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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-19)

बोधकथा-उन्निसवी 

एक पूर्णिमा की बात है। आधी रात थी और मैं मित्रों से घिरा एक झील में नौका पर था। चारों ओर चांदनी में नहाई हुई पहाडियां थीं। सब कुछ ऐसा सुंदर था कि विश्वास योग्य नहीं था। लगता था जैसे किसी मधुर स्वप्न में हों। नौका खेना छोड कर हम झील के बीच में ही ठहर गए थे। लेकिन मेरे मित्र वहां नहीं थे। वे ही अपने साथ मुझे वहां लाए थे, लेकिन वे स्वयं न मालूम कहां पीछे रह गए थे या आगे निकल गए थे। मैं उनसे घिरा हुआ भी उस झील पर अकेला था। क्योंकि वे न मालूम किन-किन बातों में खोए हुए थे। बातें या तो अतीत की थीं, जो अब नहीं था; या भविष्य की थीं, जो अभी नहीं था। लेकिन उनकी चेतना वहां नहीं थी, जहां वे थे। उस अतल झील और उस स्वप्निल रात्रि के प्रति उनकी उपस्थिति नहीं थी। जैसे वर्तमान उनके लिए था ही नहीं। और तभी उन्होंने पूछाः ‘‘क्या परमात्मा है? ’’

मैं उन्हें क्या उत्तर दूं, इस सोच में पड गया। क्योंकि, जिनका वर्तमान की जीवंतता से कोई संपर्क नहीं है, उनका परमात्मा से संबंध भी क्या और कैसे हो सकता है? जीवन ही तो परमात्मा है। जीवन की अनुभूति ही तो परमात्मा की अनुभूति है। फिर भी मैंने उनसे कहाः ‘‘मिंत्र, क्या यह झील है? क्या यह चांद है? क्या यह रात्रि है? और क्या हम इस पूरे चांद की अदभुत रात्रि में इस झील पर उपस्थित हैं? ’’


निश्चय ही वे चैंक गए थे और बोले थेः ‘‘हां! इसमें शक का सवाल ही क्या है? ’’ लेकिन मैंने कहा थाः ‘‘नहीं, संदेह ही नहीं, मुझे तो विश्वास है कि आप यहां नहीं हैं। फिर से सोचें। शारीरिक अर्थों में जो उपस्थित है, वह जगत में पदार्थ-सत्ता का ही संवेदन पा सकता है, लेकिन जो अपनी समग्र चेतना से उपस्थित है, उसे तो अभी और यहीं परमात्मा की अनुभूति हो सकती है। परमात्मा है, लेकिन केवल उसके लिए जो उसके प्रति उपस्थित है, ‘जो है’।’’
फिर एक घटना मुझे स्मरण आई और उसे मैंने उनसे कहाः
एक दफ्तर के बाहर कुछ व्यक्ति बैठे हुए थे। बेतार के यंत्र-संचालक के लिए उनमें से एक का चुनाव होना था। वे सभी आवेदक और उम्मीदवार जोर-जोर से व्यर्थ की चर्चाओं में डूबे हुए थे। तभी ध्वनिविस्तार पर धीरे-धीरे खट-खट की आवाजें आनी शुरू हुईं। लेकिन वे सब तो अपनी बातों में इतने व्यस्त और बेहोश थे कि उनका उन धीमे से संकेतों की ओर ध्यान जाना असंभव ही था। लेकिन एक युवक उन सबसे दूर एक कोने में अकेला ही बैठा था। वह एकदम से उठा और दफ्तर के भीतर चला गया। शेष सबने तो उसे उठते या दफ्तर के भीतर जाते भी नहीं देखा था। उसकी ओर उनका ध्यान तो तब गया था, जब वह मुस्कुराता हुआ नियुक्ति पत्र हाथ में लिए थोडी ही देर बाद दफ्तर से बाहर आया था। स्वभावतः ही वे सब इससे अवाक रह गए थे और क्रोध में उन्होंने उस युवक से पूछा थाः ‘‘महाशय, आप सबसे पहले भीतर कैसे गए? हम सब तो आपसे बहुत पहले से यहां मौजूद हैं! आप तो पंक्ति में अंतिम थे। और बिना हम सबका विचार किए आपकी नियुक्ति भी कैसे हो सकती है? यह कैसी धांधली है? यह कैसा अन्याय है? ’’ इस पर वह युवक हंसने लगा था और बोला थाः ‘‘मित्रो, मेरा इसमें क्या दोष है? आपमें से किसी की भी नियुक्ति हो सकती थी और आप सब पर विचार करने के बाद ही मेरी नियुक्ति की गई है! क्या आपने ध्वनि-विस्तारक पर भेजे गए संदेश को नहीं सुना था? ’’ वे सभी एक साथ ही बोले थेः ‘‘कैसा संदेश? कौन सा संदेश? ’’ तब उस युवक ने उनसे कहा थाः ‘‘क्या आप बेतार की संकेत-भाषा से परिचित नहीं हैं? ध्वनिविस्तारक पर जो खट-खट की आवाजें आ रही थीं, उनके द्वारा अत्यंत स्पष्ट रूप से कहा गया थाः मैं एक ऐसे व्यक्ति को चाहता हूं, जो हमेशा सावधान और सचेत हो। जो व्यक्ति सबसे पहले इस संदेश को सुन कर दफ्तर में आएगा, उसके लिए, नियुक्ति-पत्र तैयार कर रखा गया है।’’
परमात्मा के संदेशों की भी प्रतिक्षण वर्षा हो रही है। प्रकृति उसकी संकेत-भाषा है। मौन होकर, सावधान होकर जो व्यक्ति उन संकेतों के प्रति जागता है, वह उसके द्वारा निश्चय ही भीतर बुला लिया जाता है।

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