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गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-40)

बोधकथा-चालीसवीं 

एक मित्र कभी-कभी आते हैं। उन्हें देख सदा ही सुकरात का याद जाता है। किसी फकीर से सुकरात ने कहा थाः ‘‘बंधु, तुम्हारे फटे हुए फकीरी वस्त्रों में से सिवाय अभिमान के और कुछ भी नहीं झांकता है।’’
अहंकार के मार्ग अतिसूक्ष्म हैं। .ढी हुई विनम्रता उसकी सूक्ष्मतम गति है। ऐसी विनम्रता उसे ढांकती कम, प्रकट ही ज्यादा करती है। वह उन वस्त्रों की भांति ही होती है, जो शरीर को ढांकते नहीं, अपितु उघाडते हैं। वस्तुतः तो प्रेम को कर घृणा मिटाई जा सकती है और ही विनम्रता के वस्त्रों से अहंकार की नग्नता ही ढांकी जा सकती है। राख के नीचे जैसे अंगारे छिपे और सुरक्षित होते हैं और हवा का जरा सा झोंका ही उन्हें प्रकट कर देता है, ऐसे ही आरोपित व्यक्तित्वों में यथार्थ दबा रहता है। एक धीमी सी खरोंच ही अभिनय को तोड कर उसे प्रत्यक्ष कर देती है। ऐसी परोक्ष बीमारियां प्रत्यक्ष बीमारियों से ज्यादा ही भयंकर और घातक होती हैं। 

लेकिन स्वयं को ही धोखा देने में मनुष्य का कौशल बहुत विकसित है और वह उस कौशल का इतना अधिक उपयोग करता है कि वह उसका स्वभाव जैसा ही बन जाता है। हजारों वर्षों से जबरदस्ती सभ्यता लाने के प्रयास में इस कौशल के अतिरिक्त और कुछ भी निर्मित नहीं हुआ है। प्रकृति को मिटाने में तो नहीं, उसे ढांकने में मनुष्य जरूर ही सफल हो गया है। और इस भांति तथाकथित सभ्यता एक महारोग सिद्ध हुई है।
संस्कृति का आविर्भाव प्रकृति के विरोध से कैसे हो सकता है? उससे तो संस्कृति नहीं, विकृति ही फूलेगी-फलेगी। वास्तविक संस्कृति तो प्रकृति का ही सम्यक निखार है। आत्मवंचनाएं मनुष्य को कहीं भी नहीं ले जा सकतीं, लेकिन आत्मक्रांति की तुलना में आत्मवंचना बहुत आसान है, और सदा ही आसान को चुनने से भूल हो जाती है। आसान सदैव ही ठीक नहीं होता। जीवन के पर्वतीय शिखर छूने के लिए उतार की सुगमता को कैसे वरण किया जा सकता है? स्वयं को धोखा देना बहुत ही सुगम है। दूसरों को धोखा देने में तो पकडे जाने का भी भय होता है। स्वयं को धोखा देने में वह भय भी नहीं। दूसरों को धोखा देनेवाले पृथ्वी पर दंड और अपमान भोगते हैं, और परलोक में भी नरक की घोर यातनाएं उनकी प्रतीक्षा करती हैं। लेकिन स्वयं को धोखा देने वाले इस लोक में भी सम्मानित होते हैं, और उस लोक में भी स्वयं को स्वर्ग का अधिकारी मानते हैं। इसीलिए तो मनुष्य निर्भय होकर स्वयं को धोखा देता है। अन्यथा सभ्यता और धार्मिकता के सारे ढोंग पैदा ही कैसे हो सकते थे?
लेकिन क्या जो यथार्थ है, उसे मात्र छिपा कर मिटाया जा सकता है?
और क्या मनुष्य स्वयं को, सबको और अंततः परमात्मा को भी धोखा देने में समर्थ हो सकता है?
क्या ऐसी सब दौड निपट मूर्खता नहीं है?
व्यक्ति जैसा है, उसे स्वयं को वैसा ही जानना उचित है, क्योंकि स्वयं के यथार्थ को स्वीकार किए बिना स्वयं का कोई भी वास्तविक रूपांतरण नहीं हो सकता। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जैसे रोग को उसकी शत-प्रतिशत सच्चाई में जानना होता है, वैसे ही आत्मिक स्वास्थ्य के लिए भी आंतरिक रुग्णताओं को जानना आवश्यक है। रोग को ढांकना, रोगी के नहीं, रोग के ही हित में है। उपचार के लिए निदान अनिवार्य है। जो निदान से बचना चाहते हैं, वे उपचार से भी वंचित रह जाते हैं।
एक मूर्तिकार राल्फ वाल्डो इमर्सन की मूर्ति बना रहा था। इमर्सन रोज ही पत्थर पर उभरती आकृति को बहुत गौर से देखता था। और जैसे-जैसे मूर्ति बनती जाती थी, वह वैसे-वैसे गंभीर होता जाता था। अंततः जब एक दिन मूर्ति करीब-करीब तैयार हो गई, तो इमर्सन उसे देख कर बहुत गंभीर हो गया। मूर्तिकार ने उससे गंभीर होने का कारण पूछा, तो वह बोलाः मैं देख रहा हूं कि मूर्ति जैसे-जैसे मेरे जैसी होती जा रही है वैसे-वैसे कुरूप और भद्दी होती जाती है।
मैं स्वयं की कुरूपता, नग्नता और पशुता को देखने की इस सामथ्र्य को ही आत्मक्रांति का पहला सोपान मानता हूं।
वही मनुष्य, जो स्वयं के असौंदर्य को देखने में समर्थ होता है, स्वयं को सौंदर्य दे पाने में भी समर्थ हो पाता है। पहली सामथ्र्य के बिना, दूसरी सामथ्र्य कभी भी पैदा नहीं होती। और जो स्वयं की कुरूपता को ढांक कर विस्मरण करने में लग जाता है, वह तो सदा को ही कुरूप रह जाता है। स्वयं में रावण को जानना और स्वीकार करना, राम होने की ओर अनिवार्य चरण .है। जीवन की कुरूपता, उसके प्रति मनुष्य की मूच्र्छा में ही छिपी और सुरक्षित रहती है। मैं जैसा हूं, मुझे स्वयं को सर्वप्रथम वैसा ही जानना होगा, और कोई विकल्प नहीं है। यात्रा के इस प्राथमिक बिंदु पर ही यदि असत्य को जगह दी, तो अंत में सत्य हाथ नहीं सकता। किंतु हम तो स्वयं की वास्तविकता को कुरूप होने के कारण ही अस्वीकार कर देते हैं और एक अयथार्थ और कल्पित व्यक्तित्व का पोषण करने लगते हैं। सौंदर्य की यह चाह तो ठीक है, लेकिन मार्ग ठीक नहीं। स्वयं के असौंदर्य को सुंदर मुखौटे पहन कर नहीं मिटाया जा सकता। इसके विपरीत इन मुखौटों के कारण वह और भी असुंदर और कुरूप होता जाता है। फिर धीरे-धीरे स्वयं के समक्ष से भी स्वयं का बोध खो जाता है और झूठे मुखौटों से ही एकमात्र परिचय और पहचान रह जाती है। खुद का ही मुखौटा खो जाए तो खुद को ही पहचानना असंभव है।
एक महिला खजाने से रुपये निकालने गई थी। खजांची ने उससे पूछाः ‘‘मैं कैसे मानूं कि आप आप ही हैं? ’’ उसने जल्दी से बैग से दर्पण निकाला, देखा और कहाः ‘‘मानिए। मैं मैं ही हूं।’’
सत्य की खोज में, स्वयं की वास्तविक सत्ता की खोज में, सबसे पहले अपने ही पहने हुए मुखौटों से लडना होता है। स्वयं के वास्तविक चेहरे को खोजे बिना तो स्वयं का आविष्कार ही हो सकता है और परिष्कार ही। सत्य का भवन यथार्थ की बुनियाद पर खडा होता है, और सत्य के सिवाय और कोई शक्ति संस्कृति नहीं लाती है।

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