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शनिवार, 8 सितंबर 2018

भारत का भविष्य-(प्रवचन-06)  

भारत का भविष्य--(राष्ट्रीय-सामाजिक)

छठवां-प्रवचन-(ओशो)

पुराने और नये का समन्वय

एक सवाल पूछा गया है, और वह सवाल वही है जो आपके प्राचार्य महोदय ने भी कहा। सरल दिखाई पड़ती है सैद्धांतिक रूप से जो बात, उसको आचरण में लाने पर तत्काल कठिनाइयां शुरू हो जाती हैं।
कठिनाइयां हैं, लेकिन असंभावनाएं नहीं हैं। डिफिकल्टीज हैं, इंपासिबिलिटीज नहीं हैं। कठिनाइयां तो होंगी हीं, क्योंकि सवाल बहुत बड़ा है। और अगर हम सोचते हों कि कोई ऐसा हल मिल जाएगा जिसमें कोई कठिनाई नहीं होगी, तो ऐसा हल कभी भी नहीं मिलेगा। कठिनाइयां हैं लेकिन कठिनाइयों से कोई सवाल हल होने से नहीं रुकता, जब तक कि असंभावनाएं न खड़ी हो जाएं।
तो एक तो मैं यह कहना चाहता हूं कि कठिनाइयां निश्चित हैं। थोड़ी नहीं, बहुत हैं। लेकिन हल की जा सकती हैं। क्योंकि कठिनाइयां ही हैं और कठिनाइयां हल करने के लिए ही होती हैं। लेकिन अगर हम कठिनाइयों को गिनती करके बैठ जाएं, घबड़ा जाएं, तो फिर एक कदम आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है।

मैंने सुना है कि एक आदमी एक पहाड़ की यात्रा पर निकला था। उसके पास एक छोटी सी लालटेन थी और रात थी अंधेरी। और लालटेन की रोशनी दो-तीन कदम से ज्यादा नहीं पड़ती थी। तो वह घबड़ा कर बैठ गया। पास से कोई दूसरा आदमी गुजरता था उसने कहा, तुम बैठ क्यों गए हो? उसने कहा कि मुझे चलना है कोई एक हजार मील और लालटेन की रोशनी है बहुत थोड़ी, दो कदम तक पड़ती है। तो मैंने हिसाब लगाया, मैं गणित का जानकार हूं। तो मैंने हिसाब लगाया कि दस हजार मील दूर तक फैला हुआ अंधेरा है और जरा सी लालटेन है, दो कदम तक रोशनी पड़ती है इससे पार नहीं हुआ जा सकता। इसलिए मैं बैठ गया हूं।
तो उस दूसरे आदमी ने कहा कि माना मैंने कि तुम्हारा गणित ठीक है, लेकिन क्या तुम्हारे बैठ जाने से पार हो जाओगे?
उसने कहाः बैठ जाने से तो बिल्कुल ही पार नहीं होऊंगा। तो उस दूसरे आदमी ने कहा, कम से कम दो कदम चलो, जितनी रोशनी है और भरोसा रखो कि जिस दीये से दो कदम तक रोशनी पड़ी; आगे दो कदम चलने पर फिर दो कदम तक रोशनी पड़ेगी। और तुम जितना चलोगे हमेशा दो कदम आगे तक रोशनी दिखाई पड़ती रहेगी। और दस हजार मील इकट्ठा तो कोई भी नहीं चलता है। आदमी चलता है एक बार एक ही कदम।
तो अगर हम कठिनाइयों को इकट्ठा कर लें और कैलकुलेट कर लें, तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे, कठिनाइयां बहुत हैं। लेकिन एक-एक को हल करना शुरू करें तो वे हल हो सकती हैं।

यह सवाल भी पूछा है कि नई और पुरानी पीढ़ियों के फासले को कैसे दूर किया जाए? शिक्षण संस्थाएं क्या कर सकती हैं, यह भी पूछा है, इस संबंध में।

तीन-चार प्रयोग जरूर किए जाने जैसे मुझे लगते हैं। संक्षिप्त में ही कह सकूंगा। क्योंकि वह बात फिर पूरी बड़ी हो जाएगी। एक तो दुनिया में जवान सदा थे, बूढ़े सदा थे, लेकिन नई पीढ़ी जैसी कोई चीज कभी न थी। उसका कारण था। न तो बड़ी युनिवर्सिटीज थीं, न बड़े कालेजे.ज थे जहां नये बच्चों को हम इकट्ठा कर दें।
एक घर में बच्चा अपने घर में था, दूसरा बच्चा अपने घर में था। आज, आज लाखों बच्चे एक जगह इकट्ठे हो गए हैं। इसलिए सारी दुनिया में उपद्रव की जो जगह है वह युनिवर्सिटी के कैम्पस बन गए हैं। चाहे फ्रांस हो, और चाहे जापान हो, और चाहे कलकत्ता हो, और चाहे बनारस हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
सारी दुनिया में आज जहां नई और पुरानी पीढ़ी का फासला बहुत कस कर दिखाई पड़ता है वह युनिवर्सिटी कैम्पस है। नई पीढ़ी बड़े पैमाने पर इकट्ठी है एक जगह और पुरानी पीढ़ी बिखरी हुई है वह इकट्ठी कहीं भी नहीं है। पुराने दिनों में पुरानी पीढ़ी की संस्थाएं थीं। मंदिर उनका था, पंचायत उनकी थी, गिरजा उनका था। नई पीढ़ी बिखरी हुई थी, पुरानी पीढ़ी इकट्ठी थी। आज बाप अकेला पड़ गया है और बेटे बहुत बड़ी संख्या में एक जगह इकट्ठे हो गए हैं। इसलिए बाप की पीढ़ी के लिए कोई भी उपाय नहीं रह गया है।
तो एक तो मेरा मानना है कि हर शिक्षण-संस्था को, जिस तरह वह नई पीढ़ी को इकट्ठा करती है, इस तरह वर्ष में पंद्रह दिन महीने भर के लिए पुरानी पीढ़ी को भी नई पीढ़ी के साथ इकट्ठा करने के प्रयोग शुरू करने चाहिए। वह सेमीनार बड़े कीमत के सिद्ध हो सकते हैं। पुरानी और नई पीढ़ी को कहीं निकट लाने की कोशिश करने के हजार उपाय किए जा सकते हैं। लेकिन कहीं उन्हें निकट लाने के हमें उपाय करने चाहिए। मैं मानता हूं शिक्षण-संस्थाएं ठीक जगह हैं जहां यह संभव हो सकता है। और नई और पुरानी पीढ़ी अपनी सारी तकलीफों को एक-दूसरे से कहें।
अभी क्या है, पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को गाली देती रहती है घरों में बैठ कर। नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को नासमझ समझ कर उपेक्षा करती रहती है। लेकिन दोनों की क्या ऑथेंटिक तकलीफें हैं। बाप की क्या मुसीबत और कठिनाई है, बेटे की क्या मुसीबत और कठिनाई है, इसको आमने-सामने एनकाउंटर नहीं हो पाता। तो एक तो फासले को कम करने के लिए निकट बातचीत आमने-सामने बिठाया जाना जरूरी है। राउंड टेबल कांफ्रेंसस, पुरानी और नई पीढ़ी के बीच युनिवर्सिटीज, कालेजे.ज, स्कूलों में आयोजित करनी चाहिए। जहां श्रेष्ठतम नई पीढ़ी का व्यक्तित्व भी सामने आए और पुरानी पीढ़ी का भी श्रेष्ठतम आदमी सामने आए। जहां हम अपनी तकलीफें ईमानदारी से कह सकें।
और ऐसा नहीं है जैसा आपके पिं्रसिपल महोदय ने कहा। यह थोड़ी दूर तक सच है कि बूढ़े आदमी को राजी करना मुश्किल है, लेकिन सब बूढ़े ऐसे नहीं हैं। वे खुद भी वृद्ध हैं। और मैं समझता हूं उनको राजी किया जा सकता है। सभी बूढ़े बूढ़े नहीं हैं। वृद्ध पीढ़ी के पास भी एक हिस्सा है जो उसमें सबसे ज्यादा बुद्धिमान हिस्सा है वह सदा ही नई चीज के लिए राजी किया जा सकता है। नई पीढ़ी के पास भी सभी बच्चे नहीं; नई पीढ़ी के पास भी एक हिस्सा है जो उसका सबसे बुद्धिमान हिस्सा है जिसे पुरानी पीढ़ी के निकट लाया जा सकता है।
और यह जगत और यह समाज, कोई लाखों लोगों से नहीं चलता, बहुत थोड़े से इंटेलिजेंशिया से चलता है। अगर पुरानी पीढ़ी की क्रीम और नई पीढ़ी की क्रीम निकट आ जाए तो हम फासले को कम कर सकते हैं। कोई हर आदमी को निकट लाने की जरूरत नहीं है। लेकिन क्रीम भी निकट नहीं आ पाती है। बल्कि क्रीम बिल्कुल निकट नहीं आ पाती, जो नई पीढ़ी में बुद्धिमान और तेजस्वी लड़का है वह बगावती हो जाता है। वह तोड़-फोड़ में लग जाता है। जो पुरानी पीढ़ी के पास बुद्धिमान आदमी है वह अक्सर रिनन्सिएशन में पड़ जाता है। वह सोचता है कि सब बकवास है छोड़ो। वह अपनी, अपनी जिंदगी के जो थोड़े दिन बचे हैं उनको शांति और आनंद से और अपनी ही खोज में बिताना चाहता है।
पुरानी पीढ़ी के बुद्धिमान को और नई पीढ़ी के बुद्धिमान को निकट लाया जा सकता है। बुद्धुओं को तो कहीं भी निकट नहीं लाया जा सकता, चाहे वे पुरानी पीढ़ी के हों और चाहे नई पीढ़ी के हों। उनको निकट लाने की जरूरत भी नहीं है, उनको निकट लाने का कोई प्रयोजन भी नहीं। यह जगत बहुत थोड़े से लोगों से संचालित होता है। यह मुश्किल से एक प्रतिशत आदमी है। वही यहां व्यवस्था करवाता है, वही उपद्रव भी करवाता है। मुश्किल से एक प्रतिशत आदमी है जो जिंदगी को सुख भी देता है और दुख से भी भर देता है। यह सारे लोगों का प्रश्न नहीं है। सारी भीड़, वह जो मॉसेज है, वह तो आमतौर से भेड़चाल होती है, वह तो भेड़ की तरह पीछे चलती रहती है। सिर्फ आगे की भेड़ को निकट लाने की जरूरत है।
और यह बहुत बड़ा मसला नहीं है। युनिवर्सिटी कैम्पस, शिक्षण संस्थाएं इन्हें निकट ला सकते हैं। इन्हें करीब रहने का मौका भी मिलना चाहिए। बूढ़े और बच्चे साथ रह सकें, साथ खेल सकें, पंद्रह दिन के लिए गपशप कर सकें, दोस्ती कर सकें।
एक अमरीकी बूढ़ी औरत ने सत्तर साल की बूढ़ी औरत, उसने एक छोटा सा प्रयोग किया है, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं। उसने एक चार साल के बच्चे से दोस्ती की। और उस चार साल के बच्चे के साथ दोस्त की तरह व्यवहार करने का तीन साल तक प्रयोग किया है। उसने अपने तीन साल के संस्मरण लिखे हैं वे बड़े अदभुत हैं। वह बच्चों को भी पढ़ाए जाने चाहिए और बूढ़ों को भी पढ़ाए जाने चाहिए। एक सत्तर साल की बूढ़ी औरत जब चार या पांच साल के बच्चे से दोस्ती करती है तो उसे पांच साल के बच्चे को समझना शुरू करना पड़ता है।
पांच साल का बच्चा दो बजे रात उसको उठा लेता है और कहता है, चांद बाहर बहुत अच्छा है, बाहर चलें। दोस्त है, यह बूढ़ी उसकी मां नहीं है कि इनकार कर दे। दोस्त की बात माननी पड़ती है। वह बच्चा उसे दो बजे रात बाहर रोशनी में ले गया है। वह बच्चा उसे तितलियां पकड़ने के लिए दौड़वाता है। वह दोस्त है, उसकी मां नहीं है। वह बच्चा उसे नदी में तैरने के लिए ले जाता है, वह बच्चा उसे पक्षियों के गीत भी सुनने के लिए आतुर करता है। वह उस बच्चे के साथ नाचती भी है, कंकड़-पत्थर भी बीनती है, जाकर शंख-सीपी भी बीनती है।
और तीन साल के अनुभव में उसने लिखा कि तीन साल उस बच्चे की दोस्ती ने उस बच्चे को क्या दिया वह मुझे पता नहीं, वह तो जब बच्चा लिखेगा अपने संस्मरण कभी तब पता चले, लेकिन मुझे जिंदगी दुबारा मिल गई, मैं फिर से जवान हो गई हूं, मैं फिर से बच्चा हो गई हूं। मैं अब फिर तितली में रंग देख पाती हूं। और अब मैं फिर नदी के किनारे पड़े कंकड़-पत्थरों में हीरे-मोती देख पाती हूं। और अब मैं फिर रात झींगुर की आवाज सुनने के लिए वृक्ष के पास रुक कर बैठ पाती हूं। उस बूढ़ी औरत ने लिखा है कि उस बच्चे ने जितना मुझे दिया उतना सत्तर साल की जिंदगी ने मुझे नहीं दिया था। उसके साथ दोस्ती बड़ी कीमती सिद्ध हुई।
ऐसा नहीं है कि बच्चे को सिद्ध न होगी। क्योंकि जब बूढ़ी को बच्चे से मिलेगा तो बच्चे को बूढ़ी से भी मिलने वाला है।
हम पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के कम से कम बुद्धिमान वर्ग को निकट लाने का उपाय करें। उनकी समझ एक-दूसरे के बाबत बढ़े। तो अंडरस्टैंडिंग जितनी बढ़े, अगर हम वृद्ध पीढ़ी की कठिनाई समझ सकें, उनकी कठिनाइयां हैं, उनकी कठिनाइयों का अंत नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ जिद की वजह से अपनी पुरानी बातें बदलने को राजी नहीं हैं। अगर कोई ऐसा कहता है तो जरा जल्दी में कहता है। उनकी अपनी कठिनाइयां हैं। और पुरानी बातों पर रुकने के उनके अपने कारण हैं। उनके हजार अनुभव उन्हें कहते हैं कि जो बार-बार परीक्षित किया गया है उसी से चलना उचित है। उनका अगर हम पूरा भाव समझें, उनके अनुभव समझें, उनकी स्थिति, उनका आउट लुक समझें, तो नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के प्रति रिबेलियस नहीं रह जाएगी, सिम्पैथिटिक हो जाएगी।
इतना ही हो सकता है, अनुगामी अब नहीं हो सकता। अब नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी की अनुगामी कभी नहीं हो सकेगी। वह इंपासिबल आकांक्षा है। सिम्पैथिटिक, सहानुभूति पूर्ण हो जाए इतना जरूरत से काफी है, जरूरत से ज्यादा है। और पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी की तरह चुस्त कपड़े पहन कर सड़क पर चलने लगेगी ऐसा भी मैं नहीं मानता हूं, जरूरत भी नहीं है, उचित भी नहीं है। लेकिन पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के भविष्य के प्रति रिजिड न रह जाए, सख्त न रह जाए, ढांचे को बुरी तरह थोपने के लिए आतुर न रह जाए, इतनी संवेदना भर आ जाए तो काफी है।
और मैं नहीं मानता कि यह बहुत कठिन है। कोई बाप अपने बेटे को बिगाड़ने को उत्सुक नहीं है। और अगर बिगाड़ता भी है तो बनाने की आकांक्षा में ही बिगाड़ता है। और अगर कभी उसे पता चल जाए कि वह जो ढांचे थोप रहा है वे गलत हो गए हैं, अब वे सार्थक नहीं हैं, तो वह ढांचे थोपने के लिए तैयार नहीं होगा। और कोई बेटा अपने बाप को दुख पहुंचाने के लिए आतुर नहीं होता, लेकिन जो वह करता है उससे जाने-अनजाने दुख पहुंच जाता है। काश उसे पता चल जाए और ये सारी चीजें साफ हो जाएं, तो हमारी सहानुभूति बढ़े, तो हम निकट आ सकते हैं।

पूछा हैः फासला कैसे कम हो? सहानुभूति कैसे बढ़े?

उससे फासला कम होगा। और सहानुभूति बिल्कुल सूखती जा रही है। क्योंकि हम एक-दूसरे को जब तक न जानें, तब तक सहानुभूति हो भी नहीं सकती। तो कभी हमें इन दोनों पीढ़ियों को निकट लाएं और कभी इन दोनों पीढ़ियों को एक-दूसरे की जगह बिठालने की भी कोशिश करें। जैसे बूढ़ी पीढ़ी को यहां बुलाएं और उनसे कहें कि आप बूढ़ी पीढ़ी के खिलाफ बोलें। और नई पीढ़ी को बुलाएं और उससे कहें कि यहां तुम नई पीढ़ी के खिलाफ क्या-क्या बोल सकते हो वह बोलो। एक-दूसरे के जूतों में खड़े करने की भी जरूरत है। तभी हमें पता चलता है कि दूसरे के जूते में कांटा चुभ रहा है।
हमें पता ही नहीं चलता कि दूसरे के जूते में क्या तकलीफ है? उसके जूते में पैर डालना पड़ता है। बच्चों को बूढ़े की जगह थोड़ा खड़ा करना पड़ेगा, बूढ़ों को बच्चों की जगह थोड़ा खड़ा करना पड़ेगा। और शिक्षण संस्थाएं यह प्रयोग कर सकती हैं। और अभी देर नहीं हो गई, अभी सिर्फ शुरुआत है पागलपन की, अगर यह बढ़ता चला गया तो बहुत देर हो जाएगी। और फिर सुधारना रोज कठिन होता चला जाएगा।
मैं जानता हूं कठिनाइयां बहुत हैं, लेकिन कठिनाइयां प्रोग्रेसिव हैं, यह भी ध्यान में रहे, वे रोज बढ़ रही हैं। इसलिए जितने जल्दी उन पर आक्रमण हो जाए उतना ही आसान पड़ेगा, जितनी बीमारियां बढ़ जाएंगी उतनी ही कठिनाई होती चली जाएगी। बहुत संभव है कि धीरे-धीरे बूढ़े और बेटे एक-दूसरे की भाषा ही समझना बंद कर दें। अभी भी काफी दूर तक भाषा समझाना मुश्किल हो गया है। वह कठिन होता जा रहा है। इस कठिनाई को मिटाने के लिए हम उपयोगी हो सकते हैं। लेकिन हम नहीं हो पाते। हम नहीं हो पाते वह हम इसलिए नहीं हो पाते कि हम में से ऐसे लोग बहुत कम हैं जिनको हम लिंक कह सकें, जिनको हम कह सकें कि जो न तो बूढ़े हैं और न बच्चे हैं।
लेकिन शिक्षक ऐसा काम कर सकता है। वह लिंक जनरेशन उसे मैं मानता हूं। शिक्षक का काम ही यही है कि वह बूढ़े के ज्ञान को बच्चों तक पहुंचा दे और बच्चों की संभावनाओं को बूढ़ों तक पहुंचा दे। शिक्षक का उपयोग ही यही है। अब तक यह नहीं था। अब तक एक काम था शिक्षक के हाथ में कि बूढ़े का जो ज्ञान है वह बच्चों को पहुंचा दे, कनवे कर दे। कहीं ऐसा न हो कि बूढ़ों का ज्ञान बूढ़ों के साथ मर जाए। इसलिए शिक्षक विकसित किया गया था कि वे बूढ़े के अनुभव को वह बच्चों तक पहुंचाने का काम कर दे। पुरानी पीढ़ी ने जो जाना है, खोजा है वह मर न जाए, बच्चों तक पहुंच जाए। यह काम शिक्षक ने अब तक भलीभांति पूरा किया है। अब शिक्षक पर एक नया दायित्व भी आ रहा है। और वह यह है कि वह बच्चों की जो नई संभावनाएं हैं, पोटेंशिएलिटीज हैं उनको भी बूढ़ों तक पहुंचा दे। अब यह बिल्कुल दूसरा काम है जो अब तक शिक्षक के ऊपर नहीं था। अब तक शिक्षक वन-वे ट्रैफिक का काम कर रहा था। वह बूढ़े से बच्चे तक लाने का काम कर रहा था।
बच्चों से बूढ़ों तक ले जाने का काम शिक्षक ने अब तक नहीं किया था। अब शिक्षक वन-वे ट्रैफिक नहीं रहेगा, डबल-वे ट्रैफिक हो जाएगा। और शिक्षक अगर यह काम करे तो मैं नहीं मानता हूं कि दूरी ज्यादा दिन टिक सकती है। दूरी मिटाई जा सकती है। लेकिन शिक्षक यह काम नहीं करता; या तो शिक्षक नई पीढ़ी के साथ हो जाता या शिक्षक पुरानी पीढ़ी के साथ हो जाता है।
शिक्षक को किसी पीढ़ी के साथ होने की जरूरत नहीं है। शिक्षक का मतलब ही यही है कि वह किसी पीढ़ी के साथ नहीं है, वह लिंक जनरेशन है, वह बीच की जोड़ने वाली पीढ़ी है। वह सेतु है, ब्रिज है। और अगर ब्रिज कहे कि मैं इस किनारे के पक्ष में हुआ जाता हूं, तो ब्रिज नहीं रह जाएगा। और अगर ब्रिज कहे कि मैं उस किनारे पर हुआ जाता हूं, तो फिर ब्रिज नहीं रह जाएगा। ब्रिज को दोनों किनारों पर रहना पड़ेगा और दोनों किनारों से मुक्त भी रहना पड़ेगा। तभी ब्रिज दोनों किनारों के बीच आवागमन बन जाता है। इसलिए शिक्षण संस्थाएं जो उन्होंने अतीत में किया है उससे भी बड़ा काम उनके हाथ में भविष्य में है। और शिक्षक जो अब तक किया है उससे भी कीमती काम उसके हाथ में भविष्य में है। लेकिन यह तो मैं फिर कभी आऊं तो इस पर विस्तार से आपसे बात कर सकूं।

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