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शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-52)

बोधकथा-बाववनवी 

बृहस्पति का पुत्र कच संपूर्ण शास्त्रों का अध्ययन कर पितृगृह लौटा था। जो भी जाना जा सकता था, वह जान कर आया था। लेकिन चित्त उसका अशांत था। वासनाएं उसे उद्विग्न किए थीं। अहंता के उत्ताप से वह व्याकुल था। इनसे मुक्त होने ही को तो वह ज्ञान की खोज में गया था। लेकिन अशांति जहां की तहां थी और ऊपर से ज्ञान का बोझ और बढ़ गया था। यही होता ही है। शास्त्र-ज्ञान से शांति के जन्म का संबंध ही कौन सा है? शास्त्र और शांति का नाता ही कोई नहीं है। उल्टे वैसा ज्ञान अहंता को और प्रगाढ़ कर अशांति के लिए अधखुले द्वार पूरे ही खोल देता है। लेकिन जिससे शांति ही उपलब्ध न हो, क्या उसे ज्ञान कहना भी उचित है? ज्ञान तो शांत और निर्भार करता है और जो अशांत और भारग्रस्त करता हो, क्या वह भी ज्ञान है? अज्ञान दुख है और यदि ज्ञान भी दुख है तो फिर आनंद कहां है? ज्ञान ही शांति नहीं देगा तब शांति पानी असंभव ही है। सत्य के द्वार पर भी यदि शांति न मिली तो शांति मिलेगी कहां? फिर क्या शास्त्रों में सत्य नहीं है?

कच के मन में इन्हीं प्रश्नों के झंझावात उठ रहे थे। वह बहुत चिंतित था। उसने अपने पिता से कहाः ‘‘मैं संपूर्ण शास्त्र पढ़ आया हूं। जो भी गुरु से सीखा जा सकता था, वह सीख आया हूं। लेकिन उससे शांति नहीं मिली। बहुत दुखी और अशांत हूं। अब आप ही मुझे शांति का मार्ग बतावें। मैं शांति पाने के लिए क्या करूं? ’’ उसका निरीक्षण सम्यक ही था। शांति न शास्त्र से मिलती है, न मिल सकती है। न ही कोई गुरु ही उसे दे सकता है। वह ऐसी वस्तु ही नहीं है कि उसे बाहर से पाया जा सके। वस्तुतः उसके आविर्भाव का अन्य के द्वारा कोई उपाय ही नहीं है।
बृहस्पति ने कच से कहाः ‘‘शांति त्याग से मिलती है।’’
कच की जिज्ञासा कोरा कुतूहल-मात्र न थी। वह तो उसके प्राणों की निगूढ़तम अभीप्सा थी। उसने सब कुछ त्याग दिया। वह त्याग के ही पीछे हाथ धोकर पड गया। उसने मात्र लंगोटी पर रह कर वर्षों व्यतीत किए। उपवासों और भांति-भांति के शरीर-दमन से तप किया। वर्ष पर वर्ष बीतते गए, लेकिन शांति के आगमन की कोई पगध्वनियां उसे सुनाई नहीं पडीं। तब उसने लंगोटी भी छोड दी। वह अब पूर्ण नग्न ही रहने लगा। उसने सोचा कि शायद लंगोटी का परिग्रह ही बाधा बन रहा है। अपरिग्रह तो उसका पूरा हो गया था, लेकिन शांति फिर भी अपरिचित ही थी। अंततः उसने अंतिम तैयारी की। सोचा कि शायद देह ही बाधा हो रही है। यह भी तो परिग्रह ही है। वैसे तो तप-हठ से देह सूख कर नाम को ही शेष रह गई थी। फिर भी शेष तो थी ही। उसने उसे भी अशेष करने का निर्णय किया। चिता जला कर वह शरीर त्यागने को तैयार हो गया। किसी भी मूल्य पर हो, शांति तो उसे पानी ही थी। उसे पाने के लिए वह मृत्यु को वरण करने के लिए भी कटिबद्ध था। चिता जब धू-धू कर जलने लगी तो वह पिता से आज्ञा ले उसमें कूदने को तैयार हुआ। लेकिन बृहस्पति हंसे और उसे रोक कर कहाः ‘‘पागल! देहत्याग से क्या होगा? जब तक वासनाओं से भरा चित्त है, उसके प्रति अहंकार और ममता है, तब तक देह भस्म करने से भी कुछ नहीं हो सकता है। वासना सदा ही नये शरीर ग्रहण कर लेती है और अहंकार नये आवास खोज लेता है। इसीलिए देह-त्याग, त्याग ही नहीं है। चित्त का त्याग ही त्याग है। चित्त-त्याग में ही शांति है, क्योंकि चित्त से मुक्ति ही शांति है।’’
उस क्षण कच तो अवाक ही रह गया था। उसने किंकत्र्तव्यविमूढ़ होकर पूछा थाः ‘‘लेकिन, चित्त का त्याग कैसे संभव है? ’’ यही प्रश्न आप मुझसे भी पूछते हैं? जो भी शांति की खोज में है, उसकी मूलभूत समस्या यही है। जो भी सत्य या मुक्ति के अनुसंधान में है, उसकी यही तो जिज्ञासा है। यह चित्त ही तो बाधा है। यह चित्त ही तो अशांति है। यह चित्त क्या है? क्या कुछ होने की आकांक्षा ही चित्त नहीं है। एक क्षण के लिए कृपा कर नींद से जागें और इस सत्य को देखें। क्या होने की वासना, होने की दौड, होने की तृष्णा ही चित्त नहीं है? यदि कुछ होने की तृष्णा न हो तो चित्त कहां है? एक क्षण को भी यदि मैं वहां हूं, वही हूं जो मैं हूं और उससे अन्यथा होने की कोई कामना मुझ में नहीं है, तो चित्त कहां है? और यदि यह सत्य है तो फिर स्वयं चित्त ही शांति की या सत्य की खोज कैसे कर सकता है? शांति की खोज में तो वही है। वह वासना भी तो उसी की है। यह कौन है जो शांत होना चाहता है? यह कौन है जो सत्य को पाना चाहता है? यह कौन है जो मोक्ष का अभीप्सु है? क्या यह सब चित्त ही नहीं है? और यदि यह सब चित्त ही है, तो फिर चित्त से मुक्ति का उपाय क्या है? वस्तुतः चित्त का त्याग, स्वयं चित्त के ही किसी उपाय या प्रयास या साधना से नहीं हो सकता है, क्योंकि चित्त का कोई भी उपक्रम अंततः चित्त को ही समर्थ और सशक्त करता है और कर सकता है। उसकी कोई भी क्रिया उसकी ही किसी वासना का अनुकरण और अनुसंधान है। और परिणामतः यह स्वाभाविक ही है कि वह उसकी किसी भी क्रिया से स्वयं ही परिपुष्ट और सुदृढ़ हो। इसीलिए चित्त की क्रिया से ही चित्त से मुक्त होना असंभव है। चित्त स्वयं अपनी ही मृत्यु कैसे बन सकता है? संसार की कामना में भी वही जीता है। मोक्ष की कामना में भी वही प्राण पाता है। धन में भी वही है। धर्म में भी वही है। संसार से असफल हो, निराश हो, ऊब अनुभव कर वही चित्त शांति चाहने लगता है, सत्य चाहने लगता है जो संसार को चाहता था, सुख को चाहता था। चित्त वही है क्योंकि मूलतः चाह वही है। जहां चाह है, वहां चित्त है। चाह ही भोग है। चाह ही त्याग है। इस चाह से ही समस्त त्यागों और संन्यासों का जन्म होता है। वे सब भोगों की ही प्रतिक्रियाएं हैं। और जहां प्रतिक्रिया है, वहां मुक्ति कहां? जो क्रिया जिसकी प्रतिक्रिया है, वह उससे ही बंधी है, उससे ही जन्मी है। वह उसका ही रूपांतरण है। वह वही है। त्याग भोग ही है। संन्यास संसार ही है। भोग हो चाहे त्याग, संसार हो चाहे संन्यास, चित्त का मौलिक रूप, चित्त का केंद्रीय संगठन दोनों में ही अक्षुण्ण बना रहता है। चित्त का प्राण चाह है। कुछ होने, कुछ पाने, कहीं पहुंचने की तृष्णा ही उसकी आधारशिला है। इसीलिए न भोग में शांति है, न त्याग में शांति है। शांति तो वहां है और केवल वहां है, जहां चित्त अनुपस्थित है। चित्त की उपस्थिति अशांति है। चित्त की अनुपस्थिति शांति है। चित्त जहां नहीं है, वहीं वह है जो वस्तुतः है। लेकिन आप पूछते हैं ‘यह हो कैसे? ’ मित्र, यह न पूछें। क्योंकि यह चित्त ही पूछ रहा है। ‘कैसे’ की खोज उसी की है। विधियों और उपायों की खोज उसी की है। कुछ होने की खोज उसी की है। वह सदा ही पूछता हैः कैसे? यह न पूछें, बल्कि देखें कि चित्त के मार्ग क्या हैं। वह किन-किन मार्गों से संगठित होता है। वह किस-किस भांति संवर्धित होता है, वह कैसे-कैसे सशक्त होता है। निश्चय ही उसके मार्ग अतिसूक्ष्म हैं। इन मार्गों के प्रति जागें। करें कुछ नहीं, बस जागें। चित्त के रूपों और रूपांतरों के प्रति सावधान और सचेत हों। चित्त को समझें। उसे उसकी समग्रता में पहचानें। उसकी क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं, उसके रागों-द्वेषों, उसकी आसक्तियों-अनासक्तियों के प्रति जागरूक हों। क्षण-क्षण उसकी स्मृति रहे। वह भूले नहीं, विस्मृत न हो। सहज ही उस पर ध्यान हो। सहज ही उस पर दृष्टि हो। बिना किसी तनाव और एकाग्रता के, पूर्ण विश्रांतिपूर्वक, उससे परिचय प्रगाढ़ हो। यह परिचय, ऐसा बोध ही, एक क्रांति लाता है। वस्तुतः यह बोध ही क्रांति है। चित्त को जानते-जानते ही चित्त विलीन हो जाता है। उसे पहचानते-पहचानते ही वह नहीं पाया जाता है। क्योंकि बोध या होश वासना नहीं है। वह कुछ होने या न होने की दौड नहीं है। वह तो उसके प्रति जागरण है, जो है, जो हो रहा है। वासना सदा भविष्य के लिए है। बोध सदा वर्तमान में है। इसीलिए बोध का आगमन ही वासना का विसर्जन बन जाता है। चित्त का ज्ञान ही चित्त से मुक्ति है। स्मरण रहे कि यह चित्त की मुक्ति नहीं, चित्त से ही मुक्ति है। और मुक्ति के इस निर्बंध आलोक में ही वह जाना जाता है, जो परमात्मा है।
 ओशो

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