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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-20)

बोधकथा-बीसवी

कैसा आश्चर्य है कि मनुष्य जन्म को तो स्वीकार करता है, किंतु मृत्यु को नहीं, जबकि जन्म और मृत्यु एक ही घटना के दो छोर हैं। जन्म में ही मृत्यु छिपी है। क्या जन्म मृत्यु का ही प्रारंभ नहीं है? फिर मृत्यु की अस्वीकृति से भय पैदा होता है। भय से पलायन। भयभीत और भागा हुआ चित्त मृत्यु को समझने में असमर्थ हो जाता है। किंतु कोई कितना ही भागे मृत्यु से तो भागना असंभव है। वह तो जन्म में ही उपस्थित हो गई है। मृत्यु से भागा नहीं जा सकता, वरन सब भांति भाग कर अंत में पाया जाता है कि मृत्यु में ही पहुंचना हो गया है।
एक पुरानी कथा है। विष्णु शिव से मिलने कैलाश आए थे। उनके वाहन हैं गरुड। वे विष्णु को उतार कर द्वार पर बाहर ही रुके थे, तभी उनकी दृष्टि तोरण पर बैठे भय से कांपते एक कपोत पर पडी। उन्होंने उससे भय का कारण पूछा। वह कपोत रोने लगा और बोलाः ‘‘अभी-अभी यमराज भीतर गए हैं। वे मुझे देख ठिठके, विस्मयपूर्वक निहारा और फिर मुस्कुरा कर गदा हिलाते हुए आगे बढ गए।
उनकी यह भेद-भरी हंसी मेरी मृत्यु की निश्चित सूचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मेरा अंत निकट है।’’ वह कपोत और जोर-जोर से रोने लगा। गरुड ने कहाः ‘‘छिः छिः!

तू व्यर्थ ही इतना भयातुर है। तू अभी युवा है, इसलिए रोग से मरने की तेरी संभावना नहीं। रहा शत्रु का भय, सो आ मेरी पीठ पर बैठ। निमिष मात्र में तुझे यहां से करोड-करोड योजन दूर लोकालोक पर्वत पर पहुंचा देता हूं, जहां तेरे किसी शत्रु के होने की कोई संभावना ही नहीं है।’’ यह आश्वासन पा कपोत की जान में जान आई और निमिष मात्र में ही गरुड ने उसे ऐसी निर्जन उपत्यका में पहुंचा दिया, जहां वह अजातशत्रु हो विचरण कर सकता था। किंतु गरुड के लौटते ही उनकी भेंट द्वार से निकलते यमराज से हुई। यमराज की दृष्टि तोरण पर थोडी ही देर पहले बैठे कपोत को खोज रही थी। गरुड ने हंस कर कहाः ‘‘महाराज, वह कपोत अब यहां नहीं है। वह तो करोडों योजन दूर लोकालोक पर्वत पर निर्भय हो विचरण कर रहा है। मैं उसे अभी-अभी वहां छोड कर लौटा हूं!’’ यह सुन यमराज खूब हंसने लगे और बोलेः ‘‘तो आखिर वहां पहुंचा ही दिया? मैं यही सोच कर और उसे यहां देख विस्मित हुआ कि वह यहां कैसे? उसे तो थोडे ही क्षणों बाद लोकालोक पर्वत पर मृत्यु के मुंह में जाना है!’’

ओशो

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