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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-28)

बोधकथा-अट्ठाईसवी

एक युवक आए थे। वे संन्यासी होने की तैयारी में हैं। सब भांति तैयार होकर जल्दी ही वे संन्यास लेंगे। बहुत प्रसन्न थे, क्योंकि तैयारी करीब-करीब पूरी ही हो रही है। उनकी बातें सुनीं तो मैं हंसने लगा और उनसे कहाः ‘‘संसार की तैयारियां मैंने सुनी थीं। यह संन्यास की तैयारी क्या बला है? क्या संन्यास के लिए भी कोई तैयारी और आयोजना करनी है? और ऐसा सुनियोजित संन्यास भी क्या संन्यास होगा? क्या वह भी संसारी मन का ही विस्तार नहीं है? क्या संसार और संन्यास एक ही मन के आयाम नहीं हैं? संसारी मन संन्यासी नहीं हो सकता है। संसार से संन्यास की ओर संपरिवर्तन, चित्त की आमूल क्रांति के बिना नहीं हो सकता। यह आमूल क्रांति ही संन्यास है। संन्यास न तो वेष-परिवर्तन है, न नाम-परिवर्तन, न गृह-परिवर्तन। वह तो है दृष्टि-परिवर्तन। वह तो है स्वयं के चित्त का समग्र परिवर्तन। उस क्रांति के लिए विचार की वे सरणियां काम नहीं देती हैं, जो संसार में सफल हैं। संसार का गणित उस क्रांति के लिए न केवल व्यर्थ है, अपितु विघ्न भी है। स्वप्न की नियमावलियां जैसे जागरण में नहीं चलती हैं, वैसे ही संसार के सत्य संन्यास में सत्य नहीं रह जाते हैं। संन्यास संसार के स्वप्न से जागरण ही तो है।’’

फिर मैंने रुक कर उस युवक की ओर देखा। वे कुछ दुखी से मालूम होते थे। शायद मैंने उनकी तैयारियों को धक्का दे दिया था और वे ऐसी आशा लेकर मेरे पास नहीं आए थे। बिना कुछ कहे ही वे जाने लगे तो मैंने उनसे कहाः सुनो! एक कहानी और सुनो। एक संत थे आजर कैवान। एक व्यक्ति आधी रात में उनके पास आया और बोलाः ‘‘हजरत, मैंने कसम खाई है कि फानी दुनिया के सारे ऐशो-इशरत छोड दूंगा। संसार के फंदे को तोडने का मैंने निश्चय ही कर लिया है।’’ मैं होता तो उससे कहताः ‘‘पागल, जो कसम खाता है, वह कमजोर होता है और जो छोडने का निश्चय करता है, वह कभी नहीं छोडता और छोड भी दे तो फिर छोडने को ही पकड लेता है। त्याग अज्ञानी चित्त का संकल्प नहीं है, वह तो ज्ञान की सहज छाया है।’’ लेकिन मैं तो वहां था नहीं। थे कैवान। उन्होंने उस व्यक्ति से कहाः ‘‘तुमने ठीक सोचा है।’’ वह व्यक्ति प्रसन्न होकर चला गया फिर कुछ दिनों बाद आया और बोलाः ‘‘मैं अभी गुदडी और फकीरी पोशाक बना रहा हूं। सरो-सामान तैयार होते ही फकीर हो जाना है।’’ किंतु इस बार कैवान भी न कह सके कि तुमने ठीक सोचा है! उन्होंने कहाः ‘‘मित्र, सरो-सामान छोडने के लिए ही कोई दरवेश होता है और तू उसी को जुटाने के लिए परेशान है! जा अपनी दुनिया में लौट जा, तू अभी फकीरी के काबिल नहीं है।’’

ओशो

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