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गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-41)

बोधकथा-इक्तालीसवीं 

यह विचारणीय नहीं है कि विचारों में धर्म है या नहीं। विचार नहीं, धर्म जब प्राण ही बनता है, तभी सार्थक है। विचारों में तो धर्म बहुत है। वह धर्म उबारता कहां है? वह तो डुबोता ही है। विचारों की नाव में क्या सागर की यात्रा पर कोई निकलता है? लेकिन सत्य के सागर में तो व्यक्ति विचारों की नाव को लेकर ही निकल जाते हैं। फिर यदि वे किनारों पर ही डूबते देखे जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं। विचारों की नाव से तो कागज की नाव भी कहीं दूर ले जा सकती है। वह भी कहीं ज्यादा वास्तविक है। विचार तो स्वप्न की भांति हैं, उन पर भरोसा उचित नहीं है।
धर्म विचार में ही हो, तो उससे ज्यादा असत्य और कुछ भी नहीं है।
धर्म शास्त्रों में ही है, इसीलिए तो मृत है।
धर्म शब्दों में ही है, इसीलिए तो निष्क्रिय है।

धर्म संप्रदायों में ही है, इसीलिए तो धर्म धर्म ही नहीं है।
धर्म तो जीवन में हो, तभी जीवित बनता है। धर्म तो प्राणों के प्राण में हो, तभी सत्य बनता है। और जहां सत्य है, वहां शक्ति है, वहां गति है। जहां गति है, वहां जीवन है।


एक कैदी की मृत्यु हो गई थी। उसकी मृत देह के पास लोग इकट्ठे थे और रो नहीं, हंस रहे थे। यह देख मैं भी उस भीड में रुक गया था। बहुत बार उस कैदी ने सजाएं काटी थीं और शायद ही कोई जुर्म हो जो उसने न किया हो। उसके जीवन का अधिकांश कारागृहों में ही व्यतीत हुआ था। लेकिन आदमी वह बडे धार्मिक विचारों का था! धर्म की रक्षा के लिए, एक लट्ठ तो सदा ही उसके हाथों में रहता था। जब वह गालियां नहीं बकता था तो मूछों पर ताव देता हुआ राम-राम ही जपता रहता था। वह सदा कहा करता थाः ‘‘अनादर से मृत्यु भली!’’ यह उसका जीवन-सिद्धांत था। एक कागज में धार्मिक विधि से लिखवा कर उसने अपने इस मंत्र को ताबीज में बंद करवा कर भुजा में बांध रखा था। फिर जब उसे इतने से ही तृप्ति न हुई तो अंतिम बार जब वह कारागृह से छूटा तो उसने वे शब्द अपनी दोनों भुजाओं पर गुदवा भी लिए थे। रामनाम तो उसके शरीर में अनेक जगह गुदा ही हुआ था! उसका मृत शरीर सुबह की धूप में पडा था। उसका जीवन उसके जीवन की और उसकी दोनों बाहें उसके जीवन-दर्शन की घोषणा कर रही थीं! और तभी मैं समझ सका कि लोग रो क्यों नहीं रहे थे, और हंस क्यों रहे थे।
धर्म के नाम पर मनुष्य की जो स्थिति है, वह भी ठीक ऐसी ही है।
मैं आपसे यह जरूर पूछना चाहता हूं कि उस स्थिति पर रोना उचित है या कि हंसना उचित है?

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