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शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-59)

बोधकथा-उन्नसठवी 

मैं एक 84 वर्ष के बू.ढे आदमी की मरणशय्या के पास बैठा था। जितनी बीमारियां एक ही साथ एक व्यक्ति को होनी संभव हैं, सभी उन्हें थीं। एक लंबे अर्से से वे असह्य पीडा झेल रहे थे। अंत में आंखें भी चली गई थीं। बीच-बीच में मूच्र्छा भी आ जाती थी। बिस्तर से तो अनेक वर्षों से नहीं उठे थे। दुख ही दुख था। लेकिन फिर भी वे जीना चाहते थे। ऐसी स्थिति में भी जीना चाहते थे। मृत्यु उन्हें अभी भी स्वीकार नहीं थी।
जीवन चाहे साक्षात मृत्यु ही हो, फिर भी मृत्यु को कोई स्वीकार नहीं करता है। जीवन का मोह इतना अंधा और अपूर्ण क्यों है? यह जीवेषणा क्या-क्या सहने को तैयार नहीं कर देती है? मृत्यु में ऐसा क्या भय है? और जिस मृत्यु को मनुष्य जानता ही नहीं, उसमें भय भी कैसे हो सकता है? भय तो ज्ञात का ही हो सकता है। अज्ञात का भय कैसा? उसे तो जानने की जिज्ञासा ही हो सकती है।

उन वृद्ध को जो भी देखने जाता था, उसके सामने ही रोने लगते थे। शिकायत ही शिकायत। मृत्यु-क्षण तक भी शिकायत नहीं मरती है? शायद, मृत्यु के बाद भी वे साथ देती हैं!


डाक्टरों, वैद्यों, हकीमों, सभी से वे ऊब चुके थे, लेकिन अभी निराश नहीं हुए थे। किसी न किसी चमत्कार के बल पर आगे भी अभी जीने की उन्हें आशा थी। मैंने एकांत देख कर उनसे पूछाः ‘‘क्या आप अब भी जीना चाहते हैं? ’’
निश्चय ही वे चैंके थे। सोचा होगाः यह कैसी अपशकुन की बात मैंने पूछी। फिर बडे कष्ट से बोले थेः ‘‘अब तो परमात्मा से एक ही प्रार्थना है कि उठा ले! लेकिन जो वे कह रहे थे, उसकी असत्यता उनके चेहरे के कण-कण से प्रकट होती थी।

एक कथा मुझे स्मरण आई थी।
एक लकडहारा था। दीन, दरिद्र, दुखी और वृद्ध। पेट भर पाने योग्य लकडियां भी वह अब नहीं काट पाता था। उसकी जीवन-शक्ति रोज-रोज क्षीण होती जाती थी। संसार में आगे-पीछे भी उसका कोई नहीं था। जंगल में लकडियां काट कर एक दिन वह उन्हें बांध रहा था। तभी उसके मुंह से निकलाः ‘‘इस वृद्धावस्था के कष्टपूर्ण जीवन से छुटकारा दिलाने के लिए मौत भी मुझे नहीं आती!’’

ओशो 

(बोध कथा समाप्त) 

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