कुल पेज दृश्य

शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-58)

बोधकथा-अट्ठावनवी  

मैं एक महानगरी में था। वहां कुछ युवक मिलने आए। वे पूछने लगेः ‘‘क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं? ’’ मैंने कहाः ‘‘नहीं। विश्वास का और ईश्वर का क्या संबंध? मैं तो ईश्वर को जानता हूं।’’
फिर मैंने उनसे एक कहानी कही।
किसी देश में क्रांति हो गई थी। वहां के क्रांतिकारी सभी कुछ बदलने में लगे थे। धर्म को भी वे नष्ट करने पर उतारू थे। उसी सिलसिले में एक वृद्ध फकीर को पकड कर अदालत में लाया गया। उस फकीर से उन्होंने पूछाः ‘‘ईश्वर में क्यों विश्वास करते हो? ’’ वह फकीर बोलाः ‘‘महानुभाव, विश्वास मैं नहीं करता। लेकिन, ईश्वर है। अब मैं क्या करूं? ’’ उन्होंने पूछाः ‘‘यह तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ कि ईश्वर है? ’’ वह बू.ढा बोलाः ‘‘आंखें खोल कर जब से देखा, तब से उसके अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं पडता है।’’

उस फकीर के प्रत्युत्तरों ने अग्नि में घृत का काम किया। वे क्रांतिकारी बहुत क्रुद्ध हो गए और बोलेः ‘‘शीघ्र ही हम तुम्हारे सारे साधुओं को मार डालेंगे। फिर...? ’’


वह बू.ढा हंसा और बोलाः ‘‘जैसी ईश्वर की मर्जी!’’
‘‘लेकिन हमने तो धर्म के सारे चिह्नों को ही मिटा डालने का निश्चय किया है। ईश्वर का कोई भी चिह्न हम संसार में न छोडेंगे।’’
वह बू.ढा बोलाः ‘‘बेटे! यह बडा ही कठिन काम तुमने चुना है, लेकिन ईश्वर की जैसी मर्जी। सब चिह्न कैसे मिटाओगे? जो भी शेष होगा, वही उसकी खबर देगा। कम से कम तुम तो शेष रहोगे ही, तो तुम्हीं उसकी खबर दोगे। ईश्वर को मिटाना असंभव है, क्योंकि ईश्वर तो समग्रता है।’’
ईश्वर को एक व्यक्ति की भांति सोचने से ही सारी भ्रांतियां खडी हो गई हैं।
ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं। वह तो जो है, वही है।
और ईश्वर में विश्वास करने के विचार से भी बडी भूल हो गई है।
प्रकाश में विश्वास करने का क्या अर्थ? उसे तो आंखें खोल कर ही जाना जा सकता है।
विश्वास अज्ञान का समर्थक है और अज्ञान एकमात्र पाप है।
आंखों पर पट्टियां बंधा विश्वास नहीं, वरन पूर्णरूपेण खुली हुई आंखोंवाला विवेक ही मनुष्य को सत्य तक ले जाता है।
और, सत्य ही परमात्मा है। सत्य के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है।

ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें