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रविवार, 21 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(बोधकथाएं)-ओशो

मिट्टी के दीये-(बोधकथाएं)

ओशो द्वारा कही गई 59 बोधकथाओं का

अनूठा-अपूर्व संकलनं

भूमिका

वह देखते हो? उस दीये को देखते हो? मिट्टी का मत्र्य दीया है, लेकिन ज्योति तो अमृत की है। दीया पृथ्वी का--ज्योति तो आकाश की है। जो पृथ्वी का है, वह पृथ्वी पर ठहरा है, लेकिन ज्योति तो सतत आकाश की ओर भागी जा रही है। ऐसी ही मिट्टी की देह है मनुष्य की, किंतु आत्मा तो मिट्टी की नहीं है। वह तो मत्र्य दीप नहीं, अमृत ज्योति है; किंतु अहंकार के कारण वह भी पृथ्वी से नहीं उठ पाती है।’’

माटी का दीया मनुष्य का बुनियादी सत्य है। ‘अप्प दीपो भव’--कह कर बुद्ध ने इसी को उजागर किया है।
माटी अस्तित्व का प्रतीक है और ज्योति चेतना का। परमात्मा की करुणा ही स्नेह बन कर वाणी की बाती को सिक्त किए रहती है। चैतन्य ही प्रकाश है, जो अस्तित्व को परमात्मा की करुणा के सहारे सार्थक करता है।


माटी सामान्य होती है। सर्वत्र सहज सुलभ। ज्योति किंतु प्रत्येक की अपनी निजी होती है। सिर्फ माटी भर होने से कुछ नहीं होता। कुम्हार के चाक पर घूमना होता है माटी को। अवे में तपना होता है। तब जाकर कहीं वह परमात्मा की स्नेहरूपा करुणा का पात्र बन पाती है और दीया बनती है। दीया, जो प्रकाश का प्रतीक होता है।
इसी पुस्तक में एक कहानी है। किसी गांव के पास एक ऊंची पहाडी होती है। कोई दस मील की कठिन च.ढाई च.ढ कर ही उसकी चोटी पर पहुंचा जा सकता है। गांव का एक किसान उसके प्रति बेहद आकर्षण अनुभव करता है और दिन तपने के पहले ही पहाड की चोटी पर पहुंच जाने के ख्याल से रात के तीसरे पहर में ही घर से निकल पडता है। पहाडी पर लेकिन अंधेरा बहुत घना होता है और किसान के पास सिर्फ एक छोटी सी कंदील भर होती है, जिसका प्रकाश बस, यही कोई दस कदम तक ही जा पाता है। किसान सोचता खडा रह जाता है, दस मील का घना अंधेरा और सिर्फ दस कदम तक का प्रकाश। भला इस छोटी सी कंदील के सहारे यह इतना सारा घना अंधकार कैसे पार किया जा सकता है? यह तो अंजुरी से समुद्र उलीचने जैसा ही हुआ। वह पहाड की तलहटी तक पहुंच कर वहां हतप्रभ सा खडा होता है, तभी एक बू.ढा आदमी उससे भी छोटा एक दीया हाथ में लिए उसके पास से निकल कर शिखर की ओर आगे ब.ढ जाता है। किसान आगे ब.ढ कर रोकता है उसे और अपनी चिंता से अवगत कराता है। और बू.ढा ठठा कर हंस पडता है और कहता है, ‘‘अरे मूरख, दीया छोटा है तो इससे क्या, तू कदम तो आगे ब.ढा, अगले दस कदम इसी से प्रकाशित होंगे। इसके सहारे तो पूरी पृथ्वी की परिक्रमा लगाई जा सकती है।’’
ओशो ने इस पुस्तक में ऐसी ही छोटी-छोटी सामान्य जन-जीवन से ताल्लुक रखने वाली कहानियों के माध्यम से आदमी के भीतर का अंधेरा साफ किया है, उसे उसकी अपनी आंतरिक क्षमता से अवगत कराया है और बुद्धत्व का पथ प्रशस्त किया है।
एक कहानी में वे समुद्र में डूबे एक मंदिर की घंटियों के बहाने हमें चेतना के परम अंतःसंगीत तक ले जाते हैं, तो एक अन्य प्रसंग में मनुष्य के अंग-प्रत्यंग की बहुमूल्यता प्रतिपादित कर अस्तित्व के प्रति असीम अहोभाव से हमारी चेतना को आपूरित कर जाते हैं।
इस पूरी किताब में बस, वैसे तो कहानियां ही कहानियां हैं। छोटी-छोटी सी कहानियां। हर कहानी का मगर अपना अलग मजा है; बुनावट है; सार्थकता है। ये कहानियां जीवन के विविध मार्मिक प्रसंगों से संबंधित हैं और बडी सहजता से भ्रांतियों की परतें हटा कर सत्य को उजागर कर देती हैं। बुद्धों की शायद शैली ही यह रही है। उनका मौन शायद ऐसे ही मुखर होता आया है और इसमें फिर ओशो का तो वैसे भी कोई जवाब नहीं। हजारों श्रोताओं का मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनना और फिर सुनते ही सुनते गहरे मौन में उतर जाना, इसी युग में लगातार कोई चार दशकों तक घटित हुआ है। वे पूरी पृथ्वी पर चिंगारी बन कर चहके हैं और दुनिया भर के अंधेरे भयभीत हैं उनसे। अपने झूठे दंभों पर आधारित अधिकार क्षेत्रों में उनके चरण भी पडने देना नहीं चाहते। मगर उनके चाहने न चाहने से भला, क्या होना-जाना है। चिंगारी है तो फैलेगी ही। उसे रोकना असंभव है। वह ज्योति की वंशजा है। नये मनुष्य का पथ उसी के माध्यम से प्रशस्त होना है...और उसके संवाहक होंगे, ये माटी के दीये। इनका सानुराग स्वागत है।
इसी संदर्भ में, बुद्धि के अजीर्ण से ग्रस्त बीमार मानसिकता के पक्षधर लोगों से भी कहना हैः
टूटे हुए दर्पण के टुकडों पर
सूरज की चार किरण
चमकाते हुए लोगो
स्वस्थ युग-दृष्टि को चैंधियाते हुए लोगो
सूरज किसी के बाप का नौकर नहीं है
वह तो शाम होते ही
अपने घर जाएगा
और तब धरती पर
अंधियारा छाएगा
तब तुम ये कांच के टुकडे लिए हुए
नहीं चल सकते
क्योंकि कांच के ये टुकडे
दीपक की तरह नहीं जल सकते
इसीलिए माटी के दीये लो
उन्हें अक्षय स्नेह से भर दो
बाती के मस्तक पर
ज्वाला से तिलक कर दो।
स्नेह और ज्वाला का सम्यक् संयोग ही प्रकाश है। इसी पुस्तक में एक स्थान पर ओशो कहते हैं--
‘‘प्रेम और प्रज्ञा, जो इन दो बीज मंत्रों को समझ लेता है, वह सब समझ जाता है, जो समझना चाहिए और जो समझने योग्य है और जो समझा जा सकता है।’’ वे प्रेम की पूर्णता को ही प्रार्थना कहते हैं और रेखांकित करते हैं कि जिन हृदयों में प्रेम नहीं है, उनमें प्रार्थना भला, कैसे जन्म ले सकती है। और कण-कण में ही जिसके लिए परमात्मा नहीं है, उसके लिए कहीं भी परमात्मा नहीं हो सकता। उनके लेखे प्रकृति के अतिरिक्त परमात्मा का और कोई मंदिर नहीं है। शेष सभी मंदिर-मस्जिद तो पुरोहितों की ईजाद हैं। और पुरोहित सदा से ही परमात्मा की हत्या करने में संलग्न रहे हैं। उन्होंने बातें तो प्रेम की की हैं और जहर घृणा का फैलाया है। इसी पुस्तक में ओशो ने कहा है, ‘‘परमात्मा उसकी ही मूर्तियों और मंदिरों के कारण खो गया है और उसके पुजारियों के कारण ही उससे मिलन कठिन है। उसके लिए गाई गई स्तुतियों के कारण ही स्वयं उसकी आवाज को सुन पाना असंभव हो गया है।’’
ओशो-वाणी के ये सुमन प्रस्तुत पुस्तक में मनोरम कथानकों के बीच यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। ये प्रसंग कोई तीन दशक पहले के उनके प्रों में से संकलित हैं और बताते हैं कि एक बुद्ध-चेतन किस तरह तय करता है ‘कैवल्य’ तक का अपना सफर, इस अनूठे सफर में कौन होते हैं उसके हमराही और कैसी होती है वह चैतन्य दृष्टि, जिसके सहारे वह मामूली-मामूली कथानकों को लेकर अस्तित्व की अथाह गहराइयां छान लेता है, आकाशगंगाओं में अवगाहन करता है और पार हो जाता है, हंसते-खेलते और नाचते-गाते हुए। ओशो जीवन की विराट सहजता के हामी हैंः
नदिया जैसे बहे
समीरन सहज सुगंध लुटाए
भोर सोन-जल, रात चांदनी
डूबे, डूब नहाए
मंद पवन-से बहे कभी तो
तेज हवा-से चले
शीतल छैयां मिली, भोग ली
कभी हवन-से जले
पानी बरसा, अच्छा बरसा
हमको भी सुख मिला
कभी नहीं टूटा है प्यारो
जीवन का सिलसिला
यही वजह है, हम गाते हैं
और सुना जाते हैं
जहां नहीं बरसे हैं बादल
लाकर बरसाते हैं
बादल अपना कहना माने
अपनी ना-कुछ हस्ती
लेकिन प्यारो, मनवाती है
उनसे अपनी मस्ती
तुम भी आओ, तट पर बैठो
जल में पांव हिलाओ
जीवन जिओ, सहेजो जीवन
उत्सव नित्य मनाओ
वैसे, बडे जतन से ओ.ढी
हमने मैली की न चदरिया
हमने तो जीवन को प्यारो
बस, ऐसे ही जिया
तुम अपनी पसंद का जी लो
हमने तो जी लिया।
ओशोई जीवन-दृष्टि एक विराट कविता का ही बहुरंगी केनवास है, जिसे समूचे अस्तित्व में व्याप्त चैतन्य रंगों से चित्रित किया गया है। वे जीवन की सतत प्रवाहमानता के प्रबल पक्षधर हैं। अतः उनके लेखे पूर्णविराम सिवा ‘सुन्न समाधि’ के, कहीं और है ही नहीं। हर रोज नये सूरज को नई आस्था के साथ अध्र्य देना और मगन हो रहना, उनकी जीवंत जीवन-शैली का मूल मर्म है। वे समूचे गर्हित अतीत को एकदम नकार देने का साहस सिखाते हैं और हमें वह पथ दिखाते हैं, ये माटी के दीये, जिन्हें इस पुस्तक में जतन से सहेजा गया है।
माटी के ये दीये नये मनुष्य के हाथों में हों और मनुष्यता का प्रज्ञा-पथ प्रशस्त करें, यही शुभ कामना है।
प्रणामाः संतु!
सानुराग-
राजेन्द्र अनुरागी


मध्यप्रदेश की राज्य साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत और भोपाल के ‘नगरश्री’ सम्मान से अलंकृत कवि श्री राजेन्द्र अनुरागी विगत तीन-चार दशकों से सतत साधनारत हैं। अध्यापन, लेखन, पत्रकारिता, फिल्म इत्यादि सृजन के विविध क्षेत्रों में इनकी गहरी पैठ रही है।

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