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बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-31)

बोधकथा-इक्कतिसवी

एक करोडपति ने बहुत से मंदिर बनवाए हैं। मेरे परिचित हैं और बडी आशा से उन्होंने धर्मों में पूंजी लगाई है। बडे कुशल व्यवसायी हैं और एक के दस कमाने के अभ्यस्त हैं। धर्म के धंधे में भी वे किसी से पीछे नहीं रहना चाहते। असल में पीछे रहने की उन्हें आदत ही नहीं। धन में पीछे नहीं रहे, तो धर्म में पीछे कैसे रहें? इस लोक में तो आगे और ऊपर हैं ही, परलोक की व्यवस्था भी कर ली है। स्वर्ग निश्चित है, इसीलिए वे भी निशिंचत हैं। धन से धरती ही नहीं, स्वर्ग भी खरीदा जाता है। इसीलिए ही तो धन की इतनी महिमा है। धन धर्म से भी ऊपर है। क्योंकि धर्म से धन तो नहीं, लेकिन धन से धर्म जरूर ही खरीदा जा सकता है। और जब धन से धर्म मिल सकता है, तो अधर्म से धन इकट्ठा करने का भय भी मिट जाता है। वैसे बिना अधर्म के धन इकट्ठा ही नहीं होता है। धन मूलतः चोरी है। धन शोषित रक्त ही है। लेकिन धर्म की गंगा में सब पाप धुल जाते हैं। धर्म की गंगा वहीं बहने लगती है, जहां धन के भगीरथ इशारा करते हैं। इस भांति धर्म ही अधर्म का आधार बन जाता है। लेकिन धर्म अधर्म का आधार कैसे बन सकता है? निश्चय ही ऐसा धर्म, धर्म नहीं है। धन से जो खरीदा जा सके, वह धर्म नहीं है।

मैंने सुना हैः
एक प्रभात किसी धनपति ने स्वर्ग का द्वार खटखटाया।
चित्रगुप्त ने पूछाः ‘‘बंधु, कौन हो? ’’
‘‘मैं! मुझे नहीं जानते? क्या यहां तक मेरे स्वर्गवासी होने की खबर अभी तक नहीं पहुंची है? ’’
चित्रगुप्त ने पूछाः ‘‘आप चाहते क्या हैं? ’’
उस धनपति ने क्रोध से कहाः ‘‘क्या यह भी कोई पूछने की बात है? मैं स्वर्ग में प्रवेश चाहता हूं।’’ और यह कह कर उसने रुपयों का एक बंडल अपने कोट से निकाल कर चित्रगुप्त को देना चाहा। चित्रगुप्त यह देख खूब हंसे और कहाः ‘‘बंधु, पृथ्वी की आदतें यहां काम नहीं दे सकती हैं। और न वहां के सिक्के ही यहां चलते हैं। कृपा कर अपने रुपये अपने पास ही वापस रख लें।’’ किंतु, इससे तो धनपति एकदम दरिद्र और दीन हो गया। जिस शक्ति के बल पर गर्मी थी, वही निसत्व सिद्ध हो गई थी।
चित्रगुप्त ने पूछाः ‘‘स्वर्ग-प्रवेश के योग्य क्या काम किया है आपने? ’’
धनपति ने बहुत खोज-बीन कर कहाः ‘‘एक बुढ़िया को दस पैसे दान में दिए थे।’’
चित्रगुप्त ने तुरंत अपने सहकारी से पूछाः ‘‘क्या यह बात सत्य है? ’’
सहकारी ने कागजों को देखभाल कर कहाः ‘‘जी हां, यह बात सच है।’’
चित्रगुप्त ने धनपति से पुनः पूछाः ‘‘इसके अलावा और आपने क्या किया है? ’’
धनपति ने फिर याद करके कहाः ‘‘एक अनाथ लडके को पांच पैसे दिए थे।’’
सहकारी ने कागजातों में खोजा तो यह बात भी सच थी।
चित्रगुप्त ने कहाः ‘‘और कुछ? ’’
धनपति ने कहाः ‘‘बस, यही दो बातें याद आ रही हैं।’’
चित्रगुप्त ने अपने सहकारी से पूछाः ‘‘क्या किया जाए? ’’
सहकारी ने कहाः ‘‘पंद्रह पैसे वापस कर दिए जाएं और नरक भेज दिया जाए। पंद्रह पैसे में तो स्वर्ग बहुत सस्ता है!’’
लेकिन क्या और ज्यादा पैसों से स्वर्ग मिल सकता है? पैसा तो पैसा ही है। एक के ऊपर एक रखने से चाहे ढेर बडा हो जाए, लेकिन पैसा तो फिर भी पैसा ही है।
वस्तुतः धर्म को किसी भी भांति खरीदा ही नहीं जा सकता है। न थोडे धन से, न ज्यादा धन से। क्योंकि धन का सिक्का धर्म के जगत में नहीं चलता है। धन के त्याग से भी धर्म को नहीं खरीदा जा सकता है। क्योंकि धन के त्याग से खरीदना भी धन से ही खरीदना है। धर्म के मूल्यों में धन का कोई भी मूल्य नहीं है। धन की भाषा ही धर्म के लिए असंगत है। जो भी खरीदा जा सकता है, वह स्वरूप नहीं है। स्वरूप ही धर्म है और स्वरूप ही स्वर्ग है। वह स्वयं के बाहर नहीं है। वह तो स्वयं में सदा ही उपस्थित है। धर्म में प्रवेश नहीं करना है, वरन जाग कर जानना है कि मैं तो सदा से ही धर्म में हूं। मछली जैसे सागर में है वैसे ही हम धर्म में हैं। लेकिन नींद में मछली सागर में होते हुए भी सागर के बाहर हो जाती है। यही हमारी दशा है। संसार में होना स्वप्न में होना है। भोग और त्याग सब स्वप्न हैं। महल और मंदिर सब स्वप्न हैं। न तो स्वप्न में बनाए महल और न मंदिर ही जागरण को ला सकते हैं। जागरण का मार्ग और ही है। वह तो चेतना को दृश्य से द्रष्टा की ओर लाने में निहित है। ध्यान दृश्य में जितना लीन होता है, निद्रा उतनी ही गहरी हो जाती है। और ध्यान जितना द्रष्टा की ओर गतिमय होता है, जागरण उतना ही निकट आता है। ध्यान जब अपनी समग्रता में द्रष्टा पर आ जाता है, तब दृश्य और द्रष्टा सब विलीन हो जाते हैं और जो समग्रता शेष रह जाती है, वही धर्म है। वही सत्य है। वही मोक्ष है।

ओशो

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