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बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

शून्य के पार-(प्रवचन-04)

प्रवचन चौथा -(कर्मः सबसे बड़ा धर्म)

मेरे प्रिय आत्मन्!
कर्म-योग पर आज थोड़ी बात करनी है।
बड़ी से बड़ी भ्रांति कर्म के साथ जुड़ी है। और इस भ्रांति का जुड़ना बहुत स्वाभाविक भी है।
मनुष्य के व्यक्तित्व को दो आयामों में बांटा जा सकता है। एक आयाम है--बीइंग का, होने का, आत्मा का। और दूसरा आयाम है--डूइंग का, करने का, कर्म का। एक तो मैं हूं। और एक वह मेरा जगत है, जहां से कुछ करता हूं।
लेकिन ध्यान रहे, करने के पहले ‘होना’ जरूरी है। और यह भी खयाल में ले लेना आवश्यक है कि सब करना, ‘होने’ से निकलता है। करना से ‘होना’ नहीं निकलता। करने के पहले मेरा ‘होना’ जरूरी है। लेकिन मेरे ‘होने’ के पहले करना जरूरी नहीं है।

कर्म जो है, वह परिधि है। अस्तित्व जो है, वह केंद्र है।
अस्तित्व आत्मा है।
कर्म हमारा जगत के साथ संबंध है।

ऐसा समझें, एक सागर पर बहुत लहरें हैं। सतह पर बहुत हलचल है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं। ये लहरों का जो फैला हुआ जाल है, यह कर्म का जाल है। सागर सतह पर बड़ा कर्मरत है, लेकिन नीचे उतरें तो सन्नाटा है। और नीचे जाएं तो बिलकुल सन्नाटा है। और नीचे जाएं तो कोई लहर नहीं, कोई हलचल नहीं। गहरी चुप्पी है। सागर की लहरों के नीचे सागर का ‘होना’ है।
‘होना’ गहरे में है। कर्म का जाल, लहरों का जाल ऊपर परिधि पर है।
प्रत्येक व्यक्ति की परिधि पर, सर्कमफरेंस पर, कर्म का जाल है। और प्रत्येक व्यक्ति के केंद्र पर होने का सागर है।
लेकिन जब हम किसी व्यक्ति को देखते हैं तो उसका ‘होना’ दिखाई नहीं पड़ता, उसका करना ही दिखाई पड़ता है! ‘होना’ दिखाई पड़ भी नहीं सकता।
सागर के पास जब आप जाते हैं तो आप कहते हैं कि सागर दिखाई पड़ रहा है। सागर दिखाई नहीं पड़ता, दिखाई पड़ती हैं सिर्फ लहरें। सागर आपको कभी दिखाई नहीं पड़ा होगा। लहरें ही दिखाई पड़ी होंगी। लहरें सागर नहीं हैं, क्योंकि कोई लहर सागर के बिना अस्तित्व में नहीं हो सकती। अगर हम लहर को सागर से अलग बचाना चाहें तो लहर मर जाएगी। लेकिन सागर बिना लहर के हो सकता है। सागर बिना लहर के मर नहीं जाएगा। इसलिए मूल सागर है, लहर बाइ-प्रोडक्ट है, लहर उप-उत्पत्ति है। इसलिए लहर नहीं हो सकती सागर के बिना। सागर बिना लहर के हो सकता है।
कर्म नहीं हो सकता बिना आत्मा के बिना। लेकिन आत्मा बिना कर्म के हो सकती है। अगर मैं नहीं हूं तो मेरे सब कर्म खो जाएंगे। लेकिन मेरे सब कर्म खो जाएं तो भी मैं नहीं खो जाता हूं।
इस बुनियादी भेद को सबसे पहले समझ लेना जरूरी है। लेकिन फिर भी जो मैं हूं, वह आपको दिखाई नहीं पड़ता। आप जो हैं, वह मुझे दिखाई नहीं पड़ते। आप जो करते हैं, वही दिखाई पड़ता है! मैं जो करता हूं, वही दिखाई पड़ता है! करना दिखाई पड़ता है। ‘होना’ छिपा है। करना दृश्य है, ‘होना’ अदृश्य है। करना ज्ञात है, ‘होना’ अज्ञात है।
हमारे भीतर ये दो दिशाएं हैं एक ‘करने’ की, दृश्य की, लहरों की--जो दूसरों को दिखाई पड़ सकेगा, ज्ञात हो सकेगा। और एक ‘होने’ की, जो किसी को ज्ञात नहीं हो सकेगा, जो किसी को भी दिखाई नहीं पड़ सकेगा, जो सदा छिपा है, सदा पीछे गहरे में, दी हिडेन, वह सदा पीछे छुपा है--गूढ़।
ये दो हमारी दिशाएं हैं ‘होने’ की, अस्तित्व की। इन दोनों दिशाओं में कौन मूल है, इसे अगर हम न पहचान पाए तो बहुत भूल हो जाएगी। क्योंकि यह बड़े नियम की बात है कि गौण के द्वारा मूल को नहीं पाया जा सकता। मूल के द्वारा गौण को पाया जा सकता है।
जैसे कि हम गेहूं बो देते हैं। फिर गेहूं की फसल आती है और गेहूं के साथ भूसा भी आता है। भूसा मूल नहीं है, परिधि है, बाहर की खोल है। गेहूं मूल है--भीतर का छिपा हुआ हिस्सा है। गेहूं के साथ भूसा पैदा होता है। लेकिन अगर आप भूसा बो दें तो गेहूं पैदा नहीं होगा। गेहूं बो दें, भूसा आ जाएगा। अपने आप आ जाएगा। लेकिन भूसा बो दें तो गेहूं तो आएगा ही नहीं, भूसा भी नष्ट हो जाएगा।
मनुष्य का कर्म जो है, वह भूसे की तरह है। और मनुष्य का ‘होना’ जो है, वह गेहूं की तरह है। अगर भीतर ‘होना’ है तो कर्म बदल जाएगा। जैसा ‘होना’ होगा, वैसा कर्म हो जाएगा। लेकिन बाहर से कर्म बदल लें तो वैसा ‘होना’ नहीं बदल जाएगा।
मेरा जोर ‘होने’ पर है, बीइंग पर। लेकिन कर्मयोग का जोर ‘कर्म’ पर है, ‘होने’ पर नहीं, बीइंग पर नहीं है, डूइंग पर। कर्मयोग कहता है करो--ऐसा करो! ऐसा करोगे तो ऐसे हो जाओगे। गलत है यह बात।
‘ऐसे’ हो जाओगे तो ‘ऐसा कर्म’ हो सकता है। लेकिन ऐसा करोगे तो ऐसे नहीं हो जाओगे। लेकिन चूंकि दिखाई कर्म पड़ता है, इसलिए भ्रांति हो जाती है।
कोई महावीर हमारे बीच से निकलें तो दिखाई पड़ेगा कि महावीर नग्न हो गए! कर्म है। वस्त्र पहनना एक कर्म है। नग्न हो जाना एक कर्म है। महावीर नग्न हो गए, ऐसा हमें दिखाई पड़ेगा। और फिर दिखाई पड़ेगी महावीर की शांति और महावीर का आनंद और उनके चारों तरफ रहस्य की बहती हुई हवाएं और उनकी आंखों में गहराई। और वह सब दिखाई पड़ेगा। और दिखाई पड़ेगा यह कर्म कि महावीर नंगे हो गए! हमारे मन में भी खयाल हो सकता है कि अगर मैं भी नग्न हो जाऊं तो जो महावीर को मिला था, वह मुझे भी मिल जाएगा!
हम भूसे से गेहूं की तरफ चले। पकड़ लिया हमने कर्म को। महावीर क्या खाते हैं, क्या पीते हैं--यह कर्म है। देखा कि क्या खाते हैं,क्या पीते हैं? कब खाते हैं, कैसे खाते हैं? कब नहीं खाते हैं? कैसे चलते हैं? कैसे उठते हैं? ये कर्म हैं। कैसे बोलते हैं? कैसे नहीं बोलते हैं? यह सब हमने देखा। हमने परिधि को पूरा जांच लिया। हमने कहा कि यह परिधि हम भी पूरी कर लें तो जो इस आदमी के भीतर घटा है, वह हमारे भीतर भी घट जाएगा!
तो हम भी उठने लगें ब्रह्ममुहूर्त में! हो जाएं नग्न। यह खाएं, यह न खाएं। ऐसे चलें, ऐसे न चलें। यह हम सब कर लें पूरा। ठीक महावीर जितना करते हैं, उतना कर लें पूरा, इंच भर कमी न रह जाए। तो भी भीतर वह पैदा नहीं होगा, जो महावीर के पैदा हुआ है, क्योंकि हम उलटे चल पड़े। घटना को हमने उलटा देखा। महावीर के भीतर--पहले कुछ भीतर हुआ है, और तब बाहर फैला है। हमने बाहर से पकड़ा और भीतर चले! भीतर से बाहर की तरफ आ सकते हैं, बाहर से भीतर की तरफ नहीं जा सकते। बाहर भूसा है, भीतर गेहूं है।
महावीर की आंखों में जो शांति दिखाई पड़ती है, महावीर के अस्तित्व में जो निर्मलता दिखाई पड़ती है उनके होने में जो एक इनोसेंस--एक निर्दोष साधा है, वह पहले है। चूंकि भीतर एक निर्दोष होने का जन्म हो गया है, इसलिए बाहर वे नग्न हो सके। भीतर की निर्दोषता बाहर की नग्नता बन सकी। लेकिन बाहर की नग्नता भीतर की निर्दोषता नहीं बन सकती।
इसे जितना हम ठीक से समझ लें, उतना ही सत्य की दिशा में गति करना आसान हो जाएगा। बड़े से बड़ा उलझाव इससे पैदा होता है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, हम क्या करें? वे कभी भी नहीं पूछते कि हम क्या हो जाएं! वे पूछते हैं, हम क्या करें?
मैं अभी एक गांव में ठहरा था। गांव का कलेक्टर मुझसे मिलने आया और उसने कहा, कि मैं भी आप जैसी चादर अगर पहन लूं कुछ लाभ होगा? कुछ भी लाभ नहीं होगा। चादर को थोड़ा-बहुत नुकसान हो जाएगा!
वह कहने लगा, नहीं, आप मजाक करते हैं। मुझे ठीक से बताएं। आप उठते कब हैं? आप खाते क्या हैं? मैं भी वैसा ही करूं!
वह आदमी जिज्ञासु है, खोजता है। गलत छोर से खोजता है।
लेकिन हजारों साल से मनुष्य-जाति गलत छोर से खोज रही है। वही आदमी कसूरवार नहीं है। और स्वाभाविक ही है यह भूल। यह इसलिए स्वाभाविक है कि कर्म दिखाई पड़ता है, होना दिखाई नहीं पड़ता। करे भी क्या कोई! जो दिखाई पड़ता है, उसी से चलने की बात खयाल में आती है। जो नहीं दिखाई पड़ता, वहां से चलें कैसे?
लेकिन मैं आपको कहना चाहता हूं कि अगर यह हमारी समझ में आ जाए कि जो दिखाई पड़ता है, वे तरंगें हैं--बाहर की। और भीतर सागर, जहां तरंग ही नहीं, निस्तरंग है। वहां से ही सारी गति है, वहां से ही सारा होना है। हमारा व्यक्तित्व भीतर से फैलता हुआ है। हम निरंतर भीतर से फैलते चले जा रहे हैं। एक छोटा सा बीज हम बोते हैं, फिर वह अंकुरित होता है। बड़ा वृक्ष होता चला जाता है। एक छोटा सा बीज भीतर से बाहर की तरफ फैलता है-फैलता है, फैलता चला जाता है। मां के पेट में एक छोटा सा अणु आता है, जिसे आंख से देखा नहीं जा सकता। फिर वह अणु फैलता है फैलता है--फैलता है और एक व्यक्ति निर्मित हो जाता है! सब भीतर से बाहर की तरफ फैल रहा है।
अभी वैज्ञानिकों ने एक नवीनतम खोज की है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। वह है एक्सपैंडिंग यूनिवर्स! पहले हम सोचते थे, कि जगत जैसा है, वैसा ही है। वही है। ठहरा हुआ है। लेकिन नवीनतम अनुभव ने बड़ी हैरानी कर दी। जगत फैल रहा है, जैसे कि कोई गुब्बारे में हवा भर रहा हो और गुब्बारा बड़ा होता जा रहा है! और फैलता जा रहा हो, फैलता जा रहा हो। जगत फैल रहा है! और प्रतिपल करोड़ों मील की रफ्तार से तारे दूर भागे जा रहे हैं-परिधि की तरफ फैलते जा रहे हैं, केंद्र से हटते जा रहे हैं!
जगत जो है, एक्सपैंडिंग है। आज से दो करोड़ वर्ष पहले जगत छोटा था। तारे करीब-करीब थे। आज जगत बड़ा है, कल और बड़ा होगा! और अंतहीन फैलाव है!
हमारे पास एक शब्द है ब्रह्म। ब्रह्म बहुत कीमती शब्द है। और आज नहीं कल, विज्ञान को इस शब्द को स्वीकार कर लेना होगा। इसको इसलिए स्वीकार कर लेना होगा कि ब्रह्म का मतलब होता है दी एक्सपैंडिंग, जो फैल रहा है, फैल रहा है, फैलता ही जा रहा है! ब्रह्म का मतलब होता है, जो विस्तीर्ण हो रहा है, जो फैलता जा रहा है! जिसके फैलाव का कोई अंत नहीं है! जो कहीं रुकेगा नहीं, जो फैलता ही चला जा रहा है!
इस बात को समझा जा सकता है कि कभी सारा जगत जैसे एक छोटा सा बच्चा मां के पेट में एक अणु होता है, और एक छोटा सा बीज एक बड़े वृक्ष का जरा सा बीज होता है! आश्चर्य नहीं, निश्चित ही ऐसा हुआ होगा। कभी यह सारा, इतना बड़ा जगत एक छोटा सा बीज रहा होगा। फैलता गया, फैलता गया। आज इतना बड़ा है, कल और बड़ा--कल और बड़ा! भीतर से बाहर की तरफ फैलाव है। भीतर से शक्ति के स्रोत हैं, वे फूटते जाते हैं और बाहर की तरफ फैलते जाते हैं।
लेकिन मनुष्य के जीवन में एक भूल हो जाती है। और वह भूल यह हो जाती है, हम बाहर तो देखते हैं और सोचते हैं कि बाहर से भीतर की तरफ चलें!
कर्मयोग बाहर से भीतर की तरफ चलने की भ्रांति है।
कर्मयोग की मान्यता यह है कि कुछ करो। करोगे तो हो सकोगे। कर्मयोगी कहता है, बैठ मत जाना, विश्राम मत करना। बैठ जाओगे, विश्राम करोगे, पहुंच न सकोगे। कुछ करो और ठीक करो, क्योंकि गलत किया तो भटक जाओगे। इसलिए कर्मयोग गहरे में शुभ और अशुभ का चुनाव है, एक च्वाइस है-यह है ठीक, यह है गलत! गलत को छोड़ो और ठीक को करो। गलत को छोड़ते जाओ और ठीक को करते जाओ। एक दिन ऐसा आएगा कि गलत छूट जाएगा और ठीक ही ठीक शेष रह जाएगा। जिस दिन ठीक ही ठीक शेष रह जाएगा, उसी दिन परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा। ऐसा कर्मयोग मानता है।
यह मानना बिलकुल ही गलत है। बिलकुल ही गलत इसलिए है कि इसमें बहुत से इंप्लिकेशंस हैं, बहुत सी छिपी हुई बातें हैं। वह खोल कर समझ लेनी चाहिए। पहली तो बात यह है कि क्या है शुभ और क्या है अशुभ?
जब तक किसी ने स्वयं को नहीं जाना, तब तक वह यह जान ही नहीं सकता कि क्या है शुभ और क्या है अशुभ?
असंभव है जानना--शुभ क्या है? किस चीज को ठीक कहें? महावीर कहते हैं चींटी न मर जाए! चींटी मर गई तो बहुत अशुभ हो जाएगा! कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, बेफिक्री से मार, क्योंकि कोई मरता ही नहीं! तू मारेगा भी तो भी कोई मरने वाला नहीं! क्या है शुभ?
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, मार। बेफिक्री से मार। कोई चिंता ही मत कर। क्योंकि कभी कोई मरता ही नहीं। आत्मा अमर है। तू तलवार चला। कुछ कटता ही नहीं है। शस्त्र से कटता ही नहीं है कुछ। तू काट, तू भ्रम छोड़ दे कि कोई मरता है। कोई मरता ही नहीं। आत्मा अमर है।
महावीर कहते हैं, फूंक कर पैर रखना, चींटी न दब जाए, हिंसा न हो जाए, अन्यथा पाप हो जाएगा!
क्या है शुभ? महावीर कहते हैं, वह शुभ है! कि कृष्ण कहते हैं, वह शुभ है!
महावीर के मानने वालों ने कृष्ण को नर्क में डाल रखा है, इसी शुभ-अशुभ की झंझट की वजह से, क्योंकि कृष्ण तो बड़ी अशुभ बात कर रहे हैं। वह कह रहे हैं, काटो!
महाभारत शायद बच भी जाता, अर्जुन अगर भाग जाता और संन्यासी हो जाता। होने की स्थिति पैदा हो गई थी! भागने की तैयारी पूरी थी! लेकिन कृष्ण ने कहाः कहां भाग कर जाएगा?
 महावीर को मानने वाले ने कृष्ण को डाल दिया नर्क में। इस कल्प में नरक से उनका छुटकारा नहीं होगा, क्योंकि उन्हीने इतनी हिंसा करवादी। लेकिन कृष्ण को मानने वाला कहता है, कृष्ण से पूर्ण अवतार कभी भी नहीं हुआ! कौन है शुभ? कौन है अशुभ? नहीं, कर्म की परिधि पर तय ही नहीं किया जा सकता।
लेकिन आप कहेंगे कि अगर आत्मा की परिधि पर महावीर पहुंच गए और कृष्ण भी पहुंच गए तो फिर यह फर्क क्यों है? अगर वे आत्मा में पहुंच गए, होने में पहुंच गए तो फिर यह फर्क क्यों है? जिस दिन आप पहुंचेंगे, उस दिन आप पाएंगे, फर्क नहीं है। वे दोनों एक ही बात को दो तरफ से कह रहे हैं।
महावीर कहते हैं, पैर फूंक कर रख कि चींटी न दब जाए। महावीर भी जानते हैं कि कुछ भी नहीं मरेगा, चींटी भी नहीं मरेगी। कुछ मरने वाला नहीं है। आत्मा अमर है, इसे वे भी जानते हैं। फिर वे कहते हैं, मार मत! यह क्यों कहते हैं? वे इसलिए कहते हैं कि मरेगा तो कुछ भी नहीं, लेकिन तेरा यह खयाल कि मैंने मारा, वह बहुत कठिनाई में डाल देगा। मरेगा तो कुछ भी नहीं। सवाल मरने का है ही नहीं। सवाल तेरे इस खयाल का है कि मैंने मार डाला। यह खयाल तुझे दिक्कत में डाल देगा। तुझे तो पता नहीं कि कुछ नहीं मरेगा।
वे एक छोर से बात कर रहे हैं। जिनसे वे बात कर रहे हैं वे उन्हीं लोगों से बात कर रहे हैं, जो मारने में उत्सुक हैं। वे अर्जुन से बात नहीं कर रहे हैं, जो न मारने में उत्सुक हो। महावीर उनसे बात कर रहे हैं, जो मारने में उत्सुक हैं! जो चाहते हैं कि कोई समझा दे कि कुछ भी नहीं मरता, तो अच्छी तरह मारे। महावीर उनसे बोल रहे हैं, जो मारने में उत्सुक हैं। तो महावीर कहते हैं, फूंक कर पैर रखना, क्योंकि जो तेरी मारने की उत्सुकता है, वह तुझे दिक्कत में डाल देगी। मरेगा कुछ भी नहीं, लेकिन तूने मारा, यह खयाल तेरे लिए उपद्रव का कारण हो जाएगा।
कृष्ण बिलकुल दूसरे आदमी से बात कर रहे हैं। वे उस आदमी से बात कर रहें हैं, जो न मारने में उत्सुक हो गया है। जो कहता हैं, मैं न मारूंगा। वह क्यों उत्सुक हो गया है? वह कहता है, कि मारने से पाप लग जाएगा!
महावीर जिसको समझा रहे हैं, वह गलत खयाल उसका यह है कि मैंने मारा, मैं मार रहा हूं! यह उसका गलत खयाल है।
अर्जुन का गलत खयाल यह है कि कोई मर जाएगा तो मुझे पाप लग जाएगा! उसका यह खयाल नहीं है कि मेरे मारने से पाप लग जाएगा। उसका खयाल है, कोई मर जाएगा तो मुझे पाप लग जाएगा! कृष्ण उससे कहते हैं, कोई मरता ही नहीं, तू बेफिक्री से मार।
ये दोनों आदमी एक ही बात कहते हैं! ये दोनों अलग बातें नहीं कहते! लेकिन परिधि पर देखने से ये बातें इतनी अलग हैं, जितनी हो सकती हैं। इनके बीच कोई मेल नहीं हो सकता।
असल में अगर हम एक बिंदु रखें, और बिंदु पर परकार रख कर एक वृत्त खींचें, एक सर्कल बनाएं, सर्कल पर पचास बिंदु बना कर बीच के बिंदु की तरफ रेखाएं खींचें, तो परिधि पर दो रेखाओं में फासला होगा और जैसे-जैसे केंद्र की तरफ चलने लगेंगी तो फासला कम होगा। और जब दो रेखाएं-जो कि परिधि पर बहुत दूर-दूर थीं, जब केंद्र पर आएंगी तो एक ही बिंदु पर खड़ी हो जाएंगी।
जो लोग बीइंग पर पहुंचे हैं, जिन लोगों ने आत्मा को जाना हो, वहां कोई फर्क नहीं रह जाता। लेकिन परिधि पर बहुत फर्क हैं, और चूंकि सारे धर्म परिधि को देख कर बने हैं, इसलिए धर्मों में फर्क है!
अगर किसी दिन आत्मा को देख कर धर्म का जन्म होगा तो दुनिया में एक ही धर्म हो सकता है, बहुत धर्म नहीं हो सकते।
लेकिन मोहम्मद की परिधि अलग है, महावीर की परिधि अलग है, कृष्ण की परिधि अलग है। होगी ही। हर लहर अलग होगी। एक ही सागर पर उठने वाली भी दो लहरें एक जैसी नहीं होंगी। सब लहरें अलग होंगी। लहरें अलग होंगी ही।
लेकिन नीचे लहरों के, एक ही सागर है और वहां हमारा ध्यान नहीं जाता। फिर हम लहरों को पकड़ कर चलना शुरू कर देते हैं! कोई महावीर का आचरण देख कर चलता है तो जैन हो गया! कोई बुद्ध का आचरण देख कर चलता है तो बौद्ध हो गया! कोई कृष्ण का आचरण देख कर चलता है तो हिंदू! कोई जीसस का आचरण देख कर चलता है तो ईसाई! सब आचरण को देख कर चलने वाले लोगों के बनाए हुए धर्म हैं!
सारी दुनिया में कर्मवाद है। कर्म को देखकर हम चल रहे हैं, इसीलिए इतना उपद्रव है। शुभ और अशुभ का निर्णय कैसे करिएगा? कैसे जानिएगा कि क्या शुभ है, और क्या अशुभ? नहीं जान सकते। जिसने अभी अपने को ही नहीं जाना, वह नहीं जान सकता कि शुभ क्या है, अशुभ क्या है? लेकिन कर्मयोग कहता है कि शुभ और अशुभ को देख कर चलो! कौन तय करेगा? कैसे तय करेगा कि क्या शुभ है और क्या अशुभ?
कबीर के घर बहुत लोग इकट्ठे होते और कबीर, जब लोग जाने लगते--सुबह भजन-कीर्तन समाप्त होता, मिलना-जुलना बंद होता--तो कबीर कहते, भोजन करते जाना!
कबीर का लड़का परेशान हो गया, क्योंकि कहां से लाए इतना? कभी दो सौ लोग भी इकट्ठे होते, कभी पांच सौ लोग भी इकट्ठे होते! इन सबको भोजन कहां से करवाएं रोज-रोज? कबीर से उसने बहुत बार कहा कि देखें अब कल ये मत कहना लोगों से जाते वक्त कि भोजन कर लो, क्योंकि मैं कहां से लाऊं इतना? यह कैसे इंतजाम करूं? हम गरीब आदमी हैं, आप भूल क्यों जाते हैं?
कबीर बार-बार भूल जाते! क्योंकि जिसको भीतर की संपत्ति दिख गई हो, उसको गरीबी का खयाल नहीं रह जाता। वह रोज भूल जाता है।
बेटा रोज सांझ गरदन पकड़ लेता कि तुम आदमी कैसे हो! हम गरीब आदमी हैं, हम भूखे मर रहे हैं। हम कहां से लोगों को खिलादें? कर्ज हुआ जाता है। लोगों से मांग-मांग कर परेशान हो गए। अब गांव में कोई देने को भी तैयार नहीं! कबीर कहते कोशिश करूंगा। वह कोशिश खतम हो जाती। सुबह जब लोग आते कबीर कहते, कहां चले, भोजन तो करते जाओ!
वह जिसको भीतर की संपत्ति दिख गई, उसको बाहर की दरिद्रता को याद रखना मुश्किल हो जाता है। कितनी ही कोशिश, छूट-छूट जाती। और जिसको भीतर की संपदा नहीं मिली, उसको बाहर की कितनी ही संपदा मिल जाए, उससे दरिद्रता नहीं मिटती। वह भीतर का दरिद्र कह देता है कि अभी कुछ नहीं है, अभी कुछ नहीं है। अभी कुछ मिला ही क्या है? अभी तो और मिल जाए! वह भीतर आदमी दरिद्र बना रहता है। बाहर की संपत्ति दरिद्रता नहीं मिटा पाती। इसलिए अक्सर ऐसा होता है, जितनी संपत्ति उतना दरिद्र आदमी, उतना भीतर दीन-हीन!
आखिर एक दिन उसके लड़के ने रात को कबीर को कहा, अब बहुत हो गया, यह अंतिम, अल्टीमेटम जिसको कहें, यह आखिरी, आखिरी निर्णय हो जाना चाहिए, कल से इस घर में मैं नहीं रहूंगा। क्या मैं चोरी करने लगूं? उसने तो क्रोध में कहा था कि कबीर को कुछ बुद्धि आए! लेकिन जो बुद्धि के बाहर चले गए हों, वे बड़े निर्बुद्धि हो जाते हैं। एक तो बुद्धि के नीचे जो रहते हैं, वे भी निर्बुद्धि रहते हैं। बुद्धि के ऊपर जो चले जाते हैं, वे भी निर्बुद्धि हो जाते हैं। दोनों में बड़ा फर्क होता है। लेकिन करीब-करीब एक जैसे हो जाते हैं। एकदम से पहचानना मुश्किल है।
कबीर ने कहाः मूर्ख, तुझे पहले क्यों न सूझा? अरे चोरी करनी थी तो मुझे इतने दिन से परेशान क्यों कर रहा है? कर ले!
लड़का तो बहुत चैंका। उसने कहाः आप यह कह रहे हैं कि चोरी कर लूं! आप यह कह रहे हैं! शुभ-अशुभ का कोई खयाल नहीं? चोरी अशुभ है। कबीर ने कहाः चोरी अशुभ है! वह आंख बंद करके कुछ सोचने लगे। कहने लगे कुछ समझ में नहीं आता।
लड़के ने कहा कि परीक्षा पूरी ही कर लेनी चाहिए। तो उसने कहा, फिर उठिए। मैं ही क्यों चोरी करूं, आप भी साथ चलिए।
कबीर ने कहाः चलता हूं, लेकिन देख ज्यादा सामान मेरे ऊपर मत लाद देना, बुड्ढा आदमी हूं! कबीर पीछे, बेटा आगे-वे चोरी करने गए!
लड़के ने भी बड़ी हिम्मत की। कमाल, उनका लड़का बहुत हिम्मतवर था। उसने कहाः आखिरी क्षण तक देख ही लेना चाहिए--यह आदमी क्या क्या बात कह रहा है, इसको शुभ-अशुभ का भी बोध नहीं है! संध लगाई, दीवार तोड़ डाली। कबीर से कहाः क्या इरादा है?
कबीर ने कहाः घुसो! वह सोचा कि क्या चोरी करनी ही पड़ेगी! लड़का भीतर घुस गया। एक बोरा गेहूं खींच कर लाया। कबीर से कहाः सहायता करिए। कबीर ने सहायता की। लड़के ने कहाः क्या इरादा है--ले चलें घर?
कबीर ने कहाः इतनी मेहनत किसलिए की? लेकिन घर के लोगों को बता आए न? कबीर ने कहाः घर के लोगों को बता आए न!
उस लड़के ने सिर ठोंक लिया। उसने कहाः चोरी कर रहे हैं, कोई घर के लोगों को बताने की बात है?
कबीर ने कहाः नहीं, यह ठीक नहीं पड़ता। जरा घर के लोगों को कह आओ कि हम चोरी कर रहे हैं! एक गेहूं बोरा ले जा रहे हैं!
तो उस लड़के ने कहाः तो यह कैसी चोरी! और तुम्हें समझ में नहीं आता कि चोरी बुरी चीज है?
कबीर ने कहा कि अब मैं सोचता हूं, जब तुम नहीं कह आए घर के लोगों से कुछ गड़बड़ बात है। लेकिन मुझसे इसलिए भूल हो गई कि बहुत दिन से अपने-पराए का भेद नहीं रहा। मेरी समझ में ही नहीं आया कि चोरी किसकी! चोरी किसकी? कौन करेगा? और किसकी होगी? सभी उसका है। हम भी उसके हैं, वे भी उसके हैं, सामान भी उसका है। सब परमात्मा का है। नहीं-नहीं, लेकिन खबर करके आओ। खबर तो कर दो, क्योंकि बेचारे सुबह खोजें घर में और बोरा न मिले तो तकलीफ में पड़ेंगे। कहां खोजें?
 उस लड़के ने कहाः हो गई चोरी। वापस चलिए। ऐसे चोरी नहीं होती। अगर खबर ही करनी है तो घर वापस चलिए।
यह जो कबीर है--क्या है शुभ? क्या है अशुभ--वह यह कह रहा है कि सब ‘उसका’। कैसी चोरी! अपने पराए का भेद न रहा। कैसी चोरी! चोरी के लिए अपने-पराए का भेद होना तो जरूरी है।
संपत्ति किसी की है? मेरी नहीं है। जिसको यह बोध है, उसको यह भी बोध होगा कि यह संपत्ति मेरी है किसी की नहीं है। जिसको यह बोध है कि किसी की चोरी न करूं, उसको यह भी बोध होगा कि मेरी कोई चोरी न कर ले। लेकिन एक जगह है, जहां संपत्ति किसी की नहीं--जहां हम ही नहीं रह गए। जहां सब ‘उसी’ का रह गया। वहां क्या होगा, कैसे तय करिएगा? शुभ क्या है, अशुभ क्या है? शुभ और अशुभ का निर्णय परिधि पर नहीं हो सकता, गहरे में होगा।
मैं मानता हूं, कि कबीर का बेटा जब कह रहा था कि चोरी अशुभ है, तब वह इसीलिए कह रहा था, कि संपत्ति की मालकियत को मानता था। अभी अहंकार जिंदा था। और अहंकार अशुभ है, चोरी अशुभ नहीं है। अहंकार ही वजह से चोरी अशुभ मालूम हो रही है।
और कबीर का अहंकार खो गया। उनको पता ही नहीं चलता कौन किसका है? क्या कौन है? यह आदमी अशुभ है? क्या आप कहेंगे कबीर का चोरी करने जाना अशुभ था? मैं नहीं कह सकता। मेरे लिए कहना मुश्किल है, क्योंकि कबीर चोरी को गया ही नहीं। क्योंकि चोरी को तो तभी जाया जा सकता है, जब संपत्ति किसी की हो और अहंकार में हमने जगत को बांटा हो।
कबीर चोरी को गया नहीं। कबीर किसी दूसरी दिशा में यात्रा कर रहा है। बेटा किसी और दिशा में यात्रा कर रहा है। वे दोनों साथ गए ही नहीं! साथ दिखाई पड़े। कर्म की दुनिया में, इसलिए दिक्कत हो जाती है। वे साथ गए ही नहीं। वह कहीं और जा रहा था। वे भगवान के घर ही जा रहे थे। जैसा यह घर है वह वैसा, घर है। उधर से उठा लाओ! लेकिन घर में जो लोग पहरा देते हैं, उनको खबर कर दो कि हम चोरी करने जा रहे हैं! सामान उठा रहे हैं।
कबीर चोरी करने गया ही नहीं, सिर्फ बेटा ही चोरी करने गया! और बेटा को शुभ और अशुभ का बोध है। और कबीर को बोध नहीं! परिधि पर जो निर्णय करेंगे? कैसे निर्णय करिएगा! अगर हम सारे जगत में नीति के, शुभ अशुभ के भेद देखें तो बहुत हैरान हो जाएंगे। जो यहां शुभ है, वह पचास मील बाद में अशुभ हो सकता है! जो पचास मील दूर अशुभ है, वह यहां शुभ हो सकता है!
मेरे एक प्रोफेसर, पेशावर में प्रोफेसर थे। विभाजन के पहले वे पेशावर थे। एक दिन मैं उनसे बात करता था। तो उन्होंने मुझे कहा कि तुम जो कहते हो शायद--एक घटना मेरे जीवन में घटी--उससे तुम्हारी बात ठीक लगती है।
मैं पेशावर में था और मेरे पास पहली दफे एक पख्तून लड़का ग्रेजुएट हुआ। मैंने ही मेहनत करके उस पख्तून को पढ़ाया। वह पख्तूनों में पहला ग्रेजुएट था, पहला स्नातक था। बड़ी मुश्किल से तो पढ़ पाया। थर्ड क्लास में बड़ी मुश्किल से पास हुआ। लेकिन पख्तूनों में बड़ी खुशी फैल गई! जिस दिन उसके पास होने की खबर आई तो आठ-दस पख्तून सरदार, बुड्ढे-बड़े भोले और सरल लोग, नंगी तलवारें लेकर मेरे पास आए। तो मैं तो डर गया कि यह क्या मामला है! उन्होंने आकर तलवारें मेरे सामने रख दीं और मेरे पैर छुए और कहा कि आपका कोई दुश्मन हो तो नाम बता दें!
मेरे दुश्मन का क्या करिएगा?
उन्होंने कहाः हम गरीब पख्तून और क्या सेवा कर सकते हैं--गर्दन काट कर ला देंगे! आपने बड़ी कृपा की, हमारा पहला लड़का स्नातक हो गया विश्व में। हम बड़े गरीब लोग हैं, हम और क्या कर सकते हैं? आप देर न करिए, नाम दीजिए। सांझ होने के पहले गर्दन दरवाजे पर लटकेगी!
और वे बड़े भोले लोग हैं, एकदम भोले लोग हैं। भले लोग नहीं हैं, कि हम कहेंगे! कि गर्दन काटने वाले लोग हैं बुरे ही लोग हैं? इतने भोले लोग हैं, वे इतनी सरलता से पैर पकड़ कर कहने लगे उनको कि नहीं नहीं आप कृपा करके नाम बता दीजिए। एकाध नाम बता दीजिए, सांझ होने के पहले गर्दन दरवाजे पर! हम गरीब पख्तून और क्या कर सकते हैं! हम कैसे धन्यवाद दें!
उन्होंने कहाः भई इतनी ही कृपा करना कि कभी मेरी ही गर्दन न कटवा देना। तुम जाओ, कोई हमारा ऐसा दुश्मन नहीं, जिसकी गर्दन कटवानी हो! लेकिन वे बार-बार आते रहे! वे कई बार आए कि आप मालूम होता है, हम पर खुश नहीं? आप नाम तो बता दें। नाम ही भर बताने की जरूरत है, बाकी सब हम कर लेंगे, कुछ देर लगेगी!
वे मुझसे कहते थे, कि उनकी आंखों में देखता हूं तो बड़े सरल लोग हैं। और वे जो कह रहे हैं कि गर्दन काट लाएंगे, वह बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है! लेकिन पख्तून में गर्दन काटना अशुभ नहीं है, गर्दन कटवा देना अशुभ नहीं है। गर्दन काटने से भागना या कटवाने से भागना अशुभ है!
ऐसी कौमें हैं सारी जमीन पर कि अगर उनके शुभ-अशुभ का निर्णय करने जाएं तो बहुत हैरान हो जाएंगे कि क्या शुभ है, क्या अशुभ है?
अंग्रेज हिंदुस्तान में आए, तब हिमालय के पास ढेर ऐसे आदिवासी कबीले थे--कि उनके घर में अगर मेहमान हो, तो वे सारी सेवा करेंगे और रात अपनी पत्नी भी दे देंगे! क्योंकि घर मेहमान आया है, उसको पत्नी भी दीजिएगा! कैसा अतिथि-सत्कार हो रहा है यह! तो अपनी पत्नी भी दे देंगे रात को।
बड़े सीधे लोग थे, अंग्रेज उनके घर जाकर ठहरने लगे, क्योंकि उनकी सुंदर पत्नियों ने बहुत आकर्षित किया!
अब पूछने जैसा है कि अशुभ कौन कर रहा है? वे अशुभ कर रहे थे, जो कि इतने भोले थे, कि वे कहते थे कि जब घर में मेहमान आया तो रात उसको पत्नी की याद आए, स्त्री की याद आए तो वह क्या करेगा? तो वह हमारे घर मेहमान हुआ तो हमारी पत्नी मिलनी चाहिए! और पत्नी सरलता से रात उसके पास जाकर सो जाएगी, क्योंकि घर मेहमान आया है--देवता है!
ये गलत कर रहे थे या अशुभ कर रहे थे? या वह आदमी जो सिर्फ इसलिए घर में आकर मेहमान हो गया था कि इसकी औरत पर नजर थी उसकी? इसलिए आज वह घर में मेहमान हो गया!
तो फिर धीरे-धीरे उस कबीले को समझ लानी पड़ी, कबीला चालाक हुआ, कनिंग हुआ, फिर उसने कहा कि यह बात गलत है! मेहमान को पत्नी देना गलत है। यह अशुभ है। लेकिन चालाक हुआ तब। चालाकी अशुभ है? या उसका वह निर्दोष भाव अशुभ था? तय करना मुश्किल है।
परिधि पर कुछ भी तय नहीं होता। परिधि पर कुछ भी तय नहीं हो सकता। लेकिन कर्मवादी कहता है, परिधि पर निर्णय कर लो--यह ठीक और यह गलत! और ठीक डिवीजन कर लो, कंपार्टमेंट बांट दो! दीवाल खड़ी कर दो कि यह हम करेंगे और यह हम न करेंगे! इसलिए कर्मवादी जड़ हो जाता है। जड़ हो जाता है इसलिए कि उसकी जो फ्लेग्जेबिलिटि है व्यक्तित्व की, जो तरलता है, वह खो जाती है। सख्त, यह ठीक और यह गलत--बस वह ऐसा करेगा!
लेकिन जिंदगी बहुत तरल है। उसमें ठीक, जो सुबह ठीक था, वह सांझ गलत हो जाता है! जो सांझ गलत था, वह सुबह ठीक हो जाता है। जो घड़ी भर पहले ठीक था, घड़ी भर बाद गलत हो जाता है। इसलिए सवाल ठीक और गलत तय करने का नहीं है। सवाल ठीक और गलत को हर स्थिति में पहचानने का है। लेकिन वह कौन पहचानेगा? वह बीइंग पहचान सकता है। वह भीतर की आत्मा जाग्रत हो तो पहचान सकती है क्या ठीक, क्या गलत।
और ठीक और गलत की कोई निर्णायक स्थिति नहीं है कि हम लेबल लगा दें कि यह ठीक और यह गलत। किसी क्षण में अहिंसा ठीक हो सकती है। किसी क्षण में गलत हो सकती है। किसी क्षण में हिंसा ठीक हो सकती है। किसी क्षण में अहिंसा ठीक हो सकती है। लेकिन वह जो कर्मवादी है, वह कहता है, अहिंसा सदा ठीक और हिंसा सदा गलत!
जिंदगी इतनी पथरीली नहीं, जिंदगी बहुत तरल है। जैसे नदी बहती है--कभी बाएं बहती है, कभी दाएं बहने लगती है। कभी इधर जाती है, कभी उधर जाती है। जिंदगी ऐसी ही है। रेल की पटरियों की तरह नहीं कि बस चली जा रही है। इसलिए जिंदगी के मामले में जिसने ऐसे सख्त नियम लिए, वह बहुत मुश्किल में पड़ जाता है।
अगर अहिंसा सदा सही है तो फिर बहुत सी गलत बातें सही हो जाएंगी। अगर अहिंसा सदा सही है तो मेरे ऊपर कोई मुझे गुलाम बनाने आए, और आपको गुलाम बनाने आए तो फिर अहिंसा क्या करेगी? फिर अहिंसा सदा सही है तो गुलामी सही हो जाएगी! लेकिन गुलामी कैसे सही हो सकती है? और गुलाम अहिंसक हो सकता है? जो आत्मा को बेचने को तैयार हो गया, वह अहिंसा को कितने दिन तक बचाएगा? अहिंसा भी बिक जाएगी, कहना मुश्किल है।
एक छोटी सी कहानी मुझे याद आती है।
एक फकीर हुआ है, नसरुद्दीन। उसके राजा ने, उसके गांव के राजा ने तय कर लिया हम अपने राज्य से असत्य को उखाड़ कर फेंक देंगे! उसने फकीर को बुलाया और उससे कहा कि तुमसे मैं सलाह ले लेना चाहता हूं। मैंने तय किया है कि असत्य को मैं उखाड़ कर फेंक दूंगा। फकीर ने कहा, पहले पक्का पता लगा लिया कि असत्य क्या है? क्योंकि असत्य रोज शक्लें बदल लेता है।
उसने कहा, उसीलिए तो आपको बुलाया है कि आप मुझे बता दें कि असत्य क्या है? मैंने यह तय किया है कि कल से राज्य में एक आदमी को रोज सूली पर लटकाऊंगा--चैरस्ते पर राजधानी के। जो झूठ बोलेगा, वह सूली पर लटकेगा, ताकि बाकी लोग देखें, समझ जाएं कि यह हालत है झूठ बोलने वालों की।
उस फकीर ने पूछाः किस जगह सूली बनाई है?
राजा ने कहाः गांव का जो बड़ा द्वार है उस पर।
तो उस फकीर ने कहाः कल सुबह द्वार पर मिलूंगा, वहीं पर मुलाकात होगी।
राजा ने कहाः मतलब क्या है? मैं तुमसे पूछने को बुलाया हूं!
     उसने कहाः कि वहीं बता देंगे, सूली तैयार रखना!
सूली तैयार रखी गई। सुबह जो फकीर, दरवाजा खुला नगर का तो फकीर पहला प्रवेश किया। अपने गधे पर बैठा हुआ, वह अंदर घुसा।
राजा ने पूछाः कहां जा रहे हो?
उस फकीर ने कहाः सूली पर चढ़ने!
राजा ने कहाः सरासर झूठ बोल रहे हो। तुम्हें कौन सूली पर चढ़ाएगा।
तो उस फकीर ने कहाः अगर झूठ बोल रहा हूं तो सूली पर चढ़ा दो-सूली तैयार है।
उस राजा ने कहाः बड़ी मुश्किल में डाल दिया। अगर मैं तुम्हें सूली पर चढ़ा दूं तो लोग कहेंगे, एक सच बोलने वाले, को सूली पर चढ़ा दिया क्योंकि जो कह रहा था कि सूली पर चढ़ने जा रहा हूं, उसको सूली पर चढ़ा दिया! एक सच बोलने वाले को सूली पर चढ़ा दिया--लोग कहेंगे और अगर तुम्हें मैं छोड़ दूं तो सूली पर नहीं चढ़ोगे, तो झूठ हो जाएगा।
तो उस फकीर ने कहा कि मैं रुका हूं, तुम तय कर लो, कि क्या करना है? अगर तय हो जाए तो सूली पर चढ़ा दो, अगर तय हो जाए तो छोड़ दो।
उस राजा ने कहाः बहुत मुश्किल में डाल दिया।
उस फकीर ने कहाः जिंदगी सभी को मुश्किल में डाल देती है। उन सभी को, जो जिंदगी में तय कर लेते हैं कि बस यह सच है और यह झूठ है।
जिंदगी बहुत तरल है। परिधि पर तय नहीं हो सकता क्या ठीक है और क्या गलत है? और जो आदमी परिधि पर तय करने में लगेगा, वह नष्ट हो जाएगा। वह ज्यादा से ज्यादा धोखा पैदा कर सकता है नैतिक होने का, लेकिन कभी धार्मिक नहीं हो सकता। उसे जिंदगी में रोज मौके आएंगे, जो मुश्किल में डालते रहेंगे कि क्या करूं, क्या न करूं? फिर धीरे-धीरे वह जिंदगी की तरलता को देखना बंद कर देगा। वह अपने ठोस और सख्त ढांचे में, पैटर्न में जीने लगेगा कि बस यही ठीक है! वह आंख बंद करके वही करता रहेगा! और वह आदमी तो गलत ही होगा, क्योंकि भीतर तो कोई परिवर्तन नहीं हुआ है!
गलत आदमी पर जब ठीक बात जुड़ जाती है, तो ठीक बात भी गलत का साधन बन जाती है।
जैसे कि महावीर को लोगों ने देखा और लोगों ने समझा कि अहिंसा ठीक है। तो महावीर को मानने वालों ने खेती बंद कर दी! इसलिए जैन खेती नहीं करता रहा। उसने खेती बंद कर दी, क्योंकि खेती में हिंसा मालूम पड़ी। पौधे काटने पड़ेंगे, पौधों में प्राण हैं।
महावीर को एक अनुभव हुआ है पौधों में प्राण हैं। प्राण हैं! महावीर ने जो जाना है, वह फिर जगदीशचंद्र ने बहुत बार सिद्ध किया विज्ञान से कि पौधों में प्राण है, आत्मा है! अब तो महावीर की बात बहुत वैज्ञानिक कि पौधे में प्राण हैं तो फिर, एक आदमी गेहूं की फसल काटेगा, हजारों पौधे काटेगा तो हजारों प्राण कट जाएंगे, हजारों की हत्याएं हो जाएंगी। तो जैनियों ने खेती बंद कर दी!
लेकिन खेती बंद करने से क्या हो सकता था। कोई तो खेती करेगा, गेहूं तो खाना पड़ेगा। मैं खेती न करूं तो आप खेती करेंगे। गेहूं मैं खाऊंगा, हिंसा आपको लगेगी! बहुत मजेदार नियम हुआ--गेहूं मैं खाऊंगा और हिंसा आपको लगेगी! तो खेती दूसरों पर छोड़ दी! लेकिन वह हिंसक आदमी तो भीतर हिंसक रहा!
यह बड़े मजे की बात है कि किसान कम हिंसक होते हैं। कम हिंसक इसलिए होते हैं कि काटने-पीटने में, काटने-पीटने की बहुत सी वृत्ति तृप्त हो जाती है। एक आदमी लकड़ी काट रहा है, वृक्ष काट रहा है, तलवार चला रहा है, तो...। कुल्हाड़ी चला रहा है तो जिस आदमी ने सुबह तीन घंटे वृक्ष पर कुल्हाड़ी मारी है, वह आदमी को किसी की गरदन में कुल्हाड़ी मारने में रस नहीं पाएगा। उसकी तृप्ति हो गई--काटने की, मारने की।
किसान कम हिंसक होता है। लेकिन जब किसानी बंद कर दी महावीर के मानने वालों ने--और लड़ सकता नहीं था युद्ध के मैदान में, इसलिए क्षत्रिय तो नहीं हो सकता था। और क्षत्रिय ही थे मानने वाले! महावीर तो खुद क्षत्रिय थे! मानने वाले सब क्षत्रिय थे, तो वे लड़ भी नहीं सकते थे। उन्होंने युद्ध भी बंद कर दिया, किसानी भी बंद कर दी! तो अब दो ही विकल्प थे--या बनिए हो जाएं या भंगी हो जाएं। भंगी होना नहीं चाहा उन्होंने, तो वे बनिए हो गए!
लेकिन ध्यान रहे, बनिया बहुत हिंसक हो सकता है। और हुआ। इसलिए उसने बहुत संपत्ति इकट्ठी कर ली। संपत्ति, बिना हिंसा के इकट्ठी नहीं हो सकती! लेकिन तब उसने काटना-पीटना बंद कर दिया। उसने फिर सूक्ष्म तरकीबें काटने-पीटने की निकालीं! कि एक आदमी की गर्दन मत काटो, जेब काटो! जेब काटने से गर्दन कट जाती है! बल्कि एक दफा गर्दन काटना शायद ज्यादा दयापूर्ण हो, जेब काटना ज्यादा क्रूरतापूर्ण हो जाता है। क्योंकि गर्दन कट जाए तो एक दफा निपट गया मामला। जेब कट जाए तो गर्दन भी रहती है! जेब भी कट गई और जिंदा भी रहना पड़ता है! और मरे हुए जिंदा रहना पड़ता है!
तो वह जिन लोगों ने गर्दन काटने से अपने को परिधि पर रोक लिया, वह फिर उन्होंने काटने की नई तरकीबें ईजाद कीं! इसलिए हिंदुस्तान में महावीर के मानने वालों के पास सबसे ज्यादा पैसा इकट्ठा हो गया। उसका कारण था कि उनकी सारी हिंसा कनसनट्रेटिड हो गई! उनकी सारी हिंसा सब तरफ से रुक गई। लड़ना, हिंसा सब तरफ से रुक गई। एक ही दिशा रह गई--पैसा! तो पैसे पर उन्होंने पूरी हिंसा कर दी! पैसा इकट्ठा कर गए।
बहुत थोड़ी संख्या है। पच्चीस लाख से ज्यादा नहीं होगी। लेकिन संपत्ति बहुत ज्यादा है! यह संपत्ति कैसे आई? अगर भीतर से यह बोध आया होता, अगर यह प्राणों में यह बात खिली होती तो यह असंभव था कि यह नई तरह की हिंसा विकसित होती। लेकिन भीतर तो बोध नहीं आया। यह किसी एक की बात नहीं है, सबकी ही बात है। सब तरफ यही बात है।
मैंने सुना है, एक आदमी, एक पादरी है जीसस का। उसने बाइबिल में पढ़ा है कि अगर दुश्मन एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा गाल सामने कर दो। दुश्मन किसके नहीं हैं? एक दुश्मन ने उसको चांटा मारा। और दुश्मन ने चांटा इसलिए मारा कि दुश्मन ने उसी दिन चर्च में उसका भाषण सुना था। और चर्च के भाषण में उसने कहा था कि जीसस कहते हैं कि जो तुम्हारे बाएं गाल पर चांटा मारे उस पर दायां कर दो!
वह चर्च के बाहर पादरी निकला, दुश्मन ने उसके बाएं गाल पर जोर से चांटा मारा! भीड़ इकट्ठी थी, पादरी एकदम से गड़बड़ भी नहीं कर सका, क्योंकि अभी कह कर चर्च के भीतर से आया था कि दायां गाल सामने कर दो तो पादरी ने दायां गाल सामने कर दिया! उसने उस पर भी एक करारा चांटा मारा। तब पादरी ने उठा कर लकड़ी, उसका सिर फोड़ दिया! तो उस आदमी ने कहा, यह तुम क्या कर रहे हो?
तो उस ने कहा जीसस ने कहा है बाएं गाल पर कोई मारे तो दायां कर दो। लेकिन दाएं पर कोई मारे तो कुछ भी नहीं कहा है! दाएं पर कोई मारे तो निर्णय फिर हम करेंगे! क्योंकि आगे कुछ लिखा हुआ नहीं है, इसके आगे। तुम बाएं को मार कर चले गए होते तो बात खत्म हो गई होती।
     तो फिर जीसस भी क्या करते? क्या कर सकते हैं? उसने कहा, दायां और बायां दो ही तो होते हैं। तीसरा होता तो हम ठीक से निपटारा कर लेते। हम कौन सा गाल करें आपके सामने! एक मारा दूसरा कर दिया, तीसरा तो है नहीं! अब तो तीसरा आपके पास है।
होता यह है, होने वाला ही यह है! परिधि पर जो निर्णय होंगे, वे ऐसे ही होंगे। कर्म से जो नीति और धर्म पैदा हुआ, वह परिधि पर पैदा हुआ है। लेकिन क्या करें? हमारी तकलीफ यह है कि परिधि हमें दिखाई पड़ती है। क्या करें, क्या न करें--वही हमारे सवाल हैं।
मेरी अपनी समझ है कि करने की बात की मत फिकर करें। इसकी फिकर करें कि करने वाला कौन। वह कौन है भीतर, जो बाएं गाल की तरह दायां गाल करता है? वह कौन है, जो हाथ उठा कर तीसरे गाल पर मारता है? वह कौन है, जो खेत में हिंसा करता है? वह कौन है, जो फिर दुकान पर बैठ कर गर्दन काटता है? वह कौन है भीतर? करने वाला कौन है? कर्म नहीं, करने वाला कौन है--इसकी तलाश। कर्ता कौन है--इसकी तलाश।
जब मैं उठता हूं तो उठने की फिकर छोड़ दें। उठता कौन है? जब मैं भोजन करता हूं तो इसकी फिकर छोड़ दें कि क्या भोजन करता हूं? इसका सवाल है कि भोजन करता कौन है? जब मैं बोल रहा हूं तो यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं क्या बोल रहा हूं? सवाल महत्वपूर्ण यह है कौन बोल रहा है? कौन है भीतर? प्रत्येक कर्म के भीतर कौन है? हर कर्म के भीतर कौन है?
और ध्यान रहे, कर्म के भीतर जो छिपा है, वह बिलकुल अकर्म है। वह कर्ममुक्त है। और तभी कर्म के भीतर हो सकता है।
बैलगाड़ी का चाक चलता है। चाक चलता है, एक कील बीच में खड़ी रहती है, वह नहीं चलती! उसी कील पर चाक चलता है!
कर्म का जो चाक है, वह अकर्म आत्मा पर चलता है! नहीं तो चल नहीं सकता । कर्म के चलने के लिए अकर्म का होना जरूरी है केंद्र में।
भीतर उस केंद्र को पकड़ने की कोशिश करें। चाक नहीं, कील। कर्म नहीं, अकर्म। करना नहीं, होना। वह मैं कौन हूं, जो उठते वक्त उठता है, चलते वक्त चलता है, खाते वक्त खाता है, बोलते वक्त बोलता है, चुप होते वक्त चुप हो जाता है?
और अगर इसकी थोड़ी सी फिकर की--आंख बंद कर, आंख खोल कर, इसे थोड़ा खोजा तो एक अदभुत अनुभव आपको उपलब्ध होगा। और वह यह कि जब आप उठते हैं, तब भी आपके भीतर कोई है, जो उठता ही नहीं। जब आप चलते हैं, तब कोई आपके भीतर है, जो चलता ही नहीं। जब आप भोजन करते हैं, तब कोई आपके भीतर है, जो भोजन करता ही नहीं। जब आप बोलते हैं, तब भी कोई आपके भीतर निरंतर अबोला है। जब आप जीते हैं, तब भी कोई आपके भीतर जीवन के बिलकुल पार खड़ा है। जब आप मरते हैं, तब भी कोई आपके भीतर नहीं मरता है।
आपके सारे कर्मों के भीतर बिलकुल अकर्म में ठहरा हुआ एक बिंदु है। वही बिंदु बीइंग, वही बिंदु आत्मा। उस बिंदु की पहचान करनी जरूरी है।
कर्मयोग नहीं, अकर्म। वह जो अकर्ता, सब कर्म के बीच में खड़ा है।
रास्ते पर चल रहे हैं, जरा भीतर झांक कर पता लगाएं कि कोई है भीतर, जो चल रहा है? तो बहुत हैरान हो जाएंगे बाहर कोई चल रहा है और भीतर कोई भी नहीं चल रहा है! भीतर सन्नाटा है। भीतर कभी कोई चला ही नहीं!
जन्म से लेकर बूढ़े हो जाएंगे आप--जवान होंगे, बच्चे होंगे, बीमार होंगे, स्वस्थ होंगे, बूढ़े होंगे, जन्मेंगे, मरेंगे। और भीतर कोई है, जो न जन्मता है, न बूढ़ा होता है, न जवान होता है; न बीमार होता है, न स्वस्थ होता है, न मरता है!
वह जो भीतर का बिंदु है, और जो सारी लहरों के भीतर शांत सागर है, उसकी पहचान एक क्षण को भी हो जाए तो जीवन दूसरा हो जाता है। फिर दुबारा भूल असंभव है--बिलकुल असंभव।
इन चार दिनों में मैंने तीन बातें कहने की कोशिश की--ज्ञान नहीं, भीतर वह जो ज्ञान नहीं है, ज्ञाता है। भक्ति नहीं, भाव नहीं--भीतर वह, जहां कोई भाव नहीं, सब निर्भाव है। कर्म नहीं--भीतर जहां कोई कर्म नहीं, सब अकर्म है।
निर्विचार, निर्भाव, अकर्म--अगर ये तीन बातें एक सेकेंड में इकट्ठी घट जाएं, एक साथ। तो एक सेकेंड में आपके जीवन में वह बिंदु आ जाएगा--बायलिंग पाॅइंट, जहां पानी भाप हो जाता है।
मनुष्य की जिंदगी में भी वह बिंदु है, जो इन तीन की जोड़ से फलित होता है। जहां मनुष्य वाष्पीभूत हो जाता है। जहां पानी नहीं रह जाता, भाप रह जाती है। जहां हम नहीं रह जाते, परमात्मा रह जाता है। हम तो उड़ जाते हैं, एवोपरेट हो जाते हैं। ‘हम’ तो फिर पाए ही नहीं जाते। फिर जो पाया जाता है वह--परमात्मा।
न तो ज्ञान ले जाएगा, न भक्ति ले जाएगी, न कर्म ले जाएगा। ज्ञान, भक्ति, कर्म तीनों मन के ही खेल हैं।
इन तीनों के पार जो जाएगा--वही अ-मन, नो-माइंड वही आत्मा, वही परमशक्ति, उसकी अनुभूति ही ले जाती है।
तब मुझसे मत पूछें कि मार्ग क्या है? सब मार्ग मन के हैं। मार्ग छोड़ें, क्योंकि मन छोड़ना है।
कर्म छोड़ें, वह मन की बाहरी परिधि है। विचार छोड़ें, वह मन के बीच की परिधि है। भाव छोड़ें, वह मन की आखिरी परिधि है। तीनों परिधि को एक साथ छोड़ें।
और उसे जान लें, जो तीनों के पार है, दि बियांड। वह जो सदा पीछे खड़ा है, पार खड़ा है, उसे जानते ही वह सब मिल जाता है, जो मिलने योग्य है। उसे जानते ही वह सब जान लिया जाता है, जो जानने योग्य है। उसे मिलने के बाद, मिलने को कुछ शेष नहीं रह जाता। उसे पाने के बाद, कुछ पाने को शेष नहीं रह जाता।
सब शास्त्र जिसके लिए रोते हैं, चिल्लाते हैं! सब ज्ञानी जिसकी तरफ इशारे उठाते हैं और इशारे नहीं हो पाते! सब शब्द जिसे कहते हैं और नहीं कह पाते। सब आंखें जिसे तलाशती हैं और नहीं देख पातीं! और सब हाथ जिसको टटोलते हैं और नहीं पकड़ पाते हैं! वह इन तीनों के पार सदा मौजूद है। इन तीनों से जरा-सा द्वार खुल जाए और वह उपलब्ध ही है।
मार्ग नहीं है--क्योंकि वह दूर नहीं है। वह निकट है, निकटतम है, निकट से भी निकटतम है। वही है।
मार्ग नहीं है, क्योंकि वह वहां नहीं है--यहां है।
मार्ग नहीं है-क्योंकि वह कल नहीं है, अभी है--हियर एण्ड नाउ, अभी और यहीं।
इसलिए मार्ग में मत भटकें। सब मार्ग भटकाते हैं।
सब मार्ग छोड़ दें। खड़े हो जाएं, एक सेकेंड को ही सिर्फ। खड़े होने का प्रयास करते रहें।
भाव का, विचार का, कर्म का--तीनों के ऊपर उठने का प्रयास करते रहें, करते रहें, करते रहें। आपके करने से ऐसा नहीं होगा कि धीरे-धीरे आप उठते जाएंगे। ना, करते रहें। नहीं ऊठेंगे, तब तक नहीं उठेंगे। लेकिन करते-करते, करते-करते कभी वह टर्निंग पाॅइंट आ जाएगा कि तीनों चीजें एक सेकेंड को ठहर जाएंगी और आप अचानक पाएंगे कि आप उठ गए।
निन्यानबे डिग्री तक भी पानी भाप नहीं बनता। बस कुनकुना गर्म होता है। गर्म होता रहता है, होता रहता है--अट्ठानबे पर भी गर्म, संतानबे पर भी गर्म, नब्बे पर भी गर्म, साढ़े निन्यानबे पर भी गर्म, निन्यानबे पर भी गर्म, गर्म ही होता रहता है। बस ठीक सौ डिग्री पर पहुंचा कि एक सेकेंड में सब बदल जाता है! पानी नदारद, पानी गया, भाप हो गई!
ठीक ऐसे ही करते रहें, करते रहें। भाव के बाहर, विचार के बाहर, कर्म के बाहर--खोजते रहें, खोजते रहें। अनजान है वह क्षण, कब आ जाए। किसी भी दिन अचानक आप पाएंगे, सौ डिग्री पूरी हो गई!
और अभी तक कोई थर्मामीटर नहीं है कि बाहर से बताया जा सके कि आपकी सौ डिग्री पूरी हो गई। नहीं , आगे भी आशा नहीं है कि कोई थर्मामीटर हो सके। आपको भी पता नहीं है, मुझे भी पता नहीं है, किसी को भी पता नहीं है कि कब किस आदमी की सौ डिग्री पूरी हो जाएं? किस क्षण में? और जिस क्षण पूरी हो जाएंगी, उसी क्षण आप खो जाएंगे। और जो हो जाएगा, वही सत्य है, वही परमात्मा है।
मनुष्य परमात्मा से नहीं मिल पाता। पानी कभी भाप से मिल पाता है? पानी कैसे भाप से मिलेगा? पानी जब मिटेगा, तब भाप होगा। इसलिए पानी कभी भाप से नहीं मिलता।
आदमी कभी परमात्मा से नहीं मिलता। आदमी तो भाप हो जाता है, मिट जाता है, तब जो रह जाता है, वह परमात्मा है।
मिटें ताकि पा सकें, खो जाएं ताकि खोज सकें।
बीज मिटता है तो वृक्ष हो जाता है, बूंद मिटती है तो सागर हो जाती है।

मेरी इन बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।ं


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