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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-09)

नौवां प्रवचन-(विज्ञान स्मृति है और धर्म ज्ञान)

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक बहुत घने अंधकार में, एक बहुत घनी पीड़ा में, एक बहुत दुख से भरे हुए समय में हम हैं। और मनुष्य के भीतर मनुष्य की हृदय की वीणा पर कोई संगीत, कोई गीत, कोई आनंद उपस्थित नहीं है। मैं आपके भीतर देखता हंू, तो मुझे ऐसा लगता है जैसे कोई वीणा जो अलौकिक संगीत पैदा कर सकती थी, किसी अंधेरे खंडहर में व्यर्थ ही पड़ी है और उससे कोई संगीत पैदा नहीं हो रहा है। मैं आपको देखता हूं, तो मुझे लगता है कि कोई दीपक जो अंधकार में प्रकाश कर सकता था, किसी खंडहर में बिना जला हुआ पड़ा है। और मैं आपको देखता हूं, तो मुझे लगता है कि ऐसे बीज जो फूल बन सकते थे और जिनसे सारा जगत सुगंध से और सुवास से भर सकता था, वे बीज भूमि को न पाने के कारण व्यर्थ हुए जा रहे हैं।

हमारे भीतर इतनी संभावना है, इतनी संभावना है कि हम परमात्मा हो सकें। और हम जहां खड़े हैं वहां पशु होना भी...पशु भी वहां खड़े होना पसंद नहीं करेंगे। हमारे भीतर संभावना है कि हम परमात्मा हो सकें और हम जहां खड़े हैं वहां पशु भी खड़े होना पसंद नहीं करेंगे। ऐसी दुख की यह जो स्थिति है, ऐसी पीड़ा की और दुर्घटना की जो स्थिति है, इस संबंध में कुछ आपसे कहूं। इसके पार होने के रास्ते के संबंध में कुछ कहूं। ऐसा मेरा विचार है।


मेरा मन नहीं होता कि धर्म की बंधी-बंधाई परिभाषाओं के संबंध में कुछ कहा जाए। उन्हें आप बहुत जानते हैं। और मेरा मन नहीं होता कि दर्शनशास्त्रों के शाब्दिक जाल में कुछ बातें आपको कही जाएं, उनसे आप अच्छी तरह भलीभांति परिचित हैं। शास्त्रों से, संप्रदायों से, शब्दों से आप भलीभांति परिचित हैं। लेकिन वे शब्द आपके जीवन में कोई आंदोलन पैदा नहीं करते हैं, और न वे आपके भीतर ऐसी प्यास करते हैं पैदा, न ऐसी लपट पैदा करते हैं कि आपके जीवन में क्रांति हो जाए और आपके भीतर दूसरे आदमी का जन्म हो जाए।
तो अच्छा हो मैं धर्म के संबंध में तो बात करूं, लेकिन धर्म के शब्दों में बात न करूं। बंधे हुए शब्द धीरे-धीरे मृत हो जाते हैं, उनके प्राण निकल जाते हैं। और वे थोथे शब्द हमारे मन को घेर लेते हैं। और उनका संपर्क, उनका जीवित संपर्क हमसे दूर हो जाता है।
तो मैं धर्म के संबंध में तो बात करूंगा, लेकिन धर्म की भाषा में नहीं करूंगा। धर्म के संबंध में तो बात करूंगा, लेकिन ग्रंथों की भाषा में नहीं करूंगा। धर्म के संबंध में ही कहूंगा, लेकिन, शायद मालूम न हो कि मैं धर्म के संबंध में आपसे कुछ कह रहा हूं।
कल मैं बाहर निकलता था, किसी ने मुझसे कहा, आपने जैन धर्म के संबंध में कुछ नहीं कहा?
मैं सोचता हूं, क्या हम जैन धर्म का नाम लेंगे तभी हम समझ पाएंगे कि धर्म के संबंध में कुछ कहा गया है?
कल मैं बाहर निकलता था, किसी और ने पूछा, आपने बुद्ध के संबंध में कुछ बातें कहीं, लेकिन महावीर के संबंध में नहीं कहीं?
क्या नाम इतने महत्वपूर्ण हैं? क्या जो बुद्ध के संबंध में सच है वही महावीर के संबंध में सच नहीं है? क्या जो महावीर के संबंध में सच है वही क्राइस्ट के संबंध में सच नहीं है? लेकिन नाम बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं। और उनके पीछे के अर्थ हमारे लिए बहुत गौण हो गए हैं।
तो, न तो मैं महावीर के संबंध में कुछ कहने को हूं आपसे, न बुद्ध के संबंध में, न क्राइस्ट के संबंध में। असल में इन नामों के संबंध में इतनी बातें हुई हैं कि इन नामों के पीछे खड़े हुए लोग धार्मिक बिलकुल नहीं रह गए हैं। जो क्राइस्ट को पकड़े हुए है वह धार्मिक नहीं हो सकता; जो महावीर को पकड़े हुए है वह भी धार्मिक नहीं हो सकता।
धार्मिक जो होगा, उसे ज्ञात होगा, उसे दिखाई पड़ेगा कि महावीर में, क्राइस्ट में, बुद्ध में, राम में, कृष्ण में कोई भेद नहीं है। उसे दिखाई पड़ेगा, ये नाम अलग हैं, लेकिन इन नामों के पीछे जो सत्य है, वह एक है। उसे दिखाई पड़ेगा, ये लोग अलग हैं, लेकिन इन्होंने जो कहा है और इन्होंने जो दिया है, वह भिन्न नहीं है। अलग-अलग दीयों से प्रकाश गिरता है। दीये अलग हो सकते हैं, लेकिन प्रकाश अलग नहीं होता। अलग-अलग दीयों से अंधकार दूर होता है, दीये अलग हो सकते हैं, लेकिन प्रकाश अलग नहीं होता। तारों में सौंदर्य होता है, और फूलों में सौंदर्य होता है, और किन्हीं आंखों में भी सौंदर्य होता है। आंखें, और तारे, और फूल अलग होते हैं, लेकिन सौंदर्य अलग नहीं होता। आंखें, और तारे और फूल अलग होते हैं, लेकिन सौंदर्य अलग नहीं होता। जो प्राण हैं वह एक हैं, केवल देहें अलग हैं।
धर्मों की देह, धर्मों के शरीर भिन्न हैं, धर्मों की आत्मा एक है। और उस आत्मा के संबंध में मैं कुछ आपसे कहूं। उन देहों के संबंध में नहीं, उन शरीरों के संबंध में नहीं, जिन्होंने हमें बहुत जोर से, बहुत जोर से दबा रखा है। और जिनके दबाव में हम धर्म को उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।
मुझे दिखाई पड़ता है, जो आदमी बहुत गहरे रूप से जैन शब्द को पकड़ेगा, वह जैन हो जाए, लेकिन धार्मिक नहीं हो पाएगा। और जितना वह धार्मिक होने लगेगा, उतना पाएगा कि जैन शब्द विलीन होता चला गया है। महावीर को जैन कहना उनका अपमान करना है। बुद्ध को बौद्ध कहना उनका अपमान करना है। क्राइस्ट को क्रिश्चियन कहना उनका अपमान करना है। खंडों में वैसे अखंड पुरुष विभाजित नहीं होते हैं। खंडों में वैसे अखंड पुरुष विभाजित नहीं होते हैं। और टुकड़ों में वैसे परम पुरुष बंधते नहीं हैं। उनकी कोई सीमा नहीं होती, और उनके कोई संप्रदाय नहीं होते। और जो संप्रदायों में खड़े हैं, और सीमाओं में खड़े हैं, उन्हें जानना चाहिए कि वे सीमाओं में ही समाप्त हो जाएंगे और असीम का अनुभव नहीं कर सकेंगे। और उन्हें जानना चाहिए, वे संप्रदायों में ही नष्ट हो जाएंगे और सत्य का अनुभव नहीं कर सकेंगे।
तो मैं उस सत्य के संबंध में कहूं जिसकी कोई सीमा नहीं है। और उस सौंदर्य के संबंध में कहूं जो माध्यम से बंधता नहीं। और उस प्रकाश के संबंध में कहूं जो दीयों पर निर्भर नहीं होता। जो दीयों में जरूर होता है, लेकिन दीयों से मुक्त होता है और दीयों से अलग होता है।
और वह प्रकाश, और उस प्रकाश की चर्चा, और वह सौंदर्य और उस सौंदर्य की चर्चा आपके भीतर संभव है। कोई स्वर छेड़ दे, आपके हृदय के तारों में संभव है कोई कंपन पैदा कर दे। और आपकी सोई वीणा संभव है मुखर हो जाए, और आपके सोए हृदय में संभव है कोई आंदोलन पैदा हो। और आपके जीवन में एक नई दिशा, एक नया विकास, एक नई गति पैदा हो जाए। वह गति, उस दिशा में गतिमय हो जाना, लौकिक से अलौकिक की तरफ गतिमय हो जाना, और देह से आत्मा की तरफ गतिमय हो जाना, और संसार से परमात्मा की तरफ गतिमय हो जाना, उस गति को, उस उन्मुखता को, उस दिशा में चेहरे के फिर जाने को मैं धार्मिक होना कहता हूं। उस संबंध में ही थोड़ी सी बातें आज आपसे कहूंगा।
जैसा मैंने कहा, बहुत अंधकार है। इतना अंधकार कभी भी नहीं था। जैसा मैंने कहा, मनुष्य बहुत पशु जैसा हो गया है। शायद इतना पशु जैसा कभी नहीं था। पिछले महायुद्ध में हिरोशिमा पर जब अणुबम गिराया गया, जिस रात हिरोशिमा और नागासाकी में लाखों लोग मरे, उसके दूसरे दिन सुबह ट्रूमैन को किसी ने जाकर पूछा, किसी पत्रकार ने पूछा, रात आपको नींद आई? ट्रूमैन ने कहा, इतनी गहरी नींद इसके पहले कभी भी नहीं आई थी। कल बहुत निश्चिंत सोया।
हम थोड़ा विश्वास करें, हम थोड़ा खयाल करें। अगर मेरी आज्ञा से एक लाख लोग समाप्त हो गए हों, क्या उस रात मैं सो सकूंगा? क्या उस रात के बाद फिर जीवन भर मैं सो सकूंगा? क्या उस रात के बाद फिर आनंद भी मेरे जन्म हो, तो मैं सो सकूंगा? लेकिन ट्रूमैन ने कहा, रात मैं बहुत गहरी नींद सोया, सारी चिंता से मुक्त होकर सोया।
क्या हम कहेंगे, यह जो भीतर से बोल रहा है, मनुष्य है? क्या हम कहेंगे, यह मनुष्य की वाणी बोलती है? क्या हम कहेंगे, भीतर से कोई, भीतर से कोई ऐसी चेतना बोलती है?
भीतर से कोई चेतना नहीं बोलती, शायद हमारे भीतर जो निम्नतम पशु है, वही यह कह सकेगा।
और यह हुआ है। और यह ट्रूमैन के लिए नहीं कह रहा हूं, यह हम सबके साथ हुआ है। हम सबके साथ कुछ ऐसा हुआ है कि हम दूसरों के रास्तों पर कांटे फेंकने में आनंद लेने लगे हैं। हम सबके साथ कुछ ऐसा हुआ है, हम दूसरों के जीवन से फूल छीन लें, इसमें हमारा आनंद हो गया है।
और जो मनुष्य दूसरों के रास्ते पर कांटे डालने में आनंद लेता हो, वह मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता है। और यह भी स्मरण रखें, जो मनुष्य दूसरे के जीवन में कांटे डालता हो, उसके अपने जीवन में फूल नहीं हो सकते हैं। यह भी स्मरण रखें, हम जो देते हैं, वह हम पर वापस लौट आता है। यह जगत, यह जगत हमें वही वापस दे देता है जो हम इसकी तरफ फेंकते हैं।
इस जगत से हमें कुछ भी ऐसा नहीं मिलता जो हमने न फेंका हो। हम जो फेंकते हैं वापस लौट आता है। जो घृणा फेंकता है, घृणा वापस लौट आती है। जो प्रेम फेंकता है, प्रेम वापस लौट आता है। और यह सारा जगत हमारा प्रतिफलन बन जाता है। मेरी जो शक्ल होती है, वह इस चारों तरफ सारी दुनिया में छाए हुए लोगों में प्रतिबिंबित होकर मुझे दिखाई पड़ने लगती है।
अगर हम विकृत हो गए हों, तो चारों तरफ से विकृतियां हममें प्रविष्ट होने लगती हैं। और अगर हम घृणित हो गए हों, तो चारों तरफ से घृणा हममें प्रविष्ट होने लगती है। और अगर हमने कांटे फेंके हों, तो हमें कांटों की फसलें उपलब्ध होती हैं और जीवन नष्ट हो जाता है।
यह जो मैंने कहा, इतना अंधकार, इतनी घृणा और इतनी हिंसा मनुष्य के जीवन में कभी नहीं थी। वह आज है! लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि हम निराश हो जाएं। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं निराश हूं। इसका केवल एक ही अर्थ है, जो लोग अंधकारमय हो सके हैं, वे अपने हाथ से अंधकार में हैं, अपने संकल्प से, अपने ही कारण से। और अगर चाहेंगे, तो वे प्रकाशमय हो सकते हैं। जो लोग अंधकार में खड़े हैं, उस अंधकार में खड़े होने का कोई दूसरा व्यक्ति कारण नहीं है, हम स्वयं कारण हैं। हम अपने हाथ से अंधेरे में खड़े हैं। और जब हमारा संकल्प हो, जब हममें आकांक्षा पैदा हो, अभीप्सा पैदा हो, हम प्रकाश में प्रविष्ट हो सकते हैं।
एक बात स्मरण रखें, अंधकार का पता केवल उसे चलता है जिसके पास आंख होे। अंधकार का पता केवल उसे चलता है जिसके पास आंख हो। अंधे आदमी को अंधकार का पता नहीं चलता।
शायद आपने कभी सोचा हो, जिनको आंखें नहीं होतीं, उनको अंधकार अंधकार मालूम होता होगा, तो आप गलती में हैं। अपनी धारणा बदल लें। अंधकार अंधे को पता नहीं चलता। अंधे को भी अंधकार का पता नहीं चल सकता, क्योंकि आंख चाहिए। अंधकार देखने को भी आंख चाहिए। प्रकाश देखने को ही आंख की जरूरत नहीं होती है, अंधकार देखने को भी आंख की जरूरत होती है।
जिसके पास आंख नहीं है, उसे प्रकाश तो नहीं ही दिखता, अंधकार भी नहीं दिखता। अगर हमें अंधकार दिखाई पड़ रहा हो, तो अंधकार का होना तो बुरा है, लेकिन अंधकार का दिखाई पड़ना आंख होने की सूचना है। अंधकार का होना, अंधकार का बोध होना आंख होने की सूचना है। और जो आंख अंधकार देख सकती है वह आंख प्रकाश देखने में समर्थ है।
तो अंधकार निराशा का कारण नहीं है, अंधकार आशा की किरण अपने भीतर लिए हुए है। वह आशा की किरण कैसे पैदा हो सकती है? और वह आंख जो अंधकार को देखते-देखते अंधकार में ही लीन हो गई है, जो अंधकार को देखते-देखते अंधकार में ही समाविष्ट हो गई है, अंधकार में ही सन्निविष्ट हो गई है--वह आंख कैसे प्रकाश के प्रति उन्मुख हो सकती है, उस संबंध में कुछ आपको कहूं।
सबसे पहली बात, जो आपसे मेरा कहने का मन है, वह यह है कि जैसे हम पैदा होते हैं, जैसा प्रकृति हमें पैदा करती है, अगर हम उस सीमा पर ही रुक जाएंगे, तो हम परमात्मा को अनुभव नहीं कर सकेंगे। प्रकृति जैसा हमें पैदा करती है, वह केवल एक संभावना है। उस संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए हमें कुछ करना होगा। प्रकृति और मनुष्य का पुरुषार्थ जब मिलता है, तो मनुष्य के भीतर अलौकिक का जन्म होता है। और जब केवल प्रकृति पर मनुष्य तृप्त हो जाता है, तो मनुष्य के भीतर अलौकिक का जन्म नहीं होता। प्रकृति और मनुष्य का पुरुषार्थ जब मिलता है, प्रकृति पर जब पुरुषार्थ सक्रिय होता है, तो मनुष्य के भीतर अलौकिक का जन्म होता है।
इसे स्मरण रखें, जो प्रकृति पर तृप्त है, वह मृत है। जो प्रकृति पर तृप्त है, उसने जीवन को नहीं जाना। जो प्रकृति पर तृप्त है, वह पशु के तल पर समाप्त हो जाएगा। लेकिन जो प्रकृति पर पुरुषार्थ का प्रयोग करेगा, जो अपनी सामथ्र्य को और शक्ति को प्रकृति के साथ संलग्न करेगा और प्रयोग करेगा, वह एक दिन पाएगा कि प्रकृति और पुरुषार्थ के सम्मिलन से अलौकिक का जन्म होता है।
प्रकृति पर पुरुषार्थ की साधना से अलौकिक का जन्म होता है। और मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता, कुछ और हो जाता है। आनंद के किसी नये लोक में समाविष्ट हो जाता है। किसी बहुत गहरे संगीत को उत्पन्न कर पाता है और किसी बहुत गहरे सत्य को जान पाता है। और उस सत्य का जानना मनुष्य को मुक्त करता है। उस सत्य को जानना मनुष्य को मुक्त करता है स्वतंत्रता के एक बहुत अदभुत लोक में और आनंद के एक बहुत अदभुत लोक में प्रतिष्ठित करता है।
प्रकृति है हमारे भीतर कुछ, हमारे भीतर पुरुषार्थ भी होना चाहिए। सामान्यतया हमारा पुरुषार्थ बहुत क्षुद्र बातों को पाने में व्यतीत हो जाता है। सामान्यतया हमारा पुरुषार्थ अत्यंत क्षुद्र बातों को साधने में समाप्त हो जाता है। और हम विराट को और श्रेष्ठ को नहीं साध पाते हैं। हम जरूर कुछ न कुछ साध रहे हैं। हमारा पुरुषार्थ जरूर कहीं न कहीं संलग्न है।
कोई धन को साधता होगा, कोई यश को साधता होगा, कोई पद को, प्रतिष्ठा को साधता होगा, कोई कुछ और साधता होगा। लेकिन ये सारी साधनाएं ऐसी हैं जैसे कोई जीवन भर रेत पर महल बनाए। या कोई जीवन भर नदी के किनारे हस्ताक्षर करे रेत पर और सांझ को आंधियां आएं और हस्ताक्षरों को मिटा दें। सांझ को आंधियां आएं और हस्ताक्षरों को मिटा दें। ऐसा ही हमारा यह पुरुषार्थ है जो हम रेत पर कर रहे हैं। मृत्यु आएगी और सब पोंछ देगी। हमारा किया हुआ सब न किया हो जाएगा।
क्षुद्र वह पुरुषार्थ है जिसे मृत्यु नष्ट कर देती है। विराट वह पुरुषार्थ है जिसे मृत्यु नष्ट नहीं कर पाती। क्षुद्र वह पुरुषार्थ है जिसे मृत्यु पोंछ देगी। विराट वह पुरुषार्थ है जिसे मृत्यु नहीं पोंछ पाती है। और ठीक अर्थों में पुरुष वे हैं, ठीक अर्थों में पुरुष वे हैं, और ठीक अर्थों में उन लोगों ने अपने पुरुष का अपने भीतर की शक्ति का उपयोग किया है, जिन्होंने कुछ ऐसे हस्ताक्षर किए हैं जिन्हें मृत्यु नहीं पोंछ पाती, जिन्हें मृत्यु नहीं मिटा पाती है। जिन्होंने कुछ ऐसे भवन निर्मित किए...कौन सा भवन है, कौन सा निर्माण है, कौन सा सृजन है जो मृत्यु नहीं पोंछ पाएगी, उस पर अपने पुरुषार्थ को संलग्न करना है।
दो तरह के पुरुषार्थ मैंने कहे। एक क्षुद्र पुरुषार्थ है, जो आजीविका के लिए होता है या यश के लिए होता है या प्रतिष्ठा के लिए होता है या धन के लिए होता है। एक और पुरुषार्थ है, जो आजीविका के लिए नहीं होता, जो जीवन के लिए होता है। और जो यश के लिए नहीं होता, धन के लिए नहीं होता; जो सत्य के लिए होता है, जो स्वयं की परम सत्ता के लिए होता है, जो स्वरूप के लिए होता है।
सबसे पहले अपने पुरुषार्थ को उस बिंदु पर केंद्रित करने की जरूरत है जो मैं हूं, जो मेरी सत्ता है। और सबसे पहले मेरी सारी शक्तियों को, सारे संकल्प को, सारी आकांक्षाओं को, मेरी सारी कामनाओं को, मेरी सारी अभीप्साओं को उस एक बिंदु पर एकाग्र करने की जरूरत है जो मेरी सत्ता है।
मैं अगर उस रहस्य के द्वार को खोल लूं। अगर मैं जान सकूं कि मैं कौन हूं? अगर मैं परिचित हो सकूं कि मेरा होना क्या है? अगर मैं जान लूं कि मेरी इस देह के भीतर जीवन की कौन सी ज्योति कैद है और बंद है? अगर मैं इस मिट्टी के घेरे के भीतर परम ज्योति को अनुभव कर लूं--तो ही मैंने विराट पुरुषार्थ की तरफ कदम उठाए, तो ही मैंने सत्य की तरफ कदम उठाए, तो ही मैंने अपनी शक्ति का उपयोग किया है, और अपव्यय नहीं किया है।
मनुष्य के भीतर अनंत संगीत की संभावना है। अगर पुरुषार्थ उसकी प्रकृति पर संलग्न हो। हम अपने भीतर देखें, तो हमें दिखाई पड़ेगा। हम करीब-करीब जैसे पैदा होते हैं वैसे ही मर जाते हैं। हम दौड़ते बहुत हैं, हम चेष्टाएं बहुत करते हैं, हम श्रम बहुत करते हैं, लेकिन सारा श्रम निरर्थक हो जाता है। हम किसी एक ऐसे माध्यम पर श्रम कर रहे हैं, हम किसी एक ऐसे माध्यम पर श्रम कर रहे हैं जो कि स्वयं नश्वर है। जो नश्वर पर श्रम कर रहा है, उसका सारा श्रम निरर्थक हो जाएगा। जो अविनश्वर पर श्रम करता है, उसका श्रम ही सार्थक हो पाता है।
श्रम हम सब करते हैं, लेकिन माध्यम गलत चुन ले सकते हैं। कोई ऐसा माध्यम चुन ले सकता है जो, जो स्वयं माध्यम ही नश्वर हो। जो माध्यम ही क्षणिक हो। जो माध्यम ही मरणधर्मा हो। जो मरणधर्मा पर श्रम करेगा, उसका श्रम अगर निरर्थक हो जाए तो इसमें आश्चर्य क्या है।
अमृत पर श्रम करना, अमृत पर ही श्रम सार्थक होता है।
तो अपने भीतर यह स्मरणपूर्वक, विवेकपूर्वक देखने की जरूरत है कि क्या मरणधर्मा है और अपने भीतर क्या है जो अमृत है? उसके भीतर विवेक, उसके भीतर डिस्क्रिमिनेशन, उसके भीतर फासला, उसके भीतर भेद--यही एक व्यक्ति को सामान्य संसारी से साधक के जीवन में परिणति देता है--जो अपने भीतर मरणधर्मा को पहचान ले, और जो अपने भीतर उसे पहचान ले जो कि मरता नहीं है। और जो नहीं मरता उस पर श्रम संयुक्त हो जाए उसका, तो व्यक्ति साधक हो जाता है। और जो मरता है, मरणधर्मा है, उस पर जो अपने श्रम को लगाए, तो व्यक्ति संसारी हो जाता है।
संसार और संन्यास में स्थानों का भेद नहीं है। घर और जंगल का भेद नहीं है। संसार में और संन्यास में कुछ छोड़ कर भागने और कहीं पहुंच जाने का प्रश्न नहीं है। संन्यास और संसार में अपने भीतर मरणधर्मा को और अपने भीतर अमृत को पहचान लेने का प्रश्न है। संन्यास और संसार कोई क्रिया नहीं है, संन्यास और संसार ज्ञान है। संन्यास और संसार का भेद किसी क्रिया का भेद नहीं है।
संन्यास और संसार का भेद किसी ज्ञान का, किसी बोध का, किसी अवेयरनेस का भेद है। इस बात का बोध कि मेरे भीतर कुछ मरणधर्मा है, उस मरणधर्मा से मैं अपने को असंलग्न करता हूं। इस बात का बोध कि मेरे भीतर जो मरणधर्मा है, मैं अपने श्रम को उस मरणधर्मा के प्रति समर्पित होने से इनकार करता हूं और उस तरफ समर्पित करता हूं जो अमृत है। अमृत पर समर्पित होकर श्रम भी अमृत हो जाता है। और अमृत पर संयुक्त होकर पुरुषार्थ मुक्ति में परिणित हो जाता है।
अपने भीतर यह विवेक कैसे संभव हो सके, और अपने भीतर यह बोध कैसे संभव हो सके, और अपने भीतर इस अखंड चैतन्य का अनुभव कैसे हो सके--दो रास्ते हैं। ऐसा लोग कहते हैं कि दो रास्ते हैं। मुझे तो एक ही रास्ता दिखाई पड़ता है। लोग कहते हैं, दो रास्ते हैं। और दुनिया के सारे संप्रदाय और दुनिया के सारे विचारशील लोग उन दो रास्तों की बात करते हैं। एक रास्ता लोग कहते हैंः ज्ञान का है। एक रास्ता लोग कहते हैंः प्रेम का है या भक्ति का है।
मेरे देखने में रास्ता एक ही है, दो नहीं हैं। और मेरे देखने में ज्ञान अधूरा है अगर उसमें प्रेम न हो। और पे्रम अधूरा है अगर उसमें ज्ञान न हो। ज्ञान अकेला हो, तो अधूरा है, सूखा है और शुष्क है, रसहीन है। और प्रेम अकेला हो, तो अंधा है, चक्षु-विहीन है, प्रकाश-शून्य है। अंधा प्रेम अधूरा है। रसहीन ज्ञान अधूरा है। ज्ञान और प्रेम जब संयुक्त होते हैं तो व्यक्ति के भीतर अमृत के स्वर बजने शुरू होते हैं। मेरे देखने में ज्ञान और प्र्रेम साथ ही साधने होते हैं, तब व्यक्ति के भीतर अमृत का अनुभव शुरू होता है। तो उन दोनों की साधना के बाबत थोड़ी सी बात आपसे कहूं।
सबसे पहले तो ज्ञान अनिवार्य है। इसके पूर्व कि हम अमृत को, आत्मा को या परमात्मा को पा सकें, ज्ञान अनिवार्य है। ज्ञान का अर्थ, ज्ञान का अर्थ यह नहीं है कि हम बहुत सी बातें जान लें। एक आदमी बहुत सी बातें जान कर बिलकुल अज्ञानी हो सकता है। बहुत सी बातें जानना अलग बात है। स्मृति और ज्ञान में भेद है। मेमोरी और नाॅलेज में भेद है। बहुत सी बातें जानना स्मृति है। और उस परम सत्य को जो मेरे भीतर है, उसे जानना ज्ञान है। हमारी जितनी शिक्षा है, स्मृति की शिक्षा है, ज्ञान की शिक्षा नहीं है। बहुत समय हुआ ज्ञान की शिक्षा बंद हो गई। बहुत समय से हम केवल स्मृति में प्रशिक्षित होते हैं। सब मेमोरी की ट्रेनिंग होती है। पूरे जीवन हमें स्मृति सिखाई जाती है, कुछ बातें सिखाई जाती हैं, वह हम याद कर लेते हैं। जिन बातों को हम याद कर लेते हैं और दोहराने में समर्थ हो जाते हैं, हमें यह भ्रम होता है कि हम उन्हें जानते हैं।
अगर हम आपसे पूछें ईश्वर के बाबत कुछ, जरूर आप कुछ कहेंगे। अगर हम पूछें, आत्मा के बाबत, जरूर आप कुछ कहेंगे। अगर हम पूछें किसी और मोक्ष के संबंध में, जरूर आप कुछ कहेंगे। वह आपका जानना नहीं है, वह आपकी स्मृति है। आपने सुना है, आपने पढ़ा है, आपको किसी ने कहा है, लेकिन आपने जाना नहीं है।
स्मृति एक बात है और ज्ञान बिलकुल दूसरी बात है। जो अमृत को साधना चाहता है, उसे ज्ञान को उपलब्ध होना पड़ेगा। और जो जड़ को साधना चाहता है, उसके लिए स्मृति काफी है। साइंस के लिए स्मृति काफी है। धर्म के लिए ज्ञान जरूरी है। साइंस स्मृति से जीती है और चलती है। धर्म ज्ञान से चलता है।
इसलिए यह हो सकता है कि पीछे तीन सौ वर्षों में जितने वैज्ञानिक हुए हैं, आज का वैज्ञानिक उनको पढ़ ले और उनके संबंध में सब कुछ जान ले। यह आसान है। इसलिए साइंस में एक परंपरा होती है, एक ट्रेडीशन होती है। न्यूटन हुआ तो पीछे आइंस्टीन होगा। तो आइंस्टीन वहां से काम शुरू करेगा जहां न्यूटन ने छोड़ा। जहां न्यूटन का काम समाप्त होता है वहां आइंस्टीन का काम शुरू होगा। आइंस्टीन के बाद दूसरा वैज्ञानिक आएगा। वह वहां से काम शुरू करेगा जहां से आइंस्टीन ने छोड़ा।
लेकिन धर्म में ऐसा नहीं होता। महावीर ने जहां काम छोड़ा वहां से आप शुरू नहीं कर सकते हैं। आपको वहीं से शुरू करना होगा, जहां महावीर ने शुरू किया। जब भी जमीन पर कोई आदमी धर्म के सत्य को उपलब्ध होगा, उसे वहीं से काम शुरू करना होगा जहां किसी ने शुरू किया। उनके आगे शुरू नहीं कर सकता।
धर्म में ट्रेडीशन नहीं होती, धर्म में परंपरा नहीं होती। धर्म-व्यक्ति सत्य है और विज्ञान-समाज सत्य है। समाज सत्य वही हो सकता है जो स्मृति से चलता हो। धर्म-समाज सत्य नहीं हो सकता, क्योंकि वह ज्ञान से चलता है।
स्मरण रखें, स्मृति दूसरों का ज्ञान होती है, और ज्ञान अपना ही ज्ञान होता है। तो विज्ञान स्मृति है और धर्म ज्ञान है। स्मृति से काम नहीं चलेगा।
मैं देखता हूं, बहुत से आश्रमों में गया, बहुत से साधुओं के वहां गया। वे सब ग्रंथ याद करवाते हैं। वे सब ग्रंथों की पाठशालाएं चलाते हैं। उनके पास जो लोग इकट्ठे होते हैं, वे बिलकुल शास्त्रों को रट कर बिलकुल तोते हो जाते हैं। वे उनको दोहराने लगते हैं। वे उनको कहने लगते हैं। उनसे कुछ भी पूछिए, हर चीज का उत्तर तैयार है। जिनके पास एक भी उत्तर नहीं है, वे दूसरों के सब उत्तर इकट्ठे कर लेंगे और देना शुरू कर देंगे।
उससे अहंकार तो तृप्त होता है, लेकिन कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता।
तो मैं पहली बात आपको कहूूं, ज्ञान स्मृति नहीं है। इसलिए किसी को याद कर लें, किन्हीं ग्रंथों को, किन्हीं आगमों को रट लें, किन्हीं वेदों को, किन्हीं उपनिषदों को, गीता, कुरानों को याद कर लें, पूरा कंठस्थ कर लें, तो भी कोई मतलब नहीं है। वे केवल आपके बोझ हो जाएंगे, वे आपकी मुक्ति नहीं बन सकते हैं। और आप ऐसे लोगों की तरह होंगे, जो नावों को सिर पर लिए गांवों में घूमते हों, लेकिन जिन्होंने नाव पर कभी यात्रा नहीं की है।
नावों को सिर पर नहीं रखना होता, नाव में यात्रा करनी होती है। शास्त्रों को सिर पर नहीं ढोना होता, उनको चरण बनाना होता है। शास्त्रों को सिर पर नहीं ढोना होता, शास्त्रों को चरण बनाना होता है। जब वे चरण बनते हैं तब आप उनसे चलते हैं। और जब आप उनको सिर पर रख कर नमस्कार करते हैं तो आप उनसे नहीं चलते, वे आपसे चलते हैं। शास्त्र जब स्मृति बन जाती है तो व्यर्थ हो जाता है। और शास्त्र-ज्ञान सिवाय स्मृति के क्या हो सकता है?
तो मैं आपको स्मृति के लिए नहीं कह रहा हूं। मैं आपको ज्ञान के लिए कह रहा हूं। और ज्ञान का जन्म बड़े विभिन्न ढंग से होता है। स्मृति संगृहीत की जाती है, ज्ञान का जन्म होता है। स्मृति इकट्ठी की जाती है, ज्ञान का अविर्भाव होता है। स्मृति बाहर से लाई जाती है, ज्ञान भीतर से आता है।
जो जितना स्मृति को शून्य करेगा, उतना ज्ञान को उपलब्ध होगा। जो जितनी स्मृति को खाली कर देगा, उतना उसके भीतर ज्ञान का जागरण होगा। जैसे कोई कुआं खोदे, तो हम साधारणतया कहते हैं, हमने कुआं खोदा और पानी निकाला। लेकिन क्या कभी आपने खयाल किया, खोद कर कहीं पानी निकलता है? खोदने से कैसे पानी निकलेगा? खोदने से केवल मिट्टी दूर होती है। पानी तो मौजूद होता है, मिट्टी दूर हो जाती है तो दिखने लगता है। खोदने से पानी नहीं निकलता, खोदने से केवल मिट्टी दूर होती है। और अगर पानी न हो, तो लाख खोदिए, पानी नहीं निकलेगा।
इसलिए कभी भूल कर मत किसी से कहिएः हमने खोदा और पानी निकाल लिया। खोदने से पानी नहीं निकलता, खोदने से मिट्टी दूर होती है। और अगर पानी हो, तो पानी के दर्शन हो जाते हैं। ज्ञान खोदना पड़ता है? ज्ञान मौजूद है, केवल मिट्टी की पर्तें जो उसके ऊपर हैं, उनको अलग करनी होती हैं। वे मिट्टी की पर्तें हमारी स्मृति की पर्तें हैं।
अनंत जन्मों में हमने बहुत सी स्मृति इकट्ठी की है। स्मृति की पर्त की पर्त इकट्ठी होती चली गई है और ज्ञान स्मृति के दबाव में अशुद्ध होता चला गया है। स्मृति की बहुत गहरी पर्तों के कारण, स्मृति और संस्कारों की बहुत गहरी पर्तों के कारण, ज्ञान का प्रकाश बाहर आना बंद हो गया है। अगर स्मृति की सारी पर्तें तोड़ दी जाएं, तो ज्ञान उत्पन्न हो जाएगा। उत्पन्न क्या हो जाएगा, ज्ञान का दर्शन हो जाएगा। ज्ञान मौजूद है। ज्ञान हमारा स्वरूप है, उसे कहीं से लाना नहीं हैै। बल्कि कुछ और हमारे और उसके बीच में आ गया है, इसलिए अवरोध हो गया है।
तो ज्ञान को लाने का रास्ता बिलकुल एक अर्थ में नकारात्मक है। जैसे पानी को कुएं से खोदने का रास्ता नकारात्मक है। नकारात्मक इस अर्थ में कि मिट्टी आप अलग करते हैं, पानी को तो कुछ भी नहीं करते। जब आप कुआं खोदते हैं, पानी को तो कुछ भी नहीं करते। करते मिट्टी को कुछ हैं। मिट्टी अलग करते हैं, पानी आता है। वैसे ही ज्ञान का रास्ता एक अर्थ में नकारात्मक है।
ज्ञान को लाने के लिए तो कुछ भी नहीं करते, केवल स्मृति को, संस्कारों को, बोझ को जो चित्त पर है, उसे अलग करते हैं। जब चित्त निर्बोझ हो जाता है, जब चित्त बिलकुल ही अनकंडीशंड हो जाता है, जब कोई संस्कार और कोई बाहर से आए हुए प्रभाव नहीं रह जाते और चित्त शून्य हो जाता है, तो जैसे किसी ने दर्पण पर धूल पोंछ दी हो। तो धूल तो पोंछी जाती है, दर्पण तो वैसे ही का वैसा है। जब धूल थी तब भी वैसा था, जब धूल नहीं है तब भी वैसा है। शायद दर्पण में कोई भी फर्क नहीं पड़ा, धूल ऊपर थी और ऊपर से अलग हो गई है। दर्पण जैसा था वैसा ही है। लेकिन धूल अलग होने से दर्पण स्पष्ट हो जाता है और तब दर्पण स्वच्छ हो जाता है। और दर्पण में प्रतिबिंब बनने संभव हो जाते हैं।
ज्ञान स्मृति की धूल पोंछने से उत्पन्न होता है।
तो जो ज्ञान की साधना में संलग्न हैं, उन्हें शास्त्रों को स्मरण नहीं करना है। जो ज्ञान की साधना में संलग्न हैं, उन्हें जितने शास्त्र भीतर इकट्ठे हो गए हैं, उन सबको पोंछ कर साफ कर देना है। जो ज्ञान की साधना में संलग्न हैं, उन्हें सारी स्मृति से शून्य हो जाना है, ताकि सारी मिट्टी की पर्तें अलग हो जाएं और ज्ञान का आविर्भाव हो जाए।
स्मृति दो रूपों में हमें परेशान करती है। और दो रूपों में हमें बांधती है। साधारणतया अतीत हमारा पूरा हमें स्मृति में घूमता रहता है।
अभी आप यहां बैठे हैं, लेकिन बहुत कम होंगे जो यहां बैठे हैं। बहुत होंगे जो कहीं पीछे किसी अतीत में होंगे। बहुत होंगे जो भविष्य में कहीं होंगे। साधारणतया हम वर्तमान में होते ही नहीं। या तो हमारा चित्त अतीत में होता है या भविष्य में होता है। अतीत की स्मृतियों में होता है या भविष्य की कल्पनाओं में होता है। और भविष्य की कल्पनाएं भी अतीत की स्मृतियों की संतान होती हैं। भविष्य की कल्पनाएं अतीत की स्मृतियों की संतान होती हैं। तो या तो हम अतीत की स्मृतियों में होते हैं या अतीत की स्मृतियों की संतान भविष्य में होते हैं।
अतीत भी मृत है और भविष्य भी जीवित नहीं है। अतीत जा चुका है, भविष्य आया नहीं है। तो हम प्रेतों की तरह हैं, हमारा चित्त प्रेतों की तरह है। हम अतीत में होते हैं या भविष्य में होते हैं--और वर्तमान में नहीं होते। स्मृति और कल्पना हमें घेरे रहती है, और उनके बोझ के कारण ज्ञान का जन्म नहीं हो पाता। जब स्मृति और कल्पना शून्य होती है, तो ज्ञान का जन्म होता है। तो साधना स्मृति को और कल्पना को...और कल्पना स्मृति का ही रूपांतर है, वह स्मृति का ही कल्पित रूप है। स्मृति को और कल्पना के टेंशन को, स्मृति के और कल्पना के तनाव को छोड़ने से व्यक्ति के भीतर आविर्भाव होता है, आविर्भाव होता है ज्ञान का।
तो स्मरण करना है, जिसे ज्ञान को साधना है उसे स्मरण करना है कि वह अतीत की स्मृतियों से मुक्त हो। जब अतीत की स्मृतियां पीछा करें, तो उन्हें नमस्कार करें। और उन्हें कहें कि वह पीछा न करें। और जब अतीत की स्मृतियां आपके साथ हों, तब स्मरणपूर्वक अपने को उनसे अनासक्त करें। विवेकपूर्वक अपने को उनसे मुक्त करें। और विवेकपूर्वक यह ध्यान रखें कि उनकी मूच्र्छा में आप संलग्न तो नहीं हो जाते? अगर सतत इस बात का प्रयास हो, अगर सतत इस बात का संकल्प हो, अगर एकाग्रता से, अगर संलग्नता से इस बात की चेष्टा हो कि मैं अतीत की स्मृतियों में अपने को खोऊंगा नहीं, मैं अपने विवेक को अतीत की स्मृतियों में न दबने दूूंगा, जो अतीत गया, वह गया। जो मर गया, वह मर गया। उसे मैं वापस अपने साथ खींचे हुए नहीं चलूंगा। तो आप धीरे-धीरे पाएंगे, अतीत की स्मृतियों की राख विलीन हो जाएगी। आप अतीत से मुक्त हो सकेंगे।
और जो अतीत से मुक्त नहीं है, वह कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो सकता। अतीत की स्मृतियों को छोड़ने की साधना करनी होती है। जिस स्थान से उठ गए, वहां से उठ जाएं। और जो बात हो गई, उसे हो ही जाने दें, अब वह चित्त में दुबारा न लौटे। अब उसके दुबारा आगमन को द्वार न दें।
हम तो मृत को घसीटते रहते हैं। जो मुर्दे हैं उनको इकट्ठे किए रहते हैं। हमारा मस्तिष्क मुर्दों से और लाशों से भरा रहता है। कल किसी ने गाली दी थी, वह आज भी हमारा पीछा करती है। परसों किसी ने सम्मान किया था, वह आज भी हमारा पीछा करता है। नरसों किसी ने गले में मालाएं पहनाई थीं, वे मालाएं सूख गईं और मुरझा गईं, लेकिन चित्त उनको अब भी पहने हुए है। अतीत हम पर भार बनता जाता है। वर्तमान का छोटा सा क्षण, छोटी सी चिंगारी अतीत की राख में दब जाती है और खो जाती है।
अतीत की राख को झाड़ देना जरूरी है। जैसे कोई अंगारे पर से राख को झाड़ देता है, वैसे ही चित्त पर से अतीत को झाड़ देना जरूरी है। जो मर गया, वह मर गया। अतीत का अर्थ हैः जो नहीं हो गया, उसे न हो जाने दें। उसे रोकें न। वस्तुतः तो वह मर जाता है। जगत में तो मर जाता है, लेकिन चित्त में बना रहता है। और यही वजह है कि चित्त का संबंध जगत के संगीत से टूट जाता है। जगत में अतीत जिंदा नहीं होता, प्रतिक्षण जगत नया होता चला जाता है। लेकिन मन, मन नया नहीं होता, मन पुराना बना रहता है।
जगत और मन के बीच जो विरोध है, जगत के संगीत से जो मन का स्वर नहीं मिल पाता, उसका कुल एक कारण है। जगत तो प्रतिक्षण नया है और मन प्रतिक्षण पुराना। मन इसलिए कभी भी जगत के संगीत में एकसार नहीं हो पाता। यह जो विराट सत्य चारों तरफ व्याप्त है, ये चांद-तारे, और फूल, और ये लहरें, और हवाएं--इनके साथ मन एक नहीं हो पाता। इनके साथ जब मन एक होता है तो जो समस्वरता पैदा होती है उसी से व्यक्ति परमात्मा से, परम सत्य से संबंधित होता है।
एक साधु के पास एक युवक गया था। एक पहाड़ी झरने के करीब उस साधु का आश्रम था। उस युवक ने बहुत आश्रमों में पर्यटन किया था, बहुत यात्राएं की थीं, बहुत तीर्थों में गया था। आखिर वह उस साधु के पास गया और उसने कहाः मैं थक गया हूं। मैं बहुत हैरान और परेशान हो गया हूं। मुझे कोई रास्ता नहीं मिलता, मैं क्या करूं कि परमात्मा में प्रवेश हो जाए? उस साधु ने कहाः सच ही तुम प्रवेश करना चाहते हो? सच ही क्या तुम परमात्मा में प्रवेश करना चाहते हो? तो हमारे निकट ही द्वार है, हमारे आश्रम के पीछे ही द्वार है। वह युवक बहुत हैरान हुआ।
वह जमीन के बहुत हिस्सों में घूम आया था, कोई इतना पागल आदमी नहीं मिला था। एक से एक पागल साधु मिले थे, इतना पागल आदमी कोई नहीं मिला था जिसने कहा हो अपने आश्रम के पीछे ही दरवाजा है जहां से भगवान में जाया जा सकता है। उसे विश्वास नहीं पड़ा, उसने समझा कि और, उसने समझा किसी पागल से मिलना हो गया है।
लेकिन वह साधु बड़े विश्वास से कह रहा था। वह कह रहा था, आओ मेरे साथ, पीछे से दरवाजा है, वहां से निकल जाओ। वह अविश्वास से भरा हुआ युवक उसके पीछे गया, वहां तो कोई दरवाजा नहीं था। वहां एक पहाड़ी झरना था। उस साधु ने कहाः यह दरवाजा है, इसमें से प्रवेश कर जाओ।
वह युवक बोलाः आप पागल हैं, यह पहाड़ी झरना है, इसमें दरवाजा कहां है? और मैं प्रवेश कैसे कर जाऊं? उस साधु ने कहाः इस झरने के पास बैठ जाओ और जब झरने के साथ तुम्हारी आत्मलीनता हो जाए तो समझना भगवान में प्रवेश हो रहा है। उस साधु ने कहाः जब झरने में और तुम में फासला न रह जाए और तुम्हें समझ न पड़े कि तुम झरना हो कि झरने से अलग हो। और जब तुम्हें बोध न रहे यह कि झरने को तुम देख रहे हो।...
तो ज्ञान की साधना अतीत का विसर्जन है। अतीत को मर जाने दें स्मरणपूर्वक, विवेकपूर्वक, मनःपूर्वक। इस बात को देखते रहें, इस बात के प्रति सजग हों कि अतीत तो नहीं पकड़ता है? अतीत मेरे ऊपर बोझ तो नहीं बनता है?
एक साधु को एक व्यक्ति एक दिन सुबह आया और कुछ गालियां दे गया। इतने गुस्से में भी आ गया कि उसने उस साधु के मुंह पर थूक दिया। उस साधु ने अपने कपड़े से थूक को पोंछ लिया और उस युवक को कहाः और कुछ कहना है? युवक हैरान हुआ। उसने कहाः आप क्या सोचते हैं, मैंने कुछ कहा है? उस साधु के शिष्य भी बहुत क्रुद्ध हुए, और उन्होंने कहाः आप यह क्या कर रहे हैं? इसने थूका, आपका अपमान किया। उस साधु ने कहाः इसने थूका है, ऐसा मैं नहीं देखता, इसने कुछ कहा। यह इतने क्रोध में है कि शब्द नहीं कह सकते थे, तो थूक कर कहा। शब्द कहने में असमर्थ थे, तो इसने थूक कर जाहिर किया। जो यह नहीं कह सकता था, उसके लिए कोई क्रिया थी, उसके लिए कोई इशारा किया। इसलिए मैं इससे पूछता हूं, और कुछ कहना है? और वह युवक और क्या कहता? वह आया था वैसे ही चला गया। लेकिन रात्रि उसे पश्चात्ताप हुआ। रात्रि उसे दुख हुआ कि उसने भूल की है, और एक ऐसे व्यक्ति के ऊपर उसने अपमानजनक व्यवहार किया है जिसने उसके थूकने को भी बातचीत समझा।
वह दूसरे दिन सुबह क्षमा मांगने गया। उसने साधु से कहाः मुझे क्षमा करें, मैं कल आपके ऊपर, आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार कर गया हूं। वह साधु बोलाः उसके लिए क्षमा? हम उसके लिए क्रुद्ध ही नहीं हुए। और मैं तुमसे कहता हूं कि तुमने मेरे ऊपर थूका, यह उतनी बुरी बात नहीं है, जितना तुम चैबीस घंटे फिर उस पर विचार करते रहे हो। उस साधु ने कहाः तुमने मेरे ऊपर थूका यह बहुत बुरी बात नहीं है, क्योंकि मैंने उसको तभी पोंछ दिया। हमने देर नहीं की। तुमने तो थूका, हमने पोंछ दिया। उस साधु ने कहाः हमने देर नहीं की। तुमने थूका, हमने पोंछ दिया। क्योंकि जो काम करना है, तत्काल ही कर लेना चाहिए। लेकिन फिर चैबीस घंटे तुम उसे सोचते रहे, यह दुख की बात है। हमने पोंछा था, तुम भी पोंछ देते। तुमने थूका था, हमने पोंछ दिया। थूका हुआ हमने पोंछ दिया, तुम भी यह खयाल पोंछ देते कि थूका है।
उस युवक को शायद ही समझ में आया होगा। शायद ही खयाल में पड़ी होगी, वह साधु क्या कहता है। लेकिन साधु ने बड़ी गहरी और बड़ी महत्व की बात कही। काश हम पोंछ सकें, काश हम पोंछ सकें जो हो गया है, तो हमारा उससे संबंध होगा--जो है। जो व्यतीत हो गया है अगर हम उसे पोंछ सकें, तो उससे हमारा संबंध होगा जो वर्तमान है। और सत्य केवल वर्तमान में है। सत्य अतीत में नहीं है। और सत्य भविष्य में नहीं है। सत्य वर्तमान में है।
सत्य का अर्थ हैः जो सदा है और कभी नहीं नहीं होगा। अतीत तो नहीं हो जाता है। भविष्य अभी आया नहीं है। इसलिए सत्य न तो भविष्य में हो सकता है और न अतीत में हो सकता है। सत्य तो सदा है। इस अर्थ में सत्य को हम सनातन कहते हैं। सनातन का अर्थ है कि न वह कभी अतीत होता है, न वह कभी भविष्य होता है, वह नित्य वर्तमान है। वह इटर्नल है, वह शाश्वत है, सनातन है।
तो सत्य के शाश्वत और सनातन में जिसको प्रवेश करना है, उसे मन के इन काल्पनिक अतीत के घेरों को और भविष्य के घेरों को छोड़ देना होगा। जो अतीत को छोड़ेगा, वह हैरान होगा। भविष्य अपने आप उसी अनुपात में छूटता चला जाता है। जिस अनुपात में अतीत का बोझ कम होता है, उसी अनुपात में भविष्य अपने आप छूटता चला जाता है।
अतीत शून्य हो जाए, भविष्य शून्य हो जाता है और वर्तमान पूर्ण हो जाता है। उस घड़ी जब चित्त अतीत और भविष्य की राख से मुक्त होता है, मिट्टी की पर्तें दूर होती हैं, जलस्रोतों का जन्म होता है। उस वक्त ज्ञान का अवतरण होता है, या ज्ञान का उध्र्वगमन होता है, उस वक्त ज्ञान का बोध होता है। उस ज्ञान को पाए बिना कोई व्यक्ति पूरे अर्थों में मनुष्य नहीं है। उस ज्ञान को पाए बिना कोई व्यक्ति पूरे अर्थों में जीवित नहीं है।
तो ज्ञान को तो नकारात्मक रूप से साधना होता है। ज्ञान को जो पाने का रास्ता है, वह निगेटिव है। निगेटिव इस अर्थों में कि कुछ हटाना पड़ता है और ज्ञान पैदा हो जाता है। जैसे मैंने कहा, दर्पण से धूल हटानी होती है और दर्पण स्वच्छ हो जाता है। लेकिन ज्ञान, मैंने कहा, अधूरा है, अकेला ज्ञान अधूरा है।
एक और बात भी साधनी होती है और वह प्रेम है। और प्रेम की साधना पाॅजिटिव होती है, विधायक होती है। ज्ञान की साधना नकारात्मक होती है और प्रेम की साधना विधायक होती है, पाजिटिव होती है।
ज्ञान ऐसे साधना होता है जैसे दर्पण से कोई धूल हटाए। और प्रेम ऐसे साधना होता है जैसे बीज में से अंकुर फूटे। हमने एक बीज डाल दिया मिट्टी में, अगर मिट्टी को हटा देंगे, तो बीज निकल आएगा, पौधा नहीं बन पाएगा। मिट्टी नहीं हटानी पड़ेगी, बल्कि बीज को, अपनी शक्ति को, अपनी ऊर्जा को अंकुर के रूप में प्रकट करना होगा। बीज अंकुर के रूप में फूटेगा और मिट्टी के ऊपर आएगा और फिर फूल बनेगा। तो बीज को, अपनी ऊर्जा को फेंकना होगा, तब वह अंकुरित होगा। दर्पण को अपने लिए विकसित नहीं करना होगा, ताकि धूल झड़ जाए। धूल झड़ जाएगी तो दर्पण ठीक है। लेकिन बीज को कुछ हटाना नहीं है, बीज को अपने भीतर से किसी चीज को जन्माना है।
प्रेम बीज की तरह पैदा होता है और ज्ञान दर्पण से धूल हट जाए ऐसे पैदा होता है। प्रेम का रास्ता पाॅजिटिव है, प्रेम का रास्ता विधायक है। प्रेम को अपने भीतर से फेंकना होता है, अपने भीतर की सारी शक्तियों को इकट्ठा करके प्रेम की ऊर्जा को फेंकना होता है। कैसे यह होगा? हम साधारणतया घृणा को फेंकते हैं, वैमनस्य को फेंकते हैं, द्वेष को फेंकते हैं, असत्य को फेंकते हैं, राग को फेंकते हैं, प्रेम को नहीं फेंकते।
एक साधु का मुझे स्मरण आता है। एक सुबह-सुबह साधु अपने आश्रम में है और किसी व्यक्ति को कहता है कि जाओ, जूतों से और दरवाजे से क्षमा मांग कर आओ। कोई इसे सुनता है और हैरान होता है। वह एक व्यक्ति को समझा रहा है कि जाओ, दरवाजे से और जूतों से क्षमा मांग कर आओ। जो सुन रहा है वह बहुत हैरान होता है। और समझता है, यह क्या पागलपन की बात है, जूतों से, दरवाजे से क्षमा? और तब तो उसे और भी हैरानी होती है, वह व्यक्ति जाता है और दरवाजों से और जूतों से क्षमा मांग कर वापस लौटता है। सुनने वाले व्यक्ति ने साधु को पूछाः यह क्या पागलपन है? क्या जूतों से और दरवाजों से भी क्षमा मांगनी होगी? उस साधु ने कहाः इसने जब दरवाजा खोला, तो क्रोध से खोला। इसने धक्का दिया, उसमें क्रोध था। और इसने जब जूते खोले, तो बड़ा क्रोध था। अगर जूतों और दरवाजों पर क्रोध हो सकता है, तो प्रेम क्यों नहीं हो सकता?
एक कलम ठीक नहीं काम करती, आप उसे क्रोध से पटकते हैं। एक दरवाजा ठीक से नहीं खुलता, उसेे गुस्से से और गाली देकर खोलते हैं। अगर जड़ के प्रति घृणा और क्रोध फेंका जा सकता है, तो प्रेम क्यों नहीं फेंका जा सकता? सवाल यह नहीं है कि प्रेम दरवाजा स्वीकार करेगा या नहीं, सवाल यह है कि आपने फेंका। सवाल यह नहीं है कि घृणा को और क्रोध को दरवाजे ने समझा या नहीं समझा, दरवाजा क्या समझेगा? लेकिन जब आपने घृणा फेंकी, तब आप छोटे हो गए। और अगर आप प्रेम फेंके तो आप विराट हो जाएंगे।
जो जितनी घृणा फेंकेगा उतना संकुचित और छोटा होता चला जाएगा। जो जितना प्रेम फेंकेगा उतना विराट, उतना विराट, उतना विस्तीर्ण होता चला जाएगा। घृणा के फेंकने के द्वारा अंतिम रूप से अहंकार रह जाएगा, और प्रेम फेंकने के माध्यम से अंतिम रूप से ब्रह्म का साक्षात होगा।
प्रेम विराट करता है और घृणा संकुचित करती है। क्रोध छोटा करता है, अक्रोध बड़ा करता है। और जो-जो पाप कहा है धर्मों ने, वह सब पाप इसीलिए है कि वह आपको संकीर्ण करता, छोटा करता, सिकोड़ता है। और जिन-जिन बातों को पुण्य कहा है, वे पुण्य इसीलिए हैं, वे आपको विस्तीर्ण करती हैं, फैलाती हैं और बड़ा करती हैं। एक घड़ी पर आपका अहंकार बिलकुल विलीन हो जाता है और प्रभु हो जाते हैं। और जो, जो-जो राग, जो-जो द्वेष आपको संकीर्ण करते हैं और छोटा करते हैं, एक घड़ी पर आप बिलकुल अकेले रह जाते हैं, बिंदु मात्र।
अकेले अहंकार में रह जाना नरक में होना है। अकेला रह जाना एक मात्र नरक है। अहंकार मात्र शेष रह जाए जिस व्यक्ति के भीतर, वह नरक में हो गया। और जिसका अहंकार परिपूर्ण विसर्जित हो जाए, वह मोक्ष को उपलब्ध हो गया। अहंकार नरक है। और निर-अहंकारिता कि मैं का बिंदु ही विलीन हो जाए। और प्रेम की साधना विधायक है इस अर्थों में, उसे फेंकना होता है। जैसे बीज अपने अंकुर को फेंकता है। सतत रूप से और सजग रूप से अपने चारों तरफ--जड़ के प्रति और जीवन के प्रति। प्रेम का भाव, प्रेेम की भावना का सतत-सतत स्मरणपूर्वक विधायक रूप से अपने चारों तरफ प्रेम को फेंकना।
यह हमें खयाल में नहीं आता, हम प्रेम को कैसे फेंकेंगे? यह हमें खयाल में नहीं आता, हम प्रेम को कैसे फेंकेंगे? प्रेम कैसे फेंका जा सकता है? साधारणतया हमें यह दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन हम यह खयाल करें, हम क्रोध कैसे फेंकते हैं? हम घृणा कैसे फेंकते हैं? जब हम क्रोध फेंकते हैं, तो क्या होता है?
जब हम क्रोध फेंकते हैं, तो हमारे भीतर केवल क्रोध की आग रह जाती है और हम मिट जाते हैं। और हमारे भीतर से क्रोध की लपटें उस तरफ फिंकती हैं जिस तरफ क्रोध का केंद्र हो। हमारे भीतर जैसे लपटें बह रही हों और उस व्यक्ति को अग्निसात कर देना चाहती हों जिसके प्रति क्रोध जा रहा है। क्रोध में हम बिलकुल ही लपट हो जाते हैं और उस व्यक्ति की तरफ फेंकते हैं। प्रेम को भी लपट की भांति फेंका जा सकता है--उठते-बैठते और चलते, चारों तरफ प्रेम फेंका जा सकता है।
ब्लावट्स्की एक महिला थी। वह भारत थी बहुत दिन। सारी दुनिया में घूमी, लोग हैरान थे। वह जब भी कहीं होती, किसी गाड़ी में, किसी सफर में, तो एक झोले में हाथ डालती और कुछ बाहर फेंकती। लोगों ने पूछाः क्या फेंकती हो? उसने कहाः फूलों के बीज। वह अपने चारों तरफ पूरे जीवन फूलों के बीज फेंकती रही। लोगों ने कहाः बिलकुल पागल है। रास्ते के किनारे, ट्रेन के किनारे बीज फेंक भी दिए, पता नहीं उनमें से कितने पौधे आएंगे, कितने फूल बनेंगे? ब्लावट्स्की कहतीः यह सवाल नहीं है, मैंने फूल फेंकने की आकांक्षा की, इससे मुझे लाभ हो रहा है। यह सवाल नहीं है कि वे बीज फूल बनेंगे या नहीं, मैंने फूल फेंके। यह भाव ही कि मैंने फूल फेंके मुझे विस्तीर्ण करता है; और यह भाव कि मैंने कांटे डाले मुझे संकीर्ण करता है। कोई न कोई फूल उनमें से पैदा होगा और किसी न किसी को उस खिलते हुए, मुस्कुराते हुए फूल को देख कर आनंद होगा, तो मेरा श्रम सार्थक है।
मैं आपको नहीं कहता आप फूलों के बीज फेंकें, लेकिन फूलों की गंध फेंकी जा सकती है। अपने चारों तरफ आप प्रेम को विस्तीर्ण कर सकते हैं और फेंक सकते हैं। प्रेम को फेंकने के बहुत रास्ते हो सकते हैं।
परसों रात मैं एक घटना कहता था। बहुत प्राचीन उपनिषदों के समय की घटना है। एक, एक, एक आश्रम में तीन युवक परिपूर्ण शिक्षा लेकर वापस लौटते हैं। वे अंतिम दिन, जब उनकी संपूर्ण शिक्षा पूरी हो गई और उनके गुरु ने कहाः अब तुम जा सकते हो। उनमें से एक ने पूछाः लेकिन आप कहते थे, अभी कोई एक अंतिम परीक्षा और होनी है। उस गुरु ने कहाः उसकी तुम फिकर न करो, परमात्मा ने चाहा तो वह अंतिम परीक्षा भी हो जाएगी। लेकिन तुम्हारी शिक्षा इस आश्रम से पूरी हुई, अब तुम जा सकते हो।
उन्होंने अपनी चटाइयां लपेटीं, अपने शास्त्र लिए, और सांझ को जब गोधूलि थी और सूरज डूबता था, वे विदा हो गए। उन्होंने गुरु के पैर छुए और वे विदा हुए। रास्ते पर जब कि सूरज करीब-करीब डूबने को है, उन्होंने देखा, एक छोटी सी पगडंडी पर जिसको वे पार करते हैं, बहुत से कांटे पड़े हैं। एक युवक जो आगे था ठिठका, और फिर छलांग लगा कर निकल गया। दूसरा युवक जो उसके पीछे था, वह भी ठिठका, लेकिन पगडंडी को छोड़ कर बगल के खेत से निकल गया। तीसरा युवक भी ठिठका, उसने अपना सामान नीचे रखा, वे कांटे उठा कर बीने और झाड़ी में डाले। और जब वह झाड़ी में डालता ही था, उन तीनों ने हैरान होकर देखा, उस झाड़ी के पीछे से गुरु निकला और उसने कहाः जिसने कांटे बीने हैं वह चला जाए, उसकी शिक्षा पूरी हो गई। लेकिन जिन्होंने कांटे छलांग लगा कर निकल गए हैं वे रुक जाएं, उनकी शिक्षा अभी अधूरी है।
जो दूसरों के रास्तों से कांटे नहीं उठा सकता, उसे ज्ञान मिला हो, उसे प्रेम नहीं मिला। जो दूसरे के रास्ते से कांटे नहीं उठा सका, उसे ज्ञान मिला हो, लेकिन प्रेम नहीं मिला। और जिसे प्रेम नहीं मिला, वह कुछ भी हो पूरे अर्थों में आदमी नहीं हो सकता। अकेला ज्ञान पूरे अर्थों में आदमी नहीं बना सकता है। वह युवक उत्तीर्ण हुआ अंतिम परीक्षा में जिसने कांटे उठा कर डाल दिए। दो युवक रोक लिए गए।
प्रेम विस्तीर्ण करने का मेरा मतलब हैः किसी के रास्ते पर कांटे उठा देना। प्रेम विस्तीर्ण करने का मेरा मतलब हैः किसी के रास्ते पर बन सके तो दो फूल डाल देना। प्रेम विस्तीर्ण करने का मेरा मतलब हैः आपकी भावना में, आपके चित्त में, समस्त जगत के कण-कण के प्रति मैत्री का, और प्रेम का, और करुणा का भाव हो। वह भाव उनको लाभ पहुंचाएगा यह महत्वपूर्ण नहीं है, वह भाव आपको मुक्त करेगा। प्रेम एक मात्र मुक्ति है। और प्रेम में ही व्यक्ति परिपूर्ण रूप से मुक्त होता है; क्योंकि परिपूर्ण रूप से अहंकार-शून्य होता है। तो प्रेम को विधायक रूप से विस्तीर्ण करना है और ज्ञान को नकारात्मक रूप से आविर्भाव करना है।
जब ज्ञान और प्रेम का संयोग बनता है, तो संगीत पैदा होता है। जब ज्ञान और प्रेम समन्वित होते हैं, तो व्यक्ति सत्य के साथ समन्वय को उपलब्ध होता है। जब ज्ञान और प्रेम समन्वित होते हैं, तो व्यक्ति के भीतर प्रवास होता है ज्ञान का, और व्यक्ति के आचरण में अहिंसा होती है प्रेम की। जब ज्ञान और प्रेम पूर्ण होते हैं, तो व्यक्ति के भीतर आनंद होता है। और बाहर भी वह उस आनंद की सुगंध को विस्तीर्ण करता है।
ज्ञान उसे स्वयं तक पहुंचा देता है और प्रेम उसे समस्त तक पहुंचा देता है। ज्ञान उसे स्वयं के सत्य का उदघाटन करा देता है और प्रेम समस्त के सत्य का उदघाटन करा देता है। ज्ञान की भाषा में कहें, तो वह आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। प्रेम की भाषा में कहें, तो वह परमात्मा को उपलब्ध हो जाता है। प्रेम की भाषा परमात्मा को पकड़ती है, ज्ञान की भाषा आत्मा को पकड़ती है। और प्रेम और ज्ञान पूर्ण हों, तो व्यक्ति जानता है आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं, एक ही है। ज्ञान और प्रेम की परिपूर्णता में व्यक्ति चरम सत्य को जानता है, खंडित सत्य को नहीं।
अगर ज्ञान अकेला हो, तो मात्र आत्मा को जानता है; अगर प्रेम भी हो, तो समस्त को जानता है। अगर ज्ञान अकेला हो, तो स्व को जानता है; अगर ज्ञान और प्रेम हो, तो वह सर्वज्ञ हो जाता है, सबको जानता है। ज्ञान स्वयं के द्वार खोलता है, प्रेम सबके द्वार खोल देता है। ज्ञान और पे्रम की समग्र अखंड साधना को मैं कहता हूं। ज्ञान और प्रेम के रास्ते अलग नहीं हैं, अखंड हैं। उस अखंड साधना को जो साधता है वह स्वयं अखंड को उपलब्ध हो जाता है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कहीं। आपके जीवन में ज्ञान का प्रकाश हो और प्रेम की सुगंध हो, यह कामना करता हूं। आपके जीवन में ज्ञान की ज्योति हो और प्रेम का आनंद हो, इसकी कामना करता हूं। आप ज्ञान से भरें और आपके चारों तरफ प्रेम प्रवाहित हो, यह कामना करता हूं।

मेरी इन बातों को इतने प्रेम से सुना है, इतनी शांति से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में चाहे मेरे ज्ञान को अस्वीकार कर दें, मेरे प्रेम को स्वीकार करें।

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