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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-49)

बोधकथा-उन्नचासवी

मैं परमात्मा की प्रार्थना के लिए तुम्हें मंदिरों में जाते देखता हूं तो सोचता हूं कि क्या परमात्मा केवल मंदिरों में ही है? क्योंकि मंदिरों के बाहर न तो तुम्हारी आंखों में पवित्रता की झलक होती है और न तुम्हारी श्वासों में प्रार्थना की ध्वनि। मंदिरों के बाहर तो तुम ठीक वैसे ही होते हो, जैसे वे लोग जो कभी भी मंदिरों में नहीं गए हैं! क्या इससे तुम्हारा मंदिरों में जाना व्यर्थ सिद्ध नहीं हो जाता है? क्या यह संभव है कि मंदिर की सी.िढयों के बाहर तुम कठोर और भीतर करुण हो जाते होगे? क्या यह विश्वासयोग्य है कि मंदिरों के द्वारों में प्रविष्ट होते ही हिंसक चित्त प्रेम से भर जाते हों? जिन हृदयों में सर्व के प्रति प्रेम नहीं है, उनमें परमात्मा के प्रति प्रार्थनाओं का जन्म ही कैसे हो सकता है?
जीवन ही जिसका प्रेम नहीं है, उस जीवन में प्रार्थना असंभव है।

और कण-कण में ही जिसके लिए परमात्मा नहीं है, उसके लिए कहीं भी परमात्मा नहीं हो सकता है।


एक रात्रि की घटना है। कोई अजनबी यात्री मक्का के मंदिर में थका-मांदा पहुंचा है और सो गया है। उसके अपवित्र पैर काबा के पवित्र पत्थर की ओर देख कर पुरोहित क्रोध से भर जाते हैं। वे उसके पैरों को पकड कर घसीटते हैं और कहते हैंः ‘‘यह तुमने कैसा अपराध किया? पवित्र पत्थर के मंदिर का अपमान करने का साहस? यह सोने का ढंग है? परमात्मा के मंदिर की ओर पैर तो निश्चय ही कोई नास्तिक ही कर सकता है!’’ उनकी क्रोध-भरी मुद्राएं देख कर और उनके अपमान भरे कटु सुन कर भी वह यात्री हंसने लगता है और कहता हैः ‘‘मेरे प्यारे, मैं तो वहीं पैर कर लूं जहां परमात्मा न हो! आप कृपा करें और मेरे पैर वहीं कर दें! मैं स्वयं तो उसके मंदिर को सभी ओर और सभी दिशाओं में पाता हूं।’’ ये अजनबी यात्री थे नानक। उन्होंने जो कहा वह कितना सत्य है। परमात्मा निश्चय ही सब ओर है। लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या पैरों में भी वही नहीं है? वही तो है। उसके सिवाय और क्या है? अस्तित्व--समग्र अस्तित्व--ही तो वह है। लेकिन मंदिरों में, मूर्तियों में, तीर्थों में उसे देखने वाली आंखें, अक्सर ही उसे उसकी समग्रता में देखने में अंधी हो जाती हैं।

ओशो

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