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गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-35)

बोधकथा-पैतिसवी 

एक सम्राट आकंठ चिंता में डूबा हुआ था। चिंताएं जब डुबाती हैं तो पूरा ही डुबाती हैं। क्योंकि एक चिंता जिस मार्ग से भीतर प्रवेश करती है, उसी मार्ग से और चिंताएं भी प्रविष्ट हो जाती हैं। जो एक को मार्ग देता है, वह अनजाने ही अनेक को मार्ग दे देता है। इसीलिए चिंताएं सदा भीड में आती हैं। अकेली एक चिंता से मिलन कभी भी किसी का नहीं होता है।
यह आश्चर्यजनक है कि सम्राट अक्सर ही चिंता में डूबे रहते हैं, हालांकि वस्तुतः सम्राट तो केवल वे ही हैं जो चिंता से मुक्त हो गए हैं। चिंता की दासता इतनी बडी है कि एक साम्राज्य की शक्ति भी उसे पोंछ नहीं पाती। शायद इसी कारण साम्राज्यों की शक्ति भी चिंता की सेवा में ही सन्नद्ध हो जाती है।

मनुष्य सम्राट होना चाहता है, शक्ति और स्वतंत्रता के लिए, किंतु अंत में पाता है कि सम्राट से ज्यादा अशक्त, परतंत्र और पराजित व्यक्ति कोई दूसरा नहीं है। क्योंकि दूसरों को दास बनाने वाला व्यक्ति अंततः स्वयं ही दासों का दास हो जाता है। हम जिसे बांधते हैं उससे हम स्वयं भी बंध जाते हैं। स्वतंत्रता के लिए दूसरों की दासता से ही मुक्ति नहीं, दूसरों को दास बनाने की वृत्ति से भी मुक्ति आवश्यक है।


वह सम्राट भी ऐसे ही बंध गया था। जीतने तो वह स्वर्ग को निकला था, लेकिन जीत कर पाया था कि नरक के सिंहासन पर बैठ गया है। अहंकार जो भी जीतता है, वह अंततः नरक ही सिद्ध होता है। अहंकार स्वर्ग को तो जीत ही नहीं सकता, क्योंकि स्वर्ग तो वहीं है, जहां अहंकार नहीं है। अब इस स्वयं जीते हुए नरक से वह मुक्त होना चाहता था। लेकिन स्वर्ग को पाना कठिन, खोना सरल है। नरक को पाना सरल, खोना कठिन है। वह चिंताओं की लपटों से मुक्त होना चाहता था। कौन नहीं होना चाहता है? नरक के सिंहासन पर कौन बैठे रहना चाहता है? लेकिन जो भी सिंहासन पर बैठना चाहते हैं, उन्हें नरक के सिंहासन पर ही बैठना पडता है। और स्मरण रहे कि स्वर्ग में कोई सिंहासन नहीं है। नरक के सिंहासन ही दूर से स्वर्ग के सिंहासन दिखाई पडते हैं। रात और दिन, सोते और जागते, वह सम्राट चिंताओं से लड रहा था। लेकिन एक हाथ से तो व्यक्ति चिंताओं को हटाता है, और हजारों हाथों से स्वयं ही उन्हें आमंत्रित भी करता रहता है। उस सम्राट को चिंताओं से भी छूटना था और चक्रवर्ती भी होना था। शायद वह सोचता था कि चक्रवर्ती सम्राट होकर ही वह चिंताओं से छूट सकेगा। मनुष्य की मूढ़ता ऐसे ही निष्कर्ष निकालती रहती है। इसीलिए उसे रोज नये राज्य चाहिए थे। संध्या का डूबता सूर्य उसकी साम्राज्य-सीमा को वहां न पावे, जहां उसने सुबह उगते समय पाया था। वह चांदी के सपने देखता और सोने की सांसें लेता था। जीवन के लिए तो ऐसे सपने और सांसें बहुत घातक हैं, क्योंकि चांदी के सपने प्राणों पर जंजीरें बन जाते हैं और सोने की सांसें आत्मा में जहर घोलने लगती हैं। और महत्वाकांक्षा की मदिरा से आई बेहोशी को तो बस मृत्यु ही तोड पाती है।
सम्राट के जीवन की दोपहरी बीत गई थी। जीवन-दिवस उतार पर था। मृत्यु अपने संदेश भेजने लगी थी। शक्ति रोज कम होती जाती थी और चिंताएं रोज बढ़ती जाती थीं। उसके प्राण बडे संकट में थे--मनुष्य युवावस्था में जो बोता है, बु.ढापे में उसकी ही फसल उसे काटनी पडती है। विष के बीज बोते समय नहीं, फसल काटते समय ही कष्ट देते हैं। बीज में ही जो इस दुख को देख लेते हैं, वे बोते ही नहीं हैं। बीज से तो मुक्त हुआ जा सकता है, लेकिन बोने पर फसल को भी काटना ही पडता है। उससे बचने का कोई भी उपाय नहीं है। वह सम्राट भी अपनी ही बोई फसलों के बीच में खडा था। उनसे बचने को वह आत्मघात तक का विचार करता था, लेकिन सम्राट होने का मोह और भविष्य में चक्रवर्ती सम्राट होने की आशा, वह भी नहीं करने देती थी। जीवन तो वह खो सकता था, खो ही दिया था, लेकिन सम्राट होना छोडना उसकी सामथ्र्य के बाहर की बात थी। वह वासना ही तो उसका जीवन थी। ऐसी वासनाएं ही, जो जीवन मालूम होती हैं, जीवन को नष्ट कर देती हैं।
एक दिन वह अपनी चिंताओं से पीछा छुडाने के लिए पर्वत के चरणों में स्थित हरियाली की ओर निकल गया था। लेकिन चिंता को छोड भागना तो चिता छोड कर भागने से भी कठिन है। स्वयं की चिता से निकल कर तो कोई भाग भी सकता है, लेकिन चिंता से नहीं, क्योंकि चिता बाहर और चिंता भीतर है। जो भीतर है, वह सदा साथ ही है। आप जहां हैं, वहीं वह है। स्वयं को आमूल परिवर्तित किए बिना उससे छुटकारा नहीं है। सम्राट जंगल में घोडे पर भागा चला जाता था। अचानक बांसुरी के स्वर उसे सुनाई पडे। स्वरों में कुछ था कि वह ठिठक गया और उस संगीत की दिशा में ही अपने घोडे को ले चला। एक पहाडी झरने के पास, वृक्षों की छाया तले, एक युवा चरवाहा बांसुरी बजा कर नाच रहा था। उसकी भेडें पास में ही विश्राम कर रही थीं। सम्राट ने उससे कहाः ‘‘तू तो ऐसा आनंदित है मानो तुझे कोई साम्राज्य मिल गया हो? ’’ वह युवक बोलाः ‘‘दुआ कर कि परमात्मा मुझे कोई साम्राज्य न दे, क्योंकि अभी तो मैं सम्राट हूं, लेकिन साम्राज्य मिलने से कोई भी सम्राट नहीं रह जाता है।’’ सम्राट हैरान हुआ और उससे पूछाः ‘‘जरा सुनूं तो कि तेरे पास क्या है, जिससे तू सम्राट है।’’ वह युवक बोलाः ‘‘संपत्ति से नहीं, स्वतंत्रता से व्यक्ति सम्राट होता है। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, सिवाय स्वयं के। मेरे पास मैं हूं, और इससे बडी और कोई संपदा नहीं है। और फिर मैं सोच ही नहीं पाता हूं कि मेरे पास क्या नहीं है, जो सम्राट के पास है? सौंदर्य को देखने के लिए मेरे पास आंखें हैं। प्रेम करने के लिए मेरे पास हृदय है, और प्रार्थना में प्रवेश करने की क्षमता है। सूरज जितनी रोशनी मुझे देता है, उससे ज्यादा सम्राट को नहीं देता और चांद जितनी चांदनी मुझ पर बरसाता है, उससे ज्यादा सम्राट पर नहीं बरसाता है। खूबसूरत फूल जितने सम्राट के लिए खिलते हैं, उतने ही मेरे लिए भी खिलते हैं। सम्राट पेट भर खाता और तन भर पहनता है। मैं भी वही करता हूं। फिर सम्राट के पास क्या है, जो मेरे पास नहीं है? शायद, साम्राज्य की चिंताएं--लेकिन उनसे परमात्मा बचाए, क्योंकि चिंता से तो चिता बेहतर है। हां, बहुत-कुछ मेरे पास जरूर है जो सम्राट के पास नहीं है; मेरी स्वतंत्रता, मेरी आत्मा, मेरा आनंद, मेरा नृत्य, मेरा संगीत। मैं जो हूं, उससे आनंदित हूं और इसलिए मैं सम्राट हूं।’’
सम्राट ने उस युवक की बातें सुनीं और बोलाः ‘‘प्यारे युवक! तू ठीक कहता है। जा, अपने गांव में सबसे कह दे कि सम्राट भी यही कह रहा था!’’

ओशो


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