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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-45)

बोधकथा-पैत्तालीसवी 

एक दिन स्वर्ग के द्वार पर बडी भीड थी। कुछ पंडित चिल्ला रहे थेः ‘‘जल्दी द्वार खोलो।’’ लेकिन द्वारपालों ने उनसे कहाः ‘‘थोडा ठहरिए। हम आपके संबंध में पता लगा लें कि जो ज्ञान आपने पाया, वह शास्त्रों से पाया था या स्वयं से। क्योंकि शास्त्रों से पाए हुए ज्ञान का यहां कोई मूल्य नहीं है।’’
इतने में ही एक संन्यासी भीड के आगे आया और बोलाः ‘‘द्वार खोलो। मैं स्वर्ग में प्रवेश पाना चाहता हूं। मैंने बहुत उपवास किए और शारीरिक कष्ट सहे। मेरे समय में मुझसे बडा और कौन तपस्वी था? ’’
द्वारपालों ने कहाः ‘‘स्वामी जी, थोडा ठहरिए। हम पता लगा लें कि तपश्चर्या आपने क्यों की थी? क्योंकि जहां कुछ भी पाने की आकांक्षा है, वहां न त्याग है न तप है।’’
और तभी जनता के कुछ सेवक आ गए। वे भी स्वर्ग में प्रवेश चाहते थे।

द्वारपालों ने उनसे कहाः ‘‘आप भी बडी भूल में पड गए हैं। जो सेवा पुरस्कार मांगती है, वह सेवा ही नहीं है। फिर भी हम आपके संबंध में पता लगा लेते हैं।’’


और तभी द्वारपालों की दृष्टि सबसे पीछे अंधेरे में खडे एक व्यक्ति पर गई। उन्होंने भीड से उस व्यक्ति को आगे आने के लिए मार्ग देने को कहा। उस व्यक्ति की आंखों से आंसू गिर रहे थे। उसने कहाः ‘‘निश्चय ही भूल से मुझे यहां ले आया गया है। कहां मैं और कहां स्वर्ग? मैं हूं निपट अज्ञानी। शास्त्रों को बिल्कुल नहीं जानता हूं। संन्यास से बिल्कुल अपरिचित हूं, क्योंकि मेरा कुछ था ही नहीं तो मैं त्याग क्या करता? और सेवा? सेवा मैंने कभी नहीं की। उतनी मेरी सामथ्र्य ही कहां? प्रेम जरूर मेरे हृदय से बहता था। लेकिन प्रेम तो स्वर्ग-प्रवेश की कोई योग्यता नहीं है। फिर मैं स्वयं भी स्वर्ग में प्रवेश नहीं करना चाहता हूं। कृपा करें और बतावें कि नरक का द्वार कहां है। शायद, वहीं मेरा स्थान भी है और वहीं मेरी आवश्यकता भी है।’’ उसके यह कहते ही द्वारपालों ने स्वर्ग के द्वार खोल दिए और कहाः ‘‘मत्र्यों में आप धन्य हैं। आपने अमृतत्व की उपलब्धि कर ली। स्वर्ग के द्वार आपके लिए सदा ही खुले हैं। आपका स्वागत है।’’
क्या जीवन में अंतिम होना ही परमात्मा की प्रार्थना नहीं है?
और क्या जीवन में अंतिम होना ही मोक्ष नहीं है?

ओशो

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