योंकि बुद्ध इतने ऊंचे होंगे कि जब तक तुम भी ऊंचे न उठो तुम नहीं समझ पाओगे कि बुद्ध कैसे प्रेम करते हैं।
एक अबुद्ध के साथ, एक अज्ञानी के साथ, तुम्हें स्वयं को रूपांतरित करने की जरूरत नहीं होती। तुम वैसे के वैसे ही बने रह सकते हो। वह प्रेम कोई चुनौती नहीं है। वास्तव में प्रेमियों के साथ बिलकुल विपरीत ही होता है। जब दो प्रेमी मिलते हैं और प्रेम में पड़ते हैं तो वे दोनों एक-दूसरे को विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे बहुत महान हैं। जो भी सर्वोत्तम गुण हैं उन्हें वे बाहर लाते हैं। ऐसा लगता है कि वे शिखर पर हैं। लेकिन इसमें बहुत प्रयास करना पड़ता है! इस शिखर पर तुम टिके नहीं रह सकते। तो जब तुम थोड़े व्यवस्थित होने लगते हो तो धरती पर वापस लौट आते हो।
तो प्रेमी सदा एक-दूसरे से असंतुष्ट रहते हैं क्योंकि उन्होंने सोचा था कि दूसरा तो बस दिव्य है और जब वे कुछ परिचित होते हैं, थोड़ा समय साथ होते हैं, तो सब कुछ धूमिल हो जाता है, साधारण हो जाता है। तो उन्हें लगता है कि दूसरा धोखा दे रहा था।
नहीं, वह धोखा नहीं दे रहा था, वह तो सर्वोत्तम रंगों में स्वयं को प्रस्तुत कर रहा था। बस इतना ही था। वह किसी को धोखा नहीं दे रहा था, वह जान-बूझकर कुछ भी नहीं कर रहा था। वह तो बस अपने सर्वोत्तम रंगों में स्वयं को प्रस्तुत कर रहा था। और ऐसा ही दूसरे ने भी किया था। लेकिन तुम स्वयं को बहुत देर तक इसी तरह प्रस्तुत नहीं कर सकते, क्योंकि यह बड़ा दुष्कर हो जाता है, कठिन हो जाता है, बोझिल हो जाता है। तो तुम नीचे उतर आते है।
जब दो प्रेमी व्यवस्थित हो जाते हैं, जब वे मानने लगते हैं कि दूसरा तो उपलब्ध ही है तब वे बड़े निकृष्ट, बड़े सामान्य, बड़े साधारण दिखाई पड़ने लगते हैं। जैसे वे पहले दिखाई पड़ते थे उसके बिलकुल विपरीत दिखाई पड़ने लगते हैं। उस समय तो वे फरिश्ते थे; अब तो बस शैतान के शिष्य नजर आते हैं। तुम नीचे गिर जाते हो तुम अपने सामान्य तल पर लौट आते हो।
साधारण प्रेम कोई चुनौती नहीं है लेकिन किसी बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ जाना बड़ी दुर्लभ घटना है। केवल बहुत सौभाग्यशाली ही ऐसे प्रेम में पड़ते हैं। यह बड़ी दुर्लभ घटना है। ऐसा तो केवल तभी होता है जब तुम जन्मों-जन्मों से किसी बुद्ध पुरुष की खोज करते रहे होओ। यदि ऐसा हुआ हो, केवल तभी तुम बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ते हो। एक बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ना स्वयं में ही एक महान उपलब्धि है 1 लेकिन फिर एक कठिनाई होती है। कठिनाई यह है कि बुद्ध पुरुष एक चुनौती है। वह तुम्हारे तल पर तो उतर नहीं सकता, ऐसा संभव ही नहीं है, यह असंभव है। तुम्हें ही उसके शिखर पर जाना होगा; तुम्हें यात्रा करनी होगी, तुम्हें रूपांतरित होना होगा।
तो यदि तुम किसी बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ जाओ तो प्रेम एक साधना बन जाता है। प्रेम साधना बन जाता है महानतम साधना बन जाता है। इसी कारण से जब भी कोई बुद्ध होते हैं, या कोई जीसस, या कोई लाओत्से तो उनके आस-पास बहुत से लोग एक ही जन्म में उन शिखरों पर पहुंच जाते हैं जहां वे कई जन्मों में भी न पहुंच पाते। लेकिन इसका सारा राज इतना है कि वे प्रेम में पड़ सकें। यह अकल्पनीय नहीं है, कल्पनीय है। हो सकता है तुम बुद्ध के समय में रहे होओ तुम जरूर कहीं आस-पास रहे होओगे। बुद्ध शायद तुम्हारे गांव या नगर से गुजरे होंगे। और हो सकता है तुमने उन्हें सुना भी न हो, तुमने उन्हें देखा भी न हो। क्योंकि किसी बुद्ध को सुनने या किसी बुद्ध को देखने या उसके करीब जाने के लिए भी एक प्रेम चाहिए तुम्हारी ओर से एक खोज चाहिए।
जब कोई बुद्ध पुरुष के प्रेम में पड़ता है तो यह बात अर्थपूर्ण होती है बहुत अर्थपूर्ण होती है। लेकिन कठिन होता है मार्ग। बहुत सरल है किसी साधारण व्यक्ति के प्रेम में पड़ जाना, उसमें कोई चुनौती नहीं है। लेकिन बुद्ध पुरुष के साथ चुनौती बड़ी होगी, मार्ग कठिन होगा, क्योंकि तुम्हें ऊपर उठना होगा। और ये सब बातें तुम्हें दिक्कत देंगी। उसका प्रेम शीतल होगा, उसका प्रेम तो लगेगा कि सबके लिए है, उसके प्रेम में घृणा नहीं होगी।
ऐसा मेरा अनुभव रहा है। कई लोग मेरे प्रेम में पड़ जाते हैं, और फिर वे चाल चलने लगते हैं, साधारण चालें। जाने या अनजाने वे ऐसा करते हैं। एक तरह से यह स्वाभाविक भी है। वे मुझसे अपेक्षाएं करने लगते हैं-साधारण सी अपेक्षाएं-और उनका मन द्वैत की भाषा में सोचता है। उदाहरण के लिए, तुम मुझे प्रेम करते हो तो यदि तुम मुझे सुखी कर सको तो तुम सुखी अनुभव करोगे; लेकिन तुम मुझे सुखी नहीं कर सकते मैं तो सुखी हूं ही।
इसलिए यदि तुम मेरे प्रेम में पड़ते हो तो तुम बहुत हताशा अनुभव करोगे, बहुत निराश होओगे, क्योंकि तुम मुझे सुखी नहीं कर सकते और कुछ करने को बचा नहीं। यदि तुम मुझे सुखी न कर सको तो तुम दुखी हो जाओगे और फिर तुम मुझे दुखी करने का प्रयास करोगे! क्योंकि कम से कम यदि तुम उतना भी कर सको तो तुम्हें तृप्ति मिलेगी। तुम मुझे दुखी करने का प्रयास करोगे-अनजाने, तुम जागरूक नहीं हो, तुम्हें इसकी खबर नहीं है। यदि तुम्हें पता हो तो तुम ऐसा नहीं करोगे। लेकिन तुम प्रयास करोगे, तुम्हारा अचेतन मन मुझे दुखी करने का प्रयास करेगा।
यदि तुम मुझे दुखी कर सको तो तुम्हें पक्का हो जाएगा कि तुम मुझे सुखी भी कर सकते हो। लेकिन यदि तुम मुझे दुखी न कर सको के तुम बिलकुल निराश हो जाते हो। फिर तुम्हें लगेगा कि तुम मुझसे संबंधित नहीं हो, क्योंकि संबंध का तुम्हारे लिए यही अर्थ है।
साधारण प्रेम तो एक रोग है क्योंकि द्वंद्व चलता रहता है। और बुद्ध पुरुष के प्रेम को समझना कठिन है। उसे बौद्धिक रूप से समझने का कोई उपाय नहीं है। तुम्हें प्रेम में पड़ना होगा। और फिर तुम्हें अपने ही मन के प्रति सजग रहना होगा, क्योंकि वह मन उलझनें खड़ी करता रहेगा।
बुद्ध शान को उपलब्ध हुए फिर वह अपने घर लौटे बारह वर्षों बाद वापस लौटे। उनकी पत्नी जिसे उन्होंने बहुत प्रेम किया था, बहुत क्रोधित थी, बहुत नाराज थी। इन बारह वर्षो में वह प्रतीक्षा ही करती रही थी कि किसी दिन यह व्यक्ति लौटेगा। और उसके मन में बदले की बड़ी भावना थी क्योंकि इस व्यक्ति ने उसके साथ अन्याय किया था, वह उचित नहीं था। एक रात अचानक ही वह गायब हो गया था। कम से कम वह कुछ कह तो सकता था। तब बात न्यायसंगत हो जाती। लेकिन बिना कुछ कहे उसे और अपने छोटे से बच्चे को छोड्‌कर वह गायब हो गया था। बारह वर्ष तक उसने प्रतीक्षा की, और फिर बुद्ध आए। वह आग-बबूला थी पागल हो रही थी।
बुद्ध का सबसे निकट का, निकटस्थ शिष्य था आनंद। आनंद सदा छाया की तरह उनका अनुसरण करता था। जब बुद्ध महल में प्रवेश कर रहे थे तो उन्होंने आनंद से कहा, 'तू मेरे साथ मत आ।’
आनंद ने पूछा कि क्यों? क्योंकि उसके पास तो साधारण मन था, वह संबुद्ध नहीं था। वह तो जब बुद्ध मरे तभी संबुद्ध हुआ। उसने पूछा, 'क्यों? क्या आप अभी भी पति और पत्नी की भाषा में सोच रहे हैं? कि आप अपनी पत्नी से मिलने जा रहे हैं? क्या आप अभी भी पति-पत्नी की भाषा में सोच रहे हैं?' उसे तो धक्का लगा। एक बुद्ध, एक प्रज्ञावान व्यक्ति कैसे कह सकता है कि मेरे साथ मत आ, मैं अपनी पत्नी से मिलने जा रहा हूं?
बुद्ध ने कहा 'यह बात नहीं है। यह देखकर कि मैं किसी के साथ आया हूं वह और भी नाराज हो जाएगी। वह बारह वर्ष से प्रतीक्षा कर रही है। उसे अकेले ही पागल हो लेने दो। वह बड़े प्रतिष्ठित, सुसंस्कृत कुल से है। तो वह तुम्हारे सामने नाराज नहीं होगी, वह कुछ भी प्रकट नहीं करेगी, और बारह वर्ष से वह प्रतीक्षा कर रही है। तो उसे विस्फोट कर लेने दो। मेरे साथ मत आओ। मैं अब उसका पति नहीं हूं लेकिन वह तो अभी भी पत्नी है। मैं बदल गया हूं लेकिन वह नहीं बदली है।’
बुद्ध अकेले ही गए। निश्चित ही वह नाराज थी, वह रोने और चीखने-चिल्लाने लगी और तरह-तरह की बातें कहने लगी। और बुद्ध सुनते रहे। वह बार-बार पूछती, 'यदि तुम मुझे थोड़ा भी प्रेम करते थे तो छोड्‌कर क्यों चले गए? तुम क्यों चले गए? और वह भी मुझे बिना बताए। यदि तुम मुझे थोड़ा भी प्रेम करते थे तो कहो मुझे!' और बुद्ध ने कहा, 'यदि मैं तुझे प्रेम न करता तो मैं वापस क्यों आता?'
लेकिन ये दो अलग बातें हैं, बिलकुल अलग बातें हैं। वह क्या कह रहे हैं उसे सुनने को वह तैयार ही नहीं थी। वह पूछती ही रही, 'तुम मुझे अकेला क्यों छोड्‌कर गए? तुम इतना कह दो कि तुमने मुझे कभी प्रेम नहीं किया तो फिर सब ठीक है।’ और बुद्ध ने कहा, 'मैं तुझे प्रेम करता था, मैं तुझे अभी भी प्रेम करता हूं। इसीलिए तो बारह वर्ष बाद मैं वापस लौटा हूं।’ लेकिन यह प्रेम भिन्न है। वह क्रोधित थी और बुद्ध क्रोधित नहीं थे। यदि वह भी क्रोधित हो जाते, क्योंकि वह रो रही थी और चीख-चिल्ला रही थी तो वह समझ सकती थी। यदि वह भी क्रोधित हो जाते और उसकी पिटाई करते तो वह समझ सकती थी। तो सब कुछ ठीक हो जाता। तो वह पुराने ही व्यक्ति होते। बारह वर्ष पूरी तरह मिट जाते और वे दोबारा प्रेम करने लगते। उसमें कोई कठिनाई न थी। लेकिन वह तो चुपचाप खड़े थे और वह पागल हो रही थी। बस वही पागल हो रही थी, वह तो मुस्कुरा रहे थे। यह जरा ज्यादा था। यह कैसा प्रेम? यह समझना उसके लिए बहुत कठिन रहा होगा।
बुद्ध को ताना देने के लिए उसने अपने बेटे से जो अब बारह वर्ष का था, कहा, 'ये तेरे पिता हैं देख इनकी ओर, भगोड़े की ओर। तू बस एक दिन का था जब ये भाग गए थे। ये तेरे पिता हैं। ये एक भिखारी हैं और इन्होंने तुझे जन्म दिया था। अब अपना उत्तराधिकार मांग। इनके सामने अपने हाथ फैला, ये तेरे पिता है। पूछ इनसे कि तुझे देने के लिए इनके पास क्या है?' वह तो बुद्ध को ताना दे रही थी, वह नाराज थी, स्वभावत:।
और बुद्ध ने आनंद को बुलाया जो बाहर खड़ा था और कहा, 'आनंद, मेरा भिक्षा-पात्र ले आ।’ जब भिक्षा-पात्र बुद्ध को. दिया गया तो वह उन्होंने अपने बेटे राहुल को दे दिया और कहा, 'यही मेरा उत्तराधिकार है मैं तुझे संन्यास में दीक्षित करता हूं।’
यह उनका प्रेम था। लेकिन यशोधरा तो और भी पागल हो गई। उसने कहा, 'यह तुम क्या कर रहे हो? यदि तुम अपने बेटे को प्रेम करते हो तो उसे भिखारी नहीं बनाओगे, संन्यासी नहीं बनाओगे।’ बुद्ध ने कहा, 'मैं उसे इसीलिए भिखारी बना रहा हूं क्योंकि मैं उसे प्रेम करता हूं। मैं जानता हूं कि वास्तविक उत्तराधिकार क्या है और वही मैं उसे दे रहा हूं। मेरे पिता इतने बुद्धिमान नहीं थे, लेकिन मैं जानता हूं कि क्या देने योग्य है और वही मैं दे रहा हूं।’
ये दो अलग-अलग आयाम हैं, दो अलग-अलग भाषाएं हैं जिनका कहीं मिलन नहीं होता। वह प्रेम कर रहे हैं। उन्होंने अपनी पत्नी से जरूर प्रेम किया होगा, इसीलिए वह वापस आए। उन्होंने अपने बेटे को प्रेम किया होगा, इसीलिए उन्होंने उसे दीक्षा दी। लेकिन कोई पिता यह नहीं समझ सकता।
जब बुद्ध के पिता ने इस बारे में सुना-वह बूढ़े थे बीमार थे-वह बाहर दौड़े आए और बोले, 'यह तूने क्या किया? क्या तू मेरे पूरे वंश को नष्ट करने पर तुला है? तू घर से भाग गया, तू मेरा इकलौता बेटा था। अब राहुल पर मेरी आशाएं टिकी हैं, वह तेरा इकलौता बेटा है। और तूने उसे भी संन्यास दे दिया! तो मेरा वंश तो अब समाप्त हो गया। अब भविष्य की कोई संभावना न रही। तू क्या कर रहा है? क्या तू मेरा शत्रु है?
और बुद्ध ने कहा, 'क्योंकि मैं अपने बेटे को प्रेम करता हूं इसलिए इसे वही दे रहा हूं जो देने योग्य है। न तो आपका राज्य, न आपका वंश और वंश-वृक्ष ही किसी महत्व का है। संसार को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि यह वंश-वृक्ष आगे बढ़ता है या नहीं। लेकिन यह संन्यास जिसमें मैं राहुल को दीक्षित कर रहा हूं बहुत महत्वपूर्ण है। मैं भी अपने पुत्र को प्रेम करता हूं।’
दो पिता बारत कर रहे हैं! बुद्ध के पिता फिर उनसे प्रार्थना करने लगे 'तू वापस आ जा। मैं तेरा पिता-हूं। मैं आ हूं। मैं नाराज हूं। तूने मुझे निराश किया है। लेकिन फिर भी मेरे पास पिता का हृदय है और मैं तुझे क्षमा कर दूंगा। आ जा, मेरे द्वार खुले हैं। वापस आ जा। छोड़ दे यह संन्यास, वापस आ जा, मेरे द्वार खुले हैं। यह राज्य तेरा है, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं। मै बहुत बूढ़ा हूं लेकिन मेरे मन में तेरे लिए बहुत प्रेम है और मैं क्षमा कर सकता हूं।’
यह एक प्रेम है। फिर यह दूसरे पिता, गौतम बुद्ध स्वयं हैं, जो संसार छोड़ने के लिए अपने बेटे को संन्यास दे रहे हैं। यह भी प्रेम है।
लेकिन दोनों प्रेम इतने भिन्न हैं कि दोनों को एक ही नाम से, एक ही शब्द से बुलाना ठीक नहीं है। लेकिन हमारे पास कोई दूसरा शब्द नहीं है।

दूसरा प्रश्न :

कल रात आपने कहा कि प्रेम जीवंत होता है क्योंकि असुरक्षित होता है, और विवाह मृत
होता है क्योंकि सुरक्षित होता है। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि प्रेम ही। आध्यात्मिक गहरई में विवाह बन जाता है?


नहीं। प्रेम कभी विवाह नहीं बनता। वह जितना गहरा जाता है उतना ही अधिक प्रेम बन जाता है लेकिन विवाह कभी नहीं बनता। विवाह से मेरा अर्थ है एक बाह्य बंधन, एक कानूनी स्वीकृति, एक सामाजिक समर्थन। और मैं कहता हूं कि प्रेम कभी विवाह नहीं बनता क्योंकि वह कभी सुरक्षित नहीं होता। वह प्रेम ही रहता है। वह अधिक प्रेम और अधिक प्रेम होता चला जाता है, लेकिन जितना अधिक होता है उतना ही असुरक्षित होता जाता है। कोई सुरक्षा नहीं होती। लेकिन यदि तुम प्रेम करते हो तो सुरक्षा की कोई फिक्र नहीं करते। जब तुम प्रेम नहीं करते तभी सुरक्षा की फिक्र होती है।
जब तुम प्रेम करते हो तो वह क्षण ही इतना पर्याप्त होता है कि तुम दूसरे क्षण की चिंता
नहीं करते भविष्य की चिंता नहीं करते। तुम्हें इससे कुछ मतलब नहीं होता कि कल क्या होगा, क्योंकि अभी जो हो रहा है पर्याप्त है, बहुत अधिक है। इतना अधिक है कि संभलता नहीं। तुम कोई चिंता नहीं करते।
मन में सुरक्षा की बात क्यों उठती है? यह चिंता भविष्य के कारण उठती है। वर्तमान पर्याप्त नहीं है इसलिए तुम भविष्य की चिंता करते हो। वास्तव में तुम वर्तमान में नहीं हो। तुम वर्तमान में नहीं जी रहे। तुम इसका आनंद नहीं ले रहे। यह क्षण आनंद नहीं है। वर्तमान आनंद नहीं है। इसलिए तुम भविष्य की आशा करते हो। फिर तुम भविष्य की योजना बनाते हो, फिर तुम भविष्य के लिए हर सुरक्षा जुटा लेना चाहते हो।

प्रेम कभी भी सुरक्षा जुटाना नहीं चाहता, वह स्वयं में ही सुरक्षित होता है। यही सत्य है। प्रेम स्वयं में ही इतना सुरक्षित होता है कि किसी और सुरक्षा की बात ही नहीं सोचता; भविष्य में क्या होगा, इससे कुछ मतलब ही नहीं है। क्योंकि भविष्य इसी वर्तमान से विकसित होगा। उसके बारे में चिंता क्यों करें?
जब वर्तमान आनंदपूर्ण नहीं होता, विषाद होता है, तब तुम भविष्य के लिए चिंतित होते हो। तब तुम उसे सुरक्षित करना चाहते हो। लेकिन याद रखी, कोई भी कुछ भी सुरक्षित नहीं कर सकता। प्रकृति का ऐसा स्वभाव नहीं है। भविष्य तो असुरक्षित रहेगा ही। तुम केवल एक काम कर सकते हो : वर्तमान को और गहनता से जी लो। तुम इतना ही कर सकते हो। यदि उससे कोई सुरक्षा होती है तो वही एकमात्र सुरक्षा है। और यदि सुरक्षा नहीं हो रही तो नहीं हो रही, कुछ भी किया नहीं जा सकता।
लेकिन हमारा मन सदा आत्मघाती ढंग से व्यवहार करता है। वर्तमान जितना विषादयुक्त होता है उतना ही तुम भविष्य के बारे में सोचते हो और उसे सुरक्षित करना चाहते हो। और जितने तुम भविष्य में जाओगे, वर्तमान उतना ही विषादयुक्त होता चला जाएगा। फिर तुम एक दुम्बक्र में फंस गए। यह चक्र तोड़ा जा सकता है, लेकिन इसे तोड़ने का एकमात्र उपाय यही है : वर्तमान क्षण इतनी गहनता से जीया जाए कि यह क्षण ही अपनी गहराई में शाश्वतता बन जाए। इसी से भविष्य पैदा होगा, भविष्य अपना मार्ग स्वयं बना लेगा, तुम्हें इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है।
तो मैं कहता हूं कि प्रेम सुरक्षा के बारे में कभी नहीं सोचता, क्योंकि वह स्वयं में ही इतना सुरक्षित होता है। प्रेम कभी असुरक्षा से भयभीत नहीं होता। यदि जरा भी प्रेम है तो वह असुरक्षा से भयभीत नहीं होता। प्रेम असुरक्षित है, लेकिन प्रेम असुरक्षा से भयभीत नहीं होता। बल्कि, प्रेम असुरक्षा का आनंद लेता है क्योंकि असुरक्षा जीवन को रंग देती है, बदलती हुई ऋतुएं और मौसम देती है धार देती है। यही सौंदर्य है। बदलता हुआ जीवन सुंदर होता है, क्योंकि सदा ही आविष्कृत करने के लिए कुछ शेष रहता है, सदा ही किसी ऐसी चीज से साक्षात्कार होता है जो नई है।
वास्तव में दो प्रेमी सतत एक-दूसरे में नए-नए आविष्कार करते रहते हैं। और गहराई असीम है। एक प्रेम से भरा हृदय असीम है अनंत है। तुम उसे कभी समाप्त नहीं कर सकते। उसका कोई अंत नहीं है। वह बढ़ता ही चला जाता है, आगे फैलता चला जाता है। वह आकाश जैसा ही विशाल है।
प्रेम असुरक्षा की परवाह नहीं करता, प्रेम उसका आनंद ले सकता है। इससे एक पुलक मिलती है। जो प्रेम नहीं कर सकते वे ही असुरक्षा से डरते हैं, क्योंकि उनकी जड़ें जीवन में नहीं जमी हुई हैं। जो प्रेम नहीं कर सकते, वे जीवन में सदा सुरक्षित रहते हैं। वे सुरक्षित करने में ही अपना जीवन व्यर्थ कर देते हैं, और जीवन सुरक्षित कभी होता नहीं, हो नहीं सकता।

सुरक्षा मृत्यु का गुण है; सुरक्षा मृत्यु का गुणधर्म है। जीवन असुरक्षित है, अरि प्रेम इससे नहीं डरता। प्रेम जीवन से, असुरक्षा से नहीं डरता, क्योंकि वह धरती में थिर होता है।’ यदि तुम धरती में थिर नहीं हो और देखो कि झंझावात आ रहा है तो तुम डर जाओगे। लेकिन यदि तुम धरती में थिर हो तो तुम झंझावात का स्वागत करोगे, वह एक पुलक बन जाएगा। यदि तुम थिर हो तो आता हुआ झंझावात एक चुनौती बन जाएगा, उससे तुम्हारी जड़ें हिल जाएंगी, हर तंतु जीवंत हो उठेगा। फिर जब झंझावात गुजर जाएगा तो तुम यह नहीं सोचोगे कि यह बुरा था, कोई दुर्भाग्य था। तुम कहोगे कि यह तो सौभाग्य था, एक आशीर्वाद था, क्योंकि झंझावात ने सारी मृतवत्ता दूर कर दी। जो कुछ भी मृत था वह उसके साथ बह गया और जो भी जीवंत था वह और जीवंत हो गया।
जब झंझावात गुजर जाए तो वृक्षों की ओर देखो। वे जीवन से तरंगायित हैं, जीवन से धड़क रहे हैं, दीप्तिमान हैं, जीवंत हैं ऊर्जा उन्हें ओत-प्रोत कर रही है। क्योंकि झंझावात ने एक अवसर दिया उन्हें अपनी जड़ों को अनुभव करने का, अपनी थिरता को अनुभव करने का। यह स्वयं के अनुभव का एक अवसर था।
तो जो प्रेम में थिर है वह किसी भी चीज से नहीं डरता। जो कुछ भी आए सुंदर है-परिवर्तन आए, असुरक्षा आए। जो भी होता है शुभ है 1 लेकिन प्रेम कभी विवाह नहीं बनता। और जब मैं कहता हूं कि प्रेम विवाह नहीं बन सकता तो मेरा यह अर्थ नहीं है कि प्रेमियों को विवाह नहीं करना चाहिए, लेकिन यह विवाह प्रेम का विकल्प नहीं बन जाना चाहिए। यह केवल बाहरी आवरण होना चाहिए, यह विकल्प नहीं होना चाहिए।
और प्रेम कभी विवाह नहीं बनता, क्योंकि प्रेमी कभी एक-दूसरे के प्रति सुनिश्चित धारणा नहीं रखते कोई प्रतिमा नहीं रखते। मेरा जो अर्थ है वह गहन रूप से मनोवैज्ञानिक है, प्रेमी एक-दूसरे के प्रति कभी तय नहीं होते, कोई धारणा नहीं रखते। एक बार तुम एक-दूसरे के प्रति सुनिश्चित हो जाओ तो दूसरा एक वस्तु बन गया। अब वह व्यक्ति न रहा। तो विवाह प्रेमियों को वस्तुओं में बदल देता है। पति एक वस्तु है पत्नी एक वस्तु है, उनके बारे में पहले से ही भविष्यवाणी की जा सकती है।
मैं पूरे देश में बहुत से परिवारों में ठहरता रहा हूं और मुझे बहुत से पति-पत्नियों को जानने का अवसर मिला है। वे व्यक्ति हैं ही नहीं। उनके बारे में पहले से सब कुछ बताया जा सकता है। यदि पति कुछ कहे तो यह बताया जा सकता है कि पत्नी क्या कहेगी, कैसे व्यवहार करेगी। और यदि पत्नी यंत्रवत रूप से कुछ कहती है तो पति भी यंत्रवत उत्तर देगा।
यह सब सुनिश्चित है। वे वही अभिनय बार-बार कर रहे हैं। उनका जीवन बस उस ग्रामोफोन रिकार्ड की तरह है जिसमें कुछ गड़बड़ी हो जाए जिसमें सुई एक जगह अटक जाए और वह बार-बार वही दोहराता जाए। यह इतना ही सुनिश्चित है। तुम बता सकते हो कि आगे क्या होने वाला है। पति और पत्नी कहीं अटक गए हैं वे ग्रामोफोन रिकार्ड बन गए हैं और दोहराए चले जाते हैं। वह पुनरुक्ति ही ऊब पैदा करती है।
मैं एक घर में ठहरा हुआ था। पति ने मुझसे कहा, 'मैं तो अपनी पत्नी के साथ अकेला रहने से डरने लगा हूं। जब कोई और साथ होता है तभी हम दोनों सुखी होते हैं। हम किसी दूसरे को साथ लिए बिना छुट्टी पर भी नहीं जा सकते, क्योंकि वह दूसरा कुछ नवीनता लाता है। वरना तो हम जानते ही हैं कि क्या होने वाला है। यह सब इतना सुनिश्चित हो गया है कि किसी योग्य ही नहीं रहा। हम पहले से ही सब जानते हैं। यह ऐसे ही है जैसे तुम उसी किताब को बार-बार और बार-बार पढ़ते जाओ।'
प्रेमियों के बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। यही असुरक्षा है। तुम नहीं जानते कि क्या होने वाला है। और यही सौंदर्य है। तुम नए और युवा और जीवंत रह सकते हो। लेकिन हम एक-दूसरे को वस्तु बना लेना चाहते हैं, क्योंकि वस्तु आसानी से नियंत्रित की जा सकती है। और तुम्हें वस्तु से डरने की भी जरूरत नहीं होती। तुम जानते हो कि वह कहां है उसका व्यवहार क्या है। तुम पहले से ही योजना बना सकते हो कि क्या करना है और क्या नहीं करना है।
विवाह से मेरा अर्थ है एक ऐसी व्यवस्था जिसमें दो व्यक्ति वस्तुओं के तल पर गिर जाते हैं। प्रेम कोई व्यवस्था नहीं है यह तो एक साक्षात्कार है- क्षण- क्षण, जीवंत। निश्चित ही खतरे से भरा है, पर जीवन ऐसा ही है। विवाह सुरक्षित है उसमें कोई खतरा नहीं है; प्रेम असुरक्षित है। तुम नहीं जानते कि क्या होने वाला है अगला क्षण अज्ञात है, और अज्ञात ही रहता है।
तो प्रेम हर क्षण अज्ञात में प्रवेश है। जब जीसस कहते हैं 'परमात्मा प्रेम है', तो उनका यही अर्थ है। परमात्मा उतना ही अज्ञात है जितना प्रेम। और यदि तुम जीवंत होने को, प्रेम में होने को, असुरक्षित होने को तैयार नहीं हो तो तुम परमात्मा में प्रवेश नहीं कर सकते, क्योंकि वह तो परम असुरक्षा है परम अज्ञात है।
तो प्रेम तुम्हें प्रार्थना के लिए तैयार करता है। यदि तुम प्रेम कर सको, और किसी अज्ञात व्यक्ति को बिना वस्तु बनाए, बिना यंत्रवत व्यवहार के क्षण- क्षण जीते हुए प्रेम कर सको तो तुम प्रार्थना के लिए तैयार हो रहे हो।
प्रार्थना और कुछ नहीं प्रेम ही है समस्त अस्तित्व के प्रति प्रेम। तुम अस्तित्व के साथ ऐसे जीते हो जैसे अपने प्रेमी के साथ जी रहे हो। न तुम्हें भाव-दशा का पता है, न ऋतु का पता है, तुम्हें कुछ पता ही नहीं कि क्या होने वाला है। कुछ भी ज्ञात नहीं है। तुम बस उघाडते चले जाते हो-यह एक अनंत यात्रा है।

तीसरा प्रश्न :

क्या ऐसा हो सकता है कि जो व्यक्ति संबुद्ध नहीं है वह पूर्ण असुरक्षा में जीए और फिर
भी संतप्त, हताश और दुखी न हो?


पूर्ण असुरक्षा और उसमें जीने की क्षमता बुद्धत्व के पर्याय हैं। तो जो व्यक्ति संबुद्ध नहीं है वह पूर्ण असुरक्षा में नहीं रह सकता और जो पूर्ण असुरक्षा में नहीं रह सकता वह संबुद्ध नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं हैं, ये एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तो तुम असुरक्षा में रहने की तब तक प्रतीक्षा न करो जब तक तुम संबुद्ध न हो जाओ, नहीं! क्योंकि फिर तो तुम कभी संबुद्ध न हो पाओगे।
असुरक्षा में जीना शुरू करो, यही बुद्धत्व का मार्ग है। और पूर्ण असुरक्षा के बारे में मत सोचो। जहां तुम हो वहीं से शुरू करो। जैसे तुम हो वैसे तो किसी चीज में समग्र नहीं हो सकते लेकिन कहीं से तो शुरू करना ही होता है। शुरू में इससे संताप होगा, शुरू में इससे दुख होगा। लेकिन बस शुरू में ही। यदि तुम शुरुआत पार कर सको, यदि तुम शुरुआत सह का, दुख मिट जाएगा, सताप मिट जाएगा।
इस प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो संतप्त क्यों होते हो? यह असुरक्षा के कारण नहीं बल्कि सुरक्षा की मांग के कारण है। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो संतप्त हो जाते हो संताप पैदा होता है। वह असुरक्षा के कारण पैदा नहीं हो रहा बल्कि जीवन को एक सुरक्षा बनाने की मांग से पैदा हो रहा है। यदि तुम असुरक्षा में रहने तंगी और सुरक्षा की मांग न करो तो जब मांग चली जाएगी तो संताप भी चला जाएगा। वह मांग ही संताप पैदा कर रही है।
असुरक्षा जीवन का स्वभाव है। बुद्ध के लिए संसार असुरक्षित है; जीसस के लिए भी असुरक्षित है। लेकिन वे संतप्त नहीं हैं क्योंकि उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है। वे इस वास्तविकता की स्वीकृति के लिए प्रौढ़ हो गए हैं।
प्रौढ़ता और अप्रौढ़ता की मेरी यही परिभाषा है। उस व्यक्ति को मैं अपरिपक्व कहता हूं जो कल्पनाओं और सपनों के लिए वास्तविकता से लड़ता रहता है। वह व्यक्ति अपरिपक्व है। प्रौढ़ता का अर्थ है वास्तविकता का साक्षात्कार करना, सपनों को एक ओर फेंक देना और वास्तविकता जैसी है वैसी स्वीकार कर लेना।
बुद्ध प्रौढ़ हैं। वह स्वीकार कर लेते हैं कि यह ऐसा ही है।
उदाहरण के लिए, हालांकि मृत्यु सुनिश्चित है, पर अपरिपक्व व्यक्ति सोचे चला जाता है कि बाकी सब चाहे मर जाएं लेकिन वह नहीं मरने वाला। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि उसके मरने के समय तक कुछ खोज लिया जाएगा, कोई दवा खोज ली जाएगी, जिससे वह नहीं मरेगा। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि मरना कोई नियम नहीं है। निश्चित ही, बहुत से लोग मरे हैं लेकिन हर चीज में अपवाद होते हैं और वह सोचता है कि वह अपवाद है।
जब भी कोई मरता है तो तुम सहानुभूति अनुभव करते हो, तुम्हें लगता है, बेचारा मर गया। लेकिन तुम्हारे मन में यह कभी नहीं आता कि उसकी मृत्यु तुम्हारी मृत्यु भी है। नहीं, तुम उससे बचकर निकल जाते हो। इतनी सूक्ष्म बातों को तो तुम छूते ही नहीं। तुम सोचते रहते हो कि कुछ न कुछ तुम्हें बचा लेगा-कोई मंत्र, कोई चमत्कारी गुरु। कुछ हो जाएगा और तुम बच जाओगे। तुम कहानियों में बच्चों की कहानियों में जी रहे हो।
प्रौढ़ व्यक्ति वह है जो इस तथ्य की ओर देखता है और स्वीकार कर लेता है कि जीवन और मृत्यु साथ-साथ हैं। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है वह तो जीवन का शिखर है। वह जीवन के साथ घटी कोई दुर्घटना नहीं है वह तो जीवन के हृदय में विकसित होती है। विकसित होती है और एक शिखर पर पहुंचती है। तो प्रौढ़ व्यक्ति स्वीकार कर लेता है और मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। वह समझ लेता है कि सुरक्षा असंभव है।
तुम चाहे एक चारदीवारी बना लो, बैंक बैलेंस रख लो, स्वर्ग में सुरक्षा पाने के लिए धन दान दे दो तुम सब कर लो लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि असल में कुछ भी सुरक्षित नहीं है। बैंक तुम्हें धोखा दे सकता है। और पुरोहित धोखेबाज हो सकता है, वह सबसे बड़ा धोखेबाज हो सकता है, कोई नहीं जानता। वे चिट्ठियां लिख देते...... ।
भारत में मुसलमानों का एक संप्रदाय है, उसका प्रधान पुरोहित परमात्मा के नाम चिड़िया लिखता है। तुम कुछ धन दान दे दो और वह चिट्ठी लिख देगा। चिट्ठी तुम्हारे साथ तुम्हारे मकबरे में, तुम्हारी कब में रख दी जाएगी। वह तुम्हारे साथ रख दी जाएगी ताकि तुम उसे दिखा सको। धन पुरोहित के पास चला जाता है और चिट्ठी तुम्हारे साथ चली जाती लेकिन कुछ भी तो सुरक्षित नहीं हुआ।
परिपक्व व्यक्ति वास्तविकता का सामना करता है, वह उसको जैसी है वैसी ही स्वीकार कर लेता है। वह कुछ मांग नहीं करता। वह मांगने वाला नहीं होता। वह यह नहीं कहता कि यह ऐसे होना चाहिए। वह तथ्य की ओर देखता है और कहता है, 'हा, यह ऐसा है।’ वास्तविकता का सीधा साक्षात्कार तुम्हारे लिए दुखी होना असंभव कर देगा। क्योंकि दुख तभी आता है जब तुम कुछ मांग करते हो। असल में दुख और कुछ नहीं बस इसी बात का संकेत है कि तुम वास्तविकता के विपरीत चल रहे हो। और वास्तविकता तुम्हारे अनुसार नहीं बदल सकती, तुम्हें वास्तविकता के अनुसार बदलना पड़ेगा। तुम्हें स्वयं को छोड़ना पड़ेगा। तुम्हें समर्पण करना पड़ेगा।
समर्पण का यही अर्थ है : तुम्हें स्वयं को छोड़ना पड़ेगा। वास्तविकता समर्पण नहीं कर सकती, वह तो जैसी है वैसी है। जब तक तुम समर्पण न करो, तुम दुखी रहोगे। दुख तुम्हारे द्वारा ही निर्मित होता है क्योंकि तुम संघर्ष करते हो।
यह ऐसे ही है जैसे नदी की धारा सागर की तरफ बह रही हो और तुम धारा के विपरीत तैरने की कोशिश कर रहे हो। तुम्हें लगता है कि नदी तुम्हारे विरुद्ध है। नदी तुम्हारे विरुद्ध नहीं है। उसने तो तुम्हारे बारे में सुना भी नहीं है। वह तुम्हें जानती भी नहीं है। नदी तो बस सागर की ओर बहे जा रही है। यह नदी का स्वभाव है कि सागर की ओर बहे, सागर की ओर चले और उसमें समाहित हो जाए। तुम धारा के विपरीत जाने की कोशिश कर रहे हो।
और हो सकता है किनारे पर कुछ मूरख खड़े हों जो तुम्हें बढ़ावा दे रहे हों : 'तुम बहुत अच्छा कर रहे हो। कोई फिक्र न करो देर-अबेर नदी को समर्पण करना पड़ेगा। तुम तो महान हो, चलते रहो! जो महान हैं उन्होंने नदी पर विजय पाई है !' सदा ऐसे मूरख लोग होते ही हैं जो तुम्हें प्रेरणा देते हैं, तुम्हारा हौसला बढ़ाते हैं। लेकिन कोई सिकंदर, कोई नेपोलियन, कोई महान व्यक्ति उलटा स्रोत तक नहीं पहुंच सका। देर-अबेर नदी की विजय होती है। लेकिन मरने के बाद तुम वह आनंद नहीं ले सकते जो तब संभव था जब तुम जीवित थे : समर्पण का आनंद, स्वीकृति का आनंद, नदी के साथ ऐसे एक हो जाने का आनंद कि कोई संघर्ष न बचे। लेकिन किनारे पर खड़े वे मूर्ख लोग कहेंगे 'तुमने समर्पण कर दिया, तुम हार गए, तुम असफल हुए।’ उनकी मत सुनो उस तरिक स्वतंत्रता का आनंद लो जो समर्पण से आती है। उनकी मत सुनो।
जब बुद्ध ने धारा के विपरीत तैरने की कोशिश छोड़ दी तो जो उनको जानते थे, उन्होंने कहा, तुम भगोड़े हो। तुम पराजित हो। तुमने हार मान ली। दूसरे क्या कहते हैं वह मत सुनो। भीतर के भाव को अनुभव करो। तुम्हें क्या घट रहा है उसको अनुभव करो। यदि धारा के साथ बहने में तुम्हें अच्छा लगता है तो यही मार्ग है। यही ताओ है तुम्हारे लिए। किसी की मत सुनो, बस अपने हृदय की सुनो। प्रौढ़ता है यथार्थ का स्वीकार।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक मुसलमान, एक ईसाई और एक यहूदी से एक प्रश्न पूछा गया। प्रश्न एक ही था। किसी ने उन तीनों से पूछा, 'यदि तूफानी लहरें सागर को जमीन पर आएं तुम उसमें डूब जाओ तो तुम क्या करोगे?' ईसाई ने कहा, 'मैं अपने हृदय पर क्रास का चिह्न बनाऊंगा और परमात्मा से प्रार्थना करूंगा कि मुझे स्वर्ग में आने के लिए द्वार खोल दे।’ मुसलमान ने कहा, 'मैं अल्लाह का नाम लूंगा और कहूंगा कि यही किस्मत है, यही भाग्य है, और डूब जाऊंगा।’ यहूदी ने कहा, 'मैं परमात्मा को धन्यवाद दूंगा, उसकी मर्जी को स्वीकार करूंगा और पानी के नीचे रहना सीख लूंगा।’
यही करना है। अस्तित्व की मर्जी को, विराट की मर्जी को स्वीकार करना है और उसमें जीना सीखना है। यही सारी कला है। प्रौढ़ व्यक्ति यथार्थ को स्वीकार कर लेता है, कोई मांग नहीं करता, किसी स्वर्ग की बात नहीं करता। ईसाई मांग कर रहा था, वह मांग रहा था, वह कह रहा था, स्वर्ग के द्वार खोल दो। लेकिन वह भी निराशावादी है जो बस स्वीकार कर लेता है और डूब जाता है। मुसलमान भी यही कर रहा था। यहूदी ने स्वीकार किया, बल्कि स्वागत किया और कहा, यही उसकी मर्जी है, अब मुझे पानी के नीचे रहना सीखना है। यही परमात्मा की मर्जी है। वास्तविकता को ऐसा का ऐसा स्वीकार कर लो, और सीखो कि समर्पित हृदय, समर्पित चित्त के साथ उसमें कैसे जीना है।


अंतिम प्रश्न :

कल आपने कहा कि जीवन और मृत्यु साथ-साथ हैं। फिर कृपया बताएं कि अतिक्रमण
की क्या आवश्यकता है?


यही आवश्यकता है। इसीलिए आवश्यकता है। जीवन मृत्यु के साथ ही हैं--यदि तुम इसे समझ सको तो तुमने अतिक्रमण कर लिया।
तुम जीवन को स्वीकार करते हो, मृत्यु को स्वीकार नहीं करते। या कि करते हो? तुम जीवन को स्वीकार करते हो लेकिन मृत्यु को अस्वीकार करते हो, और इसी कारण तुम सदा कठिनाई में रहते हो। तुम कठिनाई में पड़ते हो क्योंकि मृत्यु जीवन का अंग है, जब तुम जीवन को अस्वीकार करते हो तो मृत्यु तो होगी ही, लेकिन तुम मृत्यु को अस्वीकार कर देते हो। जब तुमने मृत्यु को अस्वीकार किया तो जीवन को भी अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वे दो नहीं हैं। तो तुम कठिनाई में रहोगे। या तो पूरे को स्वीकार करो या पूरे को अस्वीकार करो। यही अतिक्रमण है।
और अतिक्रमण करने के दो उपाय है। या तो जीवन और मृत्यु दोनों को एक साथ स्वीकार करो, या दोनों को एक साथ अस्वीकार करो, तब तुम अतिक्रमण कर गए। यही दो उपाय हैं, विधायक और नकारात्मक। नकारात्मक कहता है, 'दोनों को अस्वीकार कर दो।’ विधायक कहता है, 'दोनों को स्वीकार कर लो।’ लेकिन जोर इस बात पर है कि दोनों साथ होने चाहिए, चाहे स्वीकार करो चाहे अस्वीकार करो। जब जीवन और मृत्यु दोनों होते हैं तो एक-दूसरे को काट डालते हैं। और जब वे दोनों ही नहीं रहते तो तुम अतिक्रमण कर जाते हो।
तुम या तो जीवन से जुड़े होते हो या कभी-कभी मृत्यु से, लेकिन तुम कभी दोनों को स्वीकार नहीं करते। मैं कई लोगों से मिला हूं जो जीवन से इतने हताश हो गए हैं. कि वे आत्महत्या करने की सोचने लगते हैं। पहले उनका जीवन में रस होता है, फिर जीवन उबाने लगता है। ऐसा नहीं कि जीवन उबाता है, वह मोह उबाता है, लेकिन लोग सोचते हैं कि जीवन उबा रहा है। तो वे मृत्यु में रस लेने लगते हैं। अब वे सोचने लगते हैं कि अपने को कैसे नष्ट कर लें और कैसे आत्महत्या कर लें, कैसे मर जाएं। लेकिन मोह तो है ही। पहले जीवन का था, अब मृत्यु का है। तो जो व्यक्ति जीवन के मोह में है और जो व्यक्ति मृत्यु के मोह में है, वे भिन्न नहीं हैं। मोह तो है ही और मोह ही समस्या है। दोनों को स्वीकार करो।
जरा सोचो, यदि तुम जीवन और मृत्यु दोनों को स्वीकार कर लोगे तो क्या होगा? तत्क्षण एक मौन उतर आएगा, क्योंकि वे दोनों एक-दूसरे को काट डालेंगे। जब तुम स्वीकार कर लेते हो तो जीवन और मृत्यु दोनों समाप्त हो जाते हैं, तब तुम अतिक्रमण कर गए तुम पार चले गए। या दोनों को अस्वीकार कर दो-यह एक ही बात है।
अतिक्रमण का अर्थ है द्वैत के पार चले जाना। मोह का अर्थ है द्वैत में रहना, एक में रस लेना और दूसरे के विपरीत होना। जब तुम दोनों को स्वीकार करते हो या दोनों को अस्वीकार करते हो तो मोह गिर जाता है। तुम्हारी गांठ खुल जाती है। अचानक तुम अपने प्राणों के तीसरे आयाम पर पहुंच जाते हो, जहां न जीवन है न मृत्यु। वही निर्वाण है, वही मोक्ष है। वहां द्वैत नहीं है, अद्वैत है, तथाता है। और जब तक तुम अतिक्रमण न कर जाओ, तुम सदा दुख में ही रहोगे। भले ही तुम अपने मोह को इससे हटाकर उस पर लगा लो, लेकिन तुम दुख में ही रहोगे।
मोह दुख पैदा करता है। अस्वीकार भी दुख पैदा करता है। तुम कुछ भी चुन सकते हो, यह तुम पर निर्भर है। तुम कृष्ण की तरह विधायक मार्ग चुन सकते हो। वह कहते हैं, 'स्वीकार करो। दोनों को स्वीकार करो।’ या तुम बुद्ध का मार्ग चुन सकते हो। बुद्ध कहते हैं, 'दोनों को अस्वीकार करो।’ लेकिन दोनों को साथ-साथ कर लो, फिर अतिक्रमण तत्क्षण होता है। यदि तुम दोनों के बारे में सोचो भी तो भी अतिक्रमण हो जाएगा। और यदि वास्तविक जीवन में तुम यह कर पाओ तो एक नई चेतना का आविर्भाव होगा। वह चेतना द्वैत के जगत की नहीं है, वह एक अज्ञात जगत की चेतना है-निर्वाण के जगत की।

आज इतना ही।

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