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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-08)

आठवां प्रवचन-(विधायक विज्ञान)

मैं सोचता था क्या आपको कहूं? मनुष्य का जैसा जीवन है, मनुष्य की आज जैसी स्थिति है, मनुष्य का जैसा आज रूप हो गया है, आज जैसी विकृति हो गई है, आज जैसा मनुष्य खंड-खंड होकर टूट गया है, उसको स्मरण रख कर, उस संबंध में ही कुछ कहूं, ऐसा मुझे खयाल आया। मैं आपको देखता हूं और पूरे देश में अनेक लोगों को देखता हूं। लाखों आंखों में झांकने का मुझे मौका मिला। इसे दुर्भाग्य कहूं और दुख कहूं कि कोई ऐसी आंख दिखाई नहीं पड़ती जो शांत हो। कोई ऐसी आंख नहीं दिखाई पड़ती जिसमें जीवन की गहराई और सत्य प्रकट होता हो। कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता जिसका जीवन संगीत से और आनंद से भरा हुआ हो।

इससे बड़ा और कोई दुर्भाग्य नहीं हो सकता है। इससे बड़ी कोई दुर्घटना नहीं हो सकती है कि मनुष्य के जीवन के भीतर कोई संगीत न रह जाए, कोई शांति न रह जाए, कोई आनंद न रह जाए। हम जीएं और केवल मृत्यु की प्रतीक्षा करें। हम केवल मरने को जीएं, हम केवल समाप्त होने को बने रहें। और हमारी सारी चेष्टाओं का और सारे प्रयासों का अंत केवल मृत्युमय हो जाए। और हम जीवन से परिचित न हो पाएं। इससे बड़ी और कोई दुर्घटना नहीं हो सकती।


और इस दुर्घटना के पीछे कोई और, कोई दूसरे व्यक्ति का हाथ नहीं है। इस दुर्घटना के पीछे हमारा अपना हाथ है। हम उन लोगों की तरह हैं जो जिन डगालों पर बैठते हैं, उन्हीं पर कुल्हाड़ी चलाते हैं। और हम उन लोगों की तरह हैं जो अपने ही हाथ से अपने जीवन के सारे भवन को भूमिसात कर लेते हैं। यह, यह स्थिति इसलिए पैदा होती है कि हममें से शायद ही कभी किसी को बोध पैदा हो कि जीवन को भी निर्मित करना होता है--संकल्प से और साधना से। जीवन बना-बनाया रेडीमेड उपलब्ध नहीं होता।
हम और सारी चीजें सीखते हैं, जीवन को जीना नहीं सीखते। और सारी बातों की शिक्षा है, जीवन की कोई शिक्षा नहीं है। हम सारे लोग बहुत कुछ सीखते हैं, लेकिन जो सीखने योग्य है उससे ही वंचित रह जाते हैं। वही हमें स्मरण में नहीं आ पाता। हम इतने खंड में, इतने सेग्मेंटरी, इतने टुकड़ों में जीते हैं कि हमें पता भी नहीं पड़ता कि अखंड जीवन क्या था? और उसे जीने का रास्ता क्या था?
कोई सांझ मुझे पूछता था, रोज ही कोई पूछता है। कोई संगीत को साधता है, कोई धन को साधता है, कोई यश को साधता है, कोई संपत्ति की तलाश करता है, कोई और कलाएं सीखता है। वैसे लोग मुझे खोजे नहीं मिलते जो जीवन सीखते हों और जो जीवन को साधते हों। और जो व्यक्ति जीवन को नहीं साधेगा, वह जीवन को कैसे उपलब्ध होगा? हम और सब कुछ साधते हैं, हम यह भूल जाते हैं कि केंद्रीय सत्य जो साधने का है, वह हमें स्मरण नहीं रह जाता।
नानक एक गांव में मेहमान थे। किसी व्यक्ति ने नानक को कहाः मेरे पास बहुत संपत्ति है, और यह संपत्ति मैं चाहता हूं कि दान कर दूं। और यह संपत्ति मैं चाहता हूं धर्म के किसी काम आ जाए। और मैं चाहता हूं आप इसका कोई उपयोग कर लें, मुझे आज्ञा दे दें। नानक ने कहाः सच, तुम्हें आज्ञा दूं, अब तक जितने संपत्तिशाली मुझे मिले हैं, उन सबको मैंने एक ही आज्ञा दी है, वही तुम्हें दूं। लेकिन स्मरण रखो, अब तक कोई उस आज्ञा को पूरा नहीं किया। तुम पूरा करोगे? उस व्यक्ति ने कहाः मैं अपना सब कुछ लगा दूंगा, ऐसी कौन सी आज्ञा होगी जिस पर मैं सब कुछ लगाऊं और पूरी न हो सके? और ऐसा क्या है जो न पाया जा सके? मेरे पास बहुत संपत्ति है, मैं सब लगाने को राजी हूं। नानक ने कहाः देखो, प्रयोग करो, संभव है बात बन जाए। और एक कपड़ा सीने की सुई उस आदमी को दी और कहा, इसे सम्हाल कर रखो, जब हम दोनों मर जाएं तो इसे वापस लौटा देना।
उस व्यक्ति ने नानक की आंखों में गौर से देखा। मुझे उन्होंने कहा होता मैं भी देखता, आपको कहा होता, आप भी देखते। उसने शायद सोचा होगा, नानक या तो पागल हैं या मजाक करते हैं। मरने के बाद सुई लौटा देना कैसे संभव होगा? सारी संपत्ति भी लगाने पर यह कैसे संभव होगा। लेकिन वहां भीड़ थी और बहुत लोग थे, और उस आदमी ने नानक को कुछ कहना ठीक न समझा। वह घर गया, उसने बहुत सोचा। उसने अपने मित्रों को पूछा, जिन्हें वह विचारशील समझता था, उनके पास गया और उनसे कहाः कोई रास्ता हो सकता है क्या? मैं अपनी सारी संपत्ति लगाने को तैयार हूं। क्या इस छोटी सी सुई को मैं मृत्यु के पार ले जाने में समर्थ हो जाऊंगा? लोगों ने कहाः पागल हो, आज तक मृत्यु के पार कुछ भी नहीं गया। वह खाई अलंघ्य है। उस खाई के पार ले जाना कुछ भी संभव नहीं है। और तुम्हारी कितनी ही संपत्ति हो, और तुम्हारी कितनी ही शक्ति हो, और तुम्हारी कितनी ही समृद्धि हो, वह कोई भी समर्थ न होगी, यह सुई उस पार चली जाए। यह सुई वापस कर दो, यह ऋण मृत्यु के बाद नहीं चुकाया जा सकेगा।
वह आदमी सुबह, जब कि अभी अंधेरा था, नानक के पास गया और उसने कहाः यह सुई अपनी वापस ले लें, कहीं ऐसा न हो कि हम मर जाएं और यह उधारी हम पर रह जाए। यह ऋण ऊपर रह जाए, मरने के बाद हम इसे न चुका सकेंगे। नानक ने कहाः तुम्हारी संपत्ति का क्या हुआ? और तुम्हारी शक्ति का क्या हुआ? और तुम्हारे उस दर्प का और अहंकार का क्या हुआ? इतना छोटा काम कि एक सुई, जिससे छोटी और कोई चीज नहीं है, वह भी मृत्यु के पार ले जा नहीं सकोगे? तो उस व्यक्ति ने कहाः माफ करें, क्षमा करें। इस सुई ने मुझे बहुुत दरिद्र बना दिया है। इस सुई ने मुझे बहुत दरिद्र बना दिया है। और मुझे पहली दफा पता चलाः हमारी कोई शक्ति नहीं, हमारी कोई संपत्ति नहीं, हमारा कोई सामथ्र्य नहीं। एक सुई को हम मृत्यु के पार न ले जा सकेंगे।
नानक ने कहाः और कुछ है तुम्हारे पास जिसे तुम पार ले जा सकोगे? उसने कहाः इस सुई ने सब दिखा दिया, कुछ भी मेरे पास नहीं है। तो नानक ने उस व्यक्ति को कहा था, तुम जो कमाते रहे, वह संपत्ति नहीं हो सकती। जो मृत्यु में साथ न आए, वह संपत्ति कैसे होगी? जो विपत्ति में साथ न आए, वह संपत्ति कैसे होगी? जो विपत्ति में साथ न आए, वह संपत्ति कैसे होगी? और विपत्ति क्या है?
जगत में सिवाय मृत्यु के और कोई विपत्ति नहीं है। बाकी सब सूचनाएं हैं। बाकी विपत्तियां नहीं हैं। बाकी सब टल जाती हैं, जो नहीं टल पाती वह अकेली मृत्यु है। बाकी सबसे हम जूझ लेते हैं, जिससे नहीं जूझ पाते वह मृत्यु है। इसलिए बाकी को विपत्ति न कहें, विपत्ति केवल मृत्यु है और जो मृत्यु में काम आ जाए, संपत्ति है। और हम जो कमाते हैं, वह मृत्यु में काम नहीं आएगा।
इसलिए नासमझ हैं जो उसे संपत्ति समझते होंगे। पर कुछ ऐसा भी कमाना संभव है जो मृत्यु में काम आ जाता है। और ऐसी भी संपदा है जो मृत्यु के पीछे पार हो जाती है। और ऐसी भी शक्ति है जिसे मृत्यु की लपटें नहीं जला पाती हैं। धर्म का संबंध उसी शक्ति से, उसी संपत्ति से है। और वह संपत्ति उस व्यक्ति को उपलब्ध होती है जो जीवन को साधता है। जो धन को साधता है, जो यश को साधता है, उसे उपलब्ध नहीं होती।
मृत्यु के पार होने की सामथ्र्य उसे उपलब्ध होती है जो जीवन को साधता है। क्योंकि जीवन की सिद्धि पर अमृत उपलब्ध होता है। जो जीवन को साधेगा, उसे अमृत उपलब्ध होगा। क्योंकि जीवन की अंतिम परिणति अमृत है। और जो जीवन को नहीं साधेगा, उसे मृत्यु ही केवल उपलब्ध हो सकती है। क्योंकि जीवन को न साधने का और परिणाम क्या होगा?
जीवन को न साधने का अर्थ अगर ठीक से समझें, तो मृत्यु को साधना है। जो धर्म को नहीं साध रहा है, वह केवल मृत्यु को साध रहा है। यह स्मरणपूर्वक दृष्टि में बैठ जाए, यह बात बहुत स्पष्ट दिख जानी चाहिए कि जो धर्म को नहीं साध रहा है, वह मृत्यु को साध रहा है। वह साधे या न साधे मृत्यु, मृत्यु के सिवाय उसके हाथ में अंत में कुछ भी आने को नहीं है।
जीवन के सामने एक ही प्रश्न है। और वह मृत्यु है। और कोई प्रश्न नहीं है। जीवन के सामने एक ही ज्वलंत प्रश्न है, वह मृत्यु है। वह यह है। जिन प्रश्नों को हम प्रश्न मान कर चलते हैं और जिनको हम जीवन भर सुलझाने की चेष्टा करते हैं, वे वास्तविक प्रश्न नहीं हैं। वे ऐसी समस्याएं नहीं हैं जिनका समाधान न हो। जिनके हम सब समाधान खोज लेते हैं।
लेकिन एक प्रश्न ऐसा है जिसका कोई समाधान नहीं मिलता। और उस समाधान के लिए जो साहस करता है, वही केवल ठीक अर्थों में, ठीक अर्थों में मनुष्य है। जो उस चरम समस्या को सुलझाने के लिए, उस चरम समस्या के समाधान के लिए प्रयासरत होता है, वही केवल पुरुषार्थ को, वही केवल साहस को, वही केवल अपने मनुष्य होने की घोषणा करता है। शेष कुछ भी पुरुषार्थ नहीं है।
 जो मृत्यु से घिरे हैं, उनके किए हुए कुछ का भी क्या मूल्य है? जो मृत्यु से घिरे हैं, उनके इकट्ठे किए हुए संग्रह का क्या मूल्य है? जो मृत्यु से घिरे हैं, उनके इकट्ठे किए हुए विचारों का क्या मूल्य है? जो मृत्यु से घिरे हैं, उनके यश का, सम्मानों का क्या मूल्य है? मृत्यु उनकी सारी चेष्टाओं को निष्फल कर देगी। और वे पाएंगे कि उनके हाथ में कुछ भी न था। जैसे रात्रि कोई सोए और स्वप्न देखे और स्वप्न में बहुत कुछ होने की आकांक्षाओं की तृप्ति देखे, और बहुत सी कामनाओं की पूर्ति देखे, और सुबह जाग कर पाए, वह कुछ भी हाथ में नहीं है।
वैसे ही एक दिन प्रत्येक व्यक्ति को मृत्यु का जागरण सारे स्वप्न को खंडित करके जगा देता है। और उसे ज्ञात होता है, जिन बातों को हमने समझा था कि हमारी मुट्ठियों में हैं, वे हमारी मुट्ठियों में नहीं हैं। और जिन चीजों को हमने समझा था, वे हमारी हैं, वे हमारी नहीं हैं। और जिन लोगों के साथ-साथ था, जिस संपत्ति के साथ मालकियत थी, वह कुछ भी हाथ में नहीं है। हम पुनः नग्न और दरिद्र खड़े हुए हैं।
मृत्यु जिस दरिद्रता को उघाड़ देगी, विवेकशील उसे मृत्यु के पहले उघाड़ लेता है। मृत्यु जिस असत्य को उघाड़ देगी, विवेकशील उसे मृत्यु के पहले उघाड़ लेता है। और मृत्यु जिन सपनों को तोड़ेगी, विवेकशील उन सपनों को पहले तोड़ देता है।
साधना का और धर्म का इससे ज्यादा कोई अर्थ नहीं है कि उन सपनों को जिसे मृत्यु तोड़ेगी, हम अपने हाथ से तोड़ दें। और उन संपत्तियों को जिन्हें मृत्यु छीनेगी, हम अपने हाथ से खुद जान लें कि वे हमारे पास नहीं हैं। जो इस भांति जाग सकता है मृत्यु के पहले, जो मृत्यु करेगी जो स्वयं पर कर सकता है, वही साधक है। वही धर्म में उत्सुक है। वही जीवन को साधने की तरफ उत्सुक हुआ है।
और हम हैं, और हमें प्रतीत होता है कि जीते हैं, और हम सब इस भ्रम में होते हैं कि हम जी रहे हैं। मैं यह भ्रम आपका तोड़ दूं, इससे बड़ा, इससे बड़ा और कोई साथ आपको नहीं दे सकता हूंः यह भ्रम आपका खंडित हो जाए। यह भ्रम खयाल से उतर जाए कि हम जिसे जीवन समझ रहे हैं वह जीवन है? तो यह, यह सबसे बड़ी बात हो सकती है जो कोई आपको साथ दे दे। महावीर ने या बुद्ध ने या कृष्ण ने और कुछ भी नहीं किया है, लोगों का भ्रम तोड़ा है। यह भ्रम तोड़ा कि वे जिसे जीवन समझ रहे हैं, वह जीवन नहीं है। यह भ्रम तोड़ा कि जिसे वे सब कुछ समझ रहे हैं, वह कुछ भी नहीं है। और यह भ्रम तोड़ा कि जिसे वे सत्य समझ रहे हैं, वह स्वप्न से ज्यादा, स्वप्न से ज्यादा उसकी कोई सत्ता नहीं है।
थोड़ा कभी सोचें, किसी विवेक के और विचार के क्षण में कभी पीछे लौट कर देखें। अभी थोड़ा विचार करें कि कल जो दिन व्यतीत हो गए हैं, क्या आज वे स्वप्न से ज्यादा मालूम होते हैं? क्या आज बहुत निश्चित हैं कि वे दिन कभी थे? आज बैठ कर देखें, पीछे एक नजर डालें, एक सिंहावलोकन करें, पीछे गर्दन को मोड़ें और देखें कि जो दिन बीत गए हैं, क्या उन दिनों में और जो सपनों में बीत गई हैं घटनाएं, उनमें कोई भेद है? आज लौट कर देखने पर अतीत और स्वप्न में कौन सा अंतर है? जो सच में जाना हो वह और जो स्वप्न में देखा था, उसमें कौन सी भेद-रेखा है?
क्या अतीत की स्मृति स्वप्न में घटी नहीं हो गई? क्या सारा अतीत स्वप्न नहीं हो जाता है? क्या जो हम जी लेते हैं वह स्वप्न में परिणित नहीं हो जाता है? और अगर अतीत स्वप्न में बदल गया हो, तो जिसे हम वर्तमान समझ रहे हैं, वह कितनी देर सच होगा? वह भी स्वप्न में परिणित हो जाएगा। और जिसे हम भविष्य समझ रहे हैं, वह कितनी देर सच होगा। वह भी स्वप्न में परिणित हो जाएगा। सब चंूकि अतीत हो जाता है, वर्तमान भी और भविष्य भी; इसलिए सब स्वप्न हो जाता है।
मृत्यु की घड़ी में जाकर, जब कोई पीछे लौट कर देखता है तो क्या दिखाई पड़ेगा? कोई सत्ता दिखाई पड़ेगी, कोई सत्य दिखाई पड़ेगा, जीवन एक कथा दिखाई पड़ेगी। पता नहीं, जो जीया भी गया या नहीं जीया गया। क्या यह खयाल करते हैं कि मृत्यु की घड़ी में यह नहीं दिखाई पड़ेगा कि जिसे हमने जीवन समझा था, वह जीए भी या नहीं भी जीए। कौन सा अंतर पड़ेगा? हो सकता है वह सब स्वप्न में देखा गया हो।
टाल्सटाय ने मरते वक्त अपनी डायरी में लिखा है: अब मैं पीछे लौट कर देखता हूं, तो मुझे यह शक होता है, या तो मेरी स्मृति खराब हो गई है या तो मेरी बुद्धि खराब हो गई है, लेकिन मुझे शक होता है कि पीछे जिंदगी जो मैं जीया था, वह सच में जीया था या मैंने किसी स्वप्न में देखी थी?
च्वांगत्सु चीन में एक बहुत अदभुत साधु हुआ। उसने लिखा एक रात मैंने स्वप्न में देखा कि मैं तितली हो गया हूं। फिर मैं सुबह जागा तो मुझे यह डर लगा, कहीं अब ऐसा तो नहीं है कि तितली स्वप्न देख रही हो कि वह मनुष्य हो गई है? च्वांगत्सु ने लिखा है, एक रात मैंने स्वप्न देखा कि मैं तितली हो गया हूं। फिर सुबह जब मैं जागा, तो मुझे लगा कि कहीं अब ऐसा तो नहीं है कि तितली स्वप्न देख रही हो कि वह मनुष्य हो गई है। और उसने लिखा, उसके बाद मैं तीस वर्ष जीया हूं, लेकिन मुझे यह शक बना ही रहा कि पता नहीं यह तितली स्वप्न देखती हो कि मनुष्य हो गई। जैसे मनुष्य स्वप्न देख सकता है कि तितली हो गया; तितली स्वप्न देख सकती है कि मनुष्य हो गई।
च्वांगत्सु की बात हंसने जैसी लग सकती है। लेकिन सच में रोने जैसी है। हम भी बहुत गौर करें, हम जो स्वप्न में देखते हैं उसमें, और जो हम चारों तरफ देख रहे हैं उसमें कोई बहुत बुनियादी अंतर है? जब हम स्वप्न में होते हैं तब जो स्वप्न में दिखाई पड़ता है, बिलकुल सच मालूम होता है। आज तक किसी को भी स्वप्न में पता नहीं चला कि वह जो देख रहा है वह स्वप्न है। क्या आपको कभी पता चला? आज तक इस पूरी जमीन पर करोड़-करोड़ लोगों ने करोड़ों सपने देखे हैं, लेकिन किसी ने स्वप्न में यह नहीं जाना कि जो वह देख रहा है, वह स्वप्न है।
स्वप्न में स्वप्न सत्य होता है। जागने पर पता चलता है कि वह असत्य था। तो अभी हम जो देख रहे हैं सोए हुए, वह हमें सच मालूम होता है। लेकिन कुछ लोग इस स्वप्न से भी जागे हैं। और उन्होंने कहा, यह भी स्वप्न है। महावीर या बुद्ध ऐसे ही जागे हुए लोगों में हैं, जिन्होंने कहा, यह भी स्वप्न है।
और मृत्यु पर यह जागरण प्रत्येक के जीवन में घटित होता है। जब उसे लगता है कि सब जो उसने जाना था, एक कथा हो गई, एक झूठी बात हो गई। पता नहीं हुई या नहीं हुई। और हुई ह‏ुई हो या न भी हुई हो, तो भी बराबर है। तो जो अंत में जी लेने पर व्यर्थ हो जाता हो, उसे जीवन नहीं कहा जा सकता। जो है, वह सदा ‘है’ रहेगा, वह नहीं नहीं हो सकता। और जो नहीं है वही एक दिन नहीं हो जाता है। जो स्वप्न है वही केवल किसी दिन स्वप्न मालूम हो सकता है, जो सत्य है वह हमेशा सत्य है।
जब रात मैं स्वप्न देखता हूं तब भी मुझे कितना ही मालूम पड़े कि वह सत्य है, तब भी स्वप्न है। जब सुबह जाग कर मैं देखूंगा तो पता चलेगा स्वप्न था। तो जागने पर थोड़े ही स्वप्न हो गया, स्वप्न तब भी था जब मैं सोया था और सत्य समझता था। जो एक दिन स्वप्न प्रतीत हो वह हमेशा स्वप्न था; जो किसी दिन स्वप्न प्रतीत न हो वही केवल सत्य है। जो किसी भी क्षण स्वप्न प्रतीत हो, वह हमेशा स्वप्न था। जो किसी क्षण भी स्वप्न प्रतीत न हो, जो किसी भी क्षण सत्य प्रतीत हो, वही सत्य है।
जिस जीवन को हम जीते हैं, वह जी लेने के बाद स्वप्न हो जाता है। उसे जीवन नहीं कहा जा सकता। वह एक सपना हैै। वह एक स्वप्न है। और जो वास्तविक जीवन को साधेगा उसे इस स्वप्न को छोड़ना होगा, तो ही वास्तविक जीवन साधा जा सकता है। जो जागना चाहता है उसे नींद तोड़नी होगी और सपने खोने होंगे। हो सकता है कोई बहुत सुखद सपने देख रहा हो, और हो सकता है कोई बहुत दुखद सपने देख रहा हो। हो सकता है कोई बहुत सम्मान के सपने देख रहा हो, और कोई बहुत अपमान के सपने देख रहा हो। लेकिन सपने सब बराबर हैं। और सपने में दरिद्र और समृद्ध में भेद नहीं है। क्योंकि सपना सपना है--चाहे वह दरिद्रता का हो, चाहे समृद्धि का हो। सब सपने बराबर हैं। सम्मान के और अपमान के और दरिद्रता के और समृद्धि के और यश के और अपयश के।
इन स्वप्न को छोड़े बिना कोई सत्य में जाग नहीं सकता है। और उस निद्रा को तोड़े बिना कोई परम जीवन को उपलब्ध नहीं होता है। इस निद्रा को तोड़ने के लिए क्या किया जा सके? यह नींद कैसे तोड़ी जा सकती है? ये स्वप्न कैसे तोड़े जा सकते हैं? हम कैसे स्वप्न के बाहर जाग सकते हैं?
प्रभु को, आत्मा को या सत्य को जो जानना चाहता है: उसे केवल एक ही बात, एक ही शर्त पूरी करनी होती है। एक ही शर्त, एक ही सौदा पूरा करना होता है। और सौदा बड़ा सस्ता और बड़ा अजीब है। स्वप्न खोने होते हैं जो सत्य को पाने को उत्सुक हों। और स्वप्न भी खोना क्या कोई खोना है। जो नहीं था उसे खोना है, ताकि हम उसे अनुभव कर सकें जो--है। स्वप्न के मूल्य पर सत्य मिलता है। हम उसको भी राजी न हों, तो हम फिर किस बात को राजी होंगे।
लोग समझते हैं महावीर ने संपत्ति छोड़ी, परिवार छोड़ा, धन छोड़ा, राज्य छोड़ा। मैं नहीं सोचता। स्वप्न भर छोड़ा। जो सोचता हो, धन छोड़ा, संपत्ति छोड़ी, यश छोड़ा, वह समझ नहीं रहा। असल में जो संपत्ति है वह तो छोड़ी नहीं जा सकती, केवल स्वप्न ही छोड़े और तोड़े जा सकते हैं। जो छोड़ा वह स्वप्न था, जो पाया वह संपत्ति थी। जो छोड़ा वह स्वप्न था, जो पाया वह संपत्ति थी। और हम देखते हैं, उन्होंने संपत्ति छोड़ी। और हम देखते हैं, उन्होंने राज्य छोड़ा। मैं आपको कहूं, जो पाया वह राज्य था, जो छोड़ा वह स्वप्न था। और हम देखते हैं, उन्होंने अधिकार छोड़े। और मैं आपको कहूं, जो पाया वह अधिकार था, जो छोड़ा वह कोई अधिकार न था। अब तक इस जगत में स्वप्न के सिवाय कोई कुछ छोड़ नहीं सकता। सत्य तो छोड़ा नहीं जा सकता, स्वप्न ही छोड़े जा सकते हैं। और निद्रा के सिवाय कोई कुछ त्याग नहीं सकता। और त्यागने को कुछ है भी नहीं। स्वप्न छोड़ना है और भूमिका तैयार करनी है ताकि सत्य का अवतरण हो सके।
इसलिए बात महंगी नहीं है, इसलिए सौदा बहुत सस्ता है। और वे लोग होशियार हैं जो इस सौदे को कर लेते हैं। और वे नासमझ हैं जो सौदे को नहीं कर पाते हैं। वे समझदार हैं इस अर्थ में जो सौदे को कर लेते हैं, क्योंकि वे छोड़ते कुछ भी नहीं और पा सब लेते हैं। और नासमझ वे हैं जो स्वप्न को पकड़े रहते हैं और सत्य को खो देते हैं। अगर त्याग ही कहना हो, तो हम जो कर रहे हैं, वह त्याग है। अगर त्याग ही कहना हो, तो हम जो कर रहे हैं, वह त्याग है--सत्य को छोड़े हुए हैं, स्वप्न को पकड़े हुए हैं।
महावीर और बुद्ध जो करते हैं, वह त्याग नहीं है। वह त्याग कैसे हो सकता है? सपनों को छोड़ते हैं और सत्य को पाते हैं। अगर स्वप्न को छोड़ना और सत्य को पाना त्याग है, तो जो मिट्टी को छोड़ दे और सोने को पा ले, उसको त्याग समझेंगे? हम त्यागी हो सकते हैं, वे त्यागी नहीं हैं। और हम अज्ञानी हैं इसलिए त्यागी हैं। जो ज्ञानी है, वह छोड़ता नहीं, पा लेता है। और जो अज्ञानी है, वह छोड़े बैठा रहता है और पाने से वंचित हो जाता है। अज्ञान है, त्याग है--ज्ञान तो उपलब्धि है। पर हमें वह त्याग जैसा दिखाई पड़ेगा। जैसे बहुत लोग सोए हों और कोई एक व्यक्ति जाग जाए, और उनको पता चले कि उसने नींद का त्याग कर दिया है। जैसे बहुत लोग भ्रम में हों, कोई एक आदमी का भ्रम टूट जाए और लोगों को पता चले, उसने त्याग कर दिया है।
एक कहानी मैं पढ़ता था। एक कहानी कहता था। एक गांव में एक जादूगर गया और उसने एक कुएं में एक मंत्र फूंक कर कुछ डाल दिया और कहाः अब इस कुएं का पानी जो भी पीएगा, पागल हो जाएगा। उस गांव में केवल दो ही कुएं थे। एक कुआं गांव का था और एक राजा के महल में था, राजा का था। गांव का कुआं विषाक्त हो गया। और उस फकीर ने कहा कि अब जो भी इस पानी को पीएगा वह पागल हो जाएगा। लेकिन मजबूरी थी। गांव के लोगों को उस कुएं का पानी पीना ही पड़ा। और सांझ तक सारा गांव पागल हो गया। क्योंकि बिना पानी के जीना कैसे संभव था? और सारे लोगों को पानी पीना पड़ा। और सांझ होते-होते सारा गांव पागल हो गया। लेकिन राजा के घर का अपना कुआं था। राजा ने, उसकी रानियों ने, उसके वजीरों ने उसका पानी पिया। और वे पागल होने से बच गए। लेकिन सांझ गांव में एक खबर फैल गई कि राजा का दिमाग खराब हो गया है। सांझ गांव में एक खबर फैल गई कि राजा का दिमाग खराब हो गया है। कुछ राजा गड़बड़ बातें कर रहा है। कुछ राजा के ढंग, भाव पता नहीं चलते। और सारे गांव के लोगों ने महल के सामने इकट्ठे होकर आवाज लगाई कि राजा का दिमाग खराब हो गया है। आप सिंहासन छोड़ दें, अब हम किसी ठीक आदमी को सिंहासन पर बिठाएंगे।
राजा बहुत घबड़ाया। वह अपनी छत पर खड़ा हुआ। तो उसने अपने वजीरों को कहाः अब क्या किया जाए? यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। यह गांव पागल हो गया है। लेकिन इस पागल गांव में हम अकेले अगर पागल नहीं हैं तो स्वाभाविक है कि हम पागल मालूम पड़ें। तो अब क्या करें? उसके वजीरों ने कहाः एक ही रास्ता है। उसी कुएं का पानी हम जल्दी पी लें। और राजा ने और उसके वजीरों ने उस कुएं का रात पानी पिया। और फिर रात देर तक गांव में जलसा होता रहा है कि राजा का दिमाग ठीक हो गया है।
तो उस दुनिया में जहां अज्ञान की बहुत भीड़ है और अंधकार घना है, जो अंधकार को छोड़ते हैं और प्रकाश को उपलब्ध होते हैं, वे त्यागी मालूम होते हैं। इस पागलों की भीड़ में, जो व्यर्थ को छोड़ते हैं और सार्थक को पाते हैं, वे त्यागी मालूम होते हैं। जब कि सच यह है कि त्यागी हम हैं। और ठीक-ठीक जीवन के अर्थ को उपलब्ध करने वाले वे लोग हैं जिन्हें हम त्यागी कहते हैं। त्याग कुछ छोड़ता नहीं है, त्याग वस्तुतः पाता है। और जैसे मेरे हाथों में मिट्टी भरी हो और कोई मुझे हीरे-जवाहरात दे दे और मैं मिट्टी को छोड़ दूं, हीरे-जवाहरातों के लिए खाली करने को मुट्ठी, ताकि हीरे-जवाहरात झेल सकूं। नीचे खड़े हुए लोग देखें कि मैंने मुट्ठी खोल दी है और मैंने सारी मिट्टी त्याग कर दी जो मेरे हाथों में थी। जैसी उनकी नासमझी होगी, वैसी ही हमारी नासमझी है। जब हम समझते हैं कि महावीर ने त्याग किया, महावीर को जो मिल रहा है वह हमें दिखाई नहीं पड़ता, हम उसके प्रति अंधे हैं। और महावीर जो छोड़ते हैं वही हमें दिखाई पड़ता है। उसी के प्रति हममें आंखें हैं।
महावीर सपनों को छोड़ रहे हैं वह हमें दिखाई पड़ता है, क्योंकि हम केवल सपने देख रहे हैं। और महावीर जिस सत्य को पा रहे हैं वह हमें दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि सत्य को देखने की हमारे पास कोई आंख नहीं है। इसलिए महावीर त्यागी मालूम पड़ते हैं। बुद्ध त्यागी मालूम पड़ते हैं। संन्यासी छोड़ता हुआ मालूम पड़ता है। जब कि सच में जो संन्यासी है वह छोड़ता कुछ भी नहीं, केवल सपने छोड़ता है और पाता सब कुछ है।
तो मैं आपको कहूं, सस्ता, बहुत सस्ता सौदा है। और कुछ त्यागने को नहीं कहता, कुछ पाने को कहता हूं। त्याग की भाषा ही गलत है। त्याग की भाषा ही गलत है। और जिन लोगों ने धर्म को त्याग की भाषा में खड़ा कर दिया है, उन्होंने धर्म को नुकसान पहुंचा दिया। क्योंकि हम सारे लोग छोड़ने की हिम्मत ही नहीं कर पाते हैं। मैं आपको कहता हूं, पाने की हिम्मत तो कर सकते हैं। छोड़ने की हिम्मत छोड़ दें। मैं आपको कहता हूं, धर्म को त्याग समझें ही नहीं। वह त्याग है भी नहीं। धर्म तो उपलब्धि है। धर्म तो पाजिटिव एचीवमेंट है। धर्म तो विधायक उपलब्धि है। कुछ पाना ही है वहां, खोना वहां कुछ भी नहीं है।
जिन लोगों ने शक्ल दी है धर्म को नकार की, खोने की, छोड़ने की, उन्होंने नुकसान पहुंचाया है। इस जमीन पर जो नुकसान पहुंचा है धर्म को वह नास्तिकों के द्वारा नहीं पहुंचा, वह उन लोगों के द्वारा नहीं पहुंचा जो कहते हैं ईश्वर नहीं है, जो कहते हैं आत्मा नहीं है। वह उन लोगों के द्वारा नहीं पहुंचा जो कहते हैं मोक्ष, स्वर्ग, नरक। यह सब बकवास है। वह उन लोगों के द्वारा नहीं पहुंचा जिन्होंने विज्ञान के बड़े चमत्कार किए हैं और विज्ञान से बड़ी शक्तियों की ईजाद की है। न विज्ञान के द्वारा, न नास्तिकता के द्वारा।
धर्म को नुकसान पहुंचा उन लोगों के द्वारा जिन्होंने धर्म को नकार की भाषा में, निगेशन की भाषा में, छोड़ने की भाषा में, त्यागने की भाषा में प्रस्तावित किया है। और जब छोड़ने, छोड़ने की बात हो तो हमारा मन राजी नहीं हो पाता। समझ नहीं पाते हम। सब छोड़ दें--पाने की कोई दृष्टि नहीं दिखाई पड़ती, छोड़ने की बात दिखाई पड़ती है। सब छोड़ना मालूम पड़ता है। और उस सब छोड़ने की वजह से हम वंचित हो जाते हैं। हम रुक जाते हैं।
मैं आपको दूसरे कोने से धर्म की बात कहना चाहता हूं। धर्म छोड़ना बिलकुल नहीं है। और इसलिए कमजोर से कमजोर पाने को राजी हो सकता है, ताकतवर से ताकतवर छोड़ने को राजी नहीं हो पाता। और इस दुनिया में हम सारे कमजोर लोग हैं। और जब हमसे छोड़ने की भाषा में बातें कही जाती हैं, तो सब गलत हो जाता है। वे हम पर बहुत भारी और बोझिल हो जाती हैं।
मैं आपसे छोड़ने को तो सिर्फ स्वप्न कहता हूं। कमजोर से कमजोर भी स्वप्न छोड़ने को राजी हो जाएगा। अत्यंत कमजोर भी स्वप्न छोड़ने को राजी हो जाएगा। इतना कमजोर कोई भी नहीं है इस जमीन पर जो स्वप्न न छोड़ सके। व्यक्ति ही इतना कमजोर इस जमीन पर कोई भी नहीं है जो स्वप्न न छोड़ सके। और अगर इतना कमजोर कोई हो फिर उसके लिए कोई रास्ता नहीं है। पर इतना कमजोर कोई है नहीं, इसलिए सबके लिए रास्ता है। इतना कमजोर सच में कोई नहीं है, इसलिए सबके लिए रास्ता है। इतना, और इतनी आकांक्षा से शून्य भी कोई नहीं है कि पाने को उत्सुक न हो। इतनी आकांक्षा से शून्य भी कोई नहीं है कि पाने को उत्सुक न हो। वे लोग जो धन पाने को इतने उत्सुक हैं, वे लोग जो यश पाने को इतने उत्सुक हैं, क्या वे लोग परमात्मा को या आत्मा को पाने को उत्सुक नहीं हो सकते?
वे निश्चित ही उत्सुक हो सकते हैं। क्योंकि परमात्मा धन से बहुत बड़ा है। और आत्मा यश से बहुत बड़ी है। जो यश को पाने को उत्सुक हैं, वे विराट आत्मा को पाने को उत्सुक न होंगे, यह मेरी समझ में नहीं आता। बल्कि मैं आप से कहूं कि हम जब भी कुछ पाना चाहते हैं, तब मूलतः हमारी प्यास परमात्मा को ही पाने की होती है।
एक आदमी यश पाना चाहता है। उससे पूछें, कितने यश से तृप्त हो जाओगे? उससे पूछें, कितने यश से तृप्त हो जाओगे? उससे कहें, ठीक-ठीक सीमा बताओ, कितने यश से तृप्त हो जाओगे? और क्या आप सोचते हैं वह कोई सीमा बताने को राजी हो जाएगा? अगर वह सीमा भी बताए और फिर उससे कहें कि थोड़ा और सोच लो, क्या इतने से तृप्त हो जाओगे। वह और थोड़ी सीमा आगे बढ़ा देगा।
क्या आप सोचते हैं, आज तक कोई भी व्यक्ति यश से तृप्त हुआ है, किसी भी सीमा पर? क्यों नहीं हुआ? शायद आप सोचते होंगे, क्यों नहीं हुआ? कितने धन से कोई आदमी तृप्त हो सकता है? कितने ही धन से तृप्त नहीं हो सकता, कितने ही। और कितनी शक्ति और समृद्धि से तृप्त हो सकता है? कितनी ही शक्ति और समृद्धि से तृप्त नहीं हो सकता, क्यों?
क्योंकि हमारे भीतर जो आकांक्षा है, वह अनंत संपत्ति को पाने की है। वह छोटी-मोटी संपत्ति से तृप्त नहीं होती। और हमारे भीतर जो आकांक्षा है, वह अनंत राज्य को पाने की है। छोटे-मोटे राज्य को पाने से तृप्त नहीं होती। और हमारे भीतर जो आकंाक्षा है वह मूलतः परमात्मा को पाने की है, उससे पहले तृप्त नहीं हो सकती। तो मैं आपको कहूं आपकी छोटी-छोटी वासना के पीछे भी, उसी अनंत की वासना छिपी बैठी है। और आपकी छोटी-छोटी आकांक्षा के पीछे ही वही परम अभीप्सा, वही अंतिम एंबीशन, वही महत्वाकांक्षा बैठी है।
मैं आपको दो बातें कहना चाहता हूं। एक बात तो यह कहना चाहता हूं कि धर्म छोड़ना बिलकुल नहीं है, धर्म पाना है। और पाने की भाषा में सोचें। और दूसरी बात मैं आपको कहूं, आपकी प्रत्येक आकांक्षा और वासना में, चरम रूप से वही छिपा है--जो परमात्मा, या आत्मा, या सत्य की आकांक्षा है। अगर आप अपनी वासनाओं को खोदें और उघाड़ें तो आप उनके भीतर परमात्मा की वासना को अनुभव करेंगे। और अगर आप धर्म के प्राण को समझें तो आप पाएंगे वहां छोड़ना कुछ भी नहीं है, पाना सब कुछ है।
एक बहुत, बहुत दिन हुए, कोई चैदह सौ, पंद्रह सौ वर्ष हुए, एक भारतीय साधु चीन गया था। वह वहां एक आश्रम में मेहमान था। उस आश्रम में बहुत साधु थे। उन साधुओं के गुरु ने इस साधु का स्वागत किया। भारतीय साधु का स्वागत किया। और उसके स्वागत में एक सभा की। और उस सभा में उसने बताया, अपने आश्रम के परिचय में बताया कि हमारे साधु शराब नहीं पीते हैं, मांस नहीं खाते हैं, चोरी नहीं करते हैं, बेईमानी नहीं करते हैं, परिग्रह नहीं रखते हैं। यह नहीं करते हैं, वह नहीं करते हैं। उसने बहुत बातें बताईं। वह भारतीय साधु बैठा सुनता रहा, और वह बीच में खड़ा हुआ और उसने कहाः क्षमा करें, मैं एक बात पूछूं? मैं यह तो समझ गया, ये साधु क्या-क्या नहीं करते हैं, क्या मैं यह पूछूं कि ये करते क्या हैं? उसने कहाः क्या मैं यह पूछूं कि ये करते क्या हैं? मैं यह तो समझ गया ये क्या-क्या छोड़ते हैं, क्या मैं यह पूछूं कि ये पाते क्या हैं?
क्या आप सोचते हैं कि सिर्फ छोड़ने पर कोई जीवन खड़ा हो सकता है? छोड़ना नकार है, छोड़ना शून्य है। छोड़ने पर कोई जीवन खड़ा नहीं हो सकता। छोड़ना तो मृत्यु है। छोड़ने पर तो मृत्यु खड़ी हो सकती है। जीवन खड़ा नहीं हो सकता। मृत्यु का मतलब ही है, जहां सब छूट जाए। छोड़ने पर मृत्यु खड़ी हो सकती है, जीवन नहीं। जीवन तो पाने पर खड़ा होता है। जीवन तो उपलब्धि पर खड़ा होता है। जीवन तो विराट से विराट की उपलब्धि पर खड़ा होता है।
परम संन्यासी वह नहीं है जिसने संसार छोड़ दिया। परम संन्यासी वह है जिसने ब्रह्म को, परमात्मा को उपलब्ध कर लिया। संसार का छोड़ना उस उपलब्धि के लिए कोई अर्थ नहीं रखता, कोई मायने नहीं रखता। वह वैसे ही है जैसे हमने एक कमरे में प्रकाश किया और अंधकार विलीन हो गया। कोई कहे हमने अंधकार छोड़ दिया। अंधकार छोड़ा नहीं है, हमने केवल प्रकाश किया। हमने प्रकाश को पाया, अंधकार नहीं छोड़ा। अंधकार छोड़ा भी नहीं जा सकता। छोड़ने का प्रयास हो तो भी नहीं छोड़ा जा सकता। अंधकार को छोड़ते कभी किसी को देखा है। कभी अंधकार का त्याग करते किसी को देखा है। कभी अंधकार को घर के बाहर विदा करते किसी को देखा है। अंधकार की न विदा हो सकती है, न त्याग हो सकता है, न अंधकार छोड़ा जा सकता है, न अंधकार का विनाश हो सकता है। अंधकार का विनाश करते भी कभी किसी को नहीं देखा होगा।
हां, प्रकाश का आगमन होता है, प्रकाश का स्वागत होता है, प्रकाश की उपलब्धि होती है; और अंधकार नहीं पाया जाता। अंधकार था ही नहीं। अंधकार केवल प्रकाश के न होने का नाम था। संसार की जो पकड़ है वह ब्रह्म की उपलब्धि का अभाव है। संसार पर जो हमारी जकड़ है, जो आसक्ति है, जो जोर है, जो उसे पकड़े रहने का मन है, वह जो हम सपनों को पकड़े हैं--वह केवल जागरण का अभाव है। अन्यथा कोई सपनों को पकड़ने को राजी नहीं होगा।
अभी इस कक्ष में अंधकार भर जाए और हम उसे निकालने लग जाएं, तो क्या होगा? क्या हम निकाल पाएंगे? हम टूट जाएंगे, अंधकार यहीं होगा। और कोई कहे कि अंधकार को निकालो, और अगर हम निराश हो जाएं, और अंधकार न निकले, और हम सोचें कि अंधकार बहुत शक्तिशाली है और हम बहुत कमजोर हैं, तो नासमझी होगी। अंधकार बिलकुल भी शक्तिशाली नहीं है। लेकिन अंधकार को निकालने का उपाय अंधकार का त्याग करना नहीं है। अंधकार को निकालने का उपाय प्रकाश को उपलब्ध करना है। उपलब्धि पहले है, उपलब्धि पहले है, उपलब्धि प्राथमिक है। और त्याग उसका अनुसरण करता है। छोड़ना उसके पीछे आता है, छाया की तरह त्याग आता है। पाना, पाना पहले आता है, त्याग उसके पीछे छाया की तरह है। पर हमको केवल छायाएं दिखती हैं, इसलिए त्याग दिखता है।
मैं आपको आज रात यही कहना चाहता हूं, धर्म त्याग नहीं, धर्म उपलब्धि है। और अगर यह दिखाई पड़े तो धर्म निगेटिव न रह कर पाॅजिटिव साइंस बन जाए। फिर वह नकारात्मक न रह कर एक विधायक विज्ञान बन जाता है।
तो मैं आपको नहीं कहता कि चोरी छोड़ दें, मैं आपको नहीं कहता बेईमानी छोड़ दें, मैं आपको नहीं कहता झूठ छोड़ दें, मैं आपको नहीं कहता हिंसा छोड़ दें; मैं आपको कहता हूं आत्मा को उपलब्ध करें। मैं आपको कहता हूं आत्मा को उपलब्ध करने की दिशा में विधायक संघर्ष करें, छोड़ने का विचार न करें, कुछ पाने का विचार करें। और आप पाएंगे जैसे-जैसे पाने की गति बढ़ती है, वैसे-वैसे छोड़ना अपने आप घटित होता चला जाता है। प्रकाश की तरफ अग्रसर हों और यह विधायक संकल्प अपने भीतर करें कि प्रकाश को पाना है। अंधेरे का विचार न करें, अंधेरे के विचार की कोई जरूरत नहीं।
मैं देखता हूं जैसे ही किसी व्यक्ति को खयाल उठता है धर्म का, वैसे ही उसे छोड़ने का खयाल भी उठता है--क्या छोडूं? मुझे लोग जगह-जगह मिल जाते हैं, वे मुझसे पूछे हैं, हम क्या छोड़ें? हम क्या त्याग कर दें? मैं उनसे कहता हूं तुम्हारे पास कुछ होता, तो हम कहते भी कि त्याग कर दो। मैं उनसे कहता हूं, तुम्हारे पास कुछ होता तो हम कहते भी कि त्याग कर दो। तुम्हारे पास सिवाय सपनों के और कुछ भी नहीं है। और तुम समृद्ध होते तो त्याग करते भी, तुम्हारे पास समृद्धि का तो कोई पता नहीं, सिवाय दरिद्रता के और कुछ पास नहीं है। दरिद्र छोड़ने के सपने देखते हैं। जिनके पास कुछ नहीं है, वे त्यागी होने का खयाल करते हैं। ऐसा आश्चर्यजनक है। मैं आपको नहीं कहता, मैं आपको नहीं कहता कुछ छोड़ने को, अभी कुछ है ही नहीं।
मैं आपको पाने को कहता हूं। और पाने के लिए, और पाने के लिए बड़ा भिन्न प्रयास होता है, छोड़ने के लिए बड़ा भिन्न प्रयास होता है। इसे स्मरण रखें, छोड़ने के लिए बड़ा भिन्न प्रयास होता है। यह बात इतनी नहीं है--अगर धर्म की नकारात्मक, निगेटिव पकड़ हो, तो सारे प्रयास दूसरे ढंग के होते हैं। और अगर धर्म की पाॅजिटिव, विधायक पकड़ हो, तो सारे प्रयास दूसरे ढंग के होते हैं। बहुत भेद पड़ जाता है। एक में हम छोड़ने के खयाल में रहते हैं, कुछ थोड़ा बहुत छोड़ने की कोशिश करते हैं। दूसरे में छोड़ने का खयाल नहीं होता, हम कुछ पाने की फिकर करते हैं।
तो मैं स्मरणपूर्वक आपको यह खयाल, यह विचार, यह बोध देना चाहता हूं कि आप धर्म को पाने के विचार से सोचें। और सोचें कि क्या पाना है। और सोचें कि मुझे क्या पाना है। और जब धर्म से पूछें कि हम क्या करें, तो पूछें कि हम क्या पाएं? यह न पूछें कि हम क्या छोड़ें? यह पूछे कि हम क्या पाएं? हम क्या उपलब्ध करें?
और जब आप यह पूछेंगे कि हम क्या उपलब्ध करें, तो बहुत भिन्न दिशा, बहुत भिन्न आयाम, और बहुत ही नये मार्ग का उदघाटन होगा। जो धर्म से पूछेगा, हम क्या छोड़ें? धर्म उसके लिए नीति की तरह उपस्थित होगा। और जो धर्म से पूछेगा, हम क्या पाएं? उसके लिए धर्म योग की तरह उपस्थित होगा। जो धर्म से पूछेगा, हम क्या छोड़ें? उसके लिए धर्म नीति की तरह उपस्थित होगा। चोरी छोड़ो, बेईमानी छोड़ो, यह न करो, वह न करो--इस भांति उपस्थित होगा। जो धर्म से पूछेगा, हम क्या करें? हम क्या पाएं? उसके लिए धर्म योग की तरह उपस्थित होगा।
धर्म की दो शक्लें हैं--एक नीति की शक्ल और एक योग की शक्ल। जब धर्म जीवित होता है, तो वह योग होता है। और जब धर्म मुर्दा हो जाता है, तो वह नीति हो जाता है। जो धर्म मर जाता है, वह नैतिक रह जाता है। और जो धर्म जीवित होता है, वह यौगिक होता है। वह अहिंसा नहीं साधता, अहिंसा उत्पन्न होती है। वह अपरिग्रह नहीं साधता, अपरिग्रह उत्पन्न होता है। वह साधता कुछ और है। वह योग साधता है, समाधि साधता है, ध्यान साधता है, वह कुछ और साधता है। दृष्टि बिलकुल भिन्न हो जाती है। जब नकार से कोई पकड़ता है तो नीति हाथ में रह जाती है।
नैतिक मनुष्य होना बुरा नहीं है, लेकिन नैतिक मनुष्य होने मात्र से कोई सत्य को उपलब्ध नहीं होता। नैतिक होना बुरा नहीं है, लेकिन नैतिक होने से ही कोई धार्मिक नहीं होता। यह हो सकता है एक आदमी चोरी न करे, यह हो सकता है कि एक आदमी बेईमानी न करे, यह हो सकता है कि एक आदमी असत्य न बोले। लेकिन इतने से ही काफी नहीं है कि वह सत्य को जाने। इतने से काफी नहीं है कि उसे आत्मा का अनुभव हो। एक नास्तिक भी नैतिक हो सकता है; लेकिन धार्मिक नहीं हो सकता। एक नास्तिक बिलकुल नैतिक हो सकता है। नैतिक होने में बाधा नहीं है। नैतिकता कोई क्रांति नहीं है। नैतिकता कोई नये सत्य के जगत से संबंधित नहीं करती है।
योग करता है।
और बड़े आश्चर्य की बात यह है कि कोई नैतिक कितना ही हो जाए, योग अपने आप नहीं आता। लेकिन अगर योग को कोई साधे तो नीति अपने आप आ जाती है। यह असंभव है कि योगी और अनैतिक हो। यह बिलकुल सहज है कि नैतिक योगी न हो। यह असंभव है कि योगी और अनैतिक हो। यह बिलकुल संभव है। यह सहज ही संभव है कि नैतिक योगी न हो। योग का नीति से कोई वास्ता नहीं। इस अर्थों में कि नीति साधने से योग नहीं आता; लेकिन योग साधने से नीति अपने आप चली आती है।
धर्म को योग की भांति पकड़ें, धर्म को योग की दृष्टि से पकड़ें। और पाने के लिए पूछें, तो सबसे पहली बात जब धर्म से पूछेंगे कि क्या पाना है? क्या उपलब्ध करना है? सबसे पहली बात तो यह खयाल में आएगी इसके पहले कि कुछ और पाने में हम लगें, जीवन को पाना है। जिन्हें जीवन ही उपलब्ध नहीं है, वे और क्या उपलब्ध करेंगे। जिन्हें जीवन उपलब्ध नहीं है, वे क्या और उपलब्ध करेंगे। सबसे पहली बात कि जीवन को उपलब्ध करना है। अभी जिसे हम जानते हैं, मैंने कहा, जीवन नहीं है।
एक साधु हुआ। उसके पास एक व्यक्ति बहुत दिन तक आता था। बहुत वर्षों आता था। एक दिन उस व्यक्ति ने उस साधु को कहाः मैं बहुत वर्षों से आपके निकट आया और बहुत निकट से आपको देखा है। और बहुत गहरी आंख से आपको देखा है। कई तरह से कोशिश की कि कोई दोष, कोई भूल, कोई पाप आपमें दिख जाए, वह नहीं दिखता। अपनी तरफ मैंने सब तरह से देख लिया, कोई कालिमा आपमें दिखाई नहीं पड़ती। तो अब मैं आपसे पूछता हूं, बाहर से तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन क्या भीतर भी आपके कोई कालिमा नहीं है? बाहर से तो कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन भीतर भी क्या दोष के बीज बिलकुल नष्ट हो गए हैं? और बाहर तो प्रकाश ही प्रकाश मालूम होता है, लेकिन कहीं दीये के तले अंधेरा तो नहीं? उस व्यक्ति ने उस साधु को पूछा--तो अब मैं आपसे ही पूछूं, क्योंकि मैं बाहर से देख सकता था, भीतर से तो आप ही अकेले देखते हैं। तो आपसे ही पूछ लेता हूं।
उस साधु ने कहाः इसके पहले कि इसका उत्तर दूं, एक और जरूरी बात बता देनी है, अन्यथा कहीं भूल न जाऊं। कल अचानक तुम्हारे हाथ पर मेरी दृष्टि पड़ी, तो पाया कि तुम्हारी उम्र समाप्त हो गई है, और सात दिन बाद ठीक सूरज डूबेगा और तुम भी डूब जाओगे। यह मैं भूल न जाऊं, इसलिए बता दूं। कल भी बातचीत में भूल गया था। अब फिर तुमने बातचीत शुरू की है, कहीं मैं भूल न जाऊं इसलिए बता दूं। अब तुम पूछो।
वह व्यक्ति बैठा था, वह उठ कर खड़ा हो गया। उस साधु ने कहा कि बैठो भी, तुम कुछ पूछते थे? वह बोलाः मुझे कुछ याद नहीं आता कि मैंने आपसे कुछ पूछा। अभी तो मुझे आज्ञा दें, फिर कभी समय हुआ तो मैं आऊंगा। उस साधु ने कहाः अब कभी समय नहीं होगा, पूछना हो पूछ ही लो। और अब मैं जानता हूं, अब तुम कभी नहीं आओगे। वह बोला, कि नहीं, समय मिला तो मैं आऊंगा। उस साधु ने कहा कि मैं तुम्हारे हाथ-पैर कंपते देख रहा हूं, मुझे डर है कि तुम घर तक भी पहुंच पाते हो कि नहीं। वह सीढ़ियां उतरता था, वह सीढ़ियों पर ही गिर पड़ा। उसे घर पहंुचाया गया, वह खाट से लग गया। सात दिन बाद सूरज डूबने को है, घर में सब उदासी है, सब रुदन है। मृत्यु आसन्न है, मृत्यु निकट है।
वह साधु उसके घर पहुंचा। वह आंखें बंद किए हुए करीब-करीब मृत ही पड़ा है। साधु ने उसे आवाज दी, बामुश्किल उसने आंख खोली; हाथ जोड़े, साधु को नमस्कार किया। साधु ने कहाः एक बात पूछने आया हूं, सात दिन में कोई पाप किया? सात दिन में भीतर कोई पाप उठा? वह व्यक्ति बोलाः आप एक मरते हुए आदमी से मजाक करते हैं। मौत इतनी निकट थी कि मेरे और मौत के बीच इतना फासला नहीं था कि पाप उठ सके। मौत इतने करीब थी कि बीच में अंतराल नहीं था, स्थान नहीं था खाली कि पाप उठ सके। खयाल ही नहीं आया सात दिन जी रहा हूं कि मर गया हूं, यही भूल गया। बार-बार ऐसा लगता कि जैसे मर गया, जैसे सात दिन पूरे हो गए। बस सात दिन केवल प्रतीक्षा की मृत्यु की और कुछ नहीं किया।
उस साधु ने कहाः अभी मृत्यु आई नहीं, केवल तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दिया है। वह जो तुमने पूछा था कि भीतर कालिमा शेष तो नहीं है, उसका केवल उत्तर दिया है, मृत्यु तुम्हारी आई नहीं है। वह आदमी घबड़ा कर बैठ गया, वह बोला, सिर्फ उत्तर दिया है! तो उसने कहा, मेरी तो जिंदगी बदल गई, अब मैं वही आदमी दुबारा नहीं हो सकता। अब दुबारा वही आदमी नहीं हो सकता।
मृत्यु का बोध धर्म में प्रवेश देता है। और आप यह मत सोचें कि उसकी सात दिन बाद थी इसलिए परिवर्तन हुआ। सत्तर वर्ष बाद भी हो तो कोई फासला बहुत ज्यादा नहीं है। सत्तर वर्ष में और उस सात दिन में बहुत अंतर नहीं है--गणित में होगा, जिंदगी में नहीं। जिंदगी में सात दिन और सत्तर वर्ष और सात क्षण बिलकुल बराबर हैं। गणित में फासले अलग-अलग हैं, जिंदगी में अलग नहीं।
इससे क्या फर्क पड़ता है कि मौत सात दिन बाद है या सत्तर वर्ष बाद। मौत है, इससे फर्क पड़ना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मौत कब है। मौत है, इससे फर्क पड़ना चाहिए। और मौत का होना हमें घबड़ा क्यों देता है? मौत का होना हमें घबड़ा इसलिए देता हैः जीवन को तो हम जानते नहीं, मौत हमें इसलिए घबड़ा देती है कि जीवन को हम जानते नहीं। अन्यथा मौत क्या घबड़ाएगी? जो जीवन को जानता है, उसे मौत नहीं घबड़ाएगी।
परीक्षा यही है: जिसे मौत न घबड़ाए उसने जीवन को जाना। जीवन को जानने की और कोई परीक्षा नहीं है। जिसे मौत न घबड़ाए, उसने जीवन को जाना। जिसे मौत अर्थहीन हो जाए, उसने जीवन को पहचाना। जिसे मौत विलीन हो जाए, वह जीवन से संबंधित हुआ, वह जीवित हुआ। जिसकी मौत नहीं है, वह जीवित हुआ। जिसने जाना कि मेरी मौत नहीं है, वह जीवित हुआ। उसने जीवन से संबंध स्थापित किया।
धर्म का जो विधायक विज्ञान है, उससे पहली बात तो पूछने की है कि जीवन क्या है? और हम उस जीवन से संबंधित कैसे हो जाएं? हम जिससे अभी संबंधित हैं वह मृत्यु से संबंधित हैं, जीवन से नहीं। हम जिन-जिन चीजों से संबंधित हैं, सब मृत्यु हमसे छीन लेगी। जो मृत्यु हमसे छीन लेगी वह स्वयं मृत्यु है। इस देह को हम समझते हैं हमारा होना, यह मृत्यु हमसे छीन लेगी। यह देह मृत है इसलिए मृत्यु छीन लेगी। जो मृत है, केवल मृत्यु उसी को छीन सकती है। जो मेरे भीतर शाश्वत है, जो मेरे भीतर चैतन्य है, जो मेरे भीतर जीवित है, उसे मृत्यु नहीं छीन सकती। वही अकेला शेष रह जाएगा।
तो अपने भीतर मुझे खोजना हैः क्या-क्या मृत है और क्या जीवित है। अपने भीतर एक भेद करना है, एक डिस्क्रिमिनेशन, एक फासला करना है अपने भीतर कि क्या-क्या मेरे भीतर मृत है और क्या मेरे भीतर जीवित है। उस सारे मृत को इनकार करना है अपने भीतर से जो जीवित नहीं है। और अंतिम रूप से केवल उसी शिखा को पकड़ लेना है जो जीवन है। यह योग है। यह धर्म का विधायक विज्ञान है। अपने भीतर निरीक्षण, अपने भीतर यह विवेक, अपने भीतर यह भेद, अपने भीतर यह बोध कि क्या-क्या मृत है।
कभी करें, इस करने का नाम ही साधना है। इसे चैबीस घंटे करें, इसे अखंडित रूप से...जीवन का यह हिस्सा बन जाए कि मैं यह जानूं और विचार करूं और विवेक करूं कि क्या-क्या मेरे भीतर मृत है। यह बहुत स्पष्टता से अनुभव हो जाता है।
क्या आपको नहीं दिखाई पड़ता--कभी आंख बंद करके बैठें--तो क्या यह दिखाई नहीं पड़ता कि मैं देह नहीं हो सकता हंू? क्या स्वप्न में, रात की निद्रा में आपको देह का पता रह जाता है? क्या आपको बोध रह जाता है रात को जब आप नींद में होते हैं कि देह भी आपकी है?
देह का तो स्वप्न में, निद्रा में कोई बोध नहीं रह जाता। लेकिन आपको अपना होने का बोध तो रहता है। जागते हैं तब पाते हैं कि देह भी है। लेकिन सो जाते हैं तब आप तो होते हैं, लेकिन देह नहीं होती। आपको अपना बोध तो होता है, लेकिन देह का बोध नहीं रह जाता। शायद आपको अपने चेहरे का भी कोई बोध नहीं रह जाता। शायद आपको अपने नाम का भी कोई बोध नहीं रह जाता। आप अपने घेरे को निद्रा की स्थिति में भूल जाते हैं। सुषुप्ति में तो बिलकुल भूल जाते हैं। जब स्वप्न भी नहीं होते तब तो बिलकुल भूल जाते हैं।
आपको अगर, आंख बंद करके कभी कुछ क्षण, कुछ घड़ी बैठ कर सिर्फ यह देखें, अपने भीतर खोजें कि क्या मैं देह हूं? सिर्फ यह देखें और खोजें, क्या मैं देह हूं? आंख बंद करके अपनी चेतना को घूमने दें और खोजने देंः क्या मैं देह हूं? पैर से लेकर सिर तक उसे घूमने दें और खोजने दें, और आप बहुत स्पष्ट अनुभव करेंगे कि देह आप नहीं हो सकते, देह आप नहीं हैं।
क्योंकि जो चेतना देह के प्रति जाग्रत हो रही है, जो चेतना देख रही है कि देह है, वह चेतना स्वयं देह नहीं हो सकती। जो भी देखा जा सकता है, देखने के कारण ही हम उससे पृथक हो जाते हैं। जिसके प्रति भी अवेयरनेस हो सकती है, जिसके प्रति भी हम जाग सकते हैं, जागने के कारण ही उससे अन्यथा और अलग हो जाते हैं। मैं आपको देख रहा हूं यह काफी है कि मैं आप नहीं हूं। मैं इन दीवालों को देख रहा हूं यह तय है कि मैं यह दीवाल नहीं हूं। क्योंकि जो देख रहा है मेरे भीतर, वह जो चेतना मेरे भीतर जाग कर देख रही है दीवाल को, वह दीवाल ही कैसे हो सकती है? अगर मैं जाग कर अपनी देह को देखूं, तो आप पाएंगे कि देह एक, एक खोल की तरह है। स्पष्ट दिखाई पड़ेगा कि देह एक खोल की तरह है। और आपकी चेतना बहुत भीतर है।
देह से जागना पहला चरण है जीवन की तरफ प्रवेश के लिए। देह में सोना होना स्वप्न में प्रवेश है। देह से जागना सत्य में प्रवेश का पहला द्वार है--देह के प्रति जागना, देह के प्रति बोध से भरना।
उस एकाग्र क्षण में जब आप अपने भीतर खोजते हैं, और चेतना भटकती है, और देह की दीवालों से लग-लग कर लौट आती है वापस, तो आप बहुत स्पष्ट अनुभव करेंगे कि देह एक खोल की तरह है और आप पृथक हैं। आपके भीतर एक नये बिंदु का, जो कि देह नहीं है--बोध होना शुरू हो जाएगा।
पहला चरण मैं देह नहीं हूं, इसके बोध का है। फिर और गहरा चरण उठाना पड़ेगा और देखना पड़ेगाः क्या मैं विचार हूं? क्या मैं मन हूं? स्वप्न में देह तो भूल जाती है, लेकिन मन काम करता है। लेकिन फिर स्वप्न भी बंद हो जाते हों और गहरी सुषुप्ति में आदमी जाता है, वहां मन भी काम नहीं करता, वहां मन भी नहीं होता। लेकिन हम होते हैं। सोते हैं, तो देह का विस्मरण हो जाता है। फिर सुषुप्ति में जाते हैं, तो फिर मन का भी विस्मरण हो जाता है। लेकिन हम होते हैं, हमारी सत्ता होती है, हमारे प्राण स्पंदित होते हैं।
एक द्वार है कि हम पहचानें कि हम देह नहीं हैं। फिर उसी निरीक्षण से जिससे हमने देह को पहचाना, उसी निरीक्षण से विचार को पहचानें, वह एक पतला घेरा है। देह एक स्थूल घेरा है। देह बहुत स्थूल घेरा है, जो हमें बाहर से घेरे हुए है। फिर मन का, वासनाओं का और विचारों का एक सूक्ष्म घेरा है, जो हमें भीतर घेरे हुए है। जो देह के प्रति जागेगा, उसे दूसरा प्रयोग मन के प्रति जागने का करना होगा। और उसे देखना होगा विचार को, मन को और पहचानना होगा--क्या मैं मन हूं? और मन के भीतर चक्कर काटना होगा। और एकाग्रता के उस क्षण में जब मन के भीतर कोई जाग कर देखेगा, तो उसे स्पष्ट दिखाई पड़ेगाः देह भी एक घेरा है, जो मुझसे बाहर है। और मन का भी एक घेरा है, जो मुझसे बाहर है।
एक द्वार देह का, दूसरा द्वार मन का। इन दो द्वारों को जो पार करता है, वह चैतन्य में प्रविष्ट होता है। चैतन्य में प्रवेश जीवन में प्रवेश है। क्योंकि चेतना भर नहीं मरती और सब मर जाता है। चेतना भर अमृत है, बाकी सब मृत है। उस चेतना को अनुभव कर लेना--जैसे कोई अंधेरे घर में दीया जला ले, वैसा ही उसका अनुभव होता है। सारे जीवन के अंधकार में एक दीया जल जाता है चैतन्य का।
और उस चैतन्य से जो तादात्म्य हो जाता है, तो सारा जीवन बदल जाता है। फिर त्याग अपने आप चला आता है उन सबका जिन्हें हमने छोड़ना चाहा था और नहीं छोड़ सके। और जिन्हें हमने बुरा जाना था, लेकिन बुरा जान कर भी करते थे। और जिन्हें हम विकृतियां मानते थे, लेकिन फिर भी जो हमें घेरे थीं और पकड़े थीं। और सारे दोष, और सारे पाप, जिनकी हमने कितनी आकंाक्षा की थी कि छूट जाएं, वह हम पाते हैं कि झड़ गए, जैसे पके पत्ते वृक्ष से झड़ जाते हैं। वैसे जिसके भीतर चैतन्य का दीया जागता है उसके बाहर दोष अपने आप विलीन हो जाते हैं और झड़ जाते हैं। जैसे अंधकार विसर्जित हो जाता है, वैसे जीवन का अंधकार विलीन हो जाता है।
जीवन के अंधकार को विलीन करने का विधायक उपाय है--योग। योग का सरलतम सीधा सा अर्थ हैः मृत जो है उससे तादात्म्य को छोड़ना, उससे आइडेंटिटी को छोड़ना। और वह जो जीवित है भीतर, उससे आइडेंटिटी खोजना, उससे तादात्म्य खोजना। मृत से दूर होना और चैतन्य के निकट होना। मृत से पृथक होना और चैतन्य में प्रतिष्ठित होना। यही ध्यान है। यही प्रार्थना है। यही धर्म है। और यह व्यक्ति को जीवन में ले जाता है। और जो जीवन में जाता है, जो जीवन को जानता है, उसके आनंद का, उसकी शांति का, उसके संगीत का, उसकी इन सारी बातों का अनंत-अनंत द्वार खुल जाता है।
वह पहली दफा जान पाता है यह सारा जीवन, यह सारा जगत कितने आनंद से भरा है। वह पहली दफा जान पाता है कितनी शांति है और कितना संगीत है और कितना सौंदर्य है। और तब, तब एक कृतार्थता और एक धन्यता मालूम होती है। तब जीना, श्वास लेना भी एक आनंद है। और तब इस जगत में कोई दुख नहीं है। जिस व्यक्ति ने जान लिया मृत्यु नहीं है, उसने जान लिया इस जगत में कोई दुख नहीं है। और जिसने जान लिया मृत्यु नहीं है, उसने सब जान लिया। उसने अमृत को जान लिया।
धर्म का संबंध इस विधायक विज्ञान से है। धर्म का संबंध छोड़ने, छोड़ने और छोड़ने की भाषा से नहीं है; धर्म का संबंध पाने से है। जो पाएगा, उससे कुछ छूट जाता है। जिसने कुछ पाया नहीं वह पागल अगर छोड़ दे, तो और मुश्किल में पड़ जाता है। जिसने कुछ पाया नहीं वह अगर छोड़ दे, तो और मुश्किल में पड़ जाता है। सपने की नाव थी, वह भी गई। और असली नाव उपलब्ध भी न हुई। उसकी स्थिति बहुत मझधार में हो जाती है।
मैं आपको छोड़ने को नहीं कहता, मैं आपको पाने को कहता हूं। और पाने की दृष्टि आप अगर पकड़ते हैं, तो धर्म पुनरुज्जीवित हो सकता है। धर्म मर गया उसकी नकारात्मक दृष्टि से। धर्म पुनरुज्जीवित हो सकता है विधायक दृष्टि से।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आपको कहीं, इस आशा में कहीं कि शायद कोई बात, शायद कोई बात ठीक लग जाए। शायद कोई बात आपके काम आ जाए। यह मेरे जैसे लोगों की खेती बड़ी अजीब है, यह तो पता नहीं पड़ता बीज कहां फेकें, किस पर गए, नहीं गए, कुछ पता नहीं पड़ता। यह भी पता नहीं पड़ता कि उनमें कभी कोई अंकुर निकलता है कि नहीं निकलता। यह भी पता नहीं पड़ता वे कभी, उनमें फिर फूल आते या नहीं आते हैं। यह, यह खेती अजीब सी है। लेकिन अगर लाख बीज फेंके जाएं और एक बीज में भी फूल आ जाए, तो भी श्रम सार्थक हो जाता है।
तो मैं यही आशा करता हूं कि वह आपका हृदय, उस एक बीज का स्थान बनेगा जिसमें फूल आ जाते हैं। परमात्मा करे, फूल से आपका जीवन भरे। और परमात्मा करे, प्रकाश और ज्योति आपके जीवन में आए, यही मेरी कामना और प्रार्थना है।

मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं।

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