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सोमवार, 3 सितंबर 2018

प्रेम गंगा-(विविध)-प्रवचन-04

प्रवचन-चौथा-(ओशो) 

मोक्ष से मुक्ति

मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन-क्रांति के सूत्रों में दो सूत्रों पर हमने विचार किया। पहले दिन अतीत से मुक्तिः वह जो बीत गया है, वह मन से भी बीत जाए; वह जो अस्तित्व में नहीं बचा है, वह हमारे विचारों में भी न रहे। वह जा चुका है, वह चला ही जाए। हमारे ऊपर उसका बंधन न हो, हम उससे मुक्त हो सकें। जैसे कोई सांप केंचुल को छोड़ देता है और आगे निकल जाता है, केंचुल पीछे छूट जाती है। कल तक वह उसके शरीर का अंग थी, आज अतीत हो गई, मृत हो गई, अलग हो गई। वह छोड़ कर उसे बाहर हो गया। जो समाज अपने अतीत को केंचुली की भांति छोड़ कर आगे बढ़ जाता है, वह विकासमान है। जो व्यक्ति भी अतीत से निरंतर मुक्त होता रहता है, वह सदा सत्य के और जीवन के निकट पहंुचता चला जाता है। इसलिए पहले सूत्र में अतीत से मुक्ति की बात समझी।

दूसरा सूत्र थाः विश्वास से मुक्ति।
जो विश्वास से बंधे हैं, वे कभी भी स्वतंत्र चेतना को जन्म नहीं दे पाते। विश्वास से बंधा होना अंधा होना है। अपने हाथ से अपनी आंखें बंद रखनी हैं तो आदमी विश्वास के जाल में पड़ा रह सकता है। आंखें खोलनी हों तो विचार करना पड़ेगा।
और विचार श्रमपूर्ण है, क्योंकि विचार स्वयं करना है। विश्वास आलस्य है, क्योंकि विश्वास दूसरे से मिल जाता है। और जो दूसरे पर निर्भर है वह स्वयं कभी भी नहीं हो पाता। और जो स्वयं नहीं हो पाता है--
उसकी न कोई प्रतिभा है, न कोई आत्मा--चाहे व्यक्ति हो, चाहे समाज, चाहे राष्ट्र। विचार ही आत्मा को जन्म देता है। दूसरे सूत्र में हमने विश्वास से मुक्ति के संबंध में समझी।

आज तीसरा सूत्र--पहला थाः अतीत से मुक्ति। दूसराः विश्वास से मुक्ति। और आज तीसराः मोक्ष से मुक्ति।
एक छोटी सी कहानी से शुरू करना चाहूंगा।
एक रूसी लोक-कथा मैंने सुनी है। सुबह है, सूरज निकला है और एक कवि एकांत में सरोवर के तट पर एक लंबे वृक्ष के नीचे बैठ कर कविताएं पढ़ रहा है। आस-पास कोई भी नहीं है, वृक्ष पर एक कौआ बैठा हुआ है। कवि पहली कविता पढ़ता है, जिसमें वह कहता हैः सारी दुनिया की संपत्ति का मैं मालिक हो गया हूं, सोलोमन का खजाना मुझे मिल गया है, मैं कुबेर हो गया हूं। अब कुछ भी ऐसा नहीं जो पाने को बचा हो, सब मैंने पा लिया है। उसकी कविता का यह अर्थ था। फिर आदत के अनुसार, जैसा (.4: 20..अस्पष्ट) कवि कविता पढ़े, फिर वह देखता है कि कोई दाद दे, वह चारों तरफ देखता है, लेकिन वहां कोई भी नहीं है। सिर्फ ऊपर बैठा हुआ कौआ जोर से कांव-कांव करता है, और कहता हैः सो वाॅट? इससे क्या हुआ? तो कवि बहुत हैरान हुआ। कवि कह रहा हैः मैं कुबेर हो गया, सारी संपत्ति मेरी हो गई, और कौआ कहता हैः सो वाॅट? क्या हुआ इससे? क्रोध में कवि ने ऊपर देखा और कहाः नासमझ कौवे, तू क्या समझेगा? उस कौवे ने कहाः ठीक कहते हो तुम, धन की बात कोई भी कौआ नहीं समझेगा, धन की बात सिवाय आदमी के और कोई भी नहीं समझता। लेकिन तुम समझते हो कि हम जो धन की बात नहीं समझते, नासमझ हैं। और हम कौवे, और ये वृक्ष, और ये पौधे, और ये सारे पशु-पक्षी यह समझते हैं कि धन की बात समझने के साथ ही आदमी नासमझ हो गया है।
कवि ने यह सोच कर कि यह कौआ नहीं समझ सकेगा, दूसरी कविता पढ़ी। और उस कविता में वह कहता हैः सारी पृथ्वी का मैं राजा हो गया, चक्रवर्ती सम्राट हो गया, स्वर्ण-सिंहासनों पर विराजमान हूं, सब कुछ मेरा है, जहां तक दृष्टि जाती, मेरा है। वह कौवे की तरफ फिर देखता है, और वह कौआ न मालूम कैसा पागल है कि वह फिर कहता हैः सो वाॅट? इससे क्या हुआ? बड़े से बड़े सिंहासनों पर बैठ जाओ तो क्या हो तुम? हम कौवे उन सिंहासनों पर बैठना बिलकुल पसंद ही नहीं कर सकते। कवि ने सोचा कि मालूम होता है यह कौआ न तो धन की बात समझता है, न यश की बात समझता है, कोई संन्यासी कौआ तो नहीं है? तो शायद संन्यास की बात समझ सके।
वह तीसरी कविता पढ़ता है और कहता हैः मैंने सब छोड़ दिया है और परमात्मा को पा लिया है। मैं जीवन से हट आया और मैंने मोक्ष उपलब्ध कर लिया है। मैं मोक्ष का आनंद भोग रहा हूं, मैं मोक्ष में हूं। वह कौआ लेकिन बड़ा पागल है, वह फिर कहता हैः सो वाॅट? इससे क्या होगा? कवि तो क्रोध से भर गया और कहने लगा कि हर चीज में कहते होः सो वाॅट। न धन का कोई मतलब, न यश का, तो मोक्ष का तो मतलब होना चाहिए। क्योंकि मैंने देखा है, जो धन और यश को छोड़ते हैं वे मोक्ष की तरफ दौड़ना शुरू कर देते हैं। बस तीन तो बातें हुईं।
तो वह कौआ कहने लगा, पागल हो तुम, या तो धन की तरफ दौड़ोगे, या यश की तरफ दौड़ोगे। और अगर छूटोगे कुएं से तो खाई में गिरोगे, तो मोक्ष की तरफ दौड़ोगे। लेकिन जीवन की तरफ तुम्हारी यात्रा कभी भी नहीं है। और हम जीते हैं। हम पौधे, हम पक्षी, हम सब--हम जीते हैं और जीवन का आनंद लूटते हैं। जीवन के अतिरिक्त न कोई धन है, जीवन के अतिरिक्त न कोई यश है, और जीवन के अतिरिक्त न कोई मोक्ष है।
यह कहानी मैंने सुनी तो मैं बहुत हैरान हुआ। यह कहानी रूस में घटी, यह हैरानी की बात है! यह भारत में घटनी चाहिए थी। भारत हजारों वर्षों से मोक्ष के पीछे भागता रहा है, और मोक्ष के पीछे भागने की इस दौड़ में जीवन सब तरफ से उपेक्षित हुआ है। सब तरफ से नष्ट और विकृत हुआ है। मोक्ष पर आंखें अटक गई हैं--और जीवन? जीवन उपेक्षित पड़ा है। और मोक्ष? और मोक्ष है मृत्यु के बाद, और जीना है अभी, और यहीं। और हमारी दृष्टि है मृत्यु के बाद।
तो जीवन को कौन बनाएगा सुंदर? जीवन को कौन बनाएगा सत्य? जीवन को कौन बनाएगा शिव? जीवन को कौन श्रेष्ठता देगा? जीवन को कौन संवारेगा? तो जीवन पड़ा है उजड़ा हुआ और हम, हम मोक्ष की तरफ आंखें लगाए हुए हैं। जीवन के सत्य की खोज और जीवन के परिपूर्ण अनुभव के अतिरिक्त और कोई मुक्ति नहीं है। और हम एक ऐसी मुक्ति खोज रहे हैं जो जीवन से विरोधी है। तो जीवन-विरोधी मोक्ष ने भारत की आत्मा की हत्या कर दी है। हमने जो मोक्ष की धारणा दी है उसने हमें सुंदर और श्रेष्ठतर जीवन नहीं दिया है। बल्कि जीवन जैसा था--दुखद, पीड़ित, गंदा, कुरूप--वह उसने स्वीकृत कर लेने का अनुभव दिया है।...(रिकार्डिंग रिक्त 9: 50) इससे तो छुटकारा पा लें न।
तो कौन करे चिंता, क्यों करें चिंता, क्यों बदलें इस जीवन को, क्यों फूल खिलाएं, क्यों कांटों से डरें? चार दिन की बात है, किसी तरह गुजार लें। जैसे कोई आदमी रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम के साथ व्यवहार करता है, वैसा भारत जीवन के साथ कर रहा है। वेटिंग रूम में देखते हैं आप, जो भी आदमी आकर बैठता है, वहीं पान थूकता है, मूंगफली के छिलके फेंकता है, वहीं गंदगी करता है और वहीं सिगरेट जलाता है और वहीं माचिस फेंकता है। और उससे कहें कि यह क्या कर रहे हैं? वह कहेगा, यह कोई हमारे बाप का घर थोड़े ही है, यह तो विश्रामगृह है, अभी दो क्षण बाद हम यहां से चले जाएंगे, हमें क्या प्रयोजन? उसके पहले बैठने वाले लोगों ने भी यही व्यवहार किया है उस विश्रामगृह में। उसके बाद आने वाले भी यही व्यवहार करेंगे। वह विश्रामगृह एक गंदगी का घर हो जाएगा। और प्रत्येक यह मानता हैः कोई हमें यहां जीवन भर रहना है, थोड़ी देर बैठना है और हमारी ट्रेन आएगी और हम चले जाएंगे।
भारत जीवन के साथ रेलवे-स्टेशन के विश्रामालय सा व्यवहार करता है। इधर साधु-संत समझा रहे हैं भारत को कि क्या रखा है, दो दिन की बात है, अपने-अपने समय की प्रतीक्षा है, सबकी ट्रेन आएगी और सब चले जाएंगे। यहां की चिंता में क्यों पड़े हो? स्वाभाविक है कि जीवन के प्रति एक उपेक्षा पैदा हो गई है। और उस उपेक्षा का परिणाम भोगना पड़ेगा। हम भोग रहे हैं। हजारों साल से भोग रहे हैं।
उपेक्षा ने जीवन के सारे रस-स्रोत सुखा डाले हैं। जीवन के पौधे पर हमने पानी नहीं दिया है। फिर जीवन के पौधे पर फूल आने बंद हो गए हैं। फिर जीवन का पौधा सूखता चला गया। अब जीवन के पौधे पर सूखी शाखाएं हैं, जिनमें न फूल दिखाई पड़ते हैं, न पत्ते दिखाई पड़ते हैं। और हम सब आकाश की तरफ आंखें लगाए हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं, कब मरें।
मैं अभी भावनगर था। चैदह-पंद्रह साल की लड़की ने आकर मुझे कहा कि मुझे आपसे अलग से मिलना है। क्या काम है तुझे? वह कहने लगी कि मुझे पूछना है कि आवागमन से छुटकारा कैसे मिले? जिंदगी से छुटकारा कैसे मिले? चैदह-पंद्रह साल के बच्चे अगर यह पूछने लगेंगे, जीवन से छुटकारा कैसे मिले? तो कलियां यह पूछने लगीं फूल होने के पहले कि धूल में मिलने का रास्ता क्या है? पक्षी पूछने लगे उड़ने के पहले कि मरने का मार्ग क्या है? जीवन को जानने के पहले अंकुर कहने लगे कि मुझे कुम्हलाने का रास्ता बता दो, मुरझाने का। सारा जीवन, सारे बीज विषाक्त हो गए हैं। एक बात से कि हमने जीवन को सुंदर बनाने की कला नहीं बनाया धर्म; हमने जीवन से भागने की, जीवन से छूटने की, जीवन से दूर निकल जाने की विधि समझाया। धर्म को हमने पलायन बनाया है, एस्केप। धर्म को हमने आर्ट आॅफ लिविंग, जीवन की कला नहीं बनाया है।
और भारत को अगर थोड़ी भी क्रांति लानी हो तो उसे अपने समस्त धर्म-चिंतन को, अपने दर्शन को, अपने जीवन की पद्धति को आमूल बदल देना होगा। मोक्ष को केंद्र मानना नहीं है, केंद्र मानना है जीवन को--जो है, अभी और यहां। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि इस जीवन के बाद कोई जीवन नहीं है, इसका यह अर्थ नहीं है कि मृत्यु पर सब कुछ समाप्त हो जाता है--यह मैं कह रहा हूं। इसका सिर्फ यह अर्थ है कि जो इस जीवन को ही संुदर नहीं बना पाते हैं, जीवन के बाद कोई जीवन हो तो वह सुंदर नहीं हो सकता।
इस जीवन के सौंदर्य से ही उस जीवन के सौंदर्य के भवन की ईंटें रखी जाएंगी। अगर कहीं कोई मोक्ष है तो जो इस जीवन में ही आनंद को अनुभव नहीं कर रहा है, वह उस मोक्ष में भी आनंद को अनुभव नहीं कर सकता। जिसने इस जीवन में आनंद को जाना है, वह उस जीवन में भी आंनद के बीज बो रहा है। आखिर मैं ही तो रहूंगा मोक्ष में, मर कर भी मैं ही तो रहूंगा। मैं जो अभी हूं, मैं ही कल भी रहूंगा। और अगर अभी मैं आनंदित नहीं हूं, अगर अभी मैं रसयुक्त नहीं हूं, अगर अभी मैं शांत नहीं हूं, अगर अभी मेरे जीवन में वीणा नहीं बज रही है, तो सिर्फ मरने से सब बदल जाएगा? कांटे की जगह फूल हो जाएंगे, दुख की जगह आनंद हो जाएगा, उदासी की जगह तारे खिल जाएंगे--खुशी के, सिर्फ मरने से! मरने से यह सब कैसे हो सकता है? जब जीने से ही यह नहीं हो सका, तो मरने से कैसे हो सकता है? जब सारी शक्ति थी जीवन की तब हम नहीं आनंदित होकर ( अस्पष्ट 14: 57...) सके, तो मरने से क्या हो जाएगा? यह झूठी आशा है। और इस झूठी आशा के कारण जो हम कर सकते थे वह नहीं कर पाए और जो हम कर ही नहीं सकते उसके तो करने का कोई सवाल नहीं है।
अभी इस क्षण जो जीवन मेरे पास है, इस जीवन को अधिकतम तेजस्वी, अधिकतम प्रफुल्लित, अधिकतम आनंदित कैसे बनाऊं? यह है सवाल। इसी जीवन से कल का क्षण भी निकलेगा, परसों भी निकलेगा। इसी जीवन से मृत्यु के बाद के दिन भी निकलेंगे, इसी जीवन से अनंत जीवन निकलेगा--लेकिन निकलेगा इस जीवन से जो अभी इस क्षण मेरे पास है। यह क्षण अगर व्यर्थ जाता है तो आगे आने वाले क्षणों के भी व्यर्थ जाने की संभावना बढ़ती है, कम नहीं होती है।
लेकिन यह देश, यह देश ऐसा मान कर चल रहा हैः यह जीवन तो व्यर्थ है, कोई और जीवन है सार्थक उसे खोजना है। और उसकी खोज का रास्ता क्या है? उसकी खोज का रास्ता है इस जीवन की जड़ें काटो, इस जीवन से दूर हटो, इस जीवन से भागो, इस जीवन को बुरा समझो, इस जीवन की निंदा करो, इस जीवन से दुश्मनी करो, इस जीवन के साथ मित्रता तोड़ो--यह जीवन ठीक नहीं है। असली जीवन कहीं और है, यह जीवन झूठा है, इससे हटना है और मुक्त होना है।
यह गलत बात है, यह बुनियादी रूप से गलत बात है। दो तरह के जीवन नहीं हैं। यही जीवन, इसी जीवन का फैलाव आगे भी। जो जड़ें वृक्ष की नीचे पृथ्वी में छिपी हैं, उन्हीं जड़ों के हाथ शाखाओं से आकाश में फैले हुए हैं। जो जड़ें दूर जमीन में छिपी हैं, जो दिखाई भी नहीं पड़ती हैं--अंधेरे में हैं, उनका ही एक हिस्सा वृक्ष की कली ऊपर आकर फूल बनता है, उसी जड़ का एक हिस्सा, जड़ अलग नहीं है। पृथ्वी के नीचे जो छिपा है वह अलग नहीं है, पृथ्वी के ऊपर जो है वह अलग नहीं है। वह सब संयुक्त है, वह एक का ही हिस्सा है।
जीवन एक अनंत सातत्य है। मैं जो कल था, उससे ही मेरा आज जुड़ा है। मैं जो आज हूं, उससे ही मेरा कल जुड़ा होगा। जो मेरा पिछला जीवन था, उससे मेरा यह जीवन जुड़ा है। जो मेरा आगे का जीवन होगा, वह भी इसी जीवन से जुड़ा होगा। मोक्ष इस जीवन से दूर और उलटा और भिन्न कहीं नहीं हो सकता। वह इसी जीवन की अंतिम कंटीन्युटी है। वह इसी जीवन की अंतिम ताकत। इस जीवन से उलटा वह नहीं, इस जीवन से विपरीत वह नहीं। इस जीवन की हत्या करके उसे नहीं पाना है। इस जीवन को संवार कर, सुंदर बना कर, इस जीवन को श्रेष्ठ और (17: 43 अस्पष्ट...) करके ही उसे पाया जा सकता है।
भारत की प्रतिभा को चोट पहुंचाने वाली बड़ी से बड़ी बात, सबसे बड़ी बात, सबसे संघातक बात यही रही है कि हमने इस जीवन के प्रति निंदा का एक दृष्टिकोण अंगीकार कर लिया है। जिसे देखो वही जीवन के विपरीत और विरोध में है--जिसे देखो वही। हम इस जीवन के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे हैं--जैसा सुना होगा। औरंगजेब ने अपने समय में राजधानी में खबर कर दी कि संगीत, अब राजधानी में मरा हुआ समझ लिया जाए। कोई वीणा नहीं बजेगी और कोई गीत नहीं गाया जाएगा। संगीतज्ञ तो हैरान हो गए। सारे देश के श्रेष्ठतम संगीतज्ञ राजधानी में उपस्थित थे। उन्होंने विरोध के स्वर में प्रत्यक्ष की तरह सुबह जनाजा निकाला, एक अरथी निकाली। सारे संगीतज्ञ रोते-पीटते हुए अरथी के पीछे जा रहे हैं। राजमहल के करीब से निकले, औरंगजेब अपने मकान पर खड़ा है, उसने पूछाः कौन मर गया? तो उन रोते हुए संगीतज्ञों ने कहा कि संगीत की मृत्यु हो गई है। औरंगजेब ने उस खिड़की पर से कहाः ठीक हुआ, अच्छा हुआ। जरा कब्र गहरी डालना, जिससे संगीत वापस न लौट आए।
भारत जीवन के साथ ऐसा व्यवहार कर रहा है, औरंगजेबी व्यवहार। जीवन को ऐसा गड़ाया है कि कहीं निकल न आए। जीवन का कोई संगीत मत सुनना, जीवन की कोई मुस्कुराहट मत देखना, जीवन का कोई सुख--नहीं, नहीं। जीवन का कोई आनंद--नहीं, नहीं। जीवन में कुछ भी नहीं है, जो भी है--बुरा है। और जो अच्छा भी दिखाई पड़ता है, वह भी धोखा है। उसके पीछे भी बुरा ही छिपा होगा। इसलिए बचना, भागना, दूर हटना, और जीवन को गड़ा देना--तब मिलेगा मोक्ष, तब मिलेगा परमात्मा।
बहुत अदभुत परमात्मा है। अगर परमात्मा जीवन का इतना विरोधी है तो जीवन है ही क्यों? अगर परमात्मा को जीवन इतना बुरा मालूम पड़ता है तो जीवन के होने का वजूद क्या है? जरूरत क्या है? जीवन का होने का कारण क्या है? अगर परमात्मा दुश्मन है इस जीवन का तो खत्म क्यों नही कर देता? कौन कहता है उससे कि जीवन को चलाए? यह जीवन की इतनी बड़ी लीला जिस सृजन-स्रोत से चल रही है, जरूर वह इसके पक्ष में होना चाहिए। अन्यथा यह क्यों चलेगी। यह जो जीवन का इतना विस्तार है, फैलाव है, अगर यह जीवन के केंद्र से आकांक्षित न हो, तो क्यों चलेगा? क्यों फैलेगा? प्रयोजन क्या है?
नहीं, लेकिन परमात्मा तो जीवन के पक्ष में है। महात्मा जीवन के पक्ष में नहीं हैैं, महात्मा जीवन-विरोधी हैं। और परमात्मा जीवन पर रोज नये-नये रूप, नये-नये फैलाव किए चला जाता है। परमात्मा थकता ही नहीं जीवन के विस्तार से। जीवन के सृजन से वह ऊबता नहीं। लेकिन महात्मा बहुत परेशान हैं। और महात्मा जीवन के विरोध में समझाए चले जा रहे हैं, समझाए चले जा रहे हैं। कोई उनकी समझ लेता है, ऐसा नहीं है। कोई उनकी मान ही लेता है, ऐसा नहीं है। कोई उनकी मानता नहीं, लेकिन फिर भी उनकी बातें मन को विषाक्त कर जाती हैं। जीवन की जड़ों को ढीला कर जाती हैं, मन को दो हिस्सों में तोड़ती हैं। फिर हम जीवन को भोगते भी हैं और भयभीत भी होते हैं। जीवन को भोगते भी हैं, और डरते भी हैं कि पाप हो रहा है।
बाप बेटे को गले भी लगाता है और सोचता है कि कैसे माया-मोह में पड़ रहा हूं? पाप लग रहा है, नरक का रास्ता बना रहा हूं। जो बाप अपने बेटे को छाती से लगाते वक्त यह भी जानता हो कि नरक का रास्ता बना रहा हूं, उस बाप ने अपने बेटे को कभी छाती से लगाया होगा? हड्डी से हड्डी लगी होगी, भीतर का कुछ भी नहीं मिला होगा। भीतर का कैसे मिल सकता है? पति जानता है कि पत्नी नरक का द्वार है, और उसी पत्नी को कह रहा है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। और भीतर एक स्वर, महात्माओं का स्वर भीतर बैठा हुआ है, कि कहां नरक के द्वार के प्रेम में पड़ रहे हो?
इस देश में कोई पति किसी पत्नी को प्रेम नहीं कर सकता है, क्योंकि वह नरक का द्वार है। (रिकार्डिंग ब्लैंक...) प्रेम किया जा सकता है। प्रेम करेगा भी, प्रकृति प्रेम भी कराएगी। निसर्ग प्रेम में भी ले जाएगा, और महात्माओं के स्वर पीछे से गूंज रहे हैं, पाश्र्वभूमि से उनकी आवाज आ रही है--सावधान, नरक के रास्ते पर जा रहा है। हाथ खींच भी रहे हैं, हाथ बढ़ा भी रहे हैं। भारत की पूरी प्रतिभा कांफ्लिक्ट में पड़ गई है, द्वंद्व में पड़ गई है। जिस तरफ हाथ बढ़ाते हैं, वहीं से दूसरा हाथ कहता है--खींच लो, पाप में पड़ रहे हो।
अगर ऐसी मनोस्थिति हो जाए किसी देश की तो उसकी प्रतिभा कैसे विकसित हो, कैसे सृजनात्मक हो? तब एक पाखंड पैदा होता है। तब हम जो कहते हैं वह नहीं कर पाते हैं, और जो करते हैं वह नहीं कह पाते हैं। फिर जीते हैं और तरह से, मानते हैं और तरह से, चलते हैं और तरह से, आंखें रखते हैं और तरह से; और सारा व्यक्तित्व खंड-खंड, सारा व्यक्तित्व डिसइंटिग्रेटिड--सब टूट-फूट हो जाता है।
मैंने सुना है, दिल्ली के एक म्यूजियम में अगर आप दिल्ली गए हों, नहीं तो अखबार में तो फोटो देखे ही होंगे। वे तीन बंदरों की फोटो आपने जरूर देखी होगी, जिनको गांधीजी प्रसिद्ध कर गए। वे तीन बंदर मुंह पर हाथ लगाए हुए, कान पर हाथ लगाए हुए, आंखें बंद किए हुए--वे दिल्ली के एक म्यूजियम में तीनों बंदर बैठे हैं। दिन भर तो बेचारे लोगों की वजह से ऐसे सधे हुए बैठे रहते हैं कि लोग देखने आते हैं। रात जब दरवाजा म्यूजियम का बंद हो जाता है तो बंदर बंदर हो जाते हैं। सब छोड़-छाड़ देते हैं। फिर क्या गांधी की खाक फिकर करेंगे, गांधी की फिकर गांधी के पीछे चलने वाले आदमी नहीं करते। गांधी की पीठ हुई और सब बदल जाता है तो बंदरों का क्या भरोसा?
जैसे ही दरवाजा बंद होता है म्यूजियम के बंदर उछल-कूद करने लगते हैं। सब उपद्रव करने लगते हैं। एक दिन रात में तीनों लड़ रहे हैं, एक-दूसरे की गर्दन दबा रहे हैं। एक बुड्ढे ने दरवाजा खोला, उसने कहाः यह तुम क्या कर रहे हो? तीनों बंदर चैंक गए। रात तो कोई कभी आता नहीं। उन्होंने कहाः आप कैसे बेवक्त आ गए हैं? देखने का समय तो दिन होता है, और दिन को हम हमेशा हमारी टेबल पर होते हैं, और ठीक पोजिशन में होते हैं, और ठीक आसन में बैठे रहते हैं। पर रात के लिए थोड़े ही ठेका ले रखा है, कम से कम रात को तो हमें छुट्टी दो। दिन भर तो हम मुंह पर हाथ लगाए-लगाए थक जाते हैं, कान से हाथ लगाए हुए हैं--बंदर हैं हम--और आंख से हाथ लगा कर बैठना। और दिन भर सोचते हैं कितनी मुसीबत होती होगी। तो रात तो छुट्टी दो, रात को तुम कैसे आ गए हो? और यह कोई वक्त है?
पर उस बुड्ढे ने कहा कि बकवास बंद करो, तुम पहचाने नहीं कि मैं कौन हूं? मैंने तुम्हें हिंसा सिखाई थी? तुम एक-दूसरे की गर्दन काट रहे हो, गालियां बक रहे हो? तब एक को शक हुआ कि यह बुड्ढा कहीं गांधी तो नहीं है? वह उचक कर जल्दी से अपनी मेज पर बैठ कर उसने आंखें बंद कर लीं। और उस बूढ़े आदमी ने कहा कि अब क्या होता है आंखें बंद करने से, हिंसा देख रहे थे, हिंसा में भागीदार थे। और आंख बंद किए हुए बंदर ने कहाः क्षमा करिए, मैं तो आंख बंद किए बैठा हूं। मुझे तो गांधी बाबा ने सिखाया है कि बुरी चीज देखनी नहीं चाहिए तो मैंने कुछ देखा ही नहीं। क्या हो रहा है, मुझे कुछ पता ही नहीं। बूढ़ा तो बहुत क्रोध से भर गया। उसने कहाः मैं अपनी आंख से देख रहा हूं कि तू भी लड़ रहा था, और अब तू कह रहा है कि देखा ही नहीं। तब तक दूसरा बंदर भी आकर बैठ गया और उसने कानों पर हाथ लगा लिए, और तीसरा बंदर भी छलांग लगा कर आ गया, उसने अपना मुंह बंद कर लिया है।
उस बूढ़े ने दूसरे बंदर से कहा कि सुनते हो, यह कितना सरासर झूठ बोल रहा है? तो दूसरे बंदर ने कहाः मैं तो कान पर हाथ लगाए हुए हूं, मुझे कुछ सुनाई भी नहीं पड़ रहा है। बूढ़ा तो बहुत हैरान हो गया! उसने तीसरे बंदर को हिलाया कि तू बोल ये दोनों झूठ बोल रहे हैं। उसने कहाः आप देखते हैं कि मैंने तो मौन का व्रत लिया हुआ है। बोल कर बता रहा है कि मैंने मौन का व्रत लिया हुआ है, कि मैं बोल नहीं सकता हूं। वह बूढ़ा क्रोध से दरवाजा बंद करके बाहर चला गया।
तीनों बंदर आपस में पूछने लगे कि हो न हो यह बूढ़ा गांधी होना चाहिए। लेकिन सुना हमने तो गांधी को गोडसे ने गोली मार दी, तब से हम निशिं्चत हो गए। सभी गांधीवादी निशिं्चत हो गए तो बंदरों का क्या निशिं्चत नहीं होना? मगर यह बुड्ढा कौन है? पता नहीं बुड्ढा कौन था? मुझे भी पता नहीं है। उन बंदरों को भी पता नहीं चल सका। पता नहीं कौन था? लेकिन तीनों बंदर सोचने लगे कि बिलकुल गांधी जैसा मालूम पड़ता है, और उसी रोक-टोक से कहने लगा कि अहिंसा बरतो। लेकिन जब गांधी के मानने वाले, कुछ ही मानने वाले, कोई नहीं मानते तो हम क्या? हम तो कम से कम दिन भर मानते हैं। जब भी म्यूजियम खुला रहता है तब तक हम तो सधे बैठे रहते हैं।
यह जो दिन में एक शक्ल जब तक म्यूजियम खुला हो और रात में दूसरी शक्ल जब म्यूजियम बंद हो--यह हम सबकी शक्लें हो गई हैं। बंदरों की नहीं, पूरे भारत के हर आदमी की शक्ल हो गई है। एक शक्ल है जो हमें शिक्षाएं दी गई हैं उनके अनुसार हमने ढाली हैं। और एक शक्ल वह है जो हमारा निसर्ग, जो हमारी प्रकृति हमसे पुकार करती है। और इन दोनों के बीच विरोध है। और भारत इस विरोध को हल नहीं कर पाया। इस विरोध को हल न कर पाए जो धर्म, जो दर्शन वह कूड़ा-कचरा है। क्योंकि असली सवाल यही है मनुष्य का, कि मनुष्य के भीतर जो निसर्ग है, जो प्रकृति है--उसके, और जो परमात्मा है--उसके बीच में एक समाधान, एक सेतु, एक ब्रिज बनना चाहिए।
मनुष्य की प्रकृति और मनुष्य के अंतिम चरण परमात्मा के बीच, मनुष्य के प्रथम चरण और मनुष्य की अंतिम उपलब्धि के बीच, मनुष्य के निकृष्टतम और मनुष्य के श्रेष्ठतम के बीच विरोध नहीं होना चाहिए--एक सेतु बनना चाहिए, एक ब्रिज बनना चाहिए कि मनुष्य एक-एक सीढ़ी निकृष्ट से उठे और श्रेष्ठ तक पहुंच जाए। लेकिन भारत इसको हल नहीं कर पाया है। भारत ने इसको हल किया ऐसे कि उसने निकृष्ट को कहा कि वह अलग है, और श्रेष्ठ अलग है। और दोनों के बीच खाई खड़ी कर दी। और आदमी दो हिस्सों में विभाजित हो गया। रहता तो निकृष्ट में है, दिखलाता श्रेष्ठ में है। और तब एक पाखंड सारे प्राणों को घेर लिया है।
अरनोल टाइंडी ने कहीं एक वक्तव्य में यह बात कही कि पश्चिम की जो संस्कृति है वह एक सेंसे कल्चर है, वह ऐंद्रिक संस्कृति है। उसकी इस बात को भारत के साधु-संन्यासियों ने फौरन पकड़ लिया। हम तो यहां इसी तैयारी में रहते हैं कि कोई किसी की निंदा करता हुआ दुनिया में कहीं मिल जाए, तो हम फौरन उसकी निंदा को पकड़ लें और कहें कि देखो, वे सब लोग ऐसे हैं। ताकि हमारे मन को तृप्ति मिले कि हम भी कुछ ज्यादा बुरे नहीं हैं। तो अरनोल टाइंडी ने इधर कहा कि सेंसे कल्चर है पश्चिम का, ऐंद्रिक संस्कृति है। सारे भारत के साधु-संन्यासी दोहराने लगे कि देखो पश्चिम की संस्कृति तो ऐंद्रिक संस्कृति है, और हमारी, हमारी आध्यात्मिक संस्कृति है।
मैं उनसे कहना चाहता हूं और अरनोल टाइंडी को भी कि तुमने आधी बात कह कर गलती की। पश्चिम की संस्कृति सेंसेट है, ऐंद्रिक है, यह सच है; लेकिन पूरब की संस्कृति और भी बदतर है, वह हिपोक्रेट है, वह पाखंडी है--आध्यात्मिक नहीं है। और मैं आपसे कहना चाहता हंूः ऐंद्रिक संस्कृति अगर ठीक से विकसित हो तो आध्यात्मिक हो भी सकती है, लेकिन पाखंडी संस्कृति किसी भी तरह विकसित ही नहीं हो सकती, आध्यात्मिक होना तो बहुत मुश्किल है।
पाखंड का मतलब यह है कि जो हम हैं वह कुछ और है, और जो हम दिखलाते हैं वह कुछ और है। पाखंड का यह मतलब है कि हम जो चाहते हैं वह कुछ और है, और जो हम बतलाते हैं लोगों को कि हम चाहते हैं--वह कुछ और है। हमारी दो शक्लें हैं। हमारे दो रूप हैं। और हर आदमी भलीभांति जानता है कि उसके दो रूप हैं। जब वह मुस्कुराता है तब पक्का नहीं है कि भीतर भी मुस्कुरा रहो हो, जब वह नमस्कार करता है तो पक्का नहीं है कि भीतर भी नमस्कार कर रहा हो। और जब वह कहता है कि आपसे मिल कर बहुत खुशी हुई, तो हो सकता है भीतर कह रहा हो कि इस दुष्ट की शक्ल सुबह से कहां दिखाई पड़ गई।
भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है। बाहर अहिंसा की बात है, और भीतर हिंसा उबाल ले रही है। तीन-चार हजार वर्षों से हम अहिंसा की बातें कर रहे हैं। लेकिन कितनी अहिंसा है हमारे पास? कितनी अहिंसा हो पाई है? कौन अहिंसक है? अभी हिंदुस्तान पर हमला हुआ, चीन का या पाकिस्तान का, तो हमारी अहिंसा का कहीं भी पता नहीं चला। फिर खोजने से भी एक अहिंसक खोजना मुश्किल था। बल्कि जो बड़े-बड़े अहिंसक थे वे भी कहने लगे कि अब तो अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा करनी पड़ेगी। आश्चर्य! अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा करनी पड़ेगी? तब तो अहिंसा बड़ी कमजोर है, और हिंसा की रक्षा की उसे जरूरत पड़ती है?
हजारों साल से अहिंसा की बातचीत के बाद भी भीतर तो हिंसक आदमी मौजूद है। वह हिंसक आदमी भीतर से कहीं भी नहीं गया। और यह भी हो सकता है कि दूसरों के साथ हिंसा बंद कर दी हो, तो अपने साथ हिंसा शुरू कर दी हो। लेकिन हिंसा जारी रहेगी। हिंसा जारी है। बाहर हम सब बातें कर रहे हैं कि लोभ बुरा है, परिग्रह बुरा है। और भीतर, और भीतर यह सब चल रहा है। सब लोभ चल रहा है, सब परिग्रह चल रहा है। सारा, जिस-जिस बात की हमने निंदा की वह भीतर चल रही है। और बाहर हम निंदा भी जारी किए हुए हैं।
यह अगर दिखाई न पड़े तो इस देश के जीवन में क्रांति कैसे होगी? यह सत्य तो देखना पड़ेगा कि कोई एक, एक भीतरी द्वंद्व है जो हमारे पूरे देश की प्रतिभा को दो हिस्सों में तोड़े हुए है, भीतर से दो हिस्सों में तोड़े हुए है। और उन दोनों हिस्सों के बीच तारतम्य खो गया है। उसके बीच कोई संबंध नहीं रह गया है। वे दोनों के बीच कोई मेल नहीं रह गया है। और यह समझ के बाहर हो गया है कि हम एक खंड से दूसरे खंड को कैसे जोड़ें? यह खंडितपन क्यों आया है? इसके खंडितपन के आने का बुनियादी कारण? बुनियादी कारण हमने जीवन और मोक्ष को दो विपरीत बातें मान रखी हैं। हमने जीवन और धर्म को दुश्मन बना रखा है।
जीवन और मोक्ष जब एक ही चीज का विस्तार होंगे, जीवन और धर्म जब एक ही बात के दो पहलू होंगे, जब एक ही काव्य की दो कड़ियां होंगी--जीवन और मोक्ष तब, तब हमारे व्यक्तित्व में इंटिग्रेटेड, एक योग, एक संश्लिष्ठ व्यक्तित्व, एक इकट्ठापन, खंड-खंड होना टूटेगा और हम अखंड हो सकेंगे।
और ध्यान रहे, जो व्यक्ति अपने भीतर अखंड नहीं हैं वह व्यक्ति अपने से ही लड़ता है और मर जाता है। वह व्यक्ति कभी कुछ नहीं कर पाता। हम कहते हैं कि भारत कभी किसी से नहीं लड़ा, यह बात सच है। क्योंकि भारत को खुद से लड़ने से फुरसत मिले तो वह किसी और से लड़ने जाए। यह बात सच है कि भारत कभी किसी से नहीं लड़ा। आखिर किसी से लड़ने के लिए कुछ ताकत भी तो चाहिए, इधर हम अपने से ही एक-एक आदमी लड़ कर इस तरह नष्ट हो जाते हैं कि लड़ने लायक बाहर जाने का सवाल कहां है?
भारत की पूरी प्रतिभा आंतरिक युद्ध में संलग्न है। हम अपने से ही लड़ रहे हैं। हमारा ही एक हिस्सा दूसरे हिस्से से लड़ रहा है। जैसे मैं अपने दोनों हाथों को लड़ाऊं। मेरा बायां हाथ, दायां हाथ लड़ने लगे तो कौन जीतेगा? बायां जीतेगा कि दायां जीतेगा? कोेई भी नहीं जीतेगा। हां, एक बात तय है, दोनों में से कोई नहीं जीतेगा, मैं हार जाऊंगा। क्योंकि दोनों के लड़ने में मेरी शक्ति व्यय होगी। मैं नष्ट होऊंगा, मैं टूटूंगा और नष्ट हो जाऊंगा।
हमने भारत की प्रतिभा को अंतर-खंडन में डाल दिया है। यह अंतर-खंडन एक मोक्ष की कल्पना से पैदा हुआ है। जो हम सोच रहे हैं सही है। सारे देश का प्रतिभावान आदमी जीवन को छोड़ कर भाग रहा है कि हमें मोक्ष जाना है। और जो जीवन में रह जाते हैं, वे बेचारे आत्मग्लानि अनुभव करते हैं। पछताते हैं कि हम कमजोर हैं, इसलिए हम जंगल नहीं भाग सक रहे हैं। नहीं तो कभी के हरिद्वार चले गए होते, ऋषिकेश चले गए होते, किसी आश्रम में भर्ती हो गए। हम जरा कमजोर हैं, हम जरा पापी हैं। लेकिन आशा है कि कभी मौका मिलेगाः इस जन्म में, अगले जन्म में--तो भागेंगे। जो भाग गए हैं, उनके पैर वे लोग छू रहे हैं--जो नहीं भागे हैं। भागे हुए लोगों के पैर छुए जा रहे हैं, पूजा की जा रही है कि आप बड़े धन्य हैं।
जो देश भगोडों को धन्य कहता होगा वह देश कभी भी कोई श्रेष्ठता को उपलब्ध नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि जब हम भागने को प्रतिभा बनाते हैं, जब हम भागने को प्रतिभा का स्वीकार देते हैं, जब हम भागने को रिकग्निशन देते हैं, और भागने को सम्मान और सत्कार देते हैं तो फिर ठीक है--लड़े कौन, जीए कौन, कौन खड़ा रहे? हिंदुस्तान में प्रथम कोटि का आदमी भाग जाता है, द्वितीय-तृतीय कोटि के लोग काम चलाते हैं। सारी दुनिया में प्रथम कोटि का आदमी काम चलाता है, इसलिए हम दुनिया के किसी मुल्क के सामने खड़े नहीं हो सकते हैं। उनकी प्रथम कोटि की प्रतिभा फस्र्ट ग्रेड माइंड काम चलाती है, और हमारी द्वितीय और तृतीय कोटि की प्रतिभा काम चलाती है। प्रथम कोटि का आदमी तो जंगल भाग जाता है।
दुनिया में हमारे पिछड़ने का कारण? दुनिया में किसी दूसरे मुल्क के सामने प्रतियोगिता में खड़े न होने का कारण क्या है? कारण सिर्फ एक है--उनकी प्रथम कोटि की प्रतिभा आइंस्टीन बनेगी, उनकी प्रथम कोटि की प्रतिभा न्यूटन बनेगी, उनकी प्रथम कोटि की प्रतिभा जीवन के संघर्ष में खड़ी होगी। हमारी प्रथम कोटि की प्रतिभा एक मठ बनाएगी, जगतगुरु हो जाएगी, इस तरह के कुछ काम करेगी--और हम सम्मान देंगे, और हम आदर देंगे। हमारा आदर और सम्मान लोगों को गलत दिशाओं पर ले जाता है।
यह ध्यान रहेः जब तक हम इस देश में...जो जी रहे हैं, और इस कला से जीवन को जी रहे हैं कि जी भी रहे हैं और शांत हैं, जी भी रहे हैं और मुक्त हैं, जी भी रहे हैं और सुंदर हैं, जी भी रहे हैं और स्वस्थ हैं। जब तक हम ऐसे लोगों को आदर न देंगे, तब तक इस देश का जो गलत आदर बह रहा है वह अच्छे लोगों को गलत रास्तों पर ले जाएगा। कोटि प्रतिभाशाली लोगों को भटकाएगा, देश की प्रतिभा को खंड-खंड करेगा। और हम वह इकट्ठापन पैदा न कर पाएंगे जिससे ऊर्जा पैदा होगी, शक्ति पैदा होगी।
क्या कभी आपने यह सोचा है कि हम चार-पांच हजार वर्षों से सामूहिक रूप से एक संदेश-गान, एक कोरस चल रहा है जीवन की निंदा का। हर चीज की निंदा करो। जो भी जीवन में है उसे कहोः बुरा है, पाप है, घृणित है, छोड़ने योग्य है--हर चीज। और फिर यह जारी रहे, और हमारे मन में यह बात बैठती चली जाए, बैठती चली जाए--भोजन करो तो मुश्किल है। स्वाद, स्वादपात! भोजन करेंगे। स्वाद स्वाभाविक है, लेकिन पात! भोजन कर रहे हैं, स्वाद ले रहे हैं, पात भी भोग रहे हैं। नरक जाने का रास्ता भी साफ दिखाई पड़ रहा है कि स्वाद ले रहे हो, बच्चू सम्हल कर लेना स्वाद। नरक का रास्ता तय हो रहा है, एक-एक सीढ़ी बढ़ रहे हो। तो स्वाद भी ले रहे हैं, और स्वाद जहर भी हुआ जा रहा है। एक साथ दोनों बातें हो रही हैं।
मैं एक बगीचे में था। एक संन्यासी मेरे साथ थे। बगीचे में अदभुत फूल खिले थे और मैं एक-एक फूल के पास रुकने लगा, और एक-एक फूल को देखने लगा। उन संन्यासी ने मुझसे कहाः आप भी क्या माया में पड़े हुए हैं? फूलों को देखते हैं! क्या रखा है इन फूलों में? मैंने उन संन्यासी को कहाः आप अपने रास्ते पर चले जाएं, मुझे फूलों की आवाज ज्यादा परमात्मा की आवाज मालूम पड़ रही है, बजाय आपकी आवाज के।
फूल परमात्मा के ज्यादा निकट हैं। फूल से जो प्रकट हो रहा है वह कोई भी नहीं है, सिवाय परमात्मा के। वह जो फूल के रंग में है, वह भी वही है; पक्षी के गीत में है, वह भी वही है। लेकिन महात्मा कह रहा हैः सब बेकार है, सब असार है। सब छोड़ो, सबसे भागो। भाग कर जाओगे कहां? भागना कहां है, भाग सकते कहां हो? बस एक ही रास्ता है कि मर जाओ।
तो भागने का अर्थ भी असल में ग्रेजुअल डेथ है--धीरे-धीरे मौत। जीवन से छोड़ो धीरे-धीरे साथ, जितना साथ छूटेगा उतने मरते चले जाओगे। मरने की तैयारी करो। मरते जाओ, मरते जाओ, और जीवन से सब तरफ से साथ छोड़ दो, सब तरफ से जड़ें उखाड़ लो, सूख जाओ और मर जाओ।
यह हमने धर्म बनाया हुआ है!
फिर जो आदमी जितना सूख जाए, हम कहेंगे उतना महातपस्वी थे। जो आदमी जितना मुरझा जाए, हम कहेंगे उतना संन्यासी थे। जो आदमी जीते जी जैसे लाश और मुर्दा दिखाई पड़ने लगे, हम उतनी ही पूजा करेंगे।
गलत चल रही है यह पूजा, गलत स्थान पर चल रही है। इसलिए देश उदास होता गया है, विरक्त होता गया है, रिक्त होता गया है, मन तिक्त होता गया है, सब चीजों पर उदासी छा गई है, धूल छा गई है--न फूल अच्छे हैं, न संगीत अच्छा है, न चांद-तारे अच्छे हैं, न गीत अच्छे हैं, कुछ भी अच्छा नहीं है। अच्छा सिर्फ एक काम है कि भागो और मरो, भागो और मरो। ऐसा अगर भाव हो तो इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि पूरे देश को कोई सुसाइडल हवा, कोई आत्मघाती हवा पकड़े हुए है। पूरे देश में जैसे एक पागलपन छा गया है मरने का। और जब सबको छाया हो एक ही पागलपन तो दिखाई नहीं पड़ता। बहुत मुश्किल होता है दिखाई पड़ना। बहुत कठिनाई होती है पर्दे फाड़ कर देखने में जब सबको एक ही बीमारी छा गई हो।
अगर हम सारे यहां बैठे लोग पीलिया के बीमार हो जाएं तो हमें सब चीजें पीली दिखाई पड़ेंगी, और किसी को भी शक नहीं होगा कि चीजें पीली हैं या नहीं। क्योंकि पड़ोस वाले को भी पीली दिखाई पड़ती हैैं, उसके पड़ोस वाले को भी पीली दिखाई पड़ती हैं। जब सभी को पीली दिखाई पड़ती हैं तो अगर कोई एक आदमी ठीक आंख वाला आ जाए और कहे कि मित्रो, आप गलती में हैं, चीजें सफेद हैं। तो हम सब उसको पकड़ लेंगे, और कहेंगे कि इसकी आंखें मालूम होती है खराब हो गई हैं, चलो किसी डाक्टर से इलाज करवा लेते हैं। क्योंकि चीजें तो पीली हैं, क्योंकि हम सबको चीजें पीली दिखाई पड़ती हैं। लेकिन हमें पीली दिखाई पड़ना किसी गहरे चश्मे के कारण हो सकता है। हजारों साल से हमें जीवन-विरोधी बातें सिखाई जा रही हैं। इसलिए चीजें हमें पीली दिखाई पड़ रही हैं, मुर्दा दिखाई पड़ रही हैं। अब अगर कोई कहे भी तो उसकी बात समझ के बाहर मालूम पड़ती है।
मैंने सुना है कि एक गांव में ऐसा हुआ था एक दिन एक जादूगर आया है, और कुएं में आकर उसने एक मंत्र फेंक दिया और कहा कि इस कुएं का पानी जो भी पीएगा, वह पागल हो जाएगा। मजबूरी थी, दो ही कुएं थे गांव में। एक गांव का कुआं, एक राजा का कुआं। तो गांव भर के लोगों ने पानी पीआ, सांझ तक पागल हो गए। राजा भर बचा। राजा बहुत खुश हुआ। सांझ को अपनी छत पर खड़ा है अपने वजीरों और अपनी पत्नियों के साथ, और कह रहा है कि धन्यभाग हमारे कि हमारा अलग कुआं था, नहीं तो आज हम भी पागल हो जाते। लेकिन तभी आस-पास में शोरगुल बढ़ने लगा, राजा ने पूछा, काहे का शोरगुल है? मंत्री नीचे गए। पता चला कि महाराज बहुत मुसीबत है, सारे गांव में यह खबर फैल गई है कि राजा का दिमाग खराब हो गया है। गांव पागल हो चुका है, राजा भर बचा था। अब पागलों के बीच में न पागल होना इतना कष्टपूर्ण है, जितना न पागलों के बीच में पागल होना कष्टपूर्ण नहीं है।
राजा ने कहाः क्या मतलब! हम पागल हो गए हैं? कौन कहता है यह? वे सब पागल हो गए हैं। वजीर ने कहाः लेकिन समझाओगे किसको? पहरेदार भी पागल हो गए हैं, सैनिक भी पागल हो गए हैं, अधिकारी भी पागल हो गए हैं, सब पागल हो गए हैं--समझाओगे किसको, सुनेगा कौन? राजा ने कहाः यह तो बड़ी मुश्किल है। लेकिन तभी महल के आस-पास लोग मशालें लिए आ गए, और वे चिल्ला रहे हैं कि राजा पागल हो गया है। हम ऐसे पागल राजा को एक क्षण बरदाश्त नहीं करेंगे, हम ठीक राजा को सिंहासन पर बैठाएंगे। राजा ने कहाः अब क्या होगा? क्या करूं? वजीर ने कहाः आप भागिए, मैं उन्हें रोकने की कोशिश करता हूं। आप पीछे से जाकर उस कुएं का पानी जल्दी से पीकर वापस आ जाइए।
राजा ने कहाः क्या कहते हो, क्या मैं भी पागल हो जाऊं? वजीर ने कहाः देर मत करिए, नहीं तो मरना पड़ेगा। अगर बचना है तो पागल हो जाओ। वह राजा भागा, वह उस कुएं का पानी पी रहा है, जान रहा है कि मैं पागल हुआ जा रहा हूं, लेकिन कोई रास्ता नहीं है। वह पानी पीकर वापस लौटा, उस दिन उस गांव में बड़ा जलसा मनाया गया। सारे गांव में झांझ-मंजीरे पिटे, मंदिरों में घंटाल बजे, सारे गांव में दीये जले, और सारे गांव के लोगों ने भगवान को धन्यवाद दिया, तेरी बड़ी कृपा है! हमारे राजा का दिमाग ठीक हो गया। क्योंकि अब राजा भी कूद रहा था, चिल्ला रहा था, नंगा फिर रहा था, कपड़े फेंक दिए थे। अब राजा ठीक हो गया था, पागलों की बस्ती में। लेकिन दिखाई पड़ना मुश्किल है उसमें।
हजारों साल तक अगर कोई एक बात हमारे चारों तरफ मंडराती रही हो, घूमती रही हो तो वह हमारे खून और हड्डी का हिस्सा हो जाती है। मोक्ष की कामना इस देश के खून और हड्डी में घुस गई है। और जीवन की कामना उसी मात्रा में क्षीण हो गई हैं, मृतप्राय हो गई है।
लेकिन जीवन ही सत्य है। और जीवन से अतिरिक्त कोई मोक्ष न है, और न सत्य है। हां, यह बात सच है कि अगर कोई इस जीवन को पूरी तरह जीए--पूरे आनंद में, पूरी प्रार्थना में, परमात्मा के पूरे अनुग्रह में; और अगर जीवन के इंच-इंच को जाग कर जीए--होश से जीए, आनंद से जीए; और जीवन की प्रत्येक चीज को ऐसे जीए, जैसे परमात्मा को ही जी रहा है; श्वास भी ऐसे ले, जैसे परमात्मा ही भीतर गया और बाहर आया; भोजन भी ऐसे करे, जैसे परमात्मा का ही भोजन हो रहा है; रास्ते पर चले भी ऐसे, जैसे परमात्मा ही चारों तरफ है। चारों तरफ जो लोग दिखाई पड़ें उनकी आंखों में भी परमात्मा की झलक देखे, वृक्ष के फूल में वह खिलता मालूम पड़े, सागर की लहर में वह नाचता मालूम पड़े, चांद की किरणों में वह उतरता हुआ मालूम पड़े, चारों तरफ परमात्मा घेर ले, जीवन ही परमात्मा हो जाए--तो निश्चित ही मोक्ष उपलब्ध होता है।
लेकिन वह मोक्ष मृत्यु वाला मोक्ष नहीं है, वह मोक्ष मरने वाला मोक्ष नहीं है। वह मोक्ष जीवंत है, लिविंग है। वह जीवन का ही परिपूर्ण विस्तार है, वह जीवन का ही पूरा उदघाटन है। एक ऐसा मोक्ष जो जीवन का ही उदघाटन है। अगर ऐसी प्रतिभा को हम मुक्त न कर सकें तो इस देश का कोई भविष्य नहीं हो सकता। इसलिए तीसरा सूत्र आपसे कहता हूंः मोक्ष से मुक्ति।
यह बड़ा अजीब लगेगा, मोक्ष से मुक्ति? जीवन से प्रेम, मोक्ष से मुक्ति है। और यह मत सोच लेना कि मैं कोई मोक्ष-विरोधी हूं। सच तो यह है कि जिन्होंने जीवन से विपरीत मोक्ष बताया, वे ही मोक्ष-विरोधी हैं। उन्होंने ही जीवन को मोक्ष तक पहुंचने से रोक दिया है। उन्होंने बाधा डाल दी है। उन्होंने रास्ता भटका दिया है नदी का। वे नदी को मरुस्थल में मोड़ कर ले गए हैं। और जो नदी सागर तक अपने आप पहुंच जाती, किसी को पहुंचाने की जरूरत न थी। नदी को सागर तक पहुंचाने के लिए किन्हीं इंजीनियरों की जरूरत नहीं होती। लेकिन नदी को अगर सागर तक जाने से रोकना हो तो फिर इंजीनियरों की जरूरत पड़ती है, यह तो आपको मालूम है। इंजीनियरों की जरूरत पड़ती है नदी को अगर मरुस्थल में ले जाना हो। नदी को अगर सागर तक पहुंचने से रोकना हो तो इंजीनियर की जरूरत पड़ती है, और अगर नदी को सागर में जाने देना हो तो किसी इंजीनियर की कोई जरूरत नहीं है। नदी सहज ही(.. 47: 46.अस्पष्ट ) सागर तक पहुंच जाती है।
जीवन तो मोक्ष तक पहुंच सकता है, लेकिन पंडितों की कृपा चाहिए। वे पंडित, वे इंजीनियर, वे मोक्ष के इंजीनियर...वे पंडित जीवन के रास्ते को मरुस्थल में भटकाते हैं। और जितना जीवन मरुस्थल में भटकने लगता है उतना ही पंडितों का व्यवसाय जोर से चलने लगता है। क्योंकि जितना जीवन दुखी होता है, उतना ही आदमी पूछता है कि मार्ग बताओ। पहले मार्ग भटकाओ, नहीं तो मार्ग पूछने कौन आएगा?
सच तो यह है कि अगर दुनिया का पंडितों से छुटकारा हो जाए और एक-एक आदमी सहज वृत्ति से जीवन के आनंद को जीने लगे, तो मुश्किल से कुछ लोग बचेंगे जो मोक्ष तक न पहुंचे। अधिकतम लोग मोक्ष तक पहुंच जाएंगे। जीवन की सहज धारा मोक्ष की तरफ है। जीवन की सहज धारा परमात्मा की तरफ है। लेकिन महात्मा बीच में खड़ा हुआ है, वह कहता हैः कहां जा रहे हो? अगर उसकी मानो तो मुसीबत है, उसकी न मानो तो मुसीबत है।
मैंने सुना है, एक गांव में एक उपदेशक कुत्ता था। बड़ा खतरनाक कुत्ता, देखो कुत्ता वैसे ही खतरनाक होता है, और फिर उपदेशक। जैसे कि नीम पर चढ़ा हुआ करेला। कुत्ता वैसे ही दिन-रात चिल्लाता था, फिर वह उपदेशक था तो और मुसीबत। वह सुबह से निकलता था और जहां भी कोई कुत्ते मिल जाएं, दो-चार कुत्ते मिल जाएं उनको फौरन समझाना शुरू कर देता था। समझाता क्या था?
समझाता वह यह था कि कुत्तों की जाति का बड़ा पतन हो गया है, और हम सब रास्तों से भटक गए हैं, पर हम सब गलत काम कर रहे हैं। कुत्ते पूछते, कौन सा गलत काम? तो वह कहता कि देखो, हमारे ऋषि-मुनियों को देखो! पहले जो हो चुके हैं, वे बिलकुल मौन रहते थे, कभी भौंकते नहीं थे। और तुम दिन-रात भौंकते हो, यह भौंकना ही पाप है।
अब बड़ी मुश्किल हो गई। कुत्ता न भौंके तो मुसीबत, और भौंके तो पाप है। अब कुत्ता भौंकेगा ही। नहीं भौंकेगा तो जान घुटती है भीतर, भौंकता है तो मुसीबत होती है। अब कुत्ता यानी भौंकना।
कुत्ते सुनते और कहते कि बात तो आप ठीक कहते हैं, लेकिन बड़ी कठिन मालूम होती है। हां, कुछ बहुत ही संकल्पवान लोग होंगे वे साध लेते होंगे, हम तो साधारण कुत्ते हैं। हमसे साधने में मुश्किल होती है, लेकिन फिर भी सुनते हैं। और एक बात पक्की थी कि वह जो उपदेशक कुत्ता था वह कभी नहीं भौंकता था, इसलिए कोई एतराज भी नहीं उठा सकता था। कारण असल में दूसरा था। वह दिन भर में बोल-बोल कर इतना थक जाता था कि भौंकने का उपाय नहीं था। भौंकने के लिए ताकत चाहिए। और भौंकने का काम बोलने से ही हो जाता था।
लेकिन दिन-रात समझाते-समझाते गांव के कुत्ते परेशान हो गए और एक दिन अमावस की रात थी, गांव के कुत्तों ने कहा, कितने दिन से हमारा नेता हमें समझा रहा है, हम उसकी मानते ही नहीं। नेता हमेशा समझाते हैं, मानता कौन है? और ध्यान रखना, जिस दिन मान लोगे उसी दिन नेता की मौत हो जाएगी। नहीं मानते हो इसलिए नेता जिंदा है। वह समझाता चला जाता है, तुम मानते नहीं। वह समझाता चला जाता है...।
उन कुत्तों ने कहा कि बहुत बेचारा कष्ट उठाता है, बड़ा पुराना नेता है हमारा, इसकी बात मान ही लेनी चाहिए। आज की रात तो कम से कम हम कसम खा लें कि कोई नहीं भौंकेगा। अमावस की रात थी। सारे कुत्ते चुप पड़ गए एक-एक कोने में, बड़ी मुश्किल थी यह बात। बड़ी तपश्चर्या, साधना, योगासन लगाना पड़ा होगा, तब कहीं चुप हो सके होंगे। मगर अपने गले को घोंटे हुए पड़े हैं। बड़े टेम्टेशंस आने लगे, बड़ी उत्तेजनाएं आने लगीं। कहीं कोई पुलिसवाला रास्ते से निकल गया। अब पुलिसवाले को देख ले कुत्ता, और न भौंके! मगर संयम साधा उन्होंने, बहुत संयम साधा, बड़ी हिम्मत की, बड़ी मुश्किल की, जैसा उपवास वगैरह के दिन सब लोग साधते हैं संयम। उसी तरह का संयम उन पर पड़ गया। लेकिन प्रतीक्षा करने लगे कि आखिर रात तो बीतेगी, सुबह तो होगी। रात भर की तो कसम खाई है। सुबह भौंक लेंगे, इकट्ठा भौंक लेंगे। मन में कल्पना करने लगे कि सुबह भौंकने में कैसा-कैसा मजा आएगा। वे जो लोग उपवास करते हैं, वह पता है उन्हें कि सुबह भोजन करने में कैसा मजा आएगा। (अस्पष्ट 52: 10..) वे कुत्ते बेचारे! लेकिन सुबह की आशा में अपने मन को समझाए संतोष से रहे।
उपदेशक कुत्ता निकला अपने वक्त पर उपदेश देने। लेकिन आज गांव में सन्नाटा है, कोई कुत्ता भौंकता ही नहीं। उपदेशक कुत्ते ने कहाः हो क्या गया है? क्या सारे, सब कुत्ते मर गए? मेरा क्या होगा? लेकिन देखा कि कुत्ते गली-कूचों में दुबके पड़े हुए हैं। अब उपदेशक जब कोई भौंक ही नहीं रहा है तो क्या करे? रात बारह बज गए, आज पहली दफा उपदेशक के गले में जोर की खराश उठी। इतनी देर तो बोल नहीं पाया, और बड़ी घबड़ाहट हुई उसको। भौंकने का मन होने लगा। उसने कहा, यह भी क्या मामला है, आज जब कोई नहीं भौंक रहा तो मेरा भौंकने का मन क्योें हो रहा है? फिर तो बहुत मुश्किल हो गई, कोई समझाने को नहीं मिला, कोई समझने को नहीं मिला, फिर क्या करे? फिर उसे खयाल आया कि किसी एकांत सी गली में जाकर जोर से भौंक ही लेता हूं। वह भौंका एक गली में जाकर। जैसे ही भौंका, सारे कुत्तों का संयम टूट गया। उन्होंने सोचाः किसी एक ने गद्दारी कर दी, उन्हें क्या पता कि नेता ही गद्दारी कर रहा है।
हमेशा नेता ही गद्दारी करता है। लेकिन नेता होशियारी से गद्दारी करता है, पता भी नहीं चल पाता। फंसता अनुयायी है, जब भी फंसता है अनुयायी ही फंसता है। उन्हें क्या पता, वे समझे कि हमारे बीच से किसी ने संयम तोड़ दिया। क्योंकि यह तो वे सोच ही नहीं सकते थे कि उपदेशक कुत्ता और ऐसा कभी करेगा! वह तो कभी भौंका ही नहीं। सारे कुत्ते भौंकने लगे, जब उन्होंने देखा कि एक ने तोड़ दिया तो हम भी क्यों परेशान हों। सारे गांव में शोरगुल मच गया और उपदेशक कुत्ता वापस लौट आया, और उसने कहाः दोस्तो, इसी वजह से हमारा पतन हो रहा है। यह भौंकना बहुत गलत है, यह कुत्तों की जाति का अपमान है। जब तक तुम भौंकते रहोगे तब तक कुत्तों की कभी कोई इज्जत नहीं होगी। भौंकना बंद करो! किसी को क्या पता कि उस रात क्या घटना घटी?
जीवन को सहज, बिलकुल सहज...जिसको हम कहें जैसा जीवन है अगर वैसा जीवन को चुपचाप रहने दिया जाए तो जीवन सहज ही वहां पहुंच जाता है--जहां प्रभु है, वह उस मंदिर में पहुंच जाता है। लेकिन बहुत असहज किया गया है। इतना सिखाया गया है, इतना सिखाया गया है कि सब चक्कर हो गया है। उस चक्कर में पूरी मनुष्य-जाति की चेतना सहज जहां जा सकती है, वहां नहीं जा पा रही है। और जहां जा ही नहीं सकती, वहां जाने की व्यर्थ चेष्टा कर रही है।
और इस व्यर्थ चेष्टा में भारत अग्रणी है। इस मोक्ष की कामना में भारत प्रथम खड़ा है। और इसलिए जीवन की दौड़ में भारत अंतिम हो गया है। मोक्ष की कामना में प्रथम है खड़ा, इसलिए जीवन की दौड़ में अंतिम हो गया है। अगर जीवन की दौड़ में हमें प्रथम खड़े होना हो तो यह मरने की कामना छोड़ देनी चाहिए।
धर्म का अर्थ मेरी दृष्टि में जीवन को मोक्ष बनाना है। धर्म का अर्थ मेरी दृष्टि में जीवन की क्षुद्रतम वस्तु को श्रेष्ठतम की गरिमा से मंडित करना है। क्षुद्रतम को, अत्यंत क्षुद्र को श्रेष्ठ की गरिमा से मंडित करना है, अत्यंत क्षुद्र को--खाना खाने को, कपड़ा पहनने को, उठने-बैठने को गरिमा से भर देना है, पूजा और आराधना की गरिमा दे देनी है। जीवन का सामान्य से सामान्य क्रम परमात्मा की प्रार्थना बन सके, जीवन का विरोध नहीं। और हम धीरे-धीरे बहते हुए किसी दिन उस क्षण को उपलब्ध हो जाएं जहां जीवन मुक्ति बन जाता है, जहां जीवन बंधन नहीं। जहां प्रकृति का द्वार परमात्मा पर खुल जाता है, जहां शरीर बाधा नहीं है--मार्ग है। जहां संसार मोक्ष से उलटा नहीं है। जहां जान लिया गया है, देख लिया गया है, वहां संसार भी मोक्ष है।
यह हो सकता है। और यह हो सके तो जीवन में क्रांति आ सकती है।
इन तीन दिनों में ये तीन सूत्र मैंने कहेः अतीत से मुक्ति, विश्वास से मुक्ति और मोक्ष से मुक्ति। जीवन के द्वार पर प्रवेश के लिए तीन सीढ़ियां। लेकिन मेरी बात को मान लेने की कोई जरूरत नहीं है। मेरी बात को सोचना, विचारना, खोजना, प्रयोग करना। हो सकता है मेरी बात गलत हो, हो सकता है सही हो। मैं कौन हूं, कहूं कि सही है कि गलत है? उसकी जांच-परख आप करना। हो सकता है उस जांच-परख में कुछ सत्य का कण दिखाई पड़ जाए, तो वह कण आपके जीवन में क्रांति भर सकता है।
और एक छोटी सी क्रांति की किरण आ जाए तो आज नहीं कल, पूरे जीवन में क्रांति का सूरज भी उतर आता है। एक दीया जल जाए, फिर सूरज तक पहुंचने में बहुत कठिनाई नहीं है। क्योंकि जो दीये में छिपा है छोटे रूप में, वही सूरज में बड़ा होकर प्रकट हुआ है। लेकिन अंधकार से भरे हुए हैं हम। पर एक ही दीया में, एक ही किरण में...। और ये तीन सूत्रों से विपरीत जो चल रहे हैं, उनके जीवन में वह दीया पैदा नहीं हो सकता है।

मेरी बातों को इन दिनों में इतनी शांति और प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

समाप्त 




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