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मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-24)

बोधकथा-चौबिसवी 

मैं एक दिन राह के किनारे बैठा था। वृक्षों की घनी छाया में बैठा-बैठा राह चलते लोगों को देखता रहा। उन्हें देख कर बहुत से विचार मेरे मन में आए। वे कहीं भागे चले जा रहे थे। बच्चे, जवान, बूढे, स्त्री, पुरुष--सभी भागे जाते थे। उनकी आंखें कुछ खोजती प्रतीत होती थीं और उनके पैर किसी बडी यात्रा में संलग्न थे। लेकिन वे कहां भागे जा रहे थे? क्या था उनका गंतव्य? और क्या अंत में वे पावेंगे कि कहीं पहुंचे?
यही विचार तुम्हें देख कर भी मेरे मन में उठता है।

और उस विचार के साथ ही साथ मैं एक गहरी पीडा से भर जाता हूं। क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे। नहीं पहुंचोगे इसलिए, कि तुम्हारा मन और तुम्हारे चरण परमात्मा के विरोध में चल रहे हैं।

जीवन में कहीं पहुंचने का राज हैः परमात्मा की दिशा में चलना। उसके अतिरिक्त कोई भी दिशा, कोई भी मार्ग कहीं नहीं पहुंचाता। परमात्मा की दिशा में बहो। उसके विपरीत तैर कर मनुष्य केवल स्वयं को तोडता और नष्ट करता है।

मनुष्य का भय क्या है? उसकी चिंता क्या है? उसका दुख क्या है? उसकी मृत्यु क्या है?
मैंने देखाः परमात्मा के विरोध में तैरने की अहं चेष्टा से ही ये सब रुग्णताएं पैदा होती हैं।
अहंकार दुख है। अहंकार रोग है। क्योंकि अहंकार परमात्मा के विरोध की दिशा है। और परमात्मा का विरोध स्वयं का विरोध है।
मैंने एक घटना सुनी है। एक छोटे से वायुयान का चालक 150 मील प्रतिघंटा की चाल से उडा जा रहा था। अचानक उसने पाया कि वह एक भयंकर आंधी की धारा में पड गया है। अंधड बहुत तूफानी था। संभवतः वह भी 150 मील प्रतिघंटा की गति से ही यान की विरोधी दिशा में भागा जा रहा था। इस प्रचंड आंधी में फंसे चालक के प्राण संकट में थे और उसके प्राण का बचना संभव नहीं दीखता था। आश्चर्य तो यह था कि यान के सभी यंत्र यथावत कार्य कर रहे थे और इंजिन शोर कर रहे थे, लेकिन यान एक इंच भी आगे नहीं बढ़ रहा था। बाद में उस चालक ने कहाः ‘‘कितना विचित्र अनुभव था वह! 150 मील प्रतिघंटा की गति से भागते हुए एक इंच भी आगे न बढ़ पाना! कितनी गति से मैं जा रहा था और फिर भी कहीं नहीं जा रहा था!’’
क्या ऐसा ही जीवन में भी नहीं होता है? नहीं हो रहा है?
परमात्मा की दिशा में जो नहीं चल रहे हैं, वे भी पाएंगे कि चल तो बहुत रहे हैं, लेकिन पहुंच कहीं भी नहीं रहे हैं।
परमात्मा यानी स्वयं की आत्यंतिक सत्ता। परमात्मा यानी स्वरूप। और, क्या यह ठीक ही नहीं है कि स्वयं के विरोध में चल कर कोई कहीं कैसे पहुंच सकता है?
जीवन का आनंद उनका है, जो स्वयं में जीते और स्वयं को जानते और स्वयं को उपलब्ध करते हैं।

ओशो

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