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सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-07)

बोधकथा-सातवी 

धर्म को मत खोजो। खोजो स्वयं को। धर्म तो फिर अपने आप मिल जाता है।
धर्म क्या शास्त्रों में है?
नहीं। धर्म शास्त्रों में नहीं है। शास्त्र तो हैं मृत और धर्म है जीवंत स्वरूप। वह शास्त्रों में कैसे हो सकता है?
धर्म क्या संप्रदायों में है?
नहीं। धर्म संप्रदायों में भी नहीं है। संप्रदाय हैं संगठन, और धर्म तो है निज की अत्यंत निजता। उसके लिए स्वयं के बाहर नहीं, भीतर चलना आवश्यक है।

धर्म स्वयं की श्वास-श्वास में है। बस उसे उघाडने की दृष्टि नहीं है। धर्म स्वयं के रक्त की बूंद में है। बस उसे खोजने का साहस और संकल्प नहीं है। धर्म तो सूर्य की भांति स्पष्ट है, लेकिन आंखें तो खोलो!
धर्म तो जीवन है, लेकिन शरीर की कब्रों से ऊपर तो उठो!


धर्म जडता नहीं है। इसलिए सोओ नहीं, जागो और चलो। जो सोता है, वह खोता है। जो चलता है, वह पहुंचता है। जो जागता है, वह पाता है।
एक राजा संसार के सर्वोच्च धर्म की खोज में था। वह युवा से बू.ढा हो आया था, लेकिन उसकी खोज पूरी नहीं हो पाई थी। वह खोज पूरी होती भी कैसे? जीवन है अल्प और ऐसी खोज है मू.ढतापूर्ण। जीवन अनंत हो तो भी सर्वोच्च धर्म नहीं खोजा जा सकता है, क्योंकि वस्तुतः धर्म तो बस धर्म है--वह तो एक ही है, इसीलिए वहां नीचा और ऊंचा, निकृष्ट और श्रेष्ठ, क्या और कैसे हो सकता है? धर्म चूंकि बहुत नहीं हैं, इसीलिए सर्वोच्च की खोज भी सार्थक नहीं है। जहां अनेक नहीं हैं, एक ही है, वहां तुलना के लिए और तौलने के लिए न अवकाश ही है, न उपाय ही है। वह राजा खोजता तो सर्वोच्च धर्म था और जीता था निकृष्टतम अधर्म में। जब सत्य-धर्म ही नहीं मिल रहा था तो धर्म की दिशा में जीवन को ले जाने का प्रश्न ही नहीं था! अंधेरे और अज्ञात में कहीं कोई जाता है? अधर्म के संबंध में तो कोई नहीं पूछता है, लेकिन धर्म के संबंध में मुश्किल से ही कभी कोई होता है जो यह न पूछता हो। अधर्म के संबंध में कोई विचार और खोज भी नहीं करता। उसे तो जीया जाता है और धर्म को खोजा जाता है। शायद यह तथाकथित खोज, अधर्म में जीने और धर्म में जीने से बचने की ही विधि है।
उस राजा को यह कोई कहता भी नहीं था। अलग-अलग धर्मों के पंडित, साधु और दार्शनिक आते थे। वे एक दूसरे से लडते थे। एक दूसरे के दोष दिखलाते थे। एक दूसरे को भ्रांति और अज्ञान में सिद्ध करते थे। राजा इससे प्रसन्न ही होता था। इस भांति उसके समक्ष धर्म ही भ्रांत और अज्ञान हो जाता था और अधर्म में जीने के लिए और सहारे मिल जाते थे। उस राजा को धर्म के पक्ष में जीतना कठिन था, क्योंकि जितने भी पक्ष थे, वे स्वयं ही धर्म के पक्ष में नहीं थे। पक्ष, पंथ और धार्मिक संप्रदाय स्वयं के पक्ष में होते हैं। धर्म से उनका कोई भी प्रयोजन नहीं होता, नहीं हो सकता है। जो सब पक्ष छोडता है, वही धर्म का हो सकता है। निष्पक्ष हुए बिना धार्मिक होना असंभव है। धर्म-संप्रदाय अंततः धर्म के शत्रु और अधर्म के मित्र सिद्ध होते हैं।
लेकिन राजा ने खोज बंद नहीं की। वह तो उसके लिए एक खेल ही बन गई थी। फिर अधर्म भी दुख, चिंता और पीडा लाने लगा। मृत्यु करीब आने लगी। जीवन की फसल काटने के दिन आ गए तो वह बहुत उद्विग्न हो उठा। लेकिन, सर्वोच्च और आत्यंतिक रूप से निर्दोष एवं पूर्ण धर्म के अतिरिक्त वह कुछ भी मानने को तैयार न था। वह बहुत हठी था और जब तक पूर्ण धर्म स्पष्ट न हो, तब तक जीवन का एक चरण भी उस ओर न रखने के लिए भी वह कटिबद्ध था। वर्ष पर वर्ष बीतते जाते थे, और वह अपने ही हाथों स्वयं को और कीचड में फंसाता जाता था। फिर तो अंततः उसकी मृत्यु भी निकट आ गई थी।
एक दिन एक युवा भिखारी उसके द्वार पर भीख मांगने आया। राजा को अत्यंत चिंतित, उदास और खिन्नमना देख उसने कारण पूछा। राजा ने उससे कहाः ‘‘जान कर भी तुम क्या करोगे? बडे-बडे पंडित, साधु और संत भी कुछ नहीं कर सके हैं।’’ वह भिखारी बोलाः ‘‘हो सकता है, उनका बडा होना ही उनके लिए बाधा बन गया हो? फिर पंडित तो कभी भी कुछ नहीं कर सके हैं। वस्त्रों से पहचाने जानेवाले साधु और संत भी क्या साधु और संत होते हैं? ’’ राजा ने उस भिखारी को गौर से देखा। उसकी आंखों में कुछ था जो भिखारी की नहीं, सम्राटों की ही आंखों में होता है। इसी बीच वह भिखारी पुनः बोलाः ‘‘मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता हूं। असल में मैं हूं ही नहीं; लेकिन जो है, वह बहुत कुछ कर सकता है।’’ उसकी बातें निश्चित ही अदभुत थीं। राजा के पास आए हजारों समझाने वालों से वह एकदम ही भिन्न था। राजा सोचने लगा कि ऐसे दीन-हीन वेष में यह कौन है? फिर भी प्रकटतः उसने कहाः ‘‘मैं सर्वोच्च धर्म की खोज कर जीवन को धर्ममय बनाना चाहता था, लेकिन यह नहीं हो सका और फलतः अब अंत समय में मैं बहुत दुखी हूं। कौन सा धर्म सर्वोच्च है? ’’ वह भिखारी खूब हंसने लगा और बोलाः ‘‘राजन! आपने गाडी के पीछे बैल बांधने चाहे, इससे ही आप दुखी हैं। धर्म की खोज से जीवन धर्म नहीं बनता, जीवन के धर्म बनने से ही धर्म की खोज होती है। और यह भी कैसा पागलपन कि आपने सर्वोच्च धर्म खोजना चाहा? अरे धर्म की खोज ही काफी थी। सर्वोच्च धर्म? यह तो मैंने कभी सुना नहीं। ये तो शब्द ही असंगत हैं। धर्म में फिर और कुछ जोडने को नहीं रह जाता है। वृत्त ही होता है, पूर्ण वृत्त नहीं। क्योंकि जो पूर्णवृत्त नहीं है, वह वृत्त ही नहीं है। वृत्त का होना ही उसकी पूर्णता भी है। धर्म का होना ही उसकी निरपेक्ष, निर्दोष सत्यता भी है। और जो सर्वोच्च धर्म को सिद्ध करने आपके पास आते रहे, वे भी या तो आपसे कम पागल नहीं थे, या फिर पाखंडी थे। जो जानता है, वह धर्मों को नहीं, धर्म को ही जानता है।’’
राजा ने विह्वल होकर उस भिखारी के पैर पकड लिए। उस भिखारी ने कहाः ‘‘मेरे पैर छोडें। मेरे पैरों को न बांधें। मैं तो आपके भी पैरों को मुक्त करने आया हूं। राजधानी के बाहर नदी के पार चलें। वहीं मैं धर्म की ओर इंगित कर सकता हूं।’’ वे दोनों नदी-तट पर गए। राजधानी की श्रेष्ठतम नावें बुलाई गईं। लेकिन वह भिखारी प्रत्येक नाव में कोई न कोई दोष बता देता था। अंततः राजा परेशान हो गया। उसने भिखारी से कहाः ‘‘महात्मन्! हमें केवल एक छोटी सी नदी पार करनी है। इसे तो तैर कर भी पार किया जा सकता है। छोडें इन नावों को और चलें, तैर कर ही पार चले चलें। व्यर्थ ही विलंब क्यों कर रहे हैं? ’’
वह भिखारी जैसे इसकी ही प्रतीक्षा में था। उसने राजा से कहाः ‘‘राजन! यही तो मैं कहना चाहता हूं। धर्म-पंथों की नावों के पीछे क्यों पडे हैं? क्या उचित नहीं है कि परमात्मा की ओर स्वयं ही तैर चलें? वस्तुतः धर्म की कोई नाव नहीं। नावों के नाम से सब मल्लाहों के व्यवसाय हैं। स्वयं तैरना ही एकमात्र मार्ग है। सत्य स्वयं ही पाया जाता है। कोई और उसे नहीं दे सकता। सत्य के सागर में स्वयं ही तैरना है। कोई और सहारा नहीं है। जो सहारे खोजते हैं, वे तट पर ही डूब जाते हैं। और जो स्वयं तैरने का साहस करते हैं, वे डूब कर भी पहुंच जाते हैं।’’
 ओशो

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