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शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

भारत का भविष्य-(प्रवचन-09)

भारत का भविष्य–(राष्ट्रीय-सामाजिक)

नौवां प्रवचन-(ओशो)

शिक्षा और समाज

व्यक्ति के अतिरिक्त और कोई जगह है नहीं। समाज और झूठ, जो बड़े से बड़ा झूठ है। समाज का झूठ दिखाई नहीं पड़ता। लगता ऐसा है कि वही सत्य है, और व्यक्ति तो कुछ भी नहीं। झूठ अगर बहुत पुराना हो, पीढ़ी दर पीढ़ी, लाखों साल में हमने उसे स्थापित किया हो, तो ख्याल में नहीं आता।
लेकिन ख्याल में आना शुरू हुआ है और दुनिया को यह धीरे-धीरे रोज अनुभव होता जा रहा है कि समाज के नाम से की गई कोई भी क्रांति सफल नहीं हुई। और समाज के नाम से हमने जो भी आज तक किया है उससे हमारी मुसीबत समाप्त नहीं हुई। मुसीबत बदल गई हो, यह हो सकता है। एक मुसीबत छोड़ कर हमने दूसरी मुसीबत पा लिए हों, यह तो हुआ है, मुसीबत समाप्त नहीं हो सकी।
मेरी तो दृष्टि ऐसी है कि सामाजिक क्रांति असंभावना है। और जब मैं ऐसा कहता हूं असंभावना है तो मेरा मतलब यह है कि आप सिर्फ धोखा खड़ा करते हैं। अब जैसे उदाहरण के लिए, मनुष्य के इतिहास में जितने लोगों ने भी समाज को ध्यान में रख कर मेहनत की है, उनकी मेहनत बिल्कुल ही असफल हुई। न केवल असफल हुई बल्कि घातक भी सिद्ध हुई।



अब जैसे, कभी सोच भी नहीं सकते थे हम आज से तीन सौ साल पहले..इन तीन सौ सालों में दुनिया के सभी विचारशील लोगों ने चाहा कि प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो जाए, इतनी तो सामाजिक क्रांति जरूरी है। इसे कोई भी बुरा नहीं कह सकता। यूनिवर्सल एजुकेशन हो। इसे कौन बुरा कहेगा?
तो इमर्सन से लेकर रसल तक सारे लोग इस पर मेहनत किए कि प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित हो जाए। और मजा यह है कि जब हम सफल हुए और जिन मुल्कों में हमने शिक्षा पूरी फैला दी, हम वहां पा रहे हैं कि जो परिणाम हुए हैं शिक्षा के, वे अशिक्षा से कभी भी नहीं हुए हैं। सोचते थे कि शिक्षित आदमी हो जाएगा तो जिंदगी ज्यादा शांत, ज्यादा आनंदपूर्ण, ज्यादा सरल, सहज, संबंध ज्यादा मधुर और प्रीतिकर हो जाएंगे, हुआ तो नहीं, हुआ उलटा। शिक्षा से आदमी ज्यादा सरल नहीं हुआ, ज्यादा चालाक और ज्यादा शैतान हुआ। और शिक्षा से वह ज्यादा प्रेमपूर्ण भी नहीं हुआ, बल्कि ज्यादा कैल्कुलेटिड और ज्यादा हिसाबी-किताबी हो गया। और उसके हिसाबी-किताबी बनने उसको प्रेम को नष्ट किया। और सब भांति शिक्षित हो जाने के बाद पता चला कि शिक्षा ने केवल उसकी महत्वाकांक्षा की आग को प्रज्वलित कर दिया। वह विक्षिप्त हो गया। और जिन बच्चों की शिक्षा के लिए तीन सौ साल से विचारशील लोगों ने मेहनत की थी, वे बच्चे आज कह रहे हैं कि हम तुम्हारी युनिवर्सिटीज को, तुम्हारे कालेजे.ज को जला देंगे। ये सब बेकार हैं।
आज अमरीका में यह हो रहा। अमरीका सर्वाधिक सुशिक्षित हुआ है। इसलिए सर्वाधिक शिक्षा के जो दुष्परिणाम वहां प्रकट हुए। स्कूल जाने वाले बच्चे स्कूल छोड़ रहे हैं। जो ड्राप आउट है आज, स्कूल और विश्वविद्यालय को जो छोड़ कर जा रहा है, वह विद्रोही और बगावती है। और तीन सौ साल के सब विद्रोही और बगावती इस कोशिश में लगे थे कि हम कैसे सबको शिक्षित करें?
अब सब शिक्षित हो गए। कभी-कभी ऐसा लगता हैः नथिंग फेल्स लाइक सक्सेस। सफल होते हैं तभी पता चलता है कि बुरी तरह असफल हो गए! तीन हजार साल से आदमी कोशिश कर रहा है कि हम सभी को कम से कम रोटी-रोजी तो जुटा दें। गरीबी बुरी है, कौन इनकार करेगा? और दिक्कतें तब खड़ी होती हैं जिन चीजों में कोई इनकार नहीं करता। उन्हीं चीजों में झंझटें खड़ी होती हैं। जब कोई चीज जितनी ज्यादा ओबियस, सीधी-सीधी स्पष्ट मालूम पड़ती है, तो कोई इनकार नहीं करता। अब हमने गरीबी कुछ मुल्कों में मिटा दी, और हम पा रहे हैं कि गरीब इतनी मुसीबत में कभी भी न था जितनी मुसीबत में अमीर पड़ गया।
और गरीबी की मुसीबत में भी एक सुविधा थी, आशा तो थी। गरीब सदा आशा से भरा हुआ है। आज नहीं कल एक मकान बना लेगा, आज नहीं कल एक बगीचा होगा, आज नहीं कल एक गाड़ी होगी, आज नहीं कल बच्चे होंगे, ऊपर उठ जाएंगे। जहां-जहां अमीरी आ गई, वहां-वहां आशा खो गई। धन के आने के साथ ही आशा खो जाती है। और आशा खोते ही गहन निराशा उतर आती है। आज जो पश्चिम में गहन निराशा है उस गहन निराशा का कारण है कि जिस वजह से आशा बनी रहती थी वह मिटा दी गई, वह गरीबी की वजह से थी।
आशा थी इसलिए कि आपके पास कुछ नहीं था और आशा बनती थी कि कल होगा और सब ठीक हो जाएगा। जिससे आप सोचते थे सब ठीक हो जाएगा वह आज आपके पास है। और कुछ ठीक नहीं हुआ। तो भयंकर निराशा। इतने बड़े जोर से आत्मघात हो रहा है। और जो नहीं आत्मघात कर रहे हैं वे भी करीब-करीब मुर्दा हालत में हैं।
अभी पश्चिम का जो भी विचारशील व्यक्ति है, कम से कम धनी समाजों का, वह निराशा, दुख, संताप, अर्थहीनता, खालीपन उनकी बातें कर रहा है कि सब जिंदगी खाली हो गई। गरीब की जिंदगी कभी खाली नहीं हुई, बहुत भरी जिंदगी थी। हालांकि उसके पास कुछ था नहीं। बड़ा मजा यह है, उसके पास कुछ था नहीं बिल्कुल खाली है। मुट्ठी में उसके कुछ भी नहीं था लेकिन जिंदगी बड़ी भरी-पूरी है। गरीबी हमने मिटा दी, क्योंकि हमने माना कि बुरा है। बड़ी क्रांति हमने की। और जिनकी हमने गरीबी मिटा दी, अब वे खुद को मिटाने को तैयार हैं, क्योंकि कोई और उपाय नहीं दिखाई पड़ता अब किसको मिटाएं!
यह मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूं। करीब-करीब सारा मामला ऐसा है। संयुक्त-परिवार था हमारे मुल्क में। सारी दुनिया में संयुक्त-परिवार था। समाज-सुधारकों ने कहा कि संयुक्त-परिवार से उसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता क्षीण हो जाएगी। सौ आदमी एक परिवार में हैं, तो स्वतंत्रता तो क्षीण होने वाली है। क्योंकि परिवार को चलाना है तो एक आदमी को तो प्रमुख होना पड़ेगा। स्वभावतः जो वृद्ध है, जो कमाने वाला है वह प्रमुख हो जाएगा। फिर इस बड़े परिवार में छोटे बच्चे होंगे। गैर-कमाने वालों के भी बच्चे होंगे, उनकी प्रतिष्ठा भी कम होगी। गैर-कमाने वालों की पत्नी की भी प्रतिष्ठा कम होगी। इन सबकी तो कोई स्थिति होगी नहीं। तो किसी तरह परिधि पर चलते रहेंगे। और इनके विकास का अवसर नहीं मिलेगा। फिर यह भी कहा विचारशील लोगों ने कि जहां सौ लोग हैं वहां कुछ लोग गैर-कमाऊ हो ही जाएंगे। क्योंकि जब चलता ही है काम तो चला लिया जाए। इसलिए हम परिवार को बांटें। और व्यक्तिगत परिवार, ज्यादा प्रगतिशील परिवार होगा।
यह ठीक ही बात थी कि जितना छोटा परिवार होगा, जितना छोटा यूनिट होगा उतना संगठित भी होगा, उतना प्रत्येक व्यक्ति उत्तरदायी भी होगा। और उतना निकटता होने की वजह से, पति है, पत्नी है, बेटे, बच्चे हैं उनकी फिकर की जा सकेगी। ज्यादा फिकर की जा सकेगी। और यह कमाने में भी ज्यादा उपयोगी होगा। लेकिन किसी को ख्याल में नहीं आया कि जहां-जहां संयुक्त-परिवार टूटा; वहां अब परिवार भी टूट रहा है।
जहां-जहां ज्वाइंट फेमिली खत्म हुई, वहां जिसको न्युकिलियस हैं अब, इस फेमिली को, यह भी टूट रही है। यह टूटेगी ही। इसका कारण यह है, यह वैसे ही टूटेगी..क्योंकि यह जो पूरा बड़ा मकान है हमारा, इसमें हमने सब कमरे गिरा दिए और एक कमरा बचा लिया, यह कमरा बच नहीं सकता, क्योंकि इस कमरे को बचाने के लिए वे सारे कमरे जो थे सहारा थे। और फिर जब एक दफा सब तय हो गया कि जितना छोटा परिवार होगा उतना प्रोग्रेसिव होगा, तो आखिर में पति-पत्नी भी इकट्ठे क्यों हों? तो ठीक यूनिटरी फेमिली हो जाएगी, कि एक व्यक्ति अपने को सम्हाल ले, बात खत्म हो गई।
वह जो इतना बड़ा परिवार था, वह चीजों को सम्हालता था। असल में छोटे संबंध जो हैं बड़े संबंधों के बीच में ही फलित होते हैं। अगर मैं अपने काका के लड़के से भाईचारा नहीं निभा सकता, तो मैं अपने भाई से ज्यादा दिन नहीं निभा पाऊंगा। और अगर मैं अपने काका और अपने मामा और दूर के काका और दूर के मामा से भी भाईचारा निभा पाता हूं उनके लड़कों से, तो मेरे भाई से जो मेरा भाईचारा है वह गहरा रहेगा। जब हम परिधि को तोड़ते चले जाते हैं तो नीचे सरकते आते हैं और जाकर के खत्म हो जाते हैं।
सारी कठिनाई जो है...स्त्रियों ने भी बगावत की पश्चिम में और उन्होंने कहा कि बड़ा संयुक्त-परिवार जो है स्त्रियों के बहुत खिलाफ है। क्योंकि स्त्री की कोई प्रतिष्ठा ही नहीं रह जाती थी। प्रतिष्ठा का सवाल नहीं; पति अपनी पत्नी से मिल भी नहीं सकता रोशनी में सबके सामने। बाप अपने बेटे को कंधे पर भी नहीं रख सकता था। उसके बेटे को कंधे पर रखना बेहूदगी थी जब कि घर में और बड़े बुजुर्ग हैं। तो अपने बेटे से बोल भी नहीं सकता था ठीक। रात के अंधेरे में वह अपनी पत्नी से मिल लेता था, उसका चेहरा भी कई दफा पति वर्षों तक नहीं देख पाता था। लेकिन निश्चित ही यह लगा स्त्रियों को कि बुरा है तो एक क्रांति सारी दुनिया में हुई कि इसको तोड़ो।
लेकिन बड़े मजे की बात यह है कि पति-पत्नी जब इतने बड़े परिवार में रह रहे थे तो पति-पत्नी के बीच बहुत कम कलह होती थी, क्योंकि कलह के दूसरे उपाय थे। वह जो कलह थी वह पति-पत्नी के बीच बहुत कम होती थी, वह न के बराबर। प्रेम ज्यादा सघन था उनके बीच, मैत्री ज्यादा सघन थी। क्योंकि कलह करने को और लोग भी थे, और पत्नियां थीं भाइयों की, उनसे भी कलह चलती थी पत्नी की। और तब उस सारी कलह में भी दोनों मित्र हो पाते थे।
हमने सब कलह का उपाय तोड़ दिया। अब ये दोनों लड़ रहे हैं। अब वह लड़ने की जो सुविधा थी कहीं और वह तो समाप्त हो गई। तो पति-पत्नी लड़ेंगे। अब कोई उपाय नहीं है। और वे आमने-सामने पड़ गए हैं।
मनुष्य ने जो-जो आज तक किया है समाज की तरफ से, जिसमें उसने कोशिश की है संस्थाओं को बदलने की। समाज की बदलाहट का मतलब है संस्थाओं को बदलना। समाज को बदलने का मतलब है समूह की व्यवस्थाओं को बदलना। और यह आशा रखना कि जब संस्थाएं बदलेंगी, समूह की व्यवस्था बदलेगी, तो व्यक्ति निश्चित ही बदल जाएगा। यह आशा बिल्कुल ही व्यर्थ गई। और अब मैं मानता हूं कि जो आदमी सच में क्रांतिकारी है, वह क्रांतिकारी नहीं हो सकता अब। क्योंकि क्रांति जितनी रूढ़िग्रस्त सिद्ध हुई है उतनी और कोई चीज सिद्ध नहीं हुई।
तो अब भी क्रांति की बात करना मोस्ट अनरेवोल्यूशनरी बात है। क्योंकि अगर जिनको दिखाई नहीं पड़ता कि पांच हजार साल के इतिहास में क्रांति सिवाय असफलता के कहीं नहीं ले जा सकी। और क्रांति कोई नई बात भी नहीं, क्योंकि सदा से हो रही है, उसमें कुछ नया भी नहीं है। पुरानी से पुरानी परंपरा क्रांति की परंपरा है। फिर भी वे वही सोचे जाते हैं कि कैसे इसको बदल दें, कैसे उसको बदल दें। तो मेरी नजर तो नहीं है बहुत उस पर। मेरी दृष्टि तो सीधी है और वह यह है कि अगर कोई भी बदलाहट इस दुनिया में आई है कभी, या कभी आ सकेगी, तो वह व्यक्ति की बदलाहट है।
लेकिन जिनको क्वांटिटी की फिकर होती है बहुत, उनको ऐसा लगता है कि कब हो पाएगा व्यक्ति का, एक-एक व्यक्ति को बदलते रहेंगे तो कब हो पाएगा। इसकी फिक्र ही क्या है कि कब हो पाएगा? एक में भी हो जाता है तो ठीक है। और मजा यह है कि जिसमें जल्दी लगता है कि जल्दी सबमें हो जाए। एक में भी नहीं हो पाता। क्रांति व्यक्तिगत ही हो सकती है। समूह धोखा है। हां, व्यक्तियों में होती चली जाए और वह समूह में फलित हो जाए। क्योंकि आखिर व्यक्ति समूह बन जाते हैं। तो कोई परिणाम उसमें हो सकता है। नहीं तो उसमें कोई परिणाम नहीं होता। और चेतना के जो भी रूपांतरण हैं, क्योंकि चेतना का घर और आवास ही व्यक्ति में है।
उसका कोई समूह, समूह आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है। और जब हम एक व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं तो अनिवार्य रूप से हम उसके आस-पास की चेतना के तंतुओं को भी बदलते हैं। आस-पास जहां-जहां वह जुड़ा है वहां भी बदलाहट होनी शुरू हो जाती है। मगर यह, यह निरंतर कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर, कभी कोई जीसस की ही बात कहता रहा है। लेकिन सदा हमने यह सोचा कि एक व्यक्ति को बदलने से, एक-एक को बदलने से कब होगी बदलाहट? और मजे की बात यह है कि बुद्ध को मरे ढाई हजार साल हो गए, और ढाई साल में अगर बुद्ध की बात मान कर चला जाता, तो शायद बदलाहट करोड़ों में हो गई होती। लेकिन हमने सोचा कि एक-एक को बदलने से कब होगी बदलाहट? तो ढाई हजार साल तो हो गए? और जिनको जिन्होंने कहा था कि बदलाहट जल्दी हो जाएगी समूह को बदलने से, उनकी सब बदलाहटें हो गईं और कोई बदलाहट नहीं हुई। आदमी वहीं का वहीं खड़ा रह गया।
तो मेरी तो कोई दृष्टि है नहीं बहुत उस तरफ। इतना ही है कि व्यक्तियों के समूह बढ़ते चले जाएं और उसका समूह का जो परिणाम हो जाए सहज, समूह को सीधा ध्यान में रख कर ही ध्यान में तो व्यक्ति को ही रखना है। फिर भी समूह में हो जाए, एज ए बाई-प्रॉडक्ट। वह स्वीकार है। न हो तो उसकी चिंता नहीं है। और अब मैं मानता हूं कि कुछ लोग चाहिए जो इस सत्य को ठीक से समझना शुरू करें कि क्रांति की बातचीत कुछ कर पाते हैं या नहीं कर पाते हैं? और एक और मजे का सूत्र है कि जब तक किसी चीज का अभाव होता है तब तक हमें मालूम पड़ता है कि अभाव बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे ही वह अभाव भर जाता, वह तो गैर-महत्वपूर्ण हो जाता है, उसका मूल्य खत्म हो जाता है। उसका मूल्य तत्काल खत्म हो जाता है।
अब जैसे कि जब तक रोटी नहीं तब लगता है रोटी बहुत महत्वपूर्ण है, रोटी मिल गई तो वह बेकार हो जाती, वह बात ही खत्म हो जाती है। यह भी ख्याल नहीं रह जाता कि कभी वह नहीं थी। तो उसका न होना बड़ा महत्वपूर्ण था, वह समाप्त हो गई बात। और आदमी को रोटी मिली कि तब उसके दूसरे सवाल शुरू होते हैं। तब उसके दूसरे सवाल शुरू होते हैं, असली सवाल शुरू होते हैं। वे असली सवाल जो हैं वे उसको और कठिनाई में डाल जाते हैं या सुलझाव में डाल जाते हैं। यह जरा सोचने जैसा है।
अब जैसे कि पचास-साठ साल से जो भी वैभवशाली देश हैं वे सोच रहे हैं कि आज नहीं कल, आदमी की तकलीफ सदा की यह रही, तब तकलीफ पहले यह थी कि आदमी को रोटी कैसे मिले? वह रोटी मिलनी शुरू हो गई। मकान कैसे मिले? वह मिल गया। अब तकलीफ अनुभव होनी शुरू हुई पचास साल से कि आदमी को श्रम करना पड़ता है, यही असली तकलीफ है। तकलीफ ही यही है। और यह बेहूदी बात है कि आदमी को रोटी के लिए श्रम करना पड़ता, जीवन बेचना पड़ता। समय बेचना, श्रम बेचना, जीवन बेचना है। अगर मैं अपनी रोटी के लिए रोज छह घंटे बेचता हूं, तो मैं छह घंटे अपनी जिंदगी बेचता हूं। जिंदगी भर में अगर मुझे जीना है अस्सी साल तो बीस साल तो मैंने रोटी खरीदने में बेच दिए। या कहें कि मैंने एक चैथाई जिंदगी रोटी कमाने में गंवाई, या यूं कहें कि मैंने अपनी एक चैथाई आत्मा जो थी वह रोटी के पलड़े पर रख दी। तो यह कहना चाहिए कि अशोभन। समाज तो ऐसा होना चाहिए जहां व्यक्ति को रोटी के लिए, तन के लिए आत्मा को न बेचना पड़े। तो जो समझदार लोग हैं वे यह कहते रहे। अब हालत यह आ गई कि अब हम मशीन तैयार कर लिए हैं, आदमी को श्रम से मुक्त किया जा सकता है।
लेकिन नये सवाल खड़े हो गए हैं कि आदमी को श्रम से मुक्त किया तो आदमी वह जो खाली है करेगा क्या? संभावना यह है कि वह हत्याएं करेगा, चोरी करेगा, बदमाशी करेगा, शराब पीएगा, एल एस डी लेगा, मारीजुआना लेगा, यह करेगा। पर इसका कभी भी उनको ख्याल नहीं था जिन्होंने कहा कि हम जिस दिन आदमी को श्रम से मुक्त कर देंगे उसकी आत्मा पूर्ण मुक्त हो जाएगी। फिर वे लोग सोचते थे कि वह काव्य करेगा, चित्र बनाएगा, पेंटिंग्स करेगा, कालिदास पैदा होंगे, शेक्सपियर पैदा होंगे हजारों की संख्या में, घर-घर रवींद्रनाथ हो जाएंगे, बुद्ध और महावीर जगह-जगह पैदा हो जाएंगे। क्योंकि आदमी को सुविधा होगी। और उसकी आत्मा पहली दफा मुक्त होगी तो बहुत रूपों में प्रकट होगी।
लेकिन मामला यह दिखाई पड़ता है कि वह बुद्ध कभी-कभी एकाध पैदा होता था वह भी शायद पैदा न हो। क्योंकि जिस आदमी को हम श्रम से मुक्त कर रहे हैं, श्रम से मुक्त होते ही उसने बहुत सी इच्छाओं को सदा पोस्टपोन किया था, श्रम की वजह से वह नहीं कर पाता था। उसका भी मन था कि अगर सौ पत्नियां वह भी रख सके तो रखे। कोई वजह नहीं थी कि शाहजहां क्यों रखे और वह क्यों न रखे। शाहजहां इसलिए रख सकता था उसको श्रम के लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। इन सौ स्त्रियों को खिलाने-पिलाने का भी सवाल नहीं था, इसलिए हजार भी रख सकता था।
एक मजदूर को आप मुक्त कर देंगे बिल्कुल श्रम से तो वह भी सोचता है कि क्यों न दस पत्नियां रख सकें। या क्यों न रोज पत्नी न बदल लें। आखिर उसका क्या कसूर है। इच्छा उसकी भी सदा यही थी, लेकिन इच्छा जरूरतों से दबी थी, उसको वह पूरा नहीं कर सकता था। अब समय है, सुविधा है, खाने का इंतजाम है, क्यों न करे। फिर सौ पत्नियों को इकट्ठा रखना एक झंझट की बात है, तो पत्नियों को समाप्त ही क्यों न करें, रोज एक नई स्त्री क्यों न खोजी जा सके।
जिन-जिन इच्छाओं को उसने अब तक मजबूरी में रोक रखा था, उन सबको वह पूरा करना चाहता था। कितने लोगों की इच्छा है कि वे कविता करें, कितने लोगों की इच्छा है कि वे ध्यान करें, कितने लोगों की? कितने लोग मोक्ष जाना चाहते हैं? और मजा यह है कि जितने अभी आपको दिखाई पड़ते हैं कि ध्यान में उत्सुक हैं, इनकी भी अगर दूसरी इच्छाएं पूरी हों तो सौ में से निन्यानबे ध्यान में उत्सुक न होंगे। इनका भी ध्यान में उत्सुक होने का सौ में निन्यानबे मौके पर यह कारण होता है कि इतने परेशान हैं जिंदगी से कि शायद ध्यान से राहत मिल जाए। अगर जिंदगी की सारी परेशानियां अलग कर दें, तो सौ संन्यासियों में से निन्यानबे भाग जाएंगे फौरन। क्योंकि वे आए इसलिए नहीं थे कि ध्यान में उनकी कोई रुचि थी या आत्मा की खोज में कोई रुचि थी, संसार इतना कष्टपूर्ण था कि यह उनके लिए पलायन था, सुविधा थी।
यानी एक आदमी आता है वह कहता है कि बड़ी मुश्किल है लड़की की शादी नहीं हो रही, नौकरी नहीं मिल रही लड़के को, पत्नी बीमार है, तो कोई रास्ता बताएं प्रार्थना का, पूजा का कि यह सब ठीक हो जाए। अगर यह सब ठीक हो जाए तो क्या यह आदमी प्रार्थना और पूजा का रास्ता पूछने आने वाला है। यह काहे के लिए आएगा। मगर ऐसा मत समझना कि इसकी पत्नी ठीक हो जाए, इसकी लड़की की शादी हो जाए, इसके लड़के को नौकरी लग जाए, तो यह बड़ा अच्छा आदमी हो जाएगा। इसने बहुत कुछ रोक रखा है इस उपद्रव की वजह से जिससे यह नहीं कर पा रहा है। यह भी चाहता है कि बैठ कर शराब पीए, यह भी चाहता है कि सड़कों पर नाचे, यह भी चाहता है कि ताश खेले, दांव लगा दे जूए पर, यह भी चाहता है कि सब थ्रिल। जिस दिन इसके सारे उपद्रव नहीं हैं, जिनकी वजह से यह दबा हुआ है, उस दिन यह बे-लगाम है। उस दिन आपके सामने सबसे बड़ा सवाल यह होगा कि इस आदमी को आकुपाइड कैसे रखो? आज अमरीका में वही सवाल है। क्योंकि उनको लग रहा है कि आने वाले पचास सालों में सब कुछ आटोमैटिक हो जाएगा, कंप्यूटर से चलने लगेगा। आदमी की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। यह आदमी जो अनआकुपाइड छूट जाएगा पहली दफा यह करेगा क्या? यह जमीन को स्वर्ग बनाएगा कि नरक बनाएगा? आदमी को गौर से देखो तो पक्का है कि नरक बनाएगा, स्वर्ग-वर्ग नहीं बनाएगा।
तो अब सवाल यह है कि बड़ी से बड़ी क्रांति हुई जा रही है कि आदमी को श्रम से मुक्त कर दो। अगर सच पूछा जाए तो श्रम से मुक्त करने का गहरा अर्थ यह है कि आदमी को हम शरीर की चिंता से मुक्त कर दें। लेकिन शरीर की चिंता से मुक्त करके यह आत्मा की चिंतना में पड़ने वाला है या कि सदा से जो दबाई हुई वासनाएं हैं, जिनको यह कभी पूरी नहीं कर पाया था, यह उनको पूरे करने में लगेगा। क्रांति बड़ी भारी घटित हुई जा रही है। लेकिन हो सकता है कि फल भयंकर हो उससे। और यह फल तब तक भयंकर होंगे ही सिद्ध जब तक हम व्यक्ति को बदल नहीं देते। तब तक हम कुछ भी बदलेंगे यह बिना बदला हुआ व्यक्ति जो है उसका दुरुपयोग करने वाला है।
आइंस्टीन को कभी ख्याल नहीं था कि हम जो इतना महान श्रम करके और एटामिक एनर्जी की खोज कर रहे हैं आदमी इसका क्या करेगा। आइंस्टीन ने मरते वक्त कहा कि अगर इसका हमें बोध होता कि आदमी क्या करेगा, तो बेहतर हुआ होता कि मैंने एक किराने की दुकान पर नौकरी करके जिंदगी गंवा दी होती, बजाय इस सारे...।
इस खोज का अंतिम परिणाम अगर हिरोशिमा और नागासाकी होना है और आखिर में यह सारी दुनिया जल कर मरने वाली है। तो मैंने जो श्रम किया था, तब पूरी जिंदगी बर्बाद थी, और इतनी लगन से, उसका यह फल होगा! यह अगर जरा भी ख्याल होता, तो एक किराने की दुकान पर या अखबार बेच कर सड़क पर जिंदगी गुजार देना बेहतर और आध्यात्मिक है।
यह सब वैज्ञानिक पागलपन सिद्ध हुआ। लेकिन यह अणु की शक्ति कारगर हो सकती है। लेकिन कारगर तभी हो सकती है जब व्यक्ति पहले बदल गया और पीछे यह अणु की शक्ति आए हाथ में। नहीं तो यह कारगर नहीं हो सकती, यह तो उपद्रव लाएगी।
अब तक हमने जो भी आदमी को दिया है उससे नुकसान हुआ। क्योंकि आदमी वही का वही है। और समूह को बदलने वाला सोचता ही है, व्यक्ति को छोड़ कर, वह सोचता है जब सब बदल जाएगा, समूह बदलेगा, संस्था बदलेगी, शक्ति बदलेगी, तो व्यक्ति तो बदलने वाला, लेकिन व्यक्ति बहुत रेसिस्टेंट है। इतना आसान नहीं व्यक्ति का बदलना। सब बदल जाए और व्यक्ति अपनी जिद जारी रखेगा। बल्कि वह पहली दफा प्रकट होगा पूरी शक्ल में जिसका आपको कभी भी पता नहीं था।
लोग कहते हैं कि आदमी बड़े पद पर पहुंचता है तो बिगड़ जाता है, पद बिगाड़ देते हैं। कोई पद नहीं बिगाड़ सकता किसी को। सिर्फ पद मौका देता है आपको पूरे खिलने का। लोग कहते हैं धन बिगाड़ देता है। धन कैसे बिगाड़ सकता है? धन की क्या सामथ्र्य है? लेकिन धन आपको मौका देता है कि जो आप थे अब प्रकट हो जाएं। गरीबी में प्रकट नहीं हो सकते थे। पुलिस पकड़ कर ले जाती अगर उपद्रव मचाते तो। अगर दूसरे की पत्नी को छेड़-छाड़ करने जाते तो जूते पड़ते। अब धन आपके पास है। अब जूते मारने की ताकत आपके पास है। अब आप कुछ कर सकते हैं जो सदा आपने रोका था।
दवाइयों ने, चिकित्सा-शास्त्र ने आदमी की उम्र बढ़ा दी। अब सवाल यह है कि उस उम्र को बढ़ा कर, नये मसले खड़े होते हैं। अब सत्तर साल का आदमी, अस्सी साल का आदमी है अब, और अभी भी वह सेक्सुअली पोटेंट है। जब आप उम्र सौ साल खींच देंगे, तो सत्तर-पचहत्तर साल का आदमी भी बच्चे पैदा कर सकता है। अब प्रॉब्लम्स खड़े होंगे जो कि पिछले पचहत्तर साल के बूढ़े ने कभी खड़े नहीं किए थे। वह कभी खड़ा नहीं किया था। अब यह खड़ा करेगा।
अब यह कामवासना के बाजार में अपने नाती-पोतों का भी काम्पिटीटर होगा। उसी बाजार में खड़ा है। अब बट्र्रेंड रसल जैसा बुद्धिमान आदमी अगर बीस-बाईस साल की लड़की से शादी करे, तो काम्पिटीशन किससे है? अस्सी साल का आदमी अगर बाईस साल की लड़की से शादी करता है तो अपने नाती-पोतों से काम्पिटीटर है वह।
इसके प्रॉब्लम्स खड़े होंगे, इसकी झंझट खड़ी होगी। और जो स्टेक्चर था, जो व्यवस्था थी, उसमें आमूल रूपांतरण करने होंगे आपको। अस्सी साल का बाप अगर शादी करने जा रहा है तो क्या वह बीस साल के अपने लड़के से कह सकता है कि ब्रह्मचर्य का कोई मूल्य है? किस मुंह से? उलटी हालत भी हो सकती है कि बीस साल का लड़का अपने बाप को थोड़ा समझाए कि थोड़ा तो कुछ ध्यान रखो। तो होता क्या है कि जब हम संस्था में, व्यवस्था में कोई भी अंतर कर लेते हैं तो तकलीफ खड़ी होती है कि वह जो व्यक्ति है वह तो वही का वही रह जाता है।
ऐसा नहीं कि बट्र्रेंड रसल ऐसा कर रहा है। जो लोग भी सौ साल की उम्र तक जी सकते हैं, वे लोग अस्सी साल में शादी कर सकते हैं। कोई अड़चन तो नहीं है, कोई कारण तो नहीं है। तो अभी अमरीका में उनको वृद्धों के लिए कैम्पस बनाने पड़ रहे हैं। जिसको हम कभी नहीं सोच सकते थे। जिसमें बूढ़े और वृद्धों को रखना। और उन्होंने ठीक प्रेम और रोमांस की कथा शुरू...। अब वे बूढ़े और बुढ़ियां जो हैं वे सब अपना प्रेम बसा रहे हैं। और उनके सब लड़के-बच्चे, उनके बच्चे वे सब अपने घर बसा रहे हैं। ये बूढ़े और बुढ़ियां जो हैं ये फिर अपने रोमांटिक...। क्योंकि इनको घर बिठाना अब खतरनाक है। अब इनके कैंप अलग ही होने चाहिए। जहां कम से कम ये अपने समवयस्क लोगों के बीच फिर से प्रेम का सिलसिला शुरू कर दें।
आदमी को बिना बदले, व्यक्ति को बिना बदले आप जो भी करेंगे आप नये प्रश्न खड़े कर सकते हैं बस। तो थोड़ी देर राहत हो सकती है कि पुराने प्रश्न समाप्त हुए। अब यह सच बात यह है कि अगर बाप साठ-सत्तर साल में मर जाए, तो परिवार में उसको प्रेम मिलता रह सकता है थोड़ा-बहुत। क्योंकि उसकी ठीक दूसरी पीढ़ी, उसके बेटे ताकत में होते हैं। उसका बेटा होता है कोई सैंतालीस साल का, पचास साल का वह अभी ताकत में होता है। सत्तर साल के बूढ़े को अभी वह फिक्र करेगा।
अगर बूढ़ा नब्बे साल का हो जाए तो उसके बेटे सत्तर साल, अस्सी साल के हो जाएंगे। वे ताकत के बाहर हो जाएंगे, बेटों के बेटे ताकत में आ जाएंगे। जिनसे अब इस तीसरी पीढ़ी का कोई लेना-देना नहीं, सीधा संबंध नहीं। अब यह बूढ़ा घर पर एक फिजूल का बोझ है, इसको हटाओ यहां से, इसका कोई उपयोग नहीं, इसको हटाना चाहिए। और अगर चैथी पीढ़ी ताकत में आ जाए तो आपको चैथी पीढ़ी का तो नाम भी याद नहीं रहता। आपको अपने दादा तक का नाम याद रहता है। दादा के बाप का तो आपको नाम भी याद नहीं है। अगर वह बूढ़ा जिंदा हो जिसका आपको नाम तक याद नहीं रहा, तो आपका उससे कोई संबंध होने वाला है। कोई संबंध नहीं हो सकता।
तो या तो आपके इस संबंध की और प्रेम की क्षमता इतनी बढ़ गई हो कि इतनी दूर तक पार कर सकें। तो उस बूढ़े का जिंदा रहना ठीक है। नहीं तो वह बूढ़ा अच्छा है कि जा चुका हो। क्योंकि वह अपने ही सामने अपनी ही पीढ़ियों को देखे जिनको उसकी कोई चिंता ही नहीं है, कोई उनको देखने वाला भी नहीं है। यह बहुत कष्टपूर्ण है, यह बहुत दुखद है। सारी कठिनाई क्या खड़ी होती है, अब जैसे कि चिकित्सा ने फिकर की आदमी की कि हम उसकी उम्र बड़ी कर लें। अब चिकित्सक के सामने सवाल है सारी दुनिया में और सभी मेडिकल क्रांफ्रेंसस में वह सवाल उठता है कि क्या आपको किसी आदमी को उसकी इच्छा के बिना जिंदा रखने का हक है?
अब एक आदमी सौ साल का हो गया, अब मैं मरना चाहता हूं। मैं मरना चाहता हूं लेकिन कोई सरकार मुझे आत्महत्या की आज्ञा नहीं देती। क्योंकि वह कानून तब बनाया गया था जब कोई सौ साल तक जीता नहीं था। और तब किसी आदमी को आत्महत्या कर लेना समाज के लिए बहुत फिजूलखर्ची थी असल में। अगर एक आदमी को हमने तीस साल तक बड़ा किया, तो समाज ने तीस साल तक उस पर खर्च किया, भोजन दिया, मकान दिया, शिक्षा दी, सारी मेहनत की, वह आत्महत्या कर लेता है। इसका मतलब यह है कि जिस व्यक्ति को हमने तीस साल तक मेहनत की वह बीच में खत्म हो जाता है, तो समाज इसकी आज्ञा नहीं दे सकता था। तो वह आत्महत्या की आज्ञा कैसे दे? उसका मतलब वह तो खतरनाक आज्ञा है। कोई भी आदमी तैयार होने के बाद आत्महत्या कर ले तो इतनी सारी मेहनत समाज की बेकार गई। लेकिन अब सौ साल का एक आदमी हो गया, मैं सौ साल का हो गया, मैं मरना चाहता हूं, नहीं जीना चाहता। कोई सरकार मुझे आज्ञा देने को तैयार नहीं। क्योंकि उसके नियम पुराने हैं। और चिकित्सक मुझे सहायता नहीं कर सकता मरने में, अगर मैं मर रहा हूं तो वह मुझे जिलाए रखने की कोशिश करेगा। अभी सारी दुनिया में जिनकी उम्र ज्यादा हो गई उन लोगों का कहना है कि हमें मरने का सुविधापूर्ण हक होना चाहिए। यह हमारा निर्णय होना चाहिए।
और चिकित्सक भी पूछते हैं कि क्या यह नैतिक है कि एक सौ या एक सौ बीस साल के आदमी को आक्सीजन की नली लगा कर जिंदा रखना, क्या यह नैतिक है? क्योंकि उस आदमी को जीवन में कुछ भी नहीं बचा है सिर्फ जीना है। भारी बोझ होगा इसके लिए। पर क्या हम इसकी नली से आक्सीजन जाना बंद कर दें, उसको मरने में सहयोगी हों, क्या वह नैतिक होगा?
जब भी हम बाहर कोई बदलाहट कर लेते हैं और मनुष्य की अंतरात्मा और नैतिकता और उसके अंतर-बोधो में कोई अंतर नहीं होता, तब तक हम नये सवाल खड़े करते चले जाते हैं। और नये सवाल पुराने से बदतर भी हो सकते हैं। क्योंकि ज्यादा कांप्लेक्सीटी के तल पर होते हैं। पुराना जो है वह सरल तल पर होता है सवाल। जब हम उसको बदल लेते हैं और नया सवाल खड़ा करते हैं तो वह ऑन ए न्यू लेयर कांप्लेक्सीटी हो गया, वह ज्यादा जटिल होगा। उसको हल करने में ज्यादा मसले गहन हो जाएंगे। कोई आदमी आत्महत्या न करे यह सरल तल की उलझन है। लेकिन आत्महत्या करने का हक देना बहुत जटिल उलझन है। क्योंकि फिर आप कैसे तय करिएगा कि कौन न करे? चलिए एक आदमी कहता है मैं सौ साल में...। निन्यानबे वाला कहता है कि अगर सौ साल वाला आत्महत्या कर सकता है तो निन्यानबे वाले को क्यों हक न हो? लेकिन फिर उन्नीस साल वाले का क्या कसूर है अगर वह मरना चाहता है? यह ज्यादा जटिल मामला होगा। वह बहुत सरल मामला था कि कोई आत्महत्या न करे। एक सरल नियम था। कोई करने को आमतौर से उत्सुक भी नहीं था। कभी कोई उत्सुक भी होता था तो उसे रोका जा सकता था। लेकिन वह रुकावट मौत के खिलाफ थी। अगर हम आज्ञा देते हैं कि, आत्महत्या व्यक्ति की स्वतंत्रता का हक तो है ऐसे। क्योंकि अगर व्यक्ति ठीक से पूछे तो वह कह सकता है कि मरने का हक मेरी निजी स्वतंत्रता है और मुझे जबरदस्ती जिलाने वाले आप कौन हैं? यह किसी का हक नहीं है।
अब जैसे मैं कहूं कि हम पूरे पांच हजार साल से व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं। इंडिविजुअल फ्रीडम। अब व्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अंतिम अर्थ हो सकता है वह यह है कि व्यक्ति को मरने का हक होना चाहिए।
व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले लोगों ने कभी नहीं सोचा था यह कि मरने का हक भी व्यक्ति की स्वतंत्रता है। उन्होंने सोचा था बोलने का हक व्यक्ति की स्वतंत्रता है। वह दो कौड़ी का है बोलने का हक। मरने का हक एक्झिसटेंशियल है। ज्यादा कीमती है। अगर मैं मर ही नहीं सकता तो मेरे बोलने, न बोलने का भी क्या मूल्य है। अगर मुझे इसलिए जीना पड़ता है कि आप मुझे मरने नहीं देना चाहते कि आपका कानून कहता है कि तुम नहीं मर सकते तो तुम मेरी जिंदगी की नियामक हो। मगर व्यक्ति की स्वतंत्रता वालों ने कभी नहीं सोचा था कि यह इसका अंतिम फल हो सकता है। होता हमेशा यह है...
अभी मैं देख रहा था, नीत्शे ने एक बहुत अदभुत बात लिखी है। उसने लिखा कि दुनिया में सारे धर्म मर रहे हैं। उसका कारण यह नहीं है कि दुनिया में अधार्मिक लोग बढ़ गए हैं। उसका कुल कारण यह है कि सभी धर्मों ने सत्य के ऊपर पांच हजार साल तक इतना जोर दिया कि अब लोग कहते हैं कि जो सत्य है वही हम मानेंगे। और तुम्हारा इस पर सत्य सिद्ध नहीं हो रहा। तुम्हारी ही जिद कि धर्म सत्य की खोज है। तुमने ही समझाया है लोगों को कि सत्य को पाना अंतिम लक्ष्य है जीवन का। अब लोग कहते हैं कि सत्य ही अंतिम लक्ष्य है पाने का। लेकिन तुम्हारा ईश्वर सत्य नहीं मालूम पड़ता, झूठ मालूम पड़ता है। सरासर झूठ है। और तुम सिद्ध करो कि कहां सत्य है? और वह तुम सिद्ध नहीं कर पा रहे।
तो नीत्शे कहता है कि तुमने जो जलाई थी आग, उसके ही फल भोग रहे हो। यानी इसमें किसी का हाथ नहीं है। तुमने अगर पहले से ही, तो नीत्शे एक बहुत अजीब बात कहता है, वह कहता है कि सत्य-वत्य का कोई मूल्य नहीं। नीत्शे कहता है कि जो असत्य जीवन को आनंदपूर्ण बनाए वह असत्य ही वरणीय है। नीत्शे यह कहता है। हम सत्य की चिंता क्यों करें। हम कोई सत्य के लिए पैदा हुए। जीवन परम मूल्य है। और अगर झूठ से सहारा मिलता है और सपने देखने में सुख मिलता है, तो मुझे...।
यह सभी धार्मिकों को लगेगा कि बड़ी उपद्रव की बात है। लेकिन इसका अंतिम फल यह हो सकता है कि धर्म वापस लौट सकते हैं। यह बात अगर ठीक से समझी जाए तो धर्म वापस लौट सकेंगे, नहीं तो धर्म अब बच नहीं सकते। क्योंकि सत्य की परख अगर बढ़ती चली जाए तो अंततः आदमी पूछेगा कि तुम्हारे ईश्वर को प्रयोगशाला में खड़ा करो। जब तक हम जांच-परख न कर लें, जब तक पक्का न हो जाए कि वह है, जब तक प्रूफ हम न जुटा लें, तब तक अब हम मान नहीं सकते। लेकिन जब चीजें पूर्णता पर टूटती हैं, अपनी क्लाइमेक्स पर, तभी उदघाटन होता है कि उपद्रव हो गया।
तभी धार्मिकों ने जोर दिया है सत्य पर, कोई धार्मिक असत्य पर जोर देने वाला नहीं हुआ कभी भी। लेकिन नीत्शे कहता है कि उनके जोर ने ही धर्म की जड़ें काट दीं। हां, जब तक चलता रहा मामला जब तक कि इस जोर को उसके अंतिम निष्कर्ष तक, लॉजिकल कनक्लूजन तक नहीं खींचा गया। जैसे ही आप किसी चीज को उसके अंतिम निष्कर्ष तक खींचेंगे, तभी आपको पता चलेगा कि इसके चुकता परिणाम क्या हो सकते हैं।
अब हम कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की गरीबी मिटनी चाहिए। क्यों? इसलिए मिटनी चाहिए कि भूख बड़ी बुरी चीज है। और एक समाज में कुछ लोग भरे पेट रहें और कुछ लोग भूखे रहें। अशोभन है, अनैतिक है। लेकिन भूख बड़ा मामला है, सिर्फ रोटी भूख नहीं। जिस दिन आप रोटी पूरी कर देंगे, उस दिन सेक्स भी भूख है। और अगर यह बात गलत है कि कुछ लोगों के पेट में रोटी पड़े और कुछ लोगों के न पड़े, तो कुछ लोगों का सेक्स ज्यादा ढंग से तृप्त हो और कुछ का न तृप्त हो, यह कब तक चलने देंगे? और अगर यह सही है कि सबको एक जैसे मकान रहने को मिलने चाहिए कि कोई महल में रहे कोई झोपड़ी में, तो यह बात कब तक ठीक रहेगी कि किसी को सुंदर स्त्री मिल जाए और किसी को कुरूप मिले। यह कैसे बरदाश्त किया जा सके? इसको लाजिकल कनक्लूजन तक ले जाने की जरूरत है। तब आपको पता चलेगा कि जो आप कर रहे हैं उसका क्या मतलब होता है? यह कैसे बरदाश्त किया जा सकता है कि आपके पास एक सुंदर स्त्री है और मेरे पास नहीं है। तो आप मेरा शोषण कर रहे हैं। निश्चित है, क्योंकि जो स्त्री मेरे पास होनी चाहिए वह मेरे पास नहीं, आप कब्जा किए बैठे हैं। तो कुछ बंटवारा होना चाहिए, कुछ न कुछ शेयरिंग होनी चाहिए। कुछ ऐसा होना चाहिए कि सब काम, एक दिन वह आपकी स्त्री हो एक दिन मेरी भी हो। नहीं तो क्या उपाय है। या वैसी दूसरी स्त्री मुझे मिलनी चाहिए।
मकान तो आसानी से हम बना दें, एक से भी बन सकते हैं किसी दिन। लेकिन हम एक सी स्त्रियां कहां बना पाएंगे? तो फिर शेयरिंग पर इंतजाम करना पड़ेगा। तो हम पूरे समाज को एक, एक जैसा आज बंटवारा कर रहे हैं धन का, वैसा हमें कल कामवासना के लिए बंटवारा, ठीक वैसा ही बंटवारा करना पड़ेगा। लेकिन मकान तो जिद नहीं करता है। क्योंकि मकान कहता है कैसे ही बना लो। वह स्त्री तो जिद करेगी कि माना कि तुम वंचित हो रहे हो लेकिन मैं तुम्हारे साथ प्रेम करने को राजी नहीं। इसको हमें कहना पड़ेगा, यह स्त्री अनैतिक है। क्यों यह एक व्यक्ति को अपना प्रेम देने को कहती है और दूसरे को नहीं देती। व्यक्ति समान हैं।
क्या करिएगा क्या? आप ज्यादा जटिल तलों पर उलझेंगे फिर। अभी तल बहुत साधारण हैं। और जटिल तल जो हैं वे चीजों को बुरी तरह तोड़ जाएंगे। स्त्रियों को बदलने के मूवमेंट हैं, ग्रुप हैं, क्लब हैं, जहां पति-पत्नियां इकट्ठे हो रहे हैं और पत्नियों को बदल कर ताकि किसी को कोई दंश न रह जाए मन में। मगर यह चेतना को नीचे गिराएगा कि ऊपर ले जाएगा? इससे आदमी की आत्मा आकाश में उड़ेगी कि और जमीन में दब जाएगी? क्या होगा उसका? उसका आखिरी फल क्या हो सकता है? मगर यह हम सब सोचते नहीं।
समाज-सुधारक जिद में होता है। एक मसले को पकड़ता है उसकी पूरी चेन को नहीं। वह कहता है इस आदमी के पास कपड़ा नहीं, इसके पास कपड़ा होना चाहिए। बस इतना पकड़ लेता है। लेकिन इस तर्क का पूरा फल क्या है? इस तर्क की पूरी अंतिम नियति क्या होगी? इस आदमी के पास आप जैसी आंख नहीं है वह भी होनी चाहिए। क्यों नहीं होनी चाहिए? यह आदमी आज नहीं कल कहेगा कि किसी आदमी के पास प्रतिभा हो और मेरी बुद्धि जड़ हो, यह नहीं चलेगा। बुद्धि का समान बंटवारा होना चाहिए। और आज नहीं कल हो सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। अब इंप्लिमेंटस तो हैं कि हम बच्चों को जिनके पास थोड़ी ज्यादा प्रतिभा है उनको थोड़ा काट-छांट दें, उनके मस्तिष्क में थोड़े हार्मोंस कम कर दें, थोड़ी नसें काट दें, थोड़ी नर्वस सिस्टम उनकी नीचे उतार दें, तो वे समान लेवल पर आ जाएं।
अगर यह बात सच है कि एक आदमी के पास ज्यादा धन नहीं होना चाहिए तो यह बात क्यों सच नहीं कि एक आदमी के पास ज्यादा प्रतिभा नहीं होनी चाहिए। क्योंकि वह प्रतिभा का शोषण करेगा। तो रॉकफेलर और मार्गन या बिड़ला ही शोषक हैं ऐसा क्यों? कालिदास और शेक्सपियर और आइंस्टीन और बुद्ध शोषक नहीं हैं? ये भी शोषक हैं। शोषक का अगर यही मतलब है कि किसी के पास कोई चीज ज्यादा हो जाती है और किसी के पास कम पड़ जाती है, तो इसका आज नहीं कल हमें निपटारा करना पड़ेगा।
एक आदमी बुद्ध होकर बैठ जाए और दूसरा आदमी बुद्धू बना रहे यह कैसे चलेगा? यह नहीं बरदाश्त किया जा सकता। बुद्धू कहेगा कि या तो मुझे बुद्ध बनाओ, जो कि कठिन है। तो दूसरा उपाय यह है कि बुद्ध को बुद्धू बना लो, जो कि आसान है, सुगम है।
गरीब कहता है कि बिड़ला को या राकफेलर। मुझे भी बिरला और रॉकफेलर बना दो, जो कि कठिन है। सरल यह है कि राकफेलर और बिड़ला को बांट कर एक गरीब बना दो, जो कि आसान है, जो कि किया जा रहा है। सारा सोशलिज्म, सारा समाजवाद वही कर रहा है। पर इसकी अंतिम नियति क्या है? इन सारे तर्कों को अगर सामायिक संदर्भ में देखें तो बड़े ठीक मालूम पड़ते हैं। लेकिन लंबा फैला कर देखें तो पता चलता है कि ये तो उपद्रव में रोज उतारते चले जाते हैं। ये रोज उतारते चले जाते हैं।
अभी मनोवैज्ञानिकों ने फ्रायड के बाद मां-बाप को समझाया कि बच्चों को डांट-डपट नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उससे उनकी आत्मा को चोट पहुंच रही है। उनकी स्वतंत्रता को चोट पहुंच रही है। उनको स्वतंत्रता देनी है, सुविधा देनी है। और किसी तरह का उन पर प्रतिबंध न हो, इसे सिद्ध कर दिया। पचास साल में उन्होंने समझा दिया, मां-बाप समझ गए। पहले बच्चा डर कर घुसता था घर में, अब मां-बाप डर कर घर में घुसते हैं कि कहीं बच्चे के ऊपर कोई प्रतिबंध तो नहीं हो रहा। और बच्चे मां-बाप पर प्रतिबंध कर रहे हैं। यह कभी मनोवैज्ञानिकों को ख्याल में भी नहीं था कि जिस दिन मां-बाप प्रतिबंध नहीं करेंगे, उस दिन बच्चे प्रतिबंध करेंगे। उनको ख्याल यह था कि मां-बाप प्रतिबंध नहीं करेंगे, बच्चे स्वतंत्र होंगे। बस इतना ही ख्याल था। इसका अंतिम कनक्लूजन क्या है? इसका आखिरी कनक्लूजन यह है कि कंट्रोल तो कोई न कोई करने ही वाला है। बच्चे करेंगे।
अब यह बड़ी मुश्किल बात है। यह बेहतर था कि मां-बाप करते, बजाए इसके कि बच्चे करें। क्योंकि कम से कम वे अनुभवी थे। कम से कम वे बच्चे भी रह चुके थे। लेकिन बच्चों को तो इसका कोई भी पता नहीं है कि बूढ़े होने का क्या मतलब होता है। और जब एक दफा बच्चों को कह दिया कि हम उन पर प्रतिबंध नहीं करेंगे, तो किस सीमा पर रुकिएगा? आज बच्चे कहते हैं कि हम स्कूल नहीं पढ़ना चाहते हैं। तो प्रतिबंध करना है कि नहीं करना है? उनकी स्वतंत्रता पर आघात तो कर ही रहे हैं आप। कौन बच्चा पढ़ना चाहता है? कौन बच्चा पढ़ना चाहता है? अगर सुविधा होगी तो कोई बच्चा पढ़ने को राजी नहीं।
आज अमरीका की हालत यह है कि अमरीका को सारी की सारी बुद्धिमत्ता दूसरे मुल्कों से उधार लेनी पड़ रही है। दूसरे मुल्क चिंतित हैं यूरोप के, कहते हैं, ब्रेन ड्रेनेज हो रहा है। क्योंकि अमरीका ज्यादा तनख्वाह देता है। और यूरोप और सारी दुनिया का जो बुद्धिमान आदमी है वह अमरीका चला जाता है नौकरी करने। और अमरीका की मजबूरी है कि उसको सारी दुनिया से बुद्धिमान खोजना पड़ रहा है। उसके बच्चे तो युनिवर्सिटी से इनकार कर रहे हैं। उसके बच्चे तो पढ़ना ही नहीं चाहते। वे तो हिप्पी हैं, बीटनिक हैं वे तो अपने नाच-कूद कर रहे हैं, मारिजुआना ले रहे हैं। वे पढ़ना-वढ़ना चाहते नहीं। अमरीका आज सारी दुनिया से बुद्धिमान आदमी को खींच रहा है। कहीं भी बुद्धिमान आदमी हो आज नहीं कल अमरीका चला जाएगा। उसकी भी मजबूरी है। क्योंकि आज उसके पास सबसे ज्यादा सुविधा है, सबसे ज्यादा संपन्नता है। लेकिन उसके बच्चे आगे बढ़ाने से इनकार कर रहे हैं। उसके बच्चे यह पूछ रहे हैं कि सुविधा, संपन्नता का करेंगे क्या? अब यह बड़े मजे की बात है सदा बच्चों ने पूछा था कि गरीबी कैसे मिटे? आज अमरीका के बच्चे पूछ रहे हैं कि अमीरी कैसे मिटे? यह कभी सोचा भी नहीं था कि बच्चे यह पूछेंगे कि अमीरी कैसे मिटे!
यह प्रॉब्लम भी किसी दिन उठेगा। क्योंकि बच्चे यह कह रहे हैं कि तुम्हारी अमीरी से तुम्हें कुछ मिला तो नहीं। माना तुम्हारे पास मकान अच्छा है, कार तुम्हारे पास अच्छी है। तुम एअरकंडीशंड कमरे में हो। तुम्हारे पास बाथरूम अच्छा है, तुम्हारे पास साबुन अच्छी है। सब तुम्हारे पास अच्छा है। भोजन अच्छा, कपड़े अच्छे। बाकी तुम्हें मिला क्या जिंदगी में? तुम्हें जिंदगी में कुछ मिला नहीं। तो हम बिना बाथरूम के रह लेंगे, बिना नहाए रह लेंगे, गंदे कपड़े में रह लेंगे। साबुन हमारे पास नहीं होगी, परफ्यूम हमारे पास नहीं होगा। पसीने की बदबू आएगी। लेकिन हम जिंदगी को जीना चाहते हैं। हम तुम्हारे इस ढांचे में फंस कर मरना नहीं चाहते। यह कभी सोचा भी नहीं था कि बच्चों को पसीने की बदबू जो है, वह प्रीतिकर लगेगी। लग ही नहीं सकती थी, क्योंकि सुगंध बहुत मुश्किल मामला था पुरानी दुनिया में। कभी कोई सुगंधित हो सकता था। बाकी तो सबको पसीने की बदबू थी।
आज अमरीका के बच्चे को पसीने की बदबू बेहतर लग रही है बजाय परफ्यूम के। वे कहते हैं, परफ्यूम धोखा है। असली शरीर की गंध चाहिए। धोखा इतना लंबा हो गया कि असली शरीर की गंध को बेहतर मानता है। नहाने से इनकार है, कपड़े बदलने से इनकार है। गंदगी सुखद है, क्योंकि वह जीवन है। और संपत्ति नहीं चाहिए।
अभी बर्कले युनिवर्सिटी के लड़कों ने एक नई रॉल्स रॉयस गाड़ी खरीद कर, नई गाड़ी खरीद कर चंदा करके और कैम्पस के बीच में रख कर आग लगाई। क्योंकि यह सिंबल है धन का, धन नहीं चाहिए। किसी दूसरे की गाड़ी नहीं है, खुद चंदा करके यह गाड़ी लाकर कैम्पस के बीच में रख कर आग लगा कर होली मनाई। अब ये कारें नहीं चाहिए। आदमी वापस पैर पर लौटना चाहिए। क्योंकि पैर से चलने का सुख ही और था। पैर से चलने वालों को बिल्कुल पता नहीं। भारी दुखी! और जब पास से कार गुजर जाती है तो आत्मा पर ऐसा संकट आता है जैसा कभी नहीं आता।
लेकिन जहां कार हो गई, अत्यधिक हो गई, वहां पैर से चलने का वापस सुख लौटना चाहिए। और मजा यह है कि पैर से कार तक जाना बहुत आसान मामला था, कार से पैर तक आना बहुत कठिन मामला है। बहुत कठिन मामला है। जद्दोजहद का मामला है। ज्यादा जटिल है। इधर मैं जैसा देखता हूं वह यह कि परिस्थिति, संस्था, समूह, समाज, राज्य, बदल कर हमने देख लिए हमने पांच हजार सालों में।
मेरी उत्सुकता नहीं है। मेरी उत्सुकता निपट व्यक्ति में है। सीधे व्यक्ति में है। कुछ उसके लिए कर सकूं तो ठीक। शायद उसके लिए होते होते समूह में फैल जाए तो अलग बात है। अगर किन्हीं मित्रों को उत्सुकता है कि मेरी बात ज्यादा लोगों तक फैले, तो उन्हें मेरी दृष्टि समझ कर ही काम में लगना पड़ेगा।
अगर वे चाहते भी होंगे ज्यादा लोगों तक फैले; पर व्यक्तिशाही; ध्यान व्यक्ति पर ही हो। और इधर मुझे यह भी ख्याल में आना शुरू हुआ कि जो लोग भी ज्यादा समूह में उत्सुक होते हैं। कई बार तो ऐसा होता है कि वे सिर्फ अपने से पलायन कर रहे होते हैं। समूह की चिंता लेकर बहुत आसानी से आदमी अपने से बच जाता है।
लैंजा दिलवास्तो का मैं जीवन पढ़ रहा हूं। वे पश्चिम में गांधी जी के खास...हैं, अनुयायी हैं, यूरोप के गांधी हैं। वे जब उन्नीस सौ तीस में भारत आए..बहुत भले आदमी हैं, एकदम भले आदमी..तो पहले वे रमण महर्षि के आश्रम गए। और रमण महर्षि उनको बिल्कुल भी नहीं जंचे। जो आदमी जंचने जैसा था, वह बिल्कुल भी नहीं जंचा। बल्कि लैंजा दिलवास्तो ने जो बातें अपनी डायरी में लिखी हैं वे अशुभ हैं रमण के बाबत। लिखा उसने यह है कि यह कैसा अध्यात्म कि एक आदमी सुबह से सांझ तक चुपचाप बैठा हुआ है। इस ध्यान का क्या फायदा? इस अंतर्मुख का एक व्यक्तिवाद में क्या रस? समाज को बदलना है, दुनिया को बदलना है। यह जगह मेरे लिए नहीं। उसने डायरी में लिखा हैः यह जगह मेरे लिए नहीं। मेरे लिए जगह तो वर्धा है! मुझे तो वर्धा जाना है!
और एक दिन रुका वह कि देख लें यह आदमी। तो एक दिन जो उसने डायरी में नोट किया है वह एकदम अभद्र है। मगर गांधीवादी के मन में वैसी अभद्रता होगी, अनिवार्य, रमण को देख कर। क्योंकि रमण को वहां लोग भगवान मानते हैं। तो वह लगता है कि अजीब बात है, भगवान भी सो रहे हैं, दि गॉड इ.ज ए स्लिपिंग। भगवान खाना खा रहे हैं। और तब तो हद हो गई, जब रमण ने एक पान का पत्ता लेकर चबाया। तो उसने लिखाः अब भगवान पान चबा रहे हैं, उसने डायरी में लिखा। और फिर तो और भी हद हो गई जब उन्होंने डकार ली खाने के बाद। उन्होंने कहाः दि गॉड इ.ज बेल्चिंग। यह जगह मेरे लिए नहीं। जगह मेरी वर्धा है!
अब यह आदमी अपने को बदलने में जरा भी उत्सुक ही नहीं है। दुनिया को बदलने में उत्सुक है। रमण से इसका कोई तालमेल नहीं बैठता। गांधी से तालमेल बैठ गया। मगर यह आदमी अपने को बदलने में उत्सुक क्यों नहीं है? अगर कोई भी बदलाहट की बुनियादी उत्सुकता है तो वह होनी चाहिए कि मैं अपने को कैसे बदल लूं? और मैंने कोई ठेका लिया सारी दुनिया का? और क्या मैं सारी दुनिया को बदल पाऊंगा? अपने को बदलना ही इतना मुश्किल है!
और मैंने अगर कोशिश करके दुनिया को बदलने का कुछ रास्ता भी शुरू कर दिया..समझ लें, जो कि असंभव है। तो भी मैं तो बर्बाद हो जाऊंगा ही। और अगर हर आदमी दुनिया को बदलने में लगा हो, तो हर आदमी अपने को बर्बाद कर रहा है दुनिया को बदलने में। तो दुनिया तो कभी बदलने वाली नहीं, जो बदल सकता था वह बदलने से बच जाएगा।
मेरी तो दृष्टि यह है कि उत्सुक हम हों अपनी बदलाहट में। और हमारी बदलाहट अगर संक्रामक हो जाए, वह औरों को भी पकड़ ले, तो प्रभु कृपा। और न पकड़े तो इसमें बेचैनी का कोई कारण नहीं है। और पकड़े तो भी वह व्यक्ति को ही पकड़े।
संस्थावादिता जो है, समूहवादिता जो है वही मैटीरियलिज्म है, वही पदार्थवाद है। और व्यक्ति उन्मुखता जो है, और व्यक्ति को सर्वोपरि चैतन्य और जीवंत मानने की जो दृष्टि है वही अध्यात्म है। पर किसी को भी लगता हो कि मेरी बात ज्यादा लोगों के काम आ सकती है, तो वे कोशिश में लगें, बाकी मेरी उत्सुकता नहीं। इसकी भी मेरी उत्सुकता आप में है। आपसे कुछ फैल जाएगा किसी में वह दूसरी बात है। नहीं फैलेगा तो कोई हर्जा नहीं होगा। आप तक ही पहुंचा तो काफी है। और ऐसा ही मैं चाहता हूं कि आपकी उत्सुकता भी व्यक्ति में हो। किसी व्यक्ति में लग जाए आग थोड़ी-बहुत। लग जाए चिराग। न लगे तो चिंता का कोई कारण नहीं है। क्योंकि दूसरे को तो हम बदल कर ही रहेंगे यह भी हिंसा है। और समाज को ऐसा बना कर ही रहेंगे जैसा हम चाहते हैं कि समाज होना चाहिए। यह बहुत गहरी अधिनायकशाही है। तो मैं कौन हूं? और अगर किसी आदमी को अज्ञानी रहने में ही आनंद आ रहा है तो मैं काहे के लिए उसको ज्ञानी बना कर कष्ट में डालूं। और फिर मैं कौन हूं तय करने वाला। यह उसके और परमात्मा के बीच का निर्णय है। मैं कौन हूं?
मैं इतना ही कह सकता हूं कि मुझे अज्ञानी से ज्ञानी होने में ज्यादा आनंद आया, शायद तुम्हें भी आए। यह संक्रामक हो जाए तो ठीक है। अन्यथा दूसरे को बदलना, वह जो मिशनरी माइंड है, वह थोड़ा हिंसात्मक है ही। कोई बदल जाए यह बिल्कुल दूसरी बात है। पर हम सीधे उसमें आग्रहपूर्ण भी रहें तो ठीक नहीं है। हां, हम अपने को बदलें और उस बदलाहट, उस रोशनी में अगर किसी को कुछ दिखाई पड़ने लगे और वह फिर आए तो ठीक है। इसे इस भांति थोड़ा सोचें।
और एक कैंप में बने तो आ जाएं। तो थोड़ा कैंप एक देखें कि मैं व्यक्ति की बदलाहट के लिए क्या कर रहा हूं। वह कैसे यह सक्रिय हो पाती है घटना। अभी एक कैंप है माथेरान में, जनवरी में, आठ से सोलह के बीच। इसमें बने तो इसमें आ जाएं। और नहीं तो फिर एक मार्च में है माउंटआबू, पच्चीस मार्च से। ये कैंप बने तो आ जाएं। इसमें कोई सात सौ आठ सौ लोग एक कैंप में आते हैं। बाहर से भी कोई बीस-पच्चीस लोग आने को हैं। और यह जो व्यक्ति का...।

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