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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-08)

बोधकथा-आठवी 

मैं वृद्धों के एक मंडल में बैठा था। वे सभी अवकाश-प्राप्त व्यक्ति हैं और लोक-परलोक की एक से एक व्यर्थ चर्चा में संलग्न रहते हैं। वैसे वे कहते इसे धर्म-चर्चा ही हैं, और यह ठीक भी है। क्योंकि जिन्हें धर्मशास्त्र कहा जाता है, उनमें भी ऐसे ही ऊहापोह की भरमार है। कई बार विचार आता है कि इन तथाकथित धर्मशास्त्रों को कहीं अवकाश-प्राप्त वृद्धों ने ही तो नहीं सिरजा है!
धर्म यदि कुछ है तो स्वयं जीवन है, व्यर्थ के ऊहापोह से उसका क्या संबंध?

लेकिन, शास्त्र तो बस शब्दों से भरे हैं। और धार्मिक कहे जाने वाले मस्तिष्क आकाशों की स्वप्न-यात्रा करते रहते हैं। शास्त्र और सिद्धांत उनके चित्त में धर्म के प्रवेश के लिए द्वार ही नहीं देते हैं।
धार्मिक चित्त क्या है?
मैं तो सब भांति शब्दों, सिद्धांतों और विचारों से शून्य चेतना को ही धार्मिक कहता हूं।
धार्मिक चित्त, काल्पनिक चित्त नहीं है। अपितु, उससे ज्यादा यथार्थवादी और सत्य की ठोस भूमि पर खडी हुई और कोई चेतना ही नहीं होती है।


मैं वृद्धों के विवाद को बडे आनंद से सुनता था कि तभी एक संन्यासी का भी आगमन हो गया था। वे इस पर विचार करते थे कि कितने-कितने जन्मों की कितनी-कितनी तपश्चर्या से मुक्ति उपलब्ध होती है। संन्यासी भी इस विवाद में कूद पडे थे। निश्चय ही वे ज्यादा अधिकारी थे और इसलिए उनकी आवाज भी सबसे ज्यादा तेज थी। शास्त्रों की दुहाइयां दी जा रही थीं और कोई भी किसी की सुनने या मानने को तैयार नहीं था। एक वृद्ध का कहना था कि सैकडों जन्म के कठोर तप से मुक्ति प्राप्त होती है। दूसरे का विचार था कि मुक्ति के लिए तप की या सैकडों जन्मों की कोई बात ही नहीं। वह तो प्रभु-कृपा से कभी भी मिल सकती है। तीसरे का कहना था कि चूंकि अमुक्ति भ्रम है, इसलिए तप से उसे नष्ट करने का सवाल ही नहीं है। वह तो ज्ञान की एक झलक में उसी भांति तिरोहित हो जाती है जैसे रज्जु में भासता सर्प विलीन हो जाता है।
फिर किसी ने मुझ से पूछाः ‘‘आप का क्या ख्याल है? ’’ मैं क्या कहता? इसीलिए तो एक कोने में चुपचाप दबा बैठा था कि कहीं किसी की दृष्टि मुझ पर भी न पड जाए। शास्त्रों का मुझे कोई ज्ञान नहीं है। सौभाग्य से उस दिशा में जाने की भूल ही मैंने नहीं की। अतः पूछने पर भी मैं चुप ही रह गया।
लेकिन थोडी देर बाद फिर किसी ने पूछाः ‘‘आप कुछ क्यों नहीं बोलते हैं? ’’ मैं बोलता भी तो क्या बोलता? जहां इतने बोलने वाले हों, वहां मैं अकेला ही तो सुननेवाला था। मैं फिर भी चुप ही रह गया। शायद मेरी यह चुप्पी ही बोलने लगी और उन सबका ध्यान अंततः मेरी ही ओर आ गया। शायद वे सब थक गए थे और विश्राम लेना चाहते थे।
मैं जब फंस ही गया था तो मुझे कुछ न कुछ तो कहना ही था। मैंने एक कहानी कहीः एक गांव में ऐसी परंपरा थी कि जब भी किसी युवक का विवाह होता तो उसे या वरपक्ष को विवाह में कम से कम पांच हजार रुपये खर्च करने पडते थे। वह गांव बडा धनी था और इससे कम में वहां विवाह नहीं होते थे। उस गांव के शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा था। उन शास्त्रों को तो कभी किसी ने नहीं प.ढा था, लेकिन गांव के पुरोहित का ऐसा कहना था। पुरोहित से विवाद कौन करता? उसे तो अतीत की किसी मातृभाषा में लिखे सारे शास्त्र कंठस्थ थे। शास्त्र तो सदा से ही स्वतः प्रमाण रहे हैं। उनमें जो है, वही सत्य है। सत्य का और लक्षण ही क्या है? शास्त्र में होना ही तो सत्य का लक्षण है!
लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि एक युवक ने केवल पांच सौ रुपयों में ही विवाह कर डाला और उसकी बहू भी आ गई। निश्चय ही वह युवक कुछ विद्रोही रहा होगा, अन्यथा ऐसा कैसे कर सकता था। गांव के लोगों ने उससे पूछाः ‘‘तूने कितने रुपये खर्च किए? ’’ वह बोलाः ‘‘पांच सौ।’’ फिर तो गांव की पंचायत बैठी और पंचों ने उससे कहाः ‘‘गलत है। बिना पांच हजार खर्च किए तो विवाह हो ही नहीं सकता।’’ वह युवक हंसा और बोलाः ‘‘पांच सौ से विवाह हो सकता है या नहीं, यह व्यर्थ बहस तुम करो। मुझको तो बहू मिल गई है और उसका सुख प्राप्त है।’’
यह कह कर वह युवक अपने घर चल दिया था।
मैं भी उठा और उन वृद्धों से बोलाः ‘‘पंचो, नमस्कार। आप बहस जारी रखें, मैं भी अब चलता हूं।’’

ओशो

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