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शनिवार, 8 सितंबर 2018

भारत का भविष्य-(प्रवचन-08)

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक)

आठवां-प्रवचन-(ओशो) 

डिक्टेटरशिप व्यक्ति की नहीं; विचार की

(प्रारंभ का मैटर उपलब्ध नहीं। )
...और दो बच्चे के बाद अनिवार्य आपरेशन। समझाने-बुझाने का सवाल नहीं है यह। जैसे हम नहीं समझाते हैं हत्यारे को कि तुम हत्या मत करो, हत्या करना बुरा है। हम कहते हैं, हत्या करना कानूनन बंद है। हत्या से भी ज्यादा खतरनाक आज संख्या बढ़ाना है। तो एक तो अनिवार्य संतति-नियमन। जो लोग बिल्कुल बच्चे पैदा न करें, उनको तनख्वाह में बढ़ती, सिनयारिटी, जो बिल्कुल बच्चे पैदा न करें, एक भी बच्चा पैदा न करें, उनको इज्जत, सम्मान, उनको जितनी सुविधाएं दे सकते हैं उनको सुविधाएं दी जानी चाहिए।


वॉट फार्म ऑफ गवर्नमेंट, यू विज्युअलाइज फॉर दिस वन।

वही बात कर रहा हूं। इधर हमारी कोई साठ प्रतिशत समस्याएं हमारी संख्या से खड़ी हो रही हैं। हम समस्याओं को हल करते चले जाएंगे और संख्या यहां बढ़ती चली जाएगी। हम कुछ भी हल नहीं कर पाएंगे। रोज हम हल करेंगे और रोज नई समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। तो साठ प्रतिशत समस्याएं कम से कम सिर्फ नष्ट हो सकती हैं अगर हम संख्या पर एक व्यवस्थित संतुलन उपलब्ध कर लें। जो कि किया जा सकता है। लेकिन लोकतंत्र की धारणा हमारी कि बच्चे पैदा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। वह मुझे गलत दिखाई पड़ती है।


इसलिए जो आप कहते हैंः वॉट फार्म ऑफ गवर्नमेंट। तो मेरी दृष्टि में अभी हिंदुस्तान को कोई पचास साल तक लोकशाही की जरूरत नहीं है। अभी हिंदुस्तान को पचास साल तक स्पष्ट रूप से अधिनायकशाही की जरूरत है। कोई उसको कहने को राजी नहीं है, क्योंकि वह शब्द ही अजीब हो गया। अधिनायकशाही की बात ही करना...उन्होंने कहाः यह आदमी खतरनाक है।

वॉट फॉर्म ऑफ डिक्टेटरशिप डू यू विज्युअलाइज?

डिक्टेटरशिप, जैसा कि रूस में बनी।

पलट देनी चाहिए।

पलट देनी चाहिए। एक सर्वहारा का अधिनायकशाही चाहिए। जिसका स्पष्ट ध्यान यह होगा कि हम...।

आपका ओपिनियन संयुक्त डिक्टेटर्स के लिए क्या है?

नहीं, जरा भी अच्छा नहीं है। क्योंकि संयुक्त डिक्टेटरशिप कोई सर्वहारा का, कोई कम्युनिटेरीयन डिक्टेटरशिप नहीं है। संयुक्त डिक्टेटरशिप तो राजतंत्र जैसी पुरानी बेहूदी बातें हैं। संयुक्त डिक्टेटरशिप की क्या जरूरत है? डिक्टेटरशिप व्यक्ति की नहीं; विचार की। सोशिएलिस्ट डिक्टेटरशिप से मेरा मतलब है। वह व्यक्ति की डिक्टेटरशिप नहीं है वह। वह असल में मौलिक, एक विचार की डिक्टेटरशिप है। एक विचार की यह स्वीकृति कि इस विचार को समाज में लाना है। और चूंकि समाज का मानस हजारों साल से ऐसा बन गया है कि व्यक्तिगत संपत्ति को वह मानस छोड़ने को राजी नहीं है। हालांकि व्यक्तिगत संपत्ति के कारण ही इसकी सारी समस्याएं खड़ी हो रही हैं।
तो दो काम करने हैं। एक तो व्यक्तिगत संपत्ति के विरोध में पूरा वातावरण खड़ा करना और दूसरा व्यक्तिगत संपत्ति को मिटाने में। व्यक्तिगत संपत्ति को हिंसा घोषित किया जाना चाहिए। वह हिंसा है। और उस हिंसा को रोकने के लिए सरकार को अधिनायकशाही के सिवाय कोई रास्ता नहीं है। अगर हम यह सोचते हों कि हम...।

और आज का सरकारी ढांचा तोड़ने के लिए डू यू एडवोकेट दि यूज ऑफ वाइलेंस?

नहीं।

आपने बोला कि नॉन-वाइलेंस से तो कोई हरकत नहीं...

न, मेरा कहना यह है, मेरा कहना यह है, नॉन-वाइलेंस से समाज की अंतर-रचना नहीं बदल सकती, लेकिन नॉन-वाइलेंस से आप समाज के सत्ता के अधिकारी हो सकते हैं। समाज की व्यवस्था जो है व्यक्तिगत संपत्ति की वह तो आपको दबाव से बदलनी पड़ेगी। जरूरी नहीं कि दबाव वाइलेंस ही हो, लेकिन अगर वाइलेंस से न बदली जा सके दबाव को तो वाइलेंस ही हो तो कोई मुझे चिंता नहीं है उसकी। मेरा मतलब यह है कि लोकशाही है आज, जैसी भी है टूटी-फूटी लोकशाही है। हां, इस लोकशाही का पूरा उपयोग किया जाना चाहिए। जो लोग समाजवाद लाना चाहते हैं, वे जाकर वोटर को शिक्षित करें। इस सत्ता पर अधिकारी हों। और सत्ता पर अधिकारी होते ही वह इस मुल्क से व्यक्तिगत संपत्ति और शोषण की व्यवस्था को हटाने के सब उपायों का प्रयोग करें।
वह समझाने-बुझाने से हो सके, वह लोकमत के दबाव से हो सके। और अगर उन सबसे न हो सके, तो जैसा हम पुलिस के दबाव से हैदराबाद लेते हैं, जैसे हम पुलिस के दबाव से राजाओं को समाप्त कर देते हैं, उसी तरह के पुलिस के दबाव के अंतर्गत हमें पूंजीशाही को समाप्त करना होगा।

इन केरल गवर्नमेंट कम टु बैलेट, विज्युअलाइज हाउ टु...बट इ.ज ओपनियन अबाउट दिस? यू सेड दैट यू कैन एप्रोच टु वोटर एण्ड चेंज हिज माइंड। यू सेड दैट कम टु पॉवर ओनली टु बैलेट। इ.ज इट शुड बी एट द आल इंडिया लेवल आर समथिंग...

हां-हां, बिल्कुल ही। अपने भारतीय तल पर वैसा यह व्यवस्था करनी चाहिए। और एक प्रांत में कुछ कर भी नहीं सकती कोई समाजवादी व्यवस्था। जब तक कि केंद्रीय तल पर सारी समाजवादी रचना नहीं होती। क्योंकि वह प्रांत...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, वह भी, वह तो हमेशा। सारी झंझट वह। फिर वे नहीं करने देते, नहीं करने देते, वे नहीं चलने देगें। वे नहीं चलने देते हैं, चलने नहीं देंगे। क्योंकि अगर एक प्रांत में भी, केरल में या कहीं भी अगर समाजवादी तंत्र की थोड़ी भी रूपरेखा स्पष्ट हो जाए और जनता को थोड़ी भी राहत दिखाई पड़े तो पूरे मुल्क से सारी व्यवस्था नष्ट हो जाएगी इनकी। इसलिए उसको सफल वहां नहीं होने देंगे। और जब वह सफल होने लगेगी तो बाधा डालेंगे, बाधा के लिए उपाय करेंगे। क्योंकि केरल में अगर समाजवादी तंत्र थोड़ा भी सफल होता है तो पूरा हिंदुस्तान अंधा नहीं है कि बैठा हुआ देखता रहेगा। वे उसको सफल नहीं होने देंगे। उसकी सफलता इनके लिए हत्या हो जाएगी। उसकी असफलता में ही ये जी सकते हैं। इसलिए कोई एक स्टेट के तल पर...

इट इ.ज इंपारटेंट पाजिटिवली, व्हिच कैन...कांग्रेस पाट्री ऑफ इंडिया, कैन बी...

नहीं, मैं किसी पार्टी से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है। पार्टियों की अपनी गलतियां हैं, अपनी भूलें हैं। और मजा यह है कि भारत की चाहे कोई भी पार्टी हो, क्योंकि वह भारतीयों की है इसलिए भारतीयों की बुनियादी बेवकूफियां सब पार्टियों के साथ जुड़ी हैं। वह जिस भारतीय मन से मैं लड़ रहा हूं, वह मन क्योंकि सभी पार्टियों के भीतर वही मन है, इसलिए वह बुनियादी रूप से चचेरे भाई हैं, उनमें बहुत ज्यादा फर्क नहीं है।

व्हिच पाट्री इ.ज नियरर टु योर...।

नहीं, आज ठीक अर्थों में कोई पार्टी, ठीक अर्थों में आज कोई पार्टी समाजवाद की व्यवस्था लाने में इस मुल्क में बहुत करीब नहीं है। तो इसलिए मेरा कहना है कि मैं किसी पार्टी से मेरी कोई सहमति नहीं है। समाजवाद से मेरी सहमति है। और समाजवाद के लिए हिंदुस्तान में एक हवा बननी चाहिए। तो एक हवा से एक पार्टी विकसित हो सकती है, जो कि ठीक अर्थों में समाजवादी हो।

आल इंपासिबल टु बिलीव...। यस्टरडे यू टोल्ड...।

हमेशा, हमेशा, जो नहीं हुआ है उसकी बात करना उटोपिया की ही बात करनी है। जो नहीं हुआ है। हमेशा। जो नहीं हुआ है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, मैं समझा। नहीं, इसलिए मैं कह रहा हूं, इसलिए मैं कह रहा हूं कि मैं ये जो एक्झिस्टिंग पोलिटिकल पार्टीज हैं, पार्टीज के ढांचे गलत हो सकते हैं, इनके भीतर ढेर व्यक्ति हैं जो गलत नहीं हैं। उनके तंत्र गलत हो सकते हैं।
हिंदुस्तान में अभी भी लोकमानस के निकटतम पहुंच सके समाजवाद का संदेश, वैसी कोई वैचारिक पार्टी खड़ी नहीं हो सकी। प्रयास हुए बहुत से। वे प्रयास कई तरह से नष्ट हुए। कम्युनिस्ट पार्टी के साथ, लोकमानस और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच कुछ बुनियादी फासले खड़े हो गए। वे कम्युनिस्ट पार्टी के बाड में खड़े हो गए।
कम्युनिस्ट पार्टी जो संदेश लेकर यहां आई वह संदेश केवल समाजवाद का संदेश न होकर साथ ही नास्तिकता का और अधर्म का संदेश भी बन गया। उसके दुष्परिणाम हुए भारत में। भारत के मानस में नास्तिकता के लिए कोई जगह नहीं है। आज भी नहीं है भारत के मानस में। थोड़े से शिक्षित, पढ़े-लिखे लोगों के मन में हो सकती है। भारत के मानस में कोई जगह नहीं है। तो कम्युनिस्ट पार्टी और भारत के मानस के बीच एक बुनियादी बैरियर की तरह है। उससे नास्तिकता और धर्म-विरोधी भाव खड़ा हुआ है।
दूसरे सोशलिस्ट जो हिंदुस्तान के थे, वे सोशलिस्ट कम थे और बुनियादी रूप से गांधीवादी ज्यादा थे। गांधीवाद को उन्होंने सोशलिज्म की शक्ल में गढ़ा हुआ था। और गांधीवादी बुनियादी रूप से, गांधीवाद बुनियादी रूप से समाजवाद नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

नहीं, वह नहीं कह रहा हूं। वह नहीं है। और, तो जो दूसरा सोशलिस्ट दिमाग पैदा हुआ मुल्क में, जयप्रकाश या उस तरह के लोगों का, वे मूलतः गांधीवादी हैं। सोशलिज्म की तरफ उसके झुकाव थे। उसने थोड़ी-बहुत कोशिश की, वह असफल हो गया, वह असफल होने को था। वह धीरे-धीरे इधर-उधर भाग गया। या तो कुछ सर्वोदय में जाकर लग गया और उसमें डूब गया अपने को भुलाने के लिए, या किसी और काम में लग गया। हिंदुस्तान में पिछले तीस-चालीस साल के भीतर कोई व्यवस्थित रूप से समाजवाद एज ए थॉट म्यूजियम खड़ा नहीं हो सका।
पार्टी पैदा होती है वैचारिक क्रांति से। पार्टीज तो खड़ी हो गईं हिंदुस्तान में लेकिन वैचारिक क्रांति बिल्कुल नहीं हुई। पार्टीज आउट कम हैं एक वैचारिक मूवमेंट की। हिंदुस्तान में एक समाजवाद, एक लोकमानस को छूने वाला आंदोलन नहीं बन सका। पार्टीज खड़ी हो गईं, और पार्टीज कई तरह से खड़ी हो गईं। ये जो पार्टीज खड़ी हुईं इनका अब भी लोकमानस से कोई संबंध, सीधा साक्षात्कार नहीं हो सका है। मेरी जो दृष्टि है, मुझे पार्टी की फिक्र नहीं है, जितनी समाजवादी लोकभावना की फिक्र है।
समाजवाद एक वैचारिक तल पर देश के भाव में पैदा हो जाए, तो पार्टीज उससे पैदा हो सकती हैं। एक्झिसिं्टग पार्टीज भी उसके अनुकूल बन सकती हैं, वह दूसरी बात है। उसकी मुझे चिंता नहीं। इसलिए आप जो कहते हैं कि यह उटोपिया मालूम होता है। यह ठीक भी है एक अर्थों में, क्योंकि विचार की कोई भी क्रांति उटोपिया ही है। लेकिन विचार की क्रांति से धीरे-धीरे सक्रिय मूवमेंट पैदा होते हैं और वे उटोपिया नहीं रह जाते हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, समझा न, समझा, मैं समझ गया। मैं अभी आपसे बात कर रहा था, आप नहीं आए उसके पहले यह बात हो चुकी। मैं यह कह रहा था कि वह जो आग लगी है, वह आपको जो आग दिखाई पड़ती है, इमिजिएट प्रॉब्लम्स की, उसको आग नहीं कह रहा हूं। हम, हमारी आग लगी है बहुत सनातन, और वह जो आग लगी है वह इमिजिएट प्रॉब्लम्स की नहीं, इमिजिएट प्रॉब्लम्स उस सनातन आग के परिणाम हैं, बाइ-प्रोडक्टस हैं।

सनातन आग तो गरीबी है।

न-न। गरीबी मैं नहीं कह रहा हूं। गरीबी भी हमारी चिंतना का परिणाम है। गरीबी भी बेसिक कारण नहीं है। हम जिस तरह सोचते रहे हैं आज तक उसमें गरीबी ही पैदा हो सकती है। वह हमारे सोचने के गलत रास्तों का परिणाम है। गरीबी भी! हम गरीब अकारण नहीं हैं। और गरीब होना कोई प्राकृतिक घटना नहीं है हमारे ऊपर। और गरीबी भी हमारे सोचने के गलत ढंगों का परिणाम है। और जब तक वे सोचने के गलत ढंग नहीं बदले जाते हैं, तब तक आप गरीबी को थोड़ी-बहुत सहने योग्य बना सकते हैं, और आप इससे ज्यादा कुछ भी नहीं कर सकते। और वह भी आप नहीं कर पाएंगे। जैसा मेरा कहना है, जैसा मेरा कहना है कि हमको आज तीस साल से पता है यह बात कि अगर हमारी जनसंख्या बढ़ती चली जाती है तो हम रोज गरीब से गरीब होते चले जाएंगे। यह तीस साल से हमें पता है। लेकिन हमारी जनसंख्या बढ़ती ही चली गई है। और आज भी जो हम उपाय कर रहे हैं वे उपाय ऐसे हैं जैसे पूरे समुद्र को कोई थोड़ी-बहुत रंग की टिकिया डाल कर रंगने की कोशिश कर रहा हो।
इतने ही उपाय से अगर हमने संख्या को रोकने की कोशिश की, तो हम दो सौ साल में भी संख्या नहीं रोक सकते हैं! और जितने हम उपाय कर रहे हैं, वे उतने उपाय इतने कम हैं और संख्या इतनी तीव्रता से बढ़ रही है, यह हमारी समझ के बाहर हुआ जा रहा है। लेकिन संख्या बढ़ रही है इसलिए नहीं कि संख्या बढ़ने के बाबत हमारी समझ नहीं है कि वह गलत है बल्कि बच्चों को पैदा करने के बाबत हमारी जो समझ है वह सनातन है। वह यह है कि बच्चे परमात्मा से आते हैं, हमें उन्हें रोकने का कोई हक नहीं है।
मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? तीस साल में दूसरे मुल्कों ने, जैसे फ्रांस जैसे मुल्क ने अपनी संख्या थिर कर ली है। आज तो फ्रांस में भी चिंता की यह बात है कि अगर यह संख्या थिर रही तो कहीं यह न हो कि आने वाले पचास वर्षों में उनकी संख्या नीचे गिरनी शुरू हो जाए, वे जितने हैं उससे कम न हो जाएं। अब यह बड़े मजे की बात है कि एक ही पृथ्वी पर हम लोग रह रहे हैं!
एक के सामने सवाल है कि हम संख्या कैसे रोकें! और अभी भी कौमें हैं जिनके सामने सवाल है कि हम अपनी संख्या गिरने से कैसे रोकें! कहीं वह बिल्कुल न गिर जाए। अब पश्चिम में उनको चिंता पैदा शुरू हो गई कि पूरब के लोग तो पैदाइश बढ़ाए चले जा रहे हैं। कहीं सौ साल में ऐसा न हो जाए कि सफेद रंग की जातियां काले रंग की जातियों से इतनी कम पड़ जाएं कि हमारा जीना मुश्किल हो जाए इनके साथ।
मेरा मतलब यह है, हम जिस ढंग से सोचते हैं वे ढंग हमारी सारी की सारी जीवन-प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। वे इमिजिएट दिखाई नहीं पड़ते हमें। अब जैसे मैं आपको कहूं, अभी भी करपात्री जाकर गांव में अगर समझाते हैं लोगों को कि यह संतति-नियमन जो है यह धर्म विरुद्ध है। तो गांव के आदमी के समझ में आता है। लेकिन अगर गांव के आदमी को जाकर आप समझाएं कि बच्चे पैदा करना धर्म विरुद्ध है, तो समझने की बात से बिल्कुल बाहर हो जाता है। मैं जो कह रहा हूं, मेरे सामने इमिजिएट प्रॉब्लम्स महत्वपूर्ण नहीं हैं। क्योंकि मैं मानता हूं, इमिजिएट प्रॉब्लम्स जो हैं वे हमारे बेसिक थिंकिंग के आउटकम हैं, कांसिक्वेंसिस हैं। बेसिक थिंकिंग अपनी प्रॉब्लम है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

जरूर, लिमिटेड है, लिमिटेड है। और यह भी सच है, लेकिन उस लिमिटेशन को तोड़ने का सवाल है। उसको ही तोड़ने का सवाल है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

बिल्कुल ठीक है, लेकिन वह भी क्यों? वह भी क्यों?

बिकाज कंट्री इ.ज पुअर।

नहीं, कंट्री पुअर है यह नहीं। शरीर के प्रति जितना हमें ध्यान देना चाहिए वह हमारे भाव के भीतर नहीं कि शरीर के प्रति ध्यान देना है। कुछ भी खा लिया और काम चला लेना। शरीर के प्रति एक बेसिक निग्लेक्शन हमारे भीतर है। और वह जो हमारी फिलासफी का हिस्सा है। हमारी फिलासफी यह कह रही है कि शरीर से कुछ लेना-देना नहीं। एक दफा खाना खा लो तो भी ठीक है, कुछ भी खा लो तो भी ठीक है। शरीर तो गौण है, असली चीज तो आत्मा है।
मैं आपसे यह कह रहा हूं कि आपने भी वैटेलिटी खोज ली होती, विटामिन खोज लिए होते। आपने भी खोज लिया होता कि कौन सी डिफिशिएंसी है। लेकिन शरीर से हमें कोई लेना-देना नहीं। बल्कि सच यह है कि हम उस आदमी को आदर देते हैं जो शरीर के प्रति जितना उपेक्षापूर्ण हो। हम उसको आदर देते हैं। और जो आदमी शरीर की जितनी चिंता करे, उसको हम आदर नहीं देते। अगर गांधी थर्ड क्लास में चलेंगे तो हम आदर ज्यादा देंगे बजाए फस्र्ट क्लास में चलने के। और उसका बुनियादी कारण क्या है? उसका बुनियादी कारण यह है कि हम तीन हजार वर्ष से यह सोचते हैं कि शरीर की जो उपेक्षा करता है वही आत्मवादी है।
तो मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? यह जो हम नहीं खोज पाए डिफिशिएंसी और हम लेजी हो गए। उसके कारण डिफिशिएंसी में नहीं; उसके कारण भी हमारी बेसिक थिंकिंग है। हिंदुस्तान जो है एक तरह का एंटी-बॉडी एटीट्यूड है उसके माइंड का। और वह एंटी-बॉडी एटीट्यूड जो है वह नुकसान पहुंचा रहा है। और वह जब तक नहीं बदल देते तब तक हम खोज-बीन कर भी नहीं पाएंगे। अभी भी हालत यह है, अभी भी हालत यह है कि अभी भी हम जो खाना खाते हैं, हमारा शिक्षित से शिक्षित भी व्यक्ति कोई बहुत बोधपूर्वक खाना खा रहा हो ऐसा नहीं है कि वह क्या खा रहा है? वह जो खा रहा है, शिक्षित से शिक्षित व्यक्ति भी, उसको कोई बोध नहीं है खाने के बाबत। वह कैसे सो रहा है इसका भी बोध नहीं है। हमारी चेष्टा यह रही है कि अगर एक नंगे तख्त पर आदमी सोता है तो वह ज्यादा ऊंचा काम कर रहा है। इसकी हमें कोई फिक्र नहीं कि नंगा तख्त उसके स्वास्थ्य में वर्धक होगा कि नुकसानदायक होगा। इसका हमें कोई विचार नहीं है।
हम क्या खा रहे हैं इसका विचार नहीं है। कम जो खाता है, सस्ते से सस्ता जो खाता है, वह कोई ऊंचा काम कर रहा है। उपवास जो करता है वह खाने वाले से भी ऊंचा काम कर रहा है। कपड़े पहनने वाला आदमी गलती कर रहा है, नंगा जो बैठा हुआ है चाहे कितनी भी तकलीफ झेल रहा हो, वह ऊंचा काम कर रहा है।
हमारी जो बेसिक दृष्टि है शरीर-विरोधी होने की वजह से डिफिशिएंसी रह गई, डिफिशिएंसी हम कभी भी पूरा कर लेते। मजे की बात यह है कि हिंदुस्तान में सबसे पहले शरीर के बाबत जानकारियां प्राप्त कर ली थीं, जो कि पश्चिम ने अभी तीन सौ वर्षों में प्राप्त कीं। और फिर भी हम कुछ भी नहीं कर पाए। नहीं करने का कारण है। जब एक दफा अभिनय...
अमेजान में एक कबीला रहता है दक्षिण अमरीका में। तो उस कबीले की हजारों साल की ट्रेनिंग यह रही है कि कोई भी आदमी अपने खेत पर काम नहीं करेगा। सारा गांव एक आदमी के खेत पर काम करेगा। अपने खेत पर काम करना बुरा मानते हैं वे। जब तक कि सब लोग काम करने न आएं। और दूसरे के खेत पर काम करने को अच्छा मानते हैं। एक भाई-चारे के लिए। लेकिन वह कबीले के जो खेत हैं, छोटे-छोटे टुकड़े और दूर-दूर पहाड़ियों पर हैं। तो सारे गांव को दूर-दूर की यात्रा करनी पड़ती है काम के लिए। और परिणाम यह हुआ है कि उनके बगल का कबीला सुखी और संपन्न है।
उनके पास भी उतने-उतने दूर खेत हैं, लेकिन वे अपने-अपने खेत पर काम करते हैं। यह कबीला भूखा मर रहा है हजारों साल से। लेकिन वह जो उसकी धारणा है कि अपने खेत पर काम करना स्वार्थपूर्ण है दूसरे के खेत पर काम करना ही सामाजिक बात है, अच्छी बात है, वही धार्मिक कृत्य है। वे गरीब रहे। दोनों कबीले एक तरह की जमीन पर रहते हैं, एक तरह के लोग हैं। एक कबीला भूखा मर रहा है हजारों साल से, दूसरा कबीला संपन्न है। लेकिन वह कबीला भूखा मर रहा है। और उसका कुल कारण इतना है कि वह उसकी बेसिक दृष्टि में बुनियादी भेद है।

हाउ मैनी डिस्ट्रीब्यूशंस गांधी एण्ड गांधीइज्म...। गांधीइज्म यू सेड वेरी गुड वर्डस अबाउट गांधी। आई थिंक, गांधी एण्ड गांधीइज्म दे कैन नॉट बी सेपरेटेड।

हां-हां, वे बिल्कुल सेपरेट किए जा सकते हैं इस तरह। इसलिए कहता हूं, गांधी की नैतिकता, गांधी का आचरण, गांधी का व्यक्तित्व उनकी नींव है, उनकी चेष्टा, वह सब अदभुत है और प्रीतिकर है, लेकिन गांधी...

एज ए ह्यूमन बीइंग।

एज ए ह्यूमन बीइंग, एज ए ह्यूमन बीइंग। एज ए ह्यूमन बीइंग मैं गांधी को पसंद करता हूं माक्र्स को पसंद नहीं करता। माक्र्स के पास मुझे कोई कीमती व्यक्तित्व नहीं मालूम पड़ता। कोई पर्सनैलिटी नहीं मालूम पड़ती। जिसको कि जिसको हम व्यक्ति की तरह आदर दे सकें। लेकिन माक्र्सइज्म को मैं गांधीइज्म से पसंद करता हूं। क्योंकि माक्र्सइज्म की जो दृष्टि है वैज्ञानिक है। जीवन को बदलने के लिए ज्यादा मूलभूत है। तो मैं दुनिया ऐसी चाहूंगा, जहां गांधी जैसे आदमी हों और माक्र्स जैसा समाज हो।
माक्र्स के व्यक्तित्व में मुझे बहुत ही साधारण आदमी मालूम पड़ता है। फ्रायड का व्यक्तित्व इतना साधारण है जिसका हिसाब नहीं। लेकिन फ्रायड ने जो कहा है, जो खोज की, वह बहुत असाधारण है। तो एज ए ह्यूमन बीइंग, मैं गांधी की जितनी तारीफ कर सकूं, उतना करता हूं। लेकिन गांधी की जो दृष्टि है समाज के मसले के पक्ष में वह दृष्टि मुझे वैज्ञानिक नहीं मालूम पड़ती, उसका मैं विरोध करता हूं। इसलिए गांधीइज्म में और गांधी में मैं फर्क कर लेता हूं।

लेकिन गांधी ने तो कहा था कि मुझे भूल जाओ, मेरे विचार को याद करो।

हां, गांधी ने यह कहा था। और मैं यह कहता हूं कि गांधी को मत भूलना, गांधी के विचार को भूल जाओ। क्योंकि मुझे लगता है, गांधी बहुत मूल्यवान हैं और विचार कुछ मूल्य का नहीं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

ठीक बात है। ठीक है। असल में चेंज ही करना हो तो माक्र्स को भी एक फिलासफी एड करनी पड़ती है। चेंज करना हो तो भी।

बट इ.ज योर पार्लियामेंट स्कीम...।

मेरा मतलब नहीं समझे आप। माक्र्स को भी अगर चेंज करनी हो दुनिया, तो भी एक नई फिलासफी एड करनी पड़ती है। क्योंकि उस फिलासफी के प्रभाव में ही वह चेंज होगी।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

माक्र्स ने कुछ इंप्लीमेंट करने के लिए नहीं किया। माक्र्स को फुर्सत भी नहीं थी। मैं आपको कहूं, माक्र्स को कल्पना भी नहीं थी और फुर्सत भी न थी। और माक्र्स ने इंप्लीमेंटेशन के लिए कुछ भी नहीं किया। इंप्लीमेंटेशन पचास साल बाद होना शुरू हुआ। और बिल्कुल दूसरे लोगों ने किया। और मेरी अपनी समझ यह है कि आज तक दुनिया में कोई फिलासफर इंप्लीमेंटेशन कभी नहीं किया है। वह दृष्टि दे सकता है, इंप्लीमेंटेशन करने वाले लोग आते हैं वे इंप्लीमेंट करते हैं। लेनिन ने इंप्लीमेंटेशन किया और उससे भी ज्यादा स्टैलिन ने किया। माक्र्स ने कुछ इंप्लीमेंटेशन किया नहीं, कर सकता नहीं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

कुछ भी नहीं। कुछ भी नहीं।

फस्र्ट इंटरनेशनल...।

हां, यह तो ठीक है न, यह सब ठीक है। फस्र्ट इंटरनेशनल भी जो है वह भी फिलासफिकल मूवमेंट है माक्र्स के लिए।

लेकिन सबको उसकी जरूरत है।

जरूर! मैं तो उसके लिए, मैं तो जीवन जागृति केंद्र और युवक क्रांति, दोनों को, सब खड़े करता हूं। वह मैं खड़े करता हूं। लेकिन माक्र्स की दृष्टि में और माक्र्स के समय में फस्र्ट इंटरनेशनल जो है वह एक फिलासफिकल मूवमेंट है। वह एक मूवमेंट है कम्युनिज्म की विचारधारा को पहुंचाने का। इंप्लीमेंटेशन बहुत पीछे आता है। कई दफा तो हजारों वर्ष बाद इंप्लीमेंटेशन आता है। इंप्लीमेंटेशन तो उतना महत्वपूर्ण भी नहीं है। एक दफा साइंटिफिक दृष्टि साफ हो जाए तो इंप्लीमेंटेशन आ जाएगा। उसकी कोई चिंता की बात नहीं है।

अच्छा, वह मूल दृष्टि। तो आपके ख्याल से अभी फिलासफिकल मूवमेंट करनी चाहिए। और दूसरी कोई एक्टिविटी की जरूरत नहीं है।

न-न, यह मैं नहीं कहता कि जरूरत नहीं है। जिनको जरूरत लगती है वे कर रहे हैं। मैं नहीं कर रहा हूं।

वह बहुत तेजी से निकली। आज जो दूसरी जो कि पोलिटिकल रह गई, समझ लीजिए सोशिएल है। वह कौनसा तेजी से करना चाहिए। आपने बताया कि डमोक्रेसी एक्झिस्टीड हुई है। तो यह पोलिटिकल एक्टिविटी में जो लोग आपके ख्याल के साथ हैं, वे जो खड़े हैं, उनको आप क्या कहेंगे?

उनको मैं जो कह रहा हूं, उनको जो मैं कह रहा हूं, मेरी बात जो वे समझ रहे हैं...।

अब वे बीच में तो नहीं रहेंगे, धरती पर उतरेंगे।

न-न-न। वे तो उतरेंगे धरती पर। एक दफे स्पेस हो तो ही धरती पर उतरेंगे। स्पेस ही न हो तो धरती पर कुछ भी नहीं उतरेगा। तो अभी स्पेस में ही नहीं है। यानी जो तकलीफ है, जो तकलीफ है वह यह है कि इस मुल्क के पास अभी मस्तिष्क में भी विचार नहीं है जो धरती पर उतर सके। धरती पर उतने की जल्दी मत करिए। वहां स्पेस तो होने दीजिए, तो धरती पर उतरेंगे।

तो लांगटर्म और शार्टटर्म दो प्रोग्राम बनाएंगे न।

बिल्कुल ही ठीक है न। अभी तो, अभी तो शार्टटर्म की फुर्सत नहीं है अभी तो लांगटर्म ही सवाल है। अभी मेरे सामने तो जो सवाल है वह यह कि एक बार विचार बीज फैल जाएं तो इंप्लीमेंटेशन में उतरना शुरू हो जाएंगे। इसकी मुझे चिंता की बात नहीं है। हमारी हमेशा चिंता इंप्लीमेंटेशन की ज्यादा होती है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

वे जो फेल न होते, अगर वे विचार-क्रांति वाले ही होते। वे इंप्लीमेंटेशन...कोई फर्क नहीं इसलिए फेल हो गए, यह मैं आपसे कहता हूं। जो आप कह रहे हैं वह गलती बात है। विनोबा अगर सिर्फ विचार-क्रांति करते तो फेल न होते, और हो सकता था उनकी विचार-क्रांति परिणाम भी लाती। विचार-क्रांति एक तरफ रह गई, वे इंप्लीमेंटेशन में पड़ गए। और इंप्लीमेंटेशन में पड़ कर सबका सब खराब कर दिया। यानी विनोबा की असफलता विचार की असफलता नहीं है, इंप्लीमेंटेशन की असफलता है। और वह विनोबा विचार की दृष्टि से असफल नहीं हो गए, जो उन्होंने किया उसमें फंस गए।

समव्हेयर यू सेइंग गांधी जी कुड नॉट ट्रांसफार्म ऑर चेंज ह्यूमन कैपिटिलिस्ट दे आर गोइंग ए कैपिटलिस्ट सोसाइटी...

नहीं, मैं तो मानता हूं कि चेंज किया ही नहीं जा सकता, इसलिए गांधी नहीं कर सके। वह धारणा ही गलत थी एक-एक व्यक्ति को चेंज करने की। मेरा तो मानना ही नहीं है, ये चेंज किए जा सकते हैं। मेरा तो कहना यह है कि गांधी भूल में थे, वे सोचते थे कि हम कैपिटलिस्ट को चेंज कर लेंगे। कैपिटलिज्म चेंज किया जा सकता है, कैपिटलिस्ट नहीं किया जा सकता।

कैपिटलिस्ट किस तरह से चेंज किए जा सकते हैं?

जैसे सारी दुनिया में हो रहे हैं। रूस में कैसे चेंज किए गए। चीन में कैसे चेंज हो रहे हैं।

लोकतंत्र का अभिनत्व आप क्या देखते हैं।

वही तो मैंने कहा, वही विकल्प है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

दूसरा खड़ा नहीं होगा। दूसरा खड़ा नहीं होगा। व्यवस्थापक वर्ग खड़ा हो जाएगा। शोषक वर्ग खड़ा नहीं होगा।

तो लोकतंत्र पर आज का फायदा नहीं हुआ तो...। हमारे किसान भारत के और मजदूर जो पीड़ित हैं, शोषित हैं, लोकतंत्र द्वारा उनको कोई फायदा नहीं होगा?

न तो उनके शोषण में कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी पीड़ा कम हो सकती है। वह सवाल नहीं है।

और लोकतंत्र से यह प्रश्न हल नहीं किया जा सकता?

न, यह नहीं हल किया जा सकता। उसकी वजह यह है, उसकी वजह यह है कि लोकतंत्र मानता यह है क्योंकि लोकतंत्र जो है वह कोई विवादी व्यवस्था की ही बाई-प्रॉडक्ट है। तो लोकतंत्र मानता यह है कि पूंजीपति पर दबाव डालना, उसके शोषण के इंतजाम को तोड़ना, यह लोकतंत्र का हमला है। व्यक्तिगत संपत्ति लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है। वह उसको व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम से कहता है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता होनी चाहिए प्रत्येक व्यक्ति को और व्यक्तिगत संपत्ति वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा मानता है।
अगर आप लोकतंत्र का ही नाम रखना चाहते हैं, नाम से कोई झगड़ा नहीं। लेकिन लोकतंत्र नाम रहे तो भी हमें एक व्यक्तिगत संपत्ति पर चोट करनी पड़ेगी और व्यक्तिगत संपत्ति को समर्थन देने वाली विचारधाराओं पर भी चोट करनी पड़ेगी तो ही व्यक्तिगत संपत्ति जाती है।

कल ही आपने कहा था कि व्यक्तिगत संपत्ति जब तक नहीं बढ़ती, तो हम भौतिकवाद...।

नहीं, यह तो आप गलत समझ रहे हैं, आप समझे नहीं फिर, यह आप नहीं समझे।

कैपिटिलिस्ट कैन नॉट बी चेंज्ड।

हां, कैपिटलिज्म चेंज किया जा सकता है।

यू डोंट फाइंड एनी आब्जेक्शन इन मूविंग...सेम ऑल।

कोई सवाल ही नहीं है। कैपिटलिस्ट जो है, कैपिटलिस्ट जो है, वह कैपिटलिज्म का उतना ही विक्टिम है जितना प्रोलिटेरिएट, दोनों। यानी सवाल, इस कैपिटलिज्म का जो इंतजाम है, जो सरंजाम है, जो व्यवस्था है उसमें पूंजीपति उतना ही शिकार है जितना की मजदूर। वे दोनों ही नुकसान में और परेशानी में हैं। मुझे कैपिटलिस्ट से कोई भी विरोध नहीं है, कैपिटलिज्म से विरोध है। यह साफ होना चाहिए। इसलिए पूंजीपति का दुश्मन नहीं हूं मैं। पूंजीपति से इतना है कि समाजवाद आए दुनिया में।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

इसको थोड़ा समझ लें। क्राइस्ट के मैसेज में, बुद्ध के मैसेज में और मेरी बात में बुनियादी फर्क है। फर्क क्या है, फर्क क्या है, क्राइस्ट का मैसेज सोसाइटी को बदलने का तो सवाल ही नहीं है, क्राइस्ट का मैसेज तो इंडिविजुअल ट्रांसफार्मेशन का है। बुद्ध का मैसेज भी इंडिविजुअल ट्रांसफार्मेशन का है, एक-एक व्यक्ति को बदलने का है। गांधी की बात आप ले सकते हैं, बुद्ध और क्राइस्ट को छोड़ दें..उनका मैसेज बुनियादी फर्क है। गांधी का मैसेज और गांधीवादी की आप बात ले सकते हैं कि गांधी का मैसेज था और गांधीवादियों ने जो हालत की, तो अगर मैं एक बात कहूं कि बीस साल में मेरा कोई अनुयायी होगा, तो यही हालत कर देगा।
उसमें मेरा कहना यह है कि वह जो गांधीवादी ने हालत की है वह गांधीवादी का कसूर नहीं, गांधीवाद का कसूर है, यह होने वाला था। यह गांधी के साथ यही होने वाला था। क्योंकि गांधीवाद की बुनियादी दृष्टि गलत है। तो गांधीवादी जो भी करेगा उससे गलती होने वाली है। यह गांधीवादी का कसूर नहीं है। यह कोई मोरारजी देसाई का या किसी और का कसूर नहीं है। गांधीवाद की जो दृष्टि है वह दृष्टि चूंकि गलत है। इसलिए जो भी उससे इंप्लिमेंटेशन करेगा वह झंझट में पड़ जाएगा, वह इसी तरह की झंझट होने वाली है।
मेरा जो कहना है न, जो मैं कह रहा हूं अगर वह दृष्टि वैज्ञानिक है तो उसके इंप्लिमेंटेशन करने वाला सफल हो जाएगा। और अगर वह जो दृष्टि वैज्ञानिक नहीं है, तो इंप्लिमेंटेशन नहीं हो सकता, वह खत्म हो जाएगा। अनुयायी का दोष नहीं है उतना। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? जितना वाद का दोष है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

न, यह तो ठीक कहते हैं आप। असल बात यह है, असल बात यह है कि जब कोई फिलासफी उनके अनुयायियों के द्वारा नष्ट होती है तो दो-तीन कारण होते हैं।
एक कारण तो किसी फिलासफी की वैज्ञानिकता की परीक्षा ही तब होती है जब अनुयायी उसको इंप्लिमेंटेशन करते हैं। उसके पहले तो उसकी परीक्षा भी नहीं होती। हवा में तो सभी चीजें ठीक मालूम होती हैं। हवा में कोई दिक्कत नहीं है। एक्सप्रेस थिंकिंग में तो सभी चीजें ठीक हो सकती हैं क्योंकि सिर्फ आग्र्युमेंट और लाजिक की बात है। हाइपोथेटिकल बात है। लेकिन जब आप इसको व्यावहारिक रूप से इंप्लीमेंट करते हैं, तभी पता चलता है कि वह इंप्लिमेंट हो सकती है कि नहीं हो सकती। इसलिए असली कठिनाई तो हमेशा इंप्लिमेंटेशन वाले के सामने खड़ी होती है। और उसमें हमेशा परेशानी हुई है क्योंकि आकाश से जमीन तक उतारने में बहुत दिक्कतें होती हैं, एक बात।
दूसरी बात, अनुयायी जो है, अनुयायी जो है अगर वह एक भावनागत प्रभाव से किसी चीज से प्रभावित हुआ है तो एक स्थिति होगी, और लॉजिकल, रेशनल और बुद्धिमत्ता से प्रभावित हुआ तो बिल्कुल दूसरी बात होगी। गांधी जैसे व्यक्तियों का प्रभाव भावनागत ज्यादा होता है, विचारगत कम। माक्र्स जैसे व्यक्तियों का प्रभाव विचारगत ज्यादा होता है, भावनागत कम। मेरा मतलब, मेरा मतलब जो मैं कह रहा हूं...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

मैं आपको बात करता हूं, मैं आपको बात करता हूं, मैं आपको बात करता हूं कि अगर मेरा कोई पैर छूता है आकर, मेरी जितनी विचारधारा है, जितनी ज्यादा से ज्यादा तर्कयुक्त हो सकती है उतनी मैं उसे तर्कयुक्त बनाने की कोशिश करता हूं। विचारधारा मेरी जो है, मेरी विचारधारा से जो प्रभावित होगा, वह एक बात है। जो इस मुल्क की धारा है हमेशा से, एक संन्यासी से साधु से प्रभावित होने की, वह बिल्कुल दूसरी बात है। लेकिन जो आदमी मेरे पैर छूने भी आएगा, वह भी अगर आता ही रहा तो बहुत जल्दी उसको समझ में आ आएगा कि पैर छूना निरर्थक है उसका कोई उपयोग नहीं। इसलिए मैं उसे रोकता भी नहीं।
क्योंकि जो मैं कह रहा हूं चैबीस घंटे, वह उस तरह की सारी बातों के प्रतिकूल है। मैं कोई भावनागत बात उसमें फैलाना नहीं चाह रहा हूं, कोई इमोशनल बात पैदा करना नहीं चाह रहा हूं। मेरी चेष्टा तो निरंतर एक बौद्धिक क्रांति की है। अब अगर इतनी बौद्धिक क्रांति की बातें सुन कर भी वह पैर छूने आता है तो वह पैर छूना उसकी कंडीशनिंग का हिस्सा है, जो हजारों साल की कंडीशनिंग है।
तो मेरी दृष्टि यह है कि अगर वह विचार करना सीखता है मेरे साथ तो बहुत जल्दी इस तरह की भावनाओं से मुक्त हो जाएगा। हो जाना चाहिए। मैं उसको कोई बढ़ावा नहीं देता हूं। क्योंकि मैं जो भी कह रहा हूं वह बिल्कुल प्रतिकूल है। दुनिया में जो आइडियोलॉजिस हैं अगर वे वैज्ञानिक हैं, तर्कबद्ध हैं, तर्कशुद्ध हैं तो उनके इंप्लिमेंटेशन में कठिनाई नहीं होगी। लेकिन अगर वे काल्पनिक हैं, उटोपियन हैं और बेसिकली उनमें कोई विज्ञान की बात नहीं है, तो उनके इंप्लिमेंटेशन में तकलीफ होती है।
गांधी की विचारधारा की इंप्लिमेंटेशन में तकलीफ होगी, क्योंकि वह तर्कशुद्ध नहीं है और न वैज्ञानिक है। काल्पनिक है, भावनापूर्ण है। वह भाव बहुत अच्छा है कि पूंजीपति राजी हो जाए, ट्रस्टी बन जाए। लेकिन यह विज्ञान सम्मत नहीं है यह बात, यह होने वाला नहीं है, यह होने वाला नहीं है। तो यह गांधी की अनुयायी की जो असफलता है वह एकदम अनुयायी की असफलता नहीं है, वह मूलतः गांधीवाद की असफलता है। वह बेचारा अनुयायी फंस जाता है। उसको हम कहते हैं कि यह इन्होंने सब बर्बाद कर दिया। वह बर्बाद करेगा ही। कोई उपाय नहीं था उसका।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, बिल्कुल ठीक है। न, वह जो गॉड है, मैं समझ गया। वह मंदिर में भगवान बैठा हुआ है वह पत्थर का है, वह उनसे कुछ कहता नहीं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

नहीं-नहीं, मेरी बात आप नहीं समझ रहे। वह पत्थर का भगवान उनसे नहीं कहता यह कि तुम दुकान में जाकर गर्दन मत काटना। मैं उनसे कहता हूं कि दुकान में जाकर गर्दन मत काटना। मेरा मतलब...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

नहीं-नहीं, अगर कहने से कोई डिफरेंस होता ही नहीं तब तो फिर कोई उपाय ही नहीं मानते आप।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

मेरी बात नहीं समझे आप। अगर हम यह माने लें कि कहने से कोई डिफरेंस होता ही नहीं, तो फिर कोई उपाय नहीं रहा कम्युनिकेशन का। जो मैं यह कह रहा हूं, मैं यह कह रहा हूं कि यह जो मंदिर का भगवान है उसको वे धोखा दे पाते हैं क्योंकि वह पत्थर का है। और इसलिए पत्थर का उन्होंने भगवान बनाया हुआ है ताकि उससे कोई झंझट पैदा न हो।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

न, यह जो आप, यह जो कह रहे हैं न, डू गुड थिंग्स। जो वे कहते हैं तो गुड थिंग्स का मतलब यह है कि चर्च जाना चाहिए रविवार को, भगवान को माला चढ़ानी चाहिए, मंत्र पढ़ना चाहिए। गुड थिंग्स वे यह नहीं कह रहे हैं कि इल्लॉजिकल नहीं होना चाहिए। यह मेरी बात आप समझ रहे हैं न? बल्कि सच यह है कि उनकी सारी गुड थिंग्स इसी पर निर्भर है कि आप लॉजिक न लाएं बीच में। लॉजिक लाए तो गड़बड़ हो गया। मैं जिसको कह रहा हूं गुड, उसमें गुड में पहली तो बात रीजन है। मैं आपसे जिसको मैं गुड कह रहा हूं, उसमें पहली बात रीजन है। उस रीजन में क्या है? भगवान की हत्या हो तो हो जाए, मंदिर जलता हो जल जाए, मूर्ति टूटती हो टूट जाए, शास्त्र फिंकता हो फिंक जाए।
मैं पहली तो गुडनेस यह मानता हूं कि रीजन होना चाहिए। वह जो प्रीस्ट कह रहा है आपसे गुडनेस, वह कह रहा है कि इररीजन। वह यह नहीं कह रहा आपसे कि रीजन, वह यह कह रहा है कि मरियम को कुंआरी मानो। यह बहुत अच्छे आदमी का लक्षण है। जो शक करता है वह बहुत गड़बड़ आदमी है। वह जो गुडनेस सिखा रहा है वह गुडनेस नहीं है, वह धोखा है गुडनेस का। दुनिया में गुडनेस आएगी, उसके पहले रीजन आना जरूरी है, नहीं तो नहीं आ सकती।
तो मेरे और प्रीस्ट में बुनियादी फर्क है। मैं प्रीस्ट हूं ही नहीं। यानी मुझसे ज्यादा एंटी-प्रीस्ट कोई आदमी हो नहीं सकता। न तो मैं कोई मंदिर खड़ा कर रहा हूं, न कोई प्रीस्ट खड़ा कर रहा हूं, न भगवान और आदमी के बीच किसी दलाल को स्वीकार कर रहा हूं, न किसी शास्त्र को स्वीकार करता हूं, न मेरी किताब को शास्त्र कहता हूं, न यह कहता हूं कि जो मैं कह रहा हूं वह सत्य है, इतना ही कहता हूं कि मुझे सत्य दिखाई पड़ता है और जब तक तुम्हारे रीजन को सत्य न लगे तब तक दो कौड़ी का है, उसको तुम स्वीकार करना मत। यानी कि आखिर हम तोड़ कैसे सकते हैं? आखिर दूसरे व्यक्ति से कम्युनिकेशन का रास्ता कहने के सिवाय क्या है?
अब मेरे पास लोग आते हैं, वे आकर मुझसे कहेंगे कि आप आशीर्वाद दे दें। मैं उनको कहता हूं, आशीर्वाद से कुछ भी नहीं होगा। और तुम इस भ्रम में रहना मत कि मेरे आशीर्वाद से कुछ होने वाला है। तुम मेरे पैर छूते हो तुम सिर्फ कवायद कर रहे हो। तुम इस ख्याल में रहना मत कि मेरे पैर छूने से तुम्हें कुछ हो जाए।
अब मैं कर क्या सकता हूं? यह जो तीन-चार हजार वर्ष की कंडीशनिंग है, तो वह कंडीशनिंग को तोड़ने के लिए हमें कहीं-कहीं चोट करनी पड़ती है, और कर क्या सकते हैं? लेकिन चोट हमें बेरहमी से करनी चाहिए। चोट हम नहीं कर पाते जब हम धोखा देते हैं। जब मैं यह कहूं कि तुम दूसरों के पैर को मत छूना वह कवायद है और मैं कहूं मेरे पैर छूना यह बहुत धार्मिक कृत्य है, तब मुश्किल खड़ी हो जाती है। और वही होता रहा है। दुनिया में अब तक एक प्रीस्ट के खिलाफ दूसरा प्रीस्ट रहा है। प्रीस्टहुड के खिलाफ कोई नहीं रहा है। जो आज तक की स्थिति है वह यह है। एक पुरोहित के खिलाफ दूसरा पुरोहित है। वह कहता है, वह पुरोहित गलत है, पुरोहित मैं सही हूं। लेकिन पुरोहितवाद सही है। वह कहता है, महावीर गलत हैं, राम सही हैं। वह कहता है कि बुद्ध गलत हैं, महावीर सही हैं। लेकिन वह यह नहीं कहता कि पुरोहितवाद गलत है, यह भगवानवाद गलत है।
तो मेरी बुनियादी फर्क है। मैं कोई नये धर्म को खड़े करने के पक्ष में नहीं हूं। मैं कहता हूं कि धर्मों का खड़ा होना गलत है। मैं यह नहीं कहता कि यह राम की मूर्ति गलत है और बुद्ध की मूर्ति गलत है और मेरी मूर्ति सही है। मैं यह कहता हूं, यह मूर्तिवाद गलत है। तो इन सारी बातों में बुनियादी फर्क समझना जरूरी है। और वह सिवाय समझाने के हम कर क्या सकते हैं। लेकिन मेरी समझ यह है कि अगर हम ठीक बात समझाने के प्रयास करें और हमारे स्वार्थ न हों उसमें, तो ठीक बात लोगों के हृदय तक पहुंचती है। ठीक बात तभी नहीं पहुंचती जब ठीक बात के पीछे हमारा कोई बहुत बुनियादी स्वार्थ जुड़ा होता है। अगर मेरा कोई स्वार्थ है इस बात में, तो बहुत जल्दी आप मेरे स्वार्थ को पहचान जाएंगे और ठीक बात गौण हो जाएगी, और आप समझ जाएंगे कि वह सब ठीक बातचीत काम की बातचीत है, जिससे कोई स्वार्थ है। कोई भी स्वार्थ, इतना भी स्वार्थ कि लोग मुझे आदर दें, तो भी फिर सत्य मैं नहीं पहुंचा सकता हूं, उतना स्वार्थ भी, सत्य नहीं पहुंचाया जा सकता है।
तो मुझे, यानी मेरे साथ तो इतनी कठिनाई हो गई। अभी यह सब मामला चला तो मुझे कितने पत्र गए कि हम तो आपके शिष्य थे और हमारी श्रद्धा को बड़ी चोट पहुंची। तो मैंने उनको लिखा कि तुम मुझसे बिना ही पूछे मेरे शिष्य थे कैसे? मैं कभी किसी का गुरु बना नहीं। और निरंतर कह रहा हूं कि किसी को किसी का शिष्य बनना पाप है। तुम मेरे शिष्य बन कैसे गए? तुम शिष्य थे तो तुम भी गलती कर रहे थे और अनजाने मुझको भी पाप में घसीट रहे थे। यह अच्छा हुआ कि मेरी बातचीत से तुम्हारा शिष्यत्व चला गया, तुम मुझसे मुक्त हो गए। यह बहुत ही अच्छा हुआ।
अब तक होता क्या रहा है कि एक गुरु दूसरे गुरुओं से छीनने की कोशिश करता है, लेकिन अपनी गुरुडम खड़ी करने की चेष्टा करता है। तो गुरुडम नहीं मिटती, गुरु बदलते रहते हैं। उससे कोई फर्क पड़ता नहीं बहुत। जो आदमी दूसरे मंदिर में जाता था, वह दूसरे मंदिर में वही बेवकूफी करता है जाकर।
क्रिश्चिएन चर्च में जाता था तो हिंदू मंदिर में जाने लगता है, हिंदू मंदिर में जाता था तो मस्जिद में जाने लगता है। लेकिन बेसिक नॉनसेंस जारी रहती है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरा कहना यह है कि हमें बुनियादी गुरूडम तोड़ देनी है। दुनिया में गुरु की जरूरत नहीं है। और इधर मैंने कहना शुरू किया कि आध्यात्मिक जीवन में गुरु से ज्यादा खतरनाक कंसेप्ट दूसरा नहीं है। परमात्मा और आदमी के बीच किसी गुरु को खड़े होने की जरूरत नहीं है। और कोई खड़ा होता है तो वह आदमी को परमात्मा तक जाने से रोकता है या सत्य तक जाने से रोकता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां-हां, इररेशनल एलिमेंट हैं। लेकिन उन सबको रेशनल बनाया जा सकता है। और जब तक हम नहीं बनाते हैं तब तक आदमी अच्छा आदमी नहीं हो सकता। फ्रायड की मैं बात मानता हूं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

इसका मतलब यह है, इसका मतलब यह है कि रेशनेलिटी पांच हजार साल पुरानी है, मेरी बात पांच साल पुरानी है, और क्या मतलब है? मेरे जैसे लोग खड़े होते रहेंगे और तोड़ते रहेंगे तो पांच हजार साल में रेशनेलिटी को हम तोड़ देंगे। यह तो मामला ऐसा है कि एक डाक्टर आपको दवा देता है और आप फ्लू को चलाए चले जाते हैं। उसका मतलब कुल इतना है कि दवा अभी फ्लू के लायक मजबूती से काम नहीं कर पा रही। उतनी मजबूत नहीं है। उतने जोर से नहीं दी जा रही। लेकिन फ्लू टूटेगा, विश्वास हमारा यह है कि बीमारी टूटेगी दवा जीतेगी। इसी विश्वास से आदमी जीता है। और कोई सारे समाज की क्रांति चलती है।
यह बात सच है कि इररेशनेल एलिमेंट बहुत ज्यादा है। लेकिन इसको तोड़ने का कभी प्रयोग नहीं किया गया है। यह फ्रायड के बाद संभवतः इधर इन तीस-चालीस वर्षों में, इररेशनल एलिमेंट की स्वीकृति उपलब्ध हुई है, तोड़ने की तो बात अलग। वह है यही हमें ख्याल नहीं था। साफ हुआ कि वह है। अब उसको तोड़ने का सवाल है। खुद फ्रायड अपने जीवन में इररेशनल एलिमेंट नहीं तोड़ सकता। मगर उसने खोज तो की है। वह भी जरा अगर उसकी बात का आप खंडन कर दो तो गर्दन पकड़ ले आपकी। इतना गुस्सा हो जाता था कि बेहोश हो जाए गुस्से में, विवाद करने में। अगर आपसे विवाद हो जाए तो वह पिंच कर जाए। मगर इसके व्यक्तित्व में तो बात नहीं है कुछ खास, लेकिन इसने जो खोज की है वह तो मूल्यवान है। उस मूल्य को तो हम स्वीकार कर लिए हैं, असली इररेशनल एलिमेंट है। अब इस इररेशनल एलिमेंट को कैसे नष्ट करना है? उसके प्रयोग की...।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, मेरे सेक्स के बाबत मेरी पहली दृष्टि तो यह है कि अब तक हम मनुष्य को सेक्स के संबंध में छिपा कर, दमन करके, उसकी बात न करके, रोकने की कोशिश करते रहे हैं। जैसे सेक्स है ही नहीं हमने एक ऐसी सामाजिक भूमिका बना ली, जैसे सेक्स जैसी कोई चीज है ही नहीं। वह है ही नहीं कहीं। वह है चैबीस घंटे। लेकिन समाज के तल पर लाजिक की बात है..न अभिव्यक्ति है, न विचार है। तो इस भांति हमने मनुष्य को सेक्स से मुक्त होने में सहयोग नहीं पहुंचाया, बल्कि उसको गहरे से गहरा सेक्सुअल होने में सहयोग पहुंचाया। जीवन में जितने सत्य हमें स्पष्ट हो जाएं, हम उनको फेस करने में, सामना करने में, बदलने में या उनको जीने में समर्थ होते हैं। जितने सत्य जीवन के अंधेरे में खड़े किए जाएं, उतने हम उनसे सामना करने में असमर्थ होते हैं। आदमी सेक्स के मुकाबले सबसे कमजोर हो गया। क्योंकि सेक्स को हमने सबसे ज्यादा अंधेरे में डाल दिया।
तो मेरी मान्यता यह है कि सेक्स को हमें प्रकाश में लाना होगा। उसकी पूरी शिक्षा देनी होगी। उसकी खुली बात करनी होगी। उसके बाबत जो एक टैबू है भय का कि उसकी बात ही नहीं करनी, वह टैबू नष्ट कर देना होगा। और जितने ज्यादा सेक्स को हम सामान्य और साधारण स्वीकार कर सकेंगे, उतना हम समाज को सेक्सुअलिटी से बचा सकेंगे। क्योंकि सेक्सुअलिटी जो है, कामुकता जो है, वह काम के दमन से पैदा हुआ परिणाम है। इधर हम दबाते हैं वह फिर गलत रास्तों से निकलना शुरू होता है। वह निकलेगा कहीं से। और जब वह गलत रास्तों से निकलता है तो वह ठीक रास्तों के बजाए ज्यादा खतरनाक हो जाता है।
यानी बजाय इसके कि एक लड़का एक लड़की को प्रेम करे यह समझ में आने वाली बात है, लेकिन एक लड़का और एक लड़के में सेक्सुअल संबंध हो जाए, यह समझ में आने में जरा मुश्किल मामला हो गया। लेकिन जब हम लड़के और लड़कियों को रोकेंगे, तो लड़कों और लड़कों में होमोसेक्सुअलिटी पैदा होने का हम उपाय करते हैं। लड़के और लड़कियों के हॉस्टल अलग बनाएंगे, और लड़कों को एक हॉस्टल में भर देंगे और लड़कियां को एक हॉस्टल में, तो हम होमोसेक्सुअलिटी पैदा करने के उपाय करते हैं। और यह होमोसेक्सुअलिटी जो है यह परवर्शन की बात हो गई, यह अस्वस्थ चित्त का लक्षण हो गया। और स्वस्थ मार्ग हमने रोका और अस्वस्थ मार्ग पैदा किया। तो हमने सब तरह से अस्वस्थ मार्ग पैदा किए हैं।
तो उधर मेरी बात में उनको तकलीफ होनी शुरू हुई। क्योंकि मैंने कहा कि हम एक तो बचपन से बच्चों को जितनी सहजता से वे सेक्स को ले सकें, उतनी सहजता देनी चाहिए। उन्हें पता ही नहीं होना चाहिए कि सेक्स कोई ऐसी अनूठी और कोई ऐसी खास बात है जिसे छिपाना है, जिससे डरना है। यह नहीं होना चाहिए।

सामान्यतौर से वे अपना नसीब देखते हैं। ओवर ग्लोरिफिकेशन जो आपका...जितना और जैसे प्रीस्ट डिपार्ट आया..कि...और सामाजिक स्थिति को आपने बुद्ध बनाया। इसे बड़ा अदभुत मानते हैं। ऐसा तो नाउ एवरीबडी यह कहते हैं कि सेक्स का नालेज देना मांगता। ओवर ग्लोरिफिकेशन ऑफ फैक्ट।

हां, यह जो है न, यह ओवर ग्लोरिफिकेशन नहीं है। वह फैक्ट की बात है सिर्फ। मैं जो कहता हूं, मैं जो कहता हूं, मेरी समझ यह है कि मनुष्य के सेक्स के अनुभव में, गहरे सेक्स के अनुभव में, एक क्षण को मनुष्य को वही अनुभव होता है जो ध्यान के अनुभव में होता है। ओवर ग्लोरिफिकेशन नहीं है। जस्ट ए फैक्ट। यह जो सेक्स की जो आंतरिक अनुभूति है, संभोग की जो गहरी से गहरी अनुभूति है, उस गहरी अनुभूति में जो शांति का, थॉट लेसनेस का, एक क्षण को सारे विचार समाप्त हो जाते हैं। एक क्षण को ईगो भी मिट जाती है। दो व्यक्ति जो संभोग में गए हैं, एक क्षण को जब क्लाइमेक्स पूर्ण की भावदशा होती है, तो अहंकार भी मिट जाता है, विचार भी शून्य हो जाते हैं। चित्त एक गहरी अटेंशन की हालत में रह जाता है। वह जो प्रतीति है, वह जो अनुभव है, वह एक क्षण में, बहुत छोटे क्षण में ध्यान का ही क्षण है, यह मैंने कहा है। और मनुष्य को सबसे पहले ध्यान का जो बोध आया है, वह सेक्स से आया है, यह मैंने कहा है। क्योंकि मनुष्य के पास ध्यान में सीधे जाने का कोई उपाय न था। पहली दफा मनुष्य को जो अनुभव आया है कि सेक्स के एक क्षण में कोई घटना घटती है कि माइंड एक ट्रांसफार्मेशन अनुभव करता है। वह अनुभव पहले सेक्स से ही उपलब्ध हुआ है।
और वह जो अनुभव है उसको हम दूसरे मार्गों से भी विकसित कर सकते हैं। तो मेरा जो कहना है, यानी योग जो है वह संभोग में उपलब्ध होने वाले अनुभव को अन्यथा मार्गों से विकसित करने का उपाय है। और जब एक व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध करने लगे सेक्स से अन्यथा, तभी वह व्यक्ति सेक्स से मुक्त होना शुरू होता है यह भी मेरा कहना है। क्योंकि तब उसे सेक्स में जाकर उस अनुभव को करने की जरूरत नहीं रह जाती। वह उस अनुभव को अन्यथा उपलब्ध कर लेता है।
तो मेरा कहना यह है कि यह मेरी मान्यता कि सेक्स का अनुभव ध्यान की ही अत्यंत प्रारंभिक अवस्था का अनुभव है। यह मेरी मान्यता इस आधार पर। और मैं मूल्य इसको देना चाहता हूं क्योंकि इसी मान्यता के आधार पर ब्रह्मचर्य में दीक्षा दी जा सकती है। और कोई रास्ता नहीं है।
जब ध्यान के मार्ग से व्यक्ति को वैसे ही सुख की बहुत बड़ी राशि उपलब्ध होने लगती है, जो उसे संभोग में बहुत कुछ खोकर, और बहुत क्षुद्रतम मिलती थी, तभी ध्यान के मार्ग से धीरे-धीरे सेक्स से चित्त उठता है और ब्रह्मचर्य की तरफ प्रवेश पाता है।
यानी मेरा कहना यह है कि ब्रह्मचर्य से ध्यान उपलब्ध नहीं होता, ध्यान से ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। और यह इसीलिए उपलब्ध होता है कि ध्यान की और सेक्स की अनुभूति कहीं समान है। नहीं तो उपलब्ध होने का सवाल ही नहीं है।
अगर मैं आपके घर आता हूं बैलगाड़ी में बैठ कर, और छह घंटे लगते हैं और हड्डी-पसली टूट जाती है, और कल मुझे कार में बैठ कर आने मिलता है आपके घर, पांच मिनट में पहुंच जाता हूं, न हड्डी-पसली टूटती है, न परेशानी होती है। तो मेरा कहना यह है कि मैं कार बदल लूंगा बैलगाड़ी की जगह, और बदलूंगा सिर्फ इसलिए कि कार और बैलगाड़ी में कोई बुनियादी समानता है, वे दोनों पहुंचाते हैं। नहीं तो बदलने का कोई सवाल ही नहीं उठता। अगर वे दोनों अलग चीजें हैं तो बदलने का कोई सवाल नहीं उठता। मैं बैलगाड़ी की जगह कार ग्रहण कर लूंगा, कल हवाई जहाज होगी तो उसको ग्रहण कर लूंगा। क्योंकि दोनों काम करते हैं। पहला जो काम था वह बहुत ही प्रिमिटिव है। यानी मेरा कहना यह है कि संभोग का जो अनुभव है वह अत्यंत प्राथमिक है, समाधि का जो अनुभव है वह उच्चतम है। लेकिन उन दोनों अनुभव के बीच एक बुनियादी समानता है, इसीलिए ट्रांसफार्मेशन हो सकता है, नहीं तो ट्रांसफार्मेशन नहीं हो सकता।
अब उस बात को उन्होंने क्या ले लिया कि मैंने कहा है कि ये दोनों एक ही चीज हैं। अब पत्रकारों के साथ मैं बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूं, क्योंकि वे क्या मतलब निकाल लेंगे और क्या शक्ल दे देंगे, तो कठिनाई हो जाती है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

नहीं, उसका कारण है, नहीं तो सभी बात पर पूर्ण जवाब मेनसन करेंगे। मेरा कहना है कि रेप का जो अनुभव है वह सेक्स का भी अनुभव नहीं है। मेरा कहना यह है कि रेप...

...रेप इ.ज नॉट एंजायमेंट।

इसको बात को समझ लें, इसको थोड़ा समझ लें, इसको थोड़ा समझ लें। इस पर सारी मेरी दृष्टि है। यानी मेरा कहना है कि जो आदमी जबरदस्ती किसी के साथ व्यभिचार कर रहा है, वह जबरदस्ती और वाइलेंस उस हार्मनी को पैदा ही नहीं होने देते जहां कि वह जिसको मैं कह रहा हूं ध्यान का जैसा समान अनुभव हो सकता है वह पैदा हो जाए। तो रेप जो है वह मेरी दृष्टि में मास्टरबेशंस से ज्यादा नहीं है, मेरी दृष्टि में। इसको फर्क करता हूं। यानी वह सिर्फ वीर्यपात है। और इतने टेंशन में वह किया गया है और इतनी परेशानी में और इतनी जबरदस्ती में कि सिर्फ शरीर हलका हो गया। कहीं कोई भीतर कोई अनुभव नहीं हुआ। मेरा जो...

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

न, न, न, वह जो अनुभव है वह सेक्स का नहीं सिर्फ वीर्यपात का, यह तो फर्क करता हूं न। वीर्यपात का जो अनुभव है इट इ.ज जस्ट ए रिलीफ, इट इ.ज नॉट एन एक्सपीरिएंस।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं। )

हां, मेरा कहना यह है न, सेक्स का अनुभव जो है वह बिना प्रेम के संभव नहीं है, बिना प्रेम के संभव नहीं है। वह अत्यंत लविंग हार्मनी में संभव है। और जब हम जबरदस्ती करते हैं तो सिर्फ रिलीफ, जस्ट ए रिलीफ। जैसे एक आदमी बोझ से भरा हुआ है, उसने बोझ फेंक दिया और मुक्त हो गया। यह बोझ किसी भी तरह फेंका जा सकता है। इस बोझ को फेंकने में कोई भी, इसमें कोई स्त्री की भी जरूरत नहीं है। इसमें तो एक रबड़ की स्त्री भी काम दे सकती है। यानी इसमें कोई, इसमें कुछ लेना-देना नहीं है। और इसमें तो समझदार हो तो आप कोई की भी जरूरत नहीं है। ऑटो-इरोटिक हो सकते हैं। लेकिन यह इसलिए मेरा कहना है, रेप जो है वह तो बिलो सेक्सुअल है, यानी सेक्सुअल भी नहीं है वह। और ध्यान जो है वह बियांड सेक्सुअल है। लेकिन इन सबके बीच एक सेतु का संबंध है। और वह संबंध अगर हम न ध्यान में रखें तो हम सेक्स को कभी भी ट्रांसफार्म नहीं कर सकते। तो मेरा जो कहना है कि विषयानंद में भी ब्रह्मानंद की एक किरण है। तो उसको, उसका मतलब यह ले लिया कि मैं दोनों को एक ही मानता हूं कि दोनों एक ही बात है। क्रिश्चिएन किलर और मीरा एक ही है। वह किसी अखबार में छाप दिया। कि मैं यह कहता हूं कि दोनों एक ही बात है।
ये हम जो नतीजे निकाल लें, यह स्वाभाविक है एक अर्थ में। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं, वे आगे का कहते हैं, पूरी बात नहीं हो पाती, कुछ नतीजे निकल आते हैं। दूसरा यह कि जो मैं कहता हूं और जब आप सुनते हैं तो जब आप अपने माइंड से सुनते हैं, तो जो माइंड में तैयारी पहले से है वह उसमें मिल जाती है, उससे कुछ हो जाता है।

...आपको भी हिप्नोटाइज कर सकते हैं।

मैं कहा इतना, बस यह आखिरी बात कर लें। मैं कहा इतना, मैं कहा यह, मैं यह नहीं कहा कि नेहरू हिप्नोटाइज करते हैं। मैं कहा यह, मैं समझा रहा था कि सम्मोहित किस तरह आदमी हो जाता है। मैं यह कहा कि जैसे कि नेहरू एक बड़े मंच पर खड़े हुए हैं या नेहरू की जगह मैं ही खड़ा हुआ हूं, इससे क्या फर्क पड़ता है। तो लोगों की आंखें घंटे भर तक ऊपर लगी हुई हैं। सम्मोहन का नियम यह है कि अगर आंख बिना झपके बहुत देर तक ऊपर उठी रहे तो वह आदमी सजेस्टिबल हो जाता है। उस आदमी को फिर जो भी बात कही जाए वह उसे बिना तर्क के स्वीकार कर लेता है।
हिटलर जैसे लोगों ने तो जान कर इसका उपयोग किया। हिटलर मंच बनाएगा तो हाल में पूरा अंधकार करवा देगा। ताकि कोई आदमी किसी दूसरे को न देख सके। सिर्फ हिटलर ही दिखाई पड़े। हिटलर पर बड़े-बड़े लाइट रहेंगे, सारा कमरा अंधकारपूर्ण रहेगा। आपको पूरे वक्त हिटलर को ही देखना पड़ेगा। इतनी ऊंची मंच होगी, इतनी व्यवस्था की मंच होगी कि आंख ठीक उस एंगल पर रहे जहां से सजेस्टिबल हो जाता है आदमी का माइंड।

प्रीप्लैंड था।

यह तो पूरा, हिटलर का तो पूरा प्रीप्लैंड था। हिटलर तो प्रोपेगेंडाइज्म में जितना भी उपयोग किया जा सकता है, व्यवस्थित सारी बातों का, किया है। और हिटलर तो इसका पूरा जान कर उपयोग किया है।
मैंने कहा कि नेहरू जान कर उपयोग नहीं किए, नेहरू को पता भी नहीं हो सकता। लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ता।

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