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रविवार, 21 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-04)

बोधकथा-चौथी  

सत्य की खोज में सर्वाधिक आवश्यक क्या है?
मैं कहता हूं: साहस--स्वयं के यथार्थ को जानने का साहस। मैं जैसा हूं, वैसा ही स्वयं को जानना सर्वाधिक आवश्यक है। वह बहुत कठिन है। लेकिन उसके बिना सत्य में कोई गति भी संभव नहीं है। स्वयं को निर्वस्त्र और नग्न जानने से ज्यादा बडा तप और क्या है? लेकिन, सत्य की उपलब्धि के लिए वही मूल्य चुकाना होता है। उससे ही व्यक्ति की सत्य के प्रति अभीप्सा की घोषणा होती है। स्वयं के प्रति सच्चाई ही तो सत्य के प्रति प्यास की प्रगा.ढता की अभिव्यक्ति है। असत्य के तट से जो स्वयं को बांधे हुए है, वह अपनी नौका सत्य के सागर में कैसे ले जा सकेगा? असत्य के तट को तो छोडना ही होगा। वह तट ही तो सत्य की यात्रा के लिए बाधा है। वह तट ही तो बंधन है। निश्चय ही उस तट में सुरक्षा है। सुरक्षा की अति चाह ही तो असत्य का गढ है। सत्य की यात्रा में सुरक्षा का मोह नहीं, वरन अज्ञात को जानने का अदम्य साहस चाहिए। असुरक्षित होने का जिसमें साहस नहीं है, वह अज्ञात का खोजी भी नहीं हो सकता है। असुरक्षित होने की चुनौती को स्वीकार किए बिना कोई न तो अपने ओ.ढे हुए रूपों को ही उतार सकता है, और न ही उन मुखौटों से मुक्त हो सकता है जो सुरक्षा के लिए उसने पहन रखे हैं। क्या सुरक्षा के निमित्त ही, हम जो नहीं हैं, वही नहीं बने हुए हैं? क्या हमारी सारी वंचनाएं सुरक्षा की ही आयोजनाएं नहीं हैं?

यह हमारी सारी सभ्यता और संस्कृति क्या है? अहंकारी विनयी बना है। लोभी त्यागी बना है। शोषक दान करता है। हिंसक ने अहिंसक के वस्त्र पहन रखे हैं। और घृणा से भरे हुए चित्त प्रेम की भाषा बोल रहे हैं। यह आत्मवंचना बहुत सुगम भी है। नाटकों में अभिनय कब कठिन रहे हैं? संस्कृति के बाजार में सुंदर मुखौटे सदा से ही सस्ते दामों में मिलते रहे हैं। लेकिन स्मरण रहे कि जो सौदा ऊपर से सस्ता है, अंततः वही सबसे महंगा सिद्ध होता है। क्योंकि जो व्यक्ति मुखौटों में स्वयं को छिपाता है, वह स्वयं से और सत्य से निरंतर दूर होता जाता है। सत्य के और उसके बीच एक अलंघ्य खाई निर्मित हो जाती है, क्योंकि उसकी आत्मा स्वयं के अनावरण के भय से ही सदा त्रस्त रहने लगती है। वह फिर स्वयं को छिपाता ही चला जाता है। वस्त्रों के ऊपर वस्त्र और मुखौटों के ऊपर मुखौटे। असत्य अकेला नहीं आता है। उसकी सुरक्षा के लिए उसकी फौजें भी आती हैं। असत्य और भय का फिर ऐसा जाल बन जाता है कि उसके ऊपर आंखें उठाना भी असंभव हो जाता है। व्यक्ति जब स्वयं के ही मुखौटों के उठ जाने के भय से पीडित हो तो वह सत्य के पात्र को उघाडने की सामथ्र्य कहां से जुटा सकता है? वह शक्ति तो स्वयं को उघाडने के साहस से ही अर्जित होती है। सत्य-साक्षात के लिए भयभीत चित्त तो शत्रु है। उस दिशा में कौन मित्र है? अभय मित्र है। चित्त की अभयता उसे ही प्राप्त होती है, जो स्वयं के यथार्थ को स्वयं ही सब भांति उघाड कर भय से मुक्त हो जाता है। स्वयं को ढांकने से भय ब.ढता जाता है, और आत्मा शक्तिहीन होती जाती है, किंतु स्वयं को उघाडो और देखो तो उस ज्ञान के प्रकाश में ही भय तिरोहित हो जाते हैं और शक्ति के अभिनव और अमित स्रोतों की उपलब्धि होती है। इसे ही मैं साहस कहता हूं--स्वयं को उघाडने और जानने की क्षमता ही साहस है। सत्योपलब्धि के लिए वह अनिवार्य है। ब्रह्म की दिशा में वही पहला चरण है। एक अत्यंत मधुर कथा हैः
एक किशोर ऋषि हरिद्रुमत गौतम के आश्रम में पहुंचा। वह सत्य को जानना चाहता था। ब्रह्म के लिए उसकी जिज्ञासा थी। उसने ऋषि के चरणों में सिर रख कर कहाः ‘‘आचार्य, मैं सत्य को खोजने आया हूं। मुझ पर अनुकंपा करें और ब्रह्मविद्या दें। मैं अंधा हूं और आंखें चाहता हूं।’’
उस किशोर का नाम सत्यकाम था।
ऋषि ने उससे पूछाः ‘‘वत्स, तेरा गोत्र क्या है? तेरे पिता कौन हैं? उनका नाम क्या है? ’’
उस किशोर को न अपने पिता का कोई ज्ञान था, न ही गोत्र का पता था। वह अपनी मां के पास गया और उससे पूछ कर लौटा। और उसकी मां ने जो उससे कहा, उसने जाकर ऋषि को कहा। वह बोलाः ‘‘भगवन! मुझे अपने गोत्र का ज्ञान नहीं है। न ही मैं अपने पिता को जानता हूं। मेरी मां को भी मेरे पिता का ज्ञान नहीं है। उससे मैंने पूछा तो उसने कहा कि युवावस्था में वह अनेक भद्रपुरुषों में रमती और उन्हें प्रसन्न करती रही। उसे पता नहीं कि मैं किससे जन्मा हूं। मेरी मां का नाम जाबाली है। इसलिए, मैं सत्यकाम जाबाल हूं। ऐसा ही आपसे बताने को उसने मुझे कहा है।’’
हरिद्रुमत इस सरल सत्य से अभिभूत हो उठे। उन्होंने उस किशोर को हृदय से लगा लिया और बोलेः ‘‘मेरे प्रिय! तू निश्चय ही ब्राह्मण है। सत्य के लिए ऐसी आस्था ही ब्राह्मण का लक्षण है। तू ब्रह्म को जरूर पा सकेगा, क्योंकि जिसमें स्वयं के प्रति सच्चा होने का साहस है, सत्य स्वयं ही उसे खोजता हुआ उसके द्वार आ जाता है।’’

ओशो

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