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गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-36)

बोधकथा-छतिसवां 

अहंकार हृदय को पाषाण बना देता है। जीवन में जो भी सत्य है, शिव है, सुंदर है, वह उस सबकी मृत्यु है। इसलिए अहंकार के अतिरिक्त परमात्मा के मार्ग में कोई बाधा नहीं। क्योंकि पाषाण-हृदय प्रेम को कैसे जानेगा? और जहां प्रेम नहीं, वहां परमात्मा कहां? प्रेम के लिए तो सरल और विनम्र हृदय चाहिए--सरल और संवेदनशील। और अहंकार जितना प्रगाढ़ होता है, उतना ही हृदय अपनी सरलता और संवेदनशीलता खो देता है।
‘‘धर्म क्या है? ’’ जब कोई मुझ से पूछता है तो मैं कहता हूंः ‘‘हृदय की सरलता--हृदय की संवेदनशीलता।’’
लेकिन, धर्म के नाम से जो कुछ प्रचलित है, वह तो अहंकार के ही बहुुत से सूक्ष्म और जटिल रूपों की अभिव्यक्ति है।
अहंकार समस्त हिंसा का मूल है।

‘मैं हूं’--यह भाव ही हिंसा है। फिर ‘मैं कुछ हूं’--यह तो अतिहिंसा है।


सत्य को, सौंदर्य को, हिंसक चित्त नहीं पा सकता है। क्योंकि हिंसा स्वयं को कठोर कर देती है। कठोरता का अर्थ है, स्वयं के द्वार का बंद हो जाना। और जो स्वयं में बंद है, वह सर्व से कैसे संबंधित हो सकता है?
एक फकीर था, हसन। बहुत दिन का भूखा, वह एक गांव के बाहर जाकर ठहरा था। उसके कुछ साथी भी साथ थे। वे भी लंबी यात्रा से थके-मांदे और भूखे-प्यासे थे। वे जाकर जैसे ही उस खंडहर में ठहरे थे कि एक अपरिचित व्यक्ति बहुत सा भोजन और फल लेकर आया और बोलाः ‘‘यह क्षुद्र सी भेंट उनके लिए है जो तपस्वी हैं और संन्यासी हैं।’’ उस व्यक्ति के चले जाने के बाद हसन ने अपने साथियों से कहाः ‘‘मित्रो, मुझे आज की रात्रि भी भूखा ही सोना होगा, क्योंकि मैं कहां हूं तपस्वी, कहां हूं संन्यासी? असल में मैं ही कहां हूं? ’’
‘मैं नहीं हूं’--इसे जो जान लेते हैं, वे परमात्मा को जान लेते हैं।
‘मैं नहीं हूं’--इसे जो पा लेते हैं, वे परमात्मा को पा लेते हैं।

 ओशो

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