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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-18)

बोधकथा--अट्ठाहरवी 

एक घटना मैंने सुनी है। युद्ध के दिन थे और अचानक बमबारी शुरू हो गई थी। किसी निर्जन रास्ते पर एक धर्म-पुरोहित कहीं जा रहा था। उसने जल्दी से भाग कर पास में ही बनी लोमडियों की एक गुफा में शरण ली। जैसे ही वह भीतर पहुंचा, उसने देखा कि एक सैनिक अफसर पहले ही से वहां छिपा हुआ है। वह सैनिक अफसर एक कोने में हट गया, ताकि नये आगंतुक के लिए जगह हो सके। तब पास में ही बम गिरने लगे। पुरोहित के हाथ-पैर कंपने लगे। उसने घुटने टेक कर परमात्मा से प्रार्थना शुरू कर दी। वह बहुत जोर-जोर से प्रार्थना कर रहा था। उसने बीच में आंख उठा कर देखा तो पाया कि वह सैनिक अफसर भी उसी की भांति जोर-जोर से प्रार्थना कर रहा है। फिर जब आक्रमण बंद हो गया तो धर्म-पुरोहित ने उस सैनिक अफसर से पूछाः ‘‘बंधु, मैंने देखा कि आप भी प्रार्थना कर रहे थे!’’ वह सैनिक अफसर हंसने लगा और बोलाः ‘‘महानुभाव, लोमडियों की गुफाओं में नास्तिक कहां? ’’

क्या तुम भी तो भय के कारण ही भगवान की खोज नहीं कर रहे हो? क्या तुम्हारी प्रार्थनाएं भी तो भय पर ही आधारित नहीं हैं?

स्मरण रहे कि भय पर प्रतिष्ठित धर्म, सत्य धर्म नहीं है।

मैं भयभीत आस्तिक की बजाय भय-शून्य नास्तिक को ही पसंद करता हूं, क्योंकि भय से भगवान तक पहुंचना असंभव है।
सत्य को पाने की पहली शर्त तो अभय है।
विचार तो करोः क्या भय कभी प्रेम बन सकता है? और यदि भय प्रेम नहीं बनता तो प्रार्थना कैसे बनेगा?
प्रार्थना तो प्रेम की ही पूर्णता है। किंतु, मनुष्य के द्वारा बनाए गए सभी मंदिरों की बुनियादों में भय की ईंटें हैं और भय के द्वारा ग.ढा हुआ भगवान भय की भावनाओं से ही निर्मित है।
इसलिए ही तो हमारा सभी कुछ असत्य हो गया है। क्योंकि जिनका भगवान ही सत्य नहीं है, उनका और क्या सत्य हो सकता है?
और जिनका प्रेम असत्य है, जिनकी प्रार्थना असत्य है, यदि उनके प्राण ही असत्य हो गए हों तो आश्चर्य कैसा?
प्रेम से--केवल प्रेम से--ही प्रार्थना सत्य होती है।
और ज्ञान से--केवल ज्ञान से--ही उसे जाना जाता है जो कि वस्तुतः है। मैं कहता हूं प्रेम करो, क्योंकि प्र्रेम की प्रगा.ढता ही जीवन को प्रार्थना में परिणत कर देती है। मैं कहता हूं स्वयं की प्रज्ञा को जगाओ, क्योंकि उसका जागरण ही परमात्मा का दर्शन है।
प्रेम और प्रज्ञा--जो इन दो बीज-मंत्रों को समझ लेता है, वह सब समझ जाता है, जो समझना चाहिए और जो समझने योग्य है और जो समझा जा सकता है।
परमात्मा का मंदिर कहां है? जब कोई मुझसे पूछता है तो मैं कहता हूं प्रेम में और प्रज्ञा में।
निश्चय ही प्रेम परमात्मा है, प्रज्ञा परमात्मा है।

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