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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-44)

बोधकथा-चव्वालीसवीं 

मैं प्रत्येक से पूछता हूं कि जीवन में तुम क्या खोज रहे हो? जीवन की खोज में ही जीवन का अर्थ और मूल्य छिपा है।
कोई यदि कंकड-पत्थर ही खोजता हो तो उसके जीवन का मूल्य उसकी खोज से ज्यादा कैसे होगा?
किंतु, अधिक व्यक्ति क्षुद्र की खोज में ही क्षुद्र हो जाते हैं और अंततः पाते हैं कि जीवन की संपदा उन्होंने ऐसी संपदा को खोजने में गंवाई है, जो संपदा ही नहीं थी।
यह उचित है कि किसी भी यात्रा के पहले हम ठीक से जान लें कि हम कहां पहुंचना चाहते हैं और क्यों पहुंचना चाहते हैं, और यह भी कि क्या गंतव्य यात्रा की कठिनाइयों और श्रम को झेलने योग्य भी है?

जो विचार कर नहीं चलता, वह अक्सर पाता है कि या तो वह कहीं पहुंचता ही नहीं, या फिर कहीं पहुंच भी जाता है तो जहां पहुंच जाता है, उस स्थान को पहुंचने योग्य ही नहीं पाता।
मैं चाहता हूं कि ऐसी भूल तुम्हारे जीवन में न हो, क्योंकि ऐसी भूल सारे जीवन को ही नष्ट कर देती है।


जीवन है छोटा। शक्ति है सीमित। समय है अल्प। इसीलिए, जो विचार से, सावधानी से और सजगता से चलते हैं, वे ही कहीं पहुंच पाते हैं।
एक फकीर था। नाम था उसका शिब्ली। किसी यात्रा पर था। मार्ग में एक युवक को कहीं तेजी से जाते हुए देखा तो उसने पूछाः ‘‘मित्र, कहां भागे जा रहे हो? ’’ उस युवक ने बिना ठहरे ही कहाः ‘‘अपने घर।’’ शिब्ली ने इस पर एक बडा अजीब सा सवाल किया। पूछाः ‘‘कौन सा घर? ’’
मैं भी तुमसे यही पूछता हूं। तुम भागे जा रहे हो। सभी भागे जा रहे हैं। मैं पूछता हूंः ‘‘कहां भागे जा रहे हो? ’’
यह सारी दौड कहीं अंधी तो नहीं है?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि सब भाग रहे हैं, इसलिए तुम भी भाग रहे हो बिना यह जाने कि कहां जाना है?
काश, इसके उत्तर में तुम भी वही कह सको, जो उस युवक ने शिब्ली को कहा था, तो मेरे प्राण आनंद से नाच उठेंगे!
उस युवक ने कहा थाः ‘‘एक ही तो घर है। परमात्मा का घर। उसकी ही खोज में हूं।’’
निश्चय ही शेष सब स्वप्न है--शेष किसी भी घर की खोज स्वप्न है।
घर तो एक ही है--वास्तविक घर तो एक ही हैः परमात्मा का घर। जो उसे खोजना चाहता है, उसे स्वयं को ही खोजना पडता है, क्योंकि स्वयं में ही वह छिपा हुआ है।
क्या परमात्मा के अतिरिक्त कोई और घर भी है?
और क्या स्वयं के अतिरिक्त परमात्मा को कहीं और भी पाया जा सकता है?
मैं शिब्ली की जगह होता तो उस भागते युवक से एक सवाल और पूछता। पता नहीं वह क्या उत्तर देता, लेकिन सवाल तो मैं तुम्हें बता ही दूं।
मैं उससे कहताः ‘‘मित्र, परमात्मा को पाना है तो भाग क्यों रहे हो? कहां भागे जा रहे हो? जो यहीं है, उसे भाग कर कैसे पाओगे? जो इसी क्षण है, अभी है, उसे कभी भविष्य में पाने की कामना क्या भ्रांति नहीं? और जो भीतर है, उसे भाग कर खोया ही जा सकता है। उसे पाने के लिए क्या उचित नहीं है कि ठहरो और रुको और स्वयं में देखो? ’’

ओशो

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