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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-02)

दूसरा प्रवचन-(धर्म है बिलकुल वैयक्तिक)

एक छोटी सी घटना से मैं अपनी आज की बात शुरू करना चाहूंगा।
एक छोटे से गांव में, एक अंधेरी रात में, एक झोपड़े के भीतर से बहुत जोर से आवाज आने लगीः आग लगी है, मैं जल रही हूं, मुझे कोई बचाओ। आवाज इतनी तीव्र, इतनी करुण और दुख भरी थी कि सोए हुए पड़ोसी जाग गए और हाथों में बाल्टियां लेकर पानी भर कर उस झोपड़े की तरफ भागे। अंधेरी रात थी, लेकिन झोपड़ी के पास जाकर उन्होंने देखा, आग लगने का कोई भी चिह्न नहीं है। छोटी सी झोपड़ी है। भीतर से जोर से आवाजें आती हैंः आग लग गई है। लेकिन कोई आग लगने का चिह्न नहीं है। उन्होंने दरवाजे धकाए, वे दरवाजे भी खुले हुए थे।

वह बहुत गरीब स्त्री की झोपड़ी थी। उस पर ताले और द्वार लगाने की भी कोई बात नहीं थी। भीतर एक औरत जोर से रो रही थी और छाती पीट रही थी। वे सारे लोग परेशान हुए। उन्होंने कहाः आग कहां है? हम जरूर उसे बुझाएं? लेकिन वह स्त्री जो रोती थी, हंसने लगी और उसने कहाः आग बाहर होती तो तुम जरूर बुझा देते, यह आग मेेरे भीतर लगी है। और उसे मेरे सिवाय कोई दूसरा नहीं बुझा सकेगा। इसलिए तुम वापस लौट जाओ। और अच्छा हो तुम भी अपने घर जाकर देखो कि वहां भी तो भीतर आग नहीं लगी है? बजाय इसके कि तुम किसी और की आग बुझाने जाओ, तुम भी देखो, शायद तुम्हारे भीतर भी आग लगी हो और उसे बुझाने की जरूरत हो।


शायद ही वे पड़ोसी समझ पाए हों कि क्या उसने कहा। वह राबिया नाम की एक फकीर औरत थी।
करीब-करीब मनुष्य के भीतर सदा से एक आग लगी हुई है। उसे बुझाने के सब भांति के उपाय चलते हैं। अब तक जाति के नाम ही तो मनुष्य की उस आग को बुझाने मेें कोई सफलता नहीं मिली। कुछ थोड़े से लोगों ने बुझा ली होगी, लेकिन पूरी मनुष्यता अब भी भीतर आग से परेशान और पीड़ित है।
जैसे उस रात उस बूढ़ी औरत की आग को बुझाने के लिए लोग बाल्टियां लेकर दौड़े, करीब-करीब उस आग को बुझाने कि लिए अब तक जो प्रयास हुआ है, वह भी ऐसा ही है। आग भीतर है, बुझाने की कोशिश बाहर है।
इस बुझाने की, बाहर की बुझाने की कोशिश से विज्ञान का जन्म होता है। आग भीतर है, मनुष्य की पीड़ा भीतर है। उसका दुख, उसकी चिंता और संताप भीतर है और बाहर से उसे बुझाने के जो उपाय चल रहे हैं, उनसे विज्ञान निर्मित और विकसित हुआ और खड़ा हुआ। विज्ञान तो खड़ा हो गया।
इधर सैकड़ों वर्षों के मनुष्य के श्रम ने विज्ञान की बड़ी उन्नति के शिखर स्पष्ट कर लिए, जीत लिए। लेकिन आग जहां थी, वहीं है। शायद आज उसकी पीड़ा और भी गहरी हो गई है।
इसलिए पीड़ा और गहरी हो गई है कि हमारी जो आशा और आकांक्षा थी कि शायद बाहर के जगत में हमारी खोज, हमारा ज्ञान, हमारी समृद्धि उस आग को बुझा देगी। अब वह भी निष्फल हो गई है, वह आशा भी टूट गई।
सब भांति बाहर एक तीव्रतम संभावी विकास हुआ है। लेकिन मनुष्य भीतर और भी दरिद्र दिखाई पड़ने लगा है। क्योंकि बाहर इतना विकास हुआ है और भीतर मनुष्य वही का वही है। और इस दरिद्रता के बड़े घातक परिणाम आने शुरू हुए हैं। पिछले थोड़े से ही वर्षों में दो महायुद्ध हुए। और दो महायुद्धों में कोई दस करोड़ लोगों की हमने हत्या की।
दस करोड़ छोटी संख्या नहीं है। एक व्यक्ति जब मर जाता है तो, तो हम जानते हैं क्या गुजरती है। दस करोड़ लोगों की हत्या! और फिर तो उसके बाद जो तैयारी चली है उसमें शायद हम पूरी मनुष्य-जाति को भी समाप्त कर लें, यह भी हो सकता है।
मरने के कुछ ही दिन पहले आइंस्टीन को किसी ने पूछा था कि तीसरे महायुद्ध में किन अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होगा? आइंस्टीन ने कहा कि तीसरे के बाबत तो मैं कुछ भी नहीं कह सकता, लेकिन चैथे के बाबत निश्चित ही। उसने पूछा--वह हैरान हुआ। उसने कहा कि तीसरे के बाबत कहने में असमर्थ हैं तो चैथे के बाबत कैसे कहेंगे?
आइंस्टीन ने कहाः दो बातें तय हैं। पहली बात तो यह है कि चैथा महायुद्ध जहां तक, होगा ही नहीं। उस आदमी ने पूछा, क्या यह हो जाएगा कि मनुष्य लड़ना छोड़ देगा?
आइंस्टीन ने कहाः नहीं, मनुष्य के बचने की तीसरे युद्ध के बाद कोई संभावना नहीं है। चैथा महायुद्ध इसलिए नहीं होगा कि मनुष्य ही नहीं होगा। और अगर हुआ भी कभी चैथा महायुद्ध कभी, तो तीसरे और चैथे महायुद्ध में हजारों वर्षों का फासला होगा। और जो चैथे महायुद्ध में अस्त्र-शस्त्र प्रयोग होंगे, वे वही होंगे जो पहले महायुद्ध में प्रयोग हुए होंगे--पत्थर के, लकड़ी के औजार। यह डर और यह संभावना खड़ी हो गई है कि शायद पूरी मनुष्य-जाति समाप्त हो जाए।
विज्ञान के इतने उत्कर्ष के बाद मनुष्य के भीतर अगर उसकी आत्मा विकसित न हुई हो, तो शक्ति अविकसित हाथों में खतरनाक हो जाती है।
नादिरशाह हिंदुस्तान की तरफ आता था तब रास्ते में एक बहुत बड़े ज्ञानी से उसका मिलना हुआ। और उस नादिर ने पूछा उस ज्ञानी को कि मैं सुनता हंू कि दिन में नींद लेना बुरा है, बहुत ज्यादा सोना बुरा है; क्या आप मुझे बता सकेंगे कि बहुत ज्यादा सोना बुरा है या कम सोना अच्छा है? उस वृद्ध ने कहाः यह एक-एक आदमी पर अलग-अलग निर्भर होगा। तुम जैसे लोगों का बहुत ज्यादा सोना अच्छा है; क्योंकि तुम जागे रहोगे तो कोई न कोई उपद्रव होगा, कोई न कोई परेशानी होगी। बुरे लोग सोए रहें तो अच्छा है।
ऐसे ही अज्ञानी मनुष्य के हाथ में शक्ति न आए तो अच्छा है। अज्ञान भीतर हो और शक्ति हाथ में आ जाए, तो सिवाय दुर्घटना के और कुछ भी नहीं हो सकता। विज्ञान ने शक्ति दी है, लेकिन मनुष्य के भीतर वह शांति नहीं है उस शक्ति का सम्यक उपयोग कर सके। उसके भीतर तो परेशानी बढ़ती चली गई है। और उसकी परेशानी का यही परिणाम हो सकता है।
और यह आप स्पष्ट रूप से खयाल में ले लें कि जो आदमी परेशान है, भीतर दुखी है, भीतर चिंतित है, कष्ट में है और पीड़ा में है, उस मनुष्य का एक ही सुख होता है, केवल एक ही सुख। और वह यह कि वह दूसरों को भी पीड़ा में डाल दे और कष्ट में डाल दे। जो मनुष्य दुखी है उसका एक ही सुख होता है कि वह दूसरों को ज्यादा से ज्यादा दुख में डाल दे। इसके अतिरिक्त उसकी सुख की और कोई कल्पना नहीं होती।
मनुष्य है भीतर दुख में और आग लगी है उसकी आत्मा में। तो विज्ञान की शक्ति बड़ी खतरनाक है। इसके द्वारा उसे मौका मिल गया है कि वह दूसरों को कितने ही कष्ट में डाल दे। और इधर हम पचास वर्षों से निरंतर इसी की खोज कर रहे हैं कि हम ज्यादा से ज्यादा दुख, ज्यादा से ज्यादा मृत्यु लाने में कैसे सफल हो सकते हैं। यह हैरानी की बात है। जरूर ही मनुष्य का चित्त कुछ रुग्ण होगा, बीमार होगा, विक्षिप्त होगा, अन्यथा मृत्यु को लाने की इतनी आयोजना और इतना चिंतन नहीं हो सकता।
एक छोटी सी, एक बिलकुल झूठी कहानी कहंूगा। फिर इस संबंध में कुछ और भी बात मुझे कहनी है वह मैं आपको कहंू। कहानी मुझे बड़ी प्रीतिकर है, एकदम ही झूठी है, एकदम असत्य है। लेकिन मनुष्य के बाबत शायद उससे सच्ची और कोई बात आज नहीं हो सकती है।
मैंने सुना है, यह स्थिति देख कर परमात्मा परेशान हो गया। बहुत परेशान हो गया कि मनुष्य को क्या हुआ जा रहा है? और मनुष्य कैसे आत्मघाती प्रयास में संलग्न है? इससे उसे चिंता हुई होगी। और उसने तीन बड़े राष्ट्रों को अपने पास बुलाया--इंग्लैंड को, रूस को और अमरीका को। यह कहानी थोड़ी पुरानी होगी, नहीं तो इंग्लैंड को कौन बुलाता। यह कहानी थोड़ी पुरानी है। उस वक्त इंग्लैंड एक ताकत रही होगी। तब उसे बुलाया गया। और उन तीनों प्रतिनिधियों से कहा कि हम बहुत हैरान हैं, तुम्हारी सारी शक्ति मनुष्य की हत्या की ओर नियोजित हो गई है। और डर है इस बात का कि तुम पूूरी मनुष्य-जाति को समाप्त कर दो। न केवल यह बल्कि हो सकता है पूरे प्राणी-जगत को समाप्त कर दो। इस भय से भयभीत होकर मैं खुद ही तुम्हें एक मौका देता हंू और प्रार्थना करता हंू कि तुम एक वरदान मांग लो। तुम्हारी जो कामना है वह पूरी हो जाए, ताकि जीवन बच सके। तुम क्या चाहते हो, आखिर इस दौड़ के पीछे इरादे क्या हैं?
अमरीका के प्रतिनिधि ने कहा कि हे परमात्मा! हमारी बड़ी कोई आकांक्षा नहीं है, बड़ी छोटी आकांक्षा है, पूरी हो जाए तो हम निश्चिंत हो जाएं। यह सब उपद्रव भी बंद हो जाए। ईश्वर ने कहाः कहो, तुम कहो, और मैं पूरा कर दंू।
शायद ईश्वर ने कल्पना न की होगी कि वह क्या कहेगा। उस प्रतिनिधि ने कहा कि हे पिता, छोटी सी इच्छा पूरी करनी है, दुनिया हो, लेकिन दुनिया में रूस का कोई निशान न रह जाए। फिर आतंक न हो। फिर सब शांति है। एक ही कठिनाई है जिससे जीवन उलझ गया है और वह यह रूस का होना।
ईश्वर ने बहुत वरदान दिए, पुराण में कथाएं हैं। लेकिन ऐसा कोई वरदान कभी मांगा नहीं गया था। वह बहुत हैरान हुआ! तो उसने रूस की तरफ आंखें घुमाईं। रूस के प्रतिनिधि ने कहाः महानुभाव, यह हो सकता है कहा हो, कामरेड मुझे पता नहीं। यह भी हो सकता है, कहा हो कामरेड। कहाः महानुभाव, एक तो हमें विश्वास नहीं है कि आप हो। (12ः00 से 12ः 04 तक.. ध्वनि नहीं है) कोई वर्ष हुए, कोई पचास वर्ष हुए, हमने अपने मंदिरों, मस्जिदों से और गिरजाघरों से आपको निकाल कर विदा कर दिया। और अब हमारे देश में आपकी कोई पूजा नहीं होती और कोई दीये नहीं जलाए जाते और कोई फूल नहीं चढ़ाए जाते। हम आपके भ्रम से बहुत दिन हुए मुक्त हो गए हैं। लेकिन फिर भी हम दुबारा आपकी पूजा शुरू कर सकते हैं और स्वीकार कर लेंगे कि आप हो, और स्वीकार कर लेंगे आंख बंद करके जो भी आप कहोगे। लेकिन छोटी सी आकांक्षा हमारी पूरी हो जाए, तो प्रमाण बन जाए आपके होने का। हम नक्शा तो चाहते हैं, लेकिन अमरीका के लिए कोई रंग नहीं चाहते उसमें। दुनिया का नक्शा हो अमरीका के लिए कोई रंग न रह जाए।
ईश्वर ने बहुत घबड़ा कर ब्रिटेन की तरफ देखा। ब्रिटेन के प्रतिनिधि ने जो कहा वह मन में रख लेने जैसा है। उसने कहा कि हे परमपिता! हमारी अपनी कोई आकांक्षा नहीं है, इन दोनों की आकांक्षाएं एक साथ पूरी हो जाएं, तो हमारी आकांक्षा पूरी हो जाएगी।
ऐसी स्थिति हो, और यह कहानी तो एकदम ही झूठ है। लेकिन यह स्थिति झूठ नहीं है। ऐसा ही हमारे मनों में चल रहा है। ऐसे ही विनाश को हम उत्सुक हैं। और उसमें कोई ब्रिटेन और अमरीका और रूस ही सम्मिलित हों तो गलती हो जाएगी। हम भी, सारी दुनिया के सभी लोग, चाहे वे कहीं रहते हों दुनिया के किसी कोेने में, उन सबकी आकांक्षा दूसरों को कष्ट और दुख देने की और मिटा देने की है। और राष्ट्रों के तल पर यह चलता है, व्यक्ति के तल पर भी यही चलता है।
आप एक बड़ा मकान बना लेते हैं और बड़े प्रसन्न हो जाते हैं। इस खयाल में न रहना कि बड़े मकान से आपको प्रसन्नता मिल रही है। किन्हीं लोगों के मकान आपने छोटे कर दिए होंगे, उससे प्रसन्नता मिल रही है। और अगर कोई और बड़ा मकान आपके करीब खड़ा हो जाए, तो यही बड़ा मकान जिसमें आप थे आपको दुख देने का कारण हो जाएगा।
जब हम किसी का मकान छोटा कर पाते हैं, तो प्रसन्नता मिलती है। और जब हम किसी को पीछे छोड़ पाते हैं, तो प्रसन्नता मिलती है। और हम जीवन में किसी को लंगड़ा कर देते हैं, पंगु कर देते हैं, तो प्रसन्नता मिलती है। दुखी चित्त का एक ही लक्षण है, वह दूसरे को दुख देकर प्रसन्न होता है। और आनंदित चित्त का भी एक ही लक्षण है, वह आनंद को बांट कर प्रसन्न होता है। जो हमारे पास है वही तो हम बांटेंगे। वही हम बांट सकते हैं।
दुख मनुष्य के भीतर गहरा है। और विज्ञान ताकत उसके हाथ में अपरिसीम दे दिया है, तो खतरा होगा। दुख देने की क्षमता हमारी बढ़ गई है और भीतर हम दुखी हैं। मृत्यु को लाने की क्षमता हमारी बढ़ गई है, और भीतर हम दुखी हैं। जीवन को विनष्ट करने की क्षमता हमारी बढ़ गई है, और हमारे भीतर कोई आनंद, कोई सौंदर्य, कोई संगीत नहीं है, तो परिणाम युद्ध होने स्वाभाविक है।
विज्ञान की शक्ति की खोज अपने आप में घातक सिद्ध हो गई है। लेकिन मनुष्य का मन कुछ एक्सट्रीम में, कुछ अतियों में डोलता है। ऐसे देश और ऐसी संस्कृतियां भी रही हैं, जिसे हम खुद, जिन्होंने इसी तरह अतिशय से, इसी तरह एक्सट्रीम पर धर्म की भी खोज की है। और मैं यह निवेदन करना चाहंूगा, धर्म अकेला भी एक घातक सिद्ध हो जाता है। कोई यह न सोचे कि विज्ञान अकेला घातक सिद्ध हो जाता है, धर्म अकेला भी घातक सिद्ध हो जाता है।
इसलिए धर्म अकेला घातक सिद्ध हो जाता है कि भीतर शांति तो बढ़ती है। लेकिन बाहर अशक्ति, कमजोरी, दीनता और दरिद्रता का राज्य होता है। और अब तक दुनिया में जो भी संस्कृतियां विकसित हुई हैं, उनमें से कोई भी संस्कृति इतनी पूर्ण नहीं रही कि उसने भीतर और बाहर के बीच एक संतुलन और समन्वय खोज लिया हो। या तो पूरब के देशों में धर्म का इस भांति अनुसरण किया कि वे बाहर दरिद्र, दीन और दास हो गए। या पश्चिम के लोगों ने बाहर का इस भांति अनुसरण किया कि वे भीतर एकदम आत्मा को खो उठे हैं।
इन दो अतियों पर अभी तक मनुष्य का मन डोला है। और आज भी जो लोग इस संबंध में चिंतन करते हैं, उनमें से अधिक पक्षपाती हैं। उनमें से या तो धर्म के पक्षपाती हैं या विज्ञान के पक्षपाती हैं। मेरा निवेदन है कि मनुष्य के बाबत इस तरह के पक्षपात घातक हैं। और हमें मनुष्य को उसकी समग्रता में, उसकी पूर्णता में देखना और अंगीकार करना चाहिए। मनुष्य न तो केवल शरीर है और न केवल आत्मा। अगर वह शरीर मात्र ही होता तो विज्ञान पर्याप्त था। अगर वह आत्मा मात्र ही होता तो धर्म पूरा था। लेकिन मनुष्य दोनों का एक अदभुत सम्मिलन है। दोनों का एक अदभुत संतुलन है। दोनों की एक अदभुत कीमिया से पैदा हुई इकाई है। इसलिए उसका जीवन और उसकी संस्कृति और उसकी सभ्यता यदि किसी एक का चुनाव करेगी तो भटक जाएगी। अब तक मनुष्य-जाति की सभी सभ्यताएं भटकी हुई सभ्यताएं रही हैं। वे सभी एकांगी हैं।
एक छोटी सी कहानी मुझे स्मरण आती है।
रोम में एक बादशाह बीमार पड़ा। वह बहुत बीमार था। बहुत वर्ष उसकी चिकित्सा हुई। दूर-दूर से वैद्य बुलाए गए, चिकित्सक बुलाए गए। लेकिन वह ठीक नहीं हो सका। कुछ बीमारी भी पकड़ में न आई। बीमारी ही समझ में नहीं आई। फिर तो चिकित्सकों ने कहा कि इसका बचना असंभव है। दिन दो दिन की बात है और यह समाप्त हो जाएगा। उसकी आंखें भी खुलनी बंद हो गईं, उसकी श्वास भी टूटने लगी। वह करीब-करीब बिस्तर पर अर्धमृत होकर पड़ा रहा। कि तभी एक वजीर ने आकर खबर दी कि चिंतित न हों और निराश न हों, एक फकीर गांव में आया है और उस फकीर के बाबत लोगों को खयाल है कि वह तो मुर्दे को भी जिला दे। अभी तो आप जिंदा हैं, मरने से तो कम से कम बचा ही सकता है।
राजा ने आंखें खोलीं, उसने कहाः जल्दी करो, देर न करो। क्योंकि श्वास का कोई भरोसा नहीं कि जो बाहर जाती है वह भीतर लौटे न लौटे। वे भागे और उस फकीर को लेकर आए। उस फकीर ने कहाः यह तो कोई बड़ी बीमारी ही नहीं है। और इसीलिए चिकित्सक असफल रहे। क्योंकि बीमारी थी ही नहीं, तो वे बीमारी खोज कैसे पाते? और उन्होंने जो दवाएं दी हैं, उन दवाओं ने इस आदमी को मरने के करीब पहंुचा दिया है, बीमारी ने नहीं। इसका तो बड़ा सीधा सा इलाज है।
राजा जो कि महीनों से पड़ा था, उठ कर बैठ गया और उसने कहाः कौन सा इलाज? उस फकीर ने कहाः बड़ा सीधा और सरल। इस बड़ी राजधानी में जाओ और किसी ऐसे आदमी के वस्त्र ले आओ जो सुखी भी हो और समृद्ध भी, और उसके वस्त्र इसे पहना दो, बस। यह रात बीतते-बीतते स्वस्थ हो जाएगा।
वजीर नाच उठे खुशी से। महल के बुझे दीये जला दिए गए। महल में गीत और नाच होने लगे। बड़ी खुशी की बात थी, इलाज आसान था। वजीर भागे किसी ऐसे आदमी के वस्त्र लेने जो सुखी भी हो और समृद्ध भी। लेकिन जैसे-जैसे जिन-जिन भवनों में वे गए, हर घरों से लौटते वक्त उनकी निराशा बढ़ती गई। जिसके पास भी वे गए उसने कहा कि मैं अपने प्राण दे दंू राजा को बचाने के लिए, लेकिन मेरे वस्त्र कारगर नहीं होंगे। समृद्धि तो मेरे पास है, लेकिन सुख, सुख से मैं अपरिचित हंू। धन मेरे पास है, भवन है, बड़ी शक्ति, बड़े पद, लेकिन सुख मैंने अभी जाना नहीं। अभी कामना करता हंू, सपने देखता हंू, उसे पाया नहीं है।
हर भवन से लौटते वक्त वे निराश होते गए। धीरे-धीरे सांझ हो गई, सूरज ढलने लगा, और वे वजीर इकट्ठे हुए। और उन्होंने कहा कि राजा को बचाना तो मुश्किल मालूम पड़ता है। हम तो भ्रम में थे। उनके साथ जो नौकर दौड़ रहा था दिन भर, उसने कहा, यह तो मैं उसी वक्त समझ गया था कि यह नहीं हो सकेगा। क्योंकि जब राजा के वजीर ही किसी और के कपड़े लेने जा रहे थे, तभी मुझे शक हो गया था।
अगर यह होने वाला होता तो राजा के वजीर ही अपने कपड़े दे देेते। तुम जब दूसरों से कपड़े मांगने गए तभी मुझे शक हो गया था कि यह इलाज होगा नहीं, राजा मरेगा। किस मुंह से राजा के पास जाएं? तो सोचा, अंधेरा हो जाए, सूरज ढल जाए, तो चलें हम। सूरज ढले वे राजमहल की तरफ चले। राजमहल के पीछे ही नदी बहती थी, और वहीं उन्होंने बांसुरी की आवाज सुनी। दूर नदी के उस पार कोई पत्थर पर बैठ कर बांसुरी बजाता था। उसके स्वर में कुछ ऐसा जादू, कुछ ऐसा आनंद था, कुछ ऐसे सुख की गंध थी। उन्होंने सोचा, अंतिम प्रयास और कर लें, हो सकता है यह आदमी सुखी हो, इसके स्वर इतने आनंद से भरे हैं, इतने प्रेम से, इतनी खुशी से। वे गए और अंधेरे में जाकर उस आदमी के हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और उन्होंने कहाः हमारा सम्राट मृत्यु के करीब है और हम एक ऐसे आदमी की खोज में हैं जो सुखी हो, उसके वस्त्रों से हमारा राजा ठीक हो जाएगा। क्या तुम अपने वस्त्र देने की कृपा करोगे?
वह आदमी हंसने लगा, उसने कहाः सुखी तो मैं हूं, लेकिन अंधेरे में आपको दिखाई नहीं पड़ रहा, मैं नग्न बैठा हंू, मेरे पास वस्त्र नहीं हैैं।
फिर वह राजा मर गया। क्योंकि कुछ लोग मिले जो समृद्ध थे, लेकिन सुखी नहीं थे। और एक आदमी मिला जो सुखी था, लेकिन समृद्ध नहीं था। और वह राजा मर गया।
और मनुष्य भी इसी तरह की बीमारी से पीड़ित है। और करीब-करीब मरने के करीब खड़ा है। और अभी तक कोई ऐसे वस्त्र नहीं मिल पा रहे हैं जो सुखी और समृद्धि दोनों को अपने भीतर समेटे हों। या तो आंतरिक शांति की खोज होती है, तब बाहर से दरिद्र और दीन-हीन हो जाता है। जैसा इस देश में हुआ, पूरब के और देशों में हुआ। और या फिर समृद्धि की खोज होती है और सुख क्षीण हो जाता है, और सुख के सब तंत्र टूट जाते हैं।
यह इसलिए हुआ है क्योंकि बाहर और भीतर को विरोध की तरह देखा। यह इसलिए हुआ है कि हमने शरीर और आत्मा को शत्रु की तरह देखा। यह इसलिए हुआ है कि हमने सुख की खोज को एक अखंड खोज नहीं जाना, और मनुष्य के जीवन की खोज को हमने खंड-खंड टुकड़ों में करके देखा। हमने मनुष्य की अखंड और पूरी इकाई को आज तक स्वीकार नहीं किया है। जो लोग मनुष्य को शरीर मान कर स्वीकार करते हैं, वे उसकी आत्मा को इनकार कर देते हैं। और जो लोग उसकी आत्मा की बातें करते हैं, वे शरीर के जाने-अनजाने शत्रु हो जाते हैं।
एक ऐसी संस्कृति चाहिए जो मनुष्य के अंतर और बाहर के बीच सेतु बने, उन दोनों को जा.ेड सके। वस्तुतः वे दोनों जुड़े हैं। तो न तो कोई धार्मिक संस्कृति चाहिए, क्योंकि वह भी एक पक्ष है और एक अति। और न कोई एक वैज्ञानिक संस्कृति चाहिए, क्योंकि वह भी एक दूसरी अति पर भूल है। एक ऐसी संस्कृति चाहिए जो मनुष्य की अखंड प्रकृति को स्वीकार करे और उस अखंड प्रकृति को आनंद की दिशा में गतिमान कर सके। स्मरण रहे, मनुष्य की आत्मा की कोई भी खोज शरीर के आधार के बिना संभव नहीं है।
संत फ्रांसिस जब मर रहा था, उसने सारे लोगों से विदा ली, और अंत में वह हाथ जोड़ कर खड़ा हुआ, तो लोगों ने सोचा, शायद वह अब परमात्मा को धन्यवाद देगा। लेकिन उसने क्या कहा? उसने कहाः हे मेरे प्यारे शरीर, मैंने तुझे बहुत सताया और बहुत परेशान किया, और मैंने सदा यह समझा कि तू मेरा शत्रु है। और आज जब मेरी आंखें खुली हैं और मेरे हृदय में दीया जला है, तो मैं देख पा रहा हंू कि तू निरंतर मेरा साथी था, मेरा शत्रु नहीं। और तूने हर सुख-दुख मेें मेरे साथ साथ दिया। और मैंने तुझे सताया हो और परेशान किया हो, तू भी तो मेेरा साथी था। और जिस आत्मा को मैं समझ पाया वह तेरी सीढ़ी पर चढ़े बिना उसे जानना असंभव था। इसलिए मैं तुझे धन्यवाद देता हंू और क्षमा मांगता हंू। भूल होगी जो मैंने तेरे साथ की होगी।
जो लोग भी मनुष्य के व्यक्तित्व को ठीक से देखेंगे, उन्हें दिखाई पड़ेगा: शरीर और आत्मा सीढ़ी और लक्ष्य की भांति काम करते हैं। और जो लोग भी मनुष्य के जीवन को गौर से देखेंगे, उन्हें दिखाई पड़ेगा: विज्ञान और धर्म साधन और साध्य की तरह काम करते हैं। विज्ञान अकेला रह जाए, तो खतरा हो जाता है। अकेली सीढ़ी रह जाती है, रास्ता रह जाता है, पहंुचने को कोई जगह नहीं रह जाती है। और अकेला धर्म रह जाए, तो पहंुचने की जगह तो रह जाती है, लेकिन पहंुचने वाले सब मार्ग टूट जाते हैं। और तब जीवन पंगु होता है, जीवन अब तक पंगु रहा है।
एक दिशा है जिसे हम बाहर की दिशा कहेंः वहां विज्ञान ने पदार्थ को खोजा, उसके रहस्य को खोजा। एक और दिशा है जिसे हम भीतर की दिशा कहेंः वहां धर्म ने कुछ सत्य खोजे हैं।
लेकिन विज्ञान के सत्य ज्यादा प्रभावी हो सके, क्योंकि विज्ञान एक सार्वजनिक सत्य है। और धर्म के सत्य इतने प्रभावी नहीं हो सके, क्योंकि धर्म से अर्थ हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन और बौद्धों से है। धर्म आज भी आपस में टूटा हुआ, आपस में विरोध में, आपस में टुकड़ों-टुकड़ों में, विरोधी टुकड़ों में बंटा है। इसलिए धर्म की वह प्रभावना नहीं हो सकी जो विज्ञान की हो सकी। विज्ञान एक अखंड सत्य की तरह खड़ा हुआ है। पूरब और पश्चिम के फासले गिर गए। संप्रदायों के फासले गिर गए। छोटे-छोटे प्रादेशिक घेरे गिर गए। एक-एक कबीले की अपनी मान्यताएं गिर गईं। और सारी मनुष्यता का विज्ञान खड़ा हो सका।
अभी सारी मनुष्यता का धर्म खड़ा नहीं हो सका है। इसलिए धर्म तो हार रहा है रोज, इसलिए नहीं कि धर्म कम ताकत की चीज है। बल्कि इसलिए कि धर्म का खेमा आपस में बंटा हुआ है और आपस में लड़ रहा है। और यह हिंदू और मुसलमान और ईसाई और जैन और बौद्ध जब आपस में लड़ते हैं, तो स्वभावतः इनकी शक्ति तो आपस में लड़ने में समाप्त हो जाती है। और अधर्म की शक्तियां अपने आप बड़ी हो उठती हैं। विज्ञान के ऊपर कसूर नहीं है, कसूर है तो धार्मिक लोगों के ऊपर ही हैं।
इस समय जिसका चित्त भी थोड़ा धार्मिक है, उसके सामने पहली जो बात उठेगी वह यह कि अगर वह ठीक-ठीक अर्थों में रिलीजस है, धार्मिक है, तो वह हिंदू और मुसलमान होने से मुक्त हो जाए। क्योंकि दुनिया में इन नामों के कारण ही धर्म का जन्म नहीं हो पाता है। कोई तीन सौ फेथ, कोई तीन सौ समुदाय हैं सारी जमीन पर, और ये सब एक-दूसरे के विरोधी हैं। दो सौ निन्यानवे में प्रत्येक एक के विरोध में खड़े हैं। उनकी सारी ताकत आपस में लड़ती है और समाप्त हो जाती है।
धर्म भी वैसे ही एक शक्ति है, जैसे विज्ञान। और धर्म के सत्य भी वैसे ही युनिवर्सल हैं, वैसे ही सार्वलौकिक जैसे विज्ञान के। लेकिन हम चंूकि अभी धर्म के जगत में बहुत पक्षपातपूर्ण हैं। और हमारी धर्म के संबंध में चिंतना भी कोई तीन-चार हजार वर्ष पुरानी है। इसलिए, इसलिए वह चिंतना विज्ञान के समक्ष एक बल की भांति खड़ी नहीं हो पाती, और निरंतर पराजित हो जाती है।
तो कुछ दो-तीन बातें इस संबंध में विचार करना जरूरी है। पहली बात तो यह कि मनुष्य चाहे बाहर कुछ भी खोजे, आज नहीं कल उसे भीतर की कमी और अभाव अखरना शुरू होता है। क्योंकि मैं चाहे कुछ भी पा लंू, और कितने ही बड़े भवन और कितने ही बड़े उपकरण और कितने ही बड़े साधन जुटा लंू, लेकिन अगर मेरे भीतर मैं एक आनंदपूर्ण आत्मा की थिरक को अनुभव न कर पाऊं, तो मैंने जो भी पाया है, वह मेरे ही द्वारा पाया हुआ मेरे लिए बंधन हो जाएगा। और मैंने जो पाया है वह भी मुझे दुख देने लगेगा।
क्योंकि सुख पाने की क्षमता एक दृष्टि, एक एप्रोच, एक कोण से व्यक्तित्व को खड़े होकर देखने की है। जब हम एक खास जगह से भीतर जीवन की चीजों को देखते हैं तब वे आनंददायी हो जाती हैं। और अगर भीतर से हमारा कोई आनंद के बिंदु पर खड़े होकर देखने की क्षमता और पात्रता न हो तो जीवन दुखदायी हो जाता है।
एक सुबह एक आदमी ने एक गांव के बाहर बैठे हुए वृद्ध से आकर पूछा अपनी बैलगाड़ी को रोक कर कि इस गांव के लोग कैसे हैं? मैं यहां निवास करना चाहता हंू। उस बूढ़े आदमी ने कहाः इसके पहले कि मैं बताऊं इस गांव के लोग कैसे हैं, क्या तुम कृपा करोगे कि उस गांव के लोग कैसे थे जिनको तुम छोड़ कर आ गए हो? उस आदमी ने कहाः उन लोगों का नाम लेते मेरी आंखों में आग जलने लगती है, मेरे हृदय में क्रोध की ज्वालाएं उठ आती हैं। उन जैसे दुष्ट लोग तो जमीन पर खोजने असंभव। उस बूढ़े ने कहाः मित्र, इसलिए मैंने पूछा, इस गांव के लोग तो और भी बुरे हैं। मैं तो कोई सत्तर वर्ष से इनके बीच हंू। तुम कोई और गांव खोज लो। जिस गांव को तुम छोड़ कर आए हो उस गांव से भी बुरे लोग तुम यहां पाओगे।
वह आदमी चला गया। और वह जा भी नहीं पाया था कि उसी के पीछे एक और बैलगाड़ी आकर रुकी। कोई और यात्री, और उसने भी वही पूछा उस बूढ़े से कि इस गांव के लोग कैसे हैं? हम यहां रुकना चाहते हैं, यहीं बस जाना चाहते हैं। उस बूढ़े ने कहाः पहले मुझे यह बताओ कि जिस गांव से तुम आते हो वहां के लोग कैसे हैं? उस आदमी की आंखें खुशी से भर गईं और आंखों में खुशी के आंसू आ गए और उसने कहा कि उन लोगों की याद भी हृदय को बड़ी स्मृति से भर देती है, उतने भले लोग पृथ्वी पर कहीं खोजने कठिन हैं। दुख तो, दुर्भाग्य तो यही है कि कुछ मजबूरियों में मुझे उस गांव को छोड़ना पड़ा। लेकिन यही आशा लेकर आया हंू कि आज नहीं कल फिर उसी गांव में जाकर बस जाऊंगा। इतने प्यारे लोग खोजने कठिन हैं। उस बूढ़े ने कहाः आओ, तुम्हारा स्वागत है। मैं सत्तर वर्ष से इस गांव में रहता हंू, इस गांव के लोग तुम उस गांव से भी अच्छे पाओगे।
जीवन को देखने की एक दृष्टि यदि आनंदपूर्ण हो, तो बाहर सब आनंदपूर्ण हो जाता है। और जीवन को देखने की दृष्टि यदि दुख और अंधेरे से भरी हो, तो बाहर सब अंधकार हो जाता है।
विज्ञान बाहर की दुनिया को बना रहा है; जरूर बनाया जाना चाहिए। बाहर की दुनिया जैसे मिली है उसे वैसा ही केवल वे स्वीकार कर सकते हैं जो हर अर्थों में काहिल, सुस्त, और जिनके जीवन में कुछ भी करने की कोई उमंग, कोई जीवन को बदलने की आकांक्षा नहीं है। निश्चित ही बाहर की दुनिया बदली जानी चाहिए। निश्चित ही बाहर की दुनिया और बेहतर निर्मित की जा सकती है। लेकिन इतनी ही बात अधूरी होगी और भूल भरी होगी, क्योंकि बाहर की दुनिया वही दे सकती है जो भीतर का मनुष्य लेने की तैयारी में होता है। और अगर भीतर का मनुष्य गलत है, तो बाहर की ठीक दुनिया भी नरक बन जाएगी।
प्रश्न बिलकुल यह नहीं है कि बाहर की दुनिया कैसी है, बहुत गहरे में प्रश्न यही है कि भीतर का मनुष्य कैसा है। भीतर अगर हमारे चीजों को देखने का दृष्टिकोण दुखपूर्ण है तो बाहर की दुनिया दुखपूर्ण हो जाएगी।
और अब तक दुनिया के तथाकथित धर्मों ने अगर हम ठीक से देखें, तो बाहर की दुनिया के दुख को अपने समर्थन में एक उपकरण बना लिया है। वे यह कहते हैं कि दुनिया दुख से भरी है, जन्म-मरण दुख से भरा है, इसलिए तुम एक ऐसे मोक्ष की खोज करो जहां सब आनंद ही आनंद हो।
ये झूठी और नासमझी की बातें हैं। ये इसलिए झूठी और नासमझी की बातें हैं कि इस भांति वे भी बाहर की दुनिया पर अति बल दे देते हैं और भीतर के मनुष्य को भूल जाते हैं। क्योंकि यही दुनिया कुछ लोगों के लिए अपूर्व आनंद की घड़ी बन जाती है।
तो सवाल यह बहुत बड़ा नहीं है कि इसको छोड़ कर कोई कहीं भाग जाए। सवाल बहुत बड़ा यही है कि वह इसके बीच अपने को कैसे परिवर्तित कर ले कि जिसे हम दुख और नरक की भांति जानते हैं वह आनंद और मोक्ष की भांति बन जाए?
धर्म का बुनियादी संबंध व्यक्ति केे भीतर देखने की क्षमता और पात्रता को परिवर्तित करने से है। और विज्ञान का बुनियादी संबंध वस्तुओं को अधिकतम सुविधापूर्ण बनाने से है। और धर्म का संबंध जीवन को अधिकतम आनंद की दृष्टि से देखने से है। धर्म के बिना तो विज्ञान अधूरा होगा ही, धर्म के बिना तो विज्ञान घातक होगा ही, धर्म के बिना तो जीवन में आनंद की कोई किरण नहीं हो सकती।
लेकिन धर्म से मेरा मतलब हिंदू-मुसलमान से नहीं। धर्म से मेरा मतलबः निरंतर बताई गई बातों, शास्त्रों और परंपराओं से नहीं है। धर्म से मेरा मतलब हैः जीवन को आनंदपूर्ण ढंग से जीने के उपाय से है। जो व्यक्ति भी, चाहे वह एक कवि हो और गीत गाता हो, और चाहे एक मूर्तिकार हो और मूर्ति बनाता हो, और चाहे एक वैज्ञानिक हो और खोज करता हो, चाहे एक अध्यापक हो, चाहे एक दुकानदार हो, चाहे एक चमार हो और जूते बनाता हो--जो व्यक्ति भी अपने जीवन की समग्रता को आनंद की दृष्टि से देखने में सफल हो जाता है, उसे मैं धार्मिक मनुष्य कहता हंू। जो व्यक्ति भी अपने जीवन को आनंद के बिंदु से देखने में समर्थ हो जाता है, उसे मैं धार्मिक व्यक्ति कहता हंू। जो व्यक्ति भी हर घड़ी और हर स्थान पर मोक्ष में रहने में समर्थ हो जाता है, उसे मैं धार्मिक व्यक्ति कहता हंू।
वह व्यक्ति धार्मिक नहीं है जो मोक्ष की खोज करता है कहीं, कहीं दूर आकाश में, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं है जो जन्म-मरण के पार मोक्ष की खोज करता है। वही व्यक्ति धार्मिक है जो अपने भीतर इसी घड़ी और अभी मोक्ष को पाने में समर्थ है। मोक्ष को पाने का अर्थ है कि उसके देखने की, जीवन को देखने की दृष्टि बदल गई है।
दो फकीर जापान में एक संध्या अपने झोपड़े पर वापस लौटे हैं। वर्षा के दिन आ गए हैं। और पूरे बादल आकाश में घिर गए हैं और आज नहीं कल पानी गिरेगा। वे दोनों बहुत दिन से यात्रा पर थे। और वर्षा के भय से वर्षा के पहले घर पहंुच जाएं, अपने झोपड़े पर भागे हुए आ रहे थे। लेकिन जैसे ही वे झोपड़े के पास पहंुचे, ठगे से रह गए। उनमें से एक तो बोलाः हे परमात्मा! इसीलिए तुम पर शक आ जाता है, यह क्या किया तुमने?
हवाओं ने उस झोपड़े के आधे छप्पर को उड़ा दिया।
उनमें से एक फकीर ने कहा कि इसी से तो शक आ जाता है तुम्हारे होने पर। गांव में पापियों के बड़े-बड़े महल खड़े हैं और यह गरीब फकीरों का झोपड़ा ही तुमको उड़ाने को मिला? अगर हवाओं को ही जोर-आजमाइश करनी थी तो किसी महल पर करनी थी? अगर तुम्हारा ही दिल चीजों को तोड़ने का हो गया था तो कोई बड़ा महल तोेड़ देते, यह गरीबों के झोपड़े को तोड़ने में तुम्हें शर्म भी न आई? उसने अपने दूसरे फकीर से कहाः देखते हो, लेकिन दूसरे की तरफ देख कर वह हैरान हो गया।
वह दूसरा फकीर घुटने टेक कर हाथ जोड़े आकाश की तरफ बैठा है, उसकी आंखों से आनंद के आंसू बहे जाते हैं। वह हैरान हुआ। उसने उसे हिलाया और पूछा कि यह क्या करते हो? उसने कहाः मैं परमात्मा को धन्यवाद देता हंू। बड़ी है उसकी कृपा और अनुकंपा, नहीं तो हवाओं का क्या भरोसा, पूरा झोपड़ा भी उड़ा ले जा सकती थीं। उन्होंने आधा छप्पर छोड़ दिया। आंधियों का कौन सा विश्वास, पूरे छप्पर को भी गिरा सकती थीं, लेकिन आधा छप्पर छोड़ दिया। तो बिना धन्यवाद दिए कैसे रहंू? उसकी कृपा, उसकी अनुकंपा बड़ी है।
और रात वे दोनों उसी झोपड़े में सोए। पहला तो रात भर नहीं सो सका, रात भर उसे चिंता पकड़े रही। दूसरा बहुत गहरी नींद भी सोया और सुबह उठ कर उसने एक गीत लिखा। और उस गीत में उसने कहाः हे परमात्मा! मुझे पता ही नहीं था कि आधे छप्पर का आनंद कैसा होता है, अन्यथा हम तुम्हारी हवाओं को कष्ट न देते, हम खुद ही आधा छप्पर गिरा देते। रात ही मैंने देखा, जब भी आंख खुली, तो आधे छप्पर से आकाश के तारे भी दिखाई पड़े, चांद भी दिखाई पड़ा। और अब तो अदभुत हो जाएगा, वर्षा आने को है, आधे में हम सो भी जाएंगे, आधे में वर्षा की बंूदें गिरेंगी, उनका संगीत भी सुनेंगे, इसका हमें खयाल ही नहीं था। नहीं तो तुम्हारी हवाओं को कष्ट न देते, हम खुद ही आधा गिरा देते। दूसरा भी रात उसी झोपड़े के नीचे था, लेकिन रात भर क्रोध में और गुस्से में था, और रात भर चिंता में था। इन दोेनों व्यक्तियों में दूसरे व्यक्ति को मैं धार्मिक कहता हंू, पहले व्यक्ति को धार्मिक नहीं।
जीवन को जो उसके आनंद और आलोक से भरे पहलू की ओर से देखने में समर्थ हो जाता है वह धार्मिक है, और तब, तब उसे कोई मोक्ष खोजना नहीं पड़ता; उसे मोक्ष मिल जाता है। और तब कहीं उसे दौड़ना नहीं पड़ता, वह जहां है वहीं, उसी जगह, उसी स्थिति, उसी दशा में वह उसे पा लेता है जिसे पाए बिना जीवन, जीवन कभी भी एक, एक सौंदर्य, जीवन कभी भी एक धन्यता नहीं हो सकता है।
धर्म से मेरा अर्थ हैः जीवन की आनंदपूर्ण दृष्टि को उपलब्ध कर लेना। विज्ञान से अर्थ हैः जो बाहर तुम्हारे चारों तरफ फैला हुआ जगत है, वह भी परमात्मा का है। वह जो पदार्थ है, वह भी परमात्मा का है। उसके भीतर जो छिपे हुए राज हैं, वे जो सीक्रेट्स हैं, वह जो मिस्टरी है, वह जो रहस्य है--उनको खोज लेना। उन रहस्यों को खोज कर जीवन बहुत समृद्ध हो सकता है। लेकिन जीवन की अगर दृष्टि उपलब्ध न हो जो, जो चीजों से आनंद ले सकती है, तो नहीं, तो फिर और जीवन दुखी हो जाएगा, भीतर दुख होगा और बाहर ताकत होगी, और कुछ नहीं हो जाएगी।
इसलिए धर्म के जो प्रचलित नाम हैं उनसे नहीं, बल्कि धर्म की जो मौलिक क्रांति है मनुष्य के मन में, उसको विचार करना चाहिए, उसको खोजना चाहिए और देखना चाहिए। इससे नहीं कि आप रोज मंदिर जाते हैं इससे धार्मिक हैं। जिसको भी धोखा देना होता है धार्मिक होने का, वह रोज मंदिर जा सकता है। इसमें कोई बहुत कठिनाई नहीं है। इससे नहीं कि आप कैसे कपड़े पहनते हैं। हो सकता है आप लंगोटी लगा लें, इससे कोई धार्मिक होने का संबंध नहीं है। हो सकता है आप रोज सुबह उठ कर गीता पढ़ते हों, इससे भी, या कुरान पढ़ने से धार्मिक होने का संबंध नहीं है।
धार्मिक होने का संबंध है प्रतिक्षण जीवन को आप कैसा लेते हैं--एक आनंद की भांति या एक दुख की भांति। जीवन जैसा आपके सामने प्रकट होता है वह एक प्रेमपूर्ण आमंत्रण की भांति या एक बोझ की भांति। और अब तक जो तथाकथित धार्मिक हैं उसने जीवन को बोझ के ढंग से लिया है, वह कहता है कि जन्म-मृत्यु से छुटकारा चाहिए।
रवींद्रनाथ ने मरते वक्त अपने एक मित्र को कहाः एक ही प्रार्थना और करनी है परमात्मा से कि अगर तुम मुझे इस योग्य समझे कि मुझे फिर जीवन मिले, तो मुझे फिर जीवन देना, क्योंकि मैं धन्य हुआ तेरे जीवन को पाकर। और मैंने वह सब जाना जो प्रेमपूर्ण था और जो आनंदपूर्ण था। और अगर मैं न जान सका हंू तो उसमें भूल मेरी रही होगी, तेरी कोई भूल नहीं थी।
जीवन को जो इतना आनंद से लेगा वही धार्मिक है। लेकिन हम तो जानते हैं उन लोगों को जो चेहरे उतार कर जीवन को लेते हैं, उनको हम धार्मिक कहते हैं--उदास और गंभीर। नहीं, ये रुग्ण हैं, उदास और गंभीर व्यक्ति रुग्ण हैं। आनंदित और प्रफुल्लित और जिसके प्राण किसी गीत से गंूज रहे हों और किसी संगीत से।
चीन में तीन फकीर हुए। उनका नाम ही थ्री लाफिंग सेंट्स हो गया था, तीन हंसते हुए फकीर। वे जिस गांव में गए उस गांव में उन्होंने कोई उपदेश नहीं दिया; उस गांव के चैरस्ते पर खड़े होकर बस वे हंसने लगे और तीनों इतने जोर से हंसते और उनकी हंसी ऐसी मुक्त और ऐसी आनंदपूर्ण कि सारे गांव में धीरे-धीरे हंसी की लहर फैल जाती। और जितने दिन तक वे उस गांव में रहते उस गांव में लोग हंसते ही रहते, और उस हंसी में वे कुछ जान पाते।
जीवन को जो गंभीरता से लेता है वह जान नहीं पाता। जीवन को तो बच्चों जैसी सरलता से और आनंद से जो लेता है वही जान पाता है।
उनमें से एक फकीर मरा, तो गांव के लोगों ने कहा कि अब तो निश्चित ही उसके दो साथी उदास हो जाएंगे और दुखी हो जाएंगे। लेकिन वे दो साथी सुबह ही नाचते हुए गांव में निकले। और लोगों ने उनसे पूछा कि आज तुम दो ही हो और एक कहां? तो उन्होंने कहाः वह एक तो बहुत धन्यभागी है, वह हमसे पहले बड़ी यात्रा पर निकल गया। और हम उसको नाच कर और गीत गाकर विदा देने की तैयारी कर रहे हैं। क्योंकि जिसके साथ इतने आनंद के क्षण बिताए, उसे उदास और आंसू भरी आंखों से विदा देना मित्रता के प्रति घात होगा। और हम नाच कर और गीत गाकर तैयारी कर रहे हैं और हंस कर, हम उसे हंसते हुए विदा दे सकें।
और वह जो आदमी मर गया था, उसने सोचा कि जब मैं मर जाऊंगा--लोग मुझे बहुत प्रेम करते हैं, वे जब मुझे चिता पर चढ़ाएंगे तो बहुत दुखी हो जाएंगे, और यह शुभ न होगा कि उनके दुख में मैं विदा लंू। तो उसने अपने साथियों से कहा कि तुम मेेेरे वस्त्र मत उतारना, मैं जिन वस्त्रों में मरूं उन्हीं वस्त्रों में मुझे चिता पर चढ़ा देना। अंतिम उसकी इच्छा थी, तो वैसा ही किया गया।
गांव भर उदास था। वे दो मित्र तो नाचते हुए, गीत गाते हुए मरघट तक गए। लेकिन गांव भर उदास था। लेकिन फिर जैसे ही उसकी लाश चिता पर रखी गई, धीरे-धीरे हंसी फैलने लगी और उस कब्र के, उस चिता के आस-पास इकट्ठे लोग हंसने लगे और नाचने लगे। क्या हुआ?
उस मरते हुए फकीर ने अपने कपड़ों में फूलझड़ियां और पटाखे छिपा रखे थे, वे फूटने लगे चिता पर और लोग हंसने लगे। और उन्होंने कहाः वह मरते हुए भी हमें हंसा रहा है!
धार्मिक व्यक्ति वह है, जो आनंद से जीता है और आनंद से मरता है। और जो आदमी आनंद से जीने का रहस्य पा जाता है, मृत्यु भी उसे आनंद हो जाती है। क्योंकि मृत्यु उसे परमात्मा से मिलन का अर्थ ले लेती है। वह जीवन से विदाई नहीं होती, परम जीवन से मिलन होे जाता है।
धार्मिक व्यक्ति मैं उसे कहता हंू जो प्रतिक्षण, प्रतिक्षण आनंद में जीने की खोज में हो। लेकिन इन सारे लोगों को मैं धार्मिक नहीं कहता--जो वस्त्र बदल लेते हैं, घर बदल देेते हैं, गांव छोड़ देते हैं, परिवार छोड़ देते हैं और किसी दूरगामी मोक्ष की पीड़ा को... किसी दूरगामी मोक्ष की कामना में पीड़ित और परेशान होते हैं। ये तो सब लोभी लोग हैं। इनकी तृप्ति इनके लोभ की तृप्ति इस संसार से भी नहीं होती, तो ये मोक्ष चाहते हैं।
ये तो अत्यंत कामी लोग हैं, इनकी तृप्ति संसार के क्षणभंगुर सुखों से नहीं होती, तो ये स्थायी सुख चाहते हैं। ये बिलकुल ऐसा सुख चाहते हैं जो कभी खंडित न हो। ऐसा मोक्ष चाहते हैं जो कभी मिटे नहीं। इनकी चंूकि जीवन की छोटी-छोटी चीजों में इन्हें कोई खुशी नहीं है। ये सब परमात्मा को पाना चाहतेे हैं। उसी को पाकर ये खुश हो सकेंगे।
लेकिन मैं निवेदन करूं, जिसने जीवन के छोटे से रास्ते पर खिले हुए छोटे-छोटे फूलों में खुशी नहीं पाई, वह परमात्मा से मिल कर भी खुश नहीं हो सकेगा। और जिस व्यक्ति ने जीवन के क्षुद्रतम प्रवाह में छोटी-छोटी बंूदों में भी आनंद की पुलक नहीं देखी, वह अगर मोक्ष में भी पहुंच जाए तो आनंदित नहीं हो सकेगा। क्योंकि वह तो वही रहेगा, जो था। और उसके देखने की दृष्टि वही रहेगी। उसके देखने का कोण वही रहेगा। चीजों को समझने की वृत्ति वही रहेगी। उसे मोक्ष में बिठा देने पर भी वह मोक्ष से मुक्त होेने की किसी साधना में लग जाएगा। जो मुक्त होने की ही कोशिश में लगा है वह मोक्ष में भी मुक्त होने की कोशिश में लग जाएगा।
धर्म का संबंध मुक्त होने से कम, जीवन को उसकी पूरी गहराई में जी लेने से ज्यादा है। इस मुक्ति की आकांक्षा में जीवन को उसकी पूरी गहराई में जीने से हमें वंचित कर दिया है। और चंूकि धर्म के तल पर हमारा कोई जीवन नहीं है। फिर सीधा विज्ञान रह गया और शरीर का जीवन रह गया।
तो मैं निवेदन करता हंू, जिसे हम आमतौर से जीवन जानते हैं उससे बड़ा जीवन भी हमारे निकट है। और इसी जीवन में जो सुख को खोज रहा है, वह गलती में है। उसे थोड़ा भीतर अपने व्यक्तित्व को वैसे सृजन से वैसी सृजनशीलता से गुजारना होगा, जहां वह और बड़े आनंदों को देखने में समर्थ हो जाए। जहां पत्थर दिखाई पड़ रहा है वहां परमात्मा दिखाई पड़ सकता है, केवल देखने वाली आंखें चाहिए। और जहां कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा, वहां सब कुछ दिखाई पड़ सकता है, केवल देखने वाला हृदय चाहिए। और देखने वाला हृदय...
जिस राबिया की मैंने बात कही, एक दिन उस राबिया को लोगों ने घर के बाहर देखा वह कुछ खोज रही है। कोई राहगीर निकलता था, उसने पूछा, क्या खोजती हो? उसने कहाः मेरी सुई खो गई है, उसे मैं खोजती हंू। राहगीर दयालु था। बूढ़ी औरत का साथ देेने के लिए वह भी सुई खोजने लगा और दो-चार लोग निकले, वे भी साथ देने लगे। और तभी एक व्यक्ति ने खड़े होकर पूछा कि सुई है बहुत छोटी चीज, रास्ता है बहुत बड़ा, अंधेरा उतरता आ रहा है, तुम ठीक-ठीक बताओ सुई कहां खोई? नहीं तो बहुत मुश्किल है खोज लेना।
उस राबिया ने कहाः यह न पूछो तो अच्छा है। पहले भी जो लोग खोज रहे हैं उन्होंने भी नहीं पूछा, तुम भी क्यों पूछते हो? उसने कहा कि बड़ी गड़बड़ बात है, बाकी लोग भी रुक गए। उन्होंने कहा कि यह तो हमें खयाल में भी नहीं आया कि हम पहले यह पूछें कि सुई खोई कहां है?
उस राबिया ने कहाः सुई तो मेरी कोठरी के भीतर खोई है, लेकिन मैं हंू गरीब औरत तो मेरे पास दीया जलाने का कोई उपाय नहीं है। तो जब सुई मेरी गिर गई तो अंधकार होेने लगा भीतर, तो मैं बाहर की झोपड़ी पर दरवाजे पर दहलान में खोजने आ गई, वहां थोड़ी रोशनी थी सूरज की। फिर वह भी चली गई, तो अब मैं सड़क पर खोज रही हंू। क्योंकि जहां रोशनी नहीं, वहां खोजेंगे कैसे?
उन लोगों ने कहाः तुम बड़ी पागल औरत हो! और जब भी तुम करती हो कोई न कोई पागलपन करती हो। यह क्या पागलपन है? अगर सुई भीतर खोई है तो रोशनी भीतर ले जानी पड़ेगी, बजाय इसके कि जहां रोशनी है वहां खोजा जाए। कितना ही खोजें सुई नहीं पाई सकती।
वह राबिया खूब हंसने लगी, और उसने कहा कि यही समझाने को मैं सुई खोजने लगी, मेरी कोई सुई खोई भी नहीं है। मैं तो हर आदमी को देखती हंू, वह बाहर खोज रहा है। और कोई भी यह नहीं पूछता कि जिसे हम बाहर खोज रहे हैं, क्या वह बाहर खोया है?
नहीं, लेकिन आंखों की रोशनी बाहर खोजती है, हाथ बाहर फैलते हैं, कान बाहर सुनते हैं, सब हमारी इंद्रियां बाहर की तरफ रोशनी फेंकती हैं। इसलिए बाहर खोजते हैं, बिना इस बात को जाने कि उसे खोया कहां है।
समझदार व्यक्ति वह होगा जो सबसे पहले यह पूछ ले कि मैंने खोया कहां है? मैंने क्या खोया है? और अगर इसका भी उत्तर न मिले, तो भी यही उचित और विवेकपूर्ण होगा कि इसके पहले कि वह बड़ी पृथ्वी पर खोजने निकल जाए, वह कम से कम अपने भीतर पहले खोज ले। अगर वहां न पा सके, तो फिर बाहर खोजने निकल जाए।
लेकिन अनुभव यही है कि जिन्होंने भीतर खोजा उन्होंने पा लिया। एक भी व्यक्ति ने मनुष्य के पूरे इतिहास में यह नहीं कहा है कि मैंने भीतर खोजा और मुझे नहीं मिला। और एक भी व्यक्ति ने यह भी नहीं कहा है कि मैंने बाहर खोजा और मुझे मिल गया हो। बाहर की खोज निरपवाद रूप से असफल रही है; भीतर की खोज निरपवाद रूप से सफल रही है।
भीतर कौन है, इसकी खोज में उतरना धर्म है। भीतर क्या है, इसकी तरफ आंखें खोलना धर्म है। कैसे वह आंखें खुल सकती हैं, उसकी मैं कल की चर्चा में आपसे बात करूंगा। अभी तो मैंने आपसे ये दो बातें कहीं हैंः कैसे आंख खुल सकती है भीतर के सत्य के प्रति। कैसे वहां प्रकाश पहंुच सकता है, इसकी मैं कल आपसे बात करूं।
एक बात अंत में जरूर आपसे कह दंू, कि चाहे शास्त्र कुछ कहें, चाहे सदगुरु कुछ कहें, जब तक खुद की आंख न खुल जाए, तब तक धर्म का कोई अनुभव नहीं होता। विज्ञान के साथ एक सुविधा है, विज्ञान एक ट्रेडीशन है, एक परंपरा है। विज्ञान वैयक्तिक अनुभव नहीं है। बिजली जल रही है, हमें कुछ भी पता नहीं कि कैसे जल रही है। लेकिन हम बटन दबाते हैं और जल जाती है। कोई जानता होगा; लेकिन हम सबको इस बात को जानने की जरूरत नहीं होती। विज्ञान प्रत्येक व्यक्ति को जानने की बात नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति उपयोग कर सकता है।
धर्म के साथ उलटी बात है। धर्म को प्रत्येक व्यक्ति को जानना होता है, तो ही उपयोग कर सकता है, अन्यथा उपयोग नहीं कर सकता। धर्म बिलकुल निजी, बिलकुल इंडिविजुअल, बिलकुल वैयक्तिक अनुभव है। जैसे प्रेम का अनुभव है, वैसे ही परमात्मा का अनुभव है--अत्यंत वैयक्तिक। किसी दूसरे के अनुभव से कुछ भी आंख नहीं खुलती, और किसी दूसरे के अनुभव से कुछ भी पता नहीं चलता।
एक अंधे आदमी के सामने हम प्रकाश की बातें करें, उसे कुछ भी पता नहीं चलता। लेकिन आंख खुल जाए तो वह प्रकाश को जान लेता है। इसलिए धर्म अत्यंत व्यक्तिगत दर्शन है। खुद की आंख खुल जाए तो ही हम जान सकते हैं--तो ही, और कोई दूसरा उपाय नहीं। उधार और दूसरों से सीख कर धर्म के जगत में कुछ भी नहीं हो सकता।
इसलिए तो विज्ञान विद्यापीठों और विश्वविद्यालय में पढ़ाया जा सकता है। धर्म नहीं पढ़ाया जा सकता। पढ़ाने का कोई उपाय नहीं है। विज्ञान एक सामूहिक संपत्ति बन जाता है। धर्म निरंतर वैयक्तिक अनुभव है। और जब भी हम उसे सामूहिक संपत्ति बनाते हैं, तब हिंदू पैदा हो जाता है, मुसलमान पैदा हो जाता है, ईसाई--जो कि बीमारियां हैं, जो कि धर्म नहीं है। जब भी हम धर्म को सामूहिक बनाते हैं तब एक आर्गनाइजेशन खड़ा हो जाता है, जो कि खतरनाक सिद्ध होता है।
और स्मरण रखें, जब भी कोई आर्गनाइजेशन होता है तो शैतान सबसे पहले उस पर कब्जा कर लेता है। शैतान हमेशा कोशिश में रहता है कि कहीं लोग इकट्ठे हो जाएं, तो वह कब्जा कर ले। और अगर लोग इकट्ठे न हों तो शैतान कोशिश करता है कि इकट्ठे कर लो।
एक बार शैतान को खबर दी, उसके मित्रों ने खबर दी। और उसके बहुत मित्र हैं सब तरफ--उसके अखबार वाले, और उसके पत्रकार, और उसकी न्यूज एजेंसीज हैं। उन्होंने एक दफे शैतान को खबर दी कि एक आदमी को सत्य उपलब्ध हुआ जा रहा है। शैतान अपने साथियों को लेकर भागा। रास्ते में ही उसके आकर और मित्रों ने खबर दी कि आप व्यर्थ जा रहे हैं, उसको तो सत्य उपलब्ध हो गया है। शैतान ने कहाः तब जल्दी जाओ और गांव में खबर कर दो--गांव-गांव में ढोल पीट कर खबर कर दो कि फलां आदमी को सत्य उपलब्ध हो गया है। ताकि लोग उसके आस-पास इकट्ठे हो जाएं। और लोगों में ऐसा जोश भरो कि वे संगठित हो जाएं। बस वे संगठित हुए कि सत्य मर जाएगा। क्योंकि सत्य तो बिलकुल वैयक्तिक है। और जहां संगठन खड़ा हुआ वहां उपद्रव।
शैतान परेशान नहीं हुआ। उसने गांव में खबर कर दी, लोग इकट्ठे होने लगे, भीड़ लगने लगी और उन्होंने एक संगठन बना लिया। और संगठन के भीतर वह सत्य का दीया जला था, वह विलीन हो गया।
सभी संगठनों ने सत्य की हत्या की है। धर्म है बिलकुल वैयक्तिक। उसका आर्गनाइजेशन से, समूह से, संगठन से कोई वास्ता नहीं है। उसका तो प्रत्येक व्यक्ति की, उसकी निजी चेतना में उतरने से वास्ता है। और वे आंखें कैसे उस सत्य की तरफ उठ जाएं, उसके लिए कल आपसे बात करूंगा।

मेरी इन बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना है, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। परमात्मा, विज्ञान ने तो सबको सहज ही खड़ा कर दिया है इसमें, वह धीरे-धीरे सभी को धर्म में भी खड़ा कर सके, इसकी प्रार्थना करता हंू। सबके भीतर बैठे परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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