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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-50)

बोधकथा-पच्चासवी

रात एक युवती ने आकर कहाः ‘‘मैं सेवा करना चाहती हूं।’’
उससे मैंने कहाः ‘मैं’ को जाने दो तो सेवा अपने आप आ जाती है।
अहंकार के अतिरिक्त जीवन के सेवा बन जाने में और क्या बाधा है?
अहंकार सेवा मांगता है। वस्तुतः वह सब कुछ मांगता ही है, देता कुछ नहीं। वह दान में असमर्थ है। वह उसकी सामथ्र्य ही नहीं। अहंकार सदा का भिखारी है। इसीलिए अहंकारी व्यक्ति से दीन और दरिद्र व्यक्ति खोजना असंभव है।
सेवा तो वही कर सकता है, जो सम्राट है। जिसके पास स्वयं ही कुछ नहीं है, वह किसी को देगा क्या? देने के पहले होना तो आवश्यक ही है।

सेवा क्या है? क्या प्रेम ही सेवा नहीं है? और प्रेम का जन्म तो उसी चेतना में होता है, जिसमें ‘मैं’ की कब्र बन गई होती है।
‘मैं’ की मृत्यु में ही प्रेम का जन्म और जीवन है।


‘मैं’ की चिता में से ही प्रेम का बीज अंकुरित होता है।
‘मैं’ से जो भरे हैं, प्रेम से वे रिक्त ही होते हैं।
‘मैं’ शोषण का केंद्र है। उसकी सेवा भी शोषण ही है। उसमें भी वही पुष्टि पाता और प्रगाढ़ होता है। क्या सेवकों के दंभ से मनुष्यता अपरिचित है? शोषक के दंभ में भी विनम्रता का आवरण होता है, किंतु सेवक की तो विनम्रता में भी दंभ की ही घोषणा होती है।
स्मरण रहे कि प्रेम मुखर नहीं है और सेवा मौन है। और यह भी स्मरण रहे कि प्रेम स्वयं ही अपनी धन्यता है और सेवा स्वयं ही अपना पुरस्कार है।
एक अदभुत प्रसंग मुझे याद आता है।
दो मित्र चित्रकला सीखने गुरु के द्वार पहुंचे। दोनों थे अति दरिद्र। दो रोटियां भी उनके पास नहीं थीं। उन्होंने तय किया कि उनमें एक किसी कला का अभ्यास करे और दूसरा श्रम करके स्वयं का और उसका पेट भरे, फिर दूसरा कमाएगा और पहला सीखेगा।
एक ने गुरु के चरणों में बैठ कर चित्रण शुरू किया। वर्ष आए और गए। कठिन साधना थी। समय का सवाल ही नहीं था। पूरी शक्ति लगा कर वह युवक साधनारत था। धीरे-धीरे उसकी ख्याति फैलने लगी। कला के जगत में उसका भाग्योदय हो गया था। उस युवक का नाम थाः अलब्रेख्त डुरेर। किंतु उससे भी कठिन साधना में उसका मित्र लगा था। वह गड्ढे खोद रहा था और गिट्टियां फोड रहा था, लकडियां काट रहा था और बोझ ढो रहा था। धीरे-धीरे वह भूल ही गया कि वह भी चित्रकला सीखने आया था। और जब कलाभ्यास की उसकी बारी आई तो पाया गया कि उसके हाथ तो इतने कडे, सख्त और विकृत हो गए थे कि उनसे चित्रण संभव ही नहीं रहा था।
यह दुर्घटना देख पहला युवक रोने लगा, किंतु दूसरा बहुत आनंदित था। उसने कहाः ‘‘इससे क्या भेद पडता है कि मेरे हाथ चित्र बनाते हैं या तुम्हारे? तुम्हारे हाथ भी क्या मेरे ही हाथ नहीं हैं? ’’
पहला युवक तो महान चित्रकार बन गया, किंतु उसके मित्र का नाम तो किसी को ज्ञात भी नहीं है, जिसने अपना खून-पसीना एक कर उसे चित्रकार बनाया था। किंतु उसकी अज्ञात सेवा क्या प्रेम का एक ज्वलंत प्रमाण नहीं है? क्या वे धन्य नहीं हैं, जो अज्ञात में सेवा करते और सेवा के अवसरों की प्रतीक्षा करते हैं? जो जाने जाते हैं, वे ही नहीं, जो कभी नहीं जाने जाते, वे भी सृजन करते हैं।
प्रेम के अज्ञात हाथों से की गई सेवा से बडी न तो कोई साधना है और न कोई प्रार्थना ही। अलब्रेख्त डुरेर ने अपने उस मित्र के हाथों का प्रार्थना करता हुआ एक चित्र बनाया है। निश्चय ही वैसे सुंदर हाथ खोजना क्या आसान है? उन जैसे पवित्र हाथ खोजना क्या संभव है? और क्या उन जैसे हाथों के अतिरिक्त प्रार्थना करने का अधिकार किसी और को मिल सकता है? उन हाथों ने जैसा प्रेम किया और प्रार्थना की, वह सौभाग्य कितने थोडे से लोगों को मिल पाता है?

ओशो

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