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शनिवार, 27 अक्तूबर 2018

मिट्टी के दीये-(कथा-54)

बोधकथा-चव्वनवी 

सुबह से सांझ तक सैकडों लोगों को मैं एक दूसरे की निंदा में संलग्न देखता हूं। हम सब कितना शीघ्र दूसरों के संबंध में निर्णय कर लेते हैं, जब कि किसी के भी संबंध में निर्णय करने से कठिन और कोई बात नहीं है। शायद परमात्मा के अतिरिक्त किसी के संबंध में निर्णय करने का कोई अधिकारी नहीं, क्योंकि एक व्यक्ति को--एक छोटे से, साधारण से मनुष्य को भी जानने के लिए जिस धैर्य की अपेक्षा है, वह परमात्मा के सिवाय और किसमें है?
क्या हम एक दूसरे को जानते हैं? वे भी जो एक दूसरे के बहुत निकट हैं, क्या वे भी एक दूसरे को जानते हैं?
मित्र, क्या मित्र भी एक दूसरे के लिए अपरिचित और अजनबी ही नहीं बने रहते हैं?
लेकिन, हम तो अपरिचितों को भी जांच लेते हैं और निर्णय ले लेते हैं और वह भी कितनी शीघ्रता से!

ऐसी शीघ्रता अत्यंत कुरूप होती है। लेकिन जो व्यक्ति अन्यों के संबंध में विचार करता रहता है, वह अपने संबंध में विचार करने की बात भूल ही जाता है। और ऐसी शीघ्रता निपट अज्ञान भी है, क्योंकि ज्ञान के साथ होता है धैर्य--अनंत धैर्य।

जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है और जो जल्दी अविचारपूर्वक निर्णय लेने के आदी हो जाते हैं, वे उसे जानने से वंचित ही रह जाते हैं।
एक घटना मैंने सुनी है। पहले महायुद्ध के समय की बात है। एक कमांडर ने अपने सैनिकों को कहाः ‘‘सैनिको, बहुत खतरनाक कार्य के लिए पांच सैनिक चाहिए। उस कार्य में जीवन के बचने की संभावना नहीं है। इसीलिए जो स्वेच्छा से जोखिम उठाने को तैयार हों, वे अपनी पंक्ति से दो कदम आगे आवें।’’ वह अपनी बात पूरी कह भी नहीं पाया था कि एक घुडसवार ने आकर उसका ध्यान बंटा लिया। वह कोई अत्यंत आवश्यक संदेश उसे देने आया था। संदेश को लेने और पढ़ने के बाद उसने आंखें अपनी टुकडी के सैनिकों की ओर उठाईं। उनकी पंक्तियों को अखंड देख, वह क्रोध से भर उठा। उसकी आंखों से चिनगारियां छूटने लगीं और वह चिल्लायाः ‘‘कायरो, नामर्दो, क्या एक भी मर्द तुम्हारे बीच में नहीं है? ’’ उसने और भी गालियां उन्हें दीं। दंड की धमकियां भी दीं, और तभी उसे ज्ञात हुआ कि एक नहीं सारे सैनिक ही दो कदम आगे बढ़ गए थे।
ओशो

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