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रविवार, 28 अक्तूबर 2018

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-04)

चौथा प्रवचन

अकेला होना बड़ी तपश्चर्या है

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक गांव में एक बहुत अजीब घटना घट गई थी। एक आदमी ने किसी बीमारी में अपनी छाया खो दी। ऐसा कभी न हुआ था। वह रास्ते पर चलता तो उसकी छाया न बनती, गांव के लोग उससे डरने लगे, परिवार के लोग उससे दूर रहने लगे। उसकी पत्नी ने भी उसका साथ छोड़ दिया। यह बड़ी अनहोनी घटना थी कि कोई अपनी छाया खो दे। और लोगों का भयभीत हो जाना स्वाभाविक था। उनकी समझ में आना मुश्किल हो गया कि आदमी किस प्रकार का है, जिसकी छाया न बनती हो? धीरे-धीरे अपने ही परिवार से वह निष्कासित हो गया, मित्रों ने साथ छोड़ दिया। और जिस दरवाजे पर भी पहुंचता, लोग द्वार बंद कर लेते थे। उसके भूखे मरने की नौबत आ गई। वह हाथ जोड़-जोड़ कर चिल्ला कर भगवान से कहने लगा कि मुझे मेरी छाया वापस दे दो। यह मेरी छाया क्या खो गई है, यह तो मेरा जीवन नष्ट हुआ जाता है। पता नहीं ऐसी घटना कभी घटी थी या नहीं घटी, लेकिन मैंने सुना है कि ऐसा कभी हुआ है।

वह आदमी अपनी छाया खोकर इतनी मुसीबत में पड़ गया था और हम सारे लोग, हम सारे लोगों ने तो अपनी आत्मा खो दी है। तो हम सब की मुसीबत का क्या हिसाब? छाया भी खो दे कोई तो कठिनाई में पड़ जाएगा, लेकिन आत्मा ही कोई खो दे...उसकी मुसीबत का क्या हिसाब लगाया जा सकता है? हम केवल छायाओं की भांति रह गए हैं, और हमारे भीतर किसी आत्मा का न तो हमें बोध है, न स्मरण है; न प्रतीति है और न अनुभव है।
 हम जीते हैं और मर जाते हैं बिना इस बात को जाने कि हम कौन हैं? मैं कौन हूं? इसे बिना जाने ही जीवन समाप्त हो जाता है। क्या यह संभव है कि बिना इस सत्य को जाने कि कौन मेरे भीतर था, मैं जीवन के आनंद को उपलब्ध कर सकूं, क्या यह संभव है कि मैं इस बात को बिना जाने कि कौन था जो मुझमें जन्मा, कौन था जो मुझमें जीआ, कौन था जो मुझसे विदा हो गया, बिना इस सत्य को जाने, जीवन में शांति और संगीत उपलब्ध हो सकता है? नहीं यह संभव नहीं है। स्वयं को जाने बिना न तो जीवन को सौंदर्य उपलब्ध होता है, न शांति उपलब्ध होती है, न संगीत उपलब्ध होता है, न सत्य उपलब्ध होता है।
इसलिए मैं आज की इस चर्चा में आपसे कहना चाहूंगा। धर्म का संबंध परमात्मा से नहीं; धर्म का संबंध परलोक से नहीं, धर्म का संबंध मनुष्य के भीतर जो छिपा है मैं जो हूं उसे जान लेने से है। और यह मैं इसलिए कहना चाहूंगा कि जो यह भी नहीं जानता कि मैं कौन हूं? वह और क्या जान सकेगा? परमात्मा तो बहुत दूर निकट तो मैं हूं। और निकट को भी जो नहीं जानता, वह दूर को कैसे जान सकेगा? जो स्वयं को नहीं जानता, उसका सब जानना झूठा और मिथ्या है। उसका सब ज्ञान, अज्ञान सिद्ध होगा। क्योंकि उसने पहली ही जगह, प्राथमिक निकटतम अज्ञान का जो घर था, वहीं चोट नहीं की, उसने वहीं प्रहार नहीं किया। मैं कौन हूं? इस सत्य की खोज से धर्म का संबंध है, और बड़े रहस्यों का रहस्य यह है कि जो इसको जान लेता है कि मैं कौन हूं? उसके लिए सब कुछ जानने के द्वार खुल जाते हैं। और जो अपने भीतर ही ताले को खोल लेता है, उसके लिए इस जगत में फिर किसी रहस्य पर कोई ताला नहीं रह जाता है। स्वयं को जान लेना, सत्य को जान लेने की अनिवार्य शर्त है। लेकिन हम स्वयं को बिना जाने यदि परमात्मा की प्रार्थनाओं में संलग्न हों, तो वे प्रार्थनाएं कोई फल नहीं लाएंगी। और हम स्वयं को जाने बिना यदि शास्त्रों को सिर पर ढो रहे हों, तो वे शास्त्र बोझ हो जाएंगे। उनसे कोई मुक्ति फलित नहीं होगी।
स्वयं को जाने बिना हम जो भी करेंगे वह सब बंधन निर्मित करेगा, उससे कोई स्वतंत्रता आने को नहीं है। मैं कौन हूं? इस रहस्य पर ही सारी खोज, सारा अन्वेषण, लेकिन हम और सब करते हैं। इस एक बात की खोज में कभी भी संलग्न नहीं होते। कुछ लोग संसार को खोजते हैं, धन, यश, प्रतिष्ठा को खोजते हैं। फिर जब वे ऊब जाते हैं संसार से, धन और प्रतिष्ठा और यश की दौड़ में समझ लेते हैं कि कुछ भी नहीं है, तब वे एक नई दौड़ में संलग्न होते हैं, जिसे मोक्ष की दौड़ कहें, परमात्मा की दौड़ कहें । संसार के लिए दौड़ते थे, उससे ऊब गए और परेशान होकर फिर वे परमात्मा के लिए दौड़ने लगते हैं, लेकिन एक बात जो संसार की दौड़ में थी वही परमात्मा की दौड़ में भी शामिल रहती है। न तो संसार की दौड़ में उन्होंने अपने को जानने की कोई चेष्टा की थी, और न परमात्मा की दौड़ में ही वे अपने को जानने की चेष्टा करते हैं। इसलिए सांसारिक भी अपने को जाने बिना रह जाते हैं और जिन तथाकथित धार्मिकों को हम जानते हैं, वे भी स्वयं को नहीं जान पाते। दोनों दौड़ते हैं, कोई संसार के लिए, कोई मोक्ष के लिए। लेकिन स्वयं के लिए खोज से वंचित रह जाते हैं, सच यह है कि चाहे कोई संसार के लिए दौड़ रहा हो और चाहे परमात्मा के लिए, जब तक दौड़ रहा है तब तक स्वयं को नहीं जान सकेगा। स्वयं के जानने के लिए ठहर जाना जरूरी है, दौड़ना नहीं।
किसी भी तरह की दौड़ में जो उलझा हुआ है वह अपने को नहीं जान पायेगा। दौड़ने वाला चित्त कैसे अपने को जान सकेगा? दौड़ने वाला चित्त ही तो उलझन है। दौड़ने वाला चित्त ही तो अशांति है। दौड़ने वाला चित्त ही तो अंधकार है। दौड़ने वाले चित्त के कारण ही, दौड़ने वाले चित्त की लहरों के कारण ही तो वह हमसे अपरिचित रह जाता है, जो भीतर छिपा है। दुनिया में दो तरह के दौड़ने वाले लोग हैं, एक को हम कहते हैं सांसारिक लोग, एक को हम कहते हैं आध्यात्मिक और धार्मिक लोग। मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा, चाहे दौड़ संसार की हो चाहे और धर्म की, दौड़ मात्र व्यक्ति को स्वयं से वंचित करती है, और स्वयं को नहीं जानने देती। दौड़ बदल जाती है, धन का खोजी मोक्ष का खोजी बन जाता है, पद का खोजी परमात्मा को खोजने लगता है, दौड़ बदल जाती है, दिशा बदल जाती है, लेकिन दौड़ने वाला चित्त कायम रहता है, उसमें कोई फर्क नहीं पड़ता। और यह दिखाई भी नहीं पड़ता है, यह दिखाई भी नहीं पड़ता है, क्यों? क्योंकि हम जानते हैं कि संसार की दौड़ बुरी है। इसलिए जब कोई संसार की दौड़ छोड़ कर धर्म की दौड़ में लगता है तो हम कहते हैं बहुत अच्छा किया।
 मैं आपसे कहना चाहता हूं संसार की दौड़ बुरी नहीं होती, दौड़ बुरी होती है, दौड़। वह दौड़ चाहे मोक्ष की हो तो भी बुरी होती है। वह दौड़ चाहे परमात्मा के लिए हो तो भी बुरी होती है। क्योंकि दौड़ने वाला चित्त उद्विग्न होता है, अशांत होता है, बेचैन होता है। धर्म का संबंध अदौड़ की स्थिति से है, जो दौड़ छोड़ता है और ठहरता है, जो कुछ भी नहीं पाने के लिए पागल होता है, जो रुक जाता है, ठहर जाता है। उस व्यक्ति के जीवन में धर्म का प्रारंभ होता है, धर्म एक दौड़ नहीं, संसार के विरोध में दौड़ नहीं है धर्म। और इसलिए यदि आप परमात्मा की खोज में भी दौड़ रहे हों तो मैं आपसे निवेदन करूंगा, कभी परमात्मा को आप नहीं जान सकेंगे। क्योंकि दौड़ने वाला कभी स्वयं को ही नहीं जान पाता, परमात्मा को कैसे जान पायेगा?
दो तरह की दौड़ें हैं दुनिया में। धार्मिक आदमी वह है जो दोनों तरह की दौड़ से अपने को बचा लेता है। यह बहुत कठिन है। यह बहुत कठिन प्रतीत होगा। एक दौड़ को दूसरी दौड़ में बदल देना बहुत आसान है, एकदम आसान है। मन को उस पर कोई बोझ नहीं आता, दौड़ बदल जाती है। लोभी त्यागी हो जाता है, दौड़ बदल जाती है, कल तक धन को इकट्ठा करता था, आज धन को छोड़ने लगता है। कल तक धन इकट्ठा करने की दौड़ थी, अब छोड़ने की दौड़ शुरू हो जाती है, मन को कोई फर्क नहीं पड़ता। अहंकारी विनम्र होने लगता है। कल तक कहता था मैं कुछ हूं, अब कहने लगता है मैं नाकुछ हूं, लेकिन दौड़ जारी है, कल तक मैं को बड़ा करने की दौड़ थी, अब मैं को छोटा करने की दौड़ शुरू हो जाती है। चित्त को कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई ट्रांसफार्मेशन नहीं होता। जीवन में परमात्मा या सत्य की खोज में चले हुए लोगों के लिए जो सबसे बड़ा उलझाव है वह यही है उनकी दौड़ बदल जाती है लेकिन दौड़ रुकती नहीं। वे यहां भवन बनाते थे, उसे छोड़ कर वे आकाश में और परलोक में भवन बनाने लगते हैं। वे यहां सुख चाहते थे, उसे छोड़ कर वे मोक्ष के सुख की कामना करने लगते हैं। लेकिन दौड़ जारी रहती है। और यदि दौड़ जारी रहे, तो हम कुएं से बच जाते हैं और खाई में गिर जाते हैं।
एक पागलखाने में कुछ लोग गए। वे वहां के पागलों का अध्ययन करने गए थे। वहां का जो डाक्टर था, वह उन पागलों का अध्ययन करने वाले लोगों को एक-एक पागल के संबंध में सारी बातें बता रहा था, उसकी कथा बता रहा था, उसके जीवन की दुर्घटना बता रहा था। पहले ही पागल के पास जब पहुंचे तो उससे उन्होंने पूछा, इसे क्या हो गया है? वह आदमी कपड़े की बनाई हुई एक बहुत बड़ी गुड़िया को अपनी छाती से लगाए हुए रो रहा था। डाक्टर ने बताया यह आदमी पागल हो गया, जिस स्त्री को यह प्रेम करता था, जिस युवती को इसने चाहा था कि वह इसकी जीवन संगिनी बने, उस युवती ने इनकार कर दिया। वह इससे विवाह करने को राजी नहीं हुई, यह पागल हो गया। और तब से ही यह उसी स्त्री को, उसकी गुड़िया बना कर दिन-रात सजाता है, उसी से बातें करता है। रोता है, तो वे सभी दुखी मन और उदास होकर आगे बढ़े। उनमें से एक ने उस डाक्टर से पूछा कि उस लड़की ने फिर क्या किया? किसी और से शादी कर ली। उस डाक्टर ने कहा कि थोड़ी देर रुको, उस आदमी से भी हम मिलाते हैं। वे गए दूसरी कोठरी पर, उस डाक्टर ने कहा यह वह आदमी है जिससे उस लड़की ने शादी कर ली थी। उन्होंने कहा, यह कैसे पागल हो गया? वह पहला आदमी इसलिए पागल हो गया कि इस स्त्री से विवाह न हो सका, इस आदमी को इसलिए पागल होना पड़ा कि उस स्त्री से विवाह हो गया! उस स्त्री के साथ रहने का यह परिणाम हुआ कि यह पागल हो गया।
मैंने जब यह कहानी सुनी तो मैंने कहा कि यह कहानी बड़ी सच है। कुछ लोग संसार के पीछे दौड़ कर पागल रहते हैं। कुछ लोग परमात्मा के पीछे दौड़ कर पागल हो जाते हैं। कुछ लोग इसलिए पागल रहते हैं कि संसार उन्हें मिल जाता है, और कुछ लोग इसलिए पागल हो जाते हैं कि वे संसार छोड़ देते हैं। लेकिन दोनों हालतों में एक पागलपन की स्थिति पैदा होती है। दौड़ता हुआ चित्त पागलपन की स्थिति है, ठहरा हुआ चित्त, रुका हुआ चित्त स्वस्थ है, स्वस्थ का अर्थ स्वयं में जो ठहर गया, रुक गया। लेकिन हमारा चित्त तो स्वयं में रुकता नहीं, कहीं उसे हम लगा दें, तो ठीक अगर कहीं न लगाएं तो बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है। इसलिए तो सुबह से कोई आदमी उठ आता है, तो जल्दी से अखबार खोजता है कि अखबार पढ़ूं, क्योंकि खाली रहने से घबड़ाहट होती है, अखबार में मन को लगा देता है। एक आदमी अखबार पढ़ता है; दूसरा आदमी सुबह से उठ कर गीता पढ़ने लगता है, तो हम सोचते हैं कि अखबार पढ़ने वाला बुरा और गीता पढ़ने वाला अच्छा। लेकिन मैं आपसे निवेदन करुं दोनों अपने मन को दौड़ाने और भगाने की कोशिश में लगे हैं। ठहराने से दोनों डरते हैं। कोई अखबार में दौड़ा रहा है कोई गीता में दौड़ा रहा है, इससे भेद नहीं पड़ता। एक आदमी सुबह से उठ कर रेडियो खोल लेता है और फिल्मी गाने सुनने लगता है। दूसरा आदमी बैठ कर राम-राम, राम-राम जपने लगता है। लेकिन दोनों मन के ठहराने को राजी नहीं हैं। दोनों मन को भगाते हैं, दौड़ाते हैं। दोनों समान हैं, दोनों में कोई भेद नहीं है, और दोनों में से कोई भी धार्मिक नहीं है।
 धार्मिक व्यक्ति वह है जो चित्त को भागने के लिए रास्ते नहीं देता। धार्मिक व्यक्ति वह है जो चित्त को खाली छोड़ने के लिए राजी हो जाता है। धार्मिक व्यक्ति वह है जो चित्त को कोई भी भोजन नहीं देता। और चित्त से कहता है रह जाओ खाली, ठहर जाओ, दौड़ो मत। लेकिन हमें यह खयाल भी नहीं है। हम फिल्मी गाना बंद करते हैं तो भजन गाने लगते हैं, हम सोचते हैं भजन गाने से कोई धार्मिक हो जाएगा। फिल्मी गाना गाओ कि भजन गाओ दोनों से कोई कभी धार्मिक नहीं होता। चित्त जब कुछ भी नहीं करता, कोई गीत नहीं गाता, कोई विचार नहीं करता, कोई दिशा में दौड़ता नहीं है, जब चित्त कुछ नहीं करता और न करने की अवस्था में होता है, स्टेट ऑफ नॉन-डूइंग। जब वह कुछ भी नहीं करता, उस क्षण, उस क्षण धर्म में प्रवेश होता है। उस क्षण स्वयं में प्रवेश होता है, उस क्षण सत्य की झलकें मिलनी शुरू होती हैं।
जापान में एक बहुत बड़ा आश्रम था। उस आश्रम में कोई पांच सौ भिक्षु थे। जापान का सम्राट उस आश्रम को देखने गया। आश्रम का जो प्रधान था, उसने उस बड़े विराट आश्रम के जिसके दूर-दूर तक भवन फैले हुए थे, सम्राट को ले जाकर दिखाए। बीच आश्रम में बहुत विशाल एक भवन था, और आस-पास छोटे-छोटे झोंपड़े थे बहुत, उसने छोटे-छोटे झोंपड़े दिखलाए, यहां भिक्षु रहते हैं, यहां भिक्षु स्नान करते हैं, यहां भिक्षु भोजन करते हैं, यहां भिक्षु अध्ययन करते हैं, वह राजा बार-बार पूछने लगा कि तुम छोटे-छोटे मकानों को तो बतला रहे हो, लेकिन यह जो बीच में विशाल भवन है यहां क्या करते हैं? लेकिन वह संन्यासी अजीब था, वह इसका उत्तर ही न दे, राजा परेशान हुआ, छोटे-छोटे झोंपड़ों में घुमा रहा था, और बीच में जो विशाल भवन था उसकी कोई बात नहीं करता था। उसने दुबारा पूछा कि मेरे मित्र तुम बड़े अजीब मालूम पड़ते हो जो दिखाने योग्य मालूम पड़ता है उसको दिखाते नहीं, ये छोटे-छोटे झोंपड़े दिखा रहे हो। यहां क्या करते हैं भिक्षु? फिर भी वह संन्यासी चुप रह गया। फिर तीसरी बार उस राजा ने पूछा कि मैं, मेरे बरदाश्त की सीमा से बाहर हुई जा रही है, यह बात, देखने आया था आश्रम तुम दिखलाते हो फिजूल की बातें, यह जो भवन है बीच में यहां क्या करते हो? संन्यासी ने कहा कि मैं खुद मुसीबत में हूं कि क्या बताऊं कि वहां हम क्या करते हैं? असल में हम वहां कुछ भी नहीं करते। बाकी सारे आश्रम में भिक्षु कहीं स्नान करते हैं, कहीं अध्ययन करते हैं, कहीं बातें करते हैं, जब किसी भिक्षु को कुछ भी नहीं करना होता है तो वह इस भवन में चला जाता है और वहां कुछ भी नहीं करता। अब हम क्या बताएं कि वहां क्या करते हैं, वह हमारा ध्यान का कक्ष है। वह हमारा मेडिटेशन-हॉल है। वहां हम कुछ भी नहीं करते हैं। अगर कुछ करना हो तो इतना बड़ा आश्रम है, वहां हम कुछ करते हैं, यहां हम कुछ करते ही नहीं। जब किसी को कुछ भी नहीं करता होता, तो वहां चला जाता है। तो मैं क्या बताऊं कि हम वहां क्या करते हैं? तो मैं कुछ भी नहीं कह रहा हूं, उसके बाबत आप नाराज न हों, हम वहां कुछ करते ही नहीं।
क्या आपने कभी कोई ऐसा क्षण जाना है अपने मन में जब आप कुछ भी न कर रहे हों? क्या कभी कोई ऐसा क्षण जाना है जब मन कुछ भी न कर रहा हो, बस हो? जस्ट, सिर्फ हो, कुछ कर न रहा हो। न करने की कोई अवस्था जानी, अगर नहीं जानी तो धर्म से अभी आपका कोई संबंध नहीं है और न हो सकता है। कोई संबंध नहीं हो सकता। पूजा करो, प्रार्थना करो, ये सब करने की अवस्थाएं हैं, दुकान चलाओ, मंदिर में जाओ, ये सब करने की अवस्थाएं हैं। सेवा करो, मरीज की सेवा करो, कोढ़ी की सेवा करो, ये सब करने की अवस्थाएं हैं। करने की अवस्थाओं से धर्म का कोई संबंध नहीं। लेकिन अगर न करने की अवस्था को जान लें तो जीवन में एक नये प्रकाश का अनुभव होता है और एक नई शक्ति का। और वह अनुभव करने के बाद जीवन को भी आमूल परिवर्तित कर देता है। अभी हम जो करते हैं उस करने का केंद्र होता है, अहंकार, मैं। चाहे हम पूजा करते हों और चाहे दुकान चलाते हों, उस करने का केंद्र होता है, मैं। दुकान करते हैं तो कें द्र होता है, मैं; मेरी दुकान। पूजा करते हैं तो केंद्र होता है, मैं; मेरी पूजा। प्रार्थना करते हैं तो केंद्र होता है, मैं; मेरी प्रार्थना, मेरे भगवान, मेरी गीता, मेरा कुरान, मेरा धर्म। मंदिर बनाते हैं तो मेरा मंदिर, सेवा करते हैं तो मेरी सेवा। जब तक हमने उस अवस्था को नहीं जाना है--न करने की अवस्था को, स्टेट ऑफ नॉन-डूइंग, जब तक हमने उसे नहीं जाना। तब तक हमारे सब कामों का केंद्र होता है, मैं। लेकिन जिसने थोड़ी देर को भी उस अवस्था को जाना है--जब हम कुछ भी नहीं करते हैं, जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं, केवल सिर्फ होते हैं, सिर्फ एक्झिस्टेंस होता है, सिर्फ सत्ता होती है, कर नहीं होते, कुछ कर नहीं रहे होते, कुछ डूइंग नहीं होती, सिर्फ बीइंग होता है। उस क्षण को जो जान लेता है, वह पाता है कि अहंकार तो है ही नहीं, अहंकार तो करने की क्रिया से पैदा हुई भावना है। यह किया, यह किया, यह किया, यह किया...इस सारे करने से अहंकार मजबूत हो गया है। न करने की अवस्था को जानने से ज्ञात होता है कि अहंकार तो है ही नहीं। और उस न करने की अवस्था में ही चित्त इतनी शंाति में होता है कि स्वयं को जान पाता है। उसे जानते ही, करने का केंद्र परिवर्तित हो जाता है। उसे जानते ही करने का केंद्र अहंकार नहीं रह जाता, करने का केंद्र परमात्मा हो जाता है। ऐसी जो जीवन स्थिति है, उसका नाम धर्म है। स्मरण रखिए, धर्म कोई कृत्य नहीं है, कोई एक्ट नहीं है, कोई कर्म नहीं है, धर्म तो अकर्म की अवस्था को अनुभव करने से संबंधित है। और अकर्म की अवस्था में ही हम अपने से संबंधित होते हैं, कर्म की अवस्था में हम दूसरों से संबंधित होते हैं।
एक बहुत अदभुत विचारक था, इकहार्ट। वह जंगल में गया हुआ था और एक वृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। उसके कुछ मित्र भी जंगल गए हुए होंगे शिकार के लिए, पिकनिक के लिए, किसी और काम से। उन्होंने इकहार्ट को एक झाड़ के नीचे बैठा देखा, सोचा कि अकेले में थक गया होगा, बैठा-बैठा, अकेले में ऊब गया होगा, चलो हम चलें और इसे संग दें, साथ दें, कंपनी दें। वे गए और उन्होंने जाकर इकहार्ट को कहा कि मित्र तुम अकेले बैठे-बैठे थक गए होंगे, ऊब गए होंगे, परेशान हो गए होंगे, तो हम आए हैं यह सोच कर कि तुम्हें थोड़ा साथ दें। इकहार्ट ने क्या कहा? इकहार्ट ने कहाः मेरे मित्रो, तुम अपने रास्ते पर जाओ, मैं अकेला था तो अपने साथ था। तुम आ गए तो तुमने मेरा साथ अपने से तुड़वा दिया। इकहार्ट ने कहाः मित्रो, तुम अपने रास्ते पर जाओ, मैं अकेला था तो अपने साथ था, तुमने आकर मुझसे मेरा साथ तुड़वा दिया। तुम अपने रास्ते पर जाओ, मैं ऊबा हुआ नहीं हूं। मैं अपने साथ हूं।
जब आप कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं तब आप अपने साथ होते हैं, और जो अपने साथ होगा वही तो स्वयं को जान सकेगा। हम कभी अपने साथ नहीं होते, हम किसी और के साथ होते हैं, अपने साथ कभी भी नहीं होते। मित्र के साथ होते हैं, शत्रु के साथ होते हैं, किताब के साथ होते हैं, पत्नी के साथ, पति के साथ, लड़कों के साथ, पिता के साथ होते हैं और अगर इन सबसे ऊब गए तो किसी काल्पनिक भगवान के साथ हो जाते हैं। रख लेते हैं उसकी मूर्ति और उसी के साथ हो जाते हैं। लेकिन अपने साथ...अपने साथ हम कभी नहीं होते। जो अपने साथ नहीं होता उसको धर्म का कैसे अनुभव होगा? वह कैसे जान सकेगा कि क्या हूं मैं? कौन हूं मैं? अपने साथ होने की प्रक्रिया धर्म है। अपने साथ होने की प्रक्रिया योग है, अपने साथ होने की प्रक्रिया ध्यान है, अपने साथ होने की प्रक्रिया समाधि है, अपने साथ कैसे हो सकते हैं? हमारी तो आदत किसी और के साथ होने की है, हम तो सदा भीड़ में होना पसंद करते हैं, अकेला तो कोई नहीं होना चाहता। क्यों नहीं होना चाहता? अकेले में भय लगता है, अकेले में घबड़ाहट लगती है। किस बात की घबड़ाहट लगती है? किस बात का भय लगता है? कभी ख्याल भी नहीं किया होगा कि अकेले में भय क्यों लगता है, घबड़ाहट क्यों लगती है? अकेेले क्यों नहीं होना चाहते? क्यों किसी का साथ खोजते हैं निरंतर? भय है एक बुनियादी, अकेले में अहंकार के मिटने का भय। दूसरों के साथ होने में अहंकार निर्मित होता है, अकेले में मिट जाता है। अकेले में मैं की कल्पना टूट जाती है कि मैं हूं। इसलिए हमेशा दूसरों के साथ हम होते हैं। और जो लोग हमारे साथ होकर हमारे मैं को काफी प्रोत्साहन देते हैं, उनके साथ होने में हमें ज्यादा रस आता है, इसलिए शत्रु के साथ हम कम होना चाहते हैं, मित्र के साथ ज्यादा होना चाहते हैं। क्योंकि मित्र हमारे अहंकार को बढ़ावा देता है। अब उनके साथ होना चाहते हैं जो हमारे अहंकार को बढ़ावा दें, शक्तिशाली बनाएं।
 अकेले होने में घबड़ाहट लगती है। अकेले होने में मैं खो जाएगा, उसको कोई बढ़ाने वाला नहीं मिलेगा तो वह बिखर जाएगा, टूट जाएगा। इसलिए कोई अकेले में नहीं होना चाहता। लेकिन जिसे स्वयं को खोजना है, उसे यह साहस करना होगा। उसे अहंकार के बिखर जाने को हिम्मत से देखना होगा। इस साहस का नाम ही संन्यास है। इस करेज का नाम ही संन्यास है, घर को छोड़ कर भाग जाने का नाम संन्यास नहीं है। घर को छोड़ कर भाग जाना तो बड़ी आसान बात है, और अगर सब का बस चले तो सभी घर छोड़कर भाग जाएं। घर से कौन परेशान नहीं है? घर से कौन पीड़ित नहीं है? घर से कौन ऊ ब नहीं गया है, सभी भाग जाएं। घर से भाग जाना कोई बहादुरी नहीं है। जीवन में एक ही साहस है, अकेले होने का साहस। तो घर से एक आदमी भाग जाता है तो दस-पच्चीस शिष्यों को इकट्ठा करके एक आश्रम बना कर वहां रहने लगता है। क्योंकि अकेले रहने का साहस तो था नहीं, घर से निकल आए तो फिर आश्रम बनाना पड़ता है। मित्रों को छोड़ कर आ गए, परिवार को छोड़ कर आ गए तो फिर शिष्य और शिष्याएं इकट्ठी करने पड़ते हैं क्योंकि भीड़ चाहिए अकेले होने में बड़ा खतरा है, खुद के मिट जाने का खतरा है। इसलिए जिसके पास जितने शिष्य इकट्ठे हो जाते हैं जिस संन्यासी के पास, वह उतना ही बड़ा संन्यासी हो जाता है, उसके अहंकार का पारा उतना ही ऊपर चढ़ जाता है। जिसको कोई शिष्य नहीं मिलते वह बेचारा दो कौड़ी का संन्यासी हो जाता है, उसका अहंकार का पारा नीचे उतर जाता है। शिष्यों की खोज चलती है, भीड़ इकट्ठा करने की खोज चलती है। आश्रम बनते हैं।
भागे थे वे लेकिन फिर दूसरा चक्कर सामने खड़ा हो जाता है। क्यों? क्योंकि अकेले होने का साहस नहीं। और अकेले होने के लिए कोई पहाड़ और जंगल में जाने की जरूरत नहीं है, जो अकेला होने की प्रक्रिया को समझ लें, वह जहां है वहीं अकेला हो सकता है। ठीक घर में और दुकान पर और बाजार में अकेला हो सकता है। जो अकेला होना जानता है वह भीड़ में भी अकेला होता है और जो अकेला होना नहीं जानता वह, उसको अकेला भी छोड़ दो तो वह काल्पनिक भीड़ को घेर लेता है और उसी में बैठ जाता है। कभी अकेले में जाकर देखें, तो अकेले में कोई भी नहीं होगा कमरा बंद होगा तो भी आप पाएंगे आपके मन में मित्र चले आ रहे हैं, उनसे बातें चल रही हैं। काल्पनिक भीड़ इकट्ठी हो जाएगी, क्योंकि अकेला होना...अकेला होना बहुत बड़े साहस की बात है। लेकिन जिसे स्वयं की खोज में जाना हो उसे कुछ साहस तो करना पड़ेगा।
 अकेला होना बड़ी तपश्चर्या है, भूखा रहना कोई बड़ी तपश्चर्या नहीं है, भूखा रहना एक निरंतर अभ्यास की बात है। महीनों कोई भूखा रह सकता है। सिर के बल खड़े हो जाना, कोई तपश्चर्या नहीं है, सर्कस में बहुत से लोग करते हैं, आप भी कर सकते हैं, मैं भी कर सकता हूं। कोई उलटे-सीधे आसन लगा लेना और धूप में खड़े रहना और सर्दी सह लेना कोई तपश्चर्या नहीं है, सब सर्कसी खेल हैं। तपश्चर्या तो एक है मनुष्य के मन के लिए, सबसे कठिन, आर्डुअस और वह है अकेला होना। मन अकेले होने को राजी नहीं होता, मन अकेले बैठने को राजी नहीं होता। मन की सारी आदत, मन का सारा जीवन किसी के संग, किसी के साथ में, इधर-उधर से ऊब जाते हैं तो सत्संग को चले जाते हैं, वहां भी भीड़ मिल जाती है। किसी गुरु के पास चले जाते हैं, वहां भी साथ मिल जाता है। इसलिए मैं कहता हूं कि सत्संग से किसी को कभी धर्म नहीं मिला है। अकेले और एकांत में सब तरह का संग छोड़ कर जो मन ठहरने को राजी होता है, वह धर्म को जानता है। सत्संग से सिद्धांत मिल सकते हैं, विचार मिल सकते हैं, खूब बातचीत करने के लिए सामग्री मिल सकती है, ज्ञान मिल सकता है तथाकथित कि उपदेश करने में आप भी योग्य हो जाएं। लेकिन किसी सत्संग से कभी सत्य न मिला है और न मिल सकता है। क्योंकि संग से सत्य के मिलने का कोई संबंध नहीं। सत्य मिलता है असंग में, संग में नहीं। सत्य मिलता है असंग में, जहां कोई संगी और साथी नहीं ऐसे मन की स्थिति है।
पहला सूत्र है धर्म की खोज में, स्वयं की खोज में या परमात्मा की खोज मेंः असंग-भाव। मैं अकेला हूं, मैं बिलकुल अकेला हूं। और इस अकेले होने में ठहरने की दिशा में प्रयत्न, जब मन कहे कि किसी का साथ खोजो, जब मन कहे कि चलो अकेले में भयभीत मालूम होता हूं, तब सजगता से इस मन के प्रति निरीक्षण और अकेले में ठहरने की, ठहरने की दिशा में प्रयत्न अगर थोड़ी सी देर को भी अकेला होना शुरू कर दें। प्रारंभ में तो बहुत कठिन है, क्योंकि निरंतर साथ की आदत है। तो हम पूछते हैं कि अकेले में फिर कोई सहारा, तो कोई मंत्र बता दें कि फिर, कि हम उसको ही जपते रहें, राम-राम करते रहें, कृष्ण-कृष्ण करते रहें, कुछ तो बता दें जिसको हम करते रहें अकेले में। किसी भगवान की प्रतिमा पर ध्यान लगाएं, या आंख बंद करके किसी ज्योति के ऊपर ध्यान लगाएं। फिर हम संग खोज रहे हैं, तरकीबें हैं ये सब, हम साथ खोज रहे हैं। वास्तविक नहीं तो काल्पनिक साथ खोज रहे हैं, कोई ज्योति के साथ ही बैठे रहें, राम-राम ही जपें, हृदय में किसी चक्र की कल्पना करें, या सिर में या नाभि में, लेकिन हम साथ खेाज रहे हैं, अकेले होने को हम राजी नहीं। और अगर साथ मिल गया तो चक्कर फिर वापिस वही शुरू हो गया, जिससे आप बचना चाहते हैं। इसलिए कोई साथ न खोजें और कोई सहारा न खोजें। न किसी मंत्र का, न किसी रूप का, न किसी प्रतिमा का। न किसी भगवान का। कोई सहारा न खोजें। बेसहारा हो जाएं। और बड़े मजे की बात है कि जो बेसहारा हो जाता है, उसे परम सहारा उपलब्ध होता है। और बड़े मजे की बात है जो अकेला हो जाता है वह परमात्मा को पा लेता है। और बड़े मजे की बात है जब तक कोई संग खोजता है तब तक कभी उसका संग नहीं मिलता, जो कि सदा का साथी है।
एक रात ऐसा हुआ, एक आदमी एक पहाड़ से निकलता था। अंधेरी अमावस की रात थी, उसका पैर फिसल गया, और रास्ते से चूक गया। और किसी बहुत बड़े खड्ढ में गिर पड़ा। लेकिन खड्ढ में गिरने को कौन राजी होता है, तो उसने जल्दी से अंधेरे में जो भी पकड़ में आ सकता था, पकड़ लिया। कोई वृक्ष की जड़ें थी, वे उसने पकड़ लीं। नीचे अंधकार, ऊपर अंधकार, फिसलता हुआ पत्थर, जिस पर पैर न टिकें, ऊ पर बढ़ने की कोई गुंजाइश और उपाय नहीं। नीचे गिरने का कोई साहस नहीं। वह अटका है उन जड़ों को पकड़ कर। ठंडी रात हाथ अकड़ने लगे और ठंडे होने लगे। और आखिर कब तक लटका रहेगा और पूरी रात। और धीरे-धीरे उसकी हिम्मत टूटने लगी। और हाथ जड़ होने लगे ठंड में और जड़ेें छूटने लगीं। उसके प्राण कैसे संकट में नहीं पड़ गए होंगे, कैसे दुख को उसने नहीं जाना होगा? कैसी मौत में वह नहीं घिर गया था? लेकिन आखिर जब तक सामथ्र्य थी वह पकड़े रहा। जितनी देर तक संभव था उसने जड़ें पकड़े रखीं। वक्त आ गया और हाथ बिलकुल जड़ हो गए, और जड़ें छूट गईं। वह आदमी गड्ढे में गिर गया, लेकिन क्या हुआ? गिरते ही जोर की हंसी उस घाटी में गूंजी, वह आदमी हंसने लगा। नीचे गड्ढा था ही नहीं, नीचे जमीन थी, अंधेरे में दिखाई ही नहीं पड़ती थी। जड़ें हाथ से छूटी कि वह नीचे जमीन पर खड़ा था, और तब वह पछताया कि मैंने बहुत पहले हाथ क्यों न छोड़ दिए? मैंने व्यर्थ ही यह कष्ट और तकलीफ क्यों सही? मैं क्यों व्यर्थ ही ठंड में इस अंधेरी रात में लटका रहा जड़ों से। मैं तभी का छोड़ देता तो जमीन नीचे थी। लेकिन जब तक न छोड़ा था, तब तक उसको पता भी न चला था।
मेरे देखने में हर मनुष्य अपने जीवन की अंधेरी रात में रास्ते से भटक गया है और गिर गया है और हर मनुष्य ने अपनी सामथ्र्य के अनुसार कोई न कोई जड़ पकड़ ली है। किसी ने धन की, किसी ने पद की, किसी ने भगवान की, किसी ने धर्म की, किसी ने मोक्ष की कोई न कोई जड़ पकड़ ली है, और उससे लटका हुआ है, और रो रहा है और चिल्ला रहा है कि यह जड़ छूटने वाली है। और जड़ छूटी तो मैं खड्ढे में गिरूंगा, और हर आदमी को गिरना है, मौत करीब है सबके और सभी की जड़ें छूट जाएंगी और हाथ छूटेंगे और गड्ढे में गिरना पड़ेगा। रो रहे हैं चिल्ला रहे हैं, लेकिन जड़ को छोड़ते नहीं, कहते हैं कोई सहारा चाहिए, बिना सहारे के कैसे होगा? कोई न कोई सहारा चाहिए। पत्नी का छूट जाए, परमात्मा का चाहिए, पति का छूट जाए तो भगवान का चाहिए, किसी न किसी का सहारा चाहिए। जमीन के पिता का छूट जाए तो वह जो सुप्रीम फादर है, ऊपर जो बैठा हुआ पिता है, उसका सहारा चाहिए लेकिन सहारा चाहिए। बिना सहारे के नहीं हो सकेगा, कोई न कोई जड़ चाहिए जिससे मैं लटकूं नहीं तो नीचे खड्ढा है और गिर जाऊंगा तो क्या होगा?
 लेकिन मैं यह निवेदन करता हूं कुछ यह जो हमारा अटकाव है सहारे का, यही बाधा है, कभी जाने किसी क्षण में सब छोड़ कर और बेसहारा होकर, कभी जाने किसी क्षण में सब सहारे छोड़ दें और हो जाएं बेसहारा तो क्या होगा? देखें एक बार, क्योंकि बिना देखे पता भी नहीं चल सकता कि क्या होगा? और जो होता है उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय भी नहीं। आज तक कोई कह भी नहीं सका कि क्या होता है? जब एक आदमी सब सहारा और सब संग छोड़ कर असंग हो जाता है, बेसहारा हो जाता है अकेला हो जाता है, टोटल लोनलीनेस में हो जाता है, तब क्या होता है? आज तक कोई भी नहीं कह सका कि क्या होता है? लेकिन वहीं जो होता है, उसे ही कोई कहता है कि परमात्मा, कोई कहता है आत्मा, कोई कहता है मोक्ष, कोई कहता है निर्वाण। वही कुछ होता है जिसे कुछ नाम दे दें धर्म के या कोई नाम न दें, लेकिन जो आदमी भी उस गहरे एकांत से होकर वापस लौटता है, वह दूसरी तरह का आदमी हो जाता है, उसके जीवन में दुख विलीन हो जाता है, उसके जीवन में आनंद के झरने फूटने लगते हैं, उसके जीवन से बेसुरे स्वर विलीन हो जाते हैं, और संगीत निकलने लगता है। उसके जीवन से दुर्गंध चली जाती है और सुगंध आने लगती है। उसके जीवन से भय विलीन हो जाता है और अभय आ जाता है। उसके जीवन में मृत्यु की छाया समाप्त हो जाती है और अमृत की वर्षा होने लगती है। जो भी उस अकेलेपन से होकर गुजरता है वह दूसरी तरह का ही मनुष्य हो जाता है। उसी तरह के मनुष्य को हम धार्मिक मनुष्य कहते हैं।
आज की इस चर्चा में मैं यही निवेदन करने को हूं आपसे, कभी उस अकेलेपन में जाएं, कभी सब छोड़ दें डूब जाएं शून्य में और कोई सहारा न पकड़ें। हो जाएं अकेले पूरी तरह, क्योंकि यह स्मरण रखें, अगर स्वयं को जानना है, तो बिना अकेले हुए नहीं जान सकते हैं। जब आप ही रह जाएंगे और कोई न होगा, तभी जान सकेंगे उसे जो आप हैं। जब तक कोई और है, तब तक उसको आप जानते रहेंगे स्वयं को न जान पाएंगे। तो सब सहारे तोड़ देने जरूरी हैं, ताकि चेतना बिलकुल बेसहारा हो जाए , उसके लिए कोई जगह ठहरने को न रह जाए। और जब कोई जगह ठहरने को नहीं रह जाती है चित्त को, तो चित्त अपने पर लौट आता है। अपने पर बैठ जाता है, जब कोई जगह नहीं रह जाती, तो अपने पर वापिस आ जाता है। जगह छीन लें चित्त से, हम जगह छीनते नहीं, जगह बदलते हैं। एक चीज छूटती है तो दूसरी पकड़ाते हैं, दूसरी छूटती है तो तीसरी पकड़ाते हैं, लेकिन कभी खाली नहीं छोड़ते चित्त को। चित्त को बदलाहट सब्स्टीट््यूट देने से कोई आदमी कभी धर्म की दिशा में गतिमान नहीं होता। सब सब्स्टीट्यूट छोड़ देने जैसे हैं। जब कोई कुछ भी हम चित्त को नहीं देते और चित्त भूखा और प्यासा, और बिना; दिशा के बिना कहीं जाने के, रह जाता है उसी क्षण एक विस्फोट हो जाता है, और क्रांति हो जाती है और जीवन दूसरा हो जाता है।
धर्म एक ऐसे साहस की अपेक्षा है, धर्म एक ऐसे साहस की खोज है लेकिन हम सारे लोग तो धर्म की तरफ साहस के कारण नहीं जाते, भय के कारण जाते हैं। इसलिए आदमी जितना बूढ़ा होने लगता है उतना धार्मिक होने लगता है। युवा आदमी धार्मिक नहीं होता, उसमें थोड़ा बहुत साहस होता है तो वह सोचता है कि अभी धार्मिक होने की क्या जरूरत है? सोचता है कि बुढ़ापे में जब सब काम निपट जाएगा तब हो लेंगे धार्मिक। और बुढ़ापे में आदमी क्यों धार्मिक होने लगता है? धार्मिक इसलिए होने लगता है कि मौत का भय चारों तरफ से घेरता है, उस भय के कारण वह भगवान का सहारा पकड़ने लगता है। और भय से जो भगवान पैदा हेाता है, वह एकदम झूठा है, उसमें जरा भी सच्चाई नहीं, कण मात्र भी सच्चाई नहीं है। वह केवल भय का निर्माण है।
 जब मौत करीब आने लगती है और हम अंधेरे में धकियाए जाने लगते हैं और लगता है कि अब जीवन छूटा, तब हम सोचते हैं भगवान अब तेरे ही चरण पकड़े लेते हैं। अब तेरा ही सहारा खोजे लेते हैं। भगवान किसी का सहारा नहीं है। उस समय तक जब तक कि कोई बेसहारा होने की हिम्मत न करें। तब तक कोई सहारा नहीं है। तब तक रोएं, गिड़गिड़ाएं, करें प्रार्थनाएं, कुछ भी नहीं होगा। कुछ भी नहीं हो सकता है। होने का उससे कोई संबंध नहीं है। आप अपने भय में परेशान हो गए। और अपने भय में कल्पनाएं कर रहे हैं। भय छोड़ें, धर्म का भय से कोई संबंध नहीं है। और एक बात जानें, मृत्यु आएगी और मिटा देगी यह तय है। इसमें कोई शक-शुबहा नहीं, इसमें कोई संदेह नहीं। मृत्यु आएगी और डुबा देगी और मिटा देगी।
 जो समझदार हैं वे मरने के पहले अकेले होकर देख लेते हैं कि मृत्यु में भी तो अकेले ही तो हो जाना पड़ेगा। सब संगी साथी छूट जाएंगे, सब धन, यश, प्रतिष्ठा छूट जाएगी, सब मित्र-परिजन छूट जाएंगे, मृत्यु अकेला कर देगी, तो एक बार अकेला होकर क्यों न देख लें? उससे यह भी पता चल जाएगा कि मृत्यु में क्या होगा? और यह भी पता चल जाएगा कि अकेले होने से भीतर कुछ सच में मर जाता है या कि नहीं मरता? मृत्यु को जान कर जो व्यक्ति जीवन में ही, किन्हीं क्षणों में मरने का अनुभव कर लेता है। इतना अकेला हो जाता है कि कोई संगी साथी नहीं, जैसा मृत्यु में हो जाएगा, तो फिर उस क्षण में ही वह जानता है कि सब छूट जाए तो भी मैं हूं। सब छूट जाएं तब भी मैं हूं। और जब सब छूट जाते हैं, तभी मैं अपने पूरे रूप में प्रकट हो पाता है। तो मृत्यु में जो हर आदमी को जानना पड़ता है, तो वह ध्यान में धार्मिक मनुष्य जान लेता है। लेकिन जिसने कभी ध्यान को न जाना हो उसकी मृत्य भय, और पीड़ा, और संकट बन जाती है। और जिसने कभी ध्यान में, एकांत में स्वयं को जाना हो, उसकी मृत्यु भी अमृत और मोक्ष का स्वाद दे देती है। उसे मृत्यु का भय भी विलीन हो जाता है क्योंकि मृत्यु में वह पुनः अकेला होता है, जिस अकेलेपन को उसने बहुत बार जाना।
एक फकीर से किसी ने जाकर पूछा कि मुझे मृत्यु के संबंध में कुछ बताओ? उस फकीर ने कहा तुम गलत जगह आ गए हो, तुम कहीं और जाओ मृत्यु को जानने के लिए। क्यों? पहले जब तक मैं अकेला नहीं हुआ था, मैं भी सोचता था मृत्यु है। और जब मैं परम एकांत और अकेलेपन को जाना, तो मैंने जाना कि मृत्यु तो बिलकुल नहीं है। जो है वह जीवन है। तो यहां मृत्यु के बाबत मैं कुछ भी न बता सकूंगा। क्योंकि मैं मृत्यु को जानता ही नहीं। मैंने तो जीवन को जाना है। हम जो मृत्यु से घबड़ाए हुए हैं, वह मृत्यु से घबड़ाए हुए नहीं हैं, क्योंकि घबड़ाने के लिए हमें पता होना चाहिए कि मृत्यु क्या है, तब हम घबड़ा सकते हैैं। जिसको हम जानते नहीं, जो अननोन है उससे हम घबराएंगे कैसे? हम मृत्यु से घबड़ाए हुए नहीं हैं, हम घबड़ाए हुए हैं अकेलेपन से। मित्र छूट जाएंगे, पत्नी, पिता, मां, भाई बहन सब छूट जाएंगे, वह जो अकेलापन रह जाएगा, उससे हम घबराए हुए हैं। तो जो व्यक्ति जीवित रहते हुए अकेलेपन के स्वाद को अनुभव कर लेता है उसे मृत्यु का भय विलीन हो जाता है, वह पाता है मृत्यु तो है ही नहीं। वह जीवन को शाश्वत जीवन को अनुभव कर लेता है।
 उसी शाश्वत जीवन का नाम परमात्मा है। उसी शाश्वत जीवन की एक किरण मेरे भीतर है, एक किरण आपके। अगर हम उस एक किरण से परिचित हो जाएं तो उसी किरण के सहारे उस सूरज तक पहुंच सकते हैं जहां से वह किरण निकलती है। इसलिए मैंने कहा जो स्वयं को जान लेता है वह परमात्मा को जानने का द्वार पा जाता है, उसने एक किरण पकड़ ली सूरज की, और वह उस किरण के साथ, उस किरण के पथ पर यात्रा करके परमात्मा तक पहुंच सकता है। लेकिन जो स्वयं को नहीं जानता, जिसने एक किरण भी नहीं जानी, वह परमात्मा तक जाने का उसके पास कोई मार्ग नहीं है, और यह भी स्मरण रखिए आपकी किरण को मैं नहीं जान सकता हूं। क्योंकि जब मैं अपनी ही किरण को नहीं जान सकता हूं, आपकी किरण को क्या जानूंगा? मैं अपनी ही किरण को जान सकता हूं, और अपनी किरण को जान कर फिर मैं जान लेता हूं आपकी किरण को भी और जान लेता हूं सारी किरणों को। एक सागर की बूंद को कोई जान ले तो पूरे सागर को जान लेता है। और एक सूरज की किरण से परिचित हो जाए तो सारे सूरज को जान लेता है। लेकिन वह किरण है स्वयं की और उस किरण को जानने के लिए अकेला, एकांत होना जरूरी है। उसे चाहे ध्यान कहें, लेकिन ध्यान का मतलब किसी का ध्यान नहीं है, क्योंकि किसी का ध्यान किया तो संग शुरू हो गया, साथ शुरु हो गया।
 ध्यान का अर्थ है अकेला होना, जहंा कोई भी नहीं है, जहां बिल्कुल अकेला मैं रह गया, और कोई भी नहीं है। कोई विचार नहीं, कोई कल्पना नहीं, कोई प्रतिमा नहीं, कोई संगी नहीं, कोई साथी नहीं, एकदम अकेला, एकदम अकेला। इस अकेलेपन से ही स्वयं का बोध जागता है और विकसित होता है। तो अकेले होने की दिशा में कुछ करें। सत्संग न खोजें, अकेले होना खोजें। साथ न खोजें, अकेला होना खोजें। सहारा न खोजें, बेसहारा हो जाएं। आलंबन न खोजें निरालंब हो जाएं, तभी कुछ होगा। तभी कुछ हो सकता है। उसके अतिरिक्त कभी कुछ नहीं हुआ है। कभी कुछ होगा भी नहीं। जब भी कुछ हुआ है तो उसी एकांत में,जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, और सुंदर है और शिव है, वह सब अकेेले में जाना गया है, भीड़ में नहीं, साथ से नहीं। इसलिए धर्म का भीड़ से, साथ से, समुदाय से कोई संबंध नहीं है।
लेकिन हम तो उलटी बात देखते हैं जमीन पर। धार्मिक आदमी समुदाय बनाते हैं, आर्गनाइजेशन बनाते हैं, संगठन बनाते हैं, मंदिर बनाते हैं, चर्च बनाते हैं भीड़ इकट्ठी करते हैं। हिंदू इकट्ठे एक तरफ हैं, मुसलमान दूसरी तरफ, ईसाई तीसरी तरफ, जैन चैथी तरफ ऐसे पच्चीस तरह के पागलपन हैं और लोग अलग-अलग इकट्ठे हैं। भीड़ इकट्ठी है, समाज इकट्ठा है, समुदाय इकट्ठे हैं, धर्म का क्या संबंध समुदाय से, समाज से, भीड़ से? राजनीति का होगा संबंध, धर्म का क्या संबंध है? ये सब राजनीतिक अड्डे हैं, धर्म का नाम है, अड्डा राजनीति का है। इसलिए तो लड़ते हैं, और लड़वाते हैं। नहीं तो धर्म लड़ेगा और लड़वाएगा? खून करवाएगा, हत्या करवाएगा? धर्म का संबंध है व्यक्ति के एकांत से भीड़ से नहीं। राजनीति का संबंध होगा भीड़ से। ये सब राजनीतिक चालबाजियां हैं कि लोग इकट्ठे हों और लड़ें और झगड़ें। धर्म का इससे क्या संबंध? आपके हिंदू होने से धर्म का क्या संबंध है? आपके मुसलमान होने से धर्म का क्या संबंध है? धर्म का संबंध तो व्यक्ति के अकेले होने से है, और उसका दूसरे से कोई वास्ता नहीं है।
 धर्म एकदम व्यैक्तिक, एकदम इंडिविजुअल बात है। उसको सोशियलिटी, सोशल, समाज और समुदाय से कोई वास्ता नहीं है। लेकिन अभी तो धर्म भीड़ और समुदाय हो गया है। और इसीलिए धर्म भ्रष्ट हुआ और पतित हुआ और धर्म की प्रतिष्ठा गई, और धर्म का आनंद गया, और धर्म की आस्था गई। और धर्म की सारी जड़ें सूख गईं इसीलिए क्योंकि हमने उसे भीड़ बना लिया। तो मैं निवेदन करूंगा, वक्त आ रहा है जमीन पर; आना चाहिए, जब कि हम इस बात को जान सकें कि धर्म नितांत वैयक्तिक बात है। जैसे प्रेम वैयक्तिक है वैसे धर्म वैयक्तिक है। जब मैं किसी को प्रेम करता हूं तो मैं प्रेम करता हूं, कोई भीड़ थोड़े ही ले जाता हूं। कोई भीड़ से क्या संबंध है? और जब मैं शांत होऊंगा तो मैं शांत होऊंगा भीड़ से क्या संबंध, हम इतने लोग यहां बैठे हैं अगर हम सब आंख बंद करके मौन हो जाएं तो यहां कोई भीड़ न रह जाएगी, एक-एक आदमी अकेला रह जाएगा। दूसरा आदमी मिट जाएगा, पड़ोसी मिट जाएगा, आप यहां अकेले रह जाएंगे। अगर पड़ोसी बना रहे तो भीड़ है, और अगर पड़ोसी मिट जाए तब आप अकेले हैं। वह जो अकेलापन है उसका संबंध धर्म से है। तो उस अकेलेपन को खोजें, कोई संगठन समूह न बनाएं, उस अकेलेपन को खोजें, जिस भांति भी हो सके, किसी तरह स्वयं के एकांत को जान लें और पहचान लें। जिस दिन भी यह सौभाग्य पूरी तरह फलित होता है कि आदमी एक क्षण को भी अकेला हो जाता है उसी दिन दूसरे आदमी का जन्म हो जाता है। सारा जीवन बदल जाता है,कुछ से कुछ हो जाता है। कैसे यह अकेलापन पूरा हो सके, उसकी बात मैं कल सुबह करने को हूं। अभी और ज्यादा यहां कुछ नहीं कह सकूंगा।
ये छोटी सी थोड़ी सी बातें आपने प्रेम और शांति से सुनीं, इन पर सोचिएगा, विचार करिएगा, लेकिन अकेले विचार करने और सोचने से कुछ बहुत हल नहीं होगा, इन पर थोड़ा प्रयोग करिएगा। देखिए भीड़ में रह कर जिंदगी भर देखा है, थोड़ी सी देर को अकेले में रह कर भी देखिए। अगर थोड़ी सी भी अकेले की गंध मिलनी शुरू हो गई, फिर आपको कुछ ज्यादा नहीं करना पड़ेगा, वह गंध आपको खींचती चली जाएगी। अगर थोड़ी सी भी आनंद की पुलक, एक लहर भी आ गई तो फिर आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा वह लहर आपको खींचती चली जाएगी। और आप एक दिन पाएंगे कि आप उस केंद्र पर पहुंच गए जहां कोई भी नहीं है। उस केंद्र पर पहुंच गए जहां कोई भी नहीं है। जिस दिन उसी केंद्र पर पहुंच गए उस दिन पाएंगे कि परमात्मा है, वह जो पॉइंट है, वह जो बिंदु है जहंा कोई भी नहीं रह जाता, वहीं परमात्मा का अनुभव हो जाता है।
परमात्मा करे यह अनुभव सबको हो, क्योंकि इस अनुभव के बिना किसा का जीवन सार्थक नहीं होता, कृतार्थ नहीं होता, आनंद से नहीं भरता है।

मेरी बातें प्रेम से सुनीं, उसके लिए पुनः-पुनः धन्यवाद करता हूं। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा के प्रति मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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