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रविवार, 28 अक्तूबर 2018

मैं कौन हूं?-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन

स्वयं की असली पहचान

मैं कौन हूं? इस संबंध में थोड़ी सी बातें कल मैंने आपसे कहीं। ज्ञान नहीं बल्कि अज्ञान, जानकारी नहीं बल्कि न जानने की स्थिति, स्टेट ऑफ नॉट नोइंग के संबंध में थोड़ी सी बातें कहीं। यदि हम उस ज्ञान से मुक्त हो सकें, जो बाहर से उपलब्ध होता है, तो संभावना है उस ज्ञान के जन्म की, जो उपलब्ध नहीं होता बल्कि आविष्कृत होता है, उघड़ता है, भीतर छिपा है, और उसके परदे टूट जाते हैं, और द्वार खुल जाते हैं। इसलिए मैंने कहा ज्ञान से नहीं बल्कि इस सत्य को जानने से कि मैं नहीं जानता हूं, मैं नहीं जानता हूं, इस भाव-दशा में ही कुछ जाना जा सकता है। मैं नहीं जानता हूं, यह स्मरण, यह स्मृति, जैसे-जैसे घनीभूत और तीव्र होगी, वैसे-वैसे मन मौन होता चला जाता है, निस्तब्ध और निःशब्द होता चला जाता है। क्योंकि सारे शब्द और सारे विचार हमारे जानने के भ्रम से पैदा होते हैं। मैं कौन हूं? यह प्रश्न तो हो लेकिन कोई भी उत्तर स्वीकार न किया जाए उस निषेध में, उस निगेटिव माइंड में, उस मनःस्थिति में जो भीतर सोया है, वह जागृत होता है।

खटखटाएं द्वार को, पूछें कौन हूं, लेकिन किसी उत्तर को स्वीकार न करें, न वे उत्तर जो संसार सिखा देता है, और न वे उत्तर जो कि धर्म और अध्यात्म के नाम पर सीख लिये जाते हैं। अगर सीखा हुआ सब भूला जा सके और हम प्राणों के द्वारों को खटखटा सकें, तो जैसा क्राइस्ट का वचन है, नॉक एण्ड दि डोर शैल बी ओपन। खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे। तो मैं आपसे निवेदन करूं, जो खटखटाता है, वह पाता है द्वार बंद ही नहीं थे, द्वार खुले ही हैं। लेकिन वे लोग जो जानने के भ्रम में हैं खटखटाने से वंचित रह जाते हैं। वे लोग जो इस भ्रम में हैं कि हम जानते हैं, वे सारी संवेदनशीलता खो देते हैं जो जानने के लिए अनिवार्य है। यह कल मैंने आपसे कहा।
आज की सुबह, कल तो अज्ञान के लिए कहा, आज की सुबह रहस्य के लिए थोड़ी सी बातें कहना चाहता हूं। मन इस स्थिति में हो कि मैं नहीं जानता, तो सारा जीवन एक रहस्य की तरह, एक मिस्ट्री की तरह उदघाटित होने लगता है। और मन इस स्थिति में हो कि मैं जानता हूं, क्योंकि गीता मुझे स्मरण है और उपनिषद मुझे ज्ञात हैं, और शंकर और रामानुज और वे सब मुझे मालूम हैं इसलिए मैं जानता हूं, शब्द मुझे ज्ञात हैं, श्रुतियां मुझे ज्ञात हैं, इसलिए मैं जानता हूं, ऐसा जो मन है, वह जीवन के प्रति रहस्य को खो देता है। उसे जीवन में फिर कोई रहस्य नहीं मालूम होता। उसे जीवन फिर एक मिस्ट्री की भांति है, दिखाई नहीं पड़ता। उसे सब ज्ञात है, इसलिए जो अज्ञात है हमारे चारों ओर उसके हृदय को फिर स्पंदित नहीं करता। और सब कुछ अज्ञात है, वह बच्चा जो आपके घर में पैदा हुआ है, ज्ञात है आपको। वे आखें जो आपकी पत्नी की हैं, परिचित हैं उनसे आप। वे मित्र वे पड़ोसी, या वह पत्थर जो सड़क के किनारे पड़ा है, या वे पौधे जो आपके भवन के पास खिलते हैं, वे फूल या आकाश के तारे, या सुबह पक्षियों के गीत क्या ज्ञात है? किस चीज को हम जानते हैं? सब कुछ अज्ञात है, सब कुछ अज्ञात है। और वह सब यदि अज्ञात है, तो सब एक अदभुत रहस्य से मंडित हो जाता है। उस रहस्य का जो बोध है वह धार्मिक चित्त का पहला लक्षण है। रहस्य का जो बोध है वे धार्मिक चित्त का पहला लक्षण है। उस व्यक्ति को ही मैं अधार्मिक कहता हूं, जिसके जीवन में रहस्य का कोई बोध नहीं है। उस व्यक्ति को ही अधार्मिक कहता हूं जिसके जीवन में रहस्य का कोई बोध नहीं है। जिसके जीवन को अज्ञात मंडित नहीं किए हुए है। जिसे चारों तरफ से अज्ञात स्पर्श नहीं करता है। जिसे चारों तरफ रहस्य के अनंत-अनंत द्वार दिखाई नहीं पड़ते हैं। वह व्यक्ति अधार्मिक है। और हमारे सारे सिद्धांतों ने हमारे मन को इस भांति कस लिया है, कि हर चीज की व्याख्या उपलब्ध हो गई है इसलिए कुछ भी अज्ञात नहीं रहा है।
हम सब कुछ जानते हैं, उस शेखचिल्ली का मुझे स्मरण आता है, जो किसी गांव में था। वह सब कुछ जानता था। बड़े अच्छे लोग होंगे जिन्होंने कहा कि वह शेखचिल्ली था क्योंकि जो सब कुछ जानता है वह शेखचिल्ली होगा ही, वह पागल होगा ही। वह सब कुछ जानता था, ऐसी कोई बात न थी जो उसे ज्ञात न हो। फिर उस गांव के राजा के भवन में चोरी हो गई। सारी राज्य की शक्ति लग गई चोरी की खोज में, लेकिन चोर का कोई पता नहीं चल सका। कोई सूत्र हाथ में नहीं आते थे कि चोर का पता चल जाए। सारे जासूस थक गए और परेशान हो गए, और तब गांव के लोगों ने कहा कि अब और कोई रास्ता नहीं है, हमारे गांव में एक ज्ञानी है उससे पूछ लिया जाए, ऐसी तो कोई बात ही नहीं है जो उसे ज्ञात न हो। उस शेखचिल्ली को बुलाने के लिए राजदूत भेजा गया, वह जैसे विचारक बैठते हैं, वैसी मुद्रा में बैठा हुआ था। रूडन का चित्र देखा होगा आपने मूर्ति देखी होगी बिग थिंकर, या तो शेखचिल्ली को देख कर बनाई होगी रूडिन ने या रूडिन ने वह मूर्ति देख ली होगी, इसलिए वह वैसे हाथ लगाए बैठा होगा। कुछ न कुछ दो में से एक हुआ होगा। वह वहां सोच-विचार की मुद्रा में बैठा हुआ था। सोच-विचार की मुद्रा से ज्यादा बचकानी और चाइल्डिश कोई बात नहीं है। वह राजा का राजदूत गया और उसने कहा कि चोरी हो गई है भवन में पता है? उसने कहा ऐसा क्या है जो मुझे पता न हो? राजदूत उसे सम्मान से राजमहल ले गए। राजा ने पूछा पता है भवन में चारी हो गई है, बहुत बहुमूल्य सामान चोरी चले गए हैं। और राज्य के सारे जासूस और खोज-बीन करने वाले पता नहीं पा सके हैं। उसने कहा, क्या है जो मुझे ज्ञात न हो? राजा प्रसन्न हुआ और उसने कहा, फिर बताओ किसने चोरी की है? उस शेखचिल्ली ने कहा एकांत में बताऊं गा। अकेले में। द्वार बंद कर लें, क्योंकि खतरा है मैं नाम लूं किसी का और बताऊं , फिर कल मैं मुसीबत में पड़ जाऊं । तो द्वार बंद कर लें। द्वार बंद कर लिए गए। राजा अकेला रह गया, फिर भी दीवालें सुन सकती हैं, इस डर से उसने राजा के कान के पास मुंह रखा जैसे गुरु कान में मंत्र देते हैं ना चुपचाप कि कोई सुन न ले, कोई देख न ले, किसी को पता न चल जाए। वैसे उस शेखचिल्ली ने कान के पास मुंह रखा और कहा, बता दूं, देखिए किसी को बताइएगा तो नहीं, मुझे झंझट में तो नहीं डालिएगा? बता दूं...? राजा ने कहाः बताओ भी। उसने बहुत धीरे से कान में कहा, मालूम होता है किसी चोर ने चोरी की है।
और हमारे दार्शनिक क्या करते रहे हैं? और हमारे धर्म चिंतक क्या करते रहे हैं? और वे सारे लोग क्या करते रहे हैं जो कहते हैं कि ईश्वर ने दुनिया को बनाया, उनका मतलब क्या? वे सारी खोजबीन के बाद, सिर पर हाथ रखने के बाद यह बताते हैं कि जरूर किसी बनाने वाले ने दुनिया को बनाया है। यही तो कहते हैं वे। किसी चोर ने चोरी की है, यही तो कहते हैं, किसी बनाने वाले ने दुनिया को बनाया है, यह वे सारी खोजबीन के बाद कहते हैं। किसी चोर ने चोरी की है, किसी बनाने वाले ने दुनिया को बनाया है। यह सारे विचार का निष्कर्ष है। यह सारी हमारे ज्ञानी की घोषणा है। और ये जो सारी घोषणाएं हैं, ये जो सारे विचार हैं, ये जो सारे सिद्धांत हैं हम पकड़ लेते हैं और जीवन का वह जो अज्ञात स्पंदन है, वे जो अज्ञात चोटें हैं, वे जो अज्ञात हवाएं हैं, फिर वह हमें स्पर्श नहीं करती हैं, वे अपने सिद्धांतों में बंद होकर बैठ जाते हैं, सिद्धांतों में जो बंद हैं उसमें सिद्धांतों में कोई झरोखे नहीं होते। कोई खिड़कियां नहीं होतीं, सिद्धांतों में कोई द्वार नहीं होते। सिद्धांतों में कोई समझौते नहीं होते, इसलिए सिद्धांत बिलकुल बंद दीवाल की तरह आदमी को भीतर बंद कर देते हैं। और हर चीज जो उसके द्वार पर प्रश्न लेकर खड़ी आती है, वह हर चीज का उत्तर दे देता है कि यह ऐसा है, यह तुम्हारे पिछले जन्मों का फल है। यह भाग्य है, यह परमात्मा है, यह फलां है, यह ढिकां है, हर चीज के उत्तर दे देता है, और जिस चीज का उत्तर दे देता है वह चीज उसके लिए रहस्य खो देती है। यह जो जीवन और यह जो जगत हमें हमें इतना बोर्डम इतना उबाने वाला मालूम पड़ रहा है, यह हमारे ज्ञान की वजह से मालूम पड़ रहा है। इस जीवन में अगर हम सिद्धांतों की दीवाल छोड़ कर देखना शुरू करें, अगर ज्ञान को हटा कर देखना शुरु करें, तो एक-एक चीज कितनी अदभुत है, कितनी नई, कुछ भी तो पुराना नहीं है। कुछ भी तो वैसा नहीं है, जैसा कल था। आज सुबह जब सूरज उगा, वह कभी भी नहीं उगा था, और फिर कभी नहीं उगेगा। और आज सुबह जो हवा चली थी वह कभी नहीं चली है और कभी नहीं चलेगी। और आज सुबह जो फूल खिलें हैं, वे पहली बार ही खिले हैं, और सब कुछ नया है। और सब कुछ बहुत रहस्य से मंडित है, हम क्या जान पाए हैं अभी?
एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक, जिसने विद्युत पर सारे जीवन काम किया, बिजली के अध्ययन में, एक छोटे से गांव में विश्राम करने के लिए ठहरा हुआ था। उस गांव का स्कूल था छोटा, उस स्कूल के बच्चों ने कुछ विज्ञान के बच्चों ने कुछ चीजें बनाई थी, कुछ छोटे-छोटे उपकरण बनाये थे। स्कूल का जलसा था और स्कूल में प्रदर्शनी थी वह वैज्ञानिक भी देखने चला गया। जिस बच्चे ने सबसे ज्यादा मेहनत की थी और बिजली के कुछ खेल-खिलौने बनाए थे, वह बड़ी-बड़ी उत्सुकता से उसे समझाने लगा कि ये कैसे बनाए गए हैं, कैसे काम करते हैं, क्या-क्या इनकी खूबी है? वह वैज्ञानिक बहुत-बहुत उत्सुकता से सुनने लगा, उस बच्चे को तो पता नहीं था कि विद्युत को उतना जानने वाला जगत में शायद कोई दूसरा आदमी नहीं है। तो वह बच्चा और प्रसन्नता से सारी बातें बताने लगा। सारी बात हो जाने के बाद उस वैज्ञानिक ने पूछा बेटे एक बात पूछूं, यह बिजली क्या है? यह विद्युत क्या है? यह इलेक्ट्रिसिटी है क्या आखिर? वह लड़का बोला, यह तो हमें ज्ञात नहीं। उसके प्रधान अध्यापक ने उस लड़के से कहा, तुम्हें पता नहीं? तुम बताए जा रहे हो, यह तो विद्युत को जानने वाला सबसे बड़ा व्यक्ति है जो जीवित है। लेकिन उस सबसे बड़े व्यक्ति ने क्या कहा? उसने कहा जो यह बच्चा कह रहा है कि विद्युत को हम जानते नहीं, मैं भी यही कहूंगा कि विद्युत को हम जानते नहीं। हम क्या जानते हैं? यह जो चारों तरफ जीवन है, जो सामने द्वार पर एक पत्ती खिली है, उसको भी हम जानते हैं? एक बीज कैसे अंकुर हो जाता है, उसको हम जानते हैं? एक बीज कैसे फूल बन जाता है, उसको हम जानते हैं? कुछ भी नहीं जानते। आकाश में तारे हैं, और जमीन पर पत्थर हैं और फूल हैं और मनुष्य हैं, और आंखें हैं क्या हम जानते हैं? एक गीत का जन्म होता है भीतर, उसे हम जानते हैं? हम कुछ भी नहीं जानते, लेकिन जानने के भ्रम के कारण जीवन का यह रहस्य हमारे प्राणों को आंदोलित नहीं कर पाता है। इसलिए जानने का भ्रम छोड़ें, तो रहस्य का बोध जन्मता है। और जिस जीवन में रहस्य का बोध पैदा हो जाता है, उस जीवन में ईश्वर के आगमन की शुरुआत हो जाती है। जिस दिन रहस्य की पदचापें सुनाई पड़ें और जिस दिन मन के द्वार पर कोई अज्ञात आकर खड़ा हो जाए, जिसे हम न जानते हों, और हमारा पूरा हृदय कह सके कि मैं नहीं जानता हूं। और उस अनजान अतिथि का स्वागत कर सकें, उस दिन जानना कि धर्म का जीवन में प्रवेश हुआ है। लेकिन हम तो ज्ञान के द्वार बंद किए बैठे हैं, और जो जितना ज्यादा ज्ञान के द्वार बंद किए, बैठा है, उतना ही बड़ा पंडित है, उतना ही बड़ा ज्ञानी है।
कल मैंने पहली सीढ़ी की बात कही, अज्ञान का बोध। आज दूसरी बात कर कहता हूं रहस्य का जन्म। लेकिन चाहे धर्म-शास्त्री हों, थियोलॉजियंस हों, चाहे गणितज्ञ हों, चाहे और तरह के शास्त्री हों, चाहे वैज्ञानिक हों, जिन्होंने भी जीवन के रहस्य को नष्ट किया है या ऐसी बातें फैलाई हैं कि उनके जानने में जीवन का बोध, जीवन का अज्ञात नहीं स्पर्श करता है, उन सबने मनुष्य के जीवन में दुख को गहन किया है। आनंद को क्षीण किया है। काव्य की संभावनाएं बंद कर दी हैं। यह जो सब चारों तरफ अज्ञात फैला है, इसके प्रति हृदय खुला हुआ होना चाहिए, लेकिन ज्ञान हमें रोकता है, और न केवल ज्ञान बल्कि ज्ञान के आधार पर खड़ी की गईं शिक्षाएं हमें कठोर करती हैं, पाषाण बनाती हैं, संवेदनशील नहीं। और जो हृदय जितना कठोर और पाषाण हो जाएगा, जितनी कम संवेदनशीलता हो जाएगी, उतना ही रहस्य उसके भीतर प्रवेश नहीं कर सकेगा। लेकिन उदासीनता को, कठोरता को हम गुण मानते हैं, वैराग्य को दूर खड़े हो जाने को, अपने को बंद कर लेने को हम गुण मानते हैं। धर्म का कोई संबंध जड़ता से नहीं है। लेकिन एक आदमी जितना जड़ होता जाता है, जितना रसशून्य, संवेदन से हीन, इनसेंसिटिव, जितना ज्यादा जड़ कि उस पर किसी चीज की कोई संवेदना उसके भीतर नहीं होती, उतना ही हम मानते हैं कि यह गुण है। हम जीवन को गुण नहीं मानते, हम तो मरने को गुण मानते हैं। एक आदमी जितना मुर्दा जैसा होने लगता है, उसको हम गुण मानते हैं। हमने इसकी बहुत पूजा की है, और हमने धीरे-धीरे आदमी को पत्थर होने की शिक्षा दी है।
एक व्यक्ति के बाबत मैं सुनता था, उसकी पत्नी की मृत्यु हो गई। वह बड़े जाहिर और बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति थे। गीता पर उन्होंने बड़ी किताब लिखी, उनकी पत्नी की मृत्यु हुई। वे शायद गीता पर अपना भाष्य लिखते होंगे या किसी और ग्रंथ पर कोई काम करते होंगे। खबर दी गई उन्हें, जाकर कहा गया कि तुम्हारी पत्नी, तुम्हारी पत्नी ने श्वास छोड़ दी है। उन्होंने घड़ी की तरफ देखा, दीवाल पर और कहा अभी तो साढ़े चार बजे हैं, मैं तो पांच बजे के पहले उठ नहीं सकता हूं। साढ़े चार बजे थे, पांच बजे उठने का उनका नियम था रोज। तो पत्नी की मृत्यु भी उन्हें साढ़े चार बजे नहीं उठा सकी। फिर इसकी खूब प्रशंसा मैंने सुनी, कि कैसे अदभुत व्यक्ति हैं, कैसे संयमी, कैसे वैरागी, कैसे अनासक्त? और मैं हैरान हुआ, और यह जो आदर है, ऐसी कठोरता को, ऐसी हिंसा को, यह जो सम्मान है, और ऐसी बातों को जो महात्मा होना और सिद्ध होना, और अनासक्त होना समझा जाता है, इन्होंने जीवन को सारे रस, जीवन के सारे आनंद से क्षीण कर दिया है। जीवन को बहुत आघात पहुंचाए हैं ऐसे विचारों ने। किताब ज्यादा मूल्यवान है, जिसको वे लिख रहे हैं, और एक जीवित व्यक्ति विलीन हो रहा है, वह मूल्यवान नहीं है, नियम ज्यादा मूल्यवान है, पांच बजे उठने का, तो मौत को भी आना है तो पांच बजे आना चाहिए, उसके पहले नहीं। उनके नियम से आना चाहिए। ये जो नियम वाले लोग हैं, ये जो पिं्रसीपल वाले लोग हैं, इनसे ज्यादा जड़, इनसे ज्यादा पाषाण हृदय और कोई भी नहीं होता है। इसकी खूब शिक्षा हुई है, धर्म के नाम पर। और एक आदमी जितना अपने को कठोर कर ले, और कठोर कौन कर सकता है, अपने को? ज्ञात है कौन कर सकता है, कौन? कठोर वही कर सकता है अपने को जो,दूसरों के प्रति बहुत हिंसक होता है, अगर कहीं वह अपने प्रति हिंसक हो जाए तो कठोर हो सकता है। जो दूसरों के प्रति हिंसक हो जाए तो कठोर हो सकता है। जो दूसरों के प्रति बहुत वायलेंट होता है, बहुत हिंसक होता है, दुष्ट होता है, अगर वह अपनी सारी दुष्टता को दूसरों से अलग कर ले, तो वह अपने प्रति दुष्ट हो जाएगा। जो दूसरों के प्रति बहुत हिंसक होता है, अगर वह अपनी हिंसा को दूसरों से खींच ले तो वह अपने प्रति हिंसक हो जाएगा। तब वह अपने को सताना शुरू कर देगा।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, चाहे कोई दूसरों को सताए, चाहे अपने को, इसमें कोई भेद नहीं है, दोनों ही सताना है। इसमें कोई भेद नहीं है। जो लोग दूसरों को सताना जबरदस्ती रोक लेते हैं, और बंद कर देते हैं वे अपने को सताना शुरू कर देते हैं। और इसे हम साधना समझते हैं। इसे हम साधना समझते हैं। कोई अपनी आंखें फोड़ लेता है तो हम समझते हैं कि कितनी बड़ी साधना है। और कोई अपने शरीर को जलाता है, और कांटों पर लिटाता है और उलटा-सीधा खड़ा रहता है, तो हम सोचते हैं कितनी बड़ी साधना? और इस सब भांति वह कठोर होता चला जाता है। और उसकी सारी संवेदना के तंतु जड़ होते चले जाते हैं। न उसे फिर सौंदर्य का बोध होता है, न उसे फिर जीवन के रहस्य का अनुभव होता है, उसकी सब सारी खिड़कियां, सारे झरोखे सब बंद हो जाते हैं। वह एक अहंकार की प्रतिमा होकर खड़ा रह जाता है। ये जो सारी संवेदनहीनता को प्रशिक्षित करने की सारी शिक्षाएं हैं, ये मनुष्य को धार्मिक नहीं होने दिया है।
एक साधु के बाबत मैंने सुना है, वे कोई पन्द्रह वर्ष पहले अपने घर-द्वार को छोड़ कर, अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़कर साधु हो गए। पन्द्रह वर्ष बाद काशी में थे और खबर आई कि उनकी पत्नी मर गई है, तो वे हंसे और बोले चलो झंझट मिटी। मैं बहुत हैरान हुआ, जिन्होंने मुझे खबर दी उन्होंने कहा कि कैसे परमत्यागी हैं, कि उन्होंने कहा पत्नी के मरने पर कि चलो झंझट मिटी। मैंने कहाः मैं बहुत हैरान हूं, पंद्रह वर्ष पहले जिसे छोड़ कर चले आए थे, वह अब भी झंझट थी? क्या अर्थ है इस बात का? वह पत्नी अब भी झंझट थी, जो उसके मरने से मिटी। और जो पंद्रह वर्ष छोड़ने से जिसकी झंझट नहीं मिटी, उसके मरने से क्या मिट जाएगी? पंद्रह वर्ष दूर रहने से जो नहीं मिटी, तो अब क्या फर्क पड़ जाएगा? मैंने कहा और यह भी स्मरण रखें कि जिस आदमी ने यह कहा हो पत्नी के मरने पर कि मेरी झंझट मिटी, वह आदमी मन ही मन में कई दफा सोचा होगा कि यह मर जाए। निश्चित इसमें कोई शक नहीं हो सकता, उसने कई बार सोचा होगा कि यह मर जाए। तभी तो मरने से लगा कि झंझट मिटी। ये कठोर, क्रूर और हिंसक हृदय हैं। ये बहुत गहरी हिंसा से भरे हुए हृदय हैं। और ये जीवन के समस्त रहस्य के प्रति जड़ हो जाते हैं। और फिर इनकी परमात्मा की, और ब्रह्म की और आत्मा की सारी बातें झूठी और थोथी होती हैं, क्योंकि जहां जीवन में रहस्य नहीं, संवेदना नहीं, जहां जीवन के प्रति सब खुला हुआ हृदय नहीं, वहां कहां परमात्मा? वहंा कहां परमात्मा प्रवेश करेगा? वहां कहां, वहां कहां वे पैर, वे पदचापें सुनाई पड़ेंगी, कहां वह संगीत पैदा होगा? इसलिए मैं निवेदन करता हूं, धर्म को, धार्मिक जीवन को, कठोर हृदय लोगों ने जिन्होंने अपनी सारी कठोरता को अपने ऊ पर लौटा लिया है; उन सारे लोगों ने धर्म को नुकसान पहुंचाया है। उन्होंने धर्म के जन्म को ही रोक दिया है, अवरुद्ध कर दिया, कुंठित कर दिया है। इसलिए मैं कहता हूं वे लोग नहीं जो कांटों पर लेटे हैं, वे लोग नहीं जो लंबे उपवास करके मरने के आयोजन कर रहे हैं, वे लोग नहीं जो दूषित, जबरदस्ती सह कर शरीर को कष्ट दे रहे हों, वे लोग नहीं जो अपने ही शत्रु होकर खड़े हो गए हैं, उन लोगों ने नहीं जाना है, नहीं जान सकते हैं। नहीं जान सकते हैं उसको जो परमात्मा है। वरन् वे लोग जिन्होंने अपने हृदय को सरल किया है, प्रेम से भरा है, जिन्होंने सौन्दर्य को पहचाना है और अनुभव किया है, और जिन्होंने जीवन के रहस्य को द्वार दिया है अपने भीतर; उन लोगों ने जाना है, कहीं ज्यादा जाना है। उन्होंने कहीं ज्यादा जीया है।
जैसे मैंने कल संध्या कहा शायद महात्माओं ने उतना नहीं, साधुओं ने उतना नहीं; वरन उन लोगों ने जिनके जीवन में काव्य है, प्रेम है, सौंदर्य है, संगीत है, उन्होंने कहीं ज्यादा जाना है और जीया है। उन्होंने कहीं ज्यादा पाया है, कहीं वे ज्यादा हुए हैं। कहीं उनके भीतर कोई अवतरित हुआ है, कोई अज्ञात संगीत उनके भीतर पैदा हुआ है, उन्होंने कोई अज्ञात ध्वनि सुनी है। उन्होंने कोई अननोन, वह जो सब तरफ हमें घेरे है, उससे कोई संबंध पाया है। कोई तालमेल, कोई हार्मनी, कोई जोड़ उनका हुआ है, चारों तरफ जो फैला है, उससे। उनका नहीं जिन्होंने अपनी अस्मिता को साधा हो, और जो कठोर होते गए हों, और धीरे-धीरे अहंकार की प्रतिमाएं होकर रह गए हों। उन्होंने नहीं, बल्कि उन्होंने जो विरल हो गए हों, तरल हो गए हों, जो पिघलते गए हों, पिघलते गए हों, और जिन्हें खोजना मुश्किल हो गया हो, बाद में कि वे कहां हैं? उन्होंने शायद, उन्होंने शायद जाना है, वे ही जान सकते हैं कोई और जान नहीं सकता। संवेदनशील हृदय ही ज्ञान को उपलब्ध होता है, कोई और नहीं। तो मन तो न जानने की स्थिति में हो और हृदय संवेदना के स्पंदन से भरा हो, मन तो न जानने की स्थिति में हो, स्टेट ऑफ नॉट नोइंग में हो, और हृदय, हृदय के सारे द्वार खुले हों रहस्य के लिए। हृदय रहस्य से पूर्ण होता चला जाए, और मन, और बुद्धि, ज्ञान से शून्य होती चली जाए, तो वह घटना घटती है, जहां जाना जाता है कि मैं कौन हूं, और जहां जाना जाता है कि सब क्या है?
यह जो हृदय का स्पंदन है, इस पर थोड़ी सी बात विचार कर लेनी जरूरी है, और यह जो मैं कह रहा हूं कि काव्यशील हृदय जान पाते हैं, इससे यह मतलब मत समझ लेना कि जो कविताएं लिखते हैं वे जान पाते हैं। क्योंकि कविताएं लिखना बहुत आसान है और काव्यपूर्ण होना बहुत कठिन। सभी कविताओं में काव्य नहीं होता है। और सभी कवि काव्यहृदय से पूर्ण नहीं होते। शब्दों के तर्क से फिलोसफी पैदा हो जाती है। शब्दों की तुक से कविता पैदा हो जाती है, और तुकबंदी में कुशल भी कवि हो सकते हैं। कवि तो क्या राष्ट्रकवि भी हो सकते हैं, तुकबंदी आनी चाहिए और दिल्ली में रहने का ढंग आना चाहिए, तो राष्ट्रकवि भी हो सकते हैं, कवि तो बहुत साधारण सी बात है। कोई शब्दों की तुकबंदी से नहीं कोई कवि हो जाता है। हृदय का तालमेल उस विश्व से जो हमारे चारों तरफ व्याप्त है, उस सत्ता से जिसमें हम हैं, और प्रतिक्षण उससे जु.ड़े हैं। प्रतिक्षण कुछ हमारे भीतर से बाहर जाता है, और कुछ हमारे भीतर आता है। बाहर और भीतर के शब्द दो विरोधी शब्द नहीं हैं, और बाहर-भीतर कोई दो विरोधी आयाम नहीं हैं, कोई दो विरोधी डायमेंशन नहीं हैं। बाहर और भीतर किसी एक ही चीज के दो छोर हैं।
समुद्र में तूफान आता है, अज्ञात किनारों तक आकर लहरें छू जाती हैं और फिर वापस लौट जाती हैं। वही लहर किनारे को छूती है, वही फिर वापस लौट जाती है। एक ही लहर के दो छोर हैं--किनारा और सागर। जिसे छूती है वह, और जिसे छूकर लौट जाती है वह। मेरी श्वास, आपकी श्वास प्रतिक्षण बाहर जा रही है, और फिर भीतर आ रही है, और फिर बाहर जा रही है। श्वास के दो छोरों पर एक तरफ बाहर है, एक भीतर। बाहर और भीतर दो विरोधी बातें नहीं बल्कि किसी एक ही चीज के दो छोर हैं। और जो इतना लीन हो जाता है कि बाहर और भीतर दो न रह जाएं, बल्कि किसी एक छोर का अनुभव होने लगे तो तालमेल पैदा हुआ, तो काव्य पैदा हुआ। तो ऐसी स्थिति में काव्य से हृदय परिपूर्ण होगा। जब बाहर और भीतर दो न रह जाएं।
सुकरात एक रात घर वापस नहीं लौटा। चिंतित हुए होंगे मित्र खोजने गए, देखा तो एक वृक्ष से टिका हुआ था। बर्फ पड़ गई थी, और पैर जड़ हो गए होंगे, और पलकें एकटक टिकी थीं। और आंखें तारों को देख रही थीं। उन्होंने जाकर हिलाया, बहुत हिलाया, तो जैसे वह कहीं से वापस लौटा। और उसने कहा, क्या बात है? क्या बहुत देर हो गई? उसके मित्रों ने कहा, रात बीतने को है, पैर जड़ हो गए होंगे, बर्फ पड़ी है, सर्द हवाएं हैं, क्या कर रहे हैं? उसने कहा, कर कुछ भी नहीं रहा, तारों से एक हो गया था। मैं था ही नहीं, कुछ था जो मेरे और तारों के बीच था। मैं नहीं था। तालमेल, हार्मनी।
चीन में एक राजा को एक मुर्गे की मोहर बनवानी थी। राज्य की सील बनवानी थी। राज्य का प्रतीक बनवाना था। उसने खबर भेजी, उसने खबर भेजी गांव-गांव में कि जो चित्रकार सर्वश्रेष्ठ मुर्गे के चित्र को बना लाएगा, उसे बहुत पुरस्कार दिया जाएगा। एक वृद्ध चित्रकार आया और उसने कहा, मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूं, हाथ मेरे कंपते हैं, इसलिए शायद मैं तो चित्र नहीं बना सकूंगा, लेकिन राज्य को मैं अपनी थोड़ी सेवाएं अर्पित करना चाहता हूं। और वह यह कि जो चित्र आएं, मुझसे पूछ लिया जाए कि कौन सा चित्र बना ठीक, कौन सा नहीं? और जब तक मैं स्वीकृति न दूं तो राज्य की मोहर न बनाई जाए। राजा खुद भी इस खयाल में था कि कोई वृद्ध कलागुरु मिल जाए, जो जांच सके। लेकिन बूढ़ा बहुत अजीब रहा होगा, जो भी चित्र आए सुंदर से सुंदर वह एक बंद कमरे में जाता और लौटता और कहता कि नहीं अभी चित्र बना नहीं, वापस भिजवा देता। वर्ष बीता, दो वर्ष बीता, राजा घबड़ाया, उसने कहा कोई चित्र कभी स्वीकार करोगे या नहीं? श्रेष्ठ और सुंदर चित्र आए हैं, आखिर अस्वीकार करने का मापदंड क्या है? कैसे जानते हो कि ये ठीक नहीं हैं? उसने कहा कि आओ, वह अपने कमरे में ले गया, और उसने राजा से कहा कि चित्रों को मैं यहां रखता हूं और एक मुर्गे को कमरे के भीतर लाता हूं, अगर वह मुर्गा उस चित्र को पहचान लेता है, उस चित्र में बने मुर्गे को तो मैं समझूंगा, कि हां चित्र बना। और अगर मुर्गा बिना उसे देखे कमरे में घूमता रहता है, और निकल जाता है तो मैं समझता हूं कि नहीं बना। जिसने बनाया है उसने दूर से बनाया है, उससे मुर्गे का कोई तालमेल नहीं है।
राजा बहुत हैरान हुआ कि मैंने कभी कल्पना भी नहीं की कि मुर्गों के द्वारा परीक्षा करवाई जा रही होगी चित्रों की। अब मुर्गे क्या समझेंगे। लेकिन उस चित्रकार ने कहा जिस दिन बनेगा मुर्गे का चित्र तो उस दिन मुर्गा नहीं समझेगा तो कौन समझेगा? बाहर आकर मुर्गा ठिठक कर खड़ा हो जाएगा, लड़ने को तैयार हो जाएगा, आवाज दे देगा, दूसरा मुर्गा भीतर होगा। लेकिन चित्र अगर मुर्दे हैं, तो मुर्गे नहीं पहचानेंगे, वे निकलेंगे घूम कर निकल जाएंगे। कोई आदमी पहचान सकता है कि मुर्गे का है लेकिन जब मुर्गा पहचान ले तो कोई बात हुई। लेकिन नहीं कोई ऐसा चित्र नहीं आ सका, जिन्होंने बनाया था, वे चित्रकार न रहे होंगे। उन्होंने मुर्गे के शरीर को तो बना दिया था, लेकिन मुर्गे की आत्मा को नहीं पकड़ पाए थे। शरीर को तो बना देना बहुत सरल है, आत्मा को, लेकिन आत्मा को तो वही पकड़ सकता है, जो आत्मा के साथ एक हो जाए। आखिर उस बूढ़े ने कहा कि नहीं यह नहीं होगा, मुझे खुद ही बनाना पड़ेगा। लेकिन बड़ी कठिनाई है, मैं बच पाऊं या न बच पाऊं इसलिए तो मैंने कहा था कि सत्तर वर्ष का हुआ बूढ़ा हंू, लेकिन मुझे ही बनाना पड़ेगा। राजा ने कहा, दो वर्ष व्यर्थ खोए कभी का बना देते, उसने कहा कि नहीं अभी तीन वर्ष और लग जाएंगे। राजा ने कहा क्या इतना कठिन है बनाना? उसने कहा नहीं बनाना कठिन नहीं है, लेकिन मुर्गे के साथ एक हो जाना बड़ा कठिन है। तो मुझे तीन वर्ष के लिए छुट्टी दे दी जाए, अब मैं जंगल जाता हूं, और देखता हूं कि इस बुढ़ापे में तालमेल बन सकता है कि नहीं बन सकता।
वह कलाकार जंगल गया, कोई छह महीने बाद राजा ने अपने कुछ मित्रों को भेजा कि जाओ देखो वह जिंदा है या नहीं, और करता क्या है वहां, और जंगल में कितने दिन लगाएगा? लोग गए, वह जंगली मुर्गों के पास लेटा हुआ था। और उसने उन्हें वापस लौटा दिया कि अभी बहुत देर है। अभी बहुत देर है, जब तक मैं मुर्गा न हो जाऊं तब तक आना मत। लौटकर उन्होंने कहा कि पागल है मालूम होता है बूढ़ा वह कहता है कि जब तक मैं मुर्गा न हो जाऊं , वह मुर्गा हो जाएगा तो मुर्गा बनाएगा कौन? मुर्गे तो वैसे ही बहुत हैं। लेकिन तीन वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ी और तीन वर्ष बाद लोग उसे पकड़कर लाए। वह आया तो उसने आकर राजदरबार में जोर से मुर्गे की बांग दी। सारे दरबारी हैरान हो गए, और उन्होंने कहा कि यह तो ठीक है कि बांग आप देना सीख आये, लेकिन चित्र कहां है? उसने कहा चित्र बना देना तो अब एक क्षण का काम है, आत्मा को पकड़ना था। वह बहुत मुश्किल था, वह हो गया। मैंने मुर्गे को भीतर से जाना, और तब उसने तूलिकाएं बुलाईं और वहीं खड़े-खड़े चित्र बना दिया। और मुर्गे लाए गए, वे मुर्गे देख कर उस मुर्गे को घबड़ा कर खड़े हो गए, और आवाज देने लगे, वह मुर्गा जिंदा था। कहीं किसी तालमेल से किसी हार्मनी से पैदा हुआ था।
उन्होंने जाना है जिन्होंने जीवन के प्रति कोई तालमेल उपलब्ध कर लिया है, कोई एकता, कोई एकांतता उपलब्ध कर ली है। लेकिन वह व्यक्ति जो अपने हृदय को कठोर कर लेता है और सारी संवेदना के द्वार बंद कर लेता है वह कैसे एक हो पाएगा? नहीं हो पाएगा, नहीं हो पाएगा, कोई रास्ता नहीं है उसके एक हो जाने का। इसलिए वह धर्म जो तोड़ता हो जीवन के रस से, जो तोड़ता हो जीवन के रहस्य से, जो तोड़ता हो जीवन के आंसुओं से, और जीवन की मुस्कुराहटों से, जो कठोर करता हो और पाषाण बनाता हो, वह धर्म नहीं है, वह केवल अहंकार की पूजा है। और व्यक्ति जितना कठोर होता जाता है उतनी उसकी अस्मिता गहरी और घनी होती जाती है। अहंकार की पूजा धर्म नहीं है।
एक साधु मरा, उसके शिष्य के बाबत बड़ी ख्याति थी, बड़ी ख्याति थी। लेकिन साधु मरा, गुरु मरा तो वह जो शिष्य था, जिसकी बड़ी ख्याति थी, वह तो रोने लगा, उसकी आंख से आंसू गिरने लगे। तो लोगों ने कहा यह क्या करते हो? रोते हो, और तुम तो कहते थे आत्मा अमर है, और शरीर मर जाता है, तो रोते हो। तो उसने कहा मैं शरीर के लिए ही रोता हूं, कितना सुंदर था। कितना अदभुत था, कितना रहस्यपूर्ण था? आत्मा के लिए रोता भी नहीं, मैं शरीर के लिए ही रोता हूं। उसके मित्रों ने कहा तुम रोते हो यही देख कर हमें हैरानी होती है क्योंकि हम तो सोचते हैं कि जिनकी आंखों में आंसू न आ सकें, और जिनके चेहरों पर मुस्कुराहट न आ सके, वे ही लोग, वे ही लोग सन्यासी हैं। वे ही लोग साधु हैं। उस व्यक्ति ने कहा, कभी मैं भी वैसा ही सोचता था। आंखें पत्थर जैसी बनाई जा सकती हैं, होंठ ऐसे सख्त बनाये जा सकते हैं कि उन पर मुस्कुराहट लानी भी हो तो न लाई जा सके। और आंखें ऐसी पत्थर बनाई जा सकती हैं कि आंसूं उनमें न आएं, लेकिन तब भीतर हृदय भी पत्थर हो जाता है, और तब भीतर भी पाषाण हो जाता है। और तब भीतर भी जड़ता हो जाती है। और जितना भीतर सब जड़ हो जाता है, उतनी तरलता खो जाती है, उतनी संवेदनशीलता खो जाती है, उतने जोड़ खो जाते हैं, उतने मिलन के सब रास्ते खो जाते हैं।
 धर्म है मिलन, धर्म है जुड़ जाना। धर्म है सबसे जुड़ जाना। कैसे जुड़ेंगे अगर हम अपने को तोड़ते चले गए? इसलिए मैंने कहा, काव्यपूर्ण हृदय चाहिए। काव्य पूर्ण हृदय चाहिए, गीत से भरा हुआ, संवेदनशील जीवन जो चारों तरफ फैला है उसकी प्रत्येक संवेदना को अनुभव करता हुआ। न ऐसा हो, ऐसा न हो पाये तो फिर कोई रास्ता नहीं है, फिर कोई मार्ग नहीं है, फिर कोई द्वार नहीं है। फिर पहुंचने की कोई सुविधा नहीं है। फिर नहीं पहुंचा जा सकता परमात्मा तक। बैठ कर राम-राम जपने से कोई नहीं पहुंचता है। और न मंत्रों के पाठ से, और न मंदिरों की पूजा से। क्योंकि हम तो देखते हैं कि मंदिरों में जाने वाले और भी जड़ हो जाते हैं। आखिर मंदिरों में जाने वाले लोगों ने क्या नहीं किया है दुनिया में? कितनी हिंसा उनके नाम पर है? हिंदू और मुसलमान के, जैन और बौद्ध के, ईसाई और पारसी के नाम पर कितनी हिंसा है? और मंदिरों और मस्जिदों के नाम पर कितनी हिंसा है? और इन मूर्तियों और इन ग्रंथों, और इन संप्रदायों के नाम पर कितनी कठोरता है, कितनी हिंसा है? ईसाइयों ने कितने आदमी नहीं मार डाले, मुसलमानों ने या दुनिया के और धर्मों ने क्या नहीं किया है? कितनी हत्याएं नहीं की हैं, कितना खून नहीं किया है? यह कैसे संभव हुआ है, यह कठोरता कैसे संभव हुई है? यह उसी कठोर पाषाण हृदय की शिक्षा से संभव हुआ है। वे हृदय जो संवेदनहीन हो गए हैं, जिन्होंने संवेदना खो दी है, उनकी मूर्तियां खतरनाक हो जाएंगी, उनके मंदिर खतरनाक हो जाएंगे।
एक रात जापान के किसी मंदिर में एक युवक साधु आकर ठहरा। रात थी बहुत सर्द, बहुत ठंडी, वह मंदिर में गया, लकड़ी की मूर्तियां थीं, वह बुद्ध की एक मूर्ति उठा लाया और आग लगाकर सेकने लगा, तापने लगा। मंदिर में आग लगी, लकड़ियां चटकी होंगी मूर्ति की पुजारी जागा होगा, भागा हुआ आया, देखा तो वेदी पर तीन प्रतिमाएं थी, दो ही बची हैं। घबड़ा गया, आकर देखा तो प्रतिमा तो जल चुकी है। वह साधु बैठ कर ताप रहा है। पुजारी सोच सकते हैं, किस हालत में नहीं आ गया होगा? उसने उस साधु की गर्दन पकड़ ली और कहा, पागल यह क्या किया? भगवान को जला डाला। वह साधु बोला, भगवान...! एक छोटी सी लकड़ी उठा कर वह राख को कुरेदने लगा, उस पुजारी ने पूछा क्या करते हो? उसने कहा भगवान की अस्थियां खोजता हूं। वह पुजारी ने गर्दन छोड़ दी और कहा कि मैं तो समझ ही गया कि तुम पागल हो। एक तो मूर्ति जला डाली और अब दूसरा पागलपन यह करते हो कि अस्थियां खोजते हो। लकड़ी की मूर्ति में अस्थियां कहां? तो उस साधू ने कहा मित्र रात अभी बहुत बाकी है, और सर्दी भी बहुत है, मूर्तियां अभी दो और रखी हैं, एक और उठा लाओ। लेकिन पुजारी ने तो धक्के देकर उस आदमी को बाहर निकाल दिया। और सुबह गांव के लोगों ने क्या देखा? वह आदमी सड़क के किनारे एक पत्थर को रखकर उसकी पूजा कर रहा था। तो लोगों ने कहा बड़े पागल मालूम होते हो, भगवान की मूर्ति जला दी और पत्थर की पूजा करते हो। उस आदमी ने कहा, जहां भी देखता हूं भगवान को ही देखता हूं। और जो आंखें मंदिर की मूर्ति में ही भगवान को देखती हैं, वे आंखें सारे संसार में कैसे भगवान को देख सकेंगी? और जो लकड़ी की मूर्ति थी, उसमें भी भगवान था, तो जो आग की लपटें थी उनमें भी भगवान था। और यह जो गरीब साधू आग ताप रहा था, इसमें भी भगवान ही था। इस पत्थर में भी भगवान हैं, ऐसे पूजा चैबीस घंटे चल रही है।
जैसे हृदय संवेदनशील होगा, वैसे थोथी मूर्तियां तो जल जाएंगी, वैसे मन पर बैठे इमेजिज तो चले जाएंगे, क्योंकि सभी मूर्तियां संकुचित करती हैं और संकीर्ण करती हैं। और रोकती हैं आबद्ध करती हैं, लेकिन किसी विराट अमूर्त भगवान का धीरे-धीरे स्मरण और बोध शुरू होगा और उसकी पूजा श्वास-श्वास से चलनी शुरू हो जाएगी। और रास्ते पर भौंकते कुत्ते में भी वह दिखाई पड़ेगा, और आकाश के तारों में भी। लेकिन बहुत आसान है आकाश के तारों में देख लेना, घर के बच्चे में भी वही दिखाई पड़ेगा, पत्नी में भी, पति में भी। सब तरफ, सब कुछ में। उसे देखने के लिए, उसे जानने के लिए, और उसे बाहर सब तरफ जो अनुभव न कर पाएं, उस रहस्य को, उसकी लौटती धारा भीतर भी अनुभव न कर पाएगी, जब बाहर सब तरफ रहस्य से भर जाता है हृदय, तो श्वासें जब भीतर की तरफ लौटती हैं तो भीतर भी रहस्य का अनुभव होता है। बाहर जो यात्रा हो रही है, वही तो भीतर लौट रही है, वे ही श्वासें जो बाहर जा रही हैं, भीतर आ रही हैं। वे ही प्राण, वही बोध, बाहर और भीतर डोल रहा है। बाहर जब अनुभव होगा रहस्य का, तो भीतर भी होगा।
राबिया एक दिन अपने झोंपड़े में बैठी थी। बाहर उसका एक मित्र आया हुआ था। सुबह सूरज उगने लगा, बड़ी सुंदर सुबह थी, सभी सुबह सुंदर होती हैं। बाहर उसके मित्र ने चिल्ला कर कहाः राबिया! क्या करती हो भीतर? बाहर आ जाओ कितना सुंदर सूरज उगा है? भगवान ने कैसी नई सुबह दी है? पक्षी कैसे गीत गाते हैं? आकाश कैसी रंगबिरंगी बदलियों से भरा है, आओ बाहर। राबिया ने कहा, हसन! मैं तो बाहर भी रही हूं, मैंने भी सूरज उगते देखा, मैंने भी बादल चलते देखे, लेकिन क्या तुम भीतर आओगे, क्योंकि तुम जिसे बाहर देख रहे हो, जिसने उसे बनाया, उसे मैं भीतर देख रही हूं। उसने कहा हसन, कृपा करो, तुम ही भीतर आ जाओ। यह जो बाहर है, इससे भी विराटतम, इससे भी सुंदर, इससे भी गहरा, इससे भी प्राणवान भीतर है। क्योंकि जितने भीतर घुसेंगे, क्योंकि वह भीतर मेरा नहीं है, वह सबका ही भीतर है। जितने भीतर घुसेंगे और जितने गहरे, क्योंकि वह मेरा भीतर नहीं है, सबका ही भीतर है। जैसे-जैसे हम केंद्र की तरफ और गहरे जाएंगे, वैसे-वैसे और विराट, और रहस्य, और सूक्ष्म के दर्शन होने शुरू हो जाएंगे। वैसे-वैसे और, और, और अज्ञात, और अज्ञात हमें छूने और स्पर्श करने लगेगा। बाहर देखें। लेकिन सरल है कि बाहर से शुरू करें। सरल है कि बाहर से शुरू करें। सहज है कि बाहर से शुरू होने दें। कभी कोई सुंदर चेहरा देखा है, कहेंगे कि जरूर देखा है, और मैं निवेदन करूंगा कि नहीं देखा होगा। सुंदर चेहरे को देखने के लिए जैसे रहस्यपूर्ण हृदय चाहिए, वह है? सुंदर आंखें देखी हैं, कभी कोई मौन आंखें देखी हैं, कभी कुछ सुंदर देखा है? अगर देखा होता तो यहां कैसे आते? यहां आने की क्या जरूरत थी? यहां आने का क्या प्रयोजन था? यहां घंटे भर इस बंद भवन में बैठने का कौन सा कारण था? बाहर सुंदर मौजूद है, सूरज आज भी निकला है, किरणें आज भी फैल रही हैं, पत्ते आज भी हंसते होंगे, फूल आज भी खिले होंगे। पक्षी आज भी गीत गाये होंगे। बाहर सब मौजूद है, यहंा बैठने का क्या कारण था?
मैं तो उस दिन की रोज-रोज प्रतीक्षा करता हूं कि जिस दिन मैं आऊं और पाऊं कि भवन खाली है, और कोई भी नहीं आया है, क्योंकि बाहर सूरज है, बाहर तारे हैं, वहां लोग हैं। तो उस दिन, उस दिन खुश हो जाए मन, आनंद से भर जाऊं कोई भी अब नहीं आता सुनने, क्योंकि बाहर लोग देखने में तल्लीन हैं, होने में, जानने में। लेकिन हम तो, हम तो शब्दों में जीते हैं, शब्दों को पकड़ते हैं, और शब्दों से भर लेते हैं, और शब्दों से भरा हुआ हृदय सब संवेदना खो देता है। शब्द से खाली हों, सौंदर्य से भरें, ज्ञान से खाली हों और रहस्य से भरें। और ज्ञात को छोड़े और अज्ञात को आने दें। और जैसे-जैसे हृदय अज्ञात से भरता जाएगा, वैसे-वैसे जानेंगे क्या है बाहर? वैसे-वैसे जानेंगे क्या है भीतर? और तब तो भीतर और बाहर के भेद गिर जाते हैं। तब तो सिर्फ जानना रह जाता है, तब तो सिर्फ होना रह जाता है। उस होने में ही उसका बोध है, कहीं उस सब हो जाने में ही, उसका अनुभव है। मैं कौन हूं? उसका वहां उत्तर है, लेकिन वह इसका उत्तर नहीं होगा कि मैं कौन हूं? वह इसका भी उत्तर होगा कि सब क्या है? जिस दिन मैं अपने इस भीतर छुपे हुए रहस्य को जानने में समर्थ हो जाऊं मैं सबके भीतर, सबके भीतर उस रहस्य को जानने में समर्थ हो जाता हूं। तो खटखटाएं, पूछें भीतर, भीतर से भीतर उठने दें इस प्रश्न को और किसी उत्तर को न पकड़ें और देखें बाहर आंखें खोलें, और पहचानें बाहर अज्ञात को, और किसी उत्तर को बीच में न आने दें, किसी व्याख्या को बीच न आने दें।
तो मैंने कल और आज दो बातें कहीं हैं, पूछें मैं कौन हूं? और किसी सीखे हुए उत्तर को बीच में न आने दें। और देखें बाहर कि क्या है? और किसी व्याख्या को किसी सिद्धांत को बीच में न आने दें। तो बाहर रहस्य का बोध होगा, और भीतर भी। और जब दोनों के बीच तालमेल होगा, दोनों के बीच हार्मनी होगी, संगीत होगा, संवाद होगा तो उसका जन्म होता है जिसे मैं ज्ञान कहूं। तो उसके द्वार खुलते हैं जो ज्ञान है। और साथ ही उसके भी द्वार खुल जाते हैं, जो प्रेम है। क्योंकि रहस्य प्रेम को जन्म दे देता है। और उसके भी द्वार खुल जाते हैं जो आनंद है, क्योंकि आनंद प्रेम की सुगंध के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। लेकिन जो कठोर हैं, वे अभागे हैं। और जो सब भांति कठोर होते चले जाते हैं, तथाकथित साधक, जो सब भांति कठोर होते चले जाते हैं, और अपने को रोकते चले जाते हैं, रोकते चले जाते हैं, वे जड़ हो जाते हैं। और पत्थर हो जाते हैं। जरूर वे यह घोषणा कर सकते हैं कि, अहं ब्रह्मास्मि! मैं ही ब्रह्म हूं और फलां और ढिकां। लेकिन वे जान नहीं सकते हैं, वे जान नहीं सकते क्योंकि वे जानते तो ब्रह्म बच रहता है और मैं खो जाता है। क्योंकि वे जानते तो वे कहते कि ब्रह्म है और मैं नहीं हूं। लेकिन वे कहते हैं मैं ब्रह्म हूं। वे जानते तो वे कहते कि ब्रह्म है और मैं नहीं हूं। और इस होने में ही, इस होने में सारी कृतार्थता और धन्यता छिपी है।
ये थोड़ी सी बातें आज कहीं, कुछ खयाल में आएगा तो कल कुछ और इस संबंध में कहूंगा। शायद थोड़ी सी बातें कहने जैसी और हों। लेकिन कहने का तो कोई बहुत मूल्य नहीं है। सुनने का मूल्य है, मेरा काम तो मैं पूरा कर देता हूं कहने का, पता नहीं आप सुनते हैं या नहीं सुनते। वह आपकी तरफ है। थोड़ी सी बातें कल और कहूंगा। प्रेम से मेरी बातों को सुना है, परमात्मा करे इतने ही प्रेम से परमात्मा को सुन सकें। प्रेम से इतनी देर, इतने क्षण यहां बैठे हैं, परमात्मा करे, इतनी ही देर कभी चांद के नीचे या तारों के नीचे बैठ सकें। वहां कुछ है, निश्चित ही वहां कुछ है। और अगर भीतर थोड़ी भी स्फुरणा होगी तो वहां कुछ मिलेगा। वहां कुछ उपलब्ध होगा। और जब वहां कुछ दिखेगा और मिलेगा तो लौटती धारा में भीतर भी कुछ पाया जायेगा। भीतर भी कुछ उपलब्ध होगा।

सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


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