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शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-53)

बोधकथा-त्रेपनवी

वर्षा की अंधेरी रात्रि है। आकाश में बादल घिरे हैं। बीच-बीच में बिजली तेजी से कडकती और चमकती है। एक युवक उसकी चमक के प्रकाश में ही अपना मार्ग खोज रहा था। अंततः वह उस झोपडी के द्वार पर पहुंच ही गया, जहां एक अत्यंत वृद्ध फकीर पूरे जीवन से रह रहा है। वह वृद्ध उस झोपडी को छोड कर कभी भी कहीं नहीं गया था। जब उससे कोई पूछता था कि क्या आपने संसार बिल्कुल ही नहीं देखा है, तो वह कहता थाः ‘‘देखा है, खूब देखा है। स्वयं में ही क्या सारा संसार नहीं है? ’’
मैं भी उस वृद्ध को जानता हूं। वह मेरे भीतर बैठा हुआ है। सच में ही उसने कभी अपना आवास नहीं छोडा है। वह वहीं है और वही है, जहां सदा से है और जो है। और मैं उस युवक को भी भलीभांति जानता हूं, क्योंकि मैं ही तो वह युवक भी हूं!

वह युवक थोडी देर सी.िढयों पर खडा रहा। फिर उसने डरते-डरते द्वार पर दस्तक दी। भीतर से आवाज आईः ‘‘कौन है? क्या खोजता है? ’’


वह युवक बोलाः ‘‘यह तो ज्ञात नहीं कि मैं कौन हूं? हां, वर्षों से आनंद की तलाश में जरूर भटक रहा हूं। आनंद को खोजता हूं और वही खोज आपके द्वार पर ले आई है।’’ भीतर से हंसी की आवाज आई और कहा गयाः ‘‘जो स्वयं को ही नहीं जानता, वह आनंद को कैसे पा सकता है? उस खोज में दीये के तले अंधेरा नहीं चल सकता। लेकिन यह जानना भी बहुत जानना है कि मैं स्वयं को नहीं जानता हूं, और इसीलिए मैं द्वार खोलता हूं, लेकिन स्मरण रहे कि दूसरे का द्वार खुलने से वस्तुतः कोई द्वार नहीं खुलता है!’’
फिर द्वार खुले। बिजली की कौंध में युवक ने वृद्ध फकीर को सामने खडा देखा। उसका सौंदर्य अपूर्व है। लेकिन वह बिल्कुल नग्न है। वस्तुतः सौंदर्य सदा ही निर्वस्त्र है। वस्त्र वहीं है, जहां कुरूपता है। युवक उसके चरणों में बैठ गया। उसने वृद्ध के चरणों पर सिर रख कर पूछाः ‘‘आनंद क्या है? आनंद कहां है? ’’
यह सुन वह वृद्ध पुनः हंसने लगा और बोलाः ‘‘मेरे प्रिय! आनंद अशरणता में है। अशरण होते ही आनंद की बाढ़ आ जाती है। मेरे चरण छोड दो, सबके चरण छोड दो। आनंद को किसी की शरण में खोजते हो, यही भूल है। बाहर खोजते हो, यही भूल है। वस्तुतः उसे खोजते हो, यही भूल है। जो बाहर है, उसे खोजा जा सकता है। जो स्वयं में है, उसे कैसे खोजोगे? सब खोज छोडो और देखो! वह तो सदा से ही स्वयं में मौजूद है!’’
फिर उस वृद्ध ने अपनी झोली में से दो फल निकाले और बोलाः ‘‘मैं ये दो फल तुम्हें देता हूं। ये बडे अदभुत फल हैं। पहले को खा लो तो तुम समझ सकते हो कि आनंद क्या है और दूसरे को खा लो तो तुम स्वयं ही आनंद हो सकते हो। लेकिन एक ही फल खा सकते हो। क्योंकि एक के खाते ही दूसरा विलीन हो जाता है। और स्मरण रहे कि दूसरा फल खाने पर आनंद क्या है, यह नहीं जाना जा सकता है। अब चुनाव तुम्हारे हाथ में है! बोलो, क्या चुनना है? ’’
वह युवक थोडी देर झिझका, फिर बोलाः ‘‘मैं आनंद को पहले जानना चाहता हूं, क्योंकि जाने बिना उसे पाया ही कैसे जा सकता है? ’’
वह वृद्ध फकीर फिर हंसने लगा और बोलाः ‘‘मैं देखता हूं कि क्यों तुम्हारी भटकन इतनी लंबी हो गई है। ऐसे तो वर्षों नहीं, जन्मों के बाद भी आनंद नहीं पाया जा सकता। क्योंकि आनंद के ज्ञान की खोज आनंद की अभीप्सा ही नहीं है। आनंद का ज्ञान और आनंदानुभूति तो विरोधी धु्रव हैं। आनंद का ज्ञान, आनंद नहीं है। उलटे वही तो दुख है। आनंद को जानना और स्वयं आनंद न होना, यही तो दुख है। इसीलिए तो मनुष्य पौधों और पशु-पक्षियों से भी कहीं ज्यादा दुखी है। लेकिन अज्ञान भी आनंद नहीं है। वह केवल दुख के प्रति मूच्र्छा है। आनंद तो है ज्ञान और अज्ञान दोनों के अतिक्रमण में। अज्ञान है, दुख के प्रति मूच्र्छा। ज्ञान है, दुख के प्रति बोध। आनंद है, ज्ञान और अज्ञान दोनों से मुक्ति। ज्ञान और अज्ञान, दोनों के अतिक्रमण का अर्थ हैः मन से ही मुक्ति। और मन से मुक्त होते ही व्यक्ति स्वयं में आ जाता है। वह स्वरूप-प्रतिष्ठा ही आनंद है। वही मोक्ष है। वही परमात्मा है।’’

ओशो

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