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मंगलवार, 30 अक्तूबर 2018

विज्ञान, धर्म और कला-(प्रवचन-01)

पहला प्रवचन-(विज्ञान, धर्म और कला)

मेरे प्रिय आत्मन्!
विज्ञान है सत्य की खोज, धर्म है सत्य का अनुभव, कला है सत्य की अभिव्यक्ति। विज्ञान प्राथमिक है, पहला चरण है। और विज्ञान चाहे तो बहुत देर तक बिना धर्म के जी सकता है। क्योंकि सत्य की खोज ही उसका लक्ष्य है। मैंने कहा, बहुत देर तक बिना धर्म के जी सकता है। और आज तक बिना धर्म के विज्ञान जीया है। न केवल बिना धर्म के बल्कि विज्ञान धर्म को अस्वीकार करके जीया है। जी सकता है। कोई रास्ता चाहे तो बिना मंजिल के भी हो सकता है। लेकिन विज्ञान जैसे ही विकसित होगा--मनुष्य सिर्फ सत्य को जानना ही नहीं चाहेगा--सत्य होना भी चाहेगा। इसलिए बहुत देर तक विज्ञान भी धर्म के बिना नहीं रह सकता है। और उसके न रहने की संभावना रोज-रोज प्रकट होती चली जाती है।

विगत सदी के बड़े से बड़े वैज्ञानिक--चाहे आइंस्टीन हो, चाहे मैक्स प्लांक हो, चाहे एडिंग्टन होे, चाहे कोई और हों। वे सारे लोग जीवन के अंतिम क्षणों में धर्म की बात करते हुए पाए गए हैं। यह बड़ी कीमती संभावनाएं हैं। आने वाली सदी में विज्ञान रोज-रोज धार्मिक होता चला जाएगा। क्योंकि कोई रास्ता मंजिल के बिना रह सकता है, लेकिन मंजिल के बिना कोई रास्ता पूरा नहीं हो सकता।


और मंजिल के बिना अगर कोई रास्ता हो तो अर्थहीन भी होगा, असंगत भी होगा, अब्सर्ड भी होगा। क्योंकि जो रास्ता किसी मंजिल पर न पहुंचाता हो, उसको रास्ता कहना ही बहुत कठिन है। एक दिन रास्ते को मंजिल भी स्वीकार करनी पड़ती है। और कोई साधन साध्य के बिना अर्थपूर्ण नहीं हो पाता है।
इसलिए पश्चिम में जहां विज्ञान का गहरा प्रभाव है, रोज-रोज अर्थहीनता, मीनिंगलेसनेस का भी विस्तार होता चला गया है।
विज्ञान को धर्म होना पड़ेगा।
धर्म का अर्थ हैः सत्य के साथ एक होने की आकांक्षा, सत्य का अनुभव। आदमी इतने से तृप्त नहीं हो सकता कि सत्य क्या है। उसकी तृप्ति तो पूरी तभी होती है जब वह सत्य के साथ एक हो जाए। हम यही न जानना चाहेंगे कि प्रेम क्या है; हम प्रेम होना भी चाहेंगे। हम यही न जानना चाहेंगे कि धन क्या है; हम धनी होना भी चाहेंगे। हम यही न जानना चाहेंगे कि सत्य क्या है; हम सत्य होना भी चाहेंगे। क्योंकि जानना सदा होने के लिए एक चरण--उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसलिए दूसरा चरण, मनुष्य की खोज का धर्म है।
धर्म चाहे तो बहुत दिन तक बिना कला के जी सकता है। जैसा मैंने कहा कि विज्ञान चाहे तो बिना धर्म के जी सकता है। धर्म चाहे तो बहुत दिन तक बिना कला के जी सकता हैै। लेकिन जब धर्म की बहुत गहरी अनुभूति होगी, तो जो हमने जाना है वह प्रकट भी होना चाहेगा। सिर्फ जो हम हो गए हैं, उतना ही काफी नहीं है। जो हम हो गए हैं वह अभिव्यक्त भी होना चाहेगा। हम न केवल जानना चाहेंगे कि प्रकाश कैसे जन्मता है, हम प्रकाश होना भी चाहेंगे। लेकिन हम प्रकाश होने से चुप न होंगे; हम प्रकाश की किरणों को दूर-दूर तक फैलाना भी चाहेंगे।
जिस दिन धर्म की अनुभूति इतनी प्रगाढ़ होती है कि ओवरफ्लोइंग शुरू हो जाए, जिस दिन धर्म की अनुभूति इतनी गहरी होती है कि हमसे बाहर बहने लगे, चारों तरफ फैलने लगे, उस दिन कला का जन्म होता है। धर्म चाहे तो बहुत देर तक कला से बच सकता है, लेकिन बहुत ज्यादा देर तक नहीं बच सकता। अनुभूति जब गहरी होगी, तो बंटना चाहेगी। जब बादल बहुत सघन हो जाएंगे, तो बरसना चाहेंगे। और जब नदी में वेग आएगा, तो वह सागर की तरफ दौड़ना चाहेगी। और जब प्रेम हमारे हृदय में भर जाएगा, तो वह चारों तरफ बरसना चाहेगा। और जब बीज पूर्ण विकसित होगा, तो फूट कर अंकुर बनना चाहेगा।
सत्य की अनुभूति पर ही बात नहीं रुक जाती; सत्य की अभिव्यक्ति भी अनिवार्य है। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जितना सत्य अनुभव करने से मिलता है, उससे हजार गुना सत्य अभिव्यक्त करने से वापस लौट आता है। क्योंकि जो हम देते हैं, वह हमें वापस हजार गुना होकर मिलने लगता है। जिस चीज में हम दूसरों को साझीदार बनाते हैं, जिस चीज में हम दूसरों को बंटवारे में मित्र बनाते हैं, वह चीज हम पर लौटने लगती है। सत्य की अनुभूति अंततः सत्य की अभिव्यक्ति बनती है।
विज्ञान पहला चरण है मनुष्य की यात्रा का, धर्म दूसरा चरण है, कला उसका अंतिम चरण है। लेकिन यह बड़ी कठिन बात है, जैसा मैं कह रहा हूं। इतिहास में उलटा हुआ है। इतिहास में ऐसा हुआ कि धर्म पहले आया, कला बाद में आई, और विज्ञान सबसे बाद में आया। इसलिए कुछ और बातें भी आपसे कहना चाहूंगा। जो धर्म विज्ञान के पहले आ जाएगा, वह अवैज्ञानिक होगा, सुपरस्टीटस होगा। जो धर्म मनुष्य के पास विज्ञान के पहले आ जाएगा, वह अंधविश्वास के निकट होगा, वैज्ञानिक नहीं हो सकता।
इसलिए जो धर्म विज्ञान के पहले पृथ्वी पर आ गया, वह जिन्होंने अनुभव किया होगा, बहुत थोड़े से लोगों ने--कोई जीसस, कोई कृष्ण, कोई बुद्ध, कोई महावीर, कोई कनफ्यूशियस, दस-पांच लोगों के जीवन में तो वह गहरे अर्थों में था, लेकिन हम सबके जीवन में वह अंधविश्वास से ज्यादा नहीं हो सकता था। विज्ञान के ठीक विकास के बाद जो धर्म आएगा, वही वैज्ञानिक हो सकता है। यही वजह है कि दुनिया में होना तो चाहिए था एक धर्म, लेकिन हो गए अनेक।
बीमारियां अनेक हो सकती हैं, स्वास्थ्य अनेक नहीं होते। मैं बीमार पडूंगा, तो अपने ढंग से; आप बीमार पड़ेंगे, तो अपने ढंग से। और बीमारियों के हजारों नाम हैं--कोई टी.बी. से बीमार पड़ता है, कोई कैंसर से बीमार पड़ता है। लेकिन जब आप स्वस्थ हो जाते हैं तो स्वास्थ्य का कोई भी नाम नहीं है। तब आप यह नहीं कह सकते कि मैं किस ढंग से स्वस्थ हो गया हूं। आप सिर्फ स्वस्थ हो जाते हैं।
अधर्म हजार हो सकते हैं, धर्म हजार नहीं हो सकते। अधर्म बीमारी है, धर्म स्वास्थ्य है। इसलिए धर्म तो एक ही हो सकता है, लेकिन एक नहीं हो सका। क्योंकि विज्ञान के पहले जो भी आएगा वह अंधविश्वास होगा, वह विज्ञान नहीं बन पाता है।
अब पहली बार पृथ्वी पर धर्म के अवतरण की समुचित व्यवस्था हो पा रही है। और भविष्य में जो धर्म अवतरित होगा--वह हिंदू नहीं होगा, वह मुसलमान नहीं होगा, वह जैन नहीं होगा, वह ईसाई नहीं होगा--वह सिर्फ धर्म होगा। और जिस दिन मनुष्य-जाति पर सिर्फ धर्म का अवतरण होगा, उस दिन ही हम धर्म के नाम पर हो रही नासमझियों से मुक्त हो सकेंगे, उसके पहले नहीं हो पाएंगे।
आश्चर्य की बात है कि साधारण धार्मिक आदमी हिंदू-मुसलमान होता है, सो ठीक। संन्यासी भी हिंदू, मुसलमान, ईसाई और जैन होता है? कम से कम संन्यासी तो सिर्फ धार्मिक हो? वह भी संभव नहीं हो पाया है। आश्चर्यजनक है यह बात! असल में समाज के रोग संन्यासी को भी पकड़ लेते हैं। समाज की सीमाएं और विशेषण संन्यासी को भी घेर लेते हैं। समाज की गुलामियां और समाज के बंधन संन्यासी को भी जकड़ लेते हैं।
धर्म पैदा हुआ। कुछ थोड़े से व्यक्तियों के जीवन में उसकी अनुभूति गहरी थी। लेकिन समूह के जीवन में वह तब तक नहीं पहुंच सकता था जब तक कि विज्ञान ठीक भूमि को साफ न कर दे। अब विज्ञान ने भूमि ठीक से साफ कर दी है। और अब धर्म अवैज्ञानिक ढंग से नहीं स्वीकृत होगा, इसीलिए बड़ी कठिनाई पैदा हो रही है।
जो लोग अंधविश्वासों को पकड़े हुए हैं, वे सोचते हैं कि सारी दुनिया अधार्मिक होती जा रही है। वे बड़ी भ्रांति में हैं। सारी दुनिया अधार्मिक नहीं हो रही, सारी दुनिया अंधविश्वासों से मुक्त होने की कोशिश कर रही है और नये धर्म के जन्म की संभावनाओं को प्रकट कर रही है।
आज बड़ी अजीब हालत है। आज अजीब हालत यह है कि जिसको हम कहें कि जो मंदिर नहीं जाता, हमारे पुराने शास्त्र को नहीं मानता, हमारे पुराने सिद्धांत को नहीं मानता, बहुत संभावना उलटी हो गई है। संभावना यह हो गई है कि उस आदमी की जिंदगी में धर्म थोड़ा ज्यादा हो सकता है बजाय उनके जो मंदिर जाते हैं, पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं।
सच तो यह है कि इस सदी के समस्त बुद्धिमान, विचारशील लोग धर्म के कारागृहों में खड़े होने को राजी नहीं रह गए हैं। उसका कारण यह नहीं है कि लोग अधार्मिक हो गए हैं, उसका कारण कुल इतना है कि अब धर्म वैज्ञानिक होने की चेष्टा कर रहा है। और अवैज्ञानिक धाराएं उसे छोड़नी पड़ेंगी। उन्हें वह छोड़ रहा है। तो आज उलटी बात हुई है।
अगर हम बुद्ध के जमाने में लौटें या कृष्ण के जमाने में लौटें, तो उस जमाने का श्रेष्ठतम बुद्धिमान आदमी धार्मिक था। और आज अगर हम धर्म की तरफ देखें, तो आज का सबसे कम विकसित आदमी धार्मिक मालूम पड़ता है। सबसे कम शिक्षित, सबसे कम बुद्धिशाली, सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ आदमी आज धार्मिक मालूम पड़ता है। कृष्ण के जमाने में सबसे ज्यादा विकसित, सबसे ज्यादा बुद्धिमान आदमी धार्मिक मालूम पड़ता है। यह हैरानी की बात है।
आज जो आदमी ठीक से शिक्षित है, जो आदमी ठीक से सोच-विचार करता है, वह आदमी अचानक अधार्मिक क्यों हो जाता है? यह सोचने जैसी बात है। हम कहेंगे, यह शिक्षा गलत है। हम कहेंगे कि ये, ये तर्क गलत हैं जो आज लोगों को दिए जा रहे हैं, इसलिए लोग अधार्मिक हो रहे हैं।
नहीं, ऐसा नहीं है। बात उलटी हो गई है। बात ऐसी हो गई है कि धर्म अब वैज्ञानिक सुचिंतित होने की चेष्टा कर रहा है। और जब सुचिंतित होने की चेष्टा धर्म करेगा, तो निश्चित ही विचारशील लोग बंधी हुई धाराओं के बाहर हो जाएंगे। धर्म अब वैज्ञानिक हो सकता है, क्योंकि विज्ञान अब विकसित हुआ है। जैसे आज से सौ साल पहले का वैज्ञानिक ईश्वर को इनकार कर रहा था, लेकिन आज का वैज्ञानिक उतनी हिम्मत से ईश्वर को इनकार नहीं कर सकता है।
आइंस्टीन ने मरने के पहले कहा कि जब मैंने विज्ञान की खोज शुरू की थी, तो मैं सोचता था कि आज नहीं कल, सब जान लिया जाएगा।
और आइंस्टीन शायद मनुष्य-जाति में पैदा हुए उन थोड़े से लोगों में से एक है, जिसने सर्वाधिक जाना है।
मरने के दो या तीन दिन पहले आइंस्टीन ने अपने एक मित्र को कहा कि जो भी मैंने जाना है, आज मैं कह सकता हूं कि उससे सिर्फ मुझे मेरे अज्ञान का पता चलता है और कुछ भी पता नहीं चलता। और जो जानने को शेष रह गया है, वह इतना ज्यादा है कि जो हमने जान लिया है, उसकी तुलना भी नहीं की जा सकती। मरने के पहले आइंस्टीन ने कहा कि मैं एक रहस्यवादी की तरह मर रहा हूं, एक वैज्ञानिक की तरह नहीं। मुझे जगत रोज-रोज ज्यादा मिस्टीरियस, ज्यादा रहस्यपूर्ण होता चला गया है। जितनी ही मैंने खोज की है, उतना ही मैंने पाया है कि खोज करने को और भी ज्यादा आयाम खुल गए हैं, और डाइमेन्शंस खुल गए हैं। जितने दरवाजे मैंने खोले, पाया कि और बड़े दरवाजों पर पहुंच गया हूं। जितने रास्ते मैंने पकड़े, पाया कि और बड़े राजपथों पर मुझे पहुंचा दिया गया है। जितनी कुंजियां मैंने पाईं, उनसे जो ताले मैंने खोले, पाया कि और बड़े ताले आगे लटके हुए हैं।
एडिंग्टन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब मैंने सोचना शुरू किया था, तो मैं समझता था कि जगत एक वस्तु है। लेकिन अब मैं कह सकता हूं कि मोर एण्ड मोर आर दि वल्र्ड इ.ज लुकिंग नाॅट लाइक ए थिंग बट लाइक ए थाॅट। लेकिन अब मैं कह सकता हूं कि जगत वस्तु की तरह मालूम नहीं पड़ता, बल्कि एक विचार की तरह मालूम पड़ता है।
अगर जगत एक विचार है, तो विज्ञान ने छलांग लगा ली धर्म में। और जगत अगर एक अनंत रहस्य है, तो हमने परमात्मा शब्द का उपयोग किया हो या न किया हो; हम परमात्मा के द्वार के पास खड़े हो गए हैं। और अगर जगत हमारे ज्ञान से नहीं सुलझता, सिर्फ जानने से नहीं सुलझता, तो बहुत देर नहीं है जब हम यह बात कह पाएंगे कि जानने से नहीं सुलझेगा; होने से सुलझेगा। नाॅलेज काफी नहीं है, बीइंग की जरूरत पड़ गई है। इतना काफी नहीं है कि हम दूर खड़े होकर देखें, जरूरी हो गया है कि हम एक हो जाएं, तन्मय हो जाएं, डूब जाएं और जानें। शायद जानने का अब एक ही रास्ता है, वह होना है।
विज्ञान अब धर्म के लिए रास्ता खोज रहा है, लेकिन कला भी आ चुकी है दुनिया में। और मैं मानता हूं कि कला तो तब आएगी, जब बड़े व्यापक पैमाने पर धर्म आ जाए। तो फिर कला के नाम पर जो आया है, वह क्या है? कला के नाम पर निन्यानबे प्रतिशत तो वासना का उभार है। नाइंटी नाइन परसेंट। चाहे काव्य हो, चाहे चित्र हो, चाहे मूर्तियां हों, चाहे संगीत हो, कला के नाम पर अभी जो भी पृथ्वी पर है, वह मनुष्य की वासनाओं को उत्तेजना देने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। कह रहा हूं, निन्यानबे प्रतिशत। चाहे कालिदास के ग्रंथ हों और चाहे भवभूति के और चाहे बाॅरेन की कविताएं हों, और चाहे शेली की। पृथ्वी पर जो भी कला के नाम पर अब तक आया है, वह मनुष्य की इंद्रियों को स्टुमलेट का काम कर रहा है और कुछ भी नहीं कर रहा। असल में धर्म के बाद ही वास्तविक कला का जन्म हो सकता है, लेकिन अभी धर्म का ठीक जन्म ही नहीं हो पाया।
एक प्रतिशत मैंने छोड़ दिया। निन्यानवे प्रतिशत कला के नाम पर, सिर्फ मनुष्य की वासनाओं का विस्तार है। और एक प्रतिशत, एक प्रतिशत में कुछ थोड़ा सा हिस्सा उनका है, जिन्होंने धर्म को जाना और कला को जन्म दिया। जैसे मीरा के भजन हों, तो मीरा के भजन साधारण भजन नहीं हैं। मीरा के भजन एक धर्म की अनुभूति से प्रकट हो रहे हैं। एक अनुभूति है भीतर और फिर अभिव्यक्ति हो रही है। कुछ पाया गया है, और अब बांटा जा रहा है। आमतौर से लोग समझते हैं कि मीरा ने भजन कर-करके भगवान को पा लिया।
मैं नहीं समझता। मीरा ने भगवान को पाकर भजन गाने शुरू किए हैं। क्योंकि भजन को गाकर कोई भगवान को कैसे पा सकता है? इतना सस्ता भगवान कि आप भजन गाएंगे और भगवान को पा लेंगे? नहीं, भजन गाना मीरा का भगवान को पाने का रास्ता नहीं है, भगवान को पाने का जो फुलफिलमेंट है, जो तृप्ति है उसकी अभिव्यक्ति है, धन्यवाद है। साधना नहीं है।
चैतन्य नाच रहे हैं। वह नृत्य कोई भगवान को पाने के लिए नहीं है, यह तो सभी नाचने वाले भगवान को पा लें। और, चैतन्य से अच्छे नाचने वाले जमीन पर हैं। और, मीरा से अच्छे गाने वाले लोग जमीन पर हैं। लेकिन चैतन्य के नाच की बात और है। चैतन्य की यह थिरक, भगवान को पाने के लिए नहीं, भगवान को पा लेने की थिरक है। यह भगवान समा गया भीतर। अब यह चैतन्य नहीं नाच रहे हैं। अब यह भगवान ही नाच रहा है। अब यह प्याली भर गई है और ऊपर से बह रही है। और अब यह बहती हुई प्याली से जो कला पैदा होगी, वह बात अलग है।
कृष्ण की बांसुरी...कृष्ण से अच्छे बांसुरी बजाने वाले हुए हैं, हो सकते हैं। शायद प्रतियोगिता में कृष्ण बांसुरी बजाने में जीतेंगे कि नहीं जीतेंगे, यह पक्का नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिर कृष्ण की बांसुरी का कोई मुकाबला नहीं है। बांसुरी के तल पर कृष्ण को जीतने वाले लोग हो सकते हैं, लेकिन कृष्ण के तल पर कोई मुकाबला नहीं है। क्योंकि जहां से यह बांसुरी के स्वर आ रहे हैं, वहां अब कृष्ण नहीं हैं, वहां परमात्मा ही हैं। यह बांसुरी कोई खबर दे रही है, यह बांसुरी भीतर जो बजा है, उसे बाहर फैला रही है। भीतर जो अनुगूंज पैदा हुई है उसे बाहर पहुंचा रही है।
एक प्रतिशत कला ऐसी है, जिसे हम कला कह सकें। बाकी निन्यानवे प्रतिशत कला सिर्फ मनुष्य की वासनाओं की सेवा से ज्यादा नहीं है। और इस निन्यानवे प्रतिशत कला में मैं उस कला की भी गिनती करना चाहूंगा जो वासना के विपरीत खड़ी है। इसे थोड़ा समझना मुश्किल पड़ेगा। क्योंकि वासना के खड़े होने के दो ढंग हैं, एक तो वासना सीधी खड़ी होती है, जिससे हम परिचित हैं। और कभी-कभी वासना शीर्षासन भी करती है, जिससे हम परिचित नहीं हैं। वासना जब शीर्षासन करती है, तब हम समझते हैं कि यह आध्यात्मिक कला हो गई। नहीं, वासना के शीर्षासन करने से भी वासना वासना ही रहती है, आध्यात्मिक नहीं हो जाती।
अब जैसे उदाहरण के लिए मैं आपको कहूं, एक चित्र शायद यहां होगा। क्योंकि हरिकिशन दास जी की डायरी में वह चित्र मैंने देखा। उस चित्र में एक सुंदर युवती का चित्र है, युवा। साथ में एक बूढ़ी स्त्री का चित्र है, और नीचे कैप्शन है, नीचे शीर्षक दिया हुआ है। जिसका कुछ मतलब ऐसा है कि जवानी बहुत देर नहीं रुकती, और बुढ़ापे पर ध्यान होना चाहिए। लेकिन इसको मैं आध्यात्मिक नहीं कहूंगा। क्योंकि यहां भी जो सोचने का ढंग है, वह जवानी पर ही खड़ा है। और अगर बुढ़ापे की निंदा की जा रही है तो सिर्फ इसलिए कि जवानी ज्यादा दिन नहीं टिकती।
अगर ज्यादा दिन टिके तो? फिर इस चित्र का क्या होगा? आज नहीं कल विज्ञान रास्ते खोज लेगा कि बुढ़ापा नहीं टिकेगा, जवानी टिकेगी। फिर इस चित्र का क्या होगा? और अभी हम जिस आदमी से कह रहे हैं कि जवानी ज्यादा दिन नहीं टिकती, बुढ़ापे का खयाल रखो। उस आदमी को दूसरा खयाल भी आ सकता है कि जो चीज ज्यादा देर नहीं टिकती, उसको ज्यादा भोग लो। यह दोनों संभावनाएं हैं। और फिर जो आप जोर दे रहे हैं, वह यही दे रहे हैं न कि जवानी ज्यादा देर नहीं टिकती। लेकिन जवानी आपको भी कीमती है और बुढ़ापा आपको भी कीमती नहीं है।
लेकिन धार्मिक कला बुढ़ापे की भी कीमत मानती है। बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है। किसने कहा कि बुढ़ापे में सौंदर्य नहीं है। बचपन का अपना सौंदर्य है, जवानी का अपना सौंदर्य है, बुढ़ापे का अपना सौंदर्य है। और धार्मिक आदमी के लिए जन्म ही सुंदर नहीं है; मृत्यु का भी अपना सौंदर्य है। जब सुबह सूरज उगता है, तब ही सुंदर नहीं होता; जब सांझ डूबता है, तब भी सुंदर होता है। और अगर कोई आदमी सच में, ढंग से बूढ़ा हो जाए... बहुत कम लोग हो पाते हैं, क्योंकि जवानी इतने जोर से पकड़ लेती है कि आदमी ठीक से बूढ़ा नहीं हो पाता।
अगर कोई आदमी ठीक से बूढ़ा हो जाए, तो बूढ़े के बराबर सुंदर, जवान कभी भी नहीं हुआ है। क्योंकि जवानी में उत्तेजना है, जवानी में तूफान हैं, आंधियां हैं। बुढ़ापे का सौंदर्य बड़ा शांत सौंदर्य है। बुढ़ापे का सौंदर्य संध्या का सौंदर्य है। सुबह तो जिंदगी के तनाव की है। दिन भर का उपद्रव शुरू हो रहा है। सांझ सब उपद्रव शांत हो गया और रात का विश्राम निकट आ रहा है। सांझ के सूरज का मुकाबला क्या है? पक्षी लौटने लगे हैं घर को, वृक्ष मौन और निद्रा में जाने लगे हैं, सूरज डूबने लगा है, अंधेरा पृथ्वी को घेर लेगा। सब चुप हो जाएगा। सब परमात्मा में एक अर्थों में लीन हो जाएगा। बुढ़ापा भी संध्या है।
लेकिन जब हम चित्र पर जवानी का चित्र बनाते हैं और बुढ़ापे का चित्र बनाते हैं और कहते हैं, सावधान! बुढ़ापा आ रहा है, तो दो बातें पक्की हैं। जवानी हमारे लिए कीमती है और बुढ़ापे के हम भी दुश्मन हैं। तो यह आध्यात्मिक चित्र नहीं हो सकता। यह सिर्फ परवर्टिड पैशन है। यह सिर्फ शीर्षासन करती हुई वासना है। और वासनाग्रस्त आदमी इसमें से यह मतलब नहीं निकालेगा, जो वासना के दुश्मन ने निकाला है। वासनाग्रस्त इस चित्र को देख कर एकदम दौड़ पड़ेगा, वह कहेगा, बुढ़ापा निकट आ रहा है। दिन जल्दी डूबने के हैं, जो भी करना है कर लो। तो वह कहेगा, इट ड्रिंक एण्ड बी मैरी। अब जल्दी पीओ, जल्दी खाओ, जल्दी नाचो, क्योंकि बुढ़ापा करीब आ रहा है। और इन दोनों का तर्क एक जैसा है, इस तर्क में फर्क नहीं है। इन दोनों का तर्क यही है कि बुढ़ापा आ रहा है। मौत आ रही है।
नहीं, इसको मैं अध्यात्मिक चित्र नहीं कहूंगा। अध्यात्मिक कला जमीन पर बहुत कम पैदा हो सकी। या तो वासनाग्रस्त कला है, या वासना विरोधी कला है। और जो वासना के विरोध में है, वह भी वासनाग्रस्त है। जो दुश्मन है वासना का, वह भी वासनाग्रस्त है। जो कह रहा है कि सुख क्षणभंगुर है, इसलिए छोड़ो। वह असल में सुख छोड़ने को नहीं कह रहा है, वह यह कह रहा है कि क्षणभंगुर है, इसलिए छोड़ो। लेकिन अगर शाश्वत हो तो?
तो फिर छोड़ना नहीं है। इसलिए जमीन पर स्त्री को छोड़ो और स्वर्ग में अप्सरा को भोगो। यह धार्मिक आदमी है! जमीन पर शराब छोड़ो और स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं, उसमें नहाओ। जमीन पर स्त्रियों से बचो और स्वर्ग की अप्सराएं सोलह साल से ज्यादा उम्र की होती ही नहीं, उनकी तैयारी करो। यह आदमी धार्मिक है! यह आदमी कह रहा है, जमीन पर कामनाएं छोड़ो और स्वर्ग में कल्पवृक्ष लगे हैं उनके नीचे बैठो और कामनाएं करो और पूरी हो जाएं।
बड़े मजे की बात है, कामनाएं इसलिए छोड़ो कि कल्पवृक्ष मिल जाए। तो यह कामना छोड़ने वाले की वृत्ति है? नहीं, यह तो मुझे लगता है कि भोगी से भी ज्यादा भोगी मालूम पड़ता है। भोगी तो बेचारा क्षणभंगुर से राजी है। बड़ा त्यागी है। यह आदमी कह रहा है कि हम क्षणभंगुर को छोड़ते हैं, क्योंकि हम शाश्वत को चाहते हैं। हम रमणी को छोड़ते हैं क्योंकि हम तो मोक्षरमणी को चाहते हैं। हम जमीन की स्त्रियों को छोड़ेंगे, क्योंकि वह बूढ़ी हो जाती हैं। हम तो स्वर्ग की अप्सराएं चाहते हैं जो कभी वृद्ध नहीं होती। हम सुख छोड़ते हैं क्योंकि यह आते हैं और चले जाते हैं। हम ऐसे सुख चाहते हैं, जो आएं और कभी न जाएं।
यह आदमी आध्यात्मिक है या सुखवादी है? यह हैडोनिस्ट है, पारएक्सलेंस। इसका मुकाबला ही नहीं है, सुखवाद का। इस सुखवादी ने स्वर्ग बनाए हैं। यह धार्मिक नहीं है। यह प्रलोभन दे रहा है। यह कह रहा है, यहां की स्त्रियां छोड़ो तो और अच्छी स्त्रियां इंतजार कर रही हैं। यहां का धन छोड़ो, तो अपार धन, अनंत धन इंतजार कर रहा है। यहां का शरीर छोड़ो, तो फिर और सुंदर देह मिल जाएगी। देवों की देह।
नहीं, यह धार्मिक चिंतन नहीं है। यह वासना शीर्षासन करती हुई खड़ी हो गई। इसलिए जो आदमी समझना चाहता हो, वह थोड़ा ठीक से देख ले कि इस तरह के सारे के सारे चिंतन के पीछे हमारी अतृप्त कामना ही मांग कर रही है। सप्रेस डिजायर, दमित की हुई कामना ही मांग कर रही है। यह ठीक नहीं है। इससे कोई अध्यात्म पैदा नहीं होगा। आध्यात्मिक कला तो आध्यात्मिक चित्त से पैदा होती है। और आध्यात्मिक चित्त परमात्मा का अनुभव न हो तो नहीं होता।
इसलिए मैं मानता हूं कि अभी वास्तविक कला का पृथ्वी पर जन्म सबसे कम हुआ है। विज्ञान थोड़ा वास्तविक हुआ है, धर्म और भी कम वास्तविक हुआ है, कला तो बहुत ही मुश्किल है वास्तविक होनी। अभी वे महाकवि पैदा नहीं हुए हैं। कभी-कभी झलक मिलती है किसी उपनिषद में, कभी झलक मिलती है किसी गीता में, कभी झलक मिलती है बाइबिल के किसी वचन में, कभी झलक मिलती है कबीर की किसी पंक्ति में, लेकिन झलक ही मिलती है। अभी वे महाकाव्य पैदा नहीं हुए। अभी वे महान मूर्तियां पैदा नहीं हुईं। कभी झलक अजंता में दिखती है, कभी एलोरा में, लेकिन वह झलक है, अभी पृथ्वी उनसे भर नहीं गई।
अभी कला के नाम पर जो चल रहा है, वह सब रोग है। बीमारी है। दो तरह के रोग हैं, एक जो वासना को उभार रहे हैं, एक जो वासना को दबाने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन दोनों की दृष्टि वासना पर है।
यह कला अगर ठीक से समझें, तो जीवन का चरम उत्कर्ष है। फिर जरूरी नहीं है कि आप मूर्ति ही बनाएं। फिर जरूरी नहीं है कि आप चित्र ही रंगें, फिर जरूरी नहीं है कि आप बांसुरी ही बजाएं। कुछ भी जरूरी नहीं है। फिर आपका पूरा जीवन ही सृजनात्मक होगा। आप चलेंगे तो भी उसमें काव्य होगा।
जब बुद्ध चलते हैं पृथ्वी पर, तो उनके कदमों की आहट में भी काव्य होता है; और जब जीसस सूली पर लटके हुए लोगों की तरफ देखते हैं, तो उनकी आंख में भी कविता होती है। जरूरी नहीं है कि जीसस चित्र बनाएं। बनाना चाहें तो बना सकते हैं। झेन फकीरों ने जापान में बहुत चित्र बनाए हैं। कोई मुकाबला नहीं उनके चित्रों का। लेकिन वे ध्यान के बाद बनाए हैं। चीन में ताओइस्ट फकीरों ने बड़ी मूर्तियां बनाई हैं, लेकिन वह ध्यान के बाद बनाई हैं।
उन मूर्तियों में, झेन फकीरों के चित्रों में, सूफी दरवेशों के नृत्य में, कबीर, दादू के गीत में, नानक, रैदास की पंक्तियों में, कृष्ण की बांसुरी में, उपनिषद की पंक्तियों में, कभी-कभी झलक आई है। लेकिन पृथ्वी अभी कला से वंचित है। मौन भी काव्य हो सकता है।
सच तो यह है कि परम अर्थों में जब कविता पूरी होती है और कला पूरी होती है, तो मौन हो ही जाएगी। लेकिन हम जिसको कला समझते रहे हैं, उसे मैं कला नहीं कह रहा हूं। हम जिसे कला समझते रहे हैं, वह ठीक वैसी ही है जैसे हम मनुष्य की वासनाओं को सहयोग देने वाला कहें या मनुष्य की वासनाओं को दबाने वाला कहें। लेकिन कला का केंद्र वासना रही है। अभी तक कला का केंद्र आत्मा नहीं हो पाई।
कला का केंद्र आत्मा तभी हो सकती है जब कलाकार देने को उत्सुक न हो, कुछ बनाने को उत्सुक न हो, कलाकार से कुछ बनना शुरू हो जाए, कलाकार से कुछ देना शुरू हो जाए। कलाकार के पास इतना हो कि बांटने के सिवाय उसके पास कोई रास्ता न रहे। लेकिन पीछे होना चाहिए न। हम वही दे सकते हैं जगत को जो हमारे पास है। जो हमारे पास नहीं है, वह हम जगत को कैसे दे सकते हैं?
इसलिए एक बड़ी अनूठी घटना घटती है। किसी कवि की कविताएं पढ़ें, तो ऐसा लगता है कि पता नहीं यह आदमी परमात्मा के मंदिर में प्रविष्ट हो गया होगा। और अगर वह कवि कहीं आपको होटल में बैठा मिल जाए, तो बड़ी मुश्किल होती है। मुश्किल यह होती है कि ये कविताएं इसी आदमी की थीं! चित्रकार का चित्र देख कर ऐसा लगता है कि पता नहीं किस मोक्ष की खबर लाया है। लेकिन अगर वह चित्रकार खुद मिल जाए, तो बड़ी मुश्किल होती है कि इस चित्रकार ने वह चित्र बनाया था! इस चित्रकार में तो कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता जिससे उस चित्र का जन्म हो जाए। तब यह चित्र क्या है?
यह क्रिएशन नहीं है, सिर्फ कंस्ट्रक्शन है। और इस फर्क को समझ लेना ठीक है। सृजन और निर्माण में बड़ा फर्क है। निर्माण के लिए किसी का कलाकार होना जरूरी नहीं है, निर्माण के लिए सिर्फ शिल्पी, टेक्नीशियन होना जरूरी है। एक आदमी रंग फैलाना जानता है, रेखाएं बनाना जानता है। स्कूल हैं, काॅलेज हैं, जहां रंग फैलाना और रेखाएं बनाना सिखाया जाता है। एक आदमी ने रेखाएं बनानी सीख ली हैं, रंग फैलाना सीख लिया है। यह आदमी टेक्नीशियन है, आर्टिस्ट नहीं है। यह आदमी चाहे तो कुछ भी बना सकता है। अगर इससे सुंदर स्त्री बनवानी हो तो सुंदर बना देगा, कुरूप स्त्री बनवानी हो तो कुरूप बना देगा। वासना भरी मूर्ति बनवानी हो तो वासना भरी मूर्ति बना देगा। और अगर वासना के विपरीत मूर्ति बनानी है, तो वह बना देगा। यह कुशल है, कलाकार नहीं। इस आदमी के पास टेक्नीक है। इसलिए कोई चीज निर्मित कर सकता है।
लेकिन क्रिएटिविटी कंस्ट्रक्शन नहीं है। सृजन बड़ी और बात... हो सकता है कि सृजक के पास कोई, कोई टेक्नीक ही न हो।
मैं सोच भी नहीं पाता कि कृष्ण ने किसी स्कूल में जाकर बांसुरी बजाना सीखा होगा। मैं सोच भी नहीं पाता कि मीरा किसी स्कूल में नाच सीखने गई होगी। मैं सोच भी नहीं पाता, और मुश्किल दिखता है कि चैतन्य ने कहीं भी शिक्षा ली होगी भजन की, और अपनी मृदंग पीटने की। चैतन्य की सारी शिक्षा तो तर्क की थी। चैतन्य ने पढ़ा तो था तर्कशास्त्र। चैतन्य थे तो एक पंडित। चैतन्य थे तो एक अदभुत विचारक। लेकिन एक दिन विचार थक गया, और एक दिन तर्क उस जगह आ गया, जहां तर्क की आगे गति नहीं है। और चैतन्य ने तर्क और विचार को फेंक दिया और मृदंग लेकर सड़कों पर नाचने लगे।
टेक्नीशियन, शिल्पी और कलाकार के फर्क को ठीक से ले लेना जरूरी है। शिल्पी वह बनाता है, जो विचार से बनाना चाहता है। सर्जक वह देता है जो उसके हृदय में भर गया है। शिल्पी मस्तिष्क से जीता है, कलाकार हृदय और आत्मा से जीता है। इसलिए तकलीफ हो रही है। अच्छा कवि हो सकता है कोई, लेकिन अच्छा काव्य उससे पैदा होगा यह जरूरी नहीं। और एक आदमी अच्छा कवि न हो, लेकिन अच्छा काव्य उससे पैदा हो सकता है।
अब उपनिषद के ऋषि कोई बड़े कवि रहे होंगे, ऐसा नहीं मालूम पड़ता। उन्होंने कोई छंद और कोई तुक का हिसाब रखा होगा, ऐसा मालूम नहीं पड़ता। इतने छोटे दिमाग नहीं हो सकते जो छंद और तुक का हिसाब रखते हों। जिसने सब हिसाब छोड़ कर और गैर-हिसाब में जो कूद गए हों, वे इस तरह के छोटे हिसाब नहीं रख सकते। लेकिन उनसे जो पैदा हुआ है, वह अमृत-काव्य है। उस, उस काव्य में बात ही कुछ और है। वह सिर्फ कविता नहीं है, वह सिर्फ शब्दों का जमावट नहीं है। वह सिर्फ मात्राओं का हिसाब नहीं है; वह हृदय का बहाव है। कुछ भीतर से बहा है और फैल गया है। उस बहाव में ही काव्य है।
रेल की गाड़ियां चलती हैं पटरियों पर, ठीक लोहे की पटरियों पर दौड़ती हैं। नदियां रेल की पटरियों जैसी नहीं दौड़ती हैं। बेढंगे हैं उनके रास्ते, अनजान, अपरिचित हैं उनके मार्ग। कुछ पता नहीं, बना-बनाया रेडीमेड कोई रास्ता ही नहीं है गंगा का। लेकिन गंगा के दौड़ने में जिंदगी है; रेल में जिंदगी नहीं हो सकती। टेक्नीशियन रेल की पटरियों पर दौड़ता है, सीखे-सिखाए मार्गों का उपयोग करता है। कलाकार अनजान, अपरिचित, अननोन में प्रवेश करता है। उसे कुछ पता नहीं है कि क्या होगा।
जिस समय कोई टेक्नीशियन किसी चित्र को बनाता है तो वह जानता है कि क्या बना रहा है, वह जानता है क्या बनाने वाला है। उसकी एक प्लानिंग है। उसकी एक योजना है। लेकिन जब एक सर्जक एक चित्र को बनाता है, तो वह उतना ही चैंकता है बन जाने के बाद जितना देखने वाले चैंकते हैं। उसको खुद भी पता नहीं है कि क्या बन जाएगा। वह सिर्फ परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ देता है। इसलिए बड़े सर्जक कभी नहीं कहते कि हमने कुछ बनाया है; वे कहते हैं, हमारे द्वारा कुछ बनाया गया है। वे सिर्फ मीडियम, माध्यम रह जाते हैं।
इसलिए अंतिम बात आपसे कहूं कि जो व्यक्ति परमात्मा के लिए माध्यम बन जाता है, जैसे कबीर ने कहा है कि मैं तो सिर्फ बांस की एक पोंगरी हूं, मैं कुछ और नहीं हूं। मेरे स्वर नहीं हैं, मैं तो सिर्फ बांस की एक पोंगरी हूं, स्वर तो परमात्मा के हैं। हां, यह हो सकता है कि मेरी पोंगरी ठीक काम न करे और स्वर बेसुरे सुनाई पड़ें, वह गलती मेरी होगी। लेकिन स्वर अगर सुंदर हों, और स्वर अगर प्राणों को नचा दें, तो धन्यवाद परमात्मा को देना। कबीर कहते हैंः मैं बांस की पोंगरी हूं।
कला उस दिन पैदा होती है जिस दिन व्यक्ति बांस की पोंगरी हो जाता है। जिस दिन वह कहता है मैं नहीं हूं, तू ही है। और जिस दिन उसकी अंगुलियां उसके अहंकार का काम नहीं करतीं, बल्कि परमात्मा का काम करने लगती हैं।
रामकृष्ण परमहंस का एक चित्रकार ने फोटो उतारी, और रामकृष्ण के पास वह एक चित्र को बना कर लाया। रामकृष्ण का ही चित्र। और जब वह चित्र आया तो कोई दस-पच्चीस लोग मौजूद थे रामकृष्ण के पास। रामकृष्ण ने वह चित्र देखा, वे उठ कर नाचने लगे और उस चित्र के पैर पड़ने लगे। वह रामकृष्ण का ही चित्र था। पास बैठे भक्तों ने कहाः आप यह क्या कर रहे हैं?
भक्त अपने गुरुओं की बड़ी रक्षा करते रहते हैं, क्योंकि भक्तों को सदा डर रहता है कि गुरु कुछ गड़बड़ न कर दे।
भक्तों ने कहाः आप यह क्या कर रहे हैं? अपने ही चित्र के, और पैर पड़ते हैं? रामकृष्ण ने कहाः भली याद दिलाई, मैं तो भूल ही गया कि मेरा चित्र है। मुझे तो सिर्फ इतना ही लगा कि कैसा समाधिस्थ, समाधि का चित्र है, इक्सटेसी का--तो मैं नाचने लगा। और मैंने पैर पड़ लिए, तुमने अच्छी याद दिलाई, नहीं तो लोग मुझ पर बहुत हंसते।
अब इस आदमी को अपना चित्र भी पहचानने नहीं आया, बात क्या है?
असल में अपनी पहचान ही मिट गई है, नहीं तो पहचान में कैसे न आता। यह आदमी अब सिर्फ बांस की पोंगरी रह गया है। अब यह अपने चित्र में भी परमात्मा को ही देख पाया और पैर पड़ पाया। यह अपने चित्र में भी अपने को न देख सका, समाधि दिखाई पड़ी। रामकृष्ण ने कहा कि इस चित्र के हजारों साल तक लोग पैर पड़ेंगे, क्योंकि यह समाधि का चित्र है। एक सज्जन ने कहा कि आप ऐसी बात न कहें, लोग क्या कहेंगे कि अपने ही मुंह से कैसा अहंकारी आदमी रहा होगा कि कहता है कि मेरे चित्र के लोग हजारों साल तक पैर पड़ेंगे। रामकृष्ण ने कहाः तुमने पता नहीं कैसे सुन लिया? मेरे तो मैंने कहा ही नहीं। मैंने कहाः इस चित्र के। मुझसे क्या लेना-देना है, यह समाधि का चित्र है।
कला जन्मती है उस दिन, जिस दिन कलाकार मर जाता है। जब तक कलाकार है, तब तक कला का जन्म नहीं होता। जब तक अहंकार है तब तक कला का जन्म नहीं होता। जब तक मैं हूं, तब तक सिर्फ कंस्ट्रक्शन है, क्रिएशन नहीं है। परमात्मा इतने बड़े जगत को बना पाया, क्योंकि परमात्मा बिलकुल नहीं है। हम एक छोटा सा चित्र बना लेंगे और बुरी तरह हो जाएंगे। हम एक छोटी सी मूर्ति खोद लेंगे और बुरी तरह हो जाएंगे।
एक बहुत बड़ा मूर्तिकार हुआ। उसने एक पत्थर को खोद कर मूर्ति बनाई। राह से जो लोग भी निकलते हैं, वे धन्यवाद देते हैं कि अदभुत हो तुम, इतनी सुंदर मूर्ति बनाई। वह चित्रकार कहता है कि तुम, सभी नासमझ ही इस रास्ते से गुजरते हैं क्या? मैंने मूर्ति बनाई नहीं। मैं यहां से गुजरता था, इस पत्थर में छिपी मूर्ति ने मुझे पुकारा। मैंने तो सिर्फ बेकार पत्थरों को अलग किया है। मूर्ति तो छिपी थी, वह प्रकट हो गई। मैंने सिर्फ बेकार पत्थरों को अलग कर दिया छेनी से, मूर्ति तो पत्थर में छिपी थी। मैं यहां से गुजरता था, मूर्ति ने मुझे पुकारा कि कहां जा रहे हो, थोड़े से गलत पत्थर अलग कर दो। और अब मैं कह सकता हूं कि जो मूर्ति के भीतर से मुझे बुलाया, उसी ने मेरे भीतर से सुना। अन्यथा मैं सुन कैसे सकता था? अगर पत्थर के भीतर बोलने वाला और हो, और मेरे भीतर सुनने वाला और हो, तो कम्युनिकेशन कैसे होगा, संवाद कैसे होगा? मैं सुन सका, क्योंकि जो मूर्ति के भीतर छिपा है, वही मेरे भीतर छुपा है। उसने मुझे खबर दी, मैंने गैर-जरूरी पत्थर भर अलग कर दिए हैं।
मूर्तिकार मर जाए, तो मूर्ति पैदा होती है। चित्रकार मर जाए, तो चित्र जन्मता है। कवि मर जाए, तो कविता पैदा होती है। कलाकार नहीं हो जाए, तो कला का जन्म होता है। नहीं हो जाने की कला का नाम ध्यान है। इसलिए आखिरी दो-चार बातें ध्यान के संबंध में आपसे कहूं।
ध्यान का मतलब नहीं है कि आप कुछ करते हैं। लोग कहते हैं, मैं ध्यान करता हूं। जब तक मैं है, तब तक तो ध्यान नहीं हो सकता। लोग कहते हैं, मैं ध्यान करता हूं। जब तक करना है, तब तक भी ध्यान नहीं हो सकता। कभी आपने सोचा, जब आप कहते हैं, मैं प्रेम करता हूं, तो आप बड़ी गलत भाषा बोलते हैं। प्रेम भी किया जा सकता है? कभी दुनिया में किसी ने प्रेम किया है, सिर्फ अभिनेताओं को छोड़ कर। और अगर आप भी करते हैं तो अभिनय ही करते होंगे, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता कि मंच आपकी कितनी बड़ी है और अभिनेता कितने स्थाई हैं--इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता।
प्रेम किया नहीं जा सकता, प्रेम कोई कृत्य नहीं है, एक्ट नहीं है। कैसे करिएगा प्रेम? इसलिए अगर मैं आपसे कहूं कि चलिए शुरू करिए प्रेम, आप कैसे करिएगा? आप अचानक पाएंगे कि नहीं होता। आप कहेंगे कैसे कर सकता हूं?
प्रेम कोई कृत्य नहीं है, एक्शन नहीं है। प्रेम एक स्टेट आॅफ माइंड है। एक चित्त की दशा है। किया नहीं जाता, होता है। इसलिए जो लोग प्रेम में गहरे उतरेंगे, वे कहेंगे प्रेम हो गया। वे नहीं कहेंगे कि प्रेम किया। और दूसरे मजे की बात है कि जब प्रेम होता है, तब आप नहीं होते। और जब तक आप होते हैं, तब तक प्रेम नहीं होता।
जब आप अपने प्रेमी के पास होते हैं, तब आप होते हैं? नहीं प्रेमी हो सकता है, आप नहीं होते। आप बिलकुल मिट गए होते हैं, आप होते ही नहीं है, एक शून्य रह गया होता है। इसलिए दो प्रेमी जब मिलते हैं, तो कितना विचार करके आते हैं कि यह बात करेंगे, यह बात करेंगे, यह बात करेंगे। लेकिन जब मिलते हैं, तो चुप हो जाते हैं। सब बातें खो जाती हैं। ऐसे ही जैसे जब तक घड़ा खाली होता है, तो आवाज करता है और जब भर जाता है, तो चुप हो जाता है। दो प्रेमी मिल कर आज तक इतना भी नहीं कह पाए कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। आप कहेंगे, नहीं, बहुत प्रेमी कहते हैं कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं।
ध्यान रखना: जब कोई कहे, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। तो समझना कि प्रेम का क्षण जा चुका है, यह सिर्फ स्मृति है। जब प्रेम होता है तो इतने कहने का भी मन नहीं होता कि करता हूं, कि मैं हूं। जब प्रेम होता है, तो प्रेम ही इतना होता है कि वहां मैं और तू को जगह नहीं रह जाती।
रूमी ने एक गीत लिखा है कि एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखटाता है। पीछे से आवाज आती है, कौन है तू? तो वह प्रेमी कहता है, मैं हूं। तूने आवाज नहीं पहचानी? तो वह प्रेयसी कहती है कि जब तक तू है और तेरी आवाज और तेरी पहचान, तब तक प्रेम के द्वार कैसे खुल सकते हैं? वह प्रेमी वापस लौट जाता है। वर्षों के बाद वापस आता है, फिर द्वार ठोकता है। वह प्रेयसी पूछती है, कौन है तू? तो वह प्रेमी कहता है अब तो मैं नहीं हूं, अब तो तू ही है। और रूमी कहते हैं कि द्वार खुल जाता है।
मैं नहीं कहूंगा। मैं मानता हूं रूमी ने जरा जल्दी द्वार खुलवा दिए। मैं तो कहूंगा कि वह प्रेयसी फिर कहती है कि जब तक तेरे लिए तू है, तब तक मैं भी छुपा होगा, कहीं न कहीं गहरे में बैठा होगा। क्योंकि अगर मैं भीतर मर जाए, तो बाहर तू भी मिट जाता है। मैं और तू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां तक मैं है, वहां तक तू है।
इसलिए जो भक्त भगवान से कहता है कि तू ही है, मैं नहीं हूं। वह घोषणा कर रहा है कि मैं पूरी तरह हूं। उसके घोषणा न करने में, उसके इनकार में भी उसका मैं मौजूद है। इनकार करने को भी कम से कम मैं तो चाहिए ही। नहीं, भक्त इतना भी नहीं कहता कि तू ही है, मैं नहीं हूं, भक्त कुछ कहता ही नहीं, बस रह जाता है। वह तू भी नहीं कहता, मैं भी नहीं कहता। वह चुप हो जाता है। इस चुप्पी का नाम ध्यान है।
यह चुप्पी अगर प्रेम से उपलब्ध हो जाए, तो उस मार्ग का नाम भक्ति है। यह चुप्पी अगर ज्ञान से उपलब्ध हो जाए, तो उस मार्ग का नाम ज्ञान है। यह चुप्पी अगर कर्म के मार्ग से उपलब्ध हो जाए, तो उस मार्ग का नाम कर्म है। और इस चुप्पी का नाम ध्यान है। चुप हो जाए मेरा मैं, वह जो भीतर निरंतर बोल रहा है--मैं। वह श्वास-श्वास में बोल रहा है--मैं। आंख की पलक हिलती है तो--मैं, पैर उठता है तो--मैं, श्वास लेता हूं तो--मैं। सब तरफ वह जो मेरा मैं है, वह चुप होता जाए, वह शांत होता जाए। और एक घड़ी आ जाए कि मैं अपने भीतर खोज कर कह सकूं कि मैं कहां गया? मैं कहां है? तो ध्यान उपलब्ध होता है।
लेकिन हम बड़े अदभुत लोग हैं। सांसारिक आदमी का मैं तो होता ही है, जिसको हम धार्मिक कहते हैं, उसका और प्रगाढ़ता से होता है। एक गृहस्थ का तो मैं होता ही है, होना ही चाहिए। लेकिन जिसको हम संन्यस्त कहते हैं, उसके मैं का कोई मुकाबला ही नहीं। संन्यासी का मैं और सघन हो जाता है। भक्त को देखा है सड़क पर, उसकी अकड़ ही और है। क्योंकि वह टीका लगाए हुए है। जिसके माथे पर टीका नहीं है, उसको वह नरक भेजने की नजर से देख रहा है। जो मंदिर नहीं गया है, उसको सोच रहा है कि नरक में सड़वा देगा, आश्चर्य है!
ध्यान का अर्थ सिर्फ एक ही है कि मैं न रह जाए। लेकिन वह मैं बड़ा प्रगाढ़ होता चला जाता है। मैं की तरकीबें अनंत हैं। उसके रास्ते सूक्ष्म हैं। कहीं से भी भागो, मैं पकड़ लेता है। मैं से भी भागो तो पकड़ लेता है। और निर-अहंकारी खड़े होकर बाजार में कहने लगता है कि मुझसे बड़ा निर-अहंकारी कोई भी नहीं है। हद हो गई!
यह अहंकार की घोषणा है कि मुझसे बड़ा निर-अहंकारी और कोई भी नहीं। अहंकार के रास्ते सूक्ष्म हैं। वह धन होता है, तो कहता है इतना है धन मेरे पास। वह धन को त्याग देता है, तो वह कहता है इतने धन को मैंने लात मार दी। लेकिन वह मैं पीछे खड़ा रह जाता है। वह संसार में भी अपने को भर लेता है। वह परमात्मा में भी अपने को भर लेता है। वह कहता है मेरा परमात्मा सही है, तुम्हारा गलत है।
मेरा भी परमात्मा हो सकता है, वह भी मेरा पजेशन हो जाता है। अगर मेरे मंदिर में आग लगा दी तो मैं आपकी मस्जिद में आग लगा दूंगा, क्योंकि वह तुम्हारे परमात्मा का मंदिर है। मस्जिद वाला मंदिरों को तोड़ता जाएगा, मंदिर वाले मस्जिदों को तोड़ते जाएंगे। ईसाई हिंदू को गलत समझेगा, हिंदू ईसाई को गलत समझेगा। गीता वाला कुरान को गलत समझेगा, कुरान वाला वेद को गलत समझेगा। यह क्या पागलपन है?
लेकिन जहां मैं है, वहां पागलपन होता ही है। असल में मैं के अतिरिक्त और कोई मैडनेस नहीं है। मैं ही पागलपन है। मैं जितना बड़ा होता जाता है, हमारे भीतर पागल उतना सघन होता जाता है। मैं जितना विरल होता है, हमारे भीतर पागल उतना विदा होता जाता है। जिस दिन मैं नहीं रह जाता, उस दिन हम पागल नहीं रह जाते। और जो पागल नहीं है, वह धार्मिक है। वह ध्यान को उपलब्ध होता है।
तो अंतिम बात आपसे इतना ही कहूं कि जरा इस मैं के रास्ते पहचानना। खयाल करके इससे लड़ना मत। क्योंकि लड़ेंगे तो वह मैं कहेगा कि देखो मैं लड़ रहा हूं। लड़ना मत सिर्फ रास्ते पहचानना कि मैं कहां-कहां से हाथ बढ़ा कर आपको पकड़ लेता है। बस सुबह से सांझ तक उसके रास्ते पहचानना। और जब वह पकड़े और जब आपके पैर को पकड़ ले, और आप अकड़ कर चलने लगें, और जब आपकी रीढ़ को पकड़ ले, और आप पद्मासन में बैठ जाएं, और जब आपके सिर को पकड़ ले, और टीका लगा ले, और जब मंदिर में आपको पकड़ ले, और चाल बदल जाए, तो जरा उसको पहचानना कि यह मैं पकड़ रहा है।
और जब आप मैं को पहचानने लगेंगे, तो बुद्ध का एक वचन है कि जैसे घर में दीया जला हो तो चोर नहीं आते, और घर का पहरेदार जगा हो तब तो चोर आना बहुत मुश्किल हो जाता है, लेकिन पहरेदार सोया हो और घर का दीया बुझा हो, तब तो घर चोरों का ही हो जाता है।
ऐसे ही जब भीतर हमारा पहरेदार जगा हो, साक्षी जगा हो और देख रहा हो कि कहां-कहां से मैं पकड़ रहा है, तो वह मैं का चोर आना बंद हो जाता है। और जब हमारे भीतर चेतना का दीया जला हो, मौन का दीया जला हो, चुप्पी का दीया जला हो, तो वह फिर चोर हमारे भीतर प्रवेश नहीं कर पाता। और एक ही चोर है, मैं। उसने ही हमसे परमात्मा को छीन लिया है। छोटा-मोटा चोर नहीं है, बहुत बड़ा चोर है। क्योंकि जो परमात्मा को छीन सके, वह कोई साधारण चोर नहीं है। एक ही दीवाल है।
मैं एक बच्चे को देख रहा था एक रास्ते पर। वह एक बांस की छोटी सी पोंगरी बना कर साबुन के बबूले उड़ा रहा था। पोंगरी को डुबा लेता था साबुन के पानी में, फूंक मारता था, बबूला बन जाता और आकाश में उड़ता था। सुबह का सूरज, साबुन का बबूला, सुबह की सूरज की किरणें, उसमें उठता हुआ बबूला और सूरज की किरणें सब तरंगों में टूट जातीं उस बबूले को पार करके, बड़.ा सुंदर हो जाता था। वह बच्चा उसे पकड़ने दौड़ता था, लेकिन वह बबूला ऊपर उठता जाता था।
बड़ी मजे की घटना उस दिन मुझे दिखाई पड़ी। वह साबुन नीचे भी पड़ा था, लेकिन सुंदर न था। वही साबुन की एक बूंद फैल कर सूरज की किरणों में बहुत सुंदर हो गई थी। जिसे हम सौंदर्य कहते हैं, वह सब ऐसा ही सौंदर्य है। सब मिट्टी है, सूरज की किरणों में फैल कर सुंदर हो जाती है। कहीं फूल बन जाता है, कहीं आदमी बन जाता है, कहीं स्त्री बन जाती है, कहीं चांद बन जाता है। सब सूरज की किरणों में फैल कर सुंदर हो जाता है।
सौंदर्य नीचे पड़ी चीजों का ऊपर उठ जाना है। सौंदर्य अंधेरे में पड़ी चीजों का प्रकाश में आ जाना है। सुंदर हो गई थी बहुत, एक बूंद साबुन की। बर्तन में नीचे साबुन की बूंदें पड़ी थीं, सुंदर न थीं। सूरज की किरणों में बहुत सुंदर हो गई थीं। और बड़ा आश्चर्य कि वह बबूला ऊपर उठ रहा था। ऐसा लगता था जैसे बबूला अपनी तरफ से ऊपर उठ रहा है। आपने भी साबुन के बबूले ऊपर उठते देखे होंगे, लेकिन आपको पता न होगा कि बबूला क्यों ऊपर उठता है?
साबुन का बबूला इसलिए सिर्फ ऊपर उठता है कि बच्चे के मुंह से जो हवा निकलती है वह गर्म होती है, बाहर की हवा से। ठंडी हवा नीचे की तरफ गिरती रहती है, गरम हवा ऊपर की तरफ उठने लगती है। गर्म हवा को जगह देने के लिए ठंडी हवा मार्ग छोड़ देती है, तो वह बबूला ऊपर उठने लगता है। हालांकि बबूला भी नीचे गिरना चाहता है। सब चीजें नीचे गिरना चाहती हैं। लेकिन गर्म हवा है, विरल है, आस-पास की जो हवा है, ज्यादा ठंडी, ज्यादा सघन है। आस-पास की हवा ज्यादा ईगोइस्ट है, ज्यादा अहंकार से भरी है। बबूले के पास अहंकार जरा विरल है। तो वह ऊपर उठने लगता है। उसके पास मैं का भाव थोड़ा कम है। हवा थोड़ी सघन कम है, इसलिए ऊपर उठने लगता है।
लेकिन एक और मजे की बात है कि वह थोड़ी देर ही ऊपर उठता है, लेकिन जैसे-जैसे ऊपर उठता है, बड़ा होता जाता है। जो भी चीज ऊपर उठती है, बड़ी होती चली जाती है। वह बबूला भी बड़ा होता चला जाता है, क्योंकि उस पर दबाव हवा का कम होता जाता है और साबुन फैलती चली जाती है। फिर एक क्षण आता है कि साबुन का बबूला टूट जाता है और हम कहते हैं बबूला मर गया। वह बच्चा दूसरा बबूला बनाने में लग जाता है।
लेकिन क्या बबूला मर गया? क्या मर गया? उस साबुन की पतली सी फिल्म के भीतर जो हवा थी, वह मर गई। वह अब भी है। वह साबुन की पतली सी फिल्म जो उस हवा के चारों तरफ फैल गई थी, वह मर गई? वह अब भी है। मर कुछ भी नहीं गया। सिर्फ बबूला इतना बड़ा हो गया कि अब साबुन की फिल्म उसे न सम्हाल सकी। साबुन की फिल्म टूट गई और बबूला विराट सागर से मिल गया।
ऐसे ही ध्यान में रोज विरलता आती जाती है। फिर एक दिन जिसे हम ‘मैं’ कहते हैं, वह साबुन के बबूले की फिल्म की तरह टूट जाता है। हम मर नहीं जाते, लेकिन जिसे हम ‘हम’ कहते थे, वह मर जाता है। वह भी क्या मर जाता है, सिर्फ हमारा भ्रम मर जाता है। और वह जो हमारे भीतर विराट हमारे बबूले के भीतर बंद था, विराट के साथ एक हो जाता है। उस दिन नृत्य है। उस दिन संगीत है। उस दिन कला है। उस दिन सृजन है। उस दिन व्यक्ति के जीवन से दुख का अंत हो गया और आनंद की वीणा बजने लगती है।
उस आनंद की वीणा से उठे स्वरों का नाम कला है। उस आनंद के स्वरों से जन्मे हुए चित्रों का नाम कला है। उस आनंद के स्वरों से बजे हुए घुंघरूओं का नाम कला है। उस आनंद से जो भी हो, चाहे मौन, चाहे नृत्य, चाहे संगीत, चाहे गीत, चाहे काव्य, चाहे साहित्य, और चाहे कुछ भी न हो, कोई चुप ही रह जाए, तो उसका मौन भी कला है।
यह तीन बातें मैंने कही। विज्ञान प्रथम चरण है। वह तर्क का पहला कदम है। तर्क जब हार जाता है तो धर्म दूसरा चरण है, वह अनुभूति है। और जब अनुभूति सघन हो जाती तो वर्षा शुरू हो जाती है, वह कला है। और इस कला की उपलब्धि सिर्फ उन्हें ही होती है जो ध्यान को उपलब्ध होते हैं। ध्यान की बाई-प्राॅडक्ट है। जो ध्यान के पहले कलाकार है, वह किसी न किसी अर्थों में वासना केंद्रित होता है। जो ध्यान के बाद कलाकार है, उसका जीवन, उसका कृत्य, उसका सृजन, सभी परमात्मा को समर्पित और परमात्मामय हो जाता है।
इसलिए कला को मत खोजना, खोजना ध्यान को। और कला को छाया की तरह पीछे से आने देना। कला को मत खोजना, खोजना मौन को; कला को पीछे आने देना। कला सदा शैडो की तरह आती है, पीछे से आती है। जो कला को सीधा खोजता है, वह शैडोलैंड में खो जाता है। वह सिर्फ छायालोक में खो जाता है। इसलिए जिसको हम कलाकार कहते हैं--चित्रकार, मूर्तिकार, कवि--वे सब छायालोक में खोए रहते हैं। सत्य की दुनिया से उनका कोई संबंध नहीं हो पाता। वे सिर्फ सपनों में ही खोए रहते हैं। और अपने सपनों को ही सजाते और संवारते रहते हैं। कला का सपनों से कोई संबंध नहीं। जितना संबंध विज्ञान का सत्य से है, जितना संबंध धर्म का सत्य से है, उतना ही संबंध कला का भी सत्य से है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। जरूरी नहीं कि मेरी सब बातें ठीक हों। यह भी जरूरी नहीं कि कोई एकाध बात भी ठीक हो। यह भी जरूरी नहीं कि आप मेरी बातें मानें। इतना ही काफी है कि जो मैंने कहा उसे आप थोड़ा सा सोचना, हो सके तो थोड़ा सा अनुभव करना। हो सके तो अनुभूति को थोड़ा सा फैलने देना और बंटने देना।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

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