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रविवार, 21 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-06)

बोधकथा-छठवीं 

एक सम्राट की बहुत कीर्ति थी। उसके दान के सुसमाचार चारों दिशाओं में परिव्याप्त हो गए थे। उसकी विनम्रता, उसके त्याग, उसकी सादगी, उसकी सरलता, सभी की प्रशंसा लोगों के मंुह पर थी; और परिणाम यह था कि उसके अहंकार का अंत नहीं था। परमात्मा से जितनी दूरी पर कोई मनुष्य हो सकता है, उतनी ही दूरी पर वह था। मनुष्य की दृष्टि में ऊपर उठना कितना आसान है, किंतु परमात्मा के निकट पहुंचना कितना कठिन है! जो मनुष्यों की दृष्टि में ऊपर उठने का आकांक्षी होता है, वह तो अनिवार्यतः परमात्मा की दृष्टि में नीचे गिर जाता है, क्योंकि जो उसके बाहर दीखता है, ठीक उसके विपरीत ही वह अंतस में होता है। मनुष्य के चर्मचक्षु वहां तक प्रवेश नहीं कर पाते हैं, इससे ही वह आत्मवंचना में पड जाता है।
लेकिन क्या उसकी स्वयं की अंतर्दृष्टि भी वहां तक नहीं पहुंचती है? अंततः मनुष्यों की आंखों में बनने वाली प्रतिच्छवि का कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य तो है उसी प्रतिच्छवि का जो स्वयं की अंतर्दृष्टि के समक्ष अनावरित होती है। व्यक्ति की वही मूर्ति और भी निम्नतर रूपों में परमात्मा के दर्पण में प्रतिबिंबित होती है। आत्यंतिक रूप से व्यक्ति जो स्वयं के समक्ष है, वही वह परमात्मा के समक्ष भी है।


उस सम्राट का यश ब.ढता गया और आत्मा डूबती गई। कीर्ति फैलती गई और आत्मा सिकुडती गई। उसकी शाखाएं फैल रही थीं और जडें निर्बल हो रही थीं।
उसका एक मित्र भी था। वह मित्र उस समय का कुबेर ही था। दूर-दूर से जैसे नदी-नाले सागर से आ मिलते हैं, वैसे ही धन की सरिताएं उसकी तिजोरियों में आ गिरती थीं। वह अपने सम्राट मित्र से बिल्कुल ही विपरीत था। दान के नाम पर एक कानीकौडी भी उससे नहीं छूटती थी। उसकी बडी अपकीर्ति थी।
सम्राट और धनपति, दोनों बू.ढे हुए। एक अभिमान से भरा था, दूसरा आत्मग्लानि से। अभिमान सुख दे रहा था, आत्मग्लानि प्राणों को छेदे डालती थी। जैसे-जैसे सम्राट को मृत्यु निकट जान पडती थी, वह अपने अहंकार को और तीव्रता से पकड रहा था। उसके पास तो सहारा था। लेकिन धनपति की आत्मग्लानि अंततः आत्मक्रांति बन गई। वह तो सहारा नहीं थी। उसे तो छोडना जरूरी था। लेकिन स्मरण रहे कि आत्मग्लानि भी अहंकार का ही उल्टा रूप है, और इसीलिए वह भी छूटती कठिनाई से ही है। अक्सर तो वह सीधी होकर स्वयं ही अहंकार बन जाती है। इसी कारण भोगी योगी हो जाते हैं और लोभी दानी, क्रूर करुणावान। लेकिन बुनियादी रूप से उनकी आत्माओं में कोई क्रांति कभी नहीं होती है।
वह धनपति एक सदगुरु के पास गया। उसने वहां जाकर कहाः ‘‘मैं अशांत हूं। मैं अग्नि में जल रहा हूं। मुझे शांति चाहिए।’’
सदगुरु ने पूछाः ‘‘क्या इतना धन, वैभव, शक्ति-सामथ्र्य होने पर भी तुम्हें शांति नहीं मिली? ’’
उसने कहाः ‘‘नहीं। मैंने भलीभांति अनुभव कर लिया, धन में शांति नहीं है।’’
सदगुरु ने तब कहाः ‘‘जाओ और अपना सर्वस्व उन्हें लुटा दो, जिनसे वह छीना गया है। फिर मेरे पास आओ। दीन और दरिद्र होकर आओ।’’
धनपति ने वैसा ही किया। वह लौटा तो सदगुरु ने पूछाः ‘‘अब? ’’
उसने कहाः ‘‘अब आपके अतिरिक्त और कोई आश्रय नहीं है।’’
लेकिन बडा अदभुत था वह सदगुरु। कहें कि पागल ही था। उसने धक्के देकर उस दरिद्र धनपति को झोपडे के बाहर निकाल दिया और द्वार बंद कर लिए। अंधेरी रात्रि थी और बियावान जंगल था। उस जंगल में उस झोपडे के अतिरिक्त कोई आश्रय भी नहीं था।
धनपति ने सोचा था कि वह बहुत बडा कार्य करके लौट रहा है। लेकिन यह कैसा स्वागत--यह कैसा व्यवहार?
धन का संग्रह व्यर्थ पाया था। लेकिन धन का त्याग भी व्यर्थ ही हो गया था।
वह उस रात्रि निराश्रय एक वृक्ष के नीचे सो रहा। उसका अब कोई न सहारा था, न साथी, न घर। न उसके पास संपदा थी, न शक्ति थी। न संग्रह था, न त्याग था। सुबह जाग कर उसने पाया कि वह एक अनिर्वचनीय शांति में डूबा हुआ है। निराश्रय चित्त अनायास ही परमात्मा के आश्रय को पा लेता है।
 वह भागा हुआ सदगुरु के चरणों में गिरने को गया, लेकिन देखा कि स्वयं सदगुरु ही उसके चरणों में गिर पडा है।
उस सदगुरु ने उसे हृदय से लगाया और कहा--‘‘धन छोडना आसान है, त्याग छोडना कठिन है। किंतु जो त्याग का त्याग करता है, वही वस्तुतः धन भी छोडता है। संसार छोडना सरल है, पर गुरु छोडना कठिन है। लेकिन जो गुरु को भी छोड देता है, वही परमगुरु को पाता है। धन का हो आश्रय या त्याग का, आत्मग्लानि का हो आश्रय या अभिमान का, संसार का हो आश्रय या संन्यास का, वस्तुतः जहां आश्रय है, वहीं परमात्मा तक पहुंचने में अवरोध है। अन्याश्रय टूटते ही परम आश्रय उपलब्ध होता है। मैं धन में आश्रय खोजूं या धर्म में, जब तक मैं आश्रय खोजता हूं, तब तक मैं अहंकार की रक्षा ही खोजता हूं। आश्रय मात्र छोडते ही, निराश्रय और असुरक्षित होते ही, चित्त स्वयं की मूल सत्ता में निमज्जित हो ही जाता है। यही है शांति। यही है मोक्ष। यही है निर्वाण। क्या तुम्हें कुछ और भी पाना है? ’’
वह व्यक्ति, जो न अब धनपति था, न दरिद्र था, बोलाः ‘‘नहीं। पाने के ख्याल में ही भूल थी। उसके कारण ही खोया था। जो पाना है, वह पाया ही हुआ है। पाने की दौड में यही नित्य-प्राप्त खो गया था। शांति भी अब मुझे नहीं चाहिए। परमात्मा भी नहीं। मैं ही अब नहीं हूं और जो है वही शांति है, वही परमात्मा है, वही मोक्ष है।’’

ओशो

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