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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-06)

छठवां प्रवचन-(मृत्यु का बोध)

बहुत से प्रश्न हैं। बहुत मूल्यवान प्रश्न हैं। एक-एक प्रश्न पर बहुत सी बातें कहूं, ऐसा उन्हें पढ़ कर मेरा मन हुआ। फिर भी सभी प्रश्नों के उत्तर शायद संभव नहीं हो पाएंगे। कुछ प्रश्न समान हैं, थोड़ी भाषा के भेद होंगे, लेकिन बात एक ही पूछी है, इसलिए उनका इकट्ठा उत्तर दे दूंगा। कुछ प्रश्न शेष रह जाएंगे, उन पर कल चर्चा हो सकेगी। सबसे पहले तीन-चार प्रश्न पूछे गए हैं।
मैंने उपवास के संबंध में कुछ कहा, पूछा हैः क्या उपवास से मेरा विरोध है? पूछा हैः क्या उपवास के द्वारा इंद्रियां शिथिल नहीं होतीं और विरक्ति नहीं आती। पूछा है कि क्या उपवास के माध्यम से ही महावीर ने, बुद्ध ने और दूसरे लोगों ने साधना नहीं की है? इस तरह बहुत से प्रश्न उपवास से संबंधित हैं।

तो सबसे पहले तो मैं यह कहूं कि उपवास से मेरा विरोध नहीं है। लेकिन अनाहार का नाम उपवास नहीं है। भोजन न करने का नाम उपवास नहीं है। अनाहार से मेरा विरोध है। और इन दोनों के भेद को आपको समझा दूं।

उपवास शब्द में भोजन न लेने की कोई ध्वनि भी नहीं आती। उपवास का अर्थ हैः आत्मा के निकट रहना। उसका अर्थ हैः परमात्मा के निकट वास करना। उससे भोजन का कोई संबंध ही नहीं है। भोजन करने वाला उपवासपूर्ण हो सकता है। और जिसने भोजन नहीं किया, हो सकता है उपवास में न हो। साधारणतः यही होता है कि जिसने भोजन नहीं किया है उसका चित्त भोजन के निकट ही वास करता है। उसका चित्त आत्मा के निकट वास नहीं करता। उसका चित्त और भोजन न देने के कारण शरीर के निकट हो जाता है। वह चैबीस घंटे भोजन के संबंध में ही विचार करता है।

उपवास बड़ी दूसरी बात है।
एक संन्यासी मेरे घर कुछ दिन तक मेहमान थे। उन्होंने एक दिन मुझसे कहाः आज मैं उपवास करूंगा। मैंने कहाः उपवास भी किया जा सकता है क्या? अनाहार किया जा सकता है। आप भोजन न करें, यह हो सकता है। लेकिन भोजन न करने से अगर कोई परमात्मा के निकट पहुंचता हो, तब तो बड़ी आसान बात है। बहुत आसान बात हो गई। परमात्मा के निकट पहुंचने का अर्थ मरना हो गया। एक आदमी भोजन न करे और मर जाए, तो मोक्ष हो गया। तो निश्चित ही परमात्मा के निकट पहुंच जाएगा। उपवास तोे हुई मृत्यु का नाम, भूखे मरते हुए मृत्यु का नाम परमात्मा के पास पहुंच जाना अगर नहीं है, तो आप दिन भर अगर भूखे रहे, उससे परमात्मा के निकट कैसे पहुंच जाएंगे?
मैंने उनसे कहा कि आप यह कर सकते हैं कि भोजन न करें, लेकिन उपवास बड़ी दूसरी बात है। वे बोलेः उपवास फिर क्या है? मैंने कहाः अगर भीतर मन इतना तल्लीन हो जाए कि भोजन का स्मरण न आए और भोजन चूक जाए तो उपवास है। अगर आत्मा में ध्यान इतना तल्लीन हो जाए कि शरीर की स्मृति न आए, तो जो भोजन चूक जाए तो उपवास है। भोजन चूकने से आत्मा की स्मृति नहीं आती, लेकिन आत्मा की स्मृति में कभी भोजन चूक सकता है। उपवास में अनाहार हो सकता है, लेकिन अनाहार में अनिवार्य उपवास नहीं है। उपवास का अर्थ हैः अपने भीतर ध्यान को आत्मलीन हो जाने देना। वे बोलेः यह तो बड़ा कठिन हुआ। फिर उपवास हमारे हाथ में नहीं रहा। वे कुछ दिन मेरे पास थे, मैंने उनसे कहाः किसी दिन जब चित्त बहुत शांत हो और स्मरण न आए देह का, तो समझना कि उस दिन उपवास हुआ है।
एक दिन उन्होंने आकर मुझे कहाः आज पूरा दिन बीत गया। आज मैं कुछ ऐसा लीन था भीतर कि मुझे दिन भर खयाल नहीं आया। अब मुझे खयाल आया है कि दिन बीत गया और भोजन नहीं किया। तो मैंने कहाः अब उपवास तोड़ दें। उपवास पूरा हो गया।
वे क्षण जो आत्म-ध्यान में व्यतीत हो जाएं और शरीर की स्मृति न लाएं, वे क्षण उपवास के क्षण हैं। ऐसे क्षण जरूर मनुष्य को जीवन में ऊंचाई की तरफ ले जाते हैं। लेकिन जिसे आप उपवास कहते हैं वह भूखा मरने से ज्यादा नहीं है। और अगर भूखे मरना कोई गुण है, तो फिर दुनिया में दरिद्रता बढ़ानी चाहिए, भूखे मरने के उपाय बढ़ाने चाहिए। भूखे मरना कोई गुण नहीं है।
यह कहा है कि भोजन न देने से इंद्रियां शिथिल होती हैं। तो यह तो आत्मघात हुआ। किसी कुएं में कूद जाएं, पहाड़ से कूद जाएं, इंद्रियां नष्ट ही हो जाएंगी, तो भगवान आपको मिल जाएगा। इंद्रियों को शिथिल नहीं करना है, इंद्रियों को जीतना है। आप सोचते होंगे, इंद्रियों को शिथिल कर देंगे तो जीत जाएंगे, तो आप गलती में हैं।
शिथिल इंद्रियां शक्ति तो खो देती हैं, लेकिन वासना नहीं खोती हैं। शिथिल इंद्रियां शक्ति खो देती हैं, लेकिन वासना नहीं खोती हैं। एक आदमी बूढ़ा हो जाए, इसी से क्या ब्रह्मचर्य हो जाता है। इंद्रियां तो शिथिल हो र्गईं। लेकिन बूढ़े का मन, युवक के मन से अधिकतर ज्यादा कामातुर होता है। इंद्रियां शिथिल हो जाने के कारण ही उसका मन और, और वासना से उत्तेजित होता है, क्योंकि पूर्ति का कोई उपाय भी नहीं रह जाता। पूर्ति का उपाय नहीं रहता, मन बार-बार पूर्ति के लिए चिंतातुर होने लगता है। इसलिए बूढ़े, मात्र बूढ़े होने से इंद्रियों के पार नहीं हो जाते। बल्कि इंद्रियां और पीड़ित करने लगती हैं।
पीछे अमरीका की एक युनिवर्सिटी में उन्होंने कुछ प्रयोग किया। उन्होंने बीस युवकों को भोजन देना बंद रखा। और रोज उनका अध्ययन किया कि उनकी चित्त गतियों में क्या परिवर्तन हो रहा है। कोई तीन-चार दिन तक उनको बहुत जोर से भूख सताती रही। चार दिन के बाद अक्सर भूख नहीं सताती है, क्योंकि भूखे रहने की आदत हो जाती है। और शरीर में एक परिवर्तन हो जाता है। वह परिवर्तन यह होता है।
शरीर तो बड़ा अदभुत यंत्र है, हमारे शरीर में जो मांस और चर्बी इकट्ठी है, वह अकारण नहीं है। अगर हम भोजन बंद कर दें, तो शरीर अपनी चर्बी पचाना शुरू कर देता है, वह मांसाहार है एक तरह का। हम अपना ही मांस खाने लगते हैं। इसलिए आपका वजन गिरने लगता है। आप एक दिन भोजन नहीं करेंगे, एक पौंड वजन गिर जाएगा। आपने अपने शरीर का एक पौंड मांस पचा लिया। शरीर ने दिन भर काम किया, शरीर ने मांस पचा लिया। मांस को पचाना रोज ही पड़ता है। आप भोजन से उसे पूरा कर देते हैं, तो काम चलता जाता है। आप भोजन बंद कर देंगे, तो जो स्टाॅक है आपके पास मांस का, वह कम होता चला जाएगा। चार-पांच दिन के भीतर आपका शरीर नया भोजन लेने की आदत छोड़ देता है और अपने ही मांस को पचाने लगता है।
आपने मेढक देखे होंगे, तो वे बर्षा में जिंदा हो जाते हैं करीब-करीब और बाकी समय मुर्दे की भांति मिट्टी में पड़े रहते हैं। लेकिन सूख जाते हैं, सारा मांस पचा जाते हैं। वहां रीछ होते हैं, साइबेरिया में, वे जब बहुत बर्फ गिरती है, तो बर्फ में दबे पड़े रहते हैं। जब वे बर्फ में दबते हैं, तब उनका शरीर बहुत भारी होता है। जब महीने, दो महीने, चार महीने बाद बर्फ पिघलती है तो निकलते हैं, तो बिलकुल हड्डी के ढांचे रह जाते हैं। उस बीच वे वहां पड़े-पड़े अपना मांस पचा जाते हैं।
तो अगर आप भोजन बंद कर दें, तो आपका मांस पचना शुरू हो जाता है। इसलिए मैंने कहा कि एक तरह की हिंसा है। आप दूसरे का मांस खाएं या अपना, दोनों स्थितियों में हिंसा है। और आप दूसरे का खा रहे हैं या अपने शरीर का खा रहे हैं, दोनों स्थितियों में शरीर हमेशा पराए हैं। दूसरे का शरीर भी मेरे लिए उतना ही पराया है, जितना मेरा शरीर पराया है। दोनों स्थितियों में शरीर, शरीर है, और दोनों स्थितियों में मांस, मांस है। इसलिए उपवास अनाहार वाला, जिसमेें कि आप अनाहार पर ही जोर दे रहे हैं, एक तरह का स्व-मांसाहार है।
वह उन्होंने प्रयोग किया अमरीका में। चार-पांच दिन के बाद उनकी भूख की प्रवृत्ति चली गई। इंद्रियां शिथिल होने लगीं। सातवें दिन उनकी बहुत सी रुचियों में परिवर्तन हुआ। उनके पास नंगी लड़कियों की तस्वीरें रखी रहीं, उन्होंने उन्हें उठा कर नहीं देखा। उनके पास गंदी से गंदी किताबें रखी गईं, वे उनके प्रति बिलकुल विरक्त रहे। पंद्रह दिन पूरे होते-होते कोई उनके सामने कैसी ही वासनापूर्ण बात करें, उनमें कोई उत्तेजना नहीं हुई। बिलकुल विरक्त हो गए। पंद्रह दिन के उपवास के बाद विरक्ति आ गई। फिर उनको धीरे-धीरे खिलाना शुरू किया, जिस ढंग से भोजन के छूटने से वासनाएं विलीन हुई थीं उसी ढंग से वह वापस जागने लगीं। पंद्रह दिन में वापस वे वही के वही आदमी हो गए।
तो इसमें क्या हुआ? कोई, कोई वृत्तियां नष्ट हो गईं? केेवल वृत्तियां शिथिल हो गईं। केवल इंद्रियां शिथिल हो गईं। मूल वृत्ति अपने भीतर वैसी की वैसी बनी रही।
इसलिए जो व्यक्ति भोजन छोड़ कर सोचता हो कि मैंने इंद्रियों को जीत लिया, वह केवल नासमझी में है, अज्ञान में है। अभी उसको भोजन दिया जाए, इंद्रियां फिर सजग हो जाएंगी। वापस सारी इंद्रियां अपनी सक्रियता पूरी कर लेंगी। इसलिए भोजन के न करने से कोई वासना नष्ट नहीं होती है, केवल इंद्रियां शिथिल होती हैं और वासना भीतर छिपी पड़ी रह जाती है। बीज-रूप में वासना बनी रहती है।
सवाल इंद्रियों को शिथिल करने का नहीं, सवाल वासना के परिवर्तन का है। इसलिए आप देखेंगे, महावीर या बुद्ध इनकी आपको इंद्रियां शिथिल मालूम होती हैं? इनकी मूर्तियां आपने देखी हैं, इनके चित्र देखे हैं, इनकी इंद्रियां आपको शिथिल मालूम होती हैं? इनसे ज्यादा स्वस्थ इंद्रियों के लोग खोजने कठिन हो जाएंगे। लेकिन इनके पीछे चलने वाले साधुओं को देखें, तो उनकी इंद्रियां जरूर शिथिल मालूम होती हैं।
वे उपवासी लोग थे, ये अनाहारी लोग हैं। भोजन उन्होंने छोड़ा नहीं है, कभी-कभी भोजन छूटा है, और मन भी छूट गया है। और यह बड़े रहस्य की बात है कि अगर भोजन अपने आप छूट जाए, तो उसका दुष्परिणाम शरीर पर अत्यंत न्यून होता है। और अगर चेष्टा से छोड़ा जाए, तो शरीर पर बहुत ज्यादा हो जाता है। शरीर पर इसलिए बहुत ज्यादा होता है कि आप चैबीस घंटे सोचते हैं, मैंने भोजन नहीं किया। यह सजेशन, यह आॅटो-सजेशन कि मैंने भोजन नहीं किया, और मैं कमजोर हो रहा हूं, और इंद्रियां शिथिल हो रही हैं, आपके चित्त को प्रभावित करता है और शरीर को क्षीण करता है।
लेकिन जिस व्यक्ति को शरीर का स्मरण ही न आए, जिसे खयाल ही न हो कि मैंने भोजन नहीं किया, और इंद्रियां शिथिल हो रही हैं, और शरीर कमजोर हो रहा है, तो यह आॅटो-सजेशन उसको उसके भीतर नहीं पकड़ते हैं, ये सुझाव उसको नहीं पकड़ते हैं, उसका शरीर बहुत मात्रा में अक्षुण्ण अपनी शक्ति को बचा पाता है।
उपवास बड़ी दूसरी बात है। मैंने जो विरोध किया, वह अनाहार का किया। अनाहार के मैं विरोध में हूं। क्योंकि मेरा मानना है कि इंद्रियों को शिथिल नहीं करना, बल्कि वासना को परिवर्तित करना है। और वासना के परिवर्तन के लिए स्वस्थ इंद्रियां अत्यंत आवश्यक हैं। अस्वस्थ इंद्रियों वाला व्यक्ति वासना के परिवर्तन को उपलब्ध नहीं होता है।
 इसलिए आम बीमार आदमी को कोई आध्यात्मिक आदमी मत समझ लेना। या जर्जर हुई वाले, इंद्रियों वाले आदमी को कोई आध्यात्मिक मूल्य मत दे देना। लेकिन दुनिया को कुछ ऐसा हुआ है और हमारे जैसे मुल्कों में इस बात का बहुत प्रचार किया गया है, धीरे-धीरे हम बीमारी और अस्वास्थ्य को भी अध्यात्म समझने लगे हैं।
एक काउंट कैसरलिंग हुआ वहां जर्मनी में। वह हिंदुस्तान से बहुत प्रभावित था। उसने अपनी किताबों में लिखा है कि स्वास्थ्य एक गैर-आध्यात्मिक बात है। स्वस्थ होना एक गैर-आध्यात्मिक बात है।
अगर इंद्रियों का शिथिल होना अध्यात्म है, तो बीमार होना अध्यात्म होगा? और इंद्रियों का स्वस्थ होना अध्यात्म का विरोध हो जाएगा। इंद्रियां स्वस्थ होनी चाहिए, वासना-शून्य होनी चाहिए, तो जीवन परिपूर्णता को उपलब्ध होता है। और वासना तो पूर्ण रहे और इंद्रियां सुस्त और शिथिल हो जाएं, तो जीवन केवल कुरूप हो जाता है। जीवन केवल अस्वस्थ हो जाता है। और वैसा व्यक्ति केवल कुंठा और पीड़ा में जीता है, किसी आत्म-आनंद को उपलब्ध नहीं होता।
यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं शरीर को मनुष्य की आत्मा का शत्रु नहीं मानता हूं, शरीर केवल वाहन है। आप उससे जो उपयोग लेना चाहते हैं वह देता है। अगर आप पाप में जाना चाहते हैं, शरीर राजी होता है। अगर आप पुण्य में जाना चाहते हैं, तो भी शरीर राजी होता है। नरक की यात्रा करनी हो, तो भी शरीर से होती है। और मोक्ष में भ्रमण करना हो, तो भी शरीर से होता है। शरीर का अपना कोई आप पर आग्रह नहीं है कि आप क्या करें। आप जो करना चाहते हैं, शरीर हमेशा उसको करने के लिए राजी और तैयार हो जाता है। शरीर अदभुत यंत्र है, शत्रु नहीं है, हमेशा मित्र है। पाप में जाएं तो भी मित्र है, पुण्य में जाएं तो भी मित्र है। और शरीर आपसे कुछ भी नहीं करवाता है, आप जो करना चाहते हैं वही शरीर से कर लेते हैं।
लेकिन हम शरीर के शत्रु हो जाते हैं। और हम समझते हैं कि शरीर के विरोध में लड़ कर कोई आत्मा उपलब्ध होगी। शरीर के विरोध में कोई सवाल ही नहीं है। शरीर से विरोध का कोई प्रश्न ही नहीं है। असल में शरीर से विरोध अध्यात्म नहीं है, एक तरह का रिएक्शन और प्रतिक्रिया है।
संसार में शरीर काम आता है, भोग में शरीर काम आता है, तो हम सोचते हैं कि शरीर जो कि भोग में काम आता है वह योग में कैसे काम आएगा? उसका विरोध करो, उसको नष्ट करो। भोगी की भूल थी कि वह सोचता था कि शरीर से मैं भोग कर रहा हूं, भोग भी मन से होता है। शरीर तो केवल उपकरण होता है। योगी की भूल होगी कि वह सोचे कि मैं शरीर को नष्ट करके योग कर रहा हूं। योग भी मन से होता है। शरीर हमेशा सहयोगी है, छाया की भांति आपके पीछे है। जहां आपका मन जाना चाहता है शरीर वहां जाने को हमेशा तैयार और तत्पर है। इसलिए जो जानते हैं वे शरीर के प्रति हमेशा अनुगृहीत अनुभव करते हैं, उसके प्रति विरोध और शत्रुता अनुभव नहीं करते। वे हमेशा शरीर के प्रति धन्यवाद अनुभव करते हैं।
संत फ्रांसिस की कल मैं बात कर रहा था। जिस दिन वह मरा, उसने अपने शरीर को अंतिम धन्यवाद दिया। और उसने कहाः मेरे शरीर, तेरे इतने उपकार हैं मेरे ऊपर, तूने ही सारे अनुभव मुझे दिए। तेरे ही अनुभवों, तेरी ही यात्रा से मैं आगे बढ़ा और ऊपर उठा, और तू सदा मेरा साथी था। चाहे मैंने बुरा किया हो, चाहे मैंने भला किया हो, तब इस अंतिम क्षण में जब कि मैं तुझसे विदा हो रहा हूं, तो मैं तुझे कैसे धन्यवाद दूं? किन शब्दों में मैं तेरा धन्यवाद करूं?
और मुझे दिखाई पड़ता है, जो जानेगा, उसका शरीर के प्रति विरोध गिर जाएगा। शरीर शत्रु नहीं है। शरीर हमेशा मित्र, मित्र है। किसी क्षण में शरीर आपका शत्रु नहीं है। लेकिन हम अपनी ही भ्रांति से अगर शरीर को शत्रु बना लें, तो हमारा जीवन शरीर से लड़ने में व्यतीत हो जाता है। और मेरा मानना है कि जो व्यक्ति शरीर से लड़ता है, वह एक अर्थ में मैटीरियलिस्ट है, वह भौतिकवादी है। वह आदमी आध्यात्मवादी नहीं है। शरीर के ऊपर उसकी बड़ी मान्यता है, बड़ा आग्रह है।
अभी मैं एक, एक जगह था। एक साध्वी ने मुझे कुछ प्रश्न पूछे, उन्होंने एक कागज पर लिखा हुआ था। तो मैंने उनसे कहाः कागज मुझे दे दें। उन्होंने बड़े ऊपर हाथ करके मुझे वह कागज छोड़ा। जैसे कहीं मेरे हाथ में उनका हाथ न छू जाए। तो मैंने उनको पूछाः इतने दूर हाथ को ले जाने का कष्ट क्यों दे रही हैं? क्या घबड़ाहट है मेरे हाथ से? अगर मेरा हाथ आपके हाथ को छू भी जाएगा, तो कौन सी परेशानी हो जाएगी?
निश्चित ही हाथ के छूने का डर अत्यंत भौतिकवादी मन का सबूत है। यह बुद्धि अत्यंत मैटीरियलिस्ट है। इसका विश्वास शरीर पर है, इसका विश्वास आत्मा पर नहीं है।
और मैंने उनसे कहाः आप ही निरंतर कहती हैं कि हम शरीर नहीं हैं, आत्मा हैं। और फिर यह शरीर से छूने की घबड़ाहट क्या है?
असल में भीतर दमन किया हुआ है सेक्स को। दूसरे का स्पर्श तत्क्षण उसमें गति दे देगा, उसको जगा देगा। वह घबड़ाहट, वह परेशानी। वह परेशानी दे रही है, यह हाथ तकलीफ नहीं दे रहा है। वह भीतर दबा हुआ सेक्स, वह भीतर दबी हुई कामना तकलीफ दे रही है। कोई भी स्पर्श तत्क्षण उसे जगा देगा। हाथ क्या करेगा, हाथ तो कुछ भी नहीं कर सकता है। शरीर क्या करेगा, लेकिन भीतर मन में दमन हो तो शरीर से शत्रुता मालूम होने लगती है। और मन की भूल-चूक को हम शरीर पर आरोपित करते हैं। हमारी आदत है यह, हमारी आदत यह है, हमेशा दूसरे पर दोष देने की हमारी आदत।
अगर मेरा आपसे झगड़ा हो जाए, तो मैं आपको दोष दूंगा, आप मुझे दोष देंगे। हमारी आदत है दूसरे को दोष देने की। जब जीवन में हम तकलीफ अनुभव करते हैं, तब भी हम अपने, अपने मन पर दोष नहीं लेते। इस गरीब शरीर पर दोष दे देते हैं कि इस शरीर का सब दोष है। और फिर इससे लड़ना शुरू कर देते हैं। ये सब भ्रांति की बातें हैं। इस शरीर से कोई शत्रुता का प्रश्न नहीं है। और जो शरीर से शत्रुता करेगा वह शरीर की शक्तियों को बदलने में कभी समर्थ नहीं हो सकता है।

इसी संदर्भ में एक और प्रश्न पूछा है कि वासना के संबंध में मेरा क्या खयाल है?

वासना शक्ति है, और वासना-शक्ति से जो लड़ेगा वह नष्ट हो जाएगा। वासना को परिवर्तित करना होता है, उससे लड़ना नहीं होता है। सेक्स ही परिवर्तित होकर ब्रह्मचर्य हो जाता है। सेक्स ब्रह्मचर्य का विरोध नहीं है। ब्रह्मचर्य ही सेक्स की ही परावर्तित ट्रांसफार्म स्थिति है। जगत में कोई शक्तियां नष्ट नहीं होती हैं। सिर्फ परिवर्तन होता है। जगत में कुछ भी नष्ट नहीं होता है, सिर्फ परिवर्तन होता है। शक्तियों का तो कोई विनाश कभी नहीं होता। घृणा की ही शक्ति परिवर्तित होकर प्रेम बन जाती है। क्रूरता की ही शक्ति परिवर्तित होकर दया और करुणा बन जाती है। जिनको आप वासना कह रहे हैं, वे ही वासनाएं परिवर्तित होकर जीवन में सत्य के लिए गति देने वाली शक्तियां हो जाती हैं।
आखिर आपने देखा होगा, अभी मैं रास्ते में आया तो बीच में एक जगह फूल लगे हुए थे। आपने देखा होगा घूरे पर गंदगी पड़ी रहती है। उस गंदगी से बास निकलती है, बदबू फैलती है। कोई पास से निकले तो नाक बंद कर लेता है। लेकिन वही गंदगी बगीचे में डाल दी जाए और बीज लगा दिए जाएं, तो वही गंदगी फूलों में सुगंध बन जाती है। वही गंदगी, वही फूलों मेें खिलती है और आप उन फूलों को खरीद कर लाते हैं, और प्रेम का उपहार देते हैं। वह वही गंदगी है जो घूरे पर पड़ी थी। यह उसका ही परिवर्तित रूप है।
सुगंध दुर्गंध का ही परिवर्तित रूप है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, जिसे आप निकृष्ट कह रहे हैं, उसी से जन्मता है। उसी से विकसित होता है, उसी से बनता है। इसलिए निकृष्ट का मेरा विरोध नहीं है। श्रेष्ठ निकृष्ट के विरोध में नहीं है, निकृष्ट का विकास है। उसी का ही परिशुद्ध, उसका ही शुद्ध होता हुआ रूप है।
मैं किसी वासना के विरोध में नहीं हूं। वासना के परिवर्तन के पक्ष में हूं। और जो वासना से लड़ेगा वह परिवर्तन नहीं कर सकता है। वासना से लड़ने वाला परिवर्तन कैसे करेगा? अगर कोई व्यक्ति अपने क्रोध से लड़ने लगा, तो क्रोध को परिवर्तित कैसे करेगा? लड़ने का प्रश्न नहीं है, क्रोध को जानने का, क्रोध से मैत्री करने का, क्रोध से परिचित होने का, क्रोध के रास्ते समझने का। और यह सब तो बहुत सहानुभूति और प्रेम में ही हो सकता है।
मैं इस जीवन में जो भी है उस सबको प्रेम करने के पक्ष में हूं, प्रेम के माध्यम से ही उसे हम जानेंगे, परिचित होंगे। और उसके परिवर्तन का रास्ता संभव हो सकेगा। परिवर्तन का मार्ग ही धर्म है। विनाश नहीं है वासना का, वासना का परिवर्तन है।
और इसलिए विनाश की जो दृष्टि है उसे मैं, उसे मैं डिस्ट्रक्टिव कहता हूं। वह क्रिएटिव नहीं है। वह सृजनात्मक नहीं है। और दुनिया में धर्म का जो ह्रास हुआ, धर्म का जो पतन हुआ, उसका एक मात्र कारण है कि धर्म ने बहुत विनाषक दृष्टिकोण पकड़ लिया है। सृजनात्मक दृष्टिकोण उसका नहीं है। वह आपकी सारी वासनाओं के विरोध में खड़ा हो गया है। जब कि उसे आपकी वासनाओं के परिवर्तन का मार्ग बनना चाहिए।

पूछा है एक प्रश्न कि धर्म का ह्रास क्यों हो रहा है? पतन क्यों हो रहा है? इतने संत हुए हैं, इतने महात्मा हुए हैं, इतनी टीचिंग्स हैं उनकी, इतने धर्म हैं, लेकिन धर्म का पतन क्यों हो रहा है?

धर्म का पतन इसलिए हो रहा है कि जिनको हम जानते हैं कि महावीर को, बुद्ध को वे सारे लोग अपनी वासनाओं को सृजनात्मक रूप से परिवर्तित किए, लेकिन उनके पीछे आने वाला आदमी उनको विनाश करने लगा। और यह होने के पीछे कुछ कारण हैं।
कारण यह है कि जब भी हम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जिसकी वासनाएं विलीन हो गईं, तो हम भी सोचते हैं कि हमारी भी वासनाएं विलीन हो जाएं। पर हम जो, जो रुख अख्तियार करेंगे, वह भूल इसलिए हो जाती है, महावीर को लोगों ने देखा। लोगों ने देखा कि महावीर के जीवन में अब बिलकुल हिंसा नहीं रही, उनका जीवन परिपूर्ण अहिंसक है। तो लोगों ने सोचा, हम भी हिंसा को नष्ट करें। लेकिन उन्हें पता नहीं महावीर ने हिंसा नष्ट नहीं की, महावीर ने अहिंसा उपलब्ध की है।
इन दोनों के फर्क को समझ लें आप। महावीर ने हिंसा नष्ट नहीं की है, महावीर ने अहिंसा उपलब्ध की है। अहिंसा को उपलब्ध होने से हिंसा विलीन हो गई। लेकिन हमको दिखाई पड़ता है महावीर के जीवन में कोई हिंसा नहीं है, तो हम भी पैर फूंक कर रखें, हम भी पानी छान कर पीएं, हम भी रात्रि में खाना न खाएं, हम भी कुछ ऐसे उपाय करें कि हमारी हिंसा विलीन हो जाए।
इस भवन में प्रकाश जल रहा है, बाहर से लोग देखेंगे कि इस भवन के लोगों ने अंधेरा अलग कर दिया। अब कोई पागल अपने घर जाए, उसके घर में अंधेरा हो, तो वह भी अंधेरे को धक्के देकर निकालने लगे। कि एक कमरे में हमने देखा है कि लोगों ने अंधेरा अलग कर दिया है, अंधेरा अलग हो गया है, वहां प्रकाश आ गया है।
लेकिन बात उलटी है, अंधेरा अलग नहीं होता। प्रकाश आता है और अंधेरा नहीं पाया जाता। अंधेरे को अलग करके प्रकाश नहीं आता है, प्रकाश के आने से अंधेरा विलीन हो जाता है। लेकिन हमें दिखाई यही पड़ता है कि अंधेरा नष्ट हो गया। ऐसे ही हमें दिखाई पड़ता है कि महावीर के जीवन में हिंसा नष्ट हो गई। क्राइस्ट के जीवन में दुश्मनी, शत्रुता नष्ट हो गई। बुद्ध के जीवन में क्रूरता नष्ट हो गई। यह हमें दिखाई पड़ता है। तो हम भी अपनी क्रूरता को, हिंसा को नष्ट करने में लग जाते हैं।
जब कि सच्चाई यह है कि कोई चीज नष्ट नहीं होती, कोई चीज उपलब्ध होती है। बुद्ध को प्रेम उपलब्ध हुआ है, प्रेम को उन्होंने पाया है और इसलिए सारी घृणा विलीन हो गई है। वह सारी शक्ति जो घृणा के मार्ग से बहती थी, अब प्रेम के मार्ग से बह रही है। धर्म नकारात्मक, निगेटिव हो तो उसका ह्रास बिलकुल अनिवार्य है। धर्म पाॅजिटिव हो, विधायक हो, तो उसका विकास होता है। जिन लोगों ने भी सत्य को या परमात्मा को या आत्मा को अनुभव किया है, वे सारे लोग विधायक थे। उन सबका जीवन दृष्टिकोण पाॅजिटिव था। लेकिन उनके पीछे अनुगमन करने वाले का दृष्टिकोण हमेशा निगेटिव होता है।
यह निगेटिव होना बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि हमें व्यक्ति का आचरण दिखाई पड़ता है उसकी आत्मा दिखाई नहीं पड़ती। अगर आप मुझे देखें तो आपको मेरी आत्मा तो दिखाई नहीं पड़ेगी, मेरा आचरण दिखाई पड़ेगा। तो आप भी आचरण से चलना शुरू कर देंगे। आचरण हमेशा नकारात्मक होता है; और आत्मा हमेशा विधायक होती है।
महावीर को हम देखें, बुद्ध को देखें तो हमें क्या दिखाई पड़ता है? दिखाई पड़ता है कि वह हिंसा नहीं करते, यह दिखाई पड़ता है। उनके भीतर जो प्रेम का जन्म हुआ है वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। हिंसा नहीं करते हैं, यह दिखाई पड़ता है। किसी का अपमान नहीं करते हैं, यह दिखाई पड़ता है। किसी का बुरा नहीं करते हैं, यह दिखाई पड़ता है। लेकिन उनके भीतर कौन सा विधायक तत्व पैदा हुआ है, जिसके कारण वह यह नहीं करते, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
आचरण दिखाई पड़ता है, क्योंकि आचरण बाहर है। आत्मा दिखाई नहीं पड़ती, क्योंकि आत्मा भीतर है। और तब हम सोचते हैं अगर ऐसा ही आचरण हमारा भी हुआ, तो हम भी उनके जैसी आत्मा को पहुंच जाएंगे। यह गलती बात हो जाती है। आत्मा से आचरण निकलता है, आचरण से आत्मा नहीं पहुंची जाती। आप बिलकुल महावीर जैसा आचरण करें, तो भी आपके भीतर महावीर का ज्ञान उत्पन्न नहीं होगा। आप एक एक्टर हो जाएंगे, एक अभिनेता हो जाएंगे।
आखिर एक्टर्स क्या कर रहे हैं दुनिया में? अभिनेता क्या कर रहे हैं? आचरण बिलकुल कर सकते हैं। और कई दफा तो यह हो सकता है कि जिसका आचरण कर रहे हैं, वह आदमी भी संदेह में पड़ जाए।
जापान में पिछले, पहले महायुद्ध में एक बहुत बड़ा सेनापति हुआ। उसकी प्रसिद्धि सारी, सारी दुनिया में थी। सारा जापान उसके पीछे पागल था। एक लड़का भी उन दिनों, मिलिटरी में शिक्षा ले रहा था। और उसके मन में भी कामना थी कि वह भी वैसा ही सेनापति बन जाए। लेकिन सारी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के बाद तैरने की एक परीक्षा में उसके सिर में चोट आ गई और वह फिर मिलिटरी से बहिष्कृत कर दिया गया। वह तो इतना दुखी हुआ, क्योंकि उसकी कामना थी कि वैसा सेनापति बन जाए। उसने अपना आत्मघात करने के लिए हाराकिरी कर ली। लेकिन बचा लिया गया किसी भांति। बचा लेने के बाद उसका पिता उसे अमरीका ले गया। वहां जाकर वह धीरे-धीरे अभिनय करने लगा, ड्रामा। बाद में उस सेनापति के ऊपर एक फिल्म बनी। और उसने उसमें काम किया। उस, उस लड़के ने उस सेनापति की जगह काम किया। खुद बुढ़ापे में वह सेनापति उस फिल्म को देखने गया। और उसने उस अभिनेता को एक पत्र लिखा कि मैं हैरान हूं, अगर मुझे चुनना पड़े तो तुम्हीं असल मालूम पड़ोगे और मैं नकल मालूम पडूंगा। उसने उस पत्र को सम्हाल कर रख लिया। उसने कहाः यह मेरे जीवन की आकांक्षा थी कि मैं तुम जैसा बन जाऊं। मैं बन गया।
और ऐसे पागल बहुत दुनिया में हैं। जो अभिनय करके सोचते हैं कि हमारी आकांक्षा थी कि हम महावीर जैसे बन जाएं, बुद्ध जैसे बन जाएं। हम बन गए।
अगर महावीर आ जाएं, तो ये महावीर के जो साधु हैं, उनसे अव्वल नंबर ले लेंगे। यह उनसे अगर इनकी परीक्षा हो, तो उनसे पहले उत्तीर्ण हो जाएंगे, इनको ज्यादा माक्र्स मिलेंगे। क्योंकि ये अभिनेता हैं। अभिनेता जितना कुशल हो सकता है, उतना वह आदमी होना कठिन हो जाता है जो मूल है। क्योंकि उसके तो एक्शन स्पांटेनियस होते हैं, सहज होते हैं। इनका तो सब बंधा हुआ होता है। यह भूल-चूक इनसे बिलकुल नहीं होती।
अभिनय पैदा होता है आचरण को देख कर। और इसलिए धर्म का पतन होता है। धर्म अभिनय नहीं है। धर्म असल में किसी का अनुकरण ही नहीं है। जो भी आदमी किसी को फाॅलो करता है, किसी का अनुकरण करता है, वह अभिनेता हो ही जाएगा। अनुकरण का अर्थ ही अभिनय है।
लेकिन सारी दुनिया में यह ही सिखाया जाता हैः अनुकरण करो, पीछे जाओ, महावीर जैसे हो जाओ, बुद्ध जैसे हो जाओ, राम जैसे हो जाओ। यह बिलकुल पागलपन की शिक्षा है। इससे ज्यादा मूर्खतापूर्ण और कोई बात नहीं हो सकती कि कोई आदमी किसी दूसरे जैसा हो जाए। अभिनेता हो जाएगा और क्या होगा?
हर मनुष्य की अपनी गरिमा है, और हर मनुष्य का अपना अद्वितीय स्वभाव है। अगर हम खोजने जाएं, एक छोटे से पत्थर को भी, तो दूसरा वैसा ही पत्थर इस जमीन पर नहीं मिल सकेगा। अगर एक पत्ते को हम तोड़ लें दरख्त के और खोजने जाएं सारी जमीन पर, तो ठीक वैसा दूसरा पत्ता नहीं मिल सकेगा। लेकिन आदमी को पागलपन सवार है कि क्राइस्ट जैसे बनो, मोहम्मद जैसे बनो। और फिर भी पच्चीस सौ वर्षों के अनुभव के बाद हमारी आंखें नहीं खुलतीं। क्राइस्ट को मरे दो हजार वर्ष होते हैं, दूसरा क्राइस्ट बन सका? लेकिन लाखों पागल इस कोशिश में लगे हैं कि क्राइस्ट जैसे बन जाएं। महावीर को हुए ढाई हजार वर्ष हो गए। कृष्ण को हुए और भी ज्यादा वर्ष हो गए, राम को हुए और भी ज्यादा, कोई दूसरा कृष्ण और दूसरा राम पैदा होता है? लेकिन हमारी आंखें नहीं खुलतीं, फिर भी हम कहते हैं, अनुकरण करो, उन जैसे बन जाओ।
कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा नहीं हो सकता। और अगर भगवान को यही इच्छा थी कि उन्हीं जैसा बनाना है, तो आपके पैदा करने की कोई जरूरत नहीं थी। आप यूनीक हैं, आप अद्वितीय हैं, आप अपनी सत्ता लेकर पैदा हुए हैं। आपको किसी की नकल करने का जिम्मा नहीं है। आपके ऊपर कोई रिस्पांसिबिलिटी नहीं है कि आप दूसरे आदमी की नकल बन जाएं। और दुनिया में नकलची हो जाएंगे, तो दुनिया विकृत होती चली जाएगी, क्योंकि वहां असली आदमी बिलकुल नहीं रह जाएंगे। इस दुनिया में झूठापन इसीलिए है कि सारे लोग किसी दूसरे जैसे बनने की कोशिश में लगे हैं। अगर हर आदमी अपने ही जैसी बनने की कोशिश में लगे, जो वह है, अपने भीतरी तल पर वही हो जाए, दुनिया बेहतर हो जाएगी।
धर्म अनुकरण नहीं है, धर्म स्वयं हम जैसे हैं वैसा होने की शिक्षा है। किसी के पीछे जाने का कोई सवाल नहीं है। धर्म का क्यों पतन हुआ है इतनी शिक्षाओं के बाद, उसका कारण यह है।

एक और प्रश्न पूछा है कि इतने-इतने बड़े लोग पैदा हुए, उन्होंने जब दुनिया को ऊपर उठा दिया, तो फिर दुनिया बार-बार नीचे क्यों गिर जाती है?

यह तो ऐसी ही बात हुई कि आप कहें कि मेरे पिता ने बहुत शिक्षा ली थी, तो अब, अब मैं अशिक्षित कैसे हूं? अब मुझे शिक्षा की कौन सी जरूरत है? या आप कहें कि मेरे पिता तो बहुत बड़े पढ़े-लिखे आदमी थे, तो अब मुझे पढ़ने-लिखने की कौन सी जरूरत है? नहीं, आपके पिता कितने ही पढ़े-लिखे हों, आपके खून में पढ़ाई-लिखाई नहीं आती। आपको फिर पढ़ना-लिखना होगा।
तो दुनिया में बड़े लोग पैदा होते हैं, बड़ी हवाएं पैदा होती हैं, बड़े समाज पैदा होते हैं, लेकिन वह सब उनकी पीढ़ी के साथ समाप्त हो जाता है। नई पीढ़ी को फिर वहीं से शुरू करना होता है, जहां उन्होंने शुरू किया था। धर्म के जीवन में हम किसी के कंधे पर खड़े नहीं हो सकते। अपने ही पैरों पर खड़े होना होगा। कोई आप महावीर, बुद्ध के कंधों पर खड़े नहीं हो सकते कि हम तो उनके कंधों पर खड़े हैं, हमें उनसे बेहतर होना चाहिए। आप अपने पैर पर खड़े हैं, महावीर अपने पैर पर खड़े हैं। कोई किसी के कंधे पर खड़ा नहीं हो सकता। उनकी उपलब्धि उनकी चेष्टा है, आपकी चेष्टा आपकी उपलब्धि बनेगी। इसलिए दुनिया में ऐसा नहीं हो सकता, अभी यह दुनिया है, बहुत कोशिश की जाए, बहुत बड़ा आंदोलन हो, बहुत बड़ी क्रांति हो, लाखों लोग ज्ञान को उपलब्ध हो जाएं, आत्म साक्षात हो जाए। तो इसका मतलब यह थोड़े ही है कि पचास साल बाद इनके जो बच्चे होंगे, वह आत्मसाक्षात को उपलब्ध हों। उनको फिर कोशिश वहीं से प्रारंभ करनी पड़ेगी।
जीवन का कोई भी सत्य खुद ही सीखना होता है। और अपने ही पैरों पर सीखना होता है। यही वजह है कि हमेशा हम वापस वहीं के वहीं पहुंच जाते हैं। जहां से, जहां से दूसरे लोगों ने अंत किया था वहां से हमारा प्रारंभ नहीं होता, हमें अपना ही प्रारंभ अपने ही प्रारंभ से करना होता है। इसलिए दुनिया में आध्यात्मिक तल पर कोई विकास दिखाई नहीं पड़ता है। और वह कभी नहीं होगा, क्योंकि विकास दूसरे से नहीं आता। उसे लाने की चेष्टा अपनी और निज होती है।

इसी संदर्भ में पूछा है, मैंने कल कहा कि जीवन के सत्य को जानने के लिए मौत का सतत बोध आवश्यक है। तो पूछा हैः अगर मौत का सतत बोध होगा, तो धरती पर स्वर्ग लाने की चेष्टा, सृजनशीलता का तो ह्रास हो जाएगा, उसको तो प्रोत्साहन नहीं मिलेगा। क्या इस निषेधात्मक व्यक्तिनिष्ठ प्रक्रिया के लिए उससे भिन्न विधायक सामूहिक कार्यक्रम नहीं हो सकता है?

यह जो मैंने कहा, मृत्यु का बोध, यह कोई निषेधात्मक बात नहीं है। मृत्यु कोई, कोई झूठी और कोई काल्पनिक बात नहीं है। मृत्यु से बड़ा सत्य कुछ नहीं है। मृत्यु से ज्यादा पाॅजिटिव और क्या है? मृत्यु से ज्यादा विधायक और क्या है? और सब चीजें संदिग्ध हो सकती हैं, मृत्यु भर असंदिग्ध। और सब चीजें की हुईं, न की हुईं हो सकती हैं, और सारी घटनाएं घटे, न घटे, लेकिन मृत्यु भर असंदिग्ध है। तो मृत्यु को निगेटिव क्यों कहते हैं आप? मृत्यु से ज्यादा पाॅजिटिव और क्या है? उससे ज्यादा विधायक और क्या है? वही तो निश्चित तथ्य है।
लेकिन मृत्यु से हम डरे हुए लोग हैं, इसलिए हमें लगता है कि मृत्यु की याद करेंगे तो सब निषेधात्मक हो जाएगा। मृत्यु की याद करने का सवाल नहीं है, आप मृत्यु में खड़े ही हुए हैं। आप मृत्यु में खड़े ही हैं। याद करें या न करें, यह थोड़े ही, कोई जबरदस्ती याद करने को थोड़े ही कहा जा रहा है। आप उसमें खड़े हुए हैं, आपको चारों तरफ से मृत्यु घेरे हुए है। इसे देखना जरूरी है।
क्योंकि यह तो तथ्य है, और तथ्य को जो नहीं देखेगा, वह सत्य को कैसे पा सकेगा। तथ्यों को देख कर ही सत्य तक जाने का मार्ग बनता है। लेकिन डर लगता है कि अगर हम मृत्यु, मृत्यु का सतत स्मरण रखेंगे, तो जीवन से हमारे पंजे हट जाएंगे। जीवन पर हमारी पकड़ छूट जाएगी। निश्चित ही जिसको आप जीवन समझ रहे हैं, उस पर पकड़ छूट जाएगी। लेकिन उस पर पकड़ छूट ही जानी चाहिए। वह जीवन है ही नहीं।
वह जीवन होता तो पकड़ नहीं छूटती। अगर मौत के स्मरण से जीवन पर पकड़ छूट जाती है, तो वह जीवन नहीं है। जिस पर पकड़ छूट जाए, वह कोई जीवन है? मृत्यु के स्मरण मात्र से जो जीवन व्यर्थ हो जाए, वह कोई जीवन है? वह जीवन नहीं है। लेकिन हम डरते हैं, क्योंकि हम उसी को जीवन समझे हुए हैं। हम उन चीजों को जीवन समझे हुए हैं, जो कि हमारे पास हैं ही नहीं।
अब जैसे एक भारतीय साधु रामतीर्थ अमरीका और यूरोप से घूम कर वापस लौटे। वे हिंदुस्तान में एक छोटी सी रियासत के मेहमान हो गए। उस राजा ने उनसे एक दिन सुबह आकर पूछा कि मैं ईश्वर को जानना चाहता हूं। मुझे कुछ बताएं। रामतीर्थ ने कहाः ईश्वर को जानना चाहते हो या ईश्वर से मिलना चाहते हो? उस राजा ने कहाः मिला दें तो और भी बड़ी कृपा होगी। लेकिन जब उसने यह कहा, मिला दें, तो उसे जरा भी खयाल नहीं था कि यह आदमी मिलाने को राजी हो जाएगा। कौन मिलाने को राजी होगा? उसने बहुत संन्यासी देखे, बहुत पंडित देखे थे, जो ईश्वर की बातें तो करते हैं, लेकिन मिलाने का सवाल उठे तो मार्ग से हट जाएंगे। रामतीर्थ ने कहा कि मिलना चाहते हैं, तो अभी मिलना चाहते हैं या थोड़ी देर ठहर सकते हैं? राजा और भी हैरान हुआ। उसने कहाः यह आदमी या तो पागल है और यह हद झूठी बात कह रहा है। अब कहने लगा कि अभी मिलना चाहते हैं या थोड़ी देर ठहर सकते हैं? उस राजा ने कहाः जब आप कहते ही हैं, तो मैं अभी मिल लूं। रामतीर्थ ने कहाः यही मैं चाहता था, ऐसे लोग मुश्किल से ही आते हैं जो अभी मिलना चाहते हों। तो ठीक है, फिर थोड़ा सा काम कर दें। मैं जरा उनको खबर कर दूं आपसे मिलने के लिए। वह राजा बहुत हैरान हुआ कि क्या बातें कर रहे हैं? उसने कहा भी कि मैं परमात्मा से मिलने की बात कर रहा हूं, आप कुछ गलती तो नहीं समझ गए हैं, किसी और से मिलने की बात तो नहीं समझ गए हैं? तो रामतीर्थ ने कहाः मैं तो परमात्मा के सिवाय किसी की बात ही नहीं करता हूं, इसलिए भूलने का कोई सवाल नहीं है। आप एक कागज पर अपना परिचय लिख दें, मैं जरा उनके पास पहुंचा दूं। आपसे भी कोई मिलने आता होगा तो आप लिखवा लेते हैं कि आप कौन हैं। राजा ने कहाः उचित है, ठीक ही है। मैं भी किसी से पूछता हूं तो पूछ लेता हूं कि कौन है, क्या है, किसलिए मिलना चाहता है।
उसने अपने कागज पर अपना नाम लिखा। लिखा कि मैं फलां स्टेट का मालिक हूं, लिखा कि मेरा फलां मकान है, ये सारी बातें लिखीं। और उसने रामतीर्थ को दिया। रामतीर्थ हंसने लगे और उन्होंने कहाः इतने झूठ को लेकर भगवान से मिलना नहीं हो सकता। झूठ? उस राजा ने कहाः इसमें झूठ जरा भी नहीं है। मैं राजा हूं। यही मेरा नाम है। यही मेरा भवन है। रामतीर्थ ने कहाः इस भवन में तुम कितने दिन से हो? इस भवन में तुम्हारे पहले कोई और था और उसके पहले भी कोई और था। और तुम अपने साथ भवन को ले जाओगे या तुम्हारे पीछे कोई और इसमें रहेगा? तुम मालिक कैसे हो सकते हो? राजा थोड़ी चिंता में पड़ गया। इस भवन का मालिक होना कठिन है। रामतीर्थ ने कहाः यह सराय है, तुम्हारा मकान नहीं है, इसमें और लोग भी रहे हैं, और लोग रहेंगे। इसमें तुमसे पहले बहुत लोग रहे हैं, तुमसे बाद में बहुत लोग रहेंगे। तुम भी एक मेहमान हो इस मकान में। लेकिन तुम्हारा मकान, इस भ्रम में मत रहो।
उस राजा ने कहाः यह तो ठीक ही कहते हैं कि मेरे बाद कोई न कोई इस मकान में रहेगा। मैं इसको ले जाने में असमर्थ हूं। तो जिसको तुम ले जा नहीं सकते, उसके मालिक कैसे हो सकते हो? उस राजा ने कहाः छोड़ें, मकान की बात छोड़ दें। लेकिन मैं राजा तो हूं। यह जो मेरा नाम है, यह तो मेरा है।
रामतीर्थ ने कहाः अगर तुम्हारा नाम तुम्हारे पिता ने दूसरा रख दिया होता, तो क्या तुम दूसरे आदमी हो जाते? या आज तुम्हारा नाम हम बदल दें, तो क्या तुम दूसरे आदमी हो जाओगे? क्या नाम के बदलने से तुम्हारे भीतर कुछ बदलेगा?
उस राजा ने कहाः नाम के बदलने से भीतर क्या बदलेगा? नाम ही बदलेगा, मैं तो जो हूं वही रहूंगा।
तो रामतीर्थ ने कहाः फिर यह नाम तुम्हारा होना नहीं है। यह तुम्हारा कोई, कोई अनिवार्य हिस्सा नहीं है। इसके बदलने से कुछ बदलाहट नहीं आती। तुम फिर भी वही रहोगे। और तुम कहते हो मैं राजा हंू। कल अगर तुम भिखारी हो जाओ, तो तुममें क्या बदल जाएगा? तुम्हारे भीतर क्या बदल जाएगा? तुम्हारे बाहर चीजें बदल जाएंगी--महल की जगह झोपड़ा होगा, बहुत नौकर-चाकर की जगह कोई भी नहीं होगा, बहुत संपत्ति तुम्हारे बाहर है, फिर बाहर तुम्हारे पास टूटे-फूटे बर्तन होंगे, भिक्षा का पात्र होगा। लेकिन तुम्हारे भीतर क्या बदल जाएगा तुम्हारे राजा न होने से?
उसने कहाः यह भी मैं सोचता हूं तो पाता हूं कि मेरे भीतर तो कुछ भी नहीं बदलेगा। सब बदलाहट बाहर होगी। तो फिर रामतीर्थ ने कहाः वह जो भीतर है, जो किसी बदलाहट से नहीं बदलता, उसका अगर तुम परिचय दो, तो परमात्मा से मिलाऊं। और नहीं तो यह सब जो, जो झूठा है, इससे कोई वास्ता नहीं। इससे कोई संबंध नहीं है। यह नाम तुम्हारा नहीं है, मालिक तुम नहीं हो, राजा तुम नहीं हो। तुम कौन हो, उसके बाबत कुछ बात होनी चाहिए। वह राजा चुप रह गया। अगर यह शर्त हो, तो फिर उसने कहा, बड़ा कठिन है, मैं तो अपने को जानता नहीं।
हम जिसे जीवन कहते हैं, वह जीवन है? अगर आप विचार करेंगे, तो पाएंगे वह जीवन नहीं है। जिसे आप समझते हैं अपना व्यक्तित्व, वह आपका व्यक्तित्व है? विचार करेंगे, तो पाएंगे यह व्यक्तित्व नहीं है। तो इस डर से कि कहीं यह भ्रम टूट न जाए। सोचें कि विचार करना बड़ी खतरनाक बात है। विचार तो बड़ा निषेधात्मक है। जो भी चीज पर विचार करो उसी का निषेध हो जाता है। इसलिए फिर विचार ही मत करो। अगर यह सोचते हो, तो दूसरी बात है। लेकिन अविचार ही निषेधात्मक है। उसके कारण ही जो वास्तविक जीवन है वह दिखाई नहीं पड़ता और जो अवास्तविक जीवन है वह दिखाई पड़ता है।
एक शराबी शराब पीए हो, हम उससे कहें कि तुम जरा शराब पीना बंद करो, फिर दुनिया को देखो। वह कहे, मेरी सारी दुनिया बदल जाएगी। जो मैं शराब पीकर देख रहा हूं, उस सबका निषेध हो जाएगा। आप कैसी निषेध की शिक्षा देते हैं। मेरी सारी दुनिया गड़बड़ हो जाएगी। हम उससे कहेंगे कि तुम शराब पीकर जो देख रहे हो, वह दुनिया नहीं है। तुम बिना शराब के जो देखोगे, वही दुनिया है।
जीवन में विचार कर, जाग कर जो देखा जाता है, वही सत्य है। इसलिए मृत्यु कोई निषेध नहीं है। मृत्यु तो एक सत्य है। वह चारों तरफ घेरे हुए है। जो उसे नहीं देख रहा है, वह अंधा है। जो उसे नहीं देख रहा है, वह जीवन को कभी नहीं जान सकेगा।
इसलिए मैंने कहा कि मृत्यु को जानें। लेकिन मैंने यह नहीं कहा कि मृत्यु को सतत स्मरण रखें। सतत स्मरण का तो अर्थ ही यह है कि आप जानते नहीं हैं। जिसे आप जानते नहीं है, उसका स्मरण रखना होता है। जिसे आप जानते हैं, उसका स्मरण नहीं रखना होता। आप जिस चीज को नहीं जानते हैं, उसका स्मरण रखना होता है।
एक, एक संन्यासी मेरे मित्र हैं, वे जब भी बैठते हैं, तो वे हमेशा स्मरण रखते हैं कि मैं ब्रह्म हूं। अहं-ब्रह्मास्मि। तो मैंने उनसे कहा कि आपको पता नहीं है इसलिए बार-बार दोहराते हैं, अगर पता हो कि मैं ब्रह्म हूं तो यह बार-बार बकवास क्यों लगा रखी है कि अहं-ब्रह्मास्मि, अहं-ब्रह्मास्मि। यह बकवास तो इस बात का सबूत है कि आपको पता नहीं है। अगर आपको पता हो तो मामला खत्म हो गया, स्मरण रखने की क्या बात है।
स्मरण तो हम उन्हीं बातों को रखते हैं जिनका हमें पता नहीं होता। अज्ञान का स्मरण रखा जाता है, ज्ञान का कोई स्मरण नहीं होता, ज्ञान तो है। आप जानते हैं, बात खत्म हो गई। आपको दिख जाए कि मृत्यु है, बात खत्म हो गई। अब इसको कोई घोटना थोड़े ही पड़ेगा दिन-रात कि मृत्यु चारों तरफ मेरे, मुझे घेरे हुए है। अगर ऐसा आप दोहरा रहे हैं कि मृत्यु मुझे चारों तरफ घेरे हुए है, तो अभी आपको पता नहीं है, आप एक झूठी बात को बार-बार दोहरा कर विश्वास दिला रहे हैं। मैं लोगों को देखता हूं वे, वे इस तरह की झूठी बातों को बहुत दिन दोहराते रहते हैं, उनको लगने लगता है हमें कुछ बात का पता चल गया।
नहीं, मैंने यह नहीं कहा कि सतत स्मरण रखें, मैंने कहा, स्मरण को उपलब्ध हो जाएं। सतत स्मरण रखना एक बात है, स्मरण को उपलब्ध हो जाना...। आपको यह दिख जाना चाहिए। यह अवेकनिंग आपके भीतर हो जानी चाहिए कि मृत्यु है। बात खत्म हो गई। इसके बाद कुछ याद थोड़े ही रखना है। याद रखना ही फिजूल की बातें याद रखनी पड़ती हैं। जिन बातों को आप जान लेते हैं उन्हें याद नहीं रखना पड़ता है।
स्मृति इसीलिए ज्ञान नहीं है। ज्ञान बड़ी दूसरी बात है। स्मृति भूली जा सकती है। ज्ञान भूला नहीं जा सकता। जिसे याद रखा है उसे किसी दिन भूल भी सकते हैं। लेकिन जिसे जाना है उसे भूलने का कोई उपाय नहीं होता। क्योंकि उसे कभी याद थोड़े ही किया है, उसे जाना है। जो जाना है, वह कभी भूला नहीं जाता। और जो याद किया है, वह कभी भी भूला जा सकता है।
तो मैंने यह नहीं कहा कि आप बैठते-उठते, सोते-जागते, स्मरण रखें कि मृत्यु है। ऐसे में तो पागल हो जाएंगे। ऐसा स्मरण रखेंगे तो जरूर जीवन गड़बड़ हो जाएगा। नहीं, मैंने कहाः जानें, जागें और देखें कि क्या है, तो आपको मृत्यु दिखाई पड़ेगी। और मृत्यु दिखाई पड़ेगी तो आपके भीतर आकांक्षा पैदा होगी कि अगर यह मृत्यु है तो फिर जीवन क्या है? अगर यह सब मृत्यु है, तो मैं जीवन को जानने के लिए क्या करूं? तो आपके भीतर प्यास पैदा होगी, उस प्यास के लिए मैंने कहा कि मृत्यु के प्रति जागना उचित है।

संभव नहीं कि जीवन की जागृति रखने के लिए क्या मृत्यु का डर जरूरी है?

मैंने डर नहीं कहा मृत्यु का। क्योंकि मृत्यु से डर का मतलब ही क्या है। मृत्यु है, यह जानना जरूरी है। जो इसे नहीं जानता वही डरता है। डरने का अर्थ यह होता है कि हमेें यह खयाल है कि हम किसी दिन मर जाएंगे। अभी जिसे हम जीवन समझ रहे हैं, वह छीन लिया जाएगा। तो डर इस बात का होता है कि जो हमारा जीवन है वह कहीं मृत्यु छीन न ले। डर इस बात का होता है।
लेकिन अगर आपको पता चल जाए कि आप मरे ही हुए हैं, तो डर किस बात का हो? अगर आपको पता चल जाए कि आप मर ही रहे हैं रोज, मर ही चुके हैं काफी, तो डर किस बात का होगा? जिसे आप जीवन समझ रहे हैं, वह जीवन मालूम हो, तो फिर मृत्यु का डर मालूम होता है। और अगर यही मृत्यु दिखाई पड़ने लगे, तो डर क्या होगा मृत्यु का? जो इसे मृत्यु जान लेते हैं, मृत्यु के डर के बाहर हो जाते हैं। और मृत्यु के डर के जो बाहर हो जाता है, वही व्यक्ति जीवन को जानने में समर्थ होता है। हम, हम इसीलिए डरते हैं, डरते इसीलिए हैं कि यह सब जो हमारा जीवन है, यह छिन जाएगा मृत्यु में। छिन जाएगा तो हमें मृत्यु का डर लगता है कि मृत्यु छीन लेगी।
एक साधु था जापान में। एक गांव के बाहर ठहरा हुआ था। उसकी कुछ बातें ऐसी थीं कि लोग, लोग उसके विरोध में हो गए। उसकी बातें कुछ ऐसी विद्रोह की थीं कि लोगों ने सोचा, इसकी हत्या ही कर दो। जब लोगों को कोई उत्तर नहीं सूझता किसी बात का, तो हत्या सूझती है। जब किसी बात की कोई समझ न सूझे, कुछ दिखाई न पड़े कि इस आदमी को क्या उत्तर दें, तो फिर गोली से या फांसी से उत्तर देना होता है। इसलिए जो असली प्रश्न हैं, असली उत्तर हैं, वह हमेशा लोग फिर, फिर फांसी से या जहर से दे देते हैं।
तो सोचा इस आदमी को मार ही डालें। कुछ दो-चार लोग उसको प्रेम भी करते थे, उन्होंने रात को जाकर उस साधु को खबर की कि आज तुम इस झोपड़े को छोड़ दो, आज रात खतरा है। एक गांव के एकांत में, अकेले में यह झोपड़ा है नदी के पार, लोग हत्या करने का विचार कर रहे हैं। उस साधु ने कहाः मुझे अगर पता न होता, तो मैं कहीं चला भी जाता। अब वे लोग यहां ढूंढते हुए आएंगे और मैं यहां नहीं मिलूंगा, तो कैसा, अच्छा नहीं लगेगा। तो वैसे मुझे पता नहीं होता, तो मैं कहीं चला भी जा सकता था। साधु ही ठहरा, कहीं आता-जाता रहता हूं, लेकिन आज की रात तो अब हजार काम छोड़ कर भी यहीं रहना पड़ेगा। वे लोग आएंगे और मैं नहीं मिलूंगा, अच्छा नहीं मालूम होगा। जब पता चल जाए कि मेहमान आने वाले हैं और घर का मालिक छोड़ कर भाग जाए, ठीक नहीं है।
वह साधु रुक गया। उन लोगों ने समझा, यह पागल है। और इसके साथ बैठना या इसके साथ पता चलना भी खतरनाक है। वे लोग भाग गए वहां से। रात अंधेरे में लोग उसे हत्या करने पहुंचे। रोज तो वह दरवाजा बंद करके सोता था, आज उसने दरवाजा खुला रखा था। क्योंकि बेहद उनको परेशानी हो, आकर दरवाजा खोलना पड़े। तो नाहक की परेशानी क्या देनी, उसने दरवाजा खुला रखा था। और दरवाजे के पास ही वह एक तख्त पर सोया हुआ था। वे लोग अंधेरे में गए, उन्होंने तलवार उठाई, जैसे ही तलवार उठाई वह साधु ने कहा कि मेरी आदत किसी को बीच में टोकने की कभी नहीं है, जो आदमी जो काम कर रहा है उसे करने दो। लेकिन बिलकुल गलत काम होते हुए भी देखा नहीं जाता। तुम जिस तरफ तलवार उठाए हो उस तरफ मेरे पैर हैं, गर्दन मेरी इस तरफ है। अब तुम बिलकुल गलती काम किए दे रहे हो। मारना हो तो तलवार गर्दन की तरफ मारनी चाहिए। अंधेरा है इसलिए तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा है, लेकिन मुझे तो समझ में आ रहा है। मैं बड़ी देर से अंधेरे में हूं तो मुझे थोड़ा समझ में आता है। तुम अभी-अभी आए हो, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ रहा। गर्दन इस तरफ है।
वे लोग तो घबड़ा गए कि यह आदमी कैसा है! तो दरवाजा खोल कर सोया है! पता चला है, इसको पता भी चल चुका है, फिर भी भागा नहीं है! और अब यह बता रहा है कि भूल-चूक मुझसे नहीं देखी जाती, पैर उस तरफ हैं, गर्दन इस तरफ है। उन लोगों ने कहाः क्या तुम्हें मरने से कोई डर नहीं है? वह साधु हंसने लगा, उसने कहाः जिस दिन मैं जाना कि जिसे तुम जीवन कहते हो, वह मृत्यु है। उसी दिन मृत्यु का भय विलीन हो गया। और अब जिसे मैं जीवन जान रहा हूं, उसे तुम्हारी तलवार न छीन सकती है, न नष्ट कर सकती है। जिसे, जिसे तुम जीवन जानते थे, वह मेरे लिए मृत्यु हो चुका है। और जिसे तुम मृत्यु जानते हो, वह मेरे लिए जीवन है।
उस साधु ने कहाः जो मर चुके हैं अपनी तरफ से उन्हें मारने का कोई उपाय नहीं है। जो जान चुके हैं कि मृत्यु हो चुकी उन्हें, उन्हें अब मारने का कोई रास्ता नहीं है। जो जीवन के भ्रम में हैं, वे ही केवल मर सकते हैं। उन्हीं को केवल मरने का भय सताता है।
यह, यह जो मैंने कहा, मैंने यह नहीं कहा कि मृत्यु के भय से आप पीड़ित हो जाएं। न, मैंने तो यह कहा कि सभी कुछ मृत्यु है--इसे जान लें, इसको समझ लें, इसे देख लें--तो उस देखने से आपके भीतर एक क्रांति घटित होगी।

पूछा है कि आप कहते हैं कि साधु को देखने से दया आती है। तो क्या कोई आत्मार्थी साधु नहीं है? सब साधु को एक ही लाइन में रखने से क्या साधुत्व का आप अपमान नहीं करते हैं?

साधुत्व का तो मैं...यह तो मैंने कहा ही नहीं कि साधुत्व पर मुझे दया आती है। मुझे तो साधु पर दया आती है। और साधुत्व में और साधु में बड़ा फर्क है। असल में जिसके भीतर साधुत्व होता है, उसे पता भी नहीं होता कि मैं साधु हूं कि गृहस्थ हूं कि क्या हूं। और जिसको इस बात का पता है कि मैं साधु हूं, वह अभी साधु का ढोंग कर रहा है।
साधुता कोई ऐसी चीज नहीं है कि आप लेबल बदल लें, कपड़े बदल लें, रंग-रूप बदल लें, तो साधु हो गए। असल में जितने लोग साधु की शक्लों में दिखाई पड़ते हैं, समझ लेना कि इन आदमियों, इन आदमियों को अपने साधु होने पर शक है। अन्यथा यह वेश-भूषा रखने की कोई जरूरत नहीं है। इन्हें शक है थोड़ा। इन्हें शक है कि आप इन्हें साधु नहीं समझेंगे। इसलिए साधु होने का सारा ढोंग है। सारी व्यवस्था है। साधु क्या कोई, कोई...ये कोई, कोई मिलिटरी के सैनिक हैं क्या कि इनको तगमेे लगा दिए और ड्रेस पहना दी और नंबर लगा दिए। और वैसी ही हालत साधुओं की भी है। वे भी तगमे लगाए हुए हैं।
एक साधु गांधी के पास पीछे आया था। संन्यासी था। गैरिक वस्त्र पहने हुए था। उसने आकर गंाधी से कहा कि मैं, मैं सेवा करना चाहता हूं। मैं आपकी बातों से प्रभावित हो गया हूं। अमरीका में था, वहां से चला आया हूं। तो गांधी ने कहाः पहली सेवा यह करो कि ये गैरिक वस्त्र उतार दो। ये गेरुए वस्त्र अलग कर दो, पहली सेवा यह करो। उसने कहाः क्यों इससे क्या बाधा है आपको? तो गांधी ने कहाः क्या तुम्हें अपने साधु होने में शक है? क्या तुम्हें संदेह है कि तुम्हारे गेरुए वस्त्र छिन जाएंगे तो तुम्हारी साधुता छिन जाएगी? और जिनकी साधुता वस्त्रों में इस तरह बंधी हो, उनको साधु कहिएगा?
साधु बड़ी दूसरी बात है, साधुत्व बड़ी दूसरी बात है। साधुत्व का तो आदर होना ही चाहिए। लेकिन साधु के आदर के कारण साधुत्व का आदर नहीं हो पाता। आप साधुओं को पूज रहे हैं, और इसलिए अनेक बार साधुत्व आपकी नजर में दिखाई ही नहीं पड़ता। और सच में जिसके भीतर साधुत्व होगा, वह कोई साइन बोर्ड लगा कर घूमेगा, यह मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। ऐसी चाइल्डिस्ट, ऐसी बचकानी बात उसके दिमाग में उठेगी, कि वह ढोंग करे, व्यवस्था करे। खास तरह के कपड़े पहने और खास तरह के, खास तरह के पाखंड को रचे, यह कल्पना इतनी इम्मैच्योर है, यह इतनी बचकानी है कि किसी थोड़े से समझदार आदमी को भी इसमें शक मालूम होगा। लेकिन वह हमें दिखाई पड़ रहा है।
और इसका कारण यह हुआ कि धीरे-धीरे साधुत्व तो आदर के नीचे उतर गया है, और साधु आदर पर बैठ गया है। मैं साधु को आदर से उतार ही देना चाहता हूं। ताकि साधुत्व की प्रतिष्ठा हो सके। और साधुत्व को देखने के लिए आंखें चाहिए, साधु को देखने को तो अंधे भी पहचान लेते हैं कि यह साधु जा रहा है। लेकिन साधुत्व को देखने के लिए आंखें चाहिए। बड़ी गहरी आंखें चाहिए। साधुत्व को पहचानना उतना आसान नहीं है। और साधुत्व को आदर देना तो और भी कठिन है। इसलिए कठिन है कि साधुत्व आपके बंधे-बधाए ढांचोें में नहीं पाया जाता। और आपने जो ढांचे बना दिए हैं, उनमें कभी खड़ा नहीं होता।
इसलिए हमेशा यह होता है जब साधु पैदा होता है साधुत्व वाला, तभी दुनिया में एक नया पंथ बन जाता है। क्योंकि पुराने किसी पंथ के ढांचे में वह साधु बैठता नहीं। उसी साधु को लेकर अब नया पंथ बनाना पड़ता है, क्योंकि वह एक नये ढांचे का आदमी होता है। अगर आप जैनियों से पूछें कि क्राइस्ट साधु हैं। तो वे कहेंगे, कैसे हो सकते हैं, क्योंकि महावीर के ढंग के तो नहीं हैं। कैसे हो सकते हैं? आखिर महावीर का एक ढंग है, नंगे खड़े हुए हैं। तो क्राइस्ट तो कपड़े पहने हुए हैं तो यह कैसे साधु होंगे? ये कैसे साधु हो सकते हैं? तो एक ढांचा है।
महावीर को देख कर एक ढांचा बना लिया गया। अब उस ढांचे में जो फिट हो जाएगा, वह जैनियों को साधु दिखाई पड़ेगा। बुद्ध को देख कर बौद्धों ने एक ढांचा बना लिया। उस ढांचे में जो फिट हो जाएगा, वह बौद्धों को साधु दिखाई पड़ेगा। और बड़े मजे की बात यह है, कोई साधु आपके ढांचे में फिट होने को आएगा, और जो आपके ढांचे में फिट होने को आ जाए, उसको साधु कहिएगा?
साधु अपना जीवन जीता है। सहज जीवन जीता है। अपना ढांचा उसका विकसित होता है, वह किसी के ढांचे को अंगीकार नहीं करता। वह अपने ढंग से जीता है। अपने बोध से जीता है। तो जब भी ये ढांचे में बंधे हुए लोग दिखाई पड़ें तो समझना, समझना कि इनके भीतर अभी साधुता का जन्म नहीं हुआ। अभी यह साधु होने के भ्रम में पड़े हुए हैं।
एक, एक...एक स्मरण मुझे आता है। एक आश्रम में बहुत से भिक्षु थे। और एक आदमी ने आकर पूछा, उस आश्रम के गुरु से, मुझे भी साधु होना है। तो उस आश्रम के गुरु ने कहाः तुम्हें साधु दिखना है या साधु होना है? इन दोनों में फर्क है। उस गुरु ने कहाः तुम्हें साधु दिखना है या साधु होना है। अगर दिखना है तो बिलकुल आसान बात है, अगर होना है तो बहुत कठिन है। दिखना बिलकुल आसान है। अभी आप यहां बैठे हैं, आधा घड़ी भी नहीं लगेगी, आप साधु हो जाएंगे। कपड़े बदल लीजिए, सिर घुटा लीजिए, किसी का आशीर्वाद ले लीजिए, आप साधु हो गए। अभी आप दूसरों के पैर पड़ते थे, दूसरे आपके पैर पड़ने लगेंगे। आधा घड़ी में आप गृहस्थ से अब आप साधु हो गए।
इतनी मजाक बनाई हुई है साधुता की।
साधुता जीवन भर की गहरी उपलब्धि है। कोई साधु नहीं होता।
अभी एक बहुत बड़े साधु ने मुझसे पूछा आप, आप साधु क्यों नहीं हो जाते? मैंने कहाः साधुता कोई ऐसी बात है कि कोई चाहे तो हो जाए? साधुता तो विकसित होती है, ग्रोथ है। बहुत आहिस्ता-आहिस्ता मनुष्य के चित्त में परिवर्तन होता रहता है और एक बढ़ती होती है। उसे पता भी नहीं चलता कि कब क्या हो गया? कब दुनिया छूट गई और वह दूसरा आदमी हो गया। दूसरों को भला पता चल जाता हो, उसे पता भी नहीं चलता।
आपको पता चला आप किस दिन जवान हुए? आपको पता चला आप किस दिन बूढ़े हुए? आपको बिलकुल पता नहीं चला, दूसरों ने आपको कहा होगा कि अब तो आप बूढ़े हो गए। लेकिन आपको पता चला था पहले कि आप बूढ़े हो गए, किस दिन बूढ़े हो गए?
जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह बहुत धीरे-धीरे भीतर-भीतर विकसित होता रहता है। उसका पता भी नहीं चलता कि कब क्या हुआ? लेकिन हम देखते हैं, एक आदमी कल तक गृहस्थ था। उसकी पत्नी मर गई, वह अब साधु हो गया। एक आदमी दुकानदार था। उसका घाटा लग गया, वह साधु हो गया। एक आदमी को कोई और तकलीफ आ गई, वह साधु हो गया। एक आदमी का दिमाग खराब था, उसने ज्यादा जोर से गीता पढ़ ली, वह साधु हो गया। किसी ने रामायण पढ़ ली, वह साधु हो गया। किसी ने किसी की बात सुन ली, वह प्रभावित हो गया, भावाविष्ट हो गया, और साधु हो गया। इतनी, इतनी आसान बात है क्या?
साधुता जीवन भर का अर्जन है। बड़े धीरे-धीरे पौधा बड़ा होता है, और फूल आते हैं। बहुत धीरे-धीरे जीवन भर के अनुभव और बोध से भीतर साधुता का फूल उत्पन्न होता है। और जब वह उत्पन्न होता है, तो वह इस तरह की नासमझी की बातों में प्रकट नहीं होता।
जापान का एक राजा था, उसने कहा है कि मैं किसी साधु को मिलना चाहता हूं। लोगों ने उससे कहाः इतने साधु हैं, किसी से भी मिल लें। उसने कहाः ये, लेकिन इनसे नहीं, मैं तो किसी साधु से मिलना चाहता हूं। तो उन्होंने कहाः गांव के बाहर पहाड़ी के पास एक आदमी रहता है, एक बूढ़ा आदमी, शायद, उसके वजीरों ने कहा कि वह आपको साधु मालूम पड़े। वह राजा वहां गया। उसके निकट रहा, वह उससे बहुत प्रभावित हुआ। कुछ दिन रहने के बाद उसने जाना कि इस आदमी को कुछ मिला है, इसकी आंखों में कोई झलक है, इसके प्राणों में कोई स्पंदन है, इसके आचरण में कोई संगीत है, इसने कुछ जाना है। तो उसने कहा कि मैं आपको अपना राज्य-गुरु बनाना चाहता हूं। वह एक बहुत बहुमूल्य कीमती लबादा बनवा कर ले गया। उसमें उसने हीरे-जवाहरात जड़वाए, मखमल का उसे बनवाया और जाकर उस साधु को पहनाया। वह साधु खूब हंसने लगा, उसने कहा कि इसे तुम प्रेम से देते हो, तो मैं इनकार कैसे करूं? लेकिन तुम इसे ले जाओ। इसलिए इसे यहां से ले जाओ कि यहां जंगल में तो भालू हैं, बंदर हैं, कुत्ते हैं, ये ही मेरे मित्र हैं। वे इस लबादे में मुझे पहने देख कर बहुत हंसने लगेंगे कि यह बूढ़ा हो गया है फिर भी अभी बचपना, फिर भी इसमें बचपना है अभी, अभी भी नीला चोगा पहन कर घूम रहा है जंगल में। तो इसे तुम ले जाओ। यहां कोई आदमी तो रहता नहीं जो मेरे चोगे को देख कर बुद्धू बन जाए, यहां तो जंगल के जानवर हैं, वे बहुत हंसने लगेंगे। वे कहेंगे कि यह बूढ़ा हो गया, फिर भी अभी इसकी बुद्धि बचकानी है, चोगा पहन कर घूम रहा है। तो उसने कहा कि इसे ले जाओ।
लेकिन यह आप जिनको साधु कहते हैं, वे क्या कर रहे हैं? इनकी बुद्धि बड़ी बचकानी है। और इसलिए ये बचकानी बुद्धि के लोग सारी दुनिया में उपद्रव का कारण बने हुए हैं। ये साधु दुनिया को लड़वा रहे हैं और कटवा रहे हैं और परेशान कर रहे हैं। इन साधुओं के ऊपर बहुत हत्या, बहुत भार, बहुत जिम्मा है। जितना असाधुओं ने पाप नहीं किया, इन साधुओं ने किया है और कर रहे हैं और रोज किए जा रहे हैं। और फिर भी हम, हम पूछते हैं कि साधु का अपमान।
साधु के अपमान का प्रश्न नहीं है। यह साधु के नाम से जो चल रहा है, उसका मैं कह रहा हूं। और इसीलिए उसके लिए कह रहा हूं कि ताकि वास्तविक साधुता के प्रति हमारे मन में एक सम्मान पैदा हो, हम उसे पहचानना और जानना सीख सकें। उसे जानने और पहचानने के लिए कुछ और बातेें जरूरी हैं, कपड़े का परिवर्तन नहीं। तो सारे जीवन की क्रांति जरूरी है। सारे जीवन की क्रांति। और जीवन की सहजचर्या जरूरी है।
जब कोई साधु हो जाता है तो जीवन अत्यंत सहज हो जाता है। उसके जीवन की सारी जटिलता विलीन हो जाती है। उसके जीवन में लाभ-हानि शून्य हो जाते हैं। इनको आप साधु कह रहे हैं, ये चैबीस घंटे लाभ-हानि की भाषा में सोच रहे हैं। इन्होंने अगर घर भी छोड़ा है तो इस खयाल में कि इसके बदले में स्वर्ग मिलेगा या मोक्ष मिलेगा। ये पुराने दुकानदार ही हैं। इनके सोचने के ढंग वही प्राॅफिट के हैं। यह छोड़ा है, यह मिलेगा।
जो आदमी भी त्याग इसलिए करता हो कि इसके बदले में कुछ मिलेगा, उसने त्याग किया ही नहीं। वह तो अभी पुराने ही हानि-लाभ के हिसाब से सोच रहा है। इन साधुओं में आप जाइए और पूछिए कि आपने घर त्याग क्यों किया? वे कहेंगे, मोक्ष के लिए। यानी घर-त्याग जैसी सड़ी चीज के बदले में मोक्ष पाने का हिसाब बिठा रहे हैं। घर क्या छोड़ दिया है, मोक्ष पाना चाहते हैं। बहुत सस्ती कीमत पर पाना चाहते हैं। और अगर घर की कीमत पर ही मोक्ष मिलता हो, तो कितने समझदार लोग लेने उसे राजी होंगे? कौन उसे लेने राजी होगा जो घर के छोड़ देने से मिल जाता हो? पर यह, यह सोच रहे हैं, कुछ छोड़ दिया तो कुछ मिल जाएगा। जो मिलने के खयाल से छोड़ रहा है, वह छोड़ ही नहीं रहा। छोड़ना तो होता है व्यर्थता के बोध से। एक चीज व्यर्थ हो जाती है और छूट जाती है। वह तो अलग बात है।
इसलिए साधु को मैं कहता हूं, वह कुछ भी छोड़ता नहीं है, उससे चीजें छूट जाती हैं। वह कुछ छोड़ता नहीं है, उससे चीजें छूट जाती हैं। वह किन्हीं चीजों का त्याग नहीं करता है, उससे कुछ चीजें परित्यक्त हो जाती हैं। उसके जीवन में जो-जो व्यर्थ हो जाता है उस पर उसकी पकड़ विलीन हो जाती है। किसी चीज के बदले में पाने के लिए नहीं। मोक्ष त्याग का बदला नहीं है। असल में त्याग अगर ठीक से हो जाए तो वही मोक्ष है। त्याग बदला नहीं है किसी चीज के छोड़ने का। मोक्ष का मतलब हैः सब चीजें छूट जाएं, तो आप मुक्त हैं।
लेकिन जो आदमी किसी चीज को पाने के लिए कुछ छोड़ रहा है, वह तो बंधन में ही है। जो अभी मोक्ष की कामना से संन्यासी हुआ है वह अभी बंधन के भीतर है। अभी उसकी कामना भी है, अभी बंधन भी है, अभी लेन-देन भी है, अभी कुछ छोड़ रहा है, कुछ पाने का खयाल भी है। अभी वासना, अभी कामना कहीं गई नहीं है। तो इनको मैं साधु नहीं कहता हूं।
साधु मैं उसे कहता हूं, जिसके जीवन के ज्ञान में कुछ चीजें उसके हाथों से अपने आप छूट गई हों। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उसका सब छूट जाए और वह अकेला ही रह जाए। अकेली चेतना मात्र रह जाए, और उसकी कोई पकड़ किसी चीज पर न हो। वैसी स्थिति में जब साधुता फलित होती है, तो मैंने कहा पहचानना कठिन होता है। हम बहुत अंधे लोग हैं, हम ऊपरी चीजें पहचान लेते हैं, भीतरी चीजें पहचानना बहुत मुश्किल है। इसलिए जब असली साधु पैदा होगा तो आप या तो उसको पत्थर मारेंगे, या उसको गोली मारेंगे, या जहर पिलाएंगे, या फांसी लटका देंगे। और जब नकली साधु होगा, तो आप उसके पैरों में सिर रखेंगे, धन चढ़ाएंगे, उसकी पूजा करेंगे, प्रार्थना करेंगे। असली साधु के साथ तो बहुत दुव्र्यवहार होता रहा है। और नकली साधु के साथ बहुत सदव्यवहार होता रहा है।
इसलिए मैं, मैं साधु के तो विरोध में हूं, जिसको हम साधु करके जानते हैं। लेकिन साधुता के विरोध में नहीं हूं। उसी के लिए तो सारी बातें कह रहा हूं कि वह साधुता कैसे विकसित हो सके ?

प्रश्न और बहुत से हैं, कल उनकी चर्चा हो सकेगी।
कि धार्मिक पुस्तकों का पढ़ना और समझना क्या धर्म को समझने के लिए जरूरी नहीं है?

बिलकुल भी जरूरी नहीं है। धर्म के संबंध में कुछ जानना हो, तो पुस्तकें पढ़नी जरूरी है। लेकिन धर्म को जानना हो, तो पुस्तकें पढ़नी जरूरी नहीं है। धर्म के संबंध में कुछ जानना हो, तो पुस्तकें बहुत जरूरी हैं, लेकिन धर्म को जानना हो, तो पुस्तकें बिलकुल जरूरी नहीं हैं। धर्म को जानना हो, तो स्वयं को पढ़ना होगा। और धर्म के संबंध में जानना हो, तो ग्रंथ हैं, शास्त्र हैं, उनको पढ़ना होगा। धर्म के संबंध में जो पढ़ता है, वह धार्मिक नहीं होता, धर्म-पंडित हो जाता है। और धर्म को जो जानता है, वह धार्मिक हो जाता है।
धार्मिक में और पंडित में फर्क तो आपको दिखाई पड़ता है न?
पंडित वह है जो धर्म के संबंध में सब जानता है। लेकिन उसके ऊपर शास्त्र गधे पर लदे हुए, लदे हुए शास्त्रों की भांति है। उसके जीवन में उसका कोई संबंध नहीं है, वह धार्मिक आदमी नहीं है। वह बोझ ढ़ो रहा है। पंडित बोझ ढोता है। उसकी अपनी प्रज्ञा नहीं खुली हुई है। उसका अपना बोध नहीं जगा हुआ है। लेकिन धार्मिक आदमी बिलकुल दूसरी बात है।
इसलिए कई बार यह होता है कि जिन्होंने कोई शास्त्र नहीं जाने, वे भी धार्मिक हो जाते हैं। और जिन्होंने बहुत शास्त्र जाने हैं, वे भी धार्मिक नहीं हो पाते। अभी तक दुनिया के इतिहास में ऐसे मौके कम ही आए हैं जब शास्त्रों को जानने वाले भी धार्मिक हो गए हों। अभी तक मौके तो ऐसे ही आते रहे हैं कि शास्त्रों को जानने वाले नहीं, शास्त्रों को न जानने वाले लोग धार्मिक हो गए हैं। और कारण है उसका, शास्त्रों को जानने से चित्त जटिल हो जाता है, ज्यादा कांप्लेक्स हो जाता है।
और शास्त्रों को जानने से प्रश्न अधूरे ही मर जाते हैं, क्योंकि दूसरों के उत्तर से तृप्ति हो जाती है। खुद की खोज बंद हो जाती है। हम राजी हो जाते हैं कि जो शास्त्रों में लिखा है ठीक है। खोज समाप्त हो जाती है। हम उत्तर सीख लेते हैं और दोहराने लगते हैं। और बार-बार दोहराने से हमको खुद ही भ्रम हो जाता है कि हम जानते हैं। इसलिए बहुत बार शास्त्र को पढ़ने वाला इस भ्रम में पड़ जाता है कि वह सत्य को जानता है। सत्य को जानना बिलकुल दूसरी बात है।
सत्य के जानने के लिए चित्त का सरल होना जरूरी है। और चित्त इतना सरल हो कि उसमें कोई शास्त्र न रह जाए, कोई शब्द न रह जाए, कोई सिद्धांत न रह जाए। जब चित्त इतना सरल होता है कि उसमें न कोई शास्त्र है, न कोई शब्द है, न कोई विचार है, न कोई सिद्धांत है, न कोई धर्म है, उस सरलता में, उस इनोसेंस में जिस चीज का अनुभव होता है--वह सत्य है, वह धर्म है। और उसके अनुभव के बाद जीवन में क्रांति हो जाती है। सारा जीवन बदल जाता है। उस शांति में जो जाना जाता है, वह अनिवार्यतया आचरण में आ जाता है। ज्ञान ही आचरण बन जाता है। इस संबंध में और कुछ बातें होंगी तो वह मैं कल आपसे कर सकूंगा।

इन सारी बातों को इतने प्रेम से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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